गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

भारत ने दिखाया आपदा प्रबंधन अपनी सक्षमता

 

अवधेश कुमार

निश्चय ही यह देखकर राजनीतिक दुराग्रहों से परे हर व्यक्ति को गर्व होगा कि आज नेपाल से भी भारत के प्रधानमंत्री का गुणगान हो रहा है। सच कहंें तो यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नहीं भारत का गुणगान है। जिस ढंग से भारत ने भूकंप की सूचना मिलते ही बिना देरी किए अपने देश के साथ नेपाल में राहत और बचाव आरंभ कर दिया तथा धीरे-धीरे विनाशलीला की विस्तृत खबर आने के साथ उसका विस्तार करता गया है उसके बाद नेपाल के लोग इस त्रासदी और शोक की घड़ी में भी अपनी कृतज्ञता ज्ञापन कर रहे हैं। इसके पूर्व देश के बाहर तो छोड़िए अंदर भी प्राकृतिक आपदा के संदर्भ में राहत व बचाव के मामले में हमारा रिकॉर्ड उत्साहित करने वाला नहीं रहा है। ऐसा नहीं है कि आपदा में राहत पहले नहीं हुए, लेकिन यह स्थिति कभी नहीं पैदा हुई जिसमें हम विश्वासपूर्वक यह मान सकें कि वाकई प्राकृतिक विनाश की स्थिति में हमारा आपदा प्रबंधन उसी तरह हमारी पीठ पर हाथ रखकर हमें बचा लेगा जिस तरह पश्चिमी देशों की आपदा राहत एजेंसियां। इसके अनेक प्रमाण मौजूद हैं जब केवल आपदा प्रबंधन की दुर्बलता से जानमाल की व्यापक क्षति का सामना भारत को करना पड़ा। वर्तमान भूकंप की विनाशलीला में यह छवि और स्थिति बदली है। भले यह त्रासदी बहुत बड़ी है, पर इस सच को स्वीकार करने से हमारे लिए कुछ उम्मीद बंधती है।  राजनीतिक विचारधारा से परे हटें तो हमें इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देना होगा।

यह कोई भी स्वीकार करेगा कि ऐसे संकटों के क्षण में पूरा दारोमदारं राजनीतिक नेतृत्व पर निर्भर करता है। जितनी तत्परता, सूझबुझ और संकल्प से वह पहल करेगा आपदा राहत उतने ही बेहतर एवं कुशल तरीके से संभव हो सकेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसे समय के अनुकूल नेतृत्व की भूमिका निभाई है। भूकंप की सूचना मिलते ही मोदी ने केन्द्र सरकार की संकट प्रबंधन समिति को निर्देश दिया कि तुरत सारी सूचनाएं लेकर बैठक करें,ं जितना संभव है उसकी सूची बनाएं एवं अमल में लायें। इसमें राष्ट्रीय आपदा राहत बल की पहली टीम राज्यों के साथ काठमांडू पहुंच जायें ऐसा निर्देश भी था। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में कहा कि यह उनकी जिम्मेवारी थी, पर सूचना उन्ंहें प्रधानमंत्री से मिली। वस्तुतः मोदी ने इसके बाद प्रभावित उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल तथा सिक्किम के मुख्यमंत्रियों से बातचीत की। उसके साथ प्रधानमंत्री ने नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोईराला और राष्ट्रपति रामवरण यादव से बात की। कहा जाता है कि कोईराला फोन पर ही फुट फुट कर रोने लगे तो मोदी ने उन्हें ढाढस बंधाया और कहा कि आपका संकट हमारा संकट है, आपको जो चाहिए भारत वो सब आपके समय और आपके बताये स्थानों पर पहुंचाएगा। इतना सब करने के बाद तब प्रधानमंत्री ने अपनी अध्यक्षता में पहली उच्च स्तरीय बैठक की। उसमें प्रमुख मंत्रियों सहित सरकार एवं सभी संबंधित विभागों के उच्चाधिकारी मौजूद थे। उसके बाद सबकी मजबूरी थी पूरी तैयारी से आना और फिर राहत और बचाव की पूरी मशीनरी एक दूसरे के समन्वय के साथ सक्रिय।

गृह मंत्रालय और एनडीएमए में रात-दिन काम करने वाला नियंत्रण कक्ष बना है। कैबिनेट सचिवालय में अंतर सरकारी समन्वय प्रकोष्ठ स्थापित किया गया है जो नेपाल और भारतीय राज्यों के लिए राहत उपायों का समन्वय कर रहा है। विदेश मंत्रालय ने चौबीस घंटे का एक नियंत्रण कक्ष शुरू किया है। भारतीय सेना ने नेपाल में ऑपरेशन मैत्री शुरू कर बचाव कार्य तेज कर दिया है। एनडीआरएफ की टीमें राहत-बचाव कार्य में जुटीं हैं। प्रधानमंत्री ने एनडीआरएफ के निदेशक जनरल ओपी सिंह को  स्वयं नेपाल जाने को कहा और वहां वे पहंुच गए हैं।  कुल मिलाकर इस समय नेपाल में करीब 15 विमान आौर 12 हेलीकॉप्टरों के साथ विशेषज्ञों और उपकरणों को भेजा जा चुका है। प्रधानमंत्री ने हर दिन इसी तरह बैठक की। राहत एवं बचाव कार्य से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों द्वारा भारत और नेपाल में किए गए कामों तथा बाद में आए भूकंप के प्रमुख झटके के बाद की परिस्थितियों की समीक्षा की गई। इस समय करीब एनडीआरएफ की करीब 16 टीमें नेपाल में राहत और बचाव में लगी हैं। नेपाल में 3 लाख विदेशियों के फंसे होने की सूचना आई तो फिर उनको कैसे निकाला जाए। सभी को वायुमार्ग से लाना संभव नहीं। प्रधानमंत्री के निर्देश पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत से बातचीत की और उन्हें नेपाल में कल के भूकम्प के कारण वहां फंसे लोगों को निकालने के लिए बसों और एम्बुलेंसों के बेड़े की व्यवस्था करने का अनुरोध किया और हुआ कि नहीं इसके लिए भी संबंधित अधिकारियों को लगाया। गृह मंत्री ने एसएसबी को भारत-नेपाल सीमा पार करके यहां आने वाले पर्यटकों को चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए सीमा के साथ शिविर लगाने का भी निर्देश दिया और आप शिविर देख सकते हैं। राजनाथ सिंह ने आव्रजन ब्यूरो को निर्देश दिया कि नेपाल में फंसे सभी विदेशी पर्यटकों के भारत आने के लिए निशुल्क वीजा’ (ग्रैटिस वीजा) प्रदान किया जाए। आज स्पेन जैसे देश ने भी भारत से अपने नागरिकों को निकालने का अनुरोध किया है। ऐसा अनुरोध दूसरे देशों से आ रहा है। यह पश्चिमी देशों की नजर में भारत के आपदा प्रबंधन के सक्षम होने की छवि का ही प्रमाण है।

हालांकि इनमें भारत के प्रभावित राज्यों की अनदेखी नहीं हुई है। जरुरत के अनुसार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने समन्वय के साथ काम की शुरुआत की। बचाव एवं राहत कार्य के लिए एनडीआरएफ की चार टीम तैनात की गई है। बिहार के गोपालगंज, मोतीहारी, सुपौल और दरभंगा जिले में एक-एक टीम की तैनाती की गई है और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक टीम तैनात की गई है।  केन्द्रीय मंत्री राजीव प्रताप रुडी को इन क्षेत्रों मे आकलन और मौनिटरिंग की जिम्मेवारी दे दी गइ। मृतकों के परिजनों को राष्ट्रीय आपदा राहत कोष से 4 लाख रुपए का बढ़ा हुआ मुआवजा मिलने का ऐलान हुआ। किसानों की बारिस और ओला से दुष्प्रभावित होने के बाद प्राकृतिक आपदा से होने वाली मृत्यु के मामले में मुआवजे की राशि 1.5 लाख रुपए से बढ़ा कर 4 लाख रुपए कर दी गई है। उपरोक्त राशि मृत व्यक्ति के परिजनों को प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष से मिलने वाले दो लाख रुपए के अतिरिक्त है। गंभीर रूप से घायल लोगों के लिए 50,000 रुपए के मुआवजे की घोषणा की गई है।

 इस तरह नेपाल एवं भारत दोनों जगह एक समग्र आपदा प्रबंधन का अमल हमें दिख रहा है। लोगों ने जिस तरह मोदी को धन्यवाद दिया है, उनके धुर विरोधी नीतीश कुमार तक ने केन्द्र की व्यवस्था की प्रशंसा की है उससे हम धरातल की स्थिति का अनुमान लगा सकते है। हालांकि नेतृत्व नेपाली सेना के हाथों है जिसमें अनुभव की कमी है, इसलिए थोड़ी दिक्कतें हो रहीं हैं, क्योंकि उसकी हरि झंडी के बगैर हमारी टीेमें कूच नहीं कर सकतीं। पर हमारी अपनी व्यवस्था पूरी व्यवस्था एवं प्रतिक्रिया त्वरित तथा बिल्कुल सक्षम है। हमारी आपकी याददाश्त में यह पहली बार है जब मीडिया को नकारात्मक दिखाने के लिए बहुत कुछ नहीं मिल रहा है। याद करिए कोसी जल प्लावन को या केदारनाथ त्रासदी को। उस समय मीडिया की रिपोर्टें एवं आज की रिपोर्टों में तुलना कर लीजिए। निष्कर्ष आपके सामने होगा। मोदी ने कहा है कि धन्यवाद तो 125 करोड़ भारतवासियों को है जिन्होंने नेपाल के संकट को भी अपना संकट माना। उन्होंने उन युवाओं, संस्थाओं, स्वयंसेवकों को भी धन्यवाद दिया जो निःस्वार्थ भाव से राहत और बचाव में लगे हैं। वास्तव में किसी भी आपदा में केवल सरकार की भूमिका से राहत बचाव और पुनर्वास संभव नहीं है। आम लोगों, संगठनों, सस्थाओं सबको आगे आने की आवश्यकता होती है। पर इसमें भी राजनीतिक नेतृत्व की मुख्य भूमिका होती है कि कैसे वह लोगों को सेवा के लिए आगे आने को प्रेरित करे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

 

रविवार, 26 अप्रैल 2015

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था ने 268 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई

संवाददता

नई दिल्ली। पूरे देश में पोलियो खत्म हो चुका है इसी की कड़ी में राजधानी में पल्स पोलियो दिवस को लेकर बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई व संकल्प लिया गया कि अब दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश को पोलियो को दूबारा पनपने नहीं दिया जाएगा।

नई पीढ़ी-नई सोच की ओर से हर बार की तरह इस बार भी पल्स पोलियो टीकाकरण कैम्प लगाया गया जिसमें 268 बच्चों ने पोलियो की दवा पी। यह कैम्प संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लिनिक बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में लगाया गया। इस कैम्प का उद्घाटन संस्था के सरपरस्त श्री अब्दुल खालिक ने किया। उनके साथ संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन भी मौजूद थे।

कैम्प में बच्चों को पोलियो की ड्राप्स सुबह 9 बजे से ही पिलाईं जाने लगी थी और शाम 4 बजे तक 268 बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाईं गईं। संस्था के पदाधिकारियों और सदस्यों ने घर-घर जाकर लोगों को पोलियो ड्राप्स पिलाने के लिए प्रोरित किया और पोलियो की ड्राप्स न पिलाने के नुकसान बताए।

अब्दुल खालिक ने कहा कि संस्था हमेशा हर तरह के राष्ट्रीय प्रोग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है और बीच-बीच में जनता को भी इन प्रोग्राम के प्रति जागरूक करती है। संस्था के सदस्यों ने आज पूरी दिन लोगों के घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो केंद्र पर 0-5 वर्ष के बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाने के लिए कहा।

संस्था के अध्यक्ष साबिर हुसैन ने कहा कि हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम लोगों की ज्यादा से ज्यादा मदद करते रहें, क्योंकि दूसरों की मदद करने में जो शुकून मिलता है वह और किसी दूसरे काम में नहीं मिलता।

संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि सरकार द्वारा चलाई जा रही मुहिम को हम जनता तक पहुंचा रहे हैं। आज पोलियो जड़ से खात्मे की ओर जा चुका है दूसरी बीमारियों पर भी सरकार जल्द कामयाबी हासिल करने में लेगी है और कुछ बीमारियों पर कामयाबी हासिल कर चुकी है।

इस अवसर पर सरपरस्त अब्दुल खालिक, संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन, मौ. रियाज, डॉ. आर. अंसारी, मो. यामीन, आजाद, अंजार, मौ. सज्जाद, कुरबान, फुरकान, गुलजार, शान बाबू, इरफान आलम, मो. सहराज, विनोद, अब्दुल रज्जाक आदि मौजूद थे।

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

गजेन्द्र की मौत का कारण अलग है

 

अवधेश कुमार

तो गजेन्द्र सिंह राणावत की मौत देश में हर स्तर पर उबाल का कारण बन रहा है। लेकिन इस उबाल से वाकई इसका सच सामने आएगा, देश सच का सामना करेगा और किसानों की समस्या जैसी है जिन कारणों से है उनके बारे में स्पष्टता आएगी यह विश्वास करना मुश्किल है। अब जितनी जानकारी सामने आ गई है उसमें कुछ बातें तो बिल्कुल साफ हैं। एक, गजेन्द्र उतना गरीब किसान परिवार का नहीं था जितना पहले बताया गया था। दो, उसकी फसल प्रभावित हुईं थीं किंतु जिस क्षेत्र से वह आता है वहां फसलों का नुकसान सरकारी अधिकारियों ने 20 25 प्रतिशत तक बताया था। हो सकता है नुकसान उससे ज्यादा हो, पर ऐसा नहीं था जिससे उसके परिवार के सामने जीने मरने की समस्या आ गई हो। तीन, वह राजस्थान की राजनीति में पिछले लंबे समय से सक्रिय था। चार, इस समय वह आम आदमी पार्टी का सक्रिय नेता था। पांच, किसी भी पहलू से यह प्रमाणित नहीं होता कि उसके मन में आत्महत्या की सोच थी। यानी वह आत्महत्या करने नहीं आया था। तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर उसकी इहलीला समाप्त कैसे हुई? कोई व्यक्ति आत्महत्या करने आए नहीं और आत्महत्या करने के लिए पेंड़ से लटक जाए तो इसका कुछ तो कारण होगा? जो कारण हैं उनके लिए कुछ जिम्मेवार तत्व भी होंगे।

दिल्ली पुलिस अपनी जाचं कर रही है और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दे दिए हैं। संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अपने बयान में कहा है कि जब वह पेड़ पर चढ़ा तो लोग पहले तालियां बजाकर उसका हौसला बढ़ा रहे थे। गमछे से फंदा लगाने तक यही दृश्य था। तो फिर कहां से उसके पेड़ पर चढ़ने और फांसी का गले में फंदा लगाने का विचार आया? क्या यह समूह से निकला विचार था या फिर किसी नेता ने उसको इसके लिए तैयार किया था ताकि सभा मंें यह दिखाया जाए कि देखो, सरकार ने किसानों की कैसी हालत कर दी है कि राजस्थान का एक किसान यहां खुदकुशी करने को तैयार है। शायद ऐसा हो और इसके परिणाम की आरंभ में चिंता नहीं की गई हो। जिस तरह उसके फंदा लगाने के बावजूद नेता केवल वोलंटियरों से उसे उतारने की अपील करते रहे, पुलिस से अपील करते रहे और फिर सभा भी चलाते रहे उससे संदेह की सूई तो इस दिशा में घूमती है। कुमार विश्वास का माइक लिए हुए इशारे पूछना कि क्या लटक गया और फिर नेताआंे को इशारे से ही बता देना एवं किसी का बोलना कि लटक गया.....कई संदेह पैदा करते हैं। यह बात अलग है कि जांच के बाद हमारे सामने ये तथ्य आएंगे ही आवश्यक नही। पर किसी दृष्टि से गजेन्द्र की मृत्यु आत्महत्या नहीं मानी जा सकती। उसके पत्र को ही देख लीजिए तो उसमें कहीं मरने का जिक्र नहीं है। यह बात अलग है कि पत्र में उसके लिखावट पर ही प्रश्न खड़ा हो गया है।

तो क्या वाकई उसे ऐसा करने के लिए उकसाया गया था? परिवार के लोगों का कहना है कि वह आप के शीर्ष नेताओं के संपर्क में था। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। लेकिन इसमें जो सबसे ज्यादा क्षोभ पैदा करने वाला पहलू है वह है राजनीतिक व्यवहार। संसद के अंदर और बाहर राजनीतिक दल जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं उनसे सच्चाई सामने आ ही नहीं सकती। सच कहा जाए तो ये अपने राजनीतिक दलों के हितों को ध्यान में रखकर बयान दे रहे हैं और यही हमारी राजनीति की सामूहिक अमानवीयता का परिचायक है। इस समय किसानों के फसल नष्ट होने का मामला ऐसा बना दिया गया है मानो इसके पूर्व कभी किसानों को प्राकृतिक प्रकोप का सामना करना ही नहीं पड़ा। मानो इसके पूर्व हमारे जीवट किसानों ने इसका अपने आत्मबल और परिश्रम से सामना ही नहीं किया। मानो इसके पूर्व प्रकृति का प्रकोप हुआ और सरकारों ने उनके घर रुपयों की थैली ऐसे बरसा दी कि उनका दुख क्षण में दूर हो गया। ये अतिवादी विचार हैं। जो पार्टियां संसद में और बाहर चिल्ला रहीं हैं वे अपने गिरेबान में झांके कि उन्होंने इसके पहले क्या किया है? राज्यों में जहां उनकी सरकारें हैं वे क्या कर रहीं हैं?

यह बात बिल्कुल साफ हो चुका है कि गजेन्द्र की मृत्यु का किसानों की फसल नुकसान से कोई संबंध नहीं है। जब ओला और बारिस से हुए नुकसान के कारण  उसके अंदर मरने की इच्छा पैदा ही नहीं हुई तो फिर यह कारण कैसे हो सकता है उसकी मौत का? उसकी मौत का अगर कोई प्रत्यक्ष कारण सामने है तो वह है, आम आदमी पार्टी की रैली। क्या हम आप यह स्वीकार करेंगे कि नहीं कि अगर रैली नहीं होती तो आज वह जिन्दा होता? तो उसके लिए खलनायक या यमराज बना रैली। कहने का अर्थ यह नहीं कि राजनीतिक दलों को रैली आयोजित नहीं करनी चाहिए। यह लोकतांत्रिक संघर्ष का औजार है। पर आम आदमी पार्टी ने अपने नेताओं को बाहर निकालने के कारण हो रही निंदा से ध्यान हटाने के लिए किसान, किसान की राजनीतिक प्रतिध्वनि में अपनी आवाज गूंजाने की रणनीति अपनाई थी। उसमें आने वाले किसान कम उसके कार्यकर्ता ज्यादा थे। तभी तो उतने लोगों में उसे बचाने के लिए वह भी काफी देर बात चार पांच लोग चढ़े और एक ही उसके पास तक पहंच सका। किसान होते तो कब का पेड़ पर चढ़कर उसे उतार लाये होते।

राजनीतिक दल इन पहलुओं को जो आईने की तरह साफ है देखने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे? अगर नहीं करेंगे तो फिर भारत की समस्यायें ऐसे ही बढ़ती जाएंगी, जो समस्या है उसकी पहचान होगी नहीं, जो है नहीं उस पर शोर मचाया जाएगा। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का काई बार नेताओं को टोकना पड़ा कि इस तरह हर प्रसंग में राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्हें नेताओं के कई शब्द रिकॉर्ड से बाहर निकलवाने पड़े। प्राकृतिक आपदायें पहले भी आतीं रहीं हैं, किसान उनका सामना पहले भी करते रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं से तो एक समय के संपन्न परिवार निर्धन हो गए। बावजूद इसके आत्महत्या की घटनायें हमने नहीं देखीं। मैं आत्महत्या को नकारता नहीं हूं, पर जिस तरह का शोर मचाया जा रहा है उसमें सच्चाई का अशं बहुत कम है। सरकार की प्रक्रिया है। पहले राज्य सरकार फसल नष्ट होने का आकलन करती है, फिर केन्द्र करती है, उसके बाद राज्य अपना मुआवजा देता है, केन्द्र अपना राज्य सरकार के पास भेजता है। इसमें थोड़ा समय लगता है, लेकिन जिला प्रशासन चाहे तो तुरत आकलन करके जहां जरुरत है अंतरिम सहायता त्वरित स्तर पर मुहैया करा सकता है। यह राज्य सरकार की इच्छा शक्ति और स्थानीय राजनीतिक दलों, सामाजिक धार्मिक संगठनों की सक्रियता पर निर्भर करती है। पूरी तरह सरकारी मशीनरी पर निर्भर होने के कारण भी समस्या आती है। पर यह कहना गलत है कि केन्द्र सरकार ने संज्ञान नहीं लिया, कदम नहीं उठाया। केन्द्र के मंत्रियों की टीम तक अलग-अलग राज्यों में कई, केन्द्र ने मुआवजा राशि बढ़ाई है, मुआवजे के लिए क्षति का अनुपात 50 प्रतिशत से 33 प्रतिशत कर दिया है। इसमें यदि आत्महत्या कहीं हो रही है तो इसका कारण तलाशा जाना चाहिए।

गजेन्द्र की मौत तो एक सबक बनना चाहिए था। उसकी मौत का कारण कुछ और है, पर अचानक किसान हितैषी हमारे दल उसे देखकर भी नजरअंदाज कर रहे हैं। उसी तरह अन्य मामलों में भी हो रहा है। आखिर राजधानी दिल्ली में जहां आकस्मिक सेवा के श्रेष्ठतम साधन और तंत्र उपलब्ध है वहां दिल्ली के दिल में एक व्यक्ति कैसे इस तरह अपना प्राण गंवा बैठा। हमारी मशीनरी में कहां दोष है उसका आकलना होना चाहिए। पुलिस क्यों नहीं उसे बचाने में सफल हुई इसका उत्तर तलाशना चाहिए। उतने लोग क्यों उसे मरते देखते रहे इसका भी जवाब मिलना चाहिए। इसकी बजाय जो कारण नहीं है उस पर राजनीतिक बावेला मचा है। यह स्थिति हमें ज्यादा चिंतित और क्षुब्ध करती है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

नरसिंह राव के स्मारक पर आपत्ति दुर्भाग्यपूर्ण

अवधेश कुमार
यह वाकई समझ से परे है कि अगर हमारे देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री की समाधि राजधानी दिल्ली के एकता स्थल में बन जाएगी तो इससे कौन सी आफत आ जाएगी। जिस तरह से पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की समाधि बनाने के मोदी सरकार के फैसले पर कुछ हलकों से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। नरसिंह राव ऐसे नाम नहीं रह गए हैं जिनसे किसी पार्टी को वोट का लाभ हो। उत्तर प्रदेश के संसदीय कार्य मंत्री आजम खां ने कह रहे हैं यह कदम राव को अयोध्या में बाबरी ढांचे को ढहाकर वहां चबूतरा बनवा देने के लिए पुरस्कृत करने जैसा होगा। आजम खां के संतुलित बोल से तो पूरा देश वाकिफ हो है। आश्चर्य तो यह है कि कांग्रेस की ओर से भी इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी सरकार की सोच के कुछ राजनीतिक पहलू हो सकते हैं, पर इससे एक प्रधानमंत्री के रुप में नरसिंह राव के भारत के लिए योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
यह तो एक विडम्बना है कि कांग्रेस पार्टी नेहरु इंदिरा परिवार के अलावा किसी अपने प्रधानमंत्री को महत्व नहीं देती। यहां तक कि उन लालबहादूर शास्त्री को भी नहीं जिनने चीन की पराजय के अवसाद और हीनग्रंथि से देश को 1965 के युद्ध में बाहर निकाल दिया था। शास्त्री जी का जय जवान जय किसान नारे से देश मंें ऐसा रोमांच पैदा हुआ था कि किसानों ने उसी भारतीय खेतों के पैदावार से खाद्यान्न में स्वावलंबिता प्राप्त की तथा रक्षा के मामले में कमजोर माने जाने वाले देश में नवजवान सेना में भर्ती होने के कतारों में खड़े होने लगे। ऐसा प्रधानमंत्री भी कांग्रेस नेतृत्व के लिए प्रमुखता से स्मरण करने योग्य नहीं होता। गुलजारी लाल नंदा को तो कांग्रेस ने अपनी सूची से ही निकाल दिया है। किंतु इस सोच से देंश भी सहमत हो आवश्यक नहीं। सच कहा जाए तो अगर हम अपने देश के उन सभी व्यक्तित्वों को जिनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है मरणोपरांत भी सम्मान नहीं देंगे तो यह केवल उनके प्रति कृतघ्नता नहीं होगी, दूसरे को भी बेहतर करने की प्रेरणा नहीं मिलेगी और सामूहिक मानस कुंठित होगा। इसलिए ऐसे लोगों का सम्मान जरुरी होगा।
कांग्रेस ने जिस मनमोहन सिंह को 10 वर्ष प्रधानमंत्री बनाए रखा वो खोज तो नरसिंह राव के ही थे। यदि राव ने उन्हें बुलाकर 1991 में वित्त मंत्रालय नहीं सौंपा होता तो वे कांग्रेस नेतृत्व की मुख्य कतार में आते कहां से। वास्तव में यदि तटस्थता से विचार करेंगे नरसिंह राव की उपलब्धियां अन्य अनेक प्रधानमंत्रियों से ज्यादा दिखाई देगी। स्वयं मनमोहन सिंह अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में उनकी प्रशंसा कर चुके हैं। एक बार नरसिंह राव स्मृति व्याख्यान में उन्होंने कहा कि वे तो राजनीति में होकर भी संन्यासी थे।
यह जानना आवश्यक है कि इसका आग्रह आंध्र प्रदेश सरकार की ओर से आया है। इस अनुरोध के बाद शहरी विकास मंत्रालय ने इस संबंध में कैबिनेट नोट तैयार किया है। 2004 में उनके निधन के बाद कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन संप्रग सरकार ने उनके लिए कोई भी स्मारक बनवाने से मना कर दिया था। उस समय भी ऐसा प्र्रस्ताव आया था। बाद में तो जाते जाते 2013 में संप्रग सरकार ने फैसला ही कर दिया कि किसी भी नेता के लिए अलग स्मारक नहीं होगा। इसके लिए जगह की कमी का हवाला दिया गया था। वैसे जगह की कमी को ध्यान में रखते हुए एक आम स्मारक स्थल बना है जिसे एकता स्थल कहते हैं।  22.56 एकड़ में फैला एकता स्थल विजय घाट और शांति वन के बीच स्थित है। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री आइके गुजराल, चंद्रशेखर, पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, शंकर दयाल शर्मा, केआर नारायण और आर. वेंकटरमन के स्मारक हैं। इसमें नरसिंहराव ही नहीं कुछ दूसरे नेताओं का स्मारक आराम से बनाया जा सकता है। कई नेताओं की समाधि में इतने अधिक स्थान हैं कि उनके नियम में संशोधन कर वहां भी नेताओं के स्मारकों के लिए जगह बनाई जा सकती है। हमारे देश में महापुरुषों की लंबी माणिक्य माला है, जिनमें से अनेक को जन स्मृति में रखने के लिए स्मारक के रुप में जगह दिया जाना चाहिए।
नरसिंह राव के 1991 से 1996 तक के कार्यकाल को याद करें तो उनकी उपलब्धियां देश के पहले प्रधानमंत्री प. जवाहरलाल नेहरु के प्रथम कार्यकाल जैसी लगेगी। देश आर्थिक संकट के दावानल में फंसा था, खजाने की हालत ऐसी थी कि केवल 15 दिनों के आयात भुगतान की विदेशी मुद्रा थी, भारत डिफौल्टर होने की अवस्था में था। चन्द्रशेखर सरकार ने सोना गिरवी रखकर तात्कालिक रास्ता निकाला था, लेकिन स्थायी समाधान खोजने की जिम्मेवारी नरसिंह राव के सिर ही आई थी। मंडल और मंदिर विवाद से देश में तनाव की स्थिति थी। कश्मीर, पंजाब और असम जैसे प्रदेश आतंकवाद की चपेट में झुलस रहे थे। सोवियत संघ सहित साम्यवादी व्यवस्थाओं के ध्वस्त होने के कारण विदेश नीति को भी नए सिरे से समायोजित करने की चुनौती थी। राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने नेतृत्व संभालने से इन्कार कर दिया था एवं कांग्रेस नेतृत्व के संकट से जूझ रहीं थी। इन सब स्थितियों में कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत भी नहीं था। उसके पास केवल 232 सांसद थे। कांग्रेस की संस्कृति मंे नेहरु इंदिरा परिवार के अलावा किसी को सम्पर्ण नेता मानने की सोच अनेक नेताओं मे नहीं थी जो कि नरसिंह राव के लिए एक बड़ी चुनौती थी।
नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री का प्रभार देकर आर्थिक सुधारों की ऐसी श्रृंखला चलाई जिनसे भारतीय अर्थव्यवस्था,जीवन, व्यापार और रोजगार के क्षेत्र का सम्पूर्ण वर्णक्रम बदल गया। हम उदारीकरण और भूमंडलीकरण का विरोध करते हैं और इसके नकारात्मक पहलू हैं भी, पर बाद की सारी सरकरों ने उसी नीति को आगे बढ़ाया है। भारत की पूरी अर्थव्यवस्था पटरी पर आई, दुनिया में इसके विकास की धाम जमनी आरंभ हुई, भुगतान संतुलन दूर हुआ....व्यापार बढ़ने लगा, पूंजी आने लगी...। कश्मीर नियंत्रण में आया। राव के कार्यकाल के बाद वहां जो चुनाव संपन्न हुआ उसकी पूरी आधारशीला उन्होंने ही रखी। पंजाब में चुनाव हुए, निर्वाचित सरकार आई, असम में आई। देश में शांति स्थापित हुई। विदेश के स्तर पर सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के साथ विदेश नीति को नरसिंह राव ने इतनी कुशलता से समाहित किया जिसकी नींव पर आज हमारे संबंध विकसित हुए हैं। रक्षा क्षेत्र में हमारे लिए संकट खड़ा हुआ, क्योंकि तब तक हम केवल सोवियत रुस पर ही निर्भर थे। यह कोई सामान्य स्थिति नहीं थी। एक ऐसे देश को, जिसे अमेरिका हमेशा संदेह की नजर से देखता था, पश्चिमी यूरोप सोवियत गुट का मानता था....उन सबके साथ समायोजित करते हए अलग थलग पड़ने की संभावना को खत्म करना आसान काम नहीं था। जरा सोचिए, एक साथ इतनी चुनौतियां और उनका इस तरह का सामना किस प्रधानमंत्री को करना पड़ा?
नरसिंह राव की एक विशेषता उनको अन्य नेताओं से अलग करती है वह है काम करते हुए भी दावा करने से दूर रहना। पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने स्वीकार किया है कि जब वे 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने और प्रभार लेने गए तो उनके टेबुल पर एक पूर्जा रखा हुआ था, जिस पर लिखा था कि नाभिकीय परीक्षण की तैयारी चल रही है आपको पीछे नहीं हटना है। जब अटल जी दोबारा प्रधानमंत्री बने तो राष्ट्रपति भवन में शपथ के तुरत बाद राव उनको अकेले एक कोने में ले गए और कहा कि इस बार परीक्षण हो जाना चाहिए। राव ने कभी इसकी तैयारी का श्रेय नहीं लिया। यह राजनीति में होते हुए ऐसे गुण हैं जो विरले ही मिलते हैं। विद्यालायों में मध्याह्म भोजन योजना से लेकर भविष्य निधि के आधार पर निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के आश्रितों को उसकी मृत्यु पर पेंशन जैसे सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नरसिंह राव की ही देन है।
उनके कार्यकाल में बाबरी विध्वंस के साथ भ्रष्टाचार के अनेक मामले उजागर हुए। झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड में उनको मुकदमे का भी सामना करना पड़ा। पर उन्हाेंने देश को संभाला, इसकी अर्थव्यस्था में बिल्कुल आमूल परिवर्तन किया जिसे क्रांतिकारी मानना होगा। इसी तरह विदेश नीति में भी आमूल परिवर्तन के साहसिक कदम उठाए। जहां तक बाबरी विध्वंस का प्रश्न है तो वह ऐसी दुर्घटना थी जिस पर सच कहा जाए तो राव का वश नहीं चला। अर्जुन सिंह जैसे उनके अनेक साथी कई प्रकार के आरोप लगाते रहे। पर राव के विशेष सलाहकार रहे तथा कैबिनेट सचिव से सेवानिवृत्त हुए नरेश चंद्रा ने कहा है कि यह बिल्कुल झूठ है कि तब राव ने खुद को पूजा के कमरे में बंद कर रखा था। उनके अनुसार क्या जब ढांचा विध्वंस किया जा रहा था तब तत्कालीन प्रधानमंत्री के कार्यालय के किसी अधिकारी ने उन्हें सुस्त पड़ते देखा था? उस पूरे प्रकरण के दौरान राव गृह मंत्री एस बी चह्वाण और तत्कालीन गृह सचिव माधव गोडबोले के संपर्क में थे। उस दिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या कल्याण सिंह के नेतृत्ववाली उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त कर दिया जाता। संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके ऐसा करने का मतलब था कि विपक्षी दल राव सरकार पर धावा बोल देते। हालांकि बाद में नरसिंह राव ने सरकार बरखास्त किया।
नरसिह राव को अपने साथियों से पार्टी के अंदर अनेक बाधाओं और समस्याओं का सामना करना पड़ा। वे हमेशा उनके खिलाफ दुष्प्रचार करते रहे। पार्टी तक में विभाजन किया। बावजूद इसके राव ने एक प्रधानमंत्री के रुप में अपनी भूमिका को श्रेष्ठतम ढंग से अंजाम दिया तथा विरोधियों के बारे में कभी सार्वजनिक तौर पर तीखे या असभ्य भाषा का प्रयोग नहीं किया। ऐसे व्यक्ति की स्मृति को अवश्य जिन्दा रखना चाहिए। यही नहीं अन्य ऐसे व्यक्तियों को जिनको वाकई भुला दिया गया है उनके स्मारक भी बनने चाहिएं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
 

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

भ्रष्टाचार केवल घूसखोरी नहीं राजनीतिक आचरण भी है

अवधेश कुमार

सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जितनी आवाज पिछले करीब एक दशक में उठी है उतनी कभी नहीं उठी थी। दिल्ली में सत्तारुढ़ आम आदमी पार्टी का तो मुख्य यूएसपी ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध हल्लाबोल रहा है। इसके पूर्वज संगठन का नाम ही था, इंडिया अगेन्स्ट करप्शन और पूरा अन्ना अभियान सरकारी भ्रष्टाचार को दूर करने व इनके द्वारा बनाए दस्तावेज जन लोकपाल को लागू करने के लिए था। इसलिए उसकी ओर पूरे देश की नजर रहती है कि आखि वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्या करती है और किस तरह करती है। इस संदर्भ में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भ्रष्टाचार निरोधक हेल्पलाइन 1031 को फिर से जारी कर  दिया है। इसके द्वारा उनने यही संदेश दिया कि वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने तथाकथित संकल्प पर कायम हैं। केजरीवाल सरकार अपनी पिछली आयु 49 दिन को पार कर चुकी है। उसी उपलक्ष्य मंे दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित एक भव्य और विशाल आयोजन में हेल्पलाइन जारी किया गया। किंतु इसे इस तरह पेश किया गया मानो कोई अनोखा क्रांतिकारी कार्यकम आरंभ हुआ है। मनीष सिसोदिया नारा लगा रहे थे, ‘भ्रष्टाचार का एक ही काल’ और लोग कह रहे थ,े ‘केजरीवाल केजरीवाल’। हालांकि यह वही हेल्पलाइन है जो पिछली सरकार के दौरान भी जारी हुआ था।

हर विवेकशील व्यक्ति चाहेगा कि इस हेल्पलाइन नंबर से आम आदमी को भ्रष्टाचार से लड़ने में सहायता मिले। साथ ही दूसरे राज्यों को भी इससे प्रेरणा मिले। आखिर कौन नहीं चाहेगा हमारे देश से भ्रष्टाचार का अत हो? कौन नहीं चाहेगा कि उसे किसी सरकारी कार्यालय में काम कराने के लिए घूस नहीं देना पड़े? कौन नहीं चाहेगा कि अगर कोई कर्मचारी अधिकारी उससे काम करने के एवज में यदि घूस मांगता है तो उसे सजा मिले? सजा मिलनी है तो उसके खिलाफ शिकायत करनी होगी और शिकायत तभी साबित होगा जब उसके पक्ष में आपके पास सबूत हों। इस नाते हेल्पलाइन और स्टिंग दोनांे की उपयोगिता समझ में आती है। एक बार आपने हेल्पलाइन पर फोन दर्ज किया तो शिकायत आ गई और उसकी जांच होगी। पर सुनने में जितना आसान लगता है वैसे ही सब कुछ होने लगे तो फिर कब का भारत में सदाचार का बोलबाला हो गया होता।  केजरीवाल और उनके साथियों का एनजीओ संस्कार हमेशा ऐसे किसी भी कदम में सामने आ जाता है। वे अपने हर कदम को क्रांतिकारी और अनोखा बताते हैं, जबकि वे जानते हैं कि इस तरह के हेल्पलाइन ज्यादातर राज्यों में चल रहे हैं। केन्द्र में केन्द्रीय सर्तकता आयोग सहित कई एजेंसियां ऐसी हेल्पलाइन लंबे समय से जारी किए हुए है,। कुछ ईमेल है जहां आप गोपनीय शिकायत भी कर सकते हैं। क्या इन सबसे सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार नियंत्रित हुआ? अगर ऐसे भ्रष्टाचार दूर होेने लगे तो फिर कुछ करने की आवश्यकता क्या है? इनसे ही पूछा जाना चाहिए कि आपने अपने पिछले वो 49 दिन वाले अतीत में इस हेल्पलाइन से क्या हासिल किया? जो जानकारी बाहर आई उसके अनुसार पिछले कार्यकाल में इस हेल्पलाइन पर शिकायतें तो काफी आईं, पर कार्रवाई एक क्लर्क के खिलाफ ही हो सकी।

कहा जा सकता है कि पिछली बार केजरीवाल सरकार को काम करने का अवसर कम मिला। इसलिए वे स्टिंग एवं हेलपलाइन दोनों का जो असर होना चाहिए नहीं दिखा सके। चलिए इस बार देख लेते हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल कह रहे थे कि हम जो कहते हैं वो करते हैं, हम जुमले नहीं करते। अन्ना आंदोलन के दौरान हमारे अंदर भारत को भ्रष्टाचार से मुक्त करने का जज्बा था। अपनी 49 दिनों की सरकार के बाद भी हमें ऐसा करने का पूरा विश्वास था। अगर मनीष सिसोदिया कल को चोरी करते हैं तो वो मेरे कोई नहीं लगते उनको भी जेल जाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि हमारे पास इतना साहस है कि हम अपनी पार्टी के लोगों के खिलाफ कार्यवाही कर सकते हैं। बहुत अच्छा। किसी भी नेता को इसी तरह की सोच रखनी चाहिए। न्याय और फैसले में कोई अपनापन या रिश्तेदारी नहीं। पर पहले तो इस कसौटी पर स्वयं इनके कदमों को कसनी होगी। वास्तव में इस कथन के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि हमारी पार्टी या सरकार में अपने साथी भी भ्रष्टाचार करेंगे तो उसे हम छोड़ेंगे नहीं। क्या इसके कोई उदाहरण देश के सामने रखे गये हैं? अभी पार्टी के पूर्व लोकपाल एडमिरल रामदास ने पत्र लिखकर कहा है कि उन्हें कुछ मामले जांच के लिए दिए गए थे और उसकी जाचं पूरी होने के पहले बिना सूचना दिए उनकी जगह दूसरे लोकपाल की नियुक्ति कर दी गई। कई मामलों की जांच की बात हमारे सामने आई, लेकिन न तो एक भी जांच पूर्णता तक पहुंचने दी गई और न सार्वजनिक हुई। अगर यह कसौटी है तो फिर हम कैसे उम्मीद करें कि आप अपने हेल्पलाइन से वाकई चमत्कार करने वाले हैं। दूसरे, पार्टी कार्यकारिणी और पीएसी से निकाले गए योगेन्द्र यादव एवं प्रशांत भूषण ने एक कथित नकली कंपनी से मिले 2 करोड़ के चंदे तथा कुछ उम्मीदवारों , जो अब विधायक बन चुके हैं, के खिलाफ जांच की ही तो मांग की थी। प्रशांत को तो जांच की जिम्मेवारी भी दी गई थी लेकिन क्या हुआ हमारे सामने है। तो कथनी और करनी का यह फर्क आखिर क्या संदेश देता है?

वैसे इसका दूसरा अर्थ उनकी राजनीति से भी है। अरविन्द केजरीवाल पता नहीं यह समझते हैं या नहीं कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी घूस लेना ही नहीं है। सरकारी घूसखोरी तो इसका एक लक्षण है। भ्रष्टाचार में आचरण शब्द है। आचारण का संस्कार सारे भ्रष्ट व्यवहारों के मूल में होता है। चाहे वह घूस लेना हो, दलाली करना, जनता के काम के लिए आए धन को पूर्णतया या आंशिक रुप से डकार जाना...... आदि आदि। नेतृत्व के अपने आचरण से भी सत्ता प्रतिष्ठान के शेष अंग प्रभावित होते हैं। अभी उन्होंने योगेन्द्र प्रशांत जैसे अपने दल के संस्थापकों ही नहीं, इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के समय से उनके साथ चलने वाले साथियों को जिस तरह अपमानित करके , निरंकुशता से हर ईकाई से बाहर करवाया उसे कैसा आचरण माना जाएगा? सदाचार या भ्रष्टाचार? इस प्रसंग का पूरा असर भ्रष्टाचार विरोधी कदमों पर पड़ेगा। जो कुछ केजरीवाल ने एक कार्यकर्ता के साथ टेलीफोन बातचीत में अपने वरिष्ठ साथियों के बारे में बोला, जो सार्वजनिक भी हो गया, जिस तरह से राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने भाषण से उत्तेजना पैदा करके उनके लिए अपमानजनक स्थिति पैदा की वह बहुत बड़ा मानवीय और राजनीतिक भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार का निवारण कैसे होगा?

इससे और दूसरे कई आचरणों से केजरीवाल का लोकतांत्रिक संस्कार, सत्ता के प्रति निस्पृह होने, साथियों का सम्मान करने......आम आदमी की तरह व्यवहार करने ...सामूहिक निर्णय करने आदि दावों के आवरण उतरे हैं। केजरीवाल का लोकतांत्रिक संस्कार, सत्ता के प्रति निस्पृह होने, साथियों का सम्मान करने......आम आदमी की तरह व्यवहार करने ...सामूहिक निर्णय करने आदि सारे दावों के आवरण उतर चुके हैं। नैतिक बल क्षीज चुका है। जाहिर है, एक बार ऐसी छवि बनने के बाद कर्मचारियों अधिकारियों पर जो असर होना चाहिए वह नहीं हो सकता। वे भी तो यह मानेंगे कि केजरीवाल भी सत्तालोलुप, अन्य अनेक नेताओं की तरह असहमति और अपने नेतृत्व पर प्रश्न उठाने वालों के प्रति असहिष्णु तथा विरोध का स्वर दबाने के लिए किसी सीमा तक जाने वाले नेता हैं। ऐसी छवि बनने के बाद भय निरोधात्मक प्रभाव कमजोर हो जाता है। अपने साथी विधायक मंत्रियों पर से भी नैतिक प्रभाव कम हो जाता है। इसे कोई भ्रष्टाचार विरोधी हेल्पलाईन खत्म नहीं कर सकता।

लोकतंत्र में निरंकुश सोच और आचरण सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है। सच कहा जाए तो शीर्ष राजनीतिक प्रशासनिक भ्रष्टाचार की व्यापकता यहीं से पैदा होती है। चुनावों में अपार बहुुमत वाली जीत सब कुछ नहीं होता....छवि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राजीव गांधी की सरकार अपार बहुमत से आई थी, पर उसमें क्या हुआ, जबकि राजीव गांधी इरादतन न निरंकुश थे, न पाखंडी और न ही भ्रष्टाचारी। अरविन्द केजरीवाल आखिर अपनी कैसी छवि बना रहे हैं? इसी कार्यक्रम में उन्होंने मीडिया के एक वर्ग को निशाने पर लेते हुए कहा कि ये सब मुझे हराने में लगे थे। यह भी एक असहिष्णु मानसिकता का विस्तार है और वैचारिक भ्रष्टाचार है। हर चैनल, अखबार, या पत्रकार आपका समर्थन करे यह जरुरी है? अगर जिसे आपका विचार पंसद नही वह आपका विरोध करेगा। जो आपका समर्थन करे वो ठीक और जो विरोध करे वो दुश्मन ये एक लोकतांत्रिक मानस वाले नेता की सोच नहीं हो सकती। आखिर इसके द्वारा केजरीवाल क्या संदेश देना चाहते हैं?

लोकसभा चुनाव के पूर्व नागपुर के चंदा वसूली के लिए भोजन कार्यक्रम में केजरीवाल ने मीडिया वालों को जेल भेजने की बात कह दी और वह स्टिंग से बाहर आ गया। उसके पूर्व 2013 में सरकार से त्यागपत्र देने के बाद रोहतक का अपना पूरा भाषण ही केजरीवाल ने मीडिया के खिलाफ दिया। इसके पूर्व भारत के किसी नेता ने इस तरह पत्रकारों को जेल में डालने की धमकी नही दी थी। उन्होंने साफ कहा था कि अगर वे सत्ता में आये तो मीडिया की जांच कराकर पत्रकारों को भी जेल में डालेंगे। इस प्रकार की भाषा एक निरंकुश या अधिनायकवादी सोच वाले व्यक्ति के मुंह से ही निकल सकती है। क्या यह भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में नहीं आएगा? तो स्वयं अपना आचरण भ्रष्ट रखते हुए यह दावा करना कि हम भ्रष्टाचार के काल के रुप में आ गए हैं, राजनीतिक प्रदर्शन के सिवा कुछ नहीं माना जा सकता है। तो साफ है कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की व्यापकता को समझंें, केजरीवाल की समझ की सीमाओं तथा इनके स्वयं के आचरणों को निष्पक्षता से अवलोकन करें और उत्साहित होने की जगह इसके दूसरे रास्ते तलाशें। इससे दूसरे राज्यों या देश को भी कोई प्रेरणा नहीं मिल सकती।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208  


शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का मतलब

अवधेश कुमार

अगर सदस्यता के आधार पर देखें तो भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी हो गई है। हालांकि 3 4 अप्रैल को बेंगलुरु में आयोजित होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इसकी औपचारिक घोषणा होगी। लेकिन अभी तक जितने सदस्यों की सदस्यता की पुष्टि हो चुकी है यानी जिनका नियमों के अनुसार निबंधन हो चुका है उनकी संख्या  8 करोड़ 82 लाख बताई गई है। विश्व में सबसे ज्यादा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या 8 करोड़ 4 लाख है। चीन में दूसरी कोई पार्टी नहीं है, इसलिए जो सदस्य होंगे वो एक ही पार्टी के होंगे। भारत में चूंकि कई पार्टियां हैं, इसलिए इसका उस आंकड़े को पार करना महत्वपूर्ण है। ध्यान रखने की बात है कि सदस्यता ग्रहण करने वालों की कुल संख्या 16 करोड़ से ज्यादा है, लेकिन मिस्ड कॉल के जरिए सदस्यता ग्रहण करने वालों में से जिनकी प्रक्रिया पूरी नहीं हुईं हैं उनको अनिबंधित माना जा रहा है। अभियान को विस्तार देते हुए पार्टी का अगला कदम यह हो सकता है कि जहां-जहां से मिस्ड कॉलें प्राप्त हुईं हैं, उनसे संपर्क स्थापित करेगी। यानी भाजपा की बात मान ली जाए तो निबंधन होते ही इसकी सदस्य संख्या इतनी हो जाएगी जहां तक पहुंचना निकट भविष्य में शायद ही किसी दल के लिए संभव हो सके। जाहिर है, इसके परिणाम भारतीय राजनीति पर बहुआयामी होने चाहिएं।   
दरअसल, लोकसभा चुनावों में बीजेपी को जब रिकॉर्ड 17 करोड़ 16 लाख 57 हजार 549 वोट मिले तो नरेन्द्र मोदी के दिमाग में यह विचार आया कि क्यों न पार्टी की सदस्य संख्या इसके आसपास पहुंचाई जाए। मोदी ने अपने भाषण में कहा कि देश को एक पीएम नहीं करोड़ों पीएम चाहिए....पीएम यानी प्राइमरी मेम्बर यानी प्राथमिक सदस्य। उसके बाद कैसे किया जाए यह विचार हुआ। विशेष सदस्यता अभियान की टैगलाइन ‘सशक्त भाजपा, सशक्त भारत’ रखी गई है। फिर दिनेश शर्मा इसके राष्ट्रीय प्रभारी बने, इसी तरह राज्यों और निचली ईकाइयों के प्रभारी नियुक्त हुए एवं पूरी पार्टी मशीनरी इस काम में लग गई। 1 नवंबर से इसकी शुरुआत हुई। भाजपा ने सदस्यता अभियान के लिए हाइटेक शैली को चुना। पार्टी का सदस्य बनने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति टोल फ्री नंबर पर एसएमएस भेजकर सदस्यता के लिए आवेदन कर सकता था। इस नंबर पर प्रेषित संदेश पार्टी की ओर से बनाए गए सदस्यता पंजीकरण बूथ पर सीधे पहुंच रहा था और यहां से सदस्यता संबधी सभी औपचारिकताएं पूरी कर दी जातीं थीं। इससे विदेशों में रह रहे भारतीय भी पार्टी की सदस्यता ले सके। पार्टी ने मोबाइल फोन और इंटरनेट यूजर्स को ध्यान में रखकर ऐसी व्यवस्था की। तो तनकीनों के कारण भाजपा को अपनी सदस्यता अभियान में लाभ हुआ। वास्तव में इस अभियान को जिस आधुनिक तरीके से चलाया गया उसका इस सफलता में भारी योगदान रहा। मिस्ड कॉल से अभियान में हिस्सा लेने का तरीका उस ब्लॉक स्तर के सदस्यता अभियान से ज्यादा सुविधाजनक था। यही काम पहले आम आदमी पार्टी ने किया था, लेकिन उसका इतना व्यवस्थित नहीं था। तब भी उसने दो करोड़ सदस्य बनने का दावा किया था।
यदि पार्टी की मानवीय मशीनरी नहीं हो तो फिर केवल तकनीक आपकी सहायता नहीं कर सकता है। वास्तव में सदस्यता अभियान के राष्ट्रीय प्रभारी डॉ. दिनेश शर्मा और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इसके लिए कम से कम 20 राज्यों का दौरा किया। इस पर कितना जोर दिया गया वह कुछ आंकड़ों से साफ हो जाता है।  एक नवंबर 2014 से शुरू इस 151 दिनों तक चलने वाले सदस्यता महाभियान में पहले एक महीने में एक करोड़, दूसरे में 22 दिनों में एक करोड़ से अधिक, अगले 13 दिनों में एक करोड़, अगले 16 दिनों में एक करोड़ से अधिक, इसके बाद 18 दिनों में एक करोड़ से अधिक, फिर 21 दिनों में एक करोड़, अगले 15 दिनों में एक करोड़, 8 करोड़ के लिए मात्र आठ दिनों में एक करोड़, इस तरह 23 मार्च तक मोबाइल द्वारा रजिस्टर्ड सदस्यों की संख्या आठ करोड़ 20 लाख से ऊपर पहुंच गई थी। ध्यान रखिए इसमें मोबाइल नेटवर्क नहीं होने वाले स्थलों में रसीद से बने सदस्य और कंप्यूटर पर ऑनलाइन सदस्यता ग्रहण वाले और मिस्ड काल के सदस्यों की संख्या सम्मिलित नहीं है। जिन लोगों ने मिस्ड कॉल के जरिए सदस्यता ग्रहण की है और प्रक्रिया पूरी नहीं की है या अन्य वजहों से किसी अन्य विकल्प में प्रक्रिया पूरी नहीं की है, उनकी स्क्रूटनी की जाएगी। अप्रैल और मई में सदस्यों की सूची तैयार की जाएगी। मई के बाद सूची में शामिल लोगों के घर-घर जाकर परिचय पत्र दिया जाएगा। तो अंतिम संख्या आने में अभी समय लगेगा। गिन्नीज बुक वाले भी इस पर नजर रखे हैं और पुष्टि होते ही वो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की जगह भाजपा का नाम लिख देंगे।
अगर थोड़ी भी गहराई से विचार करें तो इसके पीछे की सोच एवं इसके अपेक्षित परिणामों को दृश्य आपके सामने आ जाएगा। एक साथ इतने सदस्य यदि वाकई किसी पार्टी के हो जाएं तो फिर किसी आंदोलन, अभियान या फिर चुनाव में उसकी क्या हैसियत हो सकती है यह बताने की आवश्यकता नहीं। भाजपा को लोकसभा में उतने अधिक मत तब प्राप्त हुए जब उसकी सदस्य संख्या 3 करोड़ 25 लाख के आसपास थी। आज की राजनीति में किसी पार्टी के 13-14 करोड़ सदस्य हों तो फिर इतने से ही वह लोकसभा की सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है और कई राज्य विधानसभाओं में भी बहुमत पा सकती है। इसके समानांतर कांग्रेस का सदस्यता अभियान विफलता का शिकार हो गया जिसका गुस्सा राहुल गांधी ने नेताओं पर उतारा था। यानी दूसरी कोई पार्टी यह कार्य नहीं कर रही है।
 परिणामांे के आकलन के लिए एक उदाहरण देखिए। उ. प्र. में भाजपा को पिछले चुनाव में 1 करोड़ 13 लाख 71 हजार 80 तथा सत्तारुढ़ सपा को 2 करोड़ 20 लाख 90 हजार 571 मत मिले। जरा सोचिए, पार्टी के दावे के अनुसार उत्तर प्रदेश में इसकी सदस्य संख्या ही हो गई है, 1 करोड़ 50 लाख। ऐसे ही पश्चिम बंगाल में सदस्य संख्या काफी बढ़ी है। अगर वाकई ये अपने मन से सदस्य बने हैं और भाजपा के दावों में सच्चाई है तो फिर चुनाव में पड़ने वाले मतों की कल्पना कर लीजिए। उत्तर प्रदेश में यदि केवल सदस्यों ने अपना मत डाल दिया तथा आधे सदस्यों ने भी एक-एक मत डलवा दिया तो यह वर्तमान सपा के मतों से पार कर जाएगा। हालांकि सत्ता में होने के बाद पार्टी की सदस्य संख्या या ऐसे अभियानों को यूं ही ताकत मिल जाती है। लेकिन प्रश्न यही है कि क्या जो लोग सदस्य बने हैं वे सारे वास्तविक हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि नेताओं ने लक्ष्य पूरा करने के लिए कुछ गड़बड़ी भी की है? अगर यह सच है तो फिर भारतीय राजनीति में भाजपा संख्याबल के गणित में ज्यादातर पार्टियों को पछाड़ने की दिशा में बढ़ रही है। परिचय पत्र बांटने के दौरान भी काफी हद तक इसकी पुष्टि हो जाएगी।
हालांकि सदस्यता ताकत तो है पर एकमात्र वही किसी पार्टी की ताकत की पहचान नहीं हो सकती। कार्यकर्ता का दल, विचार एवं नेतृत्व के प्रति सम्मान और समर्पण इसका मूल होता है। अभी भाजपा भी यह दावे के साथ नहीं कह सकती कि वाकई उनने जिन्हें सदस्य बनाया वे सम्मान और समर्पण के साथ बने हैं। कहा जा रहा है कि जून और जुलाई में नए कार्यकर्ताओं के लिए गह जगह-जगह प्रशिक्षण शिविर आयोजित कराए जाएंगे। इसके साथ  उन तक पार्टी से जुड़ी योजनाओं की जानकारी मुहैया करवाएगी। निस्संदेह, प्रशिक्षण से ही सदस्यों का कार्यकर्ता और फिर नेता की दिशा में रुपांतरण होता है। तो हमें देखना होगा। लेकिन इस समय तो हमें यह मानकर चलना होगा कि भाजपा सदस्य संख्या के अनुसार विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है जिससे भारत की राजनीति दूरगामी तौर पर प्रभावित होगी।
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