शुक्रवार, 24 मार्च 2017

मेरी पत्रकारिता के छप्पन वर्ष

श्याम कुमार

गत 2 नवम्बर, 2016 को मेरी पत्रकारिता का 57वां वर्ष आरम्भ हो गया। अर्थात आधी षताब्दी से भी अधिक समय हो गया है। इसी प्रकार 10 नवम्बर, 2016 से मेरी उम्र का 76वां साल षुरू हुआ है। मैं बीस वर्ष का था, जब पत्रकारिता में आया था। आज भी मुझे वह दिन याद है, जब 2 नवम्बर, 1961 को मैंने इलाहाबाद के लीडर प्रेस परिसर में पहली बार कदम रखा था। वहां से देश के दो सुविख्यात राष्ट्रªीय समाचारपत्र ‘भारत’ व ‘लीडर’ प्रकाशित होते थे। ‘भारत’ के नित्य कई संस्करण प्रकाशित होते थे तथा अनेक राज्यों में अखबार का व्यापक प्रसार था। लीडर प्रेस परिसर में ‘भारती भंडार’ नामक प्रसिद्ध प्रकाशन-केंद्र भी था, जहां से प्रायः सभी महान साहित्यकारों की पुस्तकें प्रकाशित होती थीं। उस समय इलाहाबाद पूरे देश का केंद्र-विंदु था तथा शिक्षा, विधि, पत्रकारिता, सांस्कृतिक कार्यकलापों, राजनीति आदि का देश का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता था। जिस दिन मैंने पत्रकारिता में कदम रखा, उस दिन से मेरा जीवन अपना नहीं रहा तथा पूरी तरह पत्रकारिता को समर्पित हो गया। मुझे केवल सोने का समय मिल पाता था, शेष कोई भी समय अपना नहीं था। पारिवारिक परम्परा के अनुसार समाजसेवा के कार्याें में भी बहुत रुचि थी। 1961 में ही जनवरी में अखिल भारतीय सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं समाजसेवी संस्था ‘रंगभारती’ की स्थापना की, जिसके कार्यकलापों की लम्बी श्रृंखला बन गई। ‘रंगभारती’ ने 1961 में इलाहाबाद के परीभवन में देश का पहला हास्य कवि सम्मेलन आयोजित किया तथा अन्य अनेकानेक कार्यक्रमों की पहली बार नींव डाली। 

दैनिक ‘भारत’ के प्रधान सम्पादक शंकर दयालु श्रीवास्तव मेरे पिता जी के मित्र थे तथा मेरे यहां उनका आना होता था। लेकिन मेरी उनसे कभी भेंट नहीं हुई थी। मैं जब हाईस्कूल में था, तभी से मेरी भाशा पूर्णरूपेण मंज चुकी थी तथा अर्धविराम तक की त्रुटि नहीं होती थी। मैं दैनिक ‘भारत’ में ‘पाठकों के पत्र’ स्तम्भ में पत्र लिखा करता था, जिससे प्रधान सम्पादक शंकर दयालु श्रीवास्तव प्रभावित थे। अचानक पिताजी का देहावसान होने के बाद उन्होंने मुझे ‘भारत’ में बुला लिया। उसी वर्ष मैंने एमए किया था। ‘भारत’ में मुझे अपने वरिश्ठों से पत्रकारिता का अत्यंत कठोर प्रशिक्षण मिला। मैंने अपने जीवन में डाॅ. धर्मवीर भारती एवं हेरम्ब मिश्र से अधिक योग्य पत्रकार आजतक नहीं देखे। हेरम्ब मिश्र मेरे वरिष्ठ थे। अवकाशप्राप्त आईएएस अधिकारी अरविंद नारायण मिश्र के बाबा बाबूराम मिश्र भी मेरे वरिश्ठ सहयोगी थे। शंकर दयालु श्रीवास्तव उच्चकोटि के सम्पादक थे तथा उनका बड़ा नाम था। दैनिक ‘भारत’ में वरिश्ठों ने मुझे सीख दी कि पत्रकार के लिए देशहित सबसे बड़ा होना चाहिए। पत्रकारिता भाव, भाशा एवं अभिव्यक्ति का मिश्रण है, यह मेरा सिद्धांत बन गया। मेरे परिवार के अन्य लोग भी पत्रकार हैं तथा हम सबने हमेशा ईमानदारी, आदर्श एवं उच्चकोटि की पत्रकारिता की।

मैं बहुत सम्पन्न घर का था तथा मैंने अपने माता-पिता को हमेशा देते देखा, कभी लेते नहीं देखा। हमारे घर में अनेक रिश्तेदारों के लड़कों को षरण मिली, जिनका अच्छा भविष्य मेरे माता-पिता ने बनाया। उन्हें पढ़ाया और नौकरी लगवाई। दर्जनों गरीब कन्याओं का विवाह कराया। धीरे-धीरे हमारे घर की सम्पन्नता परोपकार की वेदी पर बलि चढ़ती गई। गांव में करोड़ों की जायदाद थी, जिसकी जानकारी पिताजी को ही थी तथा वही देखभाल के लिए वहां जाया करते थे। चकबंदी नहीं हुई थी, अतः उनका अचानक देहांत हो जाने से उस सम्पत्ति का पता ही नहीं लग पाया। माता-पिता से परोपकार एवं समाजसेवा के संस्कार मुझे भी मिले, जो नशे की तरह मुझमें समा गए तथा ‘घर फूंक तमाशा देख’ सिद्ध हुए। मेरी सारी कमाई उनमें खर्च होती गई। सरकार से मुझे कभी मदद नहीं मिली। मैंने तमाम लड़कों की नष्ट हो रही जिंदगी बचाकर उन्हें अच्छी जिंदगी दी और उज्ज्वल भविष्य बनाया। किन्तु किसी ने एहसान नहीं माना और कुछ ने तो न केवल बहुत क्षति पहुंचाई, बल्कि प्राणलेवा वेदनाएं दीं। केवल एक व्यक्ति ऐसा है, जिसने एहसान माना। वह व्यक्ति एक भिक्षा मांगने वाले का पुत्र था, जो मेरी मदद पाकर डाॅक्टर बन गया और अब अत्यंत वरिश्ठ डाॅक्टर है। 

लीडर प्रेस सुविख्यात उद्योगपति घनश्याम दास बिरला का था तथा उतना विशाल परिसर देश के किसी समाचारपत्र के पास नहीं था। उसमें पत्रकारों के लिए आवासीय बंगले भी बने हुए थे। उस समय मेरा दिल्ली, मुम्बई व अन्य महत्वपूर्ण नगरों में प्रायः जाना होता था तथा सभी जगह अखबारों में पत्रकारों व सम्पादकों से मेरी घनिष्ठता थी। जितने अधिक योग्य पत्रकार ‘भारत’ में थे, उतने कहीं भी नहीं थे। हेरम्ब मिश्र, कुसुम कुलश्रेष्ठ, कृष्ण बिहारी श्रीवास्तव पत्रकारिता के बेजोड़ रत्न थे। वहां विश्वम्भर नाथ जिज्जा थे, जो पत्रकारिता ही नहीं, पुरानी राजनीतिक गतिविधियों के भी जीवंत इतिहास थे। हिन्दी की पहली कहानी उन्होंने लिखी थी। जब मैं ‘भारत’ परिवार में षामिल हुआ, जिज्जा जी 75 वर्ष के थे तथा स्वभाव के बड़े कड़क थे। मजाल नहीं था कि कोई नया पत्रकार टेलीप्रिंटर छू ले। लेकिन ‘भारत’ में अधिकांश पत्रकार घोर अर्थाभाव में थे। मैं सम्पन्न परिवार का था, इसलिए उस गरीबी को देखकर दहल गया था। उस समय अधिकांश समाचार ‘पीटीआई’ व ‘यूएनआई’ से टेलीप्रिंटर पर अंग्रेजी में आते थे। ‘हिन्दुस्थान समाचार’ व ‘नाफेन’ आदि समाचार हिन्दी में भेजते थे, किन्तु उनकी मात्रा नगण्य थी। सम्पादकीय मेज पर हर पत्रकार को नित्य अंग्रेजी से हिन्दी में चार काॅलम समाचार अनुवाद करना होता था। 

‘भारत’ में अधिकांश सहयोगी कठोर परिश्रमी थे। सामान्य ड्यूटी में कठिन परिश्रम करने के बाद आर्थिक लाभ के लिए वे ‘डबल ड्यूटी’ किया करते थे। जब मैं वहां नया था तो एक दिन मेरे वरिष्ठ सहयोगी गणेश भारती मुझे अनुवाद के लिए थोक में समाचार देते जा रहे थे। मैं बोल पड़ा कि इतनी मेहनत करने पर मर जाऊंगा तो भारती जी ने उत्तर दिया-‘मेहनत करने से कोई नहीं मरता’। उनका वह वाक्य मैंने आत्मसात कर लिया और अस्वस्थता में भी जब तक बिलकुल मजबूर न हो जाऊं, मैं सारे कार्य पूर्ववत करता रहता हूं। पत्रकारिता में मेरी लगन, परिश्रम एवं समर्पण का ही फल है कि मुझे निकट से जानने वाले जो थोड़े लोग बचे हैं, वे आज भी मेरे योगदान को अद्भुत मानते हैं और भूरि-भूरि सराहना करते हैं। मैं हमेशा जनजीवन से निकट रूप में जुड़ा रहा, इसीलिए आम जनता में मुझे सदैव भरपूर सराहना मिली तथा मेरी छप्पन-वर्षीय पत्रकारिता में वही सराहना मेरा सबसे बड़ा सम्मान सिद्ध हुई।

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