शनिवार, 28 मार्च 2015

फैसला सही, पर सोशल मीडिया पर अतिवाद की आशंक भी कायम

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 को रद करने के फैसले पर जिस तरह का उल्लास प्रस्तुत किया है वह अस्वाभाविक नहीं है। हालांकि इसमें दो तरह के लोग हैं। एक, तो अभिव्यतक्ति की स्वंतत्रता के समर्थक हैं और इस पर लगाए जाने वाले किसी भी बंदिश को अनुचित मानते हैं। एक दूसरा वर्ग है जो बिल्कुल स्वच्छंदता का समर्थक है और उनमें वे भी शामिल हैं जो सोशल नेटवर्किंग साइट पर स्वच्छंद तरीके से ऐसे विचारों, शब्दों का प्रयोग करते हैं जिन्हें कोई विवेकशील या संतुलित व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता। पहली श्रेणी के लोगांें के उत्साह का तो समर्थन किया जा सकता है, पर दूसरी श्रेणी का नहीं। दरअसल, इस धारा को असंवैधानिक करार देने को लेकर यह गलतफहमी भी फैल रही है कि अब हर कोई कुछ भी लिखने, पोस्ट करने, शेयर करने को स्वतंत्र हो गया है। हालांकि इस फैसले को ध्यान से पढ़ने वाले यह नहीं कह सकते कि न्यायालय ने अपने फैसले से एकदम बंधनरहित स्थिति पैदा कर दिया है।

ठीक है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से स्थिति बदलेगी।  इस नाते यह फैसला महत्वूर्ण है। न्यायालय ने सही कहा है कि सूचना तकनीक कानून की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(1) का उल्लंघन है, जो हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। न्यायालय अगर धारा 66 ए को ही संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के विरुद्ध बता रहा है तो फिर इसके बाद कुछ कहने के लिए कहां रह जाता है। अनुच्छेद 66 ए निस्संदेह विधि के शासन के नाम पर एकाधिकारवादी धारा थी। इसके तहत दूसरे को आपत्तिजनक लगने वाली कोई भी जानकारी कंप्यूटर या मोबाइल फ़ोन से भेजना दंडनीय अपराध बना दिया गया था। इसमें कहा तो यह गया था कि यदि कोई व्यक्ति ई-मेल या इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम के जरिये जानबूझकर ऐसी आक्रामक, विस्फोटक, झूठी सूचना प्रसारित करता है जो परेशानी, खतरा, अपमान, दुश्मनी, घृणा या वैमनस्य फैलाने के लिए दी गई हो तो उसके खिलाफ 66 ए के तहत कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन इसके तहत पहली नजर में अपराध का आकलन पुलिस कर सकती थी। धारा 66 ए में उसके दुरुपयोग की पूरी संभावना निहित थी और ऐसा हुआ। किसी नेता के खिलाफ पोस्ट पर जेल भेजने की घटनायें आपातकालीन कानून सदृश कदम थे। किसी व्यक्ति का पोस्ट राष्ट्र विरोधी औऱ सुरक्षा के लिए खतरा है तो इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई हो सकती है। सूचना तकनीक मंत्रालय में सचिव के तहत एक कमेटी भी है, जिसके तहत आपत्तिजनक और राष्ट्र विरोधी पोस्ट को तुंरत हटाया जा सकता है।

उच्चतम न्यायालय में जो याचिकायें दायर हुईं थीं उनमें सूचना अधिकार कानून की धारा 66 ए को चुनौती दी गई थी। दिल्ली की कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने महाराष्ट्र के पालघर में दो लड़कियों की गिरफ्तारी के बाद पहली याचिका दायर की थी। याचिका में मांग ही यही की गई थी कि इस तरह किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। अन्य याचिकाओं में भी यही कहा गया था कि यह कानून अभिव्यक्ति की आज़ादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है, इसलिए यह असंवैधानिक है। न्यायालय से कई अपीलें की गई थी। जैसे अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े किसी भी मामले में दंडाधिकारी की अनुमति के बिना कोई गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए, न्यायालय दिशानिर्देश जारी करे जिसमें पुलिस को अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 41 व 156 1, में मिले गिरफ्तारी के अधिकार को अनुच्छेद 19 1, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, के अनुकूल बनाया जाए। ध्यान रखिए उच्चतम न्यायालय की पीठ ने याचिका पर सुनवाई की सहमति देते हुए कहा कि वे तो इस मसले पर स्वयं संज्ञान लेने वाले थे। वह हैरान थे कि इस बारे में कोई न्यायालय क्यों नहीं आया।

तो न्यायलय ने याचिकाओं की सुनवाई के आरंभ में ही अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। न्यायालय ने इन सारी अपीलांे को सही करार दिया है। इसके बाद हेट स्पीच यानी घृणा, द्वेष आदि संबंधी बातें लिखता है तो उससे अन्य कानूनों से जरिए निबटा जाएगा। पर अभिव्यक्ति की आजादी की धारा 19-1 के साथ 19-2 भी है। इसके तहत सात मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंधन लगाया गया है। तो जो बातें संविधान में हैं उसे उच्चतम न्यायालय ने रद्द नहीं किया है।  लेकिन हां, अब सोशल मीडिया पर पहले की तरह कानून के आतंक का भय नहीं रहेगा। फैसला देने के पहले ही उच्चतम न्यायालय ने 16 मई 2013 को एक एडवाइजरी जारी करते हुए कहा था कि सोशल मीडिया पर कोई भी आपत्तिजनक पोस्ट करने वाले व्यक्ति को बना किसी उच्च अधिकारी जैसे कि आईजी या डीसीपी की अनुमति के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
पूर्व सरकार ने हलफनामे में धारा 66 ए का बचाव किया। बाल ठाकरे के निधन पर मुंबई बंद को लेकर एक लड़की ने फेसबुक पर टिप्पणी की थी और दूसरी ने टिप्पणी को पसंद किया था। मुंबई पुलिस ने दोनों लड़कियों को धारा 66ए के तहत गिरफ्तार कर लिया था। इस पर केन्द्र सरकार का कहना था कि कुछ अधिकारियों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण धारा 66 ए को गलत नहीं ठहराया जा सकता। उसकी दलील थी कि दुरूपयोग को रोकने की कोशिश होनी चाहिए, पर इसे निरस्त कर देना सही नहीं होगा। सरकार के मुताबिक भारत में सोशल नेटवर्किंग साईट्स का इस्तेमाल करने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इनमें तमाम ऐसे तत्व मौजूद हैं जो समाज के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। ऐसे में पुलिस को शरारती तत्वों की गिरफ़्तारी का अधिकार होना चाहिए। महाराष्ट्र सरकार ने भी अपने जवाब में गिरफ्तारी को अधिकारियों द्वारा जल्दबाजी में उठाया गया कदम करार दिया। महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि शाहीन ढाडा और रेनू श्रीनिवासन की गिरफ्तारी के मामले को उसने गंभीरता से लेते हुए सख्त कदम उठाए। उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल 30 नवंबर को केंद्र सरकार से धारा 66 ए के दुरुपयोग और संशोधन पर जवाब मांगा था। साथ ही महाराष्ट्र सरकार से स्पष्टीकरण देने को कहा गया था। मोदी सरकार ने हालांकि यह कहा कि मौलिक अधिकारों की धारा 19 1 से इसकी सुसंगति होनी चाहिएं। उसने यह भी कहा कि सोशल साइट पर वह पाबंदी के खिलाफ है, पर इसने भी कुछ बंदिशों की मांग की।
अनुच्छेद 66 ए निस्संदेह विधि के शासन के नाम पर एकाधिकारवादी धारा थी। अजीब स्थिति पैदा हो गई थी। कांग्रेस, शिवसेना या सपा नेता के खिलाफ कुछ लिखने पर नवजवान जेल की हवा खाने लगे। बरेली में आजम खां पर टिप्पणी करने वाले माध्यमिक विद्यालय के छात्र को तो पता तक नहीं था कि उसे जेल जाना होगा। ममता बनर्जी पर कार्टून बनाने वाले प्रोफेसर को जेल...आदि घटनायें आतंक के राज सदृश कदम थे। वास्तव में उच्चतम न्यायायलय ने संविधान में दिए गए लोगों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कायम रखा है। ऐसा नहीं है कि मुकदमे अब नहीं होंगे, पर अब न्यायायलय फैसला करेगा कि ये गलत है या सही।

कहा जा सकता है कि  उच्चतम न्यायालय ने एक काले कानून का अंत कर लोकतंत्र और विचारों की स्वतंत्रता को पुनर्स्थापित किया है। इसका स्वागत है। नेताओं की आलोचना किसी तरह काल कोठरी में जाने का कारण नहीं बनना चाहिए था। यह भी कहा जा रहा है कि लोग खुल कर अपनी बात रखने में भयभीत नहीं होंगे, क्योंकि जेल जाने का डर खत्म होगा। पर यह सच है कि सोशल नेटवर्किंग विचार अभिव्यक्ति नियंत्रणविहीन है। विचार और शब्दों के स्तर पर ऐसे अतिवादी, आपत्तिजनक, अश्लील, असभ्य, गरिमाहीन, अनैतिक, झूठ, निराधार, तथ्यहीन.....अभिव्यक्तियां प्रसारित हो रहीं है जिनको कोई संतुलित और सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता। इस फैसले से ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं मिलनी चाहिए। आत्मनियंत्रण सोच उनके लिए है जो इसके लिए तैयार हैं,जिनके पास विवेक है, जो घृणा व द्वेष से भरे नहीं हैं। इसलिए कोई तरीका निकलना चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित न हो तथा सोशल मीडिया सही सूचना, विचार और संवाद का माध्यम बने। इसकी व्यापक संभावनायें हैं। पर यह होगा कैसे इस पर विचार जरुर होनी चाहिए। पुलिस राज खत्म होने का अर्थ किसी को गाली, गालौज, चरित्र हनन करने वाली, किसी की नैतिकता, ईमानदारी पर प्रश्न उठाने वाली निम्न दर्जे की निजी टिप्पणियां नहीं होनी चाहिए।
अवधेश कुमार, ईः 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः 110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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