गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

कैसे देखें वर्ष 2015 को

 

अवधेश कुमार

दुनिया ईसा संवत 2015 को विदा कर रहा है। हालांकि हमारे यहां भौगोलिक और प्राकृतिक दृष्टि से मान्य संवत हैं जिनके आधार पर वर्ष की उपलब्धियांें-विफलताओं आदि का मूल्यांकन किया जा सकता है। किंतु ग्रिगोनियन कैलेंडर को विश्व भर में मान्यता मिली हुई तो वैश्विक धारा के अनुकूल हम वर्ष का लेखा-जोखा इसी अनुसार करते हैं। 2015 का मूल्यांकन करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि 2014 ने भारत में उम्मीद और आशावाद तथा विश्व क्षितिज पर भारत के नए सिरे प्रभावी राष्ट्र की नींव डाली थी। कोई भी वर्ष अपने पिछले वर्ष की यात्रा से ही आगे बढ़ता है। अगर तिथियां और वर्ष नहीं बनाए गए हों तो हमारे आपके लिए वर्ष परिवर्तन महसूस भी नहीं हो। तो हम यह देखें कि क्या 2014 ने जो आधार देश एवं विदेश के स्तर पर भारत को दिए उसे हमने कितना आगे बढ़ाया, सशक्त किया, कमजोर किया, जो धारायें उस समय दिख रहीं थीं वो उसी अनुरुप आगे बढ़ीं या उनमें अलग परिलक्षित होने वाले मोड़ आए.......?

हम चाहे जितने निराशावादी हों, यह तो स्वीकारना होगा कि 2015 का अंत राजनीतिक तनावों और संसदीय कार्यवाही में बाधा डालने जैसे एकाध पहलुओं को छोड़ दंें तो कम से कम निराशा और नाउम्मीदी में नहीं हो रहा है। यह हर भारतवासी के लिए संतोष का विषय होना चाहिए। हमारी आर्थिक गति अगर कुलांचे नहीं मार रहीं हैं तो मंदी का शिकार भी नहीं है। दुनिया की एजेंसियां भारत को एक बेहतर विकास और निवेश के स्थल के रुप में चिन्हित कर रहीं हैं। सबसे तेज विकास दर पाने वाले देश के रुप में भारत का नाम है। आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर देखें तो जम्मू कश्मीर के बाहर गुरुदासपुर में जेहादी आतंकवाद के विस्तार ने हमें अवश्य भयभीत किया, मणिपुर में असम रायफल्स पर खूनी हमला भी सुरक्षा पर करारा आघात के रुप में आया, पर इसके अलावा पूरा वर्ष बड़े आतंकवादी हमलों से बचा रहा। मुंबई हमले के बाद पहली बार जम्मू कश्मीर में तीन जिन्दा पाकिस्तानी आतंकवादी पकड़े गए। हमारे सुरक्षा बलांें ने म्यान्मार के मौन समर्थन से सीमा पार जाकर जो सफल कार्रवाई की, नगा आतंकवादियों को हताहत किया, उनकी कमर तोड़ी वह इसके पहले अकल्पनीय था। अपने स्वभाव के अनुरुप कुछ लोगों ने इस पर प्रश्न उठाए किंतु कार्रवाई हुई असफ रायफल के हमलावरांें से बदला ही नहीं लिया गया, उनकी कमर तोड़ी गई। इससे देश में राष्ट्वाद के उत्साह का आलोड़न पैदा हुआ। इससे यह विश्वास पैदा हुआ कि भारत भी सीमा पार जाकर कार्रवाई कर सकता है। इसी ने पाकिस्तान को इतना आशंकित कर दिया कि उसकी ओर से बयान आने लगे कि उसे म्यान्मार न समझे भारत। माओवादी हमले पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग आधा रहा। तो आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर स्थिति 2014 के मुकाबले बेहतर मानी जा सकती है।

विदेश नीति के स्तर पर भी हम 2015 की उपलब्धियों को नकार नहीं सकते। भारत की पहल पर चार देशों भारत, भूटान, नेपाल, बंगलादेश के बीच मोटरवाहन समझौता ऐतिहासिक है। इससे इन देशों के बीच मोटरवाहन से आवाजाही एवं कार्गो के सीधे पहुंचने का रास्ता साफ हुआ। इसे आगे और विस्तारित कर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों तक विस्तारित करना है। पाकिस्तान जब इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो उसे छोड़कर भारत ने इनके साथ समझौता किया और इस पर काम हो रहा है। सड़क मार्ग से जुड़ने के मायने यह हैं कि जैसे हम अपने देश में एक जगह से दूसरे जगह वाहन से जा सकते हैं वैसे ही इन देशों में भी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बंगलादेश यात्रा शत-प्रतिशत सफल रही। जो भूमि विवाद थे उनकी अदला- बदली से निपटारा हो गया। अगर तिस्ता जल विवाद सुलझ जाए तो बंगालदेश के साथ प्रत्यक्ष कोई विवाद का मुद्दा रहेगा ही नहीं। आतंकवाद से संघर्ष में भी वह हमारी मदद कर रहा है। उल्फा के संस्थापक अनूप चेतिया को सौंपा जाना इसका प्रमाण है। श्रीलंका में चुनाव के बाद आई श्रीसेना की सरकार के साथ भारत के संबंध उतने ही बेहतर हुए है जितने होने चाहिए। चीन के प्रति उसका झुकाव कम हुआ है और भारत के प्रति बढ़ा है। अगर मोदी ने श्रीलंका की यात्रा की तो राष्ट्रपति बनने के साथ श्रीसेना ने पहली यात्रा भारत की ही की। तमिल मामलों के समाधान की दिशा में भी भारत भूमिका निभा रहा है। दोनों देशों बीच पुल बनाने पर सहमति हो चुकी है। ऐसा हो जाता है तो यह संपर्कों के मामले मंें ऐतिहासिक बदलाव होगा। भूटान से संबंध अब सामान्य पटरी पर आ गए हैं। वहां से भी चीन का दखल लगभग खत्म हुआ है। हां, नेपाल के साथ संबंधों में अवश्य अल्पकालिक तनाव आया है। इसमें हमारे पास कोई चारा नहीं है। मधेसियों की अनदेखी कर जो संविधान बना उसका भारत समर्थन कर नहीं सकता और भारत के सुझाव को जिस ढंग से वहां के नेताआंें ने अंध राष्ट्रवाद का मुद्दा बनाया उस पर प्रतिक्रिया दिए बिना भारत अड़ा रहा है। उसके परिणाम अब आने लगे हैं। नेपाल को महसूस हो गया है कि चीन भारत का विकल्प नहीं हो सकता है। यह भविष्य के लिए नेपाल को सीख की तरह है।

दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा जटिलता पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में रहता है। आरंभ तो तनाव से हुआ लेकिन अंत फिर एक उम्मीद और आशावाद से हुआ है। 29 नवंबर को पेरिस में नवाज शरीफ से प्रधानमंत्री मोदी की अनौचारिक मुलाकात के बाद गाड़ी इतनी तेजी से आगे बढ़ी है जिसकी कल्पना नहीं थी। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का काबुल से लौटते हुए लाहौर जाना वर्ष के अंत की ऐसी घटना जिसकी व्यापक चर्चा हो चुकी है। देखते हैं 2015 का यह सुखद अंत 2016 में कहां ले जाता है। एक बड़ी सफलता इस क्षेत्र में अफगानिस्तान के साथ संबंधों में हुई। भारत ने कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं को समय पर पूरा करके सौंपा है जिनमें संसद भवन भी है। अफगानिस्तान का झुकाव पाकिस्तान की ओर हुआ था लेकिन आतंकवाद में अपेक्षित मदद न मिलने से उसका मोहभंग हुआ और भारत की ओर वह पूरे विश्वास और उम्मीद से मुड़ा है। प्रधानमंत्री की यहां सिचिल्स से लेकर मौरिशस, चीन,दक्षिण कोरिया, जर्मनी, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस,  अमेरिका, रुस सहित मध्य एशिया के दौरों की यहां विस्तार से चर्चा संभव नहीं। इतना ही कहना पर्याप्त है कि विदेश नीति के मामले में भारत को इच्छित सफलताएं मिली हैं, सम्मान और साख में वृद्धि हुई है। पेरिस जलवायु सम्मेलन में भारत गरीब व विकासशील देशों की आवाज बनकर उभरा।

घरेलू राजनीति की ओर लौटें तो 2014 यदि नरेन्द्र मोदी के लिए चुनावी सफलताओं का वर्ष था तो 2015 में दिल्ली और बिहार के चुनाव में पराजय ने यह संदेश दिया है कि उन्हें सरकार से लेकर पार्टी के चेहरे और चरित्र में काफी बदलाव करने की आवश्यकता है। कांग्रेस के लिए बिहार में गठबंधन के सहयोग से 27 सीटों पर मिली विजय प्राणवायु की तरह आया है। गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में भी उसे सफलता मिली है। लालू यादव की पार्टी की सफलता को राजनीति में किस तरह लिया जाए यह अपने-अपने मत पर निर्भर करता है। हां, यह कहा जा सकता है कि मोदी के नेतृत्व में 2014 में राजनीति मंें जो पैराडाइम शिफ्ट की स्थिति पैदा हुई थी, युगान्तकारी मोड़ नजर आया था उसे 2015 ने आगे नहीं बढ़ाया। हालांकि 2014 में मोदी सरकार आने के बाद संसद की कार्यवाही जितने सुचारु रुप से चली, 2015 के बजट सत्र तक ऐसा लगा कि पिछले करीब चार लोकसभाओं और उसके काल की राज्य सभाओं के नकारात्मक दृश्य बदल जाएंगे। किंतु 2015 के अंत में हमारी संसद फिर वहीं खड़ी है। देश नेताओं से संसद में उनकी नीति निर्माण और बहस की अपेक्षा करता है लेकिन 2015 यह संकेत नहीं देता कि ये पूरी होंगी। तो 2014 ने संसद को लेकर जो उम्मीद पैदा की थी वह 2015 में कायम नहीं रही है। यह इस वर्ष का अत्यंत दुखद और चिंताजनक पक्ष है। इसकी जड़ राजनीतिक दलों की सतत गिरावट में निहित है जिसके विरुद्व 2014 के आम चुनाव मंे देश के बड़े भाग में विद्रोह हुआ था। क्या 2015 की यह स्थिति 2016 मंें फिर कुछ वैसी ही स्थिति पैदा करेगी?

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

नाबालिग अपराधी को बालिग बनाने का अर्थ

 

अवधेश कुमार

जुवेनाइल यानी किशोरों या नाबालिगों के अपराध से संबंधित विधेयक के पारित होने के बाद इसका कानून बनना निश्चित है। अगर राज्य सभा में करीब 5 घंटे चली चर्चा को ही आधार बनाएं तो इस पर एक राय नहीं है। यही स्थिति समाज की भी है। विधयेक पारित होते समय वाम दलों ने बहिर्गमन किया। कुछ सांसदों ने यह प्रश्न भी उठाया कि आखिर जल्दी क्या है? इसे सेलेक्ट कमिटी को भेजने की भी मांग उठी। किंतु जो माहौल बन गया था उसमें ज्यादातर दलांे के बीच एकता कायम हो गई थी और यह पारित हो गया। इसके कानून बनाने के बाद बलात्कार, हत्या और एसिड अटैक जैसे जघन्य अपराध के मामले में 16 साल से कम उम्र के ही लोगों को नाबालिग माना जाएगा। 16 साल या उससे ज्यादा उम्र के अपराधी को बालिग माना जाएगा। जिस तरह 16 दिसंबर 2012 को निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद जन दबाव में महिलाआंे के विरुद्ध अपराध को लेकर कड़े कानून बना ठीक उसी तरह इस मामले में भी हुआ है। वैसे भी उस बर्बर दुष्कर्म कांड के एक मुख्य अपराधी को 18 वर्ष के न होने के कारण जिस ढंग से एक दिन भी जेल में न गुजारना पड़ा एवं वह बाल सुधार गृह में तीन साल पूरा करते ही रिहा हो गया उसके खिलाफ सामूहिक आक्रोश देश भर में देखा गया है।

इस आधार पर विचार करें तो कहना होगा कि यह कानून देश के सामूहिक आक्रोश का स्वाभाविक प्रतिफल है। हालांकि हम यह पक्ष न भूलें कि कोई घटना होने के बाद तात्कालिक भावावेश में आकर हम जो कानून बनाते है तो वह स्थायी हो जाता है। उसके दुरुपयोग और दुष्परिणाम की संभावना हमेशा रहती है। निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा समिति ने जो सिफारिशें की थीं उनमें कानून के प्रावधानोें के साथ किशोर वा नाबालिगों के जघन्य अपराधों में शामिल होने के कानून में बदलाव की भी अनुशंसा की गई थी। इस अनुशंसा के अनुरुप लोकसभा में तो यह पारित हो गया था लेकिन राज्य सभा मेें रुक गया था जो अब पारित हुआ है। जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट, 2000 के मुताबिक, 16 से 18 साल के दोषी किशोर को सजा के बाद केयर एंड प्रोटेक्शन यानी सुधारने के प्रयास तथा सुरक्षा दिया जाता है। इस कानून के मुताबिक, तीन साल तक की सजा हो सकती है। अब नए कानून के तहत गंभीर अपराधों में नाबालिग अपराधी (16 से 18 साल का) पर भी वयस्क अपराधी की तरह ही मुकदमा चलाया जाएगा। हालांकि इसके लिए देश के हर जिले में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी) और चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्ल्यूसी) बनाई जाएगी। जेजेबी शुरुआती जांच के बाद यह तय करेगा कि नाबालिग अपराधी को करेक्शन होम (सुधार गृह) में भेजा जाए या नहीं। जांच में नाबालिग की मानसिक और शारीरिक अवस्था का भी विश्लेषण किया जाएगा। उसके बाद न्यायालय तय करेगा कि उस पर वयस्क की तरह केस चलाया जाए या नहीं।

यह बात पहली नजर में सही लगता है कि अगर 16 वर्ष से 18 वर्ष तक का कोई किशोर ठीक उसी प्रकार अपराध को अंजाम देता है जैसा वयस्क तो उसे बच्चा मानकर आप सजा से वंचित कैसे कर सकते हैं। इससे इस उम्र के लोगों में आपराधिक मनोवृत्ति वाले का दुस्साहस बढ़ता है और वे बड़े अपराध कर सकते हैं। ऐसे कड़े कानून के समर्थकों का मानना है कि अगर सजा होने लगे तो वे अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। वैसे भी आपराधिक समूह इस उम्र के युवाओं से अपराध कराने में दिलचस्पी लेते हैं। निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड में कुल छह लोग दोषी पाए गए थे। इनमें से एक ने तिहाड़ जेल में खुदकुशी कर ली थी। बाकी दोषी जेल में हैं। आरोपियों में से जो एक घटना के वक्त नाबालिग था अब बालिग हो चुका है उसे तीन साल सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया। केवल 170 दिन कम होने के कारण ही इसे सजा नहीं मिली। दिल्ली उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय भी उसकी रिहाई रोक न सका। न्यायालय कानून के अनुसार ही सजा देगा और वह चाहे तो कानून में बदलाव की टिप्पणी कर सकता है। दोनों न्यायालयों ने बदलाव के लिए कोई टिप्पणी नहीं की। 18 वर्ष के नीचे के अभियुक्तों के बारे में सुधार गृह की कल्पना इसीलिए की गई थी कि इस उम्र में अच्छे-बुरे, गलत-सही की परिपक्व सोच विकसित नहीं होती, इसलिए अपराध करने पर भी उसे सुधरने का मौका दिया जाए ताकि आगे वह एक बेहतर नागरिक के रुप में शेष जीवन जी सके। यह भी सही सोच थी और है। जिसके साथ या जिसके परिजन के विरुद्ध ऐसे लोग अपराध करते हैं उनका गुस्सा स्वाभाविक है, लेकिन ऐसी कुछ घटनाओं के आधार पर स्थायी कानून बना देना भी पूरी तरह विवेकसंगत निर्णय नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए राज्य सभा में तृणमूल कांग्रेस के सदस्य डेरेक ओ ब्रेन ने कहा कि मेरी बेटी के साथ ऐसा होता तो मैं गोली मार देता। संसद में इस प्रकार के शब्दों की इजाजत नहीं है, लेकिन इसे ही भावावेश कहते हैं। भावावेश के आधार पर कानून निर्माण की प्रक्रिया खतरनाक है।

भावावेश में ही निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद कठोरतम कानून बना और उसके सद्परिणाम कितने आए इसका भले प्रमाण नहीं हो, लेकिन दुष्परिणाम आ रहे हैं। न्यायालयांे की इन तीन सालों में न जाने कितनी टिप्पणियां आ चुकीं हैं कि उस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। इस कानून का उद्देश्य था, महिलाआंे की रक्षा, महिलाओं के साथ दुराचार करने वाले अपराधियों की सजा को सुनिश्चित करना तथा भावी अपराधी भय से अपराध न करें ऐसा वातावरण बनाना। यानी कानून का भय। इसका कुछ असर हुआ होगा किंतु तथ्य यह भी हैं कि महिलाओं द्वारा ही कानून का नाजायज इस्तेमाल किया गया है। जघन्य अपराधों को अंजाम देने वाले नाबालिग को बालिग माने लेने का क्या परिणाम आता है यह भी हमें देखना होगा। किंतु कई सांसदों ने इसके प्रति आगाह भी किया। यह ठीक है कि नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले अपराध में वृद्धि हुई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2003 से 2013 तक कुल अपराध में इनका अनुपात 1 प्रतिशत से बढ़कर 1.2 प्रतिशत हो गया है। 16 से 18 वर्ष की उम्र वालों द्वारा किए जाने वाले अपराध में 12 प्रतिशत की वृद्धि (54 से 66) हुई है। हालांकि विरोधी इस आंकड़ा को गलत बताते हैं, पर इसके आधार पर हम आप कुछ भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इसमें कई पहलू अभी अप्रमाणित हैं। जैसे यह कहा जा रहा है कि सुधारगृह में सजा खत्म होने के बाद उसके दोबारा अपराध करने कि गुंजाइश है, पर इस मान्यता के पक्ष में न कोई शोध है न ठोस आंकड़े ही। वास्तव में एक बार अपराध करने के बाद कितने नाबालिग दोबारा अपराध करते हैं या उनमें सुधार हो जाता है, इस पर आज तक कोई ठोस शोध नहीं किया गया है।

अगर हम विदेशों का उदाहरण लें तो संयुक्त राज्य अमेरिका में किशोर या बाल अपराधियों के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून हैं। अधिकांश राज्यों में 16, 17 और 18 साल की उम्र के बाद वाले अपराधियों को वयस्क अपराधी माना जाता है। न्यूयार्क और नॉर्थ कैरोलिना में 17 साल से कम उम्र के किशोर अपराधियों को सजा के तौर पर काउंसिलिंग और सुधारगृह भेजने की व्यवस्था है। फ्रांस के कानून में 13 से 18 वर्ष के किशोर अपराधियों को अपराध की गंभीरता के हिसाब से सजा देने का प्रावधान है। इस उम्र का कोई किशोर यदि जघन्य अपराध करता है तो उसे सजा के लिए वयस्क माना जाएगा जबकि हल्के अपराध करने पर सुधारगृह भेजने या काउंसलिंग कराने की व्यवस्था है। ब्रिटेन में भी 10 से 17 साल के अपराधयिों को गंभीर अपराध करने पर कुछ समय के लिए सुधारगृह भेजने या काउंसिलिंग कराने का प्रावधान है। जबकि 17 साल से अधिक उम्र के अपराधियों के लिए कोई रियायत नहीं है। चीन में 14 साल से 18 साल तक के किशोरों को नाबालिग अपराधी के तौर पर माना गया है लेकिन अत्यंत गंभीर अपराध करने पर नाबालिग अपराधी को भी आजीवन करावास की सजा का प्रावधान है। इस तरह देखें तो हमारे देश में संभवतः मान्य लोकतांत्रिक देशों में सबसे सख्त कानून बन गया है। किसी भी कानून में व्यक्ति के लिए प्रायश्चित और आत्मोद्धार का पहलू होना चाहिए। यह कानून इससे वंचित है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

सीबीआई कार्रवाई पर ऐसा बावेला क्यों

 

अवधेश कुमार

सामान्यतः यह कल्पना नहीं की जा सकती कि किसी सरकारी अधिकारी के कार्यालय पर सीबीआई द्वारा छापा मारना या उससे पूछताछ करना राजनीति में पक्ष और विपक्ष के बीच टकराव का बड़ा मुद्दा बन जाएगा। अगर आम आदमी पार्टी की प्रतिक्रियाओं तथा उनके समर्थन में उठने वाली अन्य दलों की आवाजों को कुछ समय के लिए परे रख दें तो यह एक सामान्य घटना लगेगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार सहित अन्य 6 लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। सीबीआई उसकी जांच में 14 जगह छापा मारती है जिनमें राजेन्द्र कुमार का कार्यालय भी शामिल है। वह सभी जगहों से कुछ कागजातें, फाइलें, रुपए कम्प्युटर आदि जब्त करती है तथा आरोपियों से पूछताछ करती है। सीबीआई कहती है कि चूंकि राजेन्द्र कुमार पूछताछ में सहयोग नहीं कर रहे हैं, इसलिए उनको वह ले जा रही है। पूछताछ के बाद रात में उनको छोड़ दिया जाता है। फिर उन्हें दोबारा बुलाया जाता है और उनसे पूछताछ होती है। यह सीबीआई या किसी जांच एजेंसी की कार्रवाई की सामान्य प्रक्रिया है। किंतु आम आदमी पार्टी तथा दिल्ली सरकार ने इसे ऐसा मुद्दा बना दिया है मानो एक अधिकारी की नहीं पूरी सरकार की छानबीन हो रही है। इसे केन्द्र सरकार बनाम दिल्ली सरकार के बीच टकराव का ऐसा मुद्दा बना दिया गया है जिससे देश में संदेश यह जा रहा है कि वाकई केन्द्र की ओर से दिल्ली सरकार के खिलाफ कुछ किया जा रहा है। तो सच क्या हो सकता है?

यह कहना मुश्किल है कि राजेन्द्र कुमार भ्रष्ट हैं या नहीं। जो कुुछ जानकारी हम लोगों के पास आई है उसके अनुसार उनके खिलाफ भारतीय दंड विधान तथा भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। उनके अलावा इंटेलिजेंट कम्युनिकेशन सिस्टम इंडिया लिमिटेड (आईसीएसआईएल) के पूर्व प्रबंध निदेशकों ए के दुग्गल और जीके नंदा, आईसीएसआईएल के प्रबंध निदेशक आरएस कौशिक, एनडीवर सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड के निदेशकों संदीप कुमार और दिनेश के गुप्ता और उक्त फर्म का नाम आरोपी के रूप में दर्ज है। आरोप है कि राजेन्द्र कुमार ने विभिन्न पदों पर रहते हुए इनको ठेके और काम दिलवाने में अपने पद का दुरुपयोग किया तथा अवैध लाभ कमाए। ट्रांसपरेंशी इंटरनेशल के भारत स्थित कार्यकारी निदेशक आशुतोष मिश्रा ने पूरे हंगामे के बीच जो बयान दिया वह आम आदमी पार्टी के शोर में खो गया है। इनका कहना है कि एक व्हिसलब्लोअर ने राजेन्द्र कुमार के खिलाफ दस्तावेजों के साथ मुख्यमंत्री से मुलाकात कर मई में ही शिकायत किया था। मुख्यमंत्री ने इसे अस्वीकार कर दिया। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल का कहना है कि संस्था ने स्वयं 27 जुलाई 2015 को दस्तावेजी साक्ष्य के साथ मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को पत्र लिखा। उसके अनुसार उसमें राजेन्द्र कुमार के तथाकथित काले कारनामों का जिक्र था। इसका कोई जवाब संस्था को नहीं मिला। दिल्ली संवाद आयोग के पूर्व सदस्य सचिव आशीष जोशी ने पहले भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को मामला दिया, फिर सीबीआई को। 13 जुलाई 2015 को सीबीआई को पूरा दस्तावेज दिया गया। जाहिर है, सीबीआई ने पूरे पांच महीने इसमें लिए तो उसने कुछ जांच वगैरह किया होगा। जानकारी के अनुसार राजेंद्र कुमार पर लंबे समय से सीबीआई नजर रखे हुए थी। कुमार के करीब तीन हजार फोन कॉल रिकॉर्ड किए गए। 15 आईएएस अधिकारियों के अलावा दिल्ली सरकार के 35 अधिकारियों से पूछताछ की। इनसे मिले सबूत के बाद दिल्ली सचिवालय में कुमार के दफ्तर पर छापा मारा। सीबीआई से ये पूछा गया कि राजेंद्र कुमार ने जो गड़बड़ियां की थीं, वे दूसरे विभागों में रहते हुए की। अब बतौर प्रिंसिपल सेक्रेटरी उनके दफ्तर में छापे क्यों मारे गए? इस पर सीबीआई का कहना है कि 3000 फोन रिकॉर्डिंग और 50 अफसरों से मिले सबूतों के बाद हमें पुख्ता जानकारी मिली थी कि कार्रवाई से बचने के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण फाइलें इसी कार्यालय में रखी हैं। राजेन्द्र कुमार शिक्षा निदेशक, सूचना तकनीक विभाग में सचिव, स्वास्थ्य सचिव, वैट आयुक्त आदि पदों पर रहे और उनके खिलाफ इन सभी पदों पर भ्रष्ट आचरण की शिकायत है। सीएनजी फिटनेस मामला भी है। आरोप है कि सीएनजी किट लगाने का ठेका इनने बिना टेंडर के ही दे दिया था।

हां, ये सब आरोप हैं और आरोप पर हम आप अंतिम निष्कर्ष नहीं दे सकते। आम आदमी पार्टी और स्वयं केजरीवाल अगर उनको ईमानदार और सदाचारी होने का प्रमाण पत्र दे रहे हैं तो यह बहुत बड़ा जोखिम है। इसके पहले अपने एक मंत्री के बारे में वे ऐसे ही दावे कर रहे थे। पुलिस की छापेमारी और गिरफ्तारी को भी राजनीतिक बदले की कार्रवाई बता रहे थे। बाद में मुख्यमंत्री ने स्वयं कहा कि संबंधित मंत्री ने उनको अंधेरे में रखा। सवाल है कि आप किसी को इस स्तर पर जाकर भ्रष्ट न होने का प्रमाण पत्र कैसे दे सकते हैं? कल उस पर आरोप प्रमाणित हो गया तो? आज आप इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई कह रहे हैं। कैसे हो सकता है यह राजनीतिक बदले की कार्रवाई इसे भी समझना जरा मुश्किल है। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तथा उनके साथियों के इस आरोप से भी सहमत होने का ठोस कारण नजर नहीं आता कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इशारे पर ऐसा किया गया है। आखिर प्रधानमंत्री की एक अधिकारी की जांच में निजी अभिरुचि क्यों हो सकती है? जाहिर है, दिल्ली सरकार एवं आम आदमी पार्टी की ओर से सब कुछ उत्तेजना में किया गया है।

उत्तेजना मेें जिस तरह की भाषा दिल्ली सरकार एवं आम आदमी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए जिस तरह का शब्द प्रयोग किया जा रहा है वह भी आपत्तिजनक है। मुख्यमंत्री होते हुए केजरीवाल ने ट्विट करके प्रधानमंत्री के लिए कायर एवं मनोरोगी जैसे शब्द प्रयोग किए वह अस्वीकार्य राजीतिक व्यवहार है। इस तरह के शब्दों के लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं हो सकता। राजनीति में विरोध करने के लिए भी शब्दों की मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरुद्ध हीरो बनकर यहां तक पहंुचे हैं। उनकी पार्टी की वेबसाइट पर लिखा है कि सीबीआई को बगैर राजनीतिक आकाओं से अनुमति के छापा मारने और कार्रवाई करने का अधिकार होना चाहिए। यहां वे कह रहे हैं कि उनको इसकी सूचना क्यों नहीं दी गई? इसे हम इस तरह भी ले सकते हैं कि उनसे अनुमति क्यों नहीं ली गई? उच्चतम न्यायालय ने साफ कर दिया है कि सीबीआई को संयुक्त सचिव या सचिव स्तर के अधिकारियों से पूछताछ के लिए राजनीतिक आदेश प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। सीबीआई के लिए छापा के पहले किसी तरह की पूर्व सूचना देना अनिवार्य नहीं है। इसकी जांनकरी लीक होने की संभावना रहती है। छापा हमेशा अचानक ही पड़ता है। केजरीवाल का यह भी आरोप है कि उन्होंने दिल्ली डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन की जो जांच कराई है उसमें वित्त मंत्री अरुण जेटली फंस रहे हैं, इसलिए वो ऐसा कर रहे हैं। हालांकि अब उन्हीं के माध्यम से आया है कि वह फाइल सीबीआई नहीं ले गई। हां, उनका आरोप है कि पता नहीं उसकी फोटो कोपी ले गए कि नहीं?

सच तो यह है कि मुख्यमंत्री या किसी मंत्री के कार्यालय पर कोई छापा मारा ही नहीं गया। मारा जा भी नहीं सकता था। दिल्ली सरकार के खिलाफ या मुख्यमंत्री पर कोई कार्रवाई होने का प्रश्न कहां से पैदा होता है। अभी तक मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है, उन पर किसी तरह की प्राथमिकी भी दर्ज नहीं है न तत्काल इसकी कोई संभावना है। ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री सहित सरकार के मंत्रियों और पार्टी नेताओं का बार-बार यह कहना कि निशाना राजेन्द्र कुमार नहीं केजरीवाल हैं, उनके कार्यालय की छानबीन की गई बिल्कुल निराधार है। वास्तव में उत्तेजना और विरोध अनावश्यक है तथा अमान्य शब्दों का प्रयोग समझ से परे है। अगर एक अधिकारी को लेकर भ्रष्टाचार की शिकायत है और उसके लिए सीबीआई न्यायालय से सर्च वारंट हासिल कर लेती है तो फिर उसमें दिल्ली सरकार और आप को क्या समस्या है? अगर उस पर आरोप साबित नहीं होगा तो बरी हो जाएगा। कानून को अपना काम करने देना भ्रष्टाचार के विरुद्व कार्रवाई का हिस्सा है। इसके पूर्व अनेक राज्यों में अधिकारियों के यहां छापे पड़े, उनके घरों से ऐसे ही कागजात व सामग्रियां बरामदगी हुईं, उनसे पूछताछ हुई, पर किसी सरकार ने अपने अधिकारी के लिए इस तरह का संघर्ष नहीं किया जैसा दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार कर रही है। उसमें भी जिसे देखों सब सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ही नाम लेता है। क्यों? इसका क्या अर्थ है? हर विषय में प्रधानमंत्री को ही निशाना बनाना अपने आपमें राजनीतिक रणनीति है जिसका उद्देश्य कतई अच्छा नहीं हो सकता। कुल मिलाकर पूरी स्थिति चिंताजनक है। आखिर अगर प्रदेश की सरकारें, राजनीतिक दल इस तरह केन्द्रीय जांच एजेंसी की कार्रवाई का, जिसमें तत्काल कुछ गलत नहीं दिख रहा है, विरोध करेंगी तो फिर एजेंसियां कैसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होकर काम कर सकेंगी? यह ऐसा प्रश्न है जिस पर हम सबको विचार करना होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

रविवार, 13 दिसंबर 2015

284 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई

संवाददाता

 
नई दिल्ली। आज नई पीढ़ी-नई सोच(पंजी) संस्था की ओर से हर बार की तरह इस बार भी पल्स पोलियो टीकाकरण कैम्प लगाया गया जिसमें 284 बच्चों ने पोलियो की दवा पी। यह कैम्प संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लिनिक बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में लगाया गया। इस कैम्प का उद्घाटन संस्था के सरपरस्त श्री अब्दुल खालिक ने किया। उनके साथ संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन भी मौजूद थे।
कैम्प में बच्चों को पोलियो की ड्राप्स सुबह 9 बजे से ही पिलाईं जाने लगी थी और शाम 4 बजे तक 284 बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाईं गईं। संस्था के पदाधिकारियों और सदस्यों ने घर-घर जाकर लोगों को पोलियो ड्राप्स पिलाने के लिए प्रोरित किया और पोलियो की ड्राप्स न पिलाने के नुकसान बताए।
अब्दुल खालिक ने कहा कि संस्था हमेशा हर तरह के राष्ट्रीय प्रोग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है और बीच-बीच में जनता को भी इन प्रोग्राम के प्रति जागरूक करती है। संस्था के सदस्यों ने आज पूरी दिन लोगों के घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो केंद्र पर 0-5 वर्ष के बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाने के लिए कहा।
संस्था के अध्यक्ष साबिर हुसैन ने कहा कि हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम लोगों की मदद करते रहें, क्योंकि दूसरों की मदद करने में जो शुकून मिलता है वह और किसी दूसरे काम में नहीं मिलता।
संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि सरकार द्वारा चलाईं जा रही मुहिम को हम जनता तक पहुंचा रहे हैं। आज पोलियो जड़ से खात्मे की ओर जा चुका है दूसरी बीमारियों पर भी सरकार जल्द कामयाबी हासिल कर लेगी और कुछ बीमारियों पर कामयाबी हासिल कर चुकी है।
इस अवसर पर सरपरस्त अब्दुल खालिक, संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन, मौ. रियाज, डॉ. आर. अंसारी, आजाद, अंजार, मौ. सज्जाद, नासिर सुल्तान, शान बाबू, इरफान आलम, मो. सहराज यामीन, विनोद, अब्दुल रज्जाक आदि मौजूद थे।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

कांग्रेस के इस रवैये का अर्थ क्या है

 

अवधेश कुमार

नेशनल हेराल्ड मामले पर जिस ढंग से कांग्रेस ने संसद के दोनों सदनों में हंगामा किया है तथा संसद के बाहर जो रवैया अपनाया हुआ है वह अस्वाभाविक नहीं है। सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी को कठघरे में खड़ा करने की किसी भी घटना पर कांग्रेस विरोध की अंतिम सीमा तक जाएगी यह निश्चित है। इसलिए इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि कांग्रेस जो कुछ कर रही है या सरकार पर बदले की कार्रवाई का जो आरोप लगा रही है उसे सही मान लिया जाए। वास्तव में इस मामले पर सतही नजर रखने वाला भी कह सकता है कि अभी तक सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं है। नेशनल हेराल्ड मामले के सारे पहलू सामने लाए जा चुके हैं, इसलिए इसके बारे में यहां विस्तार से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। यंग इंडिया कंपनी बनाकर नेशनल हेराल्ड को उसके अंदर लाने की पूरी प्रक्रिया कानूनी रुप से सही थी, गलत थी, कंपनी नियमों का इसमें पालन हुआ या नहीं इसका फैसला न्यायालय करेगी। हालांकि निचले न्यायालय ने सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी को सम्मन जारी करते समय तथा दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले को खारिज करने की अपील अस्वीकारते हुए जो टिप्पणियां की हैं उनमें ऐसा बहुत कुछ है जो तत्काल सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मोतीलाल वोरा, ऑस्कर फर्नांडिस, सुमन दुबे एवं सैम पित्रोदा की भूमिका को कानूनी तरीके से संदेह के घेरे में लाती है। इससे कांग्रेस की परेशानी समझ में आ सकती है।

लेकिन इस विषय पर संसद की कार्यवाही बाधित करने का क्या अर्थ है? न्यायालय ने अगर सम्मन जारी किया है तो क्या सरकार वहां उपस्थित होकर कहे कि आप अपना सम्मन वापस ले लीजिए? यदि दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले को समुचित छानबीन एवं न्यायालय में चलाने लायक करार दिया है तो वहां सरकार क्या कर सकती है? क्या सरकार दिल्ली उच्च न्यायालय से अपना फैसला बदलने के लिए आवेदन करेगी? सोनिया गांधी कह रहीं हैं कि वो इंदिरा गांधी की बहू हैं और किसी से नहीं डरतीं। क्या न्यायालय इस आधार पर फैसला देगा कि सोनिया गांधी देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बहू हैं? क्या सरकार न्यायालय मंे यह अपील करेगी कि ये पं. जवाहरलाल नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी की बहू हैं, इसलिए उनको हर प्रकार के मुकदमे से मुक्त रखा जाना चाहिए? देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी का यह रवैया निश्चय ही चिंताजनक है। सामान्य गरिमामय आचरण तो यही था कि सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी स्वयं आगे आकर कहतें कि अगर न्यायालय ने सम्मन जारी किया है तो हमेें उसका सम्मान करते हुए अपनी बात वहां रखनी चाहिए। उन्हें अपनी पार्टी के लोगों को न्यायालय का मसला संसद से दूर रखने का आग्रह करना चाहिए था। न्यायालय के कदमों का फैसला न तो संसद में हो सकता है और न संसद के निर्णयों का फैसला न्यायालय में। ऐसा होने लगे तो संसदीय लोकतंत्र के तीनों अंगांें का संतुलन ध्वस्त हो जाएगा एवं व्यवस्थागत अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। कांग्रेस की भूमिका इसी दिशा का है।

राहुल गांधी आरोप लगा रहे हैं कि यह स्पष्ट तौर पर राजनीतिक बदले की कार्रवाई है तथा प्रधानमंत्री कार्यालय इसमें सीधे संलग्न है। राजनीतिक बदले की कार्रवाई किस तरह है तथा प्रधानमंत्री कार्यालय किस तरह इसमें लिप्त है इसे भी उन्हें एवं उनकी पार्टी को स्पष्ट करना चाहिए। कांग्रेस का तर्क है कि एक ओर पी. चिदम्बरम के बेटे की कंपनी पर छापा मारा जा रहा है, हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के यहां छापा मारे गए हैं और अब सीधे हमारे नेतृत्व पर मुकदमा। तथ्यों के आधार पर ये सारे आरोप खारिज हो जाते हैं। कारण, ये सारे मामले यूपीए सरकार के समय के हैं। एअरसेल्स मैक्सिस मामला यूपीए के दौरान दायर हुआ। उसी कारण दयानिधि मारन को मंत्री पद से हटना पड़ा। उसमें उनके मंत्री रहते समय उनकी भाई की कंपनी सन टीवी से जिन कंपनियों का लेनदेन हुआ उसमें चिदम्बरम के पुत्र कीर्ति चिदम्बरम की कंपनी भी है। जांच तो होगी। इसमें बदले की कार्रवाई का मतलब क्या है। वीरभद्र सिंह का मामला भी पुराना है। नेशनल हेराल्ड मामला भी सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 2013 में ही दायर किया था। उस समय वे भाजपा में नहीं थे। वैसे भी स्वामी भाजपा में अवश्य हैं, पर वे अंग्रेजी में जिसे वन मैन आर्मी कहते हैं वही हैं। सोनिया गांधी परिवार के खिलाफ वे कई मामले लाते रहे हैं। आज तक उस परिवार या कांग्रेस की हिम्मत नहीं हुई कि वह उनके खिलाफ मुकदमा करे। स्वामी ने चिदम्बरम के खिलाफ भी मुकदमा किया था। 2 जी मामला भी न्यायालय वही लेकर गए थे। अगर नेशनल हेराल्ड को हथियाने का पूरा मामला यदि संदेह में है तो भाजपा क्या किसी पार्टी को इसे न्यायालय में ले जाने का अधिकार है और इसे प्रतिशोध की कार्रवाई नहीं माना जा सकता। न्यायालय तो किसी के प्रभाव में आकर फैसला नहीं लेता। यह मामला प्रवर्तन निदेशालय एवं आयकर विभाग में भी है। अभी तक उनका छापा नहीं हुआ। उनने पूछताछ भी नहीं की है। अगर वो पूछताछ करें तो कांग्रेस फिर हंगामा करेगी। फिर राजनीतिक बदले का रोना रोया जाएगा।

प्रश्न है कि मामला कोई लेकर गया हो, अगर न्यायालय ने उसे मुकदमा चलाने के योग्य समझा, आपको सम्मन जारी कर अपना पक्ष रखने के लिए कहा तो आपको समस्या क्या है? अगर आप अपने को पाक साफ समझते हैं तो न्यायालय में अपना पक्ष रखिए और बरी हो जाइए। यह कम हैरत की बात नहीं है कि कांग्रेस के नेता एवं नामी वकीलों ने भी यहां न्यायालय की भूमिका को प्रश्नों के घेरे में ला दिया है। कांग्रेस एक ओर तो कह रही है कि वह न्यायपालिका का सम्मान करती है दूसरी ओर वह उसके फैसले पर प्रश्न खड़ा करती है। एक ओर कहती है कि वे न्यायालय में उपस्थित होंगे वहीं दूसरी ओर सरकार की भूमिका का आरोप लगाकर ऐसा संदेश दे रही है मानो न्यायालय सरकार की मंशा के अनुसार काम कर रही है। यह अत्यंत ही निंदनीय रवैया है और गंभीर भी। सच कहा जाए तो कांग्रेस का रवैया स्पष्टतः न्यायालय की अवमानना है। कांग्रेस ने यही काम उस समय किया था जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोयला खदान आवंटन मामले में न्यायालय ने आरोपी बनाया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के नेतागण 24 अकबर रोड यानी कांग्रेस मुख्यालय से मनमोहन सिंह के आवास पर मार्च किया था। उस समय भी यही सवाल उठा था कि आखिर कांग्रेस किसका विरोध कर रही है? कारण, यह न्यायालय का आदेश था और वहां भी मामला यूपीए सरकार के कार्यकाल का ही था।

नेशनल हेराल्ड मामले में उच्च न्यायालय ने इतना तो कहा ही है कि शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए तथ्यों एवं बचाव की ओर से दी गई दलीलों के विश्लेषण से पूरे मामले के तौर तरीकों में अपराधिक इरादा दिखता है। इसे गबन माना जाए, आमनत में खयानत या और कुछ इसका फैसला तो छानबीन के बाद ही होगा लेकिन आरोपी नेताओं और कांग्रेस पार्टी प्रश्नों के घेरे में आती है। न्यायालय ने यह सब सरकार के कहने पर तो नहीं लिख दिया है। कांग्रेस के वकील नेताओं के पास उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प खुला हुआ है। संसद में हंगामे से न्यायालय का फैसला तो नहीं बदल जाएगा। कांग्रेस जैसी देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए यह परीक्षण का समय था। उसे दिखाना था कि वह एक साथ न्यायालय का भी सम्मान करती है तथा संसदीय व्यवस्था को बनाए रखने में भी उसकी आस्था है। वह न्यायालय में अपना पक्ष रख सकती थी तथा संसद में कार्यवाही चलने देने में सहयोग करते हुए वह सामान्य विपक्ष की भूमिका निभा सकती थी। इन दोनों कसौटियों पर उसने स्वयं को विफल साबित किया है और यह हमारे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः0112483408,09811027208

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