शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

धर्म संसद को कैसे देखें

अवधेश कुमार
कवर्धा में आयोजित धर्म संसद, उसमें हुई बहस, और पारित प्रस्तावों को लेकर देश में बहस और विवाद दोनों साथ आरंभ हो गए हैं। ज्योतिष एवं द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद जी से उनके राजनीतिक विचारों को लेकर भारी संख्या में लोगों को एलर्जी है। हमारे मन पर दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से राजनीति इतनी हाबी हो चुकी है और अपने या अपने द्वारा समर्थित दल के अलावा दूसरों के प्रति विरोध का इतना गहरा भाव भरा है कि उसके पक्ष में एक बयान देने वाले तक को हम खलनायक मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। राजनीतिक दलों और नेताओं के आचरणों ने इतनी असहिष्णुता पैदा कर दी है। शंकराचार्य स्वामी से कई मुद्दों पर सहमति असहमति हो सकती है, लेकिन धर्म के इतने उंचे पायदान पर और इतने अधिक दिनों से वे विराजमान हैं, उनके जीवन के ऐसे अनेक पहलू हैं जो कि गौरवपूर्ण भी हैं, पर उनके द्वारा आहूत धर्मसंसद को कुछ लोग केवल इस कारण खारिज कर रहे हैं कि वे कांग्रेस के समर्थक हैं। आश्चर्य की बात है कि उनमें अब ऐसे लोग भी शामिल हो गए हैं जो स्वयं साधु वेश धारण कर चुके हैं, आश्रम चलाते हैं और कांग्रेस की ओर से चुनाव भी लड़ चुके हैं। लेकिन क्या शंकराचार्य जी का धर्म संसद बुलाना धर्म की दृष्टि से सम्मत कदम नहीं है? क्या वहां जो निर्णय लिए गए वे मान्य नहीं होंगे?
हम पत्रकारों की अपनी समस्या है। हम हर घटना मंे विवाद तलाशते हैं और उसे अपनी सोच के अनुसार नमक मीर्च लगाकर परोसते हैं। खैर पहले विवाद पर आएं। दिल्ली से तीन साईं समर्थक अशोक कुमार, जितेंद्र कुमार और मनुष्यमित्र मंच पर पहुंचे। हालांकि सिरडी साईं ट्रस्ट की ओर से इनको अधिकृत नहीं किया गया था, फिर भी उन्हें बात रखने का मौका दिया गया। उनने कहा कि वे साईं को भगवान मानते हैं। वे सिद्ध आत्मा थे, इसलिए उनकी पूजा करने का सभी को अधिकार है। मनुष्यमित्र ने कहा कि धर्म संसद हिंदुओं को बांटने का काम कर रही है। कोई भी साधु आज गौहत्या को रोकने के लिए अनशन करने को तैयार नहीं है। जब मनुष्यमित्र ने सनातन धर्म के साधुओं से गौहत्या बंद होने तक अन्न त्यागने का प्रस्ताव रखा, तो एक साधु आए और शंकराचार्य के सामने अन्न त्यागने को तैयार हो गए। इसके बाद साधुओं के समूह ने मनुष्यमित्र को घेर लिया। बाद में साधु संतों के बीच से मनुष्यमित्र को निकाला गया और पुलिस अपने साथ ले गई। जिस साधु को टीवी चैनलों पर माइक लेकर चिल्लाते हुए दिखाया गया उन्हांेने कहा कि मैं शंकराचार्य जी के चरणों के सामने यह संकल्प लेता हूं कि मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करुंगा, तुम आओ। यह कहीं से धर्म संसद का विरोध नहीं था, पर इसे जिस तरह प्रस्तुत गिया गया मानो वहां विद्रोह हो गया है। यह सच नहीं था। और ऐसी कौन सी बहस होगी या संसद होगी जहां विरोध, मतभेद न उभरे।  
 धर्म संसद में देश के तेरह अखाड़ों और चार शंकराचार्यों का प्रतिनिधित्व हुआ। नरेन्द्र गिरी जी महाराज की अध्यक्षता में हुई सभा में सभी इस बात पर एकमत थे कि साईं भगवान नहीं हैं। उनकी पूजा नहीं की जानी चाहिए। अन्य दो शंकराचार्य स्वामी भारती तीर्थ महाराज (श्रृंगेरी पीठ), स्वामी निश्चलानंद जी महाराज (पुरी पीठ) ने भी अपने-अपने प्रतिनिधियों के जरिए स्पष्ट किया कि साईं में भगवान होने की योग्यता नहीं है।  संसद ने बाजाब्ता प्रस्ताव पारित करके कहा कि साईं भगवान नहीं है, साईं पूजा शास्त्र सम्मत नहीं है, साईं कोई अवतार भी नहीं हैं और न ही हिंदू सनातन धर्म में उनका कोई उल्लेख है। मंदिरों से साईं की मूर्तियां हटाये संबंधी प्रस्ताव में कहा गया कि अगर साईं भक्त ऐसा नहीं करेंगे तो संत खुद मंदिरों से मूर्तियों को हटा देंगे। देखा जाए तो इन पंक्तियों में एक टकराव का भाव है। यानी किसी तरह मूर्तियां हटानी ही है चाहे कोई रोके या विरोध करे। लेकिन चार पीठों के शंकराचार्यों ने एकमत होकर कह दिया है कि साईं भगवान नहीं हैं। धर्म संसद ने एक निर्णय ले लिया है, जिसमें इतने अखाड़े, शंकराचार्यों की सहमति है और काशी विद्वत परिषद की मुहर है। शंकराचार्य को धर्म संसद बुलाने का अधिकार है। जो सहमत थे वे आए लेकिन जो नहीं आए वे सहमत नहीं ही थे ऐसा नहीं है। र्साइं को भगवान माने या नहीं इस पर मतभेद की गुंजाइश है, पर धर्मक्षेत्र में इसका निर्णय कौन करेगा? सरकार, मीडिया, कानून और संसद तो कर नहीं सकती। अगर धर्म संसद ने निर्णय कर दिया तो उसका खंडन कौन करेगा? साईं को भगवान माना जाए या नहीं, उनकी पूजा की जाए की नहीं, की जाए तो किस रुप में....इस पर देशव्यापी बहस और विवाद स्वामी स्वरुपानंद जी के स्टैण्ड लेने के बाद ही आरंभ हुआ। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ही स्वरुपानंद जी से सहमत नहीं है। वैसे देश भर में आम सनातनी देवताओं के मंदिरों में जिस तरह साईं बाबा की मूर्तियां लगीं उनके खिलाफ माहौल आम विवेकशील धर्मावलंबियों में भी देखा गया।
लेकिन ध्यान रखिए वहां कुल छः प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें साईं को भगवान न मानने वाला प्रस्ताव एक था। इन प्रस्तावों मे कहा गया है कि गोहत्या को बंद करना चाहिए और गंगा को निर्मल अविरल धारा में प्रवाहित करने के लिए प्रयास करना होगा, विश्वविद्यालयों में गीता, रामायण, महाभारत की पढ़ाई अनिवार्य होना चाहिए, नकली संतों का बहिष्कार करना चाहिए, क्योंकि ये हिंदु धर्म का नाम लेकर सनातन धर्म को क्षति पहुंचा रहे हैं, नारी का सम्मान बढ़ाना होगा। कानून से कोई हल नहीं निकलने वाला, इसके लिए धर्म जागरण अभियान चलाना होगा। आखिरी प्रस्ताव अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का था। सरकार को राम मंदिर निर्माण में आ रहे सभी अवरोध को दूर करने का प्रस्ताव भेजा गया है। वहां सनातन धर्म की कमियों पर भी चर्चा हुई। उदाहरण के लिए पूर्व गृहमंत्री चिन्मयानंद स्वामी ने कहा कि सनातन धर्म को भी अपनी कमियों पर विचार करना होगा। आदिवासी और जंगलों में रहने वाले लोग सनातन धर्म से दूर हो गए। साधुओं की सभा में इस बात का चिंतन करना चाहिए कि सनातन धर्म के लोग मुसलमान, ईसाई और साईं की ओर क्यों झूक रहे हैं। इसके बाद देश में धर्म की रक्षा के लिए सनातन संघर्ष समिति का गठन किया गया। यह समिति सनातन धर्म के विरोध में उठने वाले मुद्दों पर जवाब देगी। इसके अध्यक्ष नरेद्र गिरी और मंत्री हरिगिरी को बनाया गया है। समिति देश में अलग-अलग स्थानों पर धर्म संसद का आयोजन करेगी और नकली साधुओं को समाप्त करने के लिए अभियान चलाएंगे।
तो कुल मिलाकर इस धर्म संसद ने ऐसे कार्य नहीं किए जिससे इसे इतना विवादास्पद या विफल बता दिया जाए। इसमें सार्थक प्रस्ताव हैं और धर्म के प्रति सचेतन का प्रयास है। हां, साईं बाबा के भक्त यकीनन धर्म संसद के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे। साईं ट्रस्ट इसका समुचित जवाब दे। हमारा मानना है कि वे अपनी आस्था भले बनाए रखें, पर सनातन धर्म के मंदिरों में उनकी मूर्तियां लगाने से परहेज करें। सनातन धर्म के मंदिरों का जिस तरह हाल के वर्षों में साईंकरण हुआ है वह अभद्र और अशालीन प्रक्रिया है। इसे रोका जाए ताकि टकराव न हो। दूसरे, वेद मंत्रों के आधार पर जो मंत्र उनने तैयार किए हैं उन पर पुनर्विचार करें। वैसे साईं का साहित्य पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि बहुत गहरा आध्यात्मिक दर्शन का आधार वहां नहीं है। लेकिन मनुष्य की आस्था है, वह किसी में भी हो सकती है। हम उस आस्था को जबरन रोक नहीं सकते हैं। पर धर्म के शीर्ष संत होने के कारण शंकराचार्य एवं अन्य संतों को भी यह अधिकार है कि अगर उन्हें कोई पंथ अपने सनातन धर्म के विरुद्ध लगता है तो वे उसके विरुद्ध आवाज उठाएं और निर्णय दें। यह निर्णय पर किसी पर थोपा नहीं जा सकता। हम अपने विवेक अविवेक से निर्णय करें। लेकिन इसको निरर्थक कहना, या सतही शब्दों से इसे तुच्छ साबित करना उचित नहीं है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्ली-110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


मंगलवार, 26 अगस्त 2014

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

एंटनी राग से कांग्रेस को क्या मिलेगा

अवधेश कुमार
ए. के. एंटनी ने कांग्रेस की करारी पराजय पर अलग-अलग समयों पर कई वक्तव्य दिए, लेकिन उनकी अध्यक्षता में बनी रिपोर्ट टुकड़ों में नहीं है। उसे पूरी तरह सार्वजनिक भी हीं किया गया है, पर उसके महत्वपूर्ण अंश उनके वक्तव्यों या स्रोतों से बाहर आ गया है। वैसे भी कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा प्रस्ताव पारित करके उसका गठन नहीं हुआ था। अध्यक्ष के नाते सोनिया गांधी ने उसे अनौपचारिक स्वरुप दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि वह रिपोर्ट सिर्फ सोनिया गांधी को ही मिलनी थी। वे उसे पढ़ेंगी और आवश्यकता समझेंगी तो उसे विचार के लिए कांग्रेस की कोर कमेटी या कार्यसमिति में रखेंगी नहीं समझेंगी तो नहीं रखेंगी। अगर उन्हें महसूस होगा कि इस पर विचार एवं कार्य होना चाहिए तो वे स्वयं उस दिशा मंे अध्यक्ष के नाते कदम उठा सकती हैं, पार्टी से भी आग्रह कर सकती हैं। यानी एंटनी समिति रिपोर्ट का पूरा दारोमदार सोनिया गांधी पर निर्भर है या फिर राहुल गांधी को उपाध्यक्ष के नाते मिला दें तो दोनों माता-पुत्र ही इस रिपोर्ट की नियति निर्धारित करेंगे। इसके पूर्व जब 2012 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पराजय हुई थी तब भी एंटनी की अध्यक्षता में एक समिति बनी थी। उसकी रिपोर्ट के अंश भी बाहर आए, पर वह कांग्रेस पार्टी के विचार-विमर्श का हिस्सा नहीं बना। तो क्या इस रिपोर्ट की भी यही दशाा होगी?
यह प्रश्न और आरंभ में उपरोक्त विवरण इसलिए दिया जाना आवश्यक है, क्योंकि बहुत सारे कांग्रेसी एवं कांग्रेस के समर्थकों ने इस रिपोर्ट से काफी उम्मीद लगा रखी है। आखिर अपने जीवन के सबसे बुरी पराजय और राजनीतिक संघात के बाद पार्टी के निष्ठावान लोग कम से कम इतना तो अवश्य सोचेंगे कि एंटनी समिति ने जो कारण बताए होंगे और उनसे निपटने के लिए जो अनुशंसायें की होंगी उनके आधार पर पार्टी फिर से पुनर्गठित होकर जन समर्थन पाने की कुव्वत पा सकती है। उत्तराखंड के उपचुनावों में तीनों सीटों पर विजय से ऐसा सोचने वालों की उम्मीदें जगीं है। हम उस रिपोर्ट के मुख्य अंश पर बाद में आएंगे, लेकिन जरा सोचिए, इस समिति में मंें एंटनी के अलावा, मुकुल वासनिक, आरसी खुंटिया और अविनाश पांडेय शामिल हैं। इनमंे से ऐसा कौन व्यक्ति है जो हिम्मत के साथ सोनिया गांधी या राहुल गांधी के सामने एकदम कटु सच बोल सकता हो? इसलिए जब  समिति ने 21 जून से काम करना शुरू किया था तभी से यह मान लिया गया था कि इसमें कुछ सतही और अस्पष्ट ऐसे कारणों को ज्यादा फोकस किया जाएगा जिससे संदेश यह निकले कि मुख्य कारण अपने अपने वश में नहीं थे। इससे नेतृत्व पर दोष आने से बच जाएगा। यही आपको इस रिपोर्ट में दिखाई देगा। दूसरे, यह भी विचार करने की बात है कि आखिर इतनी बुरी हार और घक्के के बाद भी यदि पार्टी अध्यक्ष औपचारिक और अधिकार प्राप्त समिति तक के गठन से बचीं तो वे या उनके रणनीतिकार आगे पार्टी को पुनर्गठित करने के लिए कुछ क्रांतिकारी कदम उठाएंगे यह कैसे मान लिया जाए?
एंटनी समिति ने कांग्रेस और संप्रग के खिलाफ वातावरण बनाने के लिए मीडिया और कुछ कॉरपोरेट घरानों की ओर उंगली उठाई है। रिपोर्ट में बाजाब्ता चार ऐसी कंपनियों का नाम भी लिया गया है। यह असाधारण स्थिति है। संभवतः भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहली ही घटना होगी जब किसी मुख्यधारा की पार्टी ने अपनी पराजय का ठिकरा मीडिया और कॉरपोरेट घराने पर फोड़ा है। कांग्रेस से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या मीडिया और कॉरपोरेट के पास इतनी शक्ति है कि वह देश भर में कांग्रेस का मत 28.8 प्रतिशत से 19 प्रतिशत पर ला दे और 206 सीटों को घटाकर 44 कर दे? अगर ऐसा हो जाए तो फिर इस देश को कॉरपोरेट अपने अनुसार चलानो लगेंगे और आज मीडिया के अधिकांश हिस्से में उनका धन लगा ही हुआ है। समिति लिखती है कि पार्टी मीडिया को मैनेज करने में सफल नहीं रही। मीडिया को मैनेज कैसे किया जाता है? कांग्रेस के बड़े-बड़े विज्ञापन अखबारों, चैनलों पर आते रहे, सरकार की तथाकथित उपलब्धियों का बखान करने वाले विज्ञापन चलते रहे.......। लेकिन मीडिया किसी सरकार और पार्टी का भोंपू तो नहीं हो सकती। कांग्रेस यह भूल गई कि यही मीडिया 2002 से 2012 तक नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जितनी टिप्पणियां होतंीं थीं करता रहा और वे चुनाव जीतते रहे। हालांकि चुनाव सर्वेक्षणों में उनके समर्थन के आंकड़े आते थे तो मीडिया को उसे प्रकाशित प्रसारित करना था। उनके समाचार उसी रुप में आते थे जैसे आने चाहिए, पर एक सामूहिक स्वर मीडिया का मोदी को खिलाफ होता था जिसके सामने समर्थन वाला स्वर थोड़ा कमजोर हो जाता था। कांग्रेस को यह सोचना चाहिए कि आखिर मीडिया का सामूहिक स्वर कांग्रेस व सरकार के विपरीत कैसे गया?
मीडिया की भूमिका जनता की आवाज को प्रतिबिम्बित करना है। अगर लोग नरेन्द्र मोदी की ओर आकर्षित हैं, लाखों की संख्या में उन्हें सुनने आ रहे हैं, शुल्क देकर भी लाखों की संख्या आ रही है तो फिर मीडिया का स्वर क्या हो सकता था? सच तो यह है कि कांग्रेस के नेतृत्व और उनके रणनीतिकारों ने इस स्वर को सुनकर अपनी रीति-रणीनीति में बदलाव की कोशिश ही नहीं की। बल्कि मीडिया पर सच बोलने वालों को भाजपा का प्रवक्ता तक कहकर हमला करने लगे। इसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया होती थी। एंटनी समिति ने भ्रष्टाचार के आरोपों के संदर्भ में जनता के सामने सही परिप्रेक्ष्य न रख पाने को हार का कारण बताया है और यहां भी मीडिया को कठघरे में खड़ा किया है। उसने 2 जी से लेकर, कोयला घोटाला, राष्ट्रमंडल घोटाला आदि की चर्चा की है। मीडिया ने तो वही लिखा, बोला और दिखाया जो खबर आती थी। अगर कैग कह रहा है कि इसमें भ्रष्टाचार हुआ है, सीबीआई की रिपोर्ट इसमें सरकार और संप्रग नेताओं की संलिप्तता बताती है तो हमारे पास चारा क्या है? अगर इतने बड़े-बड़े घोटाले होंगे तो मीडिया उस पर बहस करेगी, उसका सच दिखाएगी। ऐसा नहीं था कि उन बहसों में कांग्रेस के लोग नहीं होते थे लेकिन वे जिस अख्खड़ता से प्रतिहमला करते थे उससे उनका पक्ष कमजोर होता था।  
2004 और 2009 में भाजपा ने अपनी पराजय के लिए मीडिया और कॉरपोरेट को दोषी नहीं माना था। यह बात अलग है कि पार्टी ने अपने में बदलाव नहीं किया, अन्यथा हार के कारणों का सही विश्लेषण किया था और उससे उबरने के उपाय भी बताये गए थे। 2004 में बाजाब्ता एक बड़ी रिपोर्ट भाजपा ने भविष्य के कार्य के रुप में प्रकाशित की थी। डॉ. मनमोहन सिंह एवं पी चिदम्बरम हमेशा कॉरपोरेट के दुलारे रहे हैं। अगर रिपोर्ट को स्वीकार कर लें जिसे वास्तव में स्वीकार करना कठिन है तो भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि उनके खिलाफ अगर नाराजगी हुई तो क्यों? इस पर कांग्रेस को विचार करना चाहिए। राहुल गांधी ने बाजाब्ता अपने भाषण में एक कॉरपोरेट का नाम लेकर मोदी के साथ सांठगांठ का आरोप लगाया था। सच कहें तो रिपोर्ट में उसी को स्थान दिया गया है। उस समय कांग्रेस की सरकार थी वे चाहते तो जांच करा सकते थे। साफ है कि एंटनी समिति असली वजहों को या तो समझने से वंचित रह गई या जानबूझकर उन्हें वर्णित करने की हिम्मत नहीं कर पाई। समिति कह रही है कि चुनाव लड़ने के लिए धन की कमी पड़ गई। हालांकि अगर कांग्रेस एवं भाजपा की अंकेक्षण रिपोर्ट देखी जाए तो उसमें कांग्रेस की आय भाजपा से करीब 100 करोड़ रुपया ज्यादा है। जवाब में कांग्रेस कहती है कि भाजपा ने प्रच्छन्न रुप से काफी धन खर्च किया है। तो इसके खिलाफ उनको चुनाव आयोग के पास जाना चाहिए।  
इन कुछ कारणों का उल्लेख आरंभ में इसलिए किया गया क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस नेतृत्व की सोच वास्तविकता की जगह दोषारोपण की ओर जा रही है। और जब आप दोषारोपण की ओर बढ़ जाते हैं तो फिर ईमानदार और निष्पक्ष आत्मचिंतन नहीं कर पाते। कांग्रेस की यही त्रासदी है।  कांग्रेस नेतृत्व यह समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रही कि पराजय के बाद से कई जगहों से जिस प्रकार की भाषा राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए प्रयोग हो रहे हैं, उनके खिलाफ आवाजें उठ रहीं हैं वे भी कुछ संदेश दे रहे हैं। कहीं से भी मीडिया के खिलाफ, या कॉरपोरेट के खिलाफ आवाज नहीं उठ रही है। एंटनी समिति को अपनी जाचं के दौरान कई राज्यों में व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा। कई जगह राहुल गांधी के खिलाफ नारे लगाए गए, कई जगह राहुल और उनकी टीम को हाईफाई कहकर उसे पराजय के लिए जिम्मेवार बताया गया, सोनिया गांधी को दस जनपथ में घिरा कहा गया, समाचारों में वह सब आया, विरोध की तस्वीरें तक छपीं, पर एंटनी रिपोर्ट में उन सबका जिक्र ही नहीं है। एंटनी ने कहा भी कि पराजय के लिए राहुल गांधी को जिम्मेवार मानना गलत होगा। बेशक, एक व्यक्ति को जिम्मेवार नहीं होना चाहिए।
हालांकि समिति ने कुछ बातंे ठीक कहीं है। मसलन, कई राज्यों में गठबंधन न करना, राज्यों की ईकाइयों में गुटबाजी, बेपरवाह मंत्रियों से निराश पार्टी कार्यकर्ता, उम्म्ीदवारों का गलत चयन, राज्यों की समस्याओं को लेकर समन्वय का अभाव और इसके फलस्वरुप प्रचार का दिशाहीन और प्रभावहीन होना.... आदि। ये सब सच हैं। पर इन सबके लिए आप किसे जिम्मेवार किसे कहेंगे? जो विरोध या विद्रोह हो रहा है वह इन्हीं सब कारणों से था। राहुल गांधी के हाथों पूरे चुनाव की कमान थी और सोनिया गांधी मार्गदर्शक के रुप में थीं। राहुल गांधी ने सारे निर्णय किए या उनके सलाहकारों व टीम के सदस्यों ने......।  कुछ राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों सहित अन्य राज्यों आदि के प्रभारियों की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए गए हैं। इनके प्रभारियों की नियुक्तियां किसने कीं थीं? अगर राज्यों में प्रभावी नेताओं की कमियां थीं तो क्यों? प्रभावी नेता क्यों कांग्रेस की मुख्यधारा से बाहर चले गए हैं? ये सारे ऐसे प्रश्न हैं जिन पर समिति को गहराई से विचार करके अपनी बात रखनी चाहिए थी लेकिन वह नहीं रख पाई।
सबसे बढ़कर एंटनी ने स्वयं अपने बयान में कहा था कि  कांग्र्रेस की संप्रदाय विशेष के प्रति उदार होने की छवि ने काफी नुकसान पहुंचाया। यह रिपोर्ट में भी शामिल है। एंटनी ने कहा कि समाज के एक वर्ग को ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस केवल एक खास समुदाय को ही आगे बढ़ाने का काम करती है। यानी वह मुसलमानों को खुश करने मे लगी रहती है। पार्टी नेता इसके लिए खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान को उद्धृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। इन नेताओ का मानना है कि यूपीए सरकार की ओर से अल्पसंख्यकों के मसले पर जरूरत से ज्यादा जोर दिये जाने से बहुसंख्यक वर्ग व गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों में नाराजगी बढ़ी। यह सच है लेकिन इसके लिए क्या केवल मनमोहन सिंह को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है? सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड की सिफारिशें देख लीजिए। जाहिर है, इस पहलू को उभारकर या सरकार के मंत्रियों की कार्यशैली, अच्छे कार्य का ठीक प्रचार न कर पाना आदि का उल्लेख कर अप्रत्यक्ष रुप से मनमोहन सिंह को हार का खलनायक बनाने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस सच को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है। आज भी आप क्या कर रहे हैं? संसद में सांप्रदायिकता पर मोदी सरकार को बहस के लिए विवश करते हैं और उसका संदेश क्या निकल रहा है? कांग्रेस यह समझ ही नहीं रही है कि इस एकपक्षीय भूमिका से दूसरा वर्ग उसके खिलाफ विद्रोह करके भाजपा के पाले में चला जाता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है, पर हमें तत्काल यह मानकर चलना होगा कि एंटनी समिति की रिपोर्ट एक औपचारिक खानापूर्ति भर थी.....कांग्रेस के नेतृत्व, नीति और रणनीति में संभ्रम से बाहर निकलने की संभावना अभी नहीं दिख रही है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

शनिवार, 16 अगस्त 2014

नरेन्द्र मोदी का स्वतंत्रता दिवस संबोधन

अवधेश कुमार
लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पहले भाषण ने देश को लंबे समय बाद झकझोड़ा है। अगर आज यह प्रश्न किया जाए कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से जो कुछ कहा उसमें उन्हांेेने देश की उम्मीदों को पूरा किया तो आपका उत्तर क्या होगा? कांग्रेस या अन्य कई विरोधी दल उसकी मीन मेख निकालने में लगे हैं। जो भाषण में नहीं था उसके बारे में पूछ रहे हैं, पर यह जनता की आवाज नहीं है। आम जनता की सामूहिक आवाज यही है कि लंबे समय बाद किसी प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अनुरुप देश को उत्प्रेरित करने वाला ऐसा भाषण दिया है जिससे सुनने के लिए देश तरस गया था। आखिर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का संबोधन कैसा होना चाहिए? अभी तक हम सरकारों द्वारा नीरस कार्यवृत्त सुनते-सुनते उब चुके थे। नौकरशाहों द्वारा तैयार भाषणों की नीरसता से स्वतंत्रता दिवस की प्रेरणा गायब रही है। अटलबिहारी वाजपेयी जैसा प्रखर वक्ता भी लालकिला पर जाते ही कागज के पूर्जे को पढ़ने लगते थे और इतिहास का सबसे छोटा 22 मिनट का भाषण देने का रिकॉर्ड बना दिया। मनमोहन सिंह तो वैसे ही सरकारी सेवक रहे हैं। उनके भाषण में हम वैसी प्रेरणा और जज्बात की उम्मीद भी नहीं कर सकते थे।
जरा पिछले दो दशक के भाषणों को याद कर लीजिए, या उतना पीछे न जाना चाहें तो पिछले दो भाषण को ही आधार बना लीजिए। क्या देश के अंदर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का भाषण सुनने तक की रुचि रह गई थी? अगर पत्रकारों को इस पर टिप्पणी नहीं करनी हो तो वे भी नहीं सुनना चाहते ऐसा भाषण हो गया था। एक परंपरागत औपचारिकता की पूर्ति जैसा क्षरण का ग्रास बन चुका था हमारे स्वतंत्रता दिवस का संबोधन। इस परिप्रेक्ष्य में यदि आप विचार करेंगे तो यह मानने में कोई हिचक नहीं होगी कि मोदी ने इस नीरसता की परंपरा को खत्म किया है। स्वतंत्रता दिवस! यह नाम ही अपने आपमें हमारे अंदर रोमांच पैदा करना चाहिए, देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ बलि चढ़ा देने वाले महापुरुषों के प्रति केवल सम्मान नहीं वैसे ही जीवन जीने की प्रेरणा मिलनी चाहिए और उन महापुरुषों ने स्वतंत्र भारत के लिए जो भी सपने देखेें उनको पूरा करने के लिए अपनी पूरी क्षमता और उर्जा लगाने का देश का सामूहिक स्वभाव बनना चाहिए। वह भी इस संकल्प के साथ कि जब तक उस लक्ष्य को पा नहीं लेते चैन से नहीं बैठंेगे, विश्राम नहीं करेंगे। प्रधानमंत्री के भाषण में इसके लिए कुछ सूत्र तो होना ही चाहिए तथा यह आत्मविश्वास पैदा होना चाहिए कि हां, वाकई हम ऐसा कर सकते हैं। मोदी के या किसी प्रधानमंत्री के भाषण की कोई कसौटी हो सकती है तो यही।
 वैसे मोदी की खासियत रही है कि वे अपने भाषणों से तात्कालिक संवेग और गहरी आशा की रोशनी पैदा कर देते हैं। इसलिए यह प्रश्न उठ रहा था कि क्या वे आज लालकिला से इसी तरह का सामूहिक राष्ट्रीय जज्बा पैदा करने मे ंसफल होंगे? यह कहना होगा वाकई वे इसमें सफल हुए हैं। यानी इन कसौटियों पर खरे उतरे हैं। स्वतंत्रता दिवस का भाषण आपकी सरकार का विज्ञापन बन जाए यह राजनीति के अधःपतन का ही प्रमाण था। जो सच है उसे हमें स्वीकारना ही चाहिए, अन्यथा भारत की पता नहीं और क्या दुर्गति होगी! यह मानना होगा कि इस अधःपतन से मोदी ने उबारने की शुरुआत कर दी है। हालांकि यह उनका पहला भाषण था और सरकार भी केवल ढाई महीने की, इसलिए उनके पास उपलब्धियों के नाम पर ज्यादा नहीं था। सो इसे स्थायी मान लेना जल्दबाजी होगी। वैसे सरकार उपलब्धियों की चर्चा करे उसमंें बुराई नहीं है। आखिर सरकार की उपलब्धियां मतलब देश की उपलब्धियां ही तो है। इससे भी देश में आत्मगौरव का भाव पैदा होता है और दुनिया में भी धाक जमती है। पर किसी तरह यह सरकार का विज्ञापन न बने। जो कुुछ भी बोला जाए वह उन कसौटियों के दायरे मंें हो जो हमने उपर लिखी है और स्वतंत्रता दिवस के लंबे संघर्ष, बलिदान और त्याग की कथाओं को ध्यान में रखते हुए।
यहां उन सारे कार्यक्रमों, योजनाओं, अपीलों, आह्वानों की चर्चा संभव नहीं है, लेकिन मोदी के भाषण को हम मोटामोटी सात पहलुओं में बांट सकते हैं। पहले पहलू में हम उनके आजादी के लक्ष्य और उन दौरान देखे गए सपनों को पूरा करने की प्रेरणा की बातों को रख सकते हैं। इसमें उन्होंने गांधी जी, अरविन्द घोष, विवेकानंद..... आदि का नाम लिया और उनको उद्धृत किया। दूसरे पहलू में उन्होेंने यह बताया कि आज नवजवानों को भगत सिंह की तरह फांसी पर चढने की आवश्यकता नहीं है, पर विकास एव सुशासन को जनांदोलन का रुप देना जरुरी है। यह तभी संभव है जब हम आजादी के महत्व को समझें और स्वतंत्रता सेनानियों के सपने के अनुसार कार्य करें। तीसरे पहलू में हम उनके शासन सुधार के सपने को रख सकते हैं। इसमें दो बातें प्रमुख थीं। एक, सरकार के विभाग ही एक दूसरे से लड़ते है, मुकदमे करते हैं और खजाने का पैसा खर्च करते हैं। इसको तोड़ने की शुरुआत हुई है। दूसरे, उन्होंने निजी नौकरी को जॉब एवं सरकारी को सर्विस यानी सेवा का उदाहरण देते हुए बताया कि सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों मंे इस सेवा की भावना को पैदा करना होगा। वस्तुतः ंअंग्रेजों के जमाने से ये अधिकारी कर्मचारी अंग्रेजी में तो पब्लिक सर्वेंट कहलाते हैं, पर व्यवहार मंें ये पब्लिक मास्टर की तरह काम करते हैं। यानी जनता के सेवक नहीं। मोदी ने जो कहा अगर वह साकार हो जाए तो यकीन मानिए महाक्रांति हो जाएगी। प्रशासकीय बदलाव के लिए इतने ज्यादा नियम कानून बनाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। पर यह आसान नहीं है। चौथे पहलू में हम विकास की उनकी सोच और नई घोषणाओं को रखते हैं। इनका हम पूरा उल्लेख नहीं कर सकते। पर सांसद आदर्श ग्राम योजना जिसमें एक-एक सांसद एक गांव को आदर्श बनाने से शुरुआत, तथा एक वर्ष के अंदर सभी विद्यालयों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालय का निर्माण करने के संकल्प के महत्व को समझना कठिन नहीं है।
लेकिन इसके आगे के पहलुओं में हम एक नेता और शासक से ज्यादा मोदी को समाज सुधारक के रुप में देख सकते हैं। मसलन, राजनीतिक व्यवहार में बदलाव। उन्होंने सारे पूर्व सरकारों, पूर्व प्रधानमंत्रियों के साथ वर्तमान संसद के संचालन के लिए विपक्ष के सभी नेताओं के प्रति आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि हम बहुमति से नहीं सहमति से सरकार चलाना चाहते हैं। वास्तव मंे आज हमारी राजनीति राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की जगह परस्पर घृणा और दुश्मनी में बदल गई है। अगर मोदी की पहल और अपील सफल हुई तो एक नए राजनीतिक व्यवहार की हम उम्मीद कर सकते हैं। इसी तरह छठे पहलू में हम सामाजिक व्यवहार में बदलाव वाली बातों को रख सकते हैं। लड़कियों के संरक्षण, भू्रण हत्या के विरुद्ध, माता-पिता से एवं डॉक्टरों से भी अपील हमने लाल किले से पहली बार सुना है। यही नहीं कोई प्रधानमंत्री पहली बार यह बोल रहा है कि आखिर बलात्कार करने वाला किसी का तो बेटा ही है। माता पिता क्यों नहीं उससे लड़कियों की तरह पूछते कि तुम कहां जा रहे हो। इसी तरह हिंसा और आतंकवाद में लगे नवजवानों को हिंसा छोड़ने की स्वयं अपील के साथ माता पिता से भी आगे आकर बच्चोें से पूछने अपील उनने की। यह बहुत बड़ी बात है। आम तौर पर सरकारें बलात्कार और हिंसा के खिलाफ कानूनों, सरकारी सख्ती की बातंें करतीं हैं, पर बगैर समाजिक जागरण के यह संभव नहीं हो सकता। मोदी की अपील सामाजिक जागरण वाला था। इसमें टूटते परिवार को फिर से मजबूत करने का भाव प्रमुख था। सातवें पहलू में हम निजी व्यवहार में बदलाव को ले सकते हैं। यानी किसी काम में इसमें मेरा क्या की भावना से हटकर आजादी के सपनों के अनुसार देश कल्याण के भाव से काम करें। नवजवानों से यह अपील कि आपलोग यह देखें कि हम कितने चीजें आयात करते हैं और यह तय करें कि उनमें से एक चीज का हम उत्पादन करेंगे। अगर ऐसा कर दिया तो आयात पर हमारा जो खर्च होता है वह घटेगा और हम निर्यात करने वाले देश बन जाएंगे।
इस प्रकार कुल मिलाकर मोदी का भाषण नए सिरे से राष्ट्रीय पुनर्जागरण, सांस्कतिक-सामाजिक पुनर्जागरण के माध्यम से विकास एवं व्यापक बदलाव से भरा हुआ था। इसमें विदेश निवेश आदि के पहलू पर मतभेद की गुंजाइश है, पर वर्तमान राजनीति में तो बाजार अभिमुख अर्थनीति पर एकमत है। इसलिए उनके विरोध का कोई औचित्य नहीं हो सकता।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

मोदी ने भारत नेपाल संबंधों को ऐतिहासिक आयाम दिया

अवधेश कुमार
यह तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी भी स्वीकार करेंगे कि उन्होंने नेपाल की संविधान सभा सह संसद में अविस्मरणीय भाषण दिया है। मोदी के कट्टर समर्थकों को भी इतने उम्दा और प्रभावी भाषण की उम्मीद नहीं थी जिसमें एक साथ भावनाओं का निश्च्छल उद्रेक भी झलके और ठोस व ऐतिहासिक प्रस्ताव भी, जिसमें इतिहास और वर्तमान का ऐसा अनूठा पुट हो जो दिलों को छुए और विरोधियों को भी अपना बना लेेने की क्षमता रखे, जिसमें सांस्कृतिक, आघ्यात्मिक, सामाजिक....प्राकृतिक अविच्छिन्नता का प्रतिबिम्ब हो और हाथ से हाथ, कंधा से कंधा मिलाकर विकास का प्रतिमान कायम करने का आह्वान और प्रेरणा भी, जिसमें नेपाल को संविधान बनाकर पूरे विश्व के लिए शांति और अहिंसा के लोकतांत्रिक रास्ते से राजनीतिक व राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल करने का ऐसा उद्वेलन का भाव हो कि कुछ सभासदन वहीं यह प्रण लेने लग जाएं कि अब हम अपना संविधान निर्माण करके ही रहेंगे.......। सच कहा जाए तो नेपाल ने इसके पूर्व किसी भारतीय प्रधानमंत्री को तो छोड़िए, किसी का भी ऐसा भाषण नहीं सुना होगा जिससे उनके अंदर अपनत्व के साथ ऐसा आत्मविश्वास और आत्मगौरव का भाव पैदा कर सके। नेपाल तो छोडिए, किसी भी दो पड़ोसी देशों के संबंधों में किसी मेजबान प्रधानमंत्री के इस तरह के भाषण का उदाहरण इतिहास मंें भी विरले ही होगा। इसलिए यदि आम मीडिया की यह टिप्प्णी है कि मोद का जादू नेपाल में सिर चढ़कर बोला या मोदी ने नेपालियों का दिल जीता तो इसमें अतिशयोक्ति तलाशना मुश्किल है।
आखिर जब विचार से भाजपा जैसी पार्टी के धुर विरोधी माओवादी प्रचंड तक कह रहे हैं कि उनका भाषण दिल को छू गया है और इससे दोनों देशों के संबंधों में नई गरमी की शुरुआत हो गई है तो इससे आगे मोदी की सफलता का और क्या प्रमाणपत्र चाहिए! प्रचंड और उनके सहयोगी तथा उन्हीं की तरह पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई अगली कतार में बैठे थे और दोनों को कई बार मेजें थपथपाते देखा गया। प्रचंड ने कहा कि मोदी का भाषण ऐतिहासिक रहा। जिस तरीके से मोदीजी ने गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक, राम और सीता से होते हुए दोनों देशों को जोड़ने की कोशिश की वह लाजवाब है। मैं मानता हूं मोदी की इस यात्रा से दोनों देशों के बीच रिश्तों में सहयोग और भरोसे का माहौल मजबूत होगा। जब उनसे पूछा गया कि भारत नेपाल से ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग चाहता है, क्या नेपाल इस समझौते पर आगे बढ़ेगा? प्रचंड ने कहा कि अब कोई समझौता मुश्किल नहीं है। भारत से ऊर्जा समझौता होकर रहेगा। जाहिर है, इस प्रतिक्रिया के बाद कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। नेपाल के विदेश मंत्री ने प्रधानमंत्री सुशील कोइराला के साथ मोदी की बातचीत के बाद कहा कि ऐसा लगा कि हम एक मजबूत और दूरदर्शी व्यक्तित्व से बात कर रहे हैं। हम उनकी बातों और प्रस्तावों से बहुत प्रभावित हैं।
मैंने नेपाल में काम किया है खासकर मधेस आंदोलन के दौरान। इस नाते मैं कह सकता हूं कि दोनों देशों में सबसे ज्यादा यदि किसी बात का महत्व है तो भावनाआंे का। हाल के वर्षों में भावनाओं की जगह कूटनीतिक यांत्रिकता संबंधों का निर्धारण कर रहीं थीं, जिनसे वहां भारत को लेकर निराशा और कुछ हद तक क्षोभ का भी माहौल बना हुआ था। भारत विरोधी भाषा केवल माओवादी नहीं बोलते थे सभी पार्टी के नेता गाहे बगाहे ऐसी भाषा का प्रयोग करते थे। चीन ने इसी का लाभ उठाकर पिछले सात-आठ सालांें में वहां अपना व्यापक प्रसार किया है। पहली बार वहां के बजट में चीन का वित्तपोषण हुआ। यह भारत के राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल था, पर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की विफलताओं के कारण ऐसा हुआ। तत्काल भारत के राजनीतिक नेतृत्व के सामने नेपाल के संदर्भ में चार लक्ष्य हैं- एक, वहां संविधान का निर्माण हो और नेपाल का शासन उसके तहत संचालित होने लगे, दो, जो विश्वास के बीच खाई बन गई है वह पटे ही नहीं, विश्वास अपनापन और परस्पर सहकार में बदलने की दिशा में अग्रसर हो तथा तीन, उर्जा का क्षेत्र विशेषकर जल विद्युत से संबंधित पूर्व की परियोजनाएं साकार हों और नई परियोजनाओ पर आपसी सहयोग के साथ तेजी से काम हो., नेपाल विकास पथ पर अग्रसर हो जिसमें भारत की सहकारी भूमिका हो.......।
संविधान निर्माण सबसे पहली आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि इस समय जो सरकार है उसे भारत समर्थित सरकार माना जाता है। यदि इसके कार्यकाल में संविधान न बना तो फिर इसका आरोप भारत पर आएगा और विरोधी इसका लाभ उठाएंगे...खासकर माओवादी भारत विरोधी अभियान चलाकर फिर से सत्ता पर काबिज हो सकते हैं और वहां विद्रोह एवं हिंसा भी खड़ा हो सकता है। अगर संविधान निर्माण हो तो वह बिल्कुल संसदीय लोकंतत्र की कल्पना के अनुरुप सर्वसमावेशी एवं मधेसियों की मांग के अनुसार सच्चे संघीय स्वरुप वाला हो। पिछली संविधान सभा का कार्यकाल लगातार बढ़ाया गया, पर संविधान का निर्माण न हो सका। वर्तमान संविधान सभा सह संसद भी एक वर्ष पूरा करने जा रहा है पर संविधान निर्माण के लिए चार-पांच से ज्यादा बैठकें नहीं हुईं हैं। आप ध्यान दीजिए मोदी के पूरे भाषण में आपसी निकटता और अविच्छिन्नता साबित करने के आवश्यक विन्दुओं के बाद सबसे ज्यादा अंश संविधान की आवश्यकता, उसके स्वरुप एवं उसके महत्व पर ही था। मोदी ने कहा कि पूरी दुनिया की नजर आपकी ओर है कि युद्ध से बुद्ध की ओर अग्रसर एक देश ने किस तरह संविधान निर्माण कर देश का शांति और अहिंसक तरीके से रुपांतरित कर दिया है। इससे हिंसा के आधार पर बदलाव चाहने वाले दुनिया के समूहों को भी प्रेरणा मिलेगी। जाहिर है, नेपाल केन्द्रीत भारत की कूटनीति का मुख्य लक्ष्य अब वहां संविधान निर्माण में सहयोग करना तथा उसके लिए सक्रिय रहना हो गया है। मोदी ने प्रधानमंत्री कोईराला को अपनी ओर से भारत में राज्य सभा चैनल द्वारा संविधान निर्माण पर निर्मित श्रृखला की एक सीडी भेंट की। यह उनको समझाने के लिए था कि किस तरह भारत के संविधान निर्माताओं ने आपसी मतभेदों के बावजूद तय समय सीमा मेें अपने लिए संविधान का निर्माण कर दिया।
अगर पूर्व सरकार ने इस तरह की कोशिश की होती तो निश्चय मानिए नेपाल का संविधान कब का तैयार हो चुका होता। फिर आज नेपाल की स्थिति अलग होती एवं दुराव की जो खाई पैदा हुई वह नहीं होती। हमें यह स्वीकार कर चलना होगा कि नेपाल और भारत के बीच अविश्वास की एक जटिल सी खाई बन चुकी है। पहाड़ के लोगों में यह दुष्प्रचार है कि भारत नेपाल की ओर बुरी नजर रखता है एवं वह इसके संसाधनों पर कब्जा करना चाहता है। दूसरी ओर जिन मधेसियों का भारत से लगाव है वे मान रहे हैं कि भारत ने उनके अधिकार पाने के संघर्ष में जितना सहयोग करना चाहिए था नहीं किया। उर्जा परियोजनायें भी इसी का शिकार हैं। 1997 में पंचेश्वर परियोजना पर हस्ताक्षर हुआ लेकिन काम नहीं हो सकता। प्रचार यह हुआ कि भारत वहां बांध बनाकर अपने लिए बिजली ले जाएगा और हमें कुछ नहीं मिलेगा। इसलिए माओवादी उसका बराबर विरोध करते रहे, काम नहीं होने दिया। इसके विपरीत चीन ने उसके साथ मिलकर छोटी छोटी परियोजनायें पूरी कर लीं। चीन को तिब्बत के लिए बिजली चाहिए वह नेपाल के माध्यम से लेना चाहता है। मोदी ने विश्वास बहाली के लिए जितना संभव था प्रस्ताव दिए। उन्होंने कहा कि जिस दिन मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय में कदम रखा, उस दिन से ही नेपाल के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने का मुद्दा अपनी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता में रखा हूं। उन्होंने कहा, मैं भारत के सवा सौ करोड़ लोगों की ओर से दोस्ती और सद्भावना का संदेश लेकर आया हूं। 1950 की संधि की समीक्षा की बात कोइरला से बातचीत में स्वीकार कर लिया। माओवादी इसे बड़ा मुद्दा बना रहे थे। आधुनिक समय के अनुरुप यह संधि बने इसमें हमें क्यों हर्ज होना चाहिए। 10 हजार करोड़ रुपए का नया रियायती कर्ज तो इनमें से एक था। छात्रों के लिए वजीफों की संख्या बढ़ाना, तेल गैस के लिए पाइपलाईन, बिजली की आपूर्ति की मात्रा बढ़ाना, टेलीफोन बातचीत के भारी शुल्क को कम करने की पहल, सार्क उपग्रह ...आदि उसके पहलू थे।
सच यह है कि दोनों देशों के बीच दूरियां पाटने के जितने पहलू हो सकते थे उनने उठाया। यह पहली बार था जब भारत के प्रधानमंत्री ने नेपाल को विकसित देश बनने के ऐसे सूत्र दिए जो व्यावहारिक लगे और नेपालियांे ने उसका स्वागत किया। पानी का उपयोग कर बिजली बनाने और सिंचाई करने के अलावा हिमालय पर अनुसंधान, इसे जड़ी बुटियों के माध्यम से होलिस्टिक स्वास्थ्य का हब बनाना, अकार्बनिक खेती का केन्द्र बनाना, सामान्य पर्यटन केन्द्र के अलावा दुनिया के एडवेंचर चाहने वालों का पर्यटन केन्द्र बनाना आदि ऐसी बातें थीं जो इसके पूर्व भारत की ओर से कही ही नहीं गईं थीं। मोदी ने जो अंग्रेजी के तीन शब्द हिट का सूत्र दिया वह नेपाल में गूंज रहा है। उनके मुताबिक हिट का अर्थ है - एच - हाइवेज (राजमार्ग), आई - आई-वेज यानी इन्फौर्मेशन वेज, और टी से मतलब है ट्रांसवेज (पारगमन मार्ग)। उन्होंने कहा कि संयुक्त रूप से इन तीनों के जरिए देश के तीव्र विकास का रास्ता तैयार होगा और भारत जल्द से जल्द यह तोहफा प्रदान करना चाहता है। मोदी ने कहा कि बेहतर संपर्क मार्ग निर्माण में भारत नेपाल की मदद करेगा। नेपाल में सूचना हाइवे विकसित करने में भी भारत नेपाल को सहायता देगा ताकि नेपाल दुनिया के देशों में पीछे नहीं छूट जाए। नेपाल को भी डिजिटल दुनिया में आगे रहना होगा और पूरी दुनिया के साथ उसका संपर्क स्थापित होना चाहिए।
किसी को ऐसा लग सकता है कि मोदी ने पशुपतिनाथ के मंदिर में जिस पूजा में हिस्सा लिया, वो उनका निजी था। लेकिन नहीं निजी के साथ इसका प्रतीकात्मक महत्व द्विपक्षीय संबंधों के लिए महत्वपूर्ण है। इससे पहले किसी राजनेता ने इस तरह की पूजा में हिस्सा नहीं लिया है। भारत नेपाल संबंधों में धर्म, अध्यात्म का विशेष महत्व है। भय यह था कि मोदी के जनकपुर एवं लुम्बिनी न जाने से मधेसियों में निराशा पैदा होगी। लेकिन मोदी ने भाषण के अंत में घोषणा कर दी कि जब वे सार्क सम्मेलन में आयेंगे तो दोनों जगहों पर जाएंगे। इससे उनको भी आत्मसंतोष हुआ होगा। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मोदी की यात्रा से नेपाल भारत रिश्तों का सही तरीके से पहली बार ठोस मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक आधार तैयार हुआ है। इसमें उनने चीन का विरोध कहीं नहीं किया, पर अगर भारत उनकी सोच और भाषण के अनुरुप आगे बढ़ा तो चीन के विस्तार पर काफी हद तक विराम लगेगा। लेकिन इसके लिए कार्यप्रणाली भी बदलनी होगी। सबसे पहले दूतावास की मिनी दरबार की छवि तोड़कर इसी तरह संवेदनशील बनाना होगा। इसके लिए वहां राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करने वाले को राजदूत बनाया जाए एवं वैसे लोगों को वहां अन्य भूमिकायें मिलें। इससे भ्रष्टाचार एवं सामंती व्यवहार खत्म होगा, अन्यथा मोदी का सपना और बनाया गया वातावरण कमजोर पड़ जाएगा।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

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