मंगलवार, 25 अगस्त 2015

भारत ने जो स्पष्ट संदेश दिए वो भविष्य के लिए बातचीत एवं व्यवहार के मानक बन गए हैं

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द होने से भारत में अगर अफसोस होगा तो पाकिस्तान परस्त हुर्रियत के चेहरों को, या फिर कश्मीर की उन पार्टियों के नेताओं को, जो सत्ता की राजनीति में होने के कारण बोलते कुछ हैं और उनकी सोच और व्यवहार कुछ और दिखाता है। इसके अलावा पूरे देश में इस बातचीत के रद्द होेने से एक नए किस्म का उत्साह एवं आशावाद का माहौल देखा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि भारत और पाकिस्तान के बीच पहली बार बातचीत रद्द हुई है। ऐसा भी नहीं कि इस बार रद्द हो जाने के बाद आगे भी बातचीत नहीं होगी। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने स्वयं कहा कि कूटनीति में कभी पूर्ण विराम नहीं होता। आज बात नहीं होगी तो आगे हो सकती है। लेकिन जिन स्थितियों में बातचीत रद्द हुई उसका महत्व भारत के लिए ज्यादा है। पहली बार लग रहा है कि भारत ने अपने अपरिहार्य कठोर रुख वाली कूटनीति तथा देश के अंदर के फैसले व कदम से ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिसमें पाकिस्तान बुरी तरह फंस गया एवं उसके पास बातचीत से भागने के अलावा कोई विकल्प बचा नहीं था। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत उसे बातचीत से भागने के लिए मजबूर करना चाहता था। इसके विपरीत भारत अनावश्यक बातचीत की जगह सटीक मुद्दांें पर बात कर निर्णय करने की नीति पर अड़ा रहा।

पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज भारत नहीं आए, लेकिन आते भी तो क्या होता? इसका उत्तर देने के पहले यह तथ्य समझना आवश्यक है कि भारत पाकिस्तान संबंधों में कूटनीतिक मिलाप की व्यावहारिक भूमिका में ऐसे नए दौर की शुरुआत हो गई है जिसका पाकिस्तान को पिछले कम से कम 15 वर्षों से अनुभव नहीं था या उसने इसकी कल्पना नहीं की थी। खासकर जम्मू कश्मीर के संदर्भ में उसका जो रुख है उस पर उसे बिल्कुल नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। उसके सामने एक साथ कई परिदृश्य स्पष्ट हुए हैं, जिनके बाद उसे अपने पूरे व्यवहार पर पुनर्विचार करना होगा। अब उसे तय करना होगा कि वह इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहता है या नही। सरताज अजीज ने 22 अगस्त की डेढ़ बजे की अपनी पत्रकार वार्ता में यही संदेश दिया कि अभी वह उस दिशा में आगे बढ़ने की मनोस्थिति में नहीं। वह परंपरागत स्टीरियोटाइप कूटनीति का शिकार है। यह उसकी आंतरिक स्थिति की विवशता है। आखिर प्रधानमंत्री एवं सुरक्षा सलाहकार दोनों को सेना प्रमुख एवं आईएसआई के प्रमुख के साथ निर्णय के पहले लंबी बैठक क्यों करनी पड़ी? साफ है कि जो कुछ होना है उसमें सेना की हरि झंडी चाहिए थी। अजीज की पत्रकार वार्ता अपनी ओर से सफाई देने तक, भारत को कठघरे मंें खड़ा कर दुनिया के सामने पाकिस्तान की छवि बचाने तक सीमित थी। भारत के तैयार डोजिएर के जवाब में उनने रॉ की पाकिस्तान में आतंकवाद अलगाववाद के बढ़ाने में तथाकथित भूमिका की तीन डोजिएर की चर्चा की और एक को कैमरे के सामने प्रदर्शित भी किया।

यह अजीबोगरीब था। एक अंदर से परेशान, विकल्पहीनता से ग्रस्त देश का रवैया था। भारत में डोजिएर की चर्चा अवश्य थी, पर सार्वजनिक रुप से और अधिकृत रुप से उस पर कोई वक्तव्य नहीं दिया गया। सरताज अजीज ने तो कह दिया कि अगर उनको भारत में इसे देने का मौका नहीं मिला तो वे सितंबर में नरेन्द्र मोदी से मुलाकात के दौरान न्यूयॉर्क में देंगे और इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ महासचिव को भी प्रदान करेंगे। यह कूटनीति और रणनीति में घिर चुके तथा अपने देश के अंदर दबाव में आ चुके व्यक्ति की भूमिका थी। जब आपने पहले ही कह दिया कि हम संयुक्त राष्ट्र  महासचिव को भी इसे प्रदान करेंगे तो जाहिर है आप भारत पाक के बीच तीसरे पक्ष को लाना चाहते हैं। इसके पूर्व संयुक्त राष्ट्रसंघ में पाकिस्तान की स्थाई प्रतिनिधि मलीहा लोदी ने सुरक्षा परिषद में कह दिया कि कश्मीर समस्या के लिए भी संयुक्त राष्ट्र को काम करना चाहिए और उसमें और्गेनाजेशन औफ इस्लामिक कन्ट्रीज के 57 देश मदद करेंगे। यह शिमला समझौते एवं उफा सहमति दोनों का उल्लंन था। वास्तव में पाकिस्तान ने जानबूझकर उफा सहमति की विकृत व्याख्या की। 10 जुलाई को उफा में जो पांच विन्दू तय हुए थे उसमें न तो राजनीतिक स्तर की बातचीत थी, न कम्पोजिट या समग्र वार्ता की चर्चा थी और न कश्मीर की। सरताज अजीज उफा वार्ता की जो पंक्तियां पढ़ रहे थे वह प्रस्तावना थी, न कि क्या किया जाना है यानी ऑपरेशनल भाग। औपरेशनल भाग में तो आतंकवाद, सीमा पर शांति, मछुआरों को छोड़ना और धार्मिक यात्राओं को बढ़ावा देना भर था। तो शुरुआत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की आतंकवाद पर बातचीत से होनी थी।

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पत्रकार वार्ता में यही कहा। स्वराज ने अपनी पत्रकार वार्ता में यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर उफा सहमति के आधार पर बात करते है तो स्वागत है, अन्यथा बातचीत नहीं होगी। वस्तुत पाकिस्तान ने बातचीत रद्द करते समय यह दलील दी कि भारत पूर्व शर्तें थोप रहा है, इसमें बातचीत मुमकिन नहीं। सच यह है कि भारत की ओर से शर्त थी ही नहीं। बातचीत दो पक्षों यानी भारत एवं पाकिस्तान के बीच होगी यह शिमला समझौते में तय है और एनएसए स्तर की बातचीत में हिंसा और शांति पर बात होगी यह उफा में तय हुआ था। तो उससे अलग जाने, कश्मीर को उसमें लाने फिर हुर्रियत को निमंत्रित करने का क्या तुक था? इस तरह शर्त तो वो लगा रहे थे, आतंकवाद के विस्तृत प्रमाणों वाले दस्तावेजों का जवाब उनके पास नहीं होता। जाहिर है, सरताज अजीज भले कहते रहे कि भारतीय मीडिया प्रचारित कर रहा है कि हम बातचीत से निकल भागने का रास्ता तलाश रहे हैं जो सच नहीं है, किंतु सच यही था। उफा वार्ता के बाद से ही पाकिस्तान में नवाज शरीफ की जैसी आलोचना हुई उसके बाद उनने पलटी मारी एवं कहा कि सभी मुद्दों का मतलब कश्मीर भी शामिल है। अरे भैया, शामिल है, किंतु वह आगे तब होगी जब समग्र वार्ता की परिस्थितियां बनेगी। एक ओर आतंकवादी गुरुदासपुर से उधमपुर आकर हमले करते हैं, नियंत्रण रेखा पर उफा के बाद 91 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन होता है, लगातार होता है और उसमें आप कहें कि आइए कश्मीर पर बात करिए, हिंसा रोकने के लिए जिन कदमों पर उफा में सहमति हुई उसे पीछे धकेलिए यह कैसे संभव था। सीमा सुरक्षा बल एवं पाकिस्तान रेंजर्स के महानिदेशकों के बीच बातचीत की तिथि आपने आजतक तय नहीं की, दोनों के औपरेशन के महानिदेशकों की साप्ताहिक बातचीत की शुरुआत ही नहीं हुई तो फिर इसके आगे की बात कैसे हो सकती है?

वास्तव में आतंकवाद और हिंसा रोकने के लिए कदमों का निर्धारण उफा मंें हुआ ही इसलिए था कि आगे की बातचीत का माहौल बने। पाकिस्तान इसे किए बिना अपने अनुसार आगे की बातचीत की कल्पना करने लगा वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर पर ही। यह बातचीत से भागने का रवैया ही था। लेकिन इस प्रकरण से भारत अपने रुख और संकल्पबद्धता के कारण लाभ की स्थिति में पहुंचा है। पाकिस्तान को पहली बार अहसास हुआ है कि अगर भारत के साथ बातचीत करनी है या द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाना है तो फिर तय परिधियों को मानना होगा, एक-एक कदम आरंभ से चलना होगा। बातचीत में ऐसा घालमेल नहीं होगा कि एक ही साथ हम सारे मुद्दों पर वार्ता करें और परिणाम कुछ आए ही नहीं। परिणाम हर हाल में चाहिए और उसकी प्राथमिक सीढ़ी यही हो सकती है कि हिंसा रुके यानी सीमा पार से आतंकवाद पर विराम लगे और सीमा पर संघर्ष विराम समझौता का शत-प्रतिशत पालन हो। पाकिस्तान के सामने यह भी साफ हो गया है कि जम्मू कश्मीर के उसके पाले हुए भारत विरोधी अलगाववादियों यानी हुर्रियत का महत्व उसके लिए हो सकता है, भारत के लिए वो कुछ भी नहीं हैं। वो किसी तरह के स्टेकहोल्डर है ही नहीं। हुर्रियत के साथ पहले की तरह खासकर बातचीत के समय किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं होगी। उनको बातचीत में राय देने या पाकिस्तान की नजरों में शामिल करने से रोकने के लिए भारत किसी सीमा तक जा सकता है। पहले जम्मू कश्मीर नजरबंदी एवं फिर शब्बीर शाह के दिल्ली पहुंचने पर पुलिस द्वारा स्वागत की सख्ती का पाकिस्तान को और अलगाववादियों को सख्त संदेश गया है। आगे पाकिस्तान बातचीत के लिए तैयार होता है तो उस समय भी अलगाववादियों से उसे नहीं मिलने दिया जाएगा यह ऐसे कदमों से बिल्कुल साफ हो गया है। अलगाववादियों के सामने भी भविष्य के दृश्य स्पष्ट हैं कि उनको केन्द्र सरकार की जहां तक सीमा है वहां कोई छूट नहीं मिलने वाली। और मुफ्ती मोहम्मद सरकार को भी अलगवावादियों के संदर्भ में लुका छिपी के खेल पर पुनर्विचार करना होगा। उसे तय करना होगा कि वह भारत की इस नीति के साथ है या नहीं कि हुर्रियत भारत पाकिस्तान वार्ता में कोई स्टेकहोल्डर नहीं है। इस प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द होने के बावजूद भारत ने वर्तमान और भविष्य के लिए उफा को आधार बनाकर एक स्पष्ट परिधि का सीमांकन कर दिया है जो आगे के लिए उसी प्रकार नजीर बना है जैसे शिमला।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

अबू धाबी से दुबई तक की प्रतिध्वनि

 

अवधेश कुमार

इस बात की संभावना पहले से थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा कई मायनों में सफल होगी और इसे दूरगामी परिणामों वाला माना जाएगा। हम चाहे मोदी से जितनी वितृष्णा रखंे दुबई में मरहबा नमो यानी मोदी का स्वागत नाम से आयोजित कार्यक्रम के साथ यात्रा के अंत ने वाकई इसे ऐसा बना दिया जिसे भारतवंशी ही नहीं वहां के निवासी भी वर्षों याद करेंगे। वैसे तो मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं के साथ भारतवंशियों को संबोधित करने का कार्यक्रम अविच्छिन्न रुप से जोड़ दिया है। जहां भी भारतवंशियों की तादाद है वहां ऐसे कार्यक्रम वे करते हैं और उसका प्रबंधन और प्रस्तुति इतनी प्रभावी होती है कि बड़ी संख्या कुछ समय के लिए भाव विभोर या यों कहें चमत्कृत हो जाती है। दुबई के क्रिकेट स्टेडियम का संबोधन उसी श्रेणी का था। जातियों, संप्रदायों से परे लोगों की तालियां और प्रतिक्रियाएं उनके भाषण के प्रभावों का अपने-आप बयान कर रहीं थीं। पूरी दुनिया के भारतीयों को पिछले वर्ष अमेरिका के मेडिसन स्क्वायर के राजनीतिक रॉक की याद आ गई होगी। हमारे देश में दुर्भाग्यवश विदेश नीति पर पंरपरागत रुप से कायम एकता टूट रही है, अन्यथा प्रधानमंत्री के रुप में मोदी की इस दो दिवसीय यात्रा पर प्रश्न उठाने या आलोचना का कोई कारण नहीं होना चाहिए। सरकार और विपक्ष की राजनीतिक जुगलबंदी में पड़े बिना यात्रा के दौरान बने माहौल उसकी वर्तमान एवं भावी परिणतियों पर विचार करें तो सही निष्कर्ष तक पहुंच पाएंगे।

वास्तव में संयुक्त अरब अमीरात में प्रधानमंत्री मोदी का भव्य स्वागत, संपन्न समझौतों, साझा वक्तव्य, दुबई मंें उतनी बड़ी संख्या के बीच उद्बोधन और उसके विषय वस्तु ने कम से कम चार बातांे की फिर से पुष्टि की है। पहला, कुछ लोगों की यह सोच गलत साबित हुई है कि इस्लामी देशों में मोदी को सफलता नहीं मिलेगी। बंगलादेश से आरंभ कर, मध्य एशिया के चार और अब संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा ने इस दुष्प्रचार का जवाब दे दिया है। हवई अड्डे पर शहजादे जायेद अल नह्यान ने प्रोटोकॉल तोड़कर मोदी की अगवानी की। शहजादे के साथ उनके पांच भाई भी मौजूद थे। इससे पहले शहजादे नह्यान ने पिछले मई में मोरक्को के शाह की हवाई अड्डे पर अगवानी की थी। शाहजादे नह्यान सशस्त्र बलों के सर्वाेच्च उपकमांडर भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने शेख जायेद मुख्य मस्जिद जाकर उस देश को सम्मान दिया। यह मस्जिद सऊदी अरब के मक्का और मदीना के बाद दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद है। दूसरे, घरेलू स्तर पर चाहे जितने मतभेद हों, मोदी दुनिया को यह संदेश देने में काफी हद तक सफल हो रहे हैं कि उनके नेतृत्व में एक स्थिर और स्थायी सरकार है जो निर्णय करती है। आखिर संयुक्त अरब ने अगर करीब साढ़े 4 लाख रुपए के निवेश का वायदा किया है और वहां के अन्य निवेशक भी भारत में काम करने पर विचार करने को तैयार हुए तो इस संदेश के कारण ही। तीन, अपनी बात यानी भारत की सोच को स्पष्टता से रखने में वे हिचकते नहीं और उसके अनुसार कुछ परिणाम भी लाते हैं। संयुक्त अरब अमीरात में आतंकवाद पर उतना मुखर वक्तव्य एवं खुलकर बातचीत सामान्य घटना नहीं है। आप देख लीजिए संयुक्त वक्तव्य में आतंकवाद पर वो सारी बातेे कहीं गईं हैं जो भारत की दृष्टि से अनुकूल थे। और चौथे, सबसे बढ़कर जहां भी भारतवंशी है उनको देश के साथ जोड़ने एवं भारत के लिए काम करने को प्रेरित करने तथा उनके संबोधन के द््वारा स्वयं उस देश को या उसके माध्यम से दूसरे देशों को भी उचित संदेश की वे कोशिश करते हैं। 

यानी ये उद्बोधन केवल भारतीयों को संदेश देने तक सीमित नहीं रहते। कहा जा रहा है कि यह दुबई का आज तक का सबसे बड़ा कार्यक्रम था। इसकी पुष्टि जरा कठिन है, लेकिन वहां का पूरा प्रबंधन और उपस्थित संख्या को तो ऐतिहासिक मानना ही होगा। संयुक्त अरब अमीरात का परंपरागत रुप से पाकिस्तान के साथ संबंध से हम वाकिफ हैं। यही नहीं भारत में आतंकवादी घटनाओं में दुबई एवं अबूधाबी जैसे स्थलों की भूमिका भी स्पष्ट है। कई हमलों के तार वहां से जुड़े और कुछ आतंकवादी जेलों में हैं। वहां मोदी का यह कहना कि आज देशों को तय करना है कि आप आतंकवाद के साथ हैं या मानवता के या फिर यह कि बैड तालिबान और गूड तालिबान, बैड टेररिज्म और गूड टेररिज्म अब नहीं चलेगा, आपको दो में से एक चुनना होगा, सामान्य बात नहीं है। मोदी इसलिए कह पाए क्योंक वे संयुक्त अरब को आतंकवाद के खतरे समझाने में सफल रहे। तभी तो संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि जो आतंकवाद के दोषी हैं उनको सजा मिलनी चाहिए। यह पंक्ति सीधे पाकिस्तान की ओर ही तो इंगित है। यही नहीं बैड तालिबान और गूड तालिबान तो अमेरिका की नीति को भी कठघरे में खड़ा करने वाला है, क्योंकि उसने ही तालिबानों से देश से बाहर बातचीत आरंभ की है। तो मोदी की यात्रा के दौरान संयुक्त अरब की परंपरागत नीति में बड़ा बदलाव है। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद की परिभाषा निश्चित करने, आतंकवाद समर्थक एवं विरोधी देशों की पहचान संबंधी प्रस्ताव को पारित करने के भारत के प्रयासों में संयुक्त अरब का साथ पाना भी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जरा सोचिए यदि दुबई की सभा नहीं होती ये सारे संदेश वहां से उसी प्रभावी तरीके से बाहर निकल पाते? कतई नहीं।

किंतु मोदी ने एक ओर यदि देशों पर आतंकवाद को लेकर दोहरी नीति पर चोट किया तो दूसरी ओर दुबई की भूमि से हिंसा छोड़ने का आह्वान भी। उनने कहा कि बम बंदूक से फैसला चाहने वाले न अपना कल्याण करते हैं न देश का, वे इतिहास को ही दागदार करते हैं और चाहे जितनी हिंसा कर लें फैसला तो अंततः बातचीत से ही होती है इसलिए हिंसा छोड़कर बातचीत का रास्ता पकड़ें। यानी इसके द्वारा इस बात का संकेत दिया गया कि भारत अंतिम विकल्प के रुप मंे ही हिसा को अपनाता है और किसी को भ्रमित किया गया है तो वह अपना असंतोष व्यक्त कर सकता है। यह इस नाते भी महत्वपूर्ण है कि खाड़ी देशों में अनेक युवाओं को भ्रमित करके आतंकवाद के रास्ते पर धकेल दिया जाता है।

संयुक्त अरब अमीरात के रणनीतिक महत्व को समझिए। उसके पास हमें देने के लिए तेल और गैस के भंडार हैं जो हमारी उर्जा सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वह हमारा तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और उसमें वृद्वि की पूरी संभावना है। दोनों देशों के बीच 60 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार है और साल 2014-15 में भारत का कच्चे तेल का छठा सबसे बड़ा निर्यातक रहा। ये सारी बाते हैं, पर वह खाड़ी में ऐसा देश है जो इजरायल से तनाव के पक्ष में नहीं, कट्टरपंथ से शासन दूर रहता है और देश में ऐसा वातावरण बनाए रखने की कोशिश भी। तभी तो ऐसे कट्टरपंथ और चरमपंथ के माहौल में उसने हिन्दुओं की उपासना के लिए मंदिर की जमीन देने का साहस किया है। वह आईएसआईएस का खुलकर विरोध करता है, उसकी सीमा के अंदर आईएस की धमक पहुंच चुकी है और हम पर भी खतरा मंडरा रहा है। इस नाते संयुक्त अरब से संबंधों का रणनीतिक महत्व बढ़ जाता है। इसलिए मोदी ने खाड़ी देशों की यात्रा की शुरुआत संयुक्त अरब से करके सही कूटनीतिक प्रयाण किया है। उसके साथ लंबी साझेदारी चल सकती है।

भारत में इस बात को लेकर चिल्ल पों हो रही है कि मोदी ने वहां 34 वर्ष तक न आने की बात करके विपक्ष को निशाने पर लिया है। इसे संयुक्त अरब अमीरात के सामने सार्वजनिक रुप से अपनी गलती स्वीकार कर संबंधों को ठोस भावनात्मक आधार देने की कूटनीति के रुप में भी तो देखा जा सकता है। वैसे मोदी ने यह सच बोला है कि 34 वर्ष से संयुक्त अरब कोई प्रधानमंत्री नहीं गया। आषिर 27 वर्ष से श्रीलंका, 28 वर्ष से सिचिल्स, 17 वर्ष से नेपाल.....किसी प्रधानमंत्री की द्विपक्षीय यात्रा हुई ही नहीं। ंतो हमारी कूटनीति किस दिशा में जा रही थी? अपने पड़ोसी और निकट पड़ोसी तथा जिनसे विचार की निकटता हो सकती है, आर्थिक साझेदारी हो सकती है उनकी चिंता अगर हमारे पास नहीं तो यह कौन सी कूटनीति थी? इन देशों के साथ संबंधों से जो कुछ हम हासिल कर सकते हैं उसकी पता नहीं क्यों कल्पना नहीं की गई! मोदी ने वहां यह संदेश दिया कि हम सभी आस पड़ोस के देशों के साथ मिलकर, उनकी साझेदारी से विकास करना चाहते हैं, किसी के संकट में हम सेवा भाव से तत्क्षण अपने संसाधनों के साथ पहुंचते हैैंं। नेपाल के भूकंप, मालदीव का पेयजल संकट से लेकर जाफना में तमिलों के आंसू पोंछने, अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण आदि की चर्चा इसी को पुष्ट करने के लिए थी। वस्तुतः दुबई से इस संदेश की आवश्यकता थी।

वैसे भी खाड़ी देशों का तो हमारे प्रवासी भारतीयों की दृष्टि से भी महत्व है। खड़ी देशों में संपन्न भारतीय भी हैं, पर बहुमत ऐसे लोगों का है जो वहां छोटे काम करते हैं, मजदूर हैं, सामान्य कर्मचारी हैं जिनकी न पहुंच है, न आवाज का महत्व, जबकि विदेशी मुद्रा भेजने में उनकी भूमिका अव्वल है। मोदी का वहां उनके बीच जाना न केवल उनका आत्मविश्वास बढ़ाने वाला साबित होगा, बल्कि वहां के देशों, कंपनियों आदि को भी यह संदेश गया है कि उनकी पीठ पर सरकार का हाथ है। जिस तरह उनने दूतावासों को सलाह शिविर लगाने से लेकर कल्याण कार्यक्रम, उसके लिए राशि, कानूनी सहायता के ढांचे का विस्तार कर उसे सरकारी पहल द्वारा पूरा करने, उनके बच्चों के लिए वहां शिक्षालय आदि की बात की उन सबसे उनका कितना आत्मविश्वास बढ़ा होगा इसकी कल्पना करिए। इसकी आवश्यकता लंबे समय से थी। इस परिप्रेक्ष्य में यह मानने में आपत्ति नहीं है कि दुबई का उद्बोधन अत्यावश्यक कार्यक्रम था जिसकी सकारात्मक प्रतिध्वनि मनोवैज्ञानिक एवं नीतियों के स्तर पर कायम रहेगी। योजनाओं में हिन्दू मुसलमान का तो कोई भेदभाव नहीं है। अगर मोदी की घोषित योजनाओं के अनुरुप काम हुए तो केवल संयुक्त अरब अमीरात के करीब 26 लाख भारतीय ही नहीं, खाड़ी के लाखों भारतीय भी देश के लिए अमूल्य निधि साबित होंगे और उनको भ्रमित करना आसान नहीं होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

पाकिस्तान का नकार उसके स्वभाव के अनुरुप है

 

अवधेश कुमार

क्या विडम्बना है! जम्मू के उधमपुर में आतंकवादी हमले में पकड़ा गया आतंकवादी नावेद स्वयं को ताल ठोंक कर पाकिस्तानी बता रहा है। उसने अपने घर का सही पता दे दिया, पिता का नाम बताया, फोन नंबर दिया जिस फोन पर एक अखबार ने उसके पिता से करीब 80 सेकेण्ड बातचीत की,  फैसलाबाद में रफीक कॉलोनी की उसकी गली नंबर तीन के लोग पूछ रहे हैं कि नावेद ने क्या किया, लेकिन पाकिस्तान अपना सारा बुद्धि कौशल केवल इसे नकारने में लगा रहा है। वह कह रहा है कि जिस व्यक्ति को दिखाया जा रहा है वह उसका नागरिक है ही नही। आप सबूत दो कि वह आपका नागरिक है। इसे आप क्या कहेंगे? किंतु, क्या हम आपमें से किसी ने पाकिस्तान से अपेक्षा की थी कि वह तत्काल आतंकवादी को अपने देश का नागरिक स्वीकार कर उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए प्रस्ताव करेगा? नहीं न। तो फिर इसमें धक्का लगने या चिंतित होने का कोई कारण नहीं है। जो पाकिस्तान कर रहा है वही अपेक्षित था। अगर वह इसके विपरीत सभी सही सूचनाओं को स्वीकार कर लेता तो हमें आश्चर्य होता। 

लेकिन जितने साक्ष्य हमारे पास हैं, जिस तरह हमने पकड़े गए आतंकवादी नावेद याकूब उर्फ उस्मान को मीडिया के सामने लाकर बातें कराईं, जिस तरह उसने साफ-साफ जवाब दिया, उन सबको देखने सुनने के बाद दुनिया का कौन देश पाकिस्तान के नकार पर विश्वास करेगा? कोई नहीं। इससे परे जरा पहले नावेद के परिवार की व्यथा और समस्या देखिए। नावेद के अब्बा मोहम्मद याकूब को 1.22 बजे दिन में फोन किया गया था। 80 सेंकेड की बातचीत में बिल्कुल परेशान लग रहे मोहम्मद याकूब ने पंजाबी लहजे में फोन पर बताया कि लश्कर ए तैयबा चाहता था कि उनका बेटा मर जाए और भारतीयों के हाथ जिंदा न लगे। लश्कर-ए-तोएबा और फौज के लोग उसके पीछे पड़े हुए हैं। वो उसे और उसके परिवार को मार डालेंगे। उन्होंने कहा कि लश्कर वाले चाहते है कि हम मर जाएं और जिंदा न पकड़े जाएं। एनआइए की टीम से पूछताछ में नावेद ने कबूला कि उसे आतंकी संगठन लश्कर के दो कैंपों दौर-ए-आम और दौर-ए-खास में ट्रेनिंग दी गई थी। पहले कैंप में उसे फिजिकल फिटनेस, पहाड़ों पर चढ़ने व छोटे हथियार चलाने की तथा दूसरे में असॉल्ट राइफल्स चलाने तथा छोटे बम तैयार करने की ट्रेनिंग दी गई थी।

ध्यान रखिए मुंबई पर 26 नवंबर 2008 को हुए हमले में भी लश्कर-ए-तैएबा की ही भूमिका थी। इसी ने आतंकवादियों का चयन किया, तैयार किया, संसाधन दिए, हमले की योजना बनाई, हमले के दौरान निर्देश देते रहे......। पाकिस्तान अगर इसे स्वीकारता है तो यह साबित हो जाएगा कि 2002 में प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद लश्कर आज भी पाकिस्तान की जमीं से आतंकवादी गतिविधियां चला रहा है। अगर चला रहा है तो फिर उसे संरक्षण और समर्थन भी होगा और होगा तो किसका होगा? तो पाकिस्तान के लिए इसे स्वीकार करना आसान नहीं है। इसलिए वह वही कर रहा है तो वह इस हालत में करेगा। हालांकि पाकिस्तान सच स्वीकार कर लेता तो यह उसके हित में ही जाता। दुनिया को लगता कि वाकई प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और सेना प्रमुख राहील शरीफ दोनों आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष करने, आतंकवाद को किसी कीमत पर बरदाश्त न करने की जो घोषणा कर रहे हैं उसमें सच्चाई है।

पाकिस्तान का तर्क देखिए। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद काजी खलिलुल्लाह ने कहा कि हम कई बार कह चुके हैं कि पाकिस्तान पर तुरंत आरोप लगाना सही नहीं। भारत का दावा आधारहीन है। एक्सप्रेस ट्रिब्यून समाचार पत्र में पाकिस्तान सरकार के सूत्र के हवाले से कहा गया है कि नेशनल डाटाबेस एंड रजिस्ट्रेशन अथारिटी (नादरा) के रिकॉर्ड के अनुसार गिरफ्तार मोहम्मद नावेद याकूब का पाकिस्तानी होने का भारत का दावा बेबुनियाद है। पाकिस्तान का कहना है कि नेशनल डाटाबेस एंड रजिस्ट्रेशन अथॉरिटी के मुताबिक नावेद पाकिस्तान का रहने वाला नहीं है। उसका कहना है कि नावेद नाम का कोई भी शख्स उसके डाटाबेस में नहीं। पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के मुताबिक भारत यह आरोप बिना किसी सुबूत के लगा रहा है। ध्यान रखिए मुंबई हमले में पकड़े गए आतंकवादी अजमल आमिर कसाब के बारे में उसने यही तर्क दिया था कि डाटाबेस में उसका नाम नहीं है, इसलिए वह पाकिस्तान का नागरिक नहीं है। स्वयं भारत में सभी व्यक्तियों का निंबंधन नहीं है। तो क्या वे भारत के नागरिक नहीं माने जाएंगे? पाकिस्तान के तो आधे नागरिकों का भी रजिस्ट्रेशन नहीं है। यह स्थिति कसाब के समय थी और आज भी है। तो क्या पाकिस्तान अपने हर दो में से एक व्यक्ति को पाकिस्तान का नागरिक नहीं मानता? यह तर्क हास्यास्पद है और पाकिस्तान के पाखंड को ही उजागर करता है। नादारा का डाटाबेस में नाम न होना किसी के पाकिस्तानी होने का सबूत नहीं हो सकता है।

हम  न भूले कि पाकिस्तान की ओर से जो भी आतंकवादी हमले करने आता है उसके पकड़े जाने या मारे जाने पर वह उसे अपना नागरिक मानने से इन्कार करता है। यह उसकी आदत है। कसाब को भी उसने पहले पाकिस्तानी नहीं माना। उल्टे भारत पर ही बदनाम करने का आरोप लगाया। पाकिस्तान के एक सामचार पत्र के पत्रकारों ने उसे गांव जाकर घर का पता किया, पूरी जानकारी ली और साबित किया कि वह वाकई फैसलाबाद के उसी गांव का रहने वाला है जहां कि जानकारी भारत ने दी है। पाकिस्तान के जिओ चैनल के पत्रकारों ने तो बाजाब्ता उसका विडियो और बातचीत प्रसारित किया। उसके गांव तक में प्रवेश करने पर सेना ने रोक लगा दी थी। पूरी घेरेबंदी थी। जियो चैनल के दो पत्रकारों ने खुफिया कैमरा लगाकर छद्म वेश में कसाब के पिता से बातचीत करने में सफलता पाई थी। उसके पिता ने कुबूल किया था कि कसाब उन्हीं का बेटा है। ठीक यही स्थिति नावेद के गांव की हो गई है। पाकिस्तान के पत्रकारों के लिए भी फैसलाबाद स्थित गुलाम मोहम्मद क्षेत्र में उसके परिवार के पास सीधे पहुंचना कठिन है। भय यही है कि जिस तरह कसाब के माता-पिता को उनके गांव से कहां ले जाया गया यह किसी को पता नहीं कहीं वहीं स्थिति नावेद के परिवार की न हो। यह बिल्कुल संभव है। पाकिस्तान ने कसाब के साथ मुंबई हमले में शामिल छह अन्य मारे गए पाकिस्तानी आतंकवादियों को भी अपने देश का वासी मानने से इन्कार किया। पाकिस्तान ने करगिल युद्ध में मारे गए आतंकवादियों के साथ सेना के शव तक लेने से यह कहते हुए इन्कार किया कि वो हमारे नागरिक है ही नहीं। भारतीय सेना के जिम्मे उन सबका उनके मजहब के अनुसार सम्मानपूर्वक दफनाने की प्रक्रिया पूरी करनी पड़ती थी।

हालांकि बाद में पाकिस्तान को मजबूर होकर कसाब को स्वीकार करना पड़ा, उसने इसके सात सूत्रधारों पर वहां प्राथमिकी दर्ज कर मुकदमा भी चलाया। यह बात अलग है कि मुकदमा सही कानूनी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सका। पाकिस्तान ने यह भी आरोप लगाया कि कसाब तो छोटा व्यापारी था। वह नेपाल गया था। वहां से भारतीय एजेंसियों ने उसे पकड़ा और छिपाकर रखा था ऐसे समय में प्रयोग करने के लिए, जबकि भारत ने वहां की न्यायिक टीम तक को भारत आकर जांच करने की अनुमति दी। ऐसा ही कुछ नावेद के मामले में हो सकता है।

पाकिस्तान के विशेषज्ञ कर रहे हैं कि पहले साबित करो कि वह पाकिस्तानी था और आतंकवादी था। यह भी साबित करो कि उसे भेजने में सरकार के किसी अंग की भूमिका है? वे कह रहे हैं कि स्वीकार्य साक्ष्य लाओ। प्रश्न है कि पाकिस्तान के अनुसार क्या स्वीकार्य साक्ष्य हो सकता है? पाकिस्तान अपने यहां धराधर आतंकवादियों को फांसी पर चढ़ा रहा हैं। उसके लिए जो साक्ष्य चाहिए उसके पास आ जाता है, पर वही आतंकवादी यदि भारत में आकर हमला करता है तो उसके लिए उसे दूसरे प्रकार के साक्ष्य चाहिएं। मुंबई मामलों में जिन 7 पर मुकदमा चला रहे हैं उनके बारे में भी वे कहते हैं कि यह न्यायालय में स्वीकार्य साक्ष्य नहीं है। क्या साक्ष्य वे चाहते हैं? जाहिर है, साक्ष्य का बहाना अपने को केवल बचाना है। किंतु हम उनकी चिंता ही क्यों करें? उनको जो करना हैं करें। हम इस बात को लेकर सुनिश्चित हैं कि हमारे हाथ आया आतंकवादी पाकिस्तानी है। उसे वहां से प्रशिक्षण देकर निश्चित लक्ष्य पर हमले करने और जान देने के लिए भेजा गया था। दुनिया इसे मान लेगी यह भी तय है। सजा तो हमारे न्यायालय को देना हैं। हां, यह हमारी कुशलता पर निर्भर है कि हम उससे प्राप्त जानकारी के अनुसार पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने में किस सीमा तक सफल होते हैं। नावेद को उन सभी स्थानों पर ले जाया गया, जहां से वह भारत में घुसा और घुसपैठ के बाद शरण ली थी। उससे हमें आतंकवादियों की आगे की योजना, उनके घुसपैठ के स्थानों, तरीकों को पता चल रहा है, उनकी नई रणनीति समझ आ रही है, दो महीने तक उसके और दूसरे आतंकवादियों के कश्मीर में ठहरने के स्थान पता जल रहे हैं, लोग चिन्हित हो रहे हैं...गिरफ्तार भी हो रहे हैं। यह आतंकवाद से संघर्ष और शमन में कितना सहयोगी साबित हो सकता है, शायद बताने की आवश्यकता नहीं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

अब पाकिस्तान के झुठ कौन स्वीकार करेगा

 

अवधेश कुमार

निस्संदेह, गुरुदासपुर हमले में हमारे सुरक्षा बल मन मसोसकर रह गए थे। वे चाहते थे कि उसमें से एक भी आतंकवादी जिंदा पकड़ा जा सके ताकि हम दुनियां को बता सकें कि देखो, ये है पाकिस्तान का असली चेहरा। उसमें सफलता नहीं मिली और पाकिस्तान को नकारने का अवसर मिल गया। आत्मघाती आतंकवादी चूंकि जान देने की कसमें खाकर हमला करने आते हैं और उनके अंदर मौत के बाद की मजहबी भावनाएं इतनी हाबी होतीं हैं कि उनको जिन्दा पकड़ना संभव नहीं होता। यह पूरी दुनिया की स्थिति है। इसका लाभ ही आतंकवाद को प्रायोजित करने वालों से लेकर साजिशकर्ता संगठनों को मिलता है। इस दृष्टि से विचार करें तो उधमपुर में हमारे हाथ आया पाकिस्तानी आतंकवादी कितनी बड़ी सफलता है यह बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वास्तव मे जबसे आत्मघाती हमले आरंभ हुए हमने इसके पूर्व मुंबई हमलेे के दौरन केवल एक आतंकवादी अजमल अमीर कसाब को पकड़ा था। उसके कारण मुंबई हमलों की पूरी साजिश दुनिया के सामने उजागर हुई। जिस तरह अभी पाकिस्तान नावेद उर्फ उस्मान को अपने देश का वासी मानने से इ्रन्कार कर रहा है उसी तर उसने आरंभ में कसाब को भी पाकिस्तानी नहीं माना था, पर बाद में मुंबई हमले की अपने यहां हुई साजिश स्वीकार किया और बेमन से ही सही उसके साजिशकर्ताओं पर मुकदमा चलाया। कारण, अमेरिका एवं पश्चिमी देशों ने भी कसाब को आतंकवादी माना, उसके बयानों को सच मानकर पाकिस्तान पर दबाव बनाया। उसके बाद यह दूसरी सफलता है।

यह ठीक है कि बीएसएफ की गाड़ी पर आतंकवादियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में हमारे दो जवान शहीद हो गए और 10 अन्य घायल हुए। यह बड़ी क्षति है। कल्पना करिए अगर यह पकड़ में नहीं आता तो न जाने और हमलों की कितनी साजिशों को अंजाम दिया जाता।एक तो वहीं मारा ही गया। आत्मघाती आतंकवादियों के मारे जाने का विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि वो आते ही हैं मरने के लिए। दूसरा भी मर जाता तो यह भी एक खबर बनकर रह जाती। ऐसा हुआ नहीं। यह पाकिस्तान के लिए पिछले दो दिनों में दूसरा बड़ा आघात है। एक दिन पहले संघीय जांच एजेंसी के पूर्व प्रमख तारिक खोसा ने डॉन अखबार में एक लेख लिखकर कहा कि किस तरह उनकी जांच में साफ हुआ था कि 26 नवंबर 2008 को हुए मुंबई पर हमले की योजना, उसके संसाधन, प्रशिक्षण, हमलों के दौरान निर्देश.... आदि सबका केन्द्र पाकिस्तान ही था। उन्होंने कसाब को भी पाकिस्तानी बताया और कहा कि हमारे देश को इसकी उचित कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। क्यों? क्योंकि जांच में सब कुछ पता चल गया था और सही कानूनी कार्रवाई न करने से आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान का आचरण दुनिया भर के लिए संदेहों के घेरे में रहेगा। उसे लेकर पाकिस्तान में परेशानी महसूस की ही जा रही थी कि अब पाकिस्तान के फैसलाबाद निवासी कासिम खान उर्फ उस्मान खान हमारे हाथ आ गया है। संयोग देखिए, अजमल कसाब भी फैसलाबाद का ही रहने वाला था। तो क्या वहां से ज्यादा नवजवानों को भारत और जम्मू कश्मीर मेें आतंकवाद को अंजाम देने के लिए तैयार किया जाता है?

अगर नावेद के पकड़े जाने के पूर्व का घटनाक्रम देखें तो यह वैसे ही सामान्य था जैसे आम हमले आजकल हो रहे हैं। जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऊधमपुर जिले के नरसू नल्लाह इलाके में सुबह बीएसएफ के काफिले पर आतंावादियों द्वारा हमला किया जाना उसी तरह है जैसा वहां अन्यत्र हमला किया जाता रहा है। इधर ज्यादातर हमले सुरक्षा बलों पर सुबह ही हुए हैं। ध्यान रखिए गुरुदासपुर हमला भी सुबह ही हुआ था। हां, यह क्षेत्र काफी समय से आतंकवादी गतिविधियों से मुक्त रहा था। एक आतंकवादी के मरने के बाद जरा दृश्य पलट गया। दूसरा एक विद्यालय में घुस गया था जहां उसने संभवतः पांच लोगों को बंधक बना लिया। बंधक बनाने के बाद सुरक्षा बलों के लिए मुकाबला कठिन हो जाता है, क्योंकि आतंकवादियों को मारने, पकड़ने के साथ बंधक बने आम लोगों को सुरक्षित बचाना प्राथमिकता हो जाती है। हो सकता है कि वह गुरुदासपुर की तरह ही वहां लंबे समय तक सुरक्षा बलों से मुकाबला कर अपनी जान देना चाहता रहा हो। लेकिन बंधक बनाए गए लोग उस पर भारी पड़े। इन लोगों का कहना है कि उसने उन्हें जान से मारने की धमकी देते हुए किसी सुरक्षित स्थान की ओर से निकल भागने में मदद करने को कहा। शायद वह वहां लड़ते हुए मरने की बजाय भागना चाहता था। आत्मघाती आतंकवादियों को भी इस बात का प्रशिक्षण दिया जाता है कि यदि जान बच सकती हो तो भागो ताकि दूसरे हमले में काम आ सको। खैर, वह लोगों को लेकर काफी दूर गया, लेकिन उन लोगों ने किसी तरह काबू कर लिया और फिर....।

नावेद की उम्र केवल 20 साल है जो उर्दू और पंजाबी बोल रहा है। इतनी कम उम्र में किसी को भटकाना आसान होता है। कसाब भी लगभग इसी उम्र का था। नावेद लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य है। उसके पास से एक एके47 और कई मैगजीन बरामद हुई है। अगर सुरक्षा बलों की मानें तो वह गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले के मॉड्यूल में शामिल था। यह सच है तो फिर गुरदासपुर हमले को भविष्य के अन्य बड़े हमलों का पहला सोपान मानना होगा। अब कासिम से ही यह पता चलेगा कि आगे ऐसे और कितने मॉड्यूल हैं जिनकी योजना इस तरह के हमले करने की है। जैसा बताया जा रहा है ये गुरदासपुर में हमला करने वाले आतंकियों के साथ आए थे तो इनके अलावा और कितने हैं जो अभी बचे हुए हैं?

वस्तुतः इस विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि उसके निशाने पर कौन-कौन थे। चूंकि बीएसएफ की बस के ठीक पीछे अमरनाथ यात्रियों का एक जत्था आने वाला था, इसलिए कुछ लोग कह रहे हैं कि उनके निशाने पर अमरनाथ यात्री थे। गुरदासपुर में मुख्य हमले के पूर्व तीनों आतंकवादियों ने अमरनाथ यात्रा जा रही बस पर गोल चलाई थी लेकिन चालक किसी तरह उन्हें बचाकर ले गया। ये समरोली इलाके में झाड़ियों में छिप हुए थे। बीएसएफ की बस पहुंचते ही हमला कर दिया। इसके मीन मेख से हमें कोई लाभ नहीं होने वाला। आतंकवादियों के निशाने पर एक साथ कई होते हैं। एक में असफल तो दूसरे पर हमला करो, न मिले तो फिर कहीं हमला कर दो। दूसरे, वे कहीं न कहीं हमले के लिए घात लगाने स्थान तलाशते ही है। हमारे लिए महत्वपूर्ण है उसका साक्षात पाकिस्तानी होना। उसके द्वारा पाकिस्तानी होने की स्वीकृति। उसका यह बताना कि हमले की योजना कैसे बनी और उसके पीछे किसका हाथ है। इसके बाद हमारी भूमिका उससे पूरी जानकारी लेकर पाकिस्तान को दुनिया के सामने बेनकाब करना होना चाहिए।

 वैसे तर्क यह भी दिया जा रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत रोकने के लिए हमले हो रहे हैं। मान लें यह सच है तो? पाकिस्तान ने इसे रोकने के लिए क्या किया? नावेद  के पकड़ में आने से यह जानी हुई बात प्रमाणित हो गई कि लश्कर ए तैयबा जैसा आतंकवादी संगठन प्रतिबंध के बावजूद पाकिस्तान में बना हुआ है, उसे प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध है तो संरक्षण भी। बगैर संरक्षण के कैसे आराम से वह गतिविधियां चला सकता है और योजना बनाकर आतंकवादियों को इस पार भेज सकता है? पाकिस्तानी रेंजर्स वहां क्या कर रहे हैं? नावेद बता सकता है कि लगातार पिछले कई दिनों से जो सीमा पर गोलीबारी हो रही थी वह कहीं उनकी मदद में तो नहीं था? या दूसरे अन्य आतंकवादियों को घुसपैठ कराने के लिए तो नहीं है?

सच यह है कि पाकिस्तान पश्चिमोत्तर और अपने देश के विरुद्ध जारी आतंकवाद के खिलाफ तो पूरी ताकत से संघर्ष कर रहा है, आतंकवादियों को फांसी पर चढ़ाने का रिकॉर्ड बना रहा है, पर उसकी सीमा से भारत में आने वाले आतंकवाद को उसके यहां अभी भी शरण, संसाधन और संरक्षण हासिल है। उसका केवल तंत्र और तरीका बदल गया है। नावेद इसका ऐसा सबूत हमारे हाथ आया है जिसे वह कितना भी इन्कार करे, दुनिया उस पर यकीन नहीं करने वाली। नावेद के बयान देकर हम पाकिस्तान को बता सकते हैं कि ये हैं आपकी असलियत और आप हमेशा हमें घाव देने की नीति पर चलते हुए कहते हैं कि ये तो हमारे अपने दोष से है। यानी जम्मू कश्मीर में हमारे कब्जे के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का आपका राग झूठा है, सबके पीछे आप हैं। आप अपना रवैया बदलिए नही ंतो हमें भी आपको रास्ते पर लाने के लिए कदम उठाना होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः 01122483408, 09811027208

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