बुधवार, 30 सितंबर 2015

सिलिकॉन वैली से डिजिटल क्रांति का नाद

 

अवधेश कुमार

यह अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी अमेरिका यात्रा में सबसे ज्यादा दो दिनों का समय सिलिकन वैली में लगाया। सिलिकॉन वैली का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। सूचना तकनीकों, इंटरनेट से लेकर सोशल नेटवर्किंग साइटों की क्रांति यहीं से पूरी दुनिया में फैली है। इसे आविष्कार की नगरी और तकनीक का गढ़ कहा जाता है। सेमिकंडक्टर और इंटिग्रेटेड सर्किट समेत कंप्यूटर के तमाम कल-पुर्जे बनाने वाली कंपनियां यहां हैं। सिलकन वैली की स्मार्टफोन से जुड़ी तकनीक ईजाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका है, रक्षा-अंतरिक्ष क्षेत्र से जुड़े शोध-विकास कार्य भी यहां होते हैं। आजकल सॉटवेयर, ऑपरेटिंग सिस्टम और यूजर इंटरफेस तकनीक के निर्माण पर कंपनियों का ज्यादा जोर है। यह एप्पल,फेसबुक,गूगल,माइक्रोसॉट,एडोब सिस्टम्स,याहू,आईबीएम, लिंक्ड-इन, एमेजॉन, ट्विटर, इंटेल, सिस्को सिस्टम्स, ई-बे, ओरैकल कॉर्पाेरेशन, नेटलिक्स जैसी टेक कंपनियां यहीं हैं। अमेरिका का 40 प्रतिशत औद्योगिक निवेश यहीं से होता है। कई नेता यहां मोदी के पहले जा चुके हैं और वहां के सहयोग से अपने देशों मंें डिजिटल सेवा के द्वारा जीवन शैली में सुधार की कोशिश कर रहे हैं। फिर इस वैली में भारतीय काफी संख्या मंे है। तीन बड़ी कंपनियों के सीईओ गूगल (सुंदर पिचई), माइक्रोसॉट (सत्या नाडेला) और एडोब (शांतनु नारायण) भारतीय हैं। यहां 16 प्रतिशत के करीब टेक स्टार्ट-अप कंपनियों की स्थापना भारतीयों ने की, ज्यादातर कर्मी भी भारत के है।

जाहिर है, दुनिया के अनेक देशों की नजरें मोदी के सिलकॉन वैली यात्रा पर लगी रही होगी कि आखिर वे वहां क्या करते है,बोलते हैं, क्या लेकर वापस आते हैं। कैलिफोर्निया के सैन होज़े में उतरने के साथ ही मोदी का कार्यक्रम आरंभ हो गया था। तकनीकी कंपनियों के शीर्ष सीइओ के साथ डिजिटल डिनर का कार्यक्रम रखा था। उसी में मुलाकात, भाषण, बातचीत सब शामिल थे। मोदी के उस डिजिटल रात्रिभोज में लगभग सभी प्रमुख डिजीटल कंपनियों के सीइओ शामिल हुए। यह उस कार्यक्रम की अपने आप सफलता का बयान करती है। डिजिटल इंडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक प्रमुख सपना है। वे स्वयं इसे जितना महत्व देते है वह जगजाहिर है। यह अकारण नहीं है कि उनने  खासतौर पर अपनी अमेरिका यात्रा के 2 दिन सिलिकन वैली के नाम किए। वे फेसबुक मुख्यालय गए, गूगल मुख्यालय गए...उनकी तकनीकी आधार और कार्य संस्कृति को समझा। फेसबुक मुख्यालय में उसके प्रमुख मार्क जकरबर्ग के साथ चार प्रश्नों के उत्तर दिए, गूगल मुख्यालय में उसके प्रमुख सुन्दर पचाई के साथ छोटा संबोधन दिया। वैसे पिछले 33 वर्षों में सिलिकॉन वैली जाने वाले नरेन्द्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं। मोदी के सैन जोस एयरपोर्ट पर पहुंचते ही कैलिफोर्निया के मेयर सैम लिकार्डाे ने अपनी पत्नी और भारतीय समुदाय के लोगों के साथ उनका स्वागत किया। जाहिर है, मोदी के लिए वहां अनुकूल माहौल बना हुआ था। प्रश्न है कि उन्होंने वहां ऐसा क्या कहा जिससे भविष्य का कुछ आभास मिले? जो कुछ उन्होंने कहा कि उसका उसी प्रकार का प्रभाव हुआ जैसा वो चाहते थे?

डिजीटल इंडिया के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूचना तकनीक और सोशल नेटवर्किंग के बारे में सबसे पहली अपनी सोच को स्पष्ट किया, उसके बाद भारत में उसके उपयोग की स्थिति की चर्चा की, फिर योजनाएं बताईं उसके बाद सीईओ को आमंत्रित किया। उन्होंने कहा कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर हमारी नई दुनिया के नए पड़ोसी बन गए हैं। आप में दुनिया बदलने की क्षमता है। आज ट्विटर पर हर कोई रिपोर्टर बन गया है। गूगल ने शिक्षकों को रिपोर्टर बना दिया। सोशल मीडिया दुनिया को प्रभावित कर रहा है। युवाओं के बीच बहस का सबसे मुख्य मुद्दा है-एंड्रॉइड, आईओएस और विंडोज के बीच क्या चुना जाए। हालात यह हैं कि अब आप जागते या सोते नहीं, बल्कि ऑनलाइन या ऑफलाइन होते हैं। सोशल मीडिया ने सामाजिक भेदभाव को कम किया है। यह लोगों को ह्यूमन वैल्यूज के आधार पर जोड़ता है, हमारी धार्मिक या सामाजिक पहचान पर नहीं। इसके माध्यम से सुशासन और विकास बेहतर तरीके से हो सकता है। उन्होंने कहा कि इंटरनेट की मदद से हम यह जान पाने में सक्षम हुए हैं कि कौन-कौन से ऐप्स गवर्नेंस को तेज और बेहतर तरीके से चला सकते हैं। इस तरह उन्होंने वहां उपस्थित सीइओ को यह बताया कि वो डिजिटलाइजेशन को किस तरह देखते हैं। उनकी सोच और अवधारणा क्या है। ऐसा बोलना इसलिए जरुरी होता है ताकि वे यह समझ जाएं कि इनकी समझ सही और सुस्पष्ट है। अगर समझ सही है तो ही रास्ता सही हो सकता है। उसके बाद मोदी ने अपनी योजनाओं से विस्तार दिया। उन्होंने कहा कि भारत में हम हर स्कूल और कॉलेज को ब्रॉडबैंड से जोड़ेंगे। हम पब्लिक वाईफाई हॉटस्पॉट की तादाद बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। हम पांच सौ रेलवे स्टेशन पर गूगल की मदद से वाईफाई लाने की कोशिश कर रहे हैं। 1 अरब सेलफोन वाले देश में हम एम गवर्नेंस यानी मोबाइल गवर्नेंस को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत को बदलने के लिए डिजिटल इंडिया इनिशिएटिव को इस पैमाने पर लाया गया जैसा शायद मानव इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।

फिर मोदी ने यह बताया कि किस तरह उनके देश में आम लोग भी सूचना संसाधनों को प्रयोग कर रहे हैं। मसलन, उन्होंने कहा कि मैं महिलाओं से डाउनलोड के बारे में सुनकर हैरान रह जाता हूं। सेल्फी विद डॉटर के माध्यम से लोगों ने अपने फोटो भेजे जो सचमुच आश्चर्य करने वाले थे। ध्यान रखिए मोदी ने अपने 10 वें मन की बात में लोगों से सेल्फी विद डॉटर का आह्वान किया था एवं लोगों से बेटी के साथ सेल्फी लेकर भेजने की अपील की थी।  मोदी ने वहां बताया कि  आदिवासी महिलायें भी मोबाइल कैमरे से फोटो लेने लगी हैं। महाराष्ट्र में किसानों का वॉट्सऐप ग्रुप है, जिसपर खेती की तकनीक से जुड़े टिप्स शेयर किए जाते हैं। सोशल मीडिया ने सामाजिक बंधनों को तोड़ दिया है। लोगों से जुड़ने के लिए नरेंद्र मोदी एप्प शुरू किया गया है।  हम देश को डिजीटल कनेक्ट करना चाहते हैं।  मोदी पहले कई बार कह चुके हैं कि हाइवे के साथ-साथ आइवेज यानी इन्फौर्मेशन वेज भी काफी जरूरी है। यही उन्होंने वहां भी कहा। उन्होंने पेपर लेस ट्रांजेक्शन की दिशा में काम करने के लक्ष्य की बात की और कहा कि हम सरकार को पारदर्शी और प्रभावी बना रहे हैं। इंटरनेट के इस्तेमाल की वजह से ऐसे एप्लिकेशन की पहचान करने में कामयाब हुए हैं, जो गवर्नेंस को तेज और बेहतर बनाता है।

इस तरह मोदी ने पहले सूचना संसाधनों के प्रभावों के बारे में अपनी सोच फिर इस प्रकार मोदी ने तीनों विन्दुओं सूचना संसाधन की अवधारणा, उसका बड़ी सीमा तक दूरस्थ गांवों में हो रहे व्यापक उपयोग तथा डिजिटल इंडिया योजनाआंें का जिक्र करके सारे सीइओ को यह भान कराया कि भारत में कारोबार की संभावनाएं व्यापक हैं। उन्होंने कहा भी कि यहां मंच पर आप डिजिटल इकोनॉमी में भारत और अमेरिका की परफेक्ट पार्टनरशिप की तस्वीर देख सकते हैं। मंच पर उनके साथ एप्पल के सीईओ टिम कुक, माइक्रोसॉट के सीईओ सत्या नडेला, गूगल के सुंदर पिचाई आदि उपस्थित थे। वे सब मोदी की सोच एवं उनकी योजनाओं से कितने प्रभावित थे यह उनके भाषणों और बाद में दिए गए वक्तव्यों से पता चलता है।  टिम कुक ने कहा कि उनकी कंपनी के संस्थापक स्टीव जॉब्स प्ररेणा लेने के लिए भारत गए थे। वहां से आकर उनने अपना काम आरंभ किया। भारत के साथ उनकी कंपनी का अनोखा रिश्ता है। टिम ने यह भी कहा कहा कि भारतीय प्रधानमंत्री के साथ उनकी मुलाकात जबरदस्त रही। माइक्रोसॉट के सीईओ सत्या नडेला ने कहा कि डिजिटल इंडिया भारत में डिजिटल विभिन्नता की चुनौतियों का समाधान लेकर आएगी।

वहीं कई कंपनियों ने भारत में अपने कार्य विस्तार की योजनाएं भी बता दीं। मसलन, सत्या नडेला ने कहा कि हमारी कंपनी भारत में कम कीमत पर ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी देना चाहती है। हम भारत में अपनी तकनीक को गांवों तक पहुंचाना चाहते हैं। सूरत में हम म्यूनिसिपैलिटीज और आम लोगों के साथ मिलकर डाटा एनालिटिक सिस्टम पर काम कर रहे हैं। हम 5 हजार गांवों तक अपनी तकनीक ले जाना चाहते हैं। गूगल के सुंदर पिचाई ने अमेरिका के बाद भारत के तेलांगना में सबसे बड़ा अपना केन्द्र बनाने, भारत में कर्मचारियों की संख्या दोगुणी तथा 500 रेलवे स्टेशनों को घोषणा के अनुरुप वाईफाई से जोड़ने की योजना पर तेजी से काम करने की बात की। गूगल 11 भारतीय भाषाओं में एंड्रॉयड उपलब्ध कराने की तैयारी कर रहा है। गूगल मुख्यालय में प्रधानमंत्री को बताया कि उनके आने की सुनकर वहां 55 ऐप्प बनाए गए हैं। इसको भी समझकर उपयोग करने का वायदा मोदी ने किया। गांवों में सस्ती दरों पर इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराने के लिए फेसबुक ने इंटरनेट डॉट ओआरजी सेवा शुरु करने की जानकारी दी। क्वॉलकॉम के पॉल जैकब्स ने कहा कि वे भारत के डिजिटल इंडिया कैंपेन को लेकर बेहद उत्साहित हैं। क्वालकॉम भारतीय स्टार्टअप में अन्वेषण के लिए 15 करोड़ का कोष बनाएगी, डिजिटल इंडिया के लिए एक लैब बनाने की घोषणा भी की गई। एप्प्पल भारत में मैन्यूफैक्चरिंग केन्द्र स्थापित करेगा। फॉक्सनौन ने एप्पल की तरह ही विनिर्माण संयंत्र स्थापित करेगा। सिस्को के जॉन चैम्बर्स ने मोदी की ओर इशारा करते हुए कहा कि हमें भरोसा है कि आप दुनिया को बदलोगे। आप भारत को बदलोगे।

इस तरह कहा जा सकता है कि यहां के सीइओ प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया योजना से केवल उत्साहित नहीं, उसमें काम करने की तैयारी में भी दिखे।  इस तरह डिजिटल इंडिया एवं निवेश की दृष्टि से सिलकॉन वैली की यात्रा को सफल कहा जा सकता है।कहने का तात्पर्य यह कि सिलिकॉन वैली से मोदी अपने डिजिटल इंडिया के सपने के लिए काफी कुछ लाने की उम्मीद से भरकर लौटे हैं। वैसे हमें इसके फलीभूत होते देखने के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी। 

अवधेश कुमार, ई.ः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

आखिर मन की बात पर रोक की मांग का औचित्य क्या था

 

अवधेश कुमार

चुनाव आयोग ने 19 सितंबर को साफ कर दिया कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात रेडियो कार्यक्रम पर रोक नहीं लगा सकता। चुनाव आयोग के इस निर्णय का अर्थ था कि वह इसे चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन नहीं मानता। हां, आयोग ने इतना अवश्य कहा कि इसका ध्यान रखा जाए कि इससे बिहार विधानसभा चुनाव किसी तरह प्रभावित नहीं हो। 20 सितंबर के मन की बात में चुनाव आयोग को ऐसा कोई भी पहलू नहीं मिला होगा जिससे वह कह सके कि वाकई चुनाव तक इसे रोका जाए। बिहार चुनाव के बीच एक मन की बात और होगी और उम्मीद है कि उससे भी कोई विवाद पैदा नहीं होगा। कांग्रेस, जद यू तथा राजद ने चुनाव आयोग से मांग की थी कि वह बिहार विधानसभा चुनाव होने तक मन की बात पर रोक लगा दे, क्योंकि यह आचार संहिता का उल्लंघन है। इन पार्टियों ने तो सत्ता संसाधन के दुरुपयोग से लेकर इसे न जाने क्या-क्या कह दिया था। इतना आक्रामक बयान मानो मन की बात से ही प्रभावित होकर बिहार के मतदाता भाजपा या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पक्ष में मतदान कर देंगे। ध्यान रखिए इसके पूर्व दिल्ली एवं हरियाणा चुनाव के दौरान भी इस तरह की मांग की गई थी एवं आयोग का यही जवाब था। महाराष्ट्र चुनाव के दौरान कांग्रेस ने आयोग से मन की बात कार्यक्रम रोकने की अपील की थी। कहने का तात्पर्य यह कि इन पार्टियों के सामने मन की बात कार्यक्रम पर आयोग की सोच पहले से स्पष्ट थी। बावजूद इसके यदि ये मांग करने पहुंचे तो इसका अर्थ क्या है?

चुनाव आयोग का जो जवाब पहले था लगभग वही जवाब आज भी है। यानी प्रधानमंत्री को मन की बात से या कैबिनेट बैठक में देश के लिए कोई निर्णय करने से नहीं रोका जा सकता है। हां, यह पाए जाने के बाद ही कोई संज्ञान लिया जा सकता है कि कार्यक्रम की सामग्री आचार संहिता का उल्लंघन करती है। आयोग का कहना है कि शिकायत के बाद चुनाव आयोग कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग का अध्ययन करता है और तब फैसला लेता है। जाहिर है, इस शिकायत के बाद प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात की आयोग ने रिकॉर्डिंग की होगी और उसके एक-एक शब्द को आचार संहिता की कसौटी पर परखेगा। तो विरोधी दलों की शिकायत का इतना असर हुआ कि आयोग की पैनी नजर प्रधानमंत्री की बातों पर थी। दूसरे, इन दलों ने इसका विरोध कर यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की कि इस दबाव में प्रधानमंत्री सतर्क होकर अपनी बात रखेंगे एवं बिहार के लोगों को चुनाव के लिए प्रभावित करने वाला कोई तत्व इसमें नहीं होगा। हालांकि आयोग ने अपने जवाब में इस बात का भी उल्लेख किया कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान कार्यक्रम के खिलाफ कांग्रेस ने इस तरह की मांग की थी, लेकिन निर्वाचन आयोग को कार्यक्रम में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला था।

हमारे देश का राजनीतिक प्रतिष्ठान गंभीर समस्याआंें के दुष्चक्र में फंसा है। हम सब यह स्वीकारते हैं कि राजनीतिक दल दिशाभ्रम के शिकार हैं। उनको ठीक से यह समझ ही नहीं आता कि कौन से मुद्दे उठाए जाने चाहिएं, कौन से नहीं, विरोधी पर राजनीति प्रहार के लिए कौन सा विषय उपयुक्त होगा कौन अनुपयुक्त, जनता के सामने सकारात्मक राजनीति को कैसे पेश किया जाए .....आदि पर लगभग सभी राजनीतिक दलों में दिशाहीनता है। यही कारण है कि जो मुद्दे नहीं हो सकते, उसे वे उठाते हैं और परिणाम यही आता है जो मन की बात के संदर्भ मंे चुनाव आयोग के उत्तर से मिला। संसदीय लोकतंत्र में दलीय राजनीति की महत्वपूर्ण भूमिका है। राजनीतिक दलों की अवधारणा के पीछे मूल बात यह है कि दल विचारधारा और कार्यक्रमों के साथ जनता के बीच जाते हैं, उनको विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं कि किसकी विचारधारा किसका कार्यक्रम सही है और किसका गलत। इससे स्वस्थ जनमत का निर्माण होता है और फिर संसदीय लोकतंत्र भी स्वस्थ होकर आगे बढ़ता रहता है। चुनाव इस जनमत निर्माण का सबसे बड़ा आयोजन होता है। दुर्भाग्य से जब राजनीतिक दल अपनी मूल भूमिका को ही भूल जाते हैं तो फिर इसी तरह सतही बातों पर मीडिया की सुर्खियां पाना तथा चर्चा मंे आना उनका शगल हो जाता है।

विरोधी पार्टियांे को शिकायत करने का अधिकार है। शायद भाजपा सत्ता से बाहर होती और उसका नेतृत्व दिशाहीन होता तो वह भी ऐसा ही करती। किंतु हम न भूलें कि प्रधानमंत्री किसी दल के तो होते हैं, लेकिन वह अंततः देश के प्रधानमंत्री होते हैं। कोई आचार संहिता यदि देश से बात करने से प्रधानमंत्री को रोकने लगे, राष्ट्र के नाम संदेश देने का निषेध करने लगे, या मंत्रिमंडल के निर्णय पर अंकुश लगाने लगे तो फिर इससे लोकतंत्र और देश दोनों का अहित होगा। हां, प्रधानमंत्री के पास इतना विवेक और इतनी राजनीतिक नैतिकता होनी चाहिए कि वह अपने पद की गरिमा का ध्यान रखें और सत्ता का उपयोग किसी तरह चुनावी लाभ के लिए न करें। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही नहीं ज्यादातर प्रधानमंत्रियों की दोहरी भूमिका होती है। एक ओर वह देश का प्रधानमंत्री होता है जिसकी भूमिका दलीय सीमाओं से परे हो जाती है तो दूसरी ओर वह दल का नेता होता है जिसका दायित्व अपने दल को चुनावी सफलता दिलाना है। इन दोनों के बीच की जो मर्यादा रेखा है वो इतनी महीन है कि आप यदि सजग न रहें तो कभी भी टूट सकती है। वैसे प्रधानमंत्री को चुनाव के दौरान अन्य नेताआंे से ज्यादा आजादी है। अन्य नेता सरकारी वाहन और साधन का उपयोग नहीं कर सकते, प्रधानमंत्री करते हैं। उन पर कोई रोक नहीं है। यह हर प्रधानमंत्री के साथ लागू होता है। इसलिए मन की बात को रोकने की मांग अबूझ राजनीति का नमूना है। जिस ढंग से विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री के संदर्भ मंें शब्द प्रयोग किए वह राजनीति की मर्यादा का उल्लंघन था। उनको ऐसा अभ्यस्त भाषणकर्ता कहा गया जो हमेशा अपने मंच का राजनीतिक दुरुपयोग करता है। ऐसे शब्द प्रयोग से बचा जा सकता था। 

बहरहाल, भले विपक्ष चाहे जितना शोर मचाए, प्रश्न उठाए...मोदी ने अभी तक 12 मन की बातें की हैं। कुल मिलाकर इसमें करीब 265 मिनट उनने लगाए हैं। औसत एक मन की बात पर करीब 22 मिनट लगा है। इनमें से तीन बातों की चुनाव आयोग ने पहले रिकॉर्डिंग की और उसे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। चौथी बात के बारे में उसने कोई मत नहीं दिया। आगे की बातों में भी ऐसा ही होगा यह उम्मीद है। अगर नहीं होगा तो केवल यह आचार सहिंता का ही उल्लंघन नहीं होगा, प्रधानमंत्री पद की मर्यादा और संविधान ने जो भावना उसकी भूमिका की प्रकट की है उसका भी अतिक्रमण होगा। लेकिन सोचने की बात है कि रेडिया टीवी पर करीब 25 भाषाओं में अगर इसका प्रसारण होता है तो जनता को प्रभावित करने के लिए या जनता को कुछ मार्गदर्शन देने के लिए। यानी मोदी जो बात भाषणों या अन्य कार्यक्रमों में नहीं कर पाते वो यहां करते हैं। इसका असर किसी पर न हो ऐसा तो संभव नहीं। प्रधानमंत्री कुछ भी बोलेंगे उसका सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव होना ही है। इसका राजनीतिक लाभ भी मिल सकता है। इससे प्रधानमंत्री बोलना बंद कर दें यह उचित नहीं होगा। कांग्रेस ने यही मांग की है। इसकी बजाय अगर प्रधानमंत्री अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करते हैं तो कांग्रेस सहित सारी पार्टियों को जनता के बीच जाकर बताना चाहिए कि किस तरह वो सत्ता के संसाधन का दुरुपयोग कर रहे हैं। 

वर्तमान राजनीति की त्रासदी यह है कि अधिकतर नेता जनता के बीच प्रभावी ढंग से अपनी बात रखने में सक्षम नहीं है। युवावस्था से विश्वविद्यालयों या जनता के बीच सक्रियता से बोलने की जो क्षमता विकसित होती थी वह राजनीति के नए माहौल में अवरुद्व हो चुका है। यहां तक कि चुनाव के अलावा जनता के बीच रहकर संघर्ष और सहकार की राजनीति भी धीरे-धीरे विलुप्त हुई है। इसमें जो निदान राजनीतिक स्तर पर होना चाहिए उसे चुनाव आयोग और न्यायालयों से प्राप्त करने की कोशिश होती है। इसमें राजनीति कमजोर होती जा रही है। मोदी विरोधी दलों और नेताआंे की आरंभ से यही समस्या रही है। वे ऐसे मुद्दे उठाते रहे हैं जिनसे मोदी को कोई क्षति तो छोड़िए उनको लाभ मिलता रहा है। उनकी लोकप्रियता में इजाफा कराने मंे इन विरोधी दलों की भूमिका ज्यादा है। आप देखिए, मन की बात का विरोध कर इनने इसे इतना चर्चित बना दिया कि देश भर के लोग ध्यान से सुनेंगे। हो सकता है जो लाखों लोग पहले नहीं सुनते होंगे वो भी सुनें। बिहार चुनाव पर इसका असर होगा या नहीं कहना जरा कठिन है, पर मोदी को यदि एक राजनेता के तौर पर देखें तो यह उनके लिए ज्यादा अनुकूल हो गया।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092ए दूर.ः01122483408, 09811027208

बुधवार, 16 सितंबर 2015

प्रधानमंत्री का कांग्रेस पर तीखे हमले का अर्थ

अवधेश कुमार

चुनावी सभाओं को छोड़ दें तो प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पहला अवसर है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लगातार कांग्रेस पर करारा हमला किया है। प्रधानमंत्री के भाषणों से ऐसा लगता है मानो उनने कांग्रेस से आरपार की लड़ाई आरंभ कर दिया है। प्रधानमंत्री के ऐसे वक्तव्य का अर्थ यह भाजपा के लिए सूत्र वाक्य एवं दिशाा निर्देश हो गया। भोपाल से लेकर चण्डीगढ़, सहारनपुर एवं ऋषिकेश तक प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ा हमला बोला है। उन्होंने कांग्रेस को हवालाबाज कहने से लेकर नकारात्मक राजनीति कर किसी तरह सरकार को काम न करने देने का रवैया अपनाने का आरोप लगाया है। उन्होंने नाम भले न लिया लेकिन मां और बेटा बोलकर सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की भी तीखी आलोचना की है। जाहिर है, हम यहां से कांग्रेस बनाम सरकार या भाजपा के नए टकराव की शुरुआत देख सकते हैं। किंतु प्रश्न है कि आखिर प्रधानमंत्री ने इस तरह का आक्रामक रुख क्यों अपनाया है? क्या इसे अनावश्यक मान लिया जाए या फिर इसके पीछे कुछ न्यायसंगत कारण भी हैं?

इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि हम ललित मोदी प्रकरण से लेकर व्यापम एवं संसद के मानसून सत्र के दौरान तथा उसके बाद कांग्रेस के अति हमलावर रवैये को किस तरह देखते हैं। विपक्ष के नाते कांग्रेस को सरकार की आलोचना करने, उसे घेरने, उससे प्रश्न पूछने का अधिकार है और उसका यह दायित्व भी है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र में इस अधिकार और दायित्व की कुछ मर्यादाएं हैं। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाध्ंाी ने कांग्रेस कार्यसमिति में सरकार को और नाम न लेते हुए नरेन्द्र मोदी को हवाबाज कहा। कांग्रेस कह रही है कि प्रधानमंत्री को भाषा में गरिमा का पालन करना चाहिए। प्रधानमंत्री को हवाबाज कहना कौन सी गरिमा का पालन है? इसके जवाब में मोदी ने उसी शैली में भोपाल में कांग्रेस का नाम लिए बिना हवालाबाज कह दिया। सरकार में होने और खासकर राज्य सभा में अल्पमत में होने के कारण संसद के संचालन और कई विधेयकों को पारित कराने के लिए विपक्ष से सहयोग आवश्यक है, इसलिए अंदर से न चाहते हुए भी वाणी और व्यवहार में संयमित रहना पड़ता है। किंतु एक समय के बाद यह सीमा और संयम टूटता है।

प्रधानमंत्री के बयान के तीन अर्थ हैं। एक, उन्हें यह अहसास हो गया है कि कांग्रेस किसी सूरत में अपने विरोध और संसद को बाधित करने के रास्ते से नहीं हटेगी। तो उसको कठघरे में खड़ा करने की शुरुआत उन्होेंने कर दी है। यह कांग्रेस को दबाव में लाने की रणनीति हो सकती है। भोपाल में उन्होंने कहा कि हमने जो काला धन पर कड़े कानून बनाए हैं उससे हवालेबाज डर गए हैं। उन्हें पैरों के नीचे धरती खिसकती नजर आ रही है। इसलिए ये हवालाबाजों की जमात लोकतंत्र में रुकावटें पैदा करने का प्रयास कर रही है। इसके द्वारा मोदी ने यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि कांग्रेस उनसे पूछती है कि कालाधन विदेश से लाने का जो वायदा था उसका क्या हुआ? तो हमला सबसे बड़ा बचाव है की तर्ज पर कांग्रेस को हवालाबाज कहकर यह संदेश दिया कि कालाधन जमा करने वाले तो ये ही हैं, और हमारे कड़े कानून से डर गए हैं इसलिए वो हमें काम करने नहीं दे रहे। यह सामान्य आरोप नहीं है। प्रधानमंत्री अगर कांग्रेस को हवालाबाज कह रहे हैं तो उनके पास कुछ नेताओं या फिर उनके निकट के लोगों के विदेशों में कालाधन के बारे में सूचनाएं आईं होंगी और उसकी पुष्टि के बाद उनका नाम भी सामने आ सकता है। इसलिए इसे केवल शब्दावली बनाम शब्दावली नहीं कह सकते।

दूसरे, सरकार संसद का विशेष सत्र बुलाने पर विचार कर रही है। कांग्रेस का रवैया बदलने वाला नहीं लग रहा है। तो फिर उस पर तीखे हमले से इतना आरोपित करो कि कम से दूसरे कुछ दल तो विधायी कार्यों में सरकार का साथ दें या संसद चलाने में सहयोग करें। वैसे भी संसद को बाधित करने में विपक्षी एकता के कारण ही अनेक नेता व पार्टियां कांग्रेस के साथ थीं, लेकिन इस तरह स्थायी रुप से संसद चलने देने के पक्ष में वामदलों को छोड़कर शायद ही कोई होगा। नरेन्द्र मोदी की राजनीति और काम करने की अपनी शैली है। वो बहुत ज्यादा कोरी भावुकता में काम नहीं करते। कांग्रेस का रुख उनकी समझ में आ गया है। इसलिए उन्होने विषय को जनता के न्यायालय में डालने की रणनीति अपनाई है। मसलन,ऋषिकेश में उन्होंने कहा कि इनको जनता ने पराजित किया तो ये जनता से बदला ले रहे हैं, जनता के विकास का काम नहीं होने दे रहे। हमको जनता जनार्दन ने चुनकर बहुमत की सरकार चलाने का आदेश दिया है तो हमारा काम जनता जनार्दन की सेवा करनी है। कांग्रेस उसे करने नहीं दे रही। इस तरह कांग्रेस को जन विरोधी साबित करने के लिए यह अब तक का सबसे बड़ा हमला है।

उन्होंने भोपाल में कहा कि आज देश की जनता के सामने कहना पड़ रहा है कि संसद का सत्र हमने समाप्त नहीं किया था। हम समझते थे कि वे (विरोधी) जनता की भावना को समझेंगे। अगर जनता ने पराजय किया है तो पांच साल तक फैसले का सत्कार करेंगे। हम आशा करते थे कि कुछ बाद माहौल शांत होगा तो संसद चल पड़ेगी, महत्वपूर्ण निर्णय हो जाएंगे। मैं सार्वजनिक रूप से जिनको पराजय मिली है, जनता ने जिन्हें नकारा है उनसे आग्रह करता हूं कि हम लोकतंत्र के गौरव के लिए, आर्थिक संकट में हिंदुस्तान अकेले टिका हुआ है और भारत के पास आगे बढ़ने का जो अवसर मिला है उसे हाथ से न जाने दिया जाना चाहिए। संसद में निर्णय को आगे बढ़ने दें। लेकिन हमारी बात नहीं मानी जा रही है। बड़े भारी मन से, दुखी मन से संसद समाप्त करना पड़ा। तो यह जनता के बीच मामले को ले जाना है कि देखिए जो अवसर हमारे सामने है उसे नष्ट करने पर कांग्रेस इसलिए तुली हैक्योंकि वह पराजय पचा नहीं पा रही है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि कांग्रेस मानती ही नहीं कि एक वंश के अलावा किसी को शासन करने का अधिकार है,इसलिए वह हमें बरदाश्त नहीं कर रही। यह हमला सीधा-सीधा सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी पर है। यानी वे बता रहे हैं कि ये माता पुत्र ही समस्या की जड़ हैं और कांग्रेस इनकी इच्छा के अनुसार ही चल रही है। जनता इसे किस तरह लेती है इसे देखना होगा, लेकिन कांग्रेस ने इसके विरुद्व प्रधानमंत्री पर तीखा हमला बोल दिया है और उनके लिए हवाबाज के बाद दगाबाज शब्द प्रयोग किया है।

प्रधानमंत्री की आक्रामकता का तीसरा कारण जो समझ में आता है वह है बिहार का चुनाव। बिहार के चुनाव के समय इस तरह की बातों का जवाब न देना सही राजनीतिक रणनीति नहीं हो सकती है। सोनिया गांधी ने 30 अगस्त की गांधी मैदान की सभा में अपना पूरा भाषण मोदी एवं सरकार पर केन्द्रित किया था। तो उसका भी जवाब प्रधानमंत्री को देना था। वैसे भी अगर किसी शब्दावली पर आप चुप रह जाएं तो उसे कांग्रेस के लोग हाथों-हाथ लपककर चलाने लगते हैं। एक बार राहुल गांधी ने सूटबूट की सरकार कह दिया जिसका कोई तार्किक अर्थ नहीं था तो आज तक कांग्रेस के लोग सूटबूट की सरकार कह रहे हैं। अब सोनिया गांधी ने हवाबाज कहा और यह शब्दावली भी चल गई। मोदी के लिए आवश्यक था कि वे अपने कार्यकर्ताओं को उसके जवाब में कोई शब्दावली दें और उन्होंने हवालाबाज दे दिया। वैसे भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाध्ंाी यदि हवाबाज कह रहीं थीं तो उनको या कांग्रेस को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि इसका जवाब नहीं दिया जाएगा। अगर कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता कोई बात कहतीं हैं तो उनका निशाना जिस पर है वह भाजपा का सबसे बड़ा नेता है तो जवाब उसके द्वारा देने से मामला जरा बराबर का हो जाता है। सोनिया गांधी कह रही हैं कि मोदी को मध्यप्रदेश, राजस्थान और विदेश मंत्री के मुद्दे पर जवाब देना चाहिए।

जैसा आरंभ में कहा गया आरोप लगाने, सरकार को घेरने जवाब लेने की भूमिका विपक्ष की है लेकिन वह संसद को बाधित करके इससे क्या पाएगी? सुषमा स्वराज को जवाब देने में संसद का सत्र निकल गया। लोकसभा अध्यक्ष को 3 अगस्त को एक साथ 25 कांग्रेसी सांसदों को निलंबित करने का अभूतपर्व कदम उठाना पड़ा।  उसके बाद कांग्रेस लोकसभा अध्यक्ष तक पर आरोप लगाने लगी। राज्य सभा में जिस दिन नव गणतंत्र भूटान के सांसद आए थे उस दिन भी कांग्रेस ने संसद चलने देने की अपील नहीं मानी। यह तो संभव नहीं है कि आप विपक्ष में हैं तो जैसे चाहिए सरकार के विरोध में बोलिए,सबको कठघरे में खड़ा करिए और आपको कोई कुछ जवाब ही न दें। हालांकि मोदी ने कुछ और बातें कहीं हैं। उदाहरण के लिए  उन्होेने कहा कि लोकतंत्र में हर राजनीतिक दल का काम होता है अगर विजय मिली है तो जनता के लिए खप जाना और पराजय मिली है तो उसे सबक लेकर व्यवहार करना। इन सबमें हमें लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करना होता है।

बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने मोर्चा खोल दिया है। अब मान मनौव्वल का समय गया। आप जिस भाषा में बात करते हैं उसी में आपको जवाब दिया जाएगा। अब देखना होगा यह टकराव कहां तक जाता है। लेकिन देश के लिए यह दुखद और चिंताजनक स्थिति होगी। देश की सबसे पुरानी और संसद में अभी भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी को यह निर्णय करना है कि वह स्थायी टकराव में ससंद को बाधित करती रहेगी या फिर संसद को चलने देकर सरकार के विरुद्ध जहां संघर्ष करना होगा वहां सड़कों पर यह कार्य करेगी। मोदी ने उसके सामने अब पहले की तरह बातचीत का विकल्प छोड़ा नहीं है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

संघ समन्वय बैठक का सच क्या हो सकता है

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की तीन दिवसीय समन्वय बैठक में जिस तरह सरकार के मंत्री एक एक कर या साथ-साथ नई दिल्ली के मध्यांचल भवन में जाते रहे उनसे मीडिया और देश का आकर्षण स्वाभाविक था। समापन के कुछ समय पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पहुंचे। वहां भाषण भी दिया और वायदा किया कि उनकी सरकार व्यापक बदलाव के लिए काम कर रही है इसके परिणाम शीघ्र ही आएंगे। जब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री, विता मंत्री, मानव संसाधन मंत्री......यानी सारे प्रमुख मंत्री ऐसे बैठक में पहुंच रहे हों जिसका आयोजन न सरकार ने किया हो न ही भाजपा तो कई प्रकार के कौतूहल भरे प्रश्न भी उठेंगे। कुछ अनजान लोग जानने की कोशिश करेंगे कि यह क्या हो रहा है। किंतु जो परंपरागत विरोधी हैं उनके लिए इससे बड़ा विरोध का प्रसंग आखिर क्या हो सकता है। इसलिए बैठक आरंभ होने से अंत तक यह प्रश्न उठता रहा कि यह सरकार किसी गैर संवैधानिक संगठन के सामने जाकर अपनी रिपोर्ट कार्ड कैसे प्रस्तुत कर सकती है। यह सरकार रिमोट कंट्रोल से ही चलती है। संघ अपने को सामाजिक सांस्कृतिक संगठन कहता है, लेकिन असल में है तो यह छद्म राजनीतिक संगठन ही, जो कि सामाजिक सांस्कृतिक कार्य भी करती है या उसका मुलम्मा लगाती है....आदि आदि। बैठक समाप्त होने के बाद ये प्रश्न उठने बंद हो जाएंगे यह संभव नहीं है।

हालांकि बैठक के समापन से कुछ घंटे पूर्व सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने पत्रकार वार्ता कर उसका पूरा ब्यौरा दिया एवं पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर भी, जिससे काफी कुछ स्पष्ट हुआ, लेकिन हम अगर यह मान लें कि नहीं जो कुछ कहा गया वह सच हो ही नही सकता, यह बैठक तो सरकार से हिंसाब किताब लेने के लिए बुलाई गई थी, संघ अपना एजेंडा थोपने के लिए मंत्रियों की कतारें लगवा रहा था तो फिर यह हमारा निष्कर्ष हो सकता है और इस देश में हर व्यक्ति, संगठन, संस्था को निष्कर्ष निकालने, उसे अभिव्यक्त करने की आजादी है। प्रश्न है कि इस बैठक को क्या माना जाए? यह क्यों आयाजित हुआ? इसमें क्या-क्या बातें हुईं होंगी? क्या यह वाकई सरकार का रिपोर्ट कार्ड समझने के लिए था या कुछ और भी मकसद था इसका? क्या प्रधानमंत्री के वहां अंतिम समय में कुछ समय के लिए जाने को यह मान लें कि पूरी सरकार वहां अपना पक्ष प्रस्तुत करने गई थी? इसका सही उत्तर हम तभी तलाश पाएंगे जब संघ के विपक्ष एवं पक्ष में बनी बनाई धारणा से बाहर निकलकर समझने की कोशिश करेंगे। अगर दत्तात्रेय होसबोले की बातों को देखें तो उन्होंने स्वीकार किया कि सरकार के मंत्री आए उनसे उनके संबंधित मुद्दों पर चर्चा हुई, जो कुछ कहना था कहा गया। उन्होंने सरकार के प्रदर्शन के बारे में कहा कि दिशा सही है प्रतिबद्धता दिखती है तो अभी 15 महीने हुए हैं काम करने का समय है आशा है कि अपेक्षानुरुप करेंगे। हालांकि उन्होंने यह भी कह दिया कि 100 प्रतिशत तो कोई कर नहीं सकता। खैर, इसे आप संघ की ओर से नरेन्द्र मोदी सरकार को दिया गया प्रमाणपत्र कहिए या कुछ और लेकिन सरकार के मंत्री अवश्य प्रसन्न होंगे। इससे हम आप सहमत असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्होने यह तो साफ कर दिया कि सरकार के कामकाज पर वहां चर्चा हुई।

ध्यान रखिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वहां होसबोले की पत्रकार वार्ता खत्म होने के बाद गए। यानी बेठक में क्या हुआ इसकी अधिकृत सूचना देश को दी जा चुकी थी। वे समापन बैठक में गए थे जिसके बाद कोई पत्रकार वार्ता नहीं होनी थी। वस्तुतः प्रधानमंत्री और मंत्रियों के जाने से यह मान लेना उचित नहीं होगा कि यह संघ द्वारा सरकार के मूल्यांकन का बैठक था। हमारे पास जो जानकारी है उसके अनुसार संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की समन्वय बैठक हर वर्ष जनवरी और सितंबर में तीन दिनों की होती है। उसमेें अनेक संगठनों के प्रतिनिधि आते हैं और भाजपा के भी आते हैं। चूंकि इस समय भाजपा सरकार में है इसलिए मंत्री आए थे, सरकार में नहीं होती तो अध्यक्ष, संगठन मंत्री और जिनका नाम तय होता वे आते। पहले भी आते रहे हैं। जैसा नाम से ही स्पष्ट है कि यह समन्वय बैठक है। यानी सभी संगठनों के बीच तालमेल कैसे कायम रहे, उनके बीच संवाद बनी रहे, एक दूसरे का सहयोग भी करते रहें....यही इस बैठक का उद्देश्य हो सकता है। इतने संगठन है जिनका समाज में काम है तो उनकी सरकार से भी कुछ अपेक्षाएं होंगी, कुछ नीतियों के बारे में जानने की, कुछ नीतियां बनवाने या बदलवाने की चाहत होंगी...कोई काम अवश्य होना चाहिए यह भी सोच होगी। तो यह सब आपस में बैठकर रखने, उस पर बातचीत करने से किसी भी संगठन को ताकत ही मिलती है। इस नाते ऐसे बैठक में कोई समस्या नहीं है। वैसे रामजन्मू भूमि विवाद पर भी होसबोले ने स्पष्ट कहा कि मामला न्यायालय में है और संघ मंदिर निर्माण तो चाहता है, पर इसका निर्णय धर्माचार्य करेंगे और सरकार अपनी समय सारिणी के हिंसाब से काम करेगी।

जैसा होसबोले ने कहा यह बैठक सिर्फ विचारों का आदान-प्रदान था, यह न समीक्षा बैठक था, न निर्णय लेने वाला। जाहिर है, यहां कोई निर्णय नहीं हुआ होग। लेकिन ऐसी बैठकों से निर्णय का आधार अवश्य बनता है। रिमोट कंट्रोल के जवाब में जो कुछ होसबोले ने कहा उससे अवश्य विरोधी पार्टी खासकर कांग्रेस के अंदर तिलमिलाहट बढ़ी है। उन्होने कहा कि जो पार्टी स्वयं रिमोट से चलती हो, वे हमें न सिखाए। हालांकि इसके पहले उन्होंने कहा कि हम कोई एजेण्डा सरकार पर नहीं थोपते, पर रिमोट वाली पंक्ति कांग्रेस पर सीधा हमला था। इस एक पंक्ति को छोड़ दे ंतो जो कुछ उन्होंने कहा उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिस पर ज्यादा मीन-मेख निकालने की गुंजाइश हो। मसलन, यदि संघ या वहां उपस्थित दूसरे संगठन जैसे मजदूर संघ, किसान संघ आदि कहता है कि पश्चिम का जो आर्थिक मॉडल है वह विफल हो रहा है और सरकार को अपनी आर्थिक नीतियों में इसका ध्यान रखना आवश्यक है तो इसमें कोई समस्या नहीं है। औद्योगिक विकास का लाभ समाज के निचले स्तर के लोगों तक को मिलना चाहिए यह स्वर वहां से निकला है तो इसका स्वागत होना चाहिए। इसमें यदि कृषि आधारित उद्योगो, लघु एवं मंझोले उद्योगों को ज्यादा प्रोत्साहन की बात होती है तो फिर उसमें भी समस्या नहीं होनी चाहिए। होसबोले ने कहा कि देश में गांवों से शहर की ओर पलायन हो रहा है जो ठीक नहीं है और उस पर सरकार और संगठन में चर्चा हुई है। उन्होंने कहा कि आज गांवों में कमाई, पढ़ाई और दवाई की जरूरत है। ये सारी बातें ऐसी हैं जो होनी ही चाहिए।

गंगा सफाई, आदिवासी कल्याण, आंतरिक सुरक्षा, नक्सलवाद, कश्मीर, सीमा पर झड़प, पड़ोसी देशों से संबध आदि पर यदि चर्चा होती है तो इसमें बुराई क्या है? इस पर जब चर्चा होगी तो उसमें सरकार के मंत्रियों की उपस्थिति से अधिकृत सूचना सबको मिल सकेगी। आज भाजपा की सरकार है तो संघ एवं सहयोगी संगठनों को इसकी सुविधा प्राप्त है। सरकार नहीं होती तो फिर राजनीतिक दल के तौर पर अन्य संगठनों की तरह भाजपा अपना मत रखती। मंत्रियों ने क्या कहा इसकी विस्तृत सूचना नहीं है, लेकिन कश्मीर में संगठनों का मानना था कि आतंकवादियों एवं अलगावादियों के प्रति कठोरता तथा आम जनता के बीच प्रचार द्वारा उन्हें बताना कि आपका हित किसमे हैं। इसके द्वारा जनता से उन तत्वों को अलग-थलग करने पर लगभग सहमति थी। इसी तरह रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने सीमा पर युद्वविराम उल्लंघन का जवाब देने एवं उसके रोकने के प्रयासों के संदर्भ में अपने विचार प्रकट किए। हां, शिक्षा में भारतीयता और भारतीय गौरव का ध्यान रखने की बात पर जरुर एक वर्ग की भौंहे तनेंगी। इसे शिक्षा का भगवाकरण का नाम दिया जाएगा, जो पहले से दिया जाएगा। यदि समन्वय बैठक में यह चर्चा हुई कि स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक इस दृष्टि से परिवर्तन के प्रयास होंगे तो फिर मान लीजिए शिक्षा के भगवाकरण का विवाद खड़ा होगा और यहीं पर संघ द्वारा सरकार पर अपना एजेंडा लादने की बात कही जाती है।  यह पुराना विवाद है और इसका अंत भारत में कठिन है। इसमें हमेशा से दो राय रहे है और रहेंगे।

 संघ के आलोचक और विरोधी यह तथ्य न भूलें कि प्रधानमंत्री स्वयं को एक स्वयंसेवक बता चुके हैं और यह कोई रहस्य नहीं है कि वे संघ के प्रचारक और उसके कारण ही भाजपा में काम कर रहे थे। भाजपा के ज्यादातर मंत्री संघ के स्वयंवसेवक हैं तो उनका संबंध वहां से रहेगा। संघ की सोच से वे प्रभावित होंगे। उनकी बैठकांे में जहां इन्हें बुलाया जाएगा या इनकी आवश्यकता होगी वहां ये जाएंगे। एक ओर यदि ये मंत्री हैं, भाजपा के नेता हैं तो दूसरी ओर संघ के स्वयंसेवक भी हैं। ये ऐसे संबंध हैं जिसके बीच सीमा रेखा खींचना जरा कठिन है। हां, संघ सरकार में दैनंदिन हस्तक्षेप करे, जबरन वैसे एजेंडा लादने का प्रयास करे जो देश को स्वीकार न हो, प्रधानमंत्री को दबाव में लाएं तोे जरुर इस पर आपत्ति उठाई जानी चाहिए। जब तक ऐसा सामने नहीं आता हमें ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हां, राजनीतिक प्रतिष्ठान के अंदर इस पर विवाद विरोध और विसम्मति की प्रक्रिया चलती रहेगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

बुधवार, 2 सितंबर 2015

दूसरे पाकिस्तानी आतंकवादी का पकड़ा जाना

मूल प्रश्न है कि हम पाकिस्तान के विरूद्ध कैसे इसका उपयोग करते हैं

अवधेश कुमार

एक महीने से कम समय में यह दूसरा अवसर है जब भारतीय सुरक्षा बलों ने फिर एक पाकिस्तानी आतंकवादी को मुठभेड़ के दौरान गिरफ्तार किया है। पिछले पांच अगस्त को तो ग्रामीणों ने नावेद को उधमपुर में पकड़ा था और पुलिस के हवाले किया। हालांकि उसमें भी भूमिका सुरक्षा बलों की ही थी जिनने उसके साथी को मार दिया था तथा नावेद भागने को मजबूर हुआ था। हालांकि उस दिन जम्मू का क्षेत्र था लेकिन 27 अगस्त को तो घाटी का इलाका था। 20 वर्षीय सज्जाद उत्तरी कश्मीर के रफियाबाद (बारामुला) में पकड़ा गया। हमारे पास वह अपना क्या नाम बताता है उसे तत्काल स्वीकारने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यही नावेद के मामले में हुआ और यही अब पकड़े गए आतंकवादी के मामले में हो रहा है। उसने जो नाम बताया उसके अनुसार वह सज्जाद अहमद उर्फ अबू उबैदुल्ला उर्फ फहदुल्ला उर्फ अब्दुल्ला है। पाकिस्तान अपनी आदत के अनुसार आरंभ में इसे भी अपने देश का निवासी होने से इन्कार कर रहा है जैसा वह नावेद के मामले में करता रहा, जैसा वह मुंबई हमले में जिन्दा पकड़े गए आतंकवादी के बारे मंे करता रहा। वह आगे भी ऐसा ही करेगा। किंतु उसके झूठ से सच बदल नहीं जाता। वैसे उपर से पाकिस्तान कुछ बोले अंदर से उसकी परेशानी आसानी से महसूस की जा सकती है। सच यह है कि पाकिस्तान में भारत विरोधी आतंकवाद के ढांचे इस समय काफी सशक्त हुए हैं, वहां से कम उम्र के आतंकवादियों को भ्रमित कर जम्मू कश्मीर की सीमा में घुसपैठ कराया जाता है और वे अपनी वारदात को अंजाम देने की पूरी कोशिश करते हैं।

सज्जाद 20 वर्ष का है और नावेद की उम्र भी लगभग इतनी ही है। यह अभी पता नहीं चला है कि दोनों के बीच कोई रिश्ता है या नहीं। नावेद ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए को बताया था कि उसने अकेले घुसपैठ नहीं किया था। उसके साथ 18 आतंकवादियों ने घुसपैठ किया था। सबका प्रशिक्षण पाक अधिकृत कश्मीर में हुआ था। अगर एनआईए के सूत्रों की मानें तो उसके प्रशिक्षण में हाफिज सईद के पुत्र की भूमिका थी। सज्जाद ने स्वयं को बलूचिस्तान के मुजफरगढ़ इलाके का बताया है। धीरे-धीरे उससे पूछताछ में और विशेष जानकारी मिलेगी। उसकी पकड़ से एक बात की फिर से पुष्टि हुई है कि वे किसी तरह भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों पकड़ा जाना नहीं चाहते। उसके साथ लश्कर ए तैयबा के तीन आतंकी जब मारे गए तो उसके सामने गुफा में छिपने की नौबत आ गई। वहां सुरक्षा बलांे ने मिर्च के पाउडर के गोले तथा आंसू गैस की इतनी बौछाड़ें की कि वह चिल्लाने लगा और जब पकड़ाया तो कहता रहा मुझे गोली मार दो, मुझे गोली मार दो। याद करिए नावेद ने अपने जवाब में कहा था कि मारे जाते तो खुदा के पास और मरने से कोई भय नहीं। बस, मुझे यहां आकर हिन्दुओं को मारने में मजा आता है।

जाहिर है, उनके अंदर मजहबी सांप्रदायिकता की जहर भर दी जाती है तथा मारते लड़ते हुए मरने का गहरा संकल्प पैदा कर दिया जाता है। यह भी पता चला है कि लड़ते समय आतंकवादी कई बार काफी समय से सामान्य भोजन भी नहीं किए होते और नशीली दवाओं के प्रभाव में लड़ते रहते है। नशा उतरने के बाद उनको कुछ समझ में आता है। इसी घटना को लीजिए। हमाम-मारकूट में आतंकवादियों की सुरक्षा बलों से मुठभेड़ 26 अगस्त की शाम साढ़े छह बजे शुरू हुई जो 27 अगस्त को दोपहर तीन बजे समाप्त हुई। सोचिए, इस बीच उनके पास खाने-पीने के पास क्या रहा होगा? वैसे आम तौर पर आतंकवादी अपने पास मेवा रखते रहे हैं, पर इधर आतंकवादियों के पास मेवे नहीं मिल रहे हैं। इसका मतलब वे लंबे समय बिना खाए पिए रहते हैं। सज्जाद ने एनआईए को कहा कि तुमसे ज्यादा ट्रेंड हूं। बिना खाए-पिए सप्ताह भर लड़ सकता हूं। नशीली दवाएं उनको संघर्ष की उन्माद में बनाए रखता है। हो सकता है किसी ने नशा न भी लिया हो या कई बिना नशे के भी लड़ रहे हों।

नावेद ने अपने साथ 18 आतंवादियों के आने तथा सज्जाद ने 27 के घुसपैठ करने की सूचना दी है। तो कुल मिलाकर ये 45 हो गए। इसमें यदि नावेद के साथ मारे गए दो तथा सज्जाद के साथ मारे गए तीन आतंकवादियों को निकाल दे ंतो इन दोनों को हटाकर भी 38 आतंकवादी बचते हैं। अगर इनकी सूचना सच है तो कहां हैं ये 38 पाकिस्तानी आतंकवादी? सज्जाद ने बताया कि घुसपैठ के बाद वे अलग-अलग दिशाओं मे बंट गए। वे अपने गंतव्य पर जाने के लिए अंधेरा होने का इंतजार कर रहे थे कि सुरक्षा बलों से घिर गए। यानी इनका निशाना कहीं और था।

तो इनका पकड़ाना हमारे लिए इस मायने में तो बल प्रदान करने वाला है कि हम पाकिस्तान के पाखंड को नंगा करने में कुछ और सफल होंगे। लेकिन इतने आतंकवादी यदि घुसपैठ कर रहे हैं और सूचना अनुसार काफी संख्या में घुसपैठ के लिए तैयार बैठे हैं तो फिर यह हमारे लिए बहुत बड़े खतरे की घंटी है। यह सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती भी है। साथ ही हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर थोड़ा प्रश्न भी खड़ा करती है आखिर से घुसपैठ में इतनी बड़ी संख्या में सफल कैसे हो जा रहे हैं? हालांकि इस बार सुरक्षाबलों को सूचना मिल गई थी बिजहामा (उड़ी) में लश्कर के पांच आतंकवादियों ने घुसपैठ की है। उनके खिलाफ तलाशी अभियान चला रखा था। इस दौरान हुई मुठभेड़ में दो आतंकी मारे गए थे, लेकिन तीन अन्य भाग निकले। हालांकि इसमें सुरक्षा बलों की अपनी सूचना थी या नहीं, लेकिन उड़ी में मुरुगम-बहक में अपने जानवरों को लेकर गए दो बक्करवालों ने बोनियार पुलिस थाने को सूचित किया कि उन्हें वहां सादे कपड़ों में हथियारबंद युवकों के एक दल ने पकड़ कर पीटा। उन्होंने उनके मोबाइल भी छीन लिए और वहां से भगा दिया। मुठभेड़स्थल से मिले सुराग के आधार पर सुरक्षाबलों ने तलाशी अभियान चलाया और अग्रिम चौकी विजय के दायरे में आने वाले रफियाबाद के हमाम मारकूट जंगल में उनका आतंकियों से सामना हो गया जिनमें 3 मारे गए और सज्जाद पकड़ा गया। हालांकि एक दिन उड़ी सेक्टर में काजीनाग नाले के पास लच्छीपोरा इलाके में हुई मुठभेड़ में बच निकलने के बाद ये कैसे हमाम मारकूट तक आने में सफल हो गए? आठ से दस घंटे वहां आने में लगेगा।

यह तो हुई हमारी बात। अब जरा बेशर्म पाकिस्तान को देखिए। इस बात के पूरे प्रमाण हैं कि मारे गए आतंकियों ने मुठभेड़ के दौरान गुलाम कश्मीर स्थित लश्कर कमांडरों से रेडियो सेट और टेलीफोन पर बातचीत भी की। उन्होंने उनको बताया कि उनके ठिकाने को सुरक्षाबलों ने चारों तरफ से घेर लिया है और अब उनके लिए बचकर अगले ठिकाने तक पहुंचना मुश्किल है। तो कौन हैं सीमा पार के उनके आका? अगर पाकिस्तान इसे स्वीकार करेगा ही नही तो फिर वह दोषियों को पकड़ने या सजा दिलवाने का जहमत कहां से उठाएगा। पाकिस्तान का फिर वही टेप बज रहा है कि उस नाम का कोई नागरिक हमारे यहां है ही नहीं। निबंधन में उसका नाम ही नहीं है। इसका कोई अर्थ नहीं है। पाकिस्तान के आधे नागरिकों का निंबंधन नहीं हुआ है तो क्या वे उसके नागरिक नहीं है? भारत में भी काफी संख्या में लोगों के जनसंख्या निबंधक के यहां निबंधन नहीं हैं तो क्या वे हमारे नागरिक नहीं हैं? यही समसया है पाकिस्तान की। पाकिस्तान ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत रद्द की तो उसके पीछे नावेद भी एक कारण था। उसका जवाब उसके पास कुछ नहीं था। प्रमाण के बाद उसे सीमा पार आतंकवादियों के प्रश्रय और प्रशिक्षण स्थलों पर कार्रवाई करनी होती। फिर हमारे पास दूसरा हथियार आ गया है। हम मानते हैं कि भारत को एक 20 या 21 साल के आतंकवादी को पकड़ने के बाद बहुत बड़ी उपलब्धि के रुप में इसे प्रदर्शित नहीं करना चाहिए, किंतु इसके महत्व को भी हम नकार नहीं सकते। किंतु मूल बात है कि हम कैसे इन आतंकवादियों का पाकिस्तान के विरूद्ध कूटनीतिक उपयोग कर पाते हैं। पाकिस्तान को विश्व कूटनीति में नगा करने, उसे दबाव में लाने में ये उपयोगी होंगे। पाकिस्तान में सरताज अजीज जैसे वरिष्ठ नेता यदि नाभिकीय हथियार की धौंस दे रहे हैं तो इसके पीछे यह भय भी है कि इस तरह अगर उनके देश के आतंकवादी पकड़े जाते रहे तो कहीं भारत कोई ऐसी कार्रवाई न कर दे जिसका मुकाबला करना कठिन हो जाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/