शनिवार, 28 मार्च 2015

फैसला सही, पर सोशल मीडिया पर अतिवाद की आशंक भी कायम

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 को रद करने के फैसले पर जिस तरह का उल्लास प्रस्तुत किया है वह अस्वाभाविक नहीं है। हालांकि इसमें दो तरह के लोग हैं। एक, तो अभिव्यतक्ति की स्वंतत्रता के समर्थक हैं और इस पर लगाए जाने वाले किसी भी बंदिश को अनुचित मानते हैं। एक दूसरा वर्ग है जो बिल्कुल स्वच्छंदता का समर्थक है और उनमें वे भी शामिल हैं जो सोशल नेटवर्किंग साइट पर स्वच्छंद तरीके से ऐसे विचारों, शब्दों का प्रयोग करते हैं जिन्हें कोई विवेकशील या संतुलित व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता। पहली श्रेणी के लोगांें के उत्साह का तो समर्थन किया जा सकता है, पर दूसरी श्रेणी का नहीं। दरअसल, इस धारा को असंवैधानिक करार देने को लेकर यह गलतफहमी भी फैल रही है कि अब हर कोई कुछ भी लिखने, पोस्ट करने, शेयर करने को स्वतंत्र हो गया है। हालांकि इस फैसले को ध्यान से पढ़ने वाले यह नहीं कह सकते कि न्यायालय ने अपने फैसले से एकदम बंधनरहित स्थिति पैदा कर दिया है।

ठीक है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से स्थिति बदलेगी।  इस नाते यह फैसला महत्वूर्ण है। न्यायालय ने सही कहा है कि सूचना तकनीक कानून की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(1) का उल्लंघन है, जो हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। न्यायालय अगर धारा 66 ए को ही संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के विरुद्ध बता रहा है तो फिर इसके बाद कुछ कहने के लिए कहां रह जाता है। अनुच्छेद 66 ए निस्संदेह विधि के शासन के नाम पर एकाधिकारवादी धारा थी। इसके तहत दूसरे को आपत्तिजनक लगने वाली कोई भी जानकारी कंप्यूटर या मोबाइल फ़ोन से भेजना दंडनीय अपराध बना दिया गया था। इसमें कहा तो यह गया था कि यदि कोई व्यक्ति ई-मेल या इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम के जरिये जानबूझकर ऐसी आक्रामक, विस्फोटक, झूठी सूचना प्रसारित करता है जो परेशानी, खतरा, अपमान, दुश्मनी, घृणा या वैमनस्य फैलाने के लिए दी गई हो तो उसके खिलाफ 66 ए के तहत कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन इसके तहत पहली नजर में अपराध का आकलन पुलिस कर सकती थी। धारा 66 ए में उसके दुरुपयोग की पूरी संभावना निहित थी और ऐसा हुआ। किसी नेता के खिलाफ पोस्ट पर जेल भेजने की घटनायें आपातकालीन कानून सदृश कदम थे। किसी व्यक्ति का पोस्ट राष्ट्र विरोधी औऱ सुरक्षा के लिए खतरा है तो इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई हो सकती है। सूचना तकनीक मंत्रालय में सचिव के तहत एक कमेटी भी है, जिसके तहत आपत्तिजनक और राष्ट्र विरोधी पोस्ट को तुंरत हटाया जा सकता है।

उच्चतम न्यायालय में जो याचिकायें दायर हुईं थीं उनमें सूचना अधिकार कानून की धारा 66 ए को चुनौती दी गई थी। दिल्ली की कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने महाराष्ट्र के पालघर में दो लड़कियों की गिरफ्तारी के बाद पहली याचिका दायर की थी। याचिका में मांग ही यही की गई थी कि इस तरह किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। अन्य याचिकाओं में भी यही कहा गया था कि यह कानून अभिव्यक्ति की आज़ादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है, इसलिए यह असंवैधानिक है। न्यायालय से कई अपीलें की गई थी। जैसे अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े किसी भी मामले में दंडाधिकारी की अनुमति के बिना कोई गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए, न्यायालय दिशानिर्देश जारी करे जिसमें पुलिस को अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 41 व 156 1, में मिले गिरफ्तारी के अधिकार को अनुच्छेद 19 1, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, के अनुकूल बनाया जाए। ध्यान रखिए उच्चतम न्यायालय की पीठ ने याचिका पर सुनवाई की सहमति देते हुए कहा कि वे तो इस मसले पर स्वयं संज्ञान लेने वाले थे। वह हैरान थे कि इस बारे में कोई न्यायालय क्यों नहीं आया।

तो न्यायलय ने याचिकाओं की सुनवाई के आरंभ में ही अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। न्यायालय ने इन सारी अपीलांे को सही करार दिया है। इसके बाद हेट स्पीच यानी घृणा, द्वेष आदि संबंधी बातें लिखता है तो उससे अन्य कानूनों से जरिए निबटा जाएगा। पर अभिव्यक्ति की आजादी की धारा 19-1 के साथ 19-2 भी है। इसके तहत सात मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंधन लगाया गया है। तो जो बातें संविधान में हैं उसे उच्चतम न्यायालय ने रद्द नहीं किया है।  लेकिन हां, अब सोशल मीडिया पर पहले की तरह कानून के आतंक का भय नहीं रहेगा। फैसला देने के पहले ही उच्चतम न्यायालय ने 16 मई 2013 को एक एडवाइजरी जारी करते हुए कहा था कि सोशल मीडिया पर कोई भी आपत्तिजनक पोस्ट करने वाले व्यक्ति को बना किसी उच्च अधिकारी जैसे कि आईजी या डीसीपी की अनुमति के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
पूर्व सरकार ने हलफनामे में धारा 66 ए का बचाव किया। बाल ठाकरे के निधन पर मुंबई बंद को लेकर एक लड़की ने फेसबुक पर टिप्पणी की थी और दूसरी ने टिप्पणी को पसंद किया था। मुंबई पुलिस ने दोनों लड़कियों को धारा 66ए के तहत गिरफ्तार कर लिया था। इस पर केन्द्र सरकार का कहना था कि कुछ अधिकारियों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण धारा 66 ए को गलत नहीं ठहराया जा सकता। उसकी दलील थी कि दुरूपयोग को रोकने की कोशिश होनी चाहिए, पर इसे निरस्त कर देना सही नहीं होगा। सरकार के मुताबिक भारत में सोशल नेटवर्किंग साईट्स का इस्तेमाल करने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इनमें तमाम ऐसे तत्व मौजूद हैं जो समाज के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। ऐसे में पुलिस को शरारती तत्वों की गिरफ़्तारी का अधिकार होना चाहिए। महाराष्ट्र सरकार ने भी अपने जवाब में गिरफ्तारी को अधिकारियों द्वारा जल्दबाजी में उठाया गया कदम करार दिया। महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि शाहीन ढाडा और रेनू श्रीनिवासन की गिरफ्तारी के मामले को उसने गंभीरता से लेते हुए सख्त कदम उठाए। उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल 30 नवंबर को केंद्र सरकार से धारा 66 ए के दुरुपयोग और संशोधन पर जवाब मांगा था। साथ ही महाराष्ट्र सरकार से स्पष्टीकरण देने को कहा गया था। मोदी सरकार ने हालांकि यह कहा कि मौलिक अधिकारों की धारा 19 1 से इसकी सुसंगति होनी चाहिएं। उसने यह भी कहा कि सोशल साइट पर वह पाबंदी के खिलाफ है, पर इसने भी कुछ बंदिशों की मांग की।
अनुच्छेद 66 ए निस्संदेह विधि के शासन के नाम पर एकाधिकारवादी धारा थी। अजीब स्थिति पैदा हो गई थी। कांग्रेस, शिवसेना या सपा नेता के खिलाफ कुछ लिखने पर नवजवान जेल की हवा खाने लगे। बरेली में आजम खां पर टिप्पणी करने वाले माध्यमिक विद्यालय के छात्र को तो पता तक नहीं था कि उसे जेल जाना होगा। ममता बनर्जी पर कार्टून बनाने वाले प्रोफेसर को जेल...आदि घटनायें आतंक के राज सदृश कदम थे। वास्तव में उच्चतम न्यायायलय ने संविधान में दिए गए लोगों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कायम रखा है। ऐसा नहीं है कि मुकदमे अब नहीं होंगे, पर अब न्यायायलय फैसला करेगा कि ये गलत है या सही।

कहा जा सकता है कि  उच्चतम न्यायालय ने एक काले कानून का अंत कर लोकतंत्र और विचारों की स्वतंत्रता को पुनर्स्थापित किया है। इसका स्वागत है। नेताओं की आलोचना किसी तरह काल कोठरी में जाने का कारण नहीं बनना चाहिए था। यह भी कहा जा रहा है कि लोग खुल कर अपनी बात रखने में भयभीत नहीं होंगे, क्योंकि जेल जाने का डर खत्म होगा। पर यह सच है कि सोशल नेटवर्किंग विचार अभिव्यक्ति नियंत्रणविहीन है। विचार और शब्दों के स्तर पर ऐसे अतिवादी, आपत्तिजनक, अश्लील, असभ्य, गरिमाहीन, अनैतिक, झूठ, निराधार, तथ्यहीन.....अभिव्यक्तियां प्रसारित हो रहीं है जिनको कोई संतुलित और सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता। इस फैसले से ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं मिलनी चाहिए। आत्मनियंत्रण सोच उनके लिए है जो इसके लिए तैयार हैं,जिनके पास विवेक है, जो घृणा व द्वेष से भरे नहीं हैं। इसलिए कोई तरीका निकलना चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित न हो तथा सोशल मीडिया सही सूचना, विचार और संवाद का माध्यम बने। इसकी व्यापक संभावनायें हैं। पर यह होगा कैसे इस पर विचार जरुर होनी चाहिए। पुलिस राज खत्म होने का अर्थ किसी को गाली, गालौज, चरित्र हनन करने वाली, किसी की नैतिकता, ईमानदारी पर प्रश्न उठाने वाली निम्न दर्जे की निजी टिप्पणियां नहीं होनी चाहिए।
अवधेश कुमार, ईः 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः 110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

विपक्ष की एकजुटता की राजनीतिक प्रतिध्वनि

अवधेश कुमार

नरेन्द्र मोदी सरकार के विरुद्ध यह पहली विपक्षी एकजुटता का प्रदर्शन था। पहली बार कई विपक्षी दल सरकार के खिलाफ एकजुट होकर संसद से राष्ट्रपति भवन के मार्च में शामिल हुए। हालांकि जिन 14 दलों के शामिल होने का दावा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मार्च के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए दी उनमें से कई ऐसे हैं जिनका संसद में प्रतिनिधित्व ही नहीं। विपक्षी दलों के राष्ट्रपति के यहां जाने का क्या असर होगा यह समझना मुश्किल है। जब बहस राज्यसभा में चल रही थी, आपने उसका विरोध किया तो इसमें राष्ट्रपति क्या करेंगे? संसद को एजेंडा तो राष्ट्रपति निर्धारित नहीं कर सकते। हां, अगर तत्काल राज्यसभा में पारित नहीं हुआ तो 5 अप्रैल को यह अध्यादेश खत्म हो जाएगा। या तो पुनः अध्यादेश के लिए सरकार को राष्ट्रपति से हस्ताक्षर करानी होगी या उसे पारित कराना होगा। पारित कराने का रास्ता एक ही है, कुछ पार्टियां सरकार को साथ दें या फिर संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर सरकार पारित कराये। छः महीना पहले अधिसूचना पर हस्ताक्षर करने के पहले भी उन्होंने सरकार से पूछा था। उसके बाद हस्ताक्षर किया।

इस समय कुछ भी अनुमान लगाना कठिन है। पर इसके राजनीतिक पहलुओं का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर एक साथ विपक्षी दल किसी एक मामले पर साथ आते हैं तो ऐसा नहीं हो सकता कि वे वहीं तक सीमित रहें। यह भी नहीं हो सकता कि यह राजनीतिक प्रभावों से अछूता रहे। जब कदम ही राजनीतिक हो तो फिर उसका राजनीतिक प्रभाव एकदम स्वाभाविक है। हालांकि खनिज विधेयक पर विपक्षी एकता टिकी नहीं रही। राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद सरकार ने इसे पारित कराने में सफलता पा ली। कई घोर भाजपा विरोधी दलों ने इसमें सरकार का साथ दिया। ऐसा कुछ दूसरे विधेयकों के मामले में हो सकता है। जहां तक भूमि अधिग्रहण विधेयक का प्रश्न है तो यह मामला अब राजनीतिक ज्यादा हो गया है। इसमें क्या सही है क्या गलत, सरकार कहां तक आगे बढ़े या पीछे हटे.....इन सारे प्रश्नों पर एकमत कठिन है। सरकार ने ग्रामीण औद्योगिक गलियारा में सरकर निजी साझेदारी वाली परियोजना की दूरी 2 से घटाकर 1 किलोमीटर कर दिया है, पांच वर्ष तक शुरु न होने वाली परियोजनाओं में जमीन किसानों की वापसी के प्रावधान को कुछ मामले मंें छोड़कर फिर से लागू कर दिया है......। लेकिन मुख्य जिद 80 प्रतिशत और 70 प्रतिशत सहमति तथा सामाजिक प्रभावों के अध्ययन पर है। देखना है क्या होता है। हालांकि सच यही है कि जिस तरह कांग्रेस के अपने मुख्यमंत्रियों सहित 32 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों ने कानून में ंसंशोधन की मांग की थी, केन्द्रीय मंत्रियों तक ने प्रधानमंत्री से इसमें बदलाव की सिफारिश की थी उसके आलोक में यह स्वीकारने में कोई समस्या नहीं है कि अगर संप्रग सरकार सत्ता में वापस आती तो वह भी इसे संशोधित करती।

पर इस विषय को यहीं छोड़कर जरा मार्च के राजनीतिक पहलू पर विचार करिए। वास्तव में मामला भूमि अधिग्रहण का अवश्य है, पर इसके बहाने विपक्ष की एकजुटता की राजनीतिक प्रतिध्वनि काफी महत्वपूर्ण है। कांग्रेस ने अपने तमाम लुंजपुंज आचरणों के बावजूद उसने अपने साथ कुछ दलों को एकत्रित कर राष्ष्ट्रपति भवन तक मार्च निकाल लिया यह उसकी राजनीति के लिए संतोष का विषय हो सकता है। उसे लगता है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक को किसान विरोधी बताकर वह संसद के अंदर और बाहर अपनी जड़ और हताश राजनीति में जान ला जा सकती है। राष्ट्रपति से मिलने के बाद कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ही पत्रकारों से बातचीत की। इसका संदेश यही था कि इस मार्च का नेतृत्व सोनिया गांधी ही कर रही थी। तो लोकसभा चुनाव में बूरी पराजय एवं नीति, नेतृत्व, रणनीति सभी स्तरों पर किंकर्तव्यविमूढ़ पार्टी ने आखिर तत्काल इस सरकार विरोधी मुहिम का नेतृत्व अपने हाथों में लिया। यह उसके आत्मविश्वास को थोड़ बढ़ा रहा होगा।

ध्यान रखिए 1999 में तब तक की सबसे बुरी पराजय के बाद सोनिया गाध्ंाी को संसद के अंदर विपक्ष की एकजुटता का लाभ मिला। वामदल तब थोड़ी ताकत में थे। उनको भाजपा से परहेज था। समाजवादी पार्टी भाजपा के खिलाफ थी। लालू यादव की पार्टी खिलाफ थी। और भाजपा विरोधी छोटी-छोटी पार्टियां एक थीं। भाजपा विरोध के नाम पर यह एकजुटता सुदृढ़ हुई। इसी का परिणाम था कि 2004 के चुनाव में कांग्रेस का कई पार्टियों से गठजोड़ हुआ। परिणाम के बाद यद्यपि उसे केवल 145 लोकसभा स्थान आये, पर संयुक्त प्र्रतिशील गठबंधन बन गया, जिसे वामदलों ने बाहर से समर्थन देकर सरकार तक पहुंचा दिया। सपा ने, बसपा ने बाहर से समर्थन दे दिया। तब से 10 वर्ष तक कांग्रेस का शासन रहा। इस समय देख लीजिए, कांग्रेस, राजद, जद यू, द्रमुक, वाम दल.....सबके सामने अस्तित्व का संकट है। उनके लिए देश, विकास, सही गलत से ज्यादा अपनी राजनीति महत्वपूर्ण है।

केवल कांग्रेस को ही राजनीति में अपनी शक्तिशाली पुनर्वापसी की आवश्यकता नहीं, वामदलों को है, द्रमुक को है, राजद को है, जद यू को है, सपा को है........। तो अपने राजनीति हित के लिए ये सरकार के विरुद्ध आगे भी कुछ मामलों पर संसद के अंदर एवं बाहर एकजुट होंगे। वैसे भी भाजपा के साथ इनमें से जद यू और द्रमुक को छोड़ दें पुश्तैनी दुश्मनी जैसी है। इसलिए काम सही हो या गलत, देश के विकास के लिए हो या और कुछ ये जहां भी संभव होगा सरकार को संयुक्त रुप से कठघरे में खड़ा करके उसे जनता के बीच ले जाने की कोशिश करेंगे। भूमि अधिग्रहण विधेयक को ये जितना किसान विरोधी बता रहे हैं उतना नहीं है यह कोई भी विवेकशील व्यक्ति देख सकता है। लेकिन यह भाजपा को किसान विरोधी, उद्योगपति समर्थक, कारोबारी समर्थक साबित करने का अच्छा मुद्दा है। भाजपा न भूले कि राजनीतिक हितों के गठजोड़ से इस देश की सत्ता और अनेक राज्यों की सत्ता कई बार बदल चुकी है। चुनाव में इनकी एकजुटता भाजपा विरोधी हो सकती है और इसका असर हो सकता है।

इस प्रकार राष्ट्रपति भवन तक मार्च का महत्व यही है कि निराश विपक्ष के बीच एक मनोवैज्ञानिक उम्मीद भाजपा को कमजोर करने की कायम होगी। भले राज्य सभा में यह अभी पूर्ण एकता में नहीं बदली है, पर कांग्रेस एवं वामदल इसकी पूरी कोशिश कर रहे हैं। चूंकि इसका नेतृत्व कांग्रेस के हाथों आया तो सोनिया इसको और सुदृढ़ करने की कोशिश करेंगी। भाजपा की समस्या यह है कि वह संसद में तो जवाब दे रही है, लेकिन बाहर मीडिया एवं जनता के बीच इस मामले में कमजोर पड़ रही है। टीवी चैनलों पर उसके प्रवक्ता विपक्ष से झगड़ते तो हैं, पर उस तरह तथ्य और तर्क प्रस्तुत नहीं कर रहे जिससे आरोपों का प्रभावी खंडन हो सके। सरकार की रक्षा का दायित्व वैसे प्रवक्ताओं और सरकारी मंत्रियों पर है जिनको खेती, किसानी का अनुभव ही नहीं। उनकी भाषा कुछ विशेष पढ़े लिखे लोग तो समझ सकते हैं, किंतु आम किसान और जनता नहीं। भाजपा निकट भविष्य में आम जनता और अपने समर्थकों को समझा पाने की अवस्था में आ पाएगी इस समय ऐसी निश्चयात्मक भविष्यवाणी कठिन है।

सबसे निकट बिहार विधानसभा चुनाव है। वहां इसकी राजनीतिक प्रतिध्वनि सुनाई पड़ सकती है। वहां पूरे विपक्ष के लिए अस्तित्व की लड़ाई है। कांग्रेस को थोड़ी सफलता चाहिए, जद यू को, राजद को, वामदलों को अपने खाते में दिखाने के लिए किसी तरह की सफलता चाहिए। वे यह बताना चाहते हैं कि हमने नरेन्द्र मोदी के प्रभाव को कम करने में सफलता पा ली है। यदि वहां विपक्ष ने भाजपा को मजबूत टक्कर दे दिया और परिणाम थोड़ा भी अपने अनुकूल करने में सफलतायें पा ली तो दिल्ली के बाद भाजपा पर, इसके समर्थकों पर कैसा असर होगा इसकी आप जरा कल्पना करिए। भाजपा इस संभावना को नजरअंदाज न करे।
ठीक है कि विपक्ष जिस तरह जिद पर है उसमें कठिनाई है, पर यह कुछ हद तक भाजपा की रणनीतिक विफलता मानी जाएगी कि उसने विपक्ष को एकबार एकजुट होकर सड़कों पर आने का अवसर दे दिया। कुछ पार्टियां हैं जिनके नेताओं से अलग से बातकर वह साथ ला सकती थी, पर वह ऐसा नहीं कर पाई। पता नहीं नरेन्द्र मोदी के रणनीतिकार क्या सोचते हैं और क्या करते हैं। अगर वे यह समझ रहे हैं कि राष्ट्रपति के यहां जाने से वह बिल्कुल अप्रभावित रहेगी तो भाजपा भविष्य में पड़ने वाले इसके प्रभावों का कमतर आकलन कर रही है। इस घटना के बाद उसे कमर कसने तथा अपने राजनीतिक एवं संसदीय रणनीति में बदलाव की जरुरत महसूस होनी चाहिए।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208



शनिवार, 14 मार्च 2015

डीमापुर की घटना और समाज की प्रतिक्रिया दोनों डरावनी

अवधेश कुमार
जिस तरह डीमापुर में भीड़ ने बलात्कार के एक आरोपी को सरेआम सारी सुरक्षा को तोड़कर जेल से बाहर निकाला, उसे नंगा किया, करीब 8 कि. मी. तक उसका जुलूस निकाला और फिर काम तमाम कर दिया, उससे हर विवेकशील व्यक्ति के अंदर सिहरन पैदा हो जाती है। किंतु विडम्बना देखिए कि देश में भारी संख्या मंें ऐसे लोग हैं जिनने इस हत्या को सही करार दिया है। आप सोशल मीडिया या समाचार पत्रों में आ रही प्रतिक्रियाओं को देखिए तो आप अंदर से दहल जाएंगे। ऐसा लगता है जैसे हमारे देश में एक इतना बड़ा वर्ग हो गया है जिसे न तो घटना का सच जानने में अभिरुचि है, न उसे इस तरह आतंक के राज की तरह अंजाम देने के खतरनाक परिणामों की चिंता ही है। समाज का यह रवैया अत्यंत चिंताजनक है। आप अगर ऐसी घटना का समर्थन करते हैं, तो फिर माओवादियों की हिंसा को जायज मान लीजिए। आखिर वे भी तो यही कहते हैं कि हम राज्य एवं पूंजी के अन्याय के विरुद्ध लड़ रहे हैं। हिंसा चाहे वह निजी हो या सामूहिक....उसके पीछे किसी भी कारण को न्यायसंगत मान लिया गया तो फिर हिंसक अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी।
बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वाले के साथ केवल मानसिक रुप से असंतुलित लोग ही खड़े हो सकते हैं। पर इसके लिए हमारे यहां न्यायिक प्रक्रिया है। फरीद खान नामक युवक न्यायिक प्रक्रिया के तहत ही जेल मे बंद था। उसके साथ न्यायालय फैसला करता। वैसे भी बलात्कार के खिलाफ इतने कड़े कानून बन गए हैं कि सामान्यतः किसी दोषी का बच जाना नामुमकिन है। किंतु अपराध साबित भी तो हो। हमारी  भूमिका यदि पुलिस जांच में कोताही बरतती है तो उस पर दबाव बनाने की हो सकती है, लेकिन हम ही अगर पुलिस, साक्ष्य, न्यायालय ....सबकी भूमिका निभाने लग जाएं तो क्या होगा? कोइ आवश्यक नहीं कि जो आरोप लगा है वह सच ही हो।
वैसे भी डीमापुर की घटना का जितना सच सामने आया है उससे मामले को लेकर निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना जरा कठिन है। आरंभ 23 फरवरी को हुआ। जिस नगा युवती की ओर से बलात्कार का मामला दर्ज हुआ है वह फरीद के साथ एक होटल में रात भर रही थी। उसे उसके साथ घूमते हुए भी देखा गया था। 24 फरबरी को होटल से निकलने के बाद वह बलात्कार का मामला दायर करती है और यह वहां बड़ा मुद्दा बन जाता है। जब उससे पूछा गया कि आप उसके साथ बाजार मंे क्यों घूम रहीं थीं, फिर होटल में क्यों गईं तो उसका जवाब होता है, मजबूरी में। यह प्राथमिकी में भी लिखा है। क्या मजबूरी थी इसका खुलासा पुलिस ने नहीं किया है। उसके बाद से वहां आक्रोश प्रदर्शन का सिलसिला चलने लगता है। जैसा आम तौर पर होता है वक्ता मांग करते हैं कि या तो उसे तुरत सजा दो या फिर हमें सौंप दो। पिछले दिनों राज्य सभा में एक महिला सांसद ने निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के आरोपी मुकेश के बारे में यही कहा। डीमापुर में वह लड़की एक विशेष आदिवासी समुदाय से आती है, इसलिए यह भी मांग थी कि हमें अपनी परंपरा के अनुसार न्याय करने की छूट दी जाये। और वे अंततः यही करते हैं।
 डॉक्टरी जांच में लड़की के साथ यौन कर्म की पुष्टि होती है। हम इसे जो भी मानें, पर इस बावेला और सरेआम हत्या के एक साथ कई पहलू सामने आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि यहां बलात्कार और उसकी न्यायिक प्रक्रिया नहीं, एक समूह की राजनीति ने सारा कांड करा दिया। इस समय नागालैण्ड के जो मुख्यमंत्री हैं, जेलियांग उनको हटाने की मांग का भी आंदोलन चल रहा है। यह लगभग स्पष्ट हो रहा है कि जो विधायक उनसे असंतुष्ट हैं उनने भी इस आग को भड़काया और उसे इतना परवान चढ़ाने की कोशिश की ताकि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए, गोलियां चले, गिरफ्तारियां हों, और फिर सरकार को विफल करार देकर उनको हटाया जाए। एक पहलू इसका नगा आदिवासियों के बीच कई कारणों से बढ़ा हुआ द्वंद्व भी माना जा रहा है।  हम जानते हैं कि नगालैंड में केवल डीमापुर ही एक स्थान है जहां किसी को जाने या रहने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं है। इससे वहां की आबादी के चरित्र में व्यापक परिवर्तन आया है। वहां अब तक अपने कबिले तक सीमित रहे आदिवासियों के जीवन शैली संबंधी सीमायें टूटी हैं। खासकर जिस लड़की ने बलात्कार का आरोप लगाया वह सेमा कबीले की थी। उस कबीले की लड़कियों के साथ असम से आकर वहां रहने वाले मुसलमानों की शादियां हुईं हैं जिनके कारण वहां तनाव बढ़ा है। दूसरे कबीलों को और कुछ उस कबीले के अंदर के लोग भी इसके खिलाफ क्षुब्घ हैं। इस कारण वहां तनाव और आपसी मारपीट होती रही है। बाहरी लोगों के आने के कारण डीमपुर में प्रोपर्टी का बाजार भी गरम हुआ है, कई प्रकार के धंधे चल पड़े हैं, कुछ माफिया और अपराधी तत्व भी वहां जमे हैं। कॉल गर्ल या सैक्स का अवैध धंधा भी होटलों के माध्यम से चलता है। समय-समय पर गैरकानूनी हथियारों का जखीरा भी पकड़ में आता है। चूंकि वहां पहले से सक्रिय उग्रवादी गुटों के बीच प्रतिस्पर्धा है उस कारण भी समस्या जटिल हुई है। हालांकि उग्रवादी युद्धविराम के कारण सरकार के खिलाफ हिंसा नहीं कर रहे, पर उनका आपसी टकराव तो होता ही रहता है।
कहने का अर्थ यह कि डीमापुर में एक साथ राजनीतिक-आर्थिक अवस्था, उसके कारण आ रहे बदलाव, सामाजिक द्वंद्व, सांप्रदायिकता की भावनायें, माफियाओं और अपराधियों की उपस्थिति, उग्रवादियों का आपसी हिंसक दशा.....इन सबने मिलकर.पूरी स्थिति को ऐसा बना दिया है जिसमें ऐसी अकल्पनीय घटना को अंजाम देना संभव हो सका। जरा सोचिए न कोई भी भीड़ किसी जेल की सुरक्षा को तोड़कर कैसे अंदर घुसेगा और आरोपी को बाजाब्ता बाहर निकाल लायेगा। आखिर जेल से सुरक्षित कोई जगह कैसे हो सकता है? बिना पुलिस, प्रशासन और राजनीति के मिलीभगत के यह संभव ही नहीं है। किसी ने भीड़ में कहा भी कि इसके बाद न तो बाहरी बदमाश लड़कियों को फुसलाकर उनके शादियां करेंगे, प्यार का नाटक करेगे और न लड़किया ही उनके साथ जाना चाहेंगी। तो यह भी एक सोच है। वस्तुतः बलात्कार का मामला दर्ज होने के बाद धीरे-धीरे जितना कुछ सामने आया उसे देखने के बाद स्थिति को समझना आसान हो गया था। न तो वहां की पुलिस के लिए, न सरकार के लिए और न हमारे आपके लिए। इतना बड़ा बवण्डर वहां 10 दिनों तक चलता रहा, पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि इसके सारे पक्षों को सामने रखकर बात करे। मुख्यमंत्री ने लोगों से अपील तो की, पर जब उनके असंतुष्ट इसके पीछे थे तो फिर उसका असर कहां होना था।
कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि लोगांें का पुलिस और न्याय प्रक्रिया से विश्वास उठेगा तो यही होगा। यहां यह पहलू लागू नहीं होता है। इसके परे मुल प्रश्न तो यह है कि आखिर हमारा समाज कहां पहुंच गया है जहां एक आरोप लगा और उसे राजनीतिक नेता, सामाजिक नेता, एनजीओ, छात्र संगठन.... सब या तो बिना सोचे या निहित स्वार्थ से सही तरीके से जांच और न्यायिक प्रक्रिया का रास्ता बनाने की जगह ज्वालामुखी बनाने में लग जाते हैं। लड़की किस कारण से उसके साथ घूमती थी, क्यों होटल मंें साथ रुकी, उससे उसका क्या संबंध था......संबंध बना तो क्यों बना....ये सारे पहलू अभी तक छिपे हुए हैं। लेकिन जिस पर आरोप लगा उसकी ऐसी मौत, जो वाकई बर्बर असभ्य युग की याद दिला देता है।
अवधेश कुमार, ई.ः 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः 110092, दूर.ः 01122483408, 09811027208


गुरुवार, 5 मार्च 2015

कश्मीर सरकार और विवाद

अवधेश कुमार

जम्मू कश्मीर में भाजपा पीडीपी सरकार बनने के बाद मुफ्ती मोहम्मद के अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं पाकिस्तान के समर्थन में स्पष्ट दिखने वाले बयानों को लेकर संसद से बाहर तक जो आक्रोश है उसे अनुचित मानने का कोई कारण नहीं है। इस तरह अगर सरकार मेे शामिल लोग संसद हमले में अपराध सिद्ध अफजल गुरु की फांसी को गलत ठहरायेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया देश के अन्य भागों एवं राजनीतिक प्रतिष्ठान में होनी ही है। तत्काल ऐसा लगता है जैसे भाजपा कश्मीर पर अब तक अपने आक्रामक राष्ट्रवादी धारा के विपरीत राष्ट्रविरोधी तत्वों के साथ गठबंधन करके सत्ता में आ गई है और उसके पास अपने ही समर्थन से बनाए गए मुख्यमंत्री के बयानों का कोई तार्किक उत्तर नहीं है। हमला केवल विपक्ष की ओर से ही नहीं है, स्वयं भाजपा के अंदर भी असहजता महसूस की जा रही है, कार्यकर्ताओं के अंदर क्षोभ और आक्रोश है। सभी पार्टियां उसे कठघरे में खड़ा कर रहीं है। अगर इतना भी आक्रोश नहीं हो तो लगेगा इस देश में अब अपने राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति भी प्रखरता लुप्त हो रही है। लेकिन केवल इस पहलू के आधार पर जम्मू कश्मीर की वर्तमान सरकार तथा उसके औचित्य अनौचित्य का मूल्यांकन करना एकपक्षीय होगा।

जम्मू कश्मीर हमारे लिए ऐसा मुद्दा है जिसका समाधान आज तक कोई सरकार नहीं कर सकी। पर यह भी ध्यान रखें कि वहां की किसी सरकार की हिम्मत भी नही कि वह वहां केन्द्र के विरुद्ध जाकर नीतिगत बदलाव की मनमानी कर सके। इस बात के प्रति हमें निश्चिंत रहना चाहिए। हमें यह स्पष्ट समझना होगा कि कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपरिहार्य है और भारत के हित में। कश्मीर राष्ट्रपति शासन में ज्यादा दिन न रहे और निर्वाचितों की सरकार बने इसका संदेश अलग जाता है। राष्ट्रपति शासन से वहां भी विरोधियों को असंतोष बढ़ाने तथा दुनिया भर में दुष्प्रचार करने का अवसर मिलता है। इसलिए कश्मीर में हर हाल में निर्वाचित सरकार बनना ही चाहिए था। इसलिए मैं और मेरी तरह सोचने वाले लोगों ने भाजपा पीडीपी सरकार के भविष्य पर संदेश व्यक्त करते हुए, मुफ्ती मोहम्मद सईद तथा पीडीपी की अलगाववादियों, आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति का भाव जानते हुए भी सरकार बनने का समर्थन किया है। किंतु सरकार बनने का समर्थन करने यह अर्थ नहीं कि सईद व पीडीपी के मंत्रियों विधायकों के बोल का किसी सूरत में समर्थन किया जा सकता है। 

पर सईद जो बोल रहे हैं वह आपत्तिजनक ही नहीं तथ्यात्मक रुप से गलत है। आखिर कश्मीर चुनाव को बाधित करने के लिए पाकिस्तान, उसकी आईएसआई और आतंकवादियों ने पूरी कोशिश की। हमले किए, हमारे जवान और निर्दोष मारे गए। तीन-तीन दिनों तक सेना को आतंकवादियों से मोर्चाबंदी करनी पड़ी। सईद यदि कह रहे हैं कि आतंकवादियों, अलगाववादियों तथा पाकिस्तान ने बैलेट के महत्व को समझा और पहले की तरह बाधा नहीं पहुंचाया तथा चुनाव शांतिपूर्ण सम्पन्न हो सके तो यह उन सारे शहीदों का अपमान है जिनने चुनाव के लिए जान दे दी। उनके शव पर पत्थर फेंकने जैसा है। इसकी निंदा होनी चाहिए। हालांकि हंगामें के बाद उनने अपना स्पष्टीकरण दिया है जिसमेें चार बातें कहीं हैं। 1 मैंने पाकिस्तान और हुर्रियत के बारे में मैंने कहा कि कश्मीर के उबरने और लोकतंत्र के काम करने के साथ इसमें विश्वास को उन्होंने (पाकिस्तान और हुर्रियत ने) मान्यता दी। उन्होंने इस बात को समझा कि मतदाता पर्ची लोगों की नियति है, न कि गोली या ग्रेनेड। 2. और यह मतदाता पर्ची हमे भारत के संविधान ने दी है। जम्मू कश्मीर की आवाम की इसमें (अधिकार में) कहीं अधिक आस्था है। उन लोगों (सीमा पार के लोग और हुर्रियत) ने दखलंदाजी नहीं की, जैसा कि पहले (चुनावों में) हुआ करता था। 3. मैंने जो कुछ कहा उसके सिर्फ एक ही हिस्से पर जोर दिया गया जबकि सकारात्मक चीजों को नजरअंदाज कर दिया गया। वे लोग तिल का ताड़ बनाना चाहते हैं। 4 भारत के संविधान में कश्मीर ने जो संवैधानिक अधिकार पाया है और लोकतांत्रिक संस्थानों ने जो मजबूती पाई है, यह मतदाता पर्ची के चलते है, जिसे उन्होंने मान्यता दी। उन्होंने हर चीज आजमाई। उन्होंने (सीमा पार की ताकतों) लोकतंत्र की संस्था को मान्यता दी।

उनके स्पष्टीकरण में भारत के संविधान की स्वीकृति तो है, पर मूल रुप में वे अपने बयान पर कायम है जो हर हाल में आपत्तिजनक है। इसे अगर कोई भारत विरोधी बयान कह रहा है उसे भी गलत नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन क्या सईद से ऐसे बयान की अपेक्षा हमें नहीं थी? क्या अफजल गुरु की फंासी का गलत ठहराना या उसका शव मांगना अप्रत्याशित है? इन दोनों प्रश्नों को उत्तर है, नहीं, कतई नहीं। भाजपा और मोदी का भय दिखाकर जिस तरह उनने वोट पाया है और अब उसके साथ सरकार बना रहे हैं तो फिर वे अपने समर्थकों को कैसे मना पाएंगे? इसलिए वे और उनकी पार्टी कुछ ऐसा अतिवादी बयान देंगे। इसी तरह अफजल के फांसी दिये जाने के बाद कश्मीर घाटी में जैसा विरोध हुआ, वहां की विधानसभा में जिस तरह का क्षोभ प्रकट किया गया उस दृश्य को याद कीजिए। ऐसा वहां पहले से हो रहा है। पूर्व विधानसभा में बराबर मामला उठता रहा है। यह वहां चुनाव का भी मुद्दा था। पीडीपी के नेताओं ने घाटी मेें यह मामला उठाया था। यह देश विरोधी कृत्य है, पर कश्मीर में ऐसा होता रहा है यह हम न भलें। वे ऐसा आगे भी करेंगे और हमेें उसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

सईद की विधारधारा वैसे भी कश्मीर के सभी मुख्य राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा अलगाववादी समर्थन की रही है। वे केन्द्र में गृहमंत्री तक रहे, उनकी बेटी सांसद तक रहीं हैं, पर इससे उनके प्रकट स्वर में कोई अंतर नहीं आया। कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के बाद भी वो इस तरह के बयान देते थे जिसका भाजपा इसी तरह आक्रामकता से विरोध करती थी जैसी आज दूसरी पार्टियां कर रहीं हैं। उनके बयानों से तंग आकर कांग्रेस की ओर से अंतिम तीन साल के लिए मुख्यमंत्री बने गुलाम नबी आजाद ने उनसे नाता तोड़ देने में ही भलाई समझी। हालांकि भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति इस तरह का बयान दे तो इसे गले उतारना किसी के लिए भी कठिन होगा। पर हमें विरोध करते हुए भी इस सरकार को भंग कर देने या भाजपा द्वारा तुरत सरकार से बाहर आ जाने की अतिवादी मांग से तत्काल बचना चाहिए। यह मानना गलत होगा कि वे ऐसा कुछ कर पाने की स्थिति में हैं, जो केन्द्र की कश्मीर नीति के विरुद्ध है। हां, यह संभव है कि उनके बयानों से अलगाववादी तत्वों की थोड़ी हौंसला अफजाई हो।

हम यहां एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू नजरअंदाज कर रहे हैं। यह वहां की पहली सरकार है जिसमें जम्मू और लद्याख का वास्तविक प्रभावी प्रतिनिधित्व हुआ है। यह पहली सरकार है जिसमें हिन्दू और मुसलमान बराबरी के स्तर पर शामिल हैं। यह पहली सरकार है जिसमें संसाधनों के वितरण, विकास की नीतियों या अन्य मामलों में जम्मू और लद्याख को पहले की तरह नजरअंदाज करना कठिन होगा। संसाधनों के समान वितरण की संभावना वाली सरकार है। तो इसके ऐसे कई सकारात्मक पहलू भी हैं। 

हां, मूल बात केन्द्र के रवैये का है। यानी केन्द्र उनके साथ गठबंधन से परे सरकार के स्तर पर कैसा व्यवहार करती है। भाजपा एक सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया को जिस ढंग से हैण्डल करनी चाहिए नहीं कर पाई है। सईद जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने आये थे तो वे उनसे केवल हाथ मिलाना चाहते थे। प्रधानमंत्री ने उनको ऐसे गले लगाया मानो कोई एकदम दिली मित्र मिल रहे हों। कोई भी महसूस कर सकता था कि सईद गले मिलते वक्त हिचकिचा रहे थे। सच कहा जाए तो यह एक मजबूरी की सरकार थी और उसे उसी रुप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। कठोर मोलभाव करते हुए मुफ्ती को उनकी सीमायें बतलाई जानी चाहिए थी। कांग्रेस ने 2002 में समझौता किया तो 3-3 साल के मुख्यमंत्री पद के लिए। भाजपा के पास 24 अपना तथा एक निर्दलीय का समर्थन है। पीडीपी के पास 28 विधायक हैं। तो सीटों में इतना अंतर नहीं है। इनको इसके लिए दबाव बनाना चाहिए था। साथ ही कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय की भी मांग करनी चाहिए थी। गृह, वित्त और कानून तीनों मंत्रालय पीडीपी के पास है। ये वे नहीं कर सके। पर सेना को मिले विशेष अधिकार हटाने पर केन्द्र ने उनको ना कह दिया है। इसी तरह उनकी कई मांगे थीं जो सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल नहीं हैं। पाकिस्तान से बातचीत इस समय सही है गलत है इस पर दो राय हो सकती है, पर यह केन्द्र की नीति में शामिल है। मुफ्ती के कहने से होगा, यह सोचना बेमानी है। वे श्रेय लेने के लिए बयान देंगे। इसे सुनते और विरोध करते हुए कामना करनी चाहिए कि सरकार कश्मीर की जनता की भलाई के लिए काम करे। उनका विश्वास भारतीय लोकतंत्र में और मजबूत हो।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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