गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

मोदी जी की आर्थिक नीतियों के जनक है डॉ. आंबेडकर

(आंबेडकर जयंती पर विशेष)

बसंत कुमार

इस समय भारत के एक उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति के रूप में माना जाता है और जिसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी को दिया जाता है। परंतु प्रधानमंत्री स्वयं अपनी नीतियों का जनक डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर को मानते हैं। उनका कहना है कि डॉ. आंबेडकर को लोग एक समाज सुधारक, दलितों का मसीहा, संविधान निर्माता, कानून के ज्ञाता के रूप में मानते हैं पर उनके आर्थिक चिंतन को उतना श्रेय नहीं दिया जाता है जितने के वे हकदार थे। 6 दिसम्बर 2015 को डॉ. आंबेडकर की स्मृति में सिक्के जारी किये गए थे और उस समय के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री जी न यह बात कही थी कि चाहे वित्त आयोग हो, चाहे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया हो ये सब उनकी आर्थिक दूरदृष्टि का परिणाम था। जब देश आजाद भी नहीं हुआ था तब बाबा साहेब ने अपनी थेसिस में रिजर्व बैंक की कल्पना कर ली थी। आज हम जिस फेडरल स्ट्रक्चर की बात करते हैं उसके बारे में उन्होंने फाइनेंस कमीशन का विचार रखा कि राज्य और केंद्र के बीच में कर और संपत्ति का बटवारा कैसा हो उनके चिंतन के प्रकाश में आरबीआई और फाइनेंस कमिशन जैसी संस्थाएं काम कर रही हैं उनके बारे में यह विचार सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी जी के ही नहीं है बल्कि विश्व और देश के विशिष्ट लोग कहते है। यह याद करते हुए प्रधानमंत्री जी ने बताया "अभी दो दिन पूर्व मैं मुख्य न्यायाधीश साहब के साथ भोजन पर बैठा था, उन्होंने मुझसे पूछा कि रिवर ग्रिड का क्या हो रहा है। डॉ. साहब ने उस जमाने में पानी को लेकर कमिशन की कल्पना की थी इससे अंदाजा लग सकता है कि वे उनका आर्थिक चिंतन कितना विशाल था।

वर्ष 1923 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से और लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स से डाक्ट्रेट करने के पश्चात जब वे भारत लौटे तू देश की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था बदलने के लिए वे समर्पित हो गए वे सामाजिक मुद्दों के साथ आर्थिक पक्ष से भी जुड़े रहे, वे महिलाओं के उद्यमी बनाने की बात करते या दलितों को उद्यमी बनाने की बात करते, उनका मानना थे "आर्थिक उत्थान के बिना कोई भी राजनीतिक या सामाजिक भागीदारी सम्भव नहीं है'।" डॉ. आंबेडकर ने भारतीय मुद्रा (रुपये) की समस्या, महंगाई, विनिमय दर, भारत का राष्ट्रीय लाभांश, ब्रिटिश इंडिया में प्रांतीय कर विकास आदि विषयों पर शोध ही नहीं किया बल्कि इन मुद्दों से संबंधित समस्याओं के तार्किक व व्यवहारिक समाधान दिये।

20वीं सदी के विश्व के सभी अर्थशास्त्रियों ने डॉ. आंबेडकर के अर्थशास्त्र के विषय की समझ और उनके योगदान की सराहना की और उनके द्वारा किये गए शोध पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। नोबल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा, "डॉ. आंबेडकर अर्थशास्त्र के विषय में मेरे पिता है।" डॉ. आंबेडकर की आर्थिक समस्याओं के प्रति व्यवहारिक सोच थी वे मानते थे कि देश के पिछड़ेपन का कारण भूमि व्यवस्था में बदलाव में देरी है इसको यदि कर दिया गया तो आर्थिक कार्य क्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि होगी। डॉ. आंबेडकर ने आर्थिक एवं सामाजिक असमानता पैदा करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने की पुरजोर वकालत की। सन् 1923 में वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में अपनी डीएससी की थेसिस "The problem of the rupees its origin and solution" में रुपये के अवमूल्यन की समस्या पर शोध किया जो उस समय के शोध में सबसे व्यवहारिक और महत्वपूर्ण शोध था। बाबा साहेब ने 1923 में वित्त आयोग की बात करते हुए कहा कि पांच वर्षों के अंतर पर वित्त आयोग की रिपोर्ट आनी चाहिए। भारत में रिजर्व बैंक की स्थापना का खाका तैयार करने और प्रस्तुत करने का काम बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने किया। 1925 में हिल्टन यंग कमिशन ने इसे माना और रिजर्व बैंक की स्थापना हुई।

डॉ. आंबेडकर भारतीय अर्थव्यवस्था को एक न्यायसंगत अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करना चाहते थे, जिसमे अवसरों की समानता हो, बेरोजगारी समाप्त हो, आर्थिक शोषण न हो। जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक श्री मोहन भागवत डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अगर वे समाज सुधारक होते तो शीर्ष के होते, वकील होते तो शीर्ष के होते, यदि वे अर्थशास्त्री होते तो वे विश्व के जाने माने अर्थशास्त्री होते। मेरा मानना है कि अगर डॉ. आंबेडकर ने अर्थशास्त्री के रूप में अपना केरियर बनाया होता तो निश्चित रूप से वे दुनिया के दस अर्थशास्त्रियों में से एक होते, लेकिन डॉ. आंबेडकर का योगदान विश्व के किसी भी अर्थशास्त्री से कहीं ज्यादा है। डॉ. आंबेडकर ने अर्थशास्त्र के सिद्धांतों और शोधों का भारतीय समाज के संदर्भ में व्यवहारिक उपयोग किया। उन्होंने अर्थशास्त्र के उद्देश्यों को वास्तविक अर्थ में सामाजिक व्यवस्था के आमूल में बदलकर साकार किया। उनका यह अविस्मरणीय योगदान उनकी सशक्त सामाजिक आर्थिक संवेदना और सामाजिक आर्थिक गहन वैचारिकी का परिणाम है।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री आंबिराजन डॉ. आंबेडकर के विषय में कहते हैं कि वर्ष 1949 में आंबेडकर ने संविधान के प्रारूप निर्माण के दौरान नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के काम की चर्चा करते हुए कहा, सरकारों को जनता से संचित धान का इस्तेमाल न केवल नियमों, कानूनों के अनुरूप करना चाहिए बल्कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सार्वजनिक प्राधिकारी धन के व्यय में विश्वसनीय ता से काम ले"। यह बात उन्होंने एक अर्थशास्त्री के रूप में कही। इस प्रकार सार्वजनिक वित्त के संबंध वित्त के संबंध में डॉ. आंबेडकर ने एक आदर्श स्थापित किया जिसे डॉ. आंबेडकर के' सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत' के रूप में जानते है। उन्होंने सर्वजनिक व्यय के मात्रात्मक विश्लेषण के साथ गुणात्मक विश्लेषण का भी आह्वान किया, जहाँ सरकारी व्यय विश्वासनियता, बुद्धि मता और मितव्ययिता के विचार केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों को लेकर टकराव वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या ह और ऐसी स्थिति में अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर की प्रासंगिकता और बढ़ जाती हैं।

डॉ. आंबेडकर के विचारों को प्रधानमंत्री जी की निर्धारित प्रतमिताओं में देखा जा सकता है। मन की बात के अपने संबोधन के दौरान उन्होंने लोगों का ध्यान उन क्षेत्रों की ओर आकर्षित किया जिनमें उनकी सरकार ने बाबा साहेब के दृष्टिकोण से प्रेरणा ली-

"मेरे प्यारे देशवासियों 14 अप्रैल डॉ. आंबेडकर की जयंती है, बरसों पहले डॉ. बाबा साहेब ने भारत में औद्योगीकरण की बात की थी। उनके अनुसार उद्योग एक प्रभावी माध्यम है, जिसके द्वारा गरीब-से- गरीब और निर्धनतम को भी रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। आज मेक इन इंडिया का अभियान डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर के एक औद्योगिक महाशक्ति के रूप में भारत के सपने के अनुरूप सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है। उनका यह सपना हमारी प्रेरणा बन गया है। भारत आज वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक दीप बिंदु के रूप में उभरा है और आज दुनिया में सबसे अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारत में आ रहा है। पूरी दुनिया भारत को निवेश, नवाचार और विकास के रूप में देख रही है।

डॉ. आंबेडकर आर्थिक चिंतन को मूर्त रूप देने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी के दृढ़ संकल्प होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के युवाओं को उद्यमिता से जोड़ने के लिए अपने विजन मंत्रालय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय (MSME) के मंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल के सबसे अनुभवी मंत्री जीतन राम मांझी को देश का एमएसएमई मंत्री बनाया। क्योंकि प्रधानमंत्री जी यह भली भांति जानते है कि कि जीतन राम मांझी जमीन से जुड़े नेता है और तुरंत फैसला लेने वाले नेता हैं। वर्ष 2014 में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने दलितों एवं वंचितों के कल्याण के लिए अनेक फैसले लिए और जिसके कारण उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी थी पर वे इन बातों की परवाह किए बगैर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं। वे बिहार से आते हैं और स्वयं गरीबी देखी है और उनके मार्गदर्शन में एमएसएसई मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाएं हर वर्ग व हर क्षेत्र तक पहुंचेगी। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की भाँति प्रधानमंत्री मोदी जी भी यही चाहते है कि समाज का गरीब बेरोजगार व वंचित वर्ग उद्यम के माध्यम से लोगों को रोजगार देने वाला बन सके।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

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