गुरुवार, 5 मार्च 2015

कश्मीर सरकार और विवाद

अवधेश कुमार

जम्मू कश्मीर में भाजपा पीडीपी सरकार बनने के बाद मुफ्ती मोहम्मद के अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं पाकिस्तान के समर्थन में स्पष्ट दिखने वाले बयानों को लेकर संसद से बाहर तक जो आक्रोश है उसे अनुचित मानने का कोई कारण नहीं है। इस तरह अगर सरकार मेे शामिल लोग संसद हमले में अपराध सिद्ध अफजल गुरु की फांसी को गलत ठहरायेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया देश के अन्य भागों एवं राजनीतिक प्रतिष्ठान में होनी ही है। तत्काल ऐसा लगता है जैसे भाजपा कश्मीर पर अब तक अपने आक्रामक राष्ट्रवादी धारा के विपरीत राष्ट्रविरोधी तत्वों के साथ गठबंधन करके सत्ता में आ गई है और उसके पास अपने ही समर्थन से बनाए गए मुख्यमंत्री के बयानों का कोई तार्किक उत्तर नहीं है। हमला केवल विपक्ष की ओर से ही नहीं है, स्वयं भाजपा के अंदर भी असहजता महसूस की जा रही है, कार्यकर्ताओं के अंदर क्षोभ और आक्रोश है। सभी पार्टियां उसे कठघरे में खड़ा कर रहीं है। अगर इतना भी आक्रोश नहीं हो तो लगेगा इस देश में अब अपने राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति भी प्रखरता लुप्त हो रही है। लेकिन केवल इस पहलू के आधार पर जम्मू कश्मीर की वर्तमान सरकार तथा उसके औचित्य अनौचित्य का मूल्यांकन करना एकपक्षीय होगा।

जम्मू कश्मीर हमारे लिए ऐसा मुद्दा है जिसका समाधान आज तक कोई सरकार नहीं कर सकी। पर यह भी ध्यान रखें कि वहां की किसी सरकार की हिम्मत भी नही कि वह वहां केन्द्र के विरुद्ध जाकर नीतिगत बदलाव की मनमानी कर सके। इस बात के प्रति हमें निश्चिंत रहना चाहिए। हमें यह स्पष्ट समझना होगा कि कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपरिहार्य है और भारत के हित में। कश्मीर राष्ट्रपति शासन में ज्यादा दिन न रहे और निर्वाचितों की सरकार बने इसका संदेश अलग जाता है। राष्ट्रपति शासन से वहां भी विरोधियों को असंतोष बढ़ाने तथा दुनिया भर में दुष्प्रचार करने का अवसर मिलता है। इसलिए कश्मीर में हर हाल में निर्वाचित सरकार बनना ही चाहिए था। इसलिए मैं और मेरी तरह सोचने वाले लोगों ने भाजपा पीडीपी सरकार के भविष्य पर संदेश व्यक्त करते हुए, मुफ्ती मोहम्मद सईद तथा पीडीपी की अलगाववादियों, आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति का भाव जानते हुए भी सरकार बनने का समर्थन किया है। किंतु सरकार बनने का समर्थन करने यह अर्थ नहीं कि सईद व पीडीपी के मंत्रियों विधायकों के बोल का किसी सूरत में समर्थन किया जा सकता है। 

पर सईद जो बोल रहे हैं वह आपत्तिजनक ही नहीं तथ्यात्मक रुप से गलत है। आखिर कश्मीर चुनाव को बाधित करने के लिए पाकिस्तान, उसकी आईएसआई और आतंकवादियों ने पूरी कोशिश की। हमले किए, हमारे जवान और निर्दोष मारे गए। तीन-तीन दिनों तक सेना को आतंकवादियों से मोर्चाबंदी करनी पड़ी। सईद यदि कह रहे हैं कि आतंकवादियों, अलगाववादियों तथा पाकिस्तान ने बैलेट के महत्व को समझा और पहले की तरह बाधा नहीं पहुंचाया तथा चुनाव शांतिपूर्ण सम्पन्न हो सके तो यह उन सारे शहीदों का अपमान है जिनने चुनाव के लिए जान दे दी। उनके शव पर पत्थर फेंकने जैसा है। इसकी निंदा होनी चाहिए। हालांकि हंगामें के बाद उनने अपना स्पष्टीकरण दिया है जिसमेें चार बातें कहीं हैं। 1 मैंने पाकिस्तान और हुर्रियत के बारे में मैंने कहा कि कश्मीर के उबरने और लोकतंत्र के काम करने के साथ इसमें विश्वास को उन्होंने (पाकिस्तान और हुर्रियत ने) मान्यता दी। उन्होंने इस बात को समझा कि मतदाता पर्ची लोगों की नियति है, न कि गोली या ग्रेनेड। 2. और यह मतदाता पर्ची हमे भारत के संविधान ने दी है। जम्मू कश्मीर की आवाम की इसमें (अधिकार में) कहीं अधिक आस्था है। उन लोगों (सीमा पार के लोग और हुर्रियत) ने दखलंदाजी नहीं की, जैसा कि पहले (चुनावों में) हुआ करता था। 3. मैंने जो कुछ कहा उसके सिर्फ एक ही हिस्से पर जोर दिया गया जबकि सकारात्मक चीजों को नजरअंदाज कर दिया गया। वे लोग तिल का ताड़ बनाना चाहते हैं। 4 भारत के संविधान में कश्मीर ने जो संवैधानिक अधिकार पाया है और लोकतांत्रिक संस्थानों ने जो मजबूती पाई है, यह मतदाता पर्ची के चलते है, जिसे उन्होंने मान्यता दी। उन्होंने हर चीज आजमाई। उन्होंने (सीमा पार की ताकतों) लोकतंत्र की संस्था को मान्यता दी।

उनके स्पष्टीकरण में भारत के संविधान की स्वीकृति तो है, पर मूल रुप में वे अपने बयान पर कायम है जो हर हाल में आपत्तिजनक है। इसे अगर कोई भारत विरोधी बयान कह रहा है उसे भी गलत नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन क्या सईद से ऐसे बयान की अपेक्षा हमें नहीं थी? क्या अफजल गुरु की फंासी का गलत ठहराना या उसका शव मांगना अप्रत्याशित है? इन दोनों प्रश्नों को उत्तर है, नहीं, कतई नहीं। भाजपा और मोदी का भय दिखाकर जिस तरह उनने वोट पाया है और अब उसके साथ सरकार बना रहे हैं तो फिर वे अपने समर्थकों को कैसे मना पाएंगे? इसलिए वे और उनकी पार्टी कुछ ऐसा अतिवादी बयान देंगे। इसी तरह अफजल के फांसी दिये जाने के बाद कश्मीर घाटी में जैसा विरोध हुआ, वहां की विधानसभा में जिस तरह का क्षोभ प्रकट किया गया उस दृश्य को याद कीजिए। ऐसा वहां पहले से हो रहा है। पूर्व विधानसभा में बराबर मामला उठता रहा है। यह वहां चुनाव का भी मुद्दा था। पीडीपी के नेताओं ने घाटी मेें यह मामला उठाया था। यह देश विरोधी कृत्य है, पर कश्मीर में ऐसा होता रहा है यह हम न भलें। वे ऐसा आगे भी करेंगे और हमेें उसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

सईद की विधारधारा वैसे भी कश्मीर के सभी मुख्य राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा अलगाववादी समर्थन की रही है। वे केन्द्र में गृहमंत्री तक रहे, उनकी बेटी सांसद तक रहीं हैं, पर इससे उनके प्रकट स्वर में कोई अंतर नहीं आया। कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के बाद भी वो इस तरह के बयान देते थे जिसका भाजपा इसी तरह आक्रामकता से विरोध करती थी जैसी आज दूसरी पार्टियां कर रहीं हैं। उनके बयानों से तंग आकर कांग्रेस की ओर से अंतिम तीन साल के लिए मुख्यमंत्री बने गुलाम नबी आजाद ने उनसे नाता तोड़ देने में ही भलाई समझी। हालांकि भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति इस तरह का बयान दे तो इसे गले उतारना किसी के लिए भी कठिन होगा। पर हमें विरोध करते हुए भी इस सरकार को भंग कर देने या भाजपा द्वारा तुरत सरकार से बाहर आ जाने की अतिवादी मांग से तत्काल बचना चाहिए। यह मानना गलत होगा कि वे ऐसा कुछ कर पाने की स्थिति में हैं, जो केन्द्र की कश्मीर नीति के विरुद्ध है। हां, यह संभव है कि उनके बयानों से अलगाववादी तत्वों की थोड़ी हौंसला अफजाई हो।

हम यहां एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू नजरअंदाज कर रहे हैं। यह वहां की पहली सरकार है जिसमें जम्मू और लद्याख का वास्तविक प्रभावी प्रतिनिधित्व हुआ है। यह पहली सरकार है जिसमें हिन्दू और मुसलमान बराबरी के स्तर पर शामिल हैं। यह पहली सरकार है जिसमें संसाधनों के वितरण, विकास की नीतियों या अन्य मामलों में जम्मू और लद्याख को पहले की तरह नजरअंदाज करना कठिन होगा। संसाधनों के समान वितरण की संभावना वाली सरकार है। तो इसके ऐसे कई सकारात्मक पहलू भी हैं। 

हां, मूल बात केन्द्र के रवैये का है। यानी केन्द्र उनके साथ गठबंधन से परे सरकार के स्तर पर कैसा व्यवहार करती है। भाजपा एक सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया को जिस ढंग से हैण्डल करनी चाहिए नहीं कर पाई है। सईद जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने आये थे तो वे उनसे केवल हाथ मिलाना चाहते थे। प्रधानमंत्री ने उनको ऐसे गले लगाया मानो कोई एकदम दिली मित्र मिल रहे हों। कोई भी महसूस कर सकता था कि सईद गले मिलते वक्त हिचकिचा रहे थे। सच कहा जाए तो यह एक मजबूरी की सरकार थी और उसे उसी रुप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। कठोर मोलभाव करते हुए मुफ्ती को उनकी सीमायें बतलाई जानी चाहिए थी। कांग्रेस ने 2002 में समझौता किया तो 3-3 साल के मुख्यमंत्री पद के लिए। भाजपा के पास 24 अपना तथा एक निर्दलीय का समर्थन है। पीडीपी के पास 28 विधायक हैं। तो सीटों में इतना अंतर नहीं है। इनको इसके लिए दबाव बनाना चाहिए था। साथ ही कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय की भी मांग करनी चाहिए थी। गृह, वित्त और कानून तीनों मंत्रालय पीडीपी के पास है। ये वे नहीं कर सके। पर सेना को मिले विशेष अधिकार हटाने पर केन्द्र ने उनको ना कह दिया है। इसी तरह उनकी कई मांगे थीं जो सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल नहीं हैं। पाकिस्तान से बातचीत इस समय सही है गलत है इस पर दो राय हो सकती है, पर यह केन्द्र की नीति में शामिल है। मुफ्ती के कहने से होगा, यह सोचना बेमानी है। वे श्रेय लेने के लिए बयान देंगे। इसे सुनते और विरोध करते हुए कामना करनी चाहिए कि सरकार कश्मीर की जनता की भलाई के लिए काम करे। उनका विश्वास भारतीय लोकतंत्र में और मजबूत हो।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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