बसंत कुमार
अपने
आप को माता शबरी का वंशज मानने वाले मुसहर समुदाय को यह नहीं पता कि वह दलित हैं
या आदिवासी। लेकिन वह उत्तर प्रदेश और बिहार में अनुसूचित जाति के रूप में परिगणित
होने के बावजूद अपने आप को आदिवासी मानता है इसी कारण दलित जातियों में परिगणित
सभी जातियों में जो राजनीतिक चेतना व अधिकार बोध है वह इन मुसहरो में नहीं दिखता। यद्यपि वे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी बिरादरी का मानते है। आम बोल चाल
की भाषा में मुसहरों को वनवासी कहा जाता है। कुछ दिन पूर्व आरएसएस की पत्रिका
पांचजन्य में वीर वनवासी विशेषांक प्रकाशित किया गया था पर दुर्भाग्य से इस
विशेषांक में मुसहरों के बारे में कुछ नहीं कहा गया। भील नायक तांत्या से लेकर
बिरसा मुंडा और अन्य नायको को हिंदू नायकों के रूप में स्थापित किया गया। संघ में वनवासी
सेवा आश्रम बनाया गया और मुसहर समेत जंगलों में रहने वाली जातियों को वनवासी कहना
शुरू कर दिया गया।
इन
लोगों के आदर्श पुरुषों शबरी माता और मध्यकालीन महाराणा प्रताप को प्रचारित करना
शुरू कर दिया और ये लोग अपने शानदार इतिहास का बखान भी करते हैं पर बहस का मुद्दा
यह है कि आधुनिक भारत में मुसहर दलित (अनुसूचित जाति) है या आदिवासी (अनुसूचित जन
जाति) है।
मुसहर समाज के सर्वमान्य नेता व भारत सरकार के सूक्ष्म लघु
व मध्यम उद्यम मंत्री जीतन राम मांझी ने कई बार अनौपचरिक तौर पर मुसहर समाज को
अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल करने की बात की है। उनके
मन में कहीं न कहीं यह टीस रही है कि मुसहर जंगलों में जीवन व्यतीत करने और साधन
विहीन होने के बावजूद अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत है जब कि उन्हें अनुसूचित
जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए।
मुसहर
समझ की मूल उत्पत्ति कहा हुई और विभिन्न युगों में इनकी स्थिति क्या रह है, इस
प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर न हो फिर भी इस विषय में भिन्न-भिन्न मत है। मुसहर
अपने आप को देश का मूल निवासी मानते हैं और अपनी स्थिति यहां के अन्य जातियों और
प्रजातियों से किसी तरह कम नहीं मानते। इनके अनुसार त्रेता युग में भक्तों में श्रेष्ठ
शबरी हमारी वंशज हैं। इन्होंने अपनी भक्ति के बल पर भगवान राम को अपने वश में कर
लिया और भगवान राम ने उनके प्रेम में वशीभूत होकर शबरी के झूठे बैर खाकर उनकी प्रशंसा
की। शबरी एकांत जंगल में निवास करती थी और उसके आस-पास जीवीकोपार्जंन के लिए कोई
व्यवसाय नहीं था। अत: उसने जंगल के पत्तों को तोड़कर उसके पत्तल बनाना प्रारंभ
किया और उससे अपनी आजीविका चलाने लगी, तब से मुसहर समाज का मुख्य
व्यवसाय पत्ता बेचना और पत्ते से पत्तल बनाना हो गया।
यह
निर्विवाद तथ्य है कि मुसहर जाति आदिम वंश परम्परा से जुड़ी है तथा इनके व्यवसाय
की उत्पत्ति एवं प्रसार का भी एक ऐतिहासिक कारण रहा है। भले ही आज पत्तल की जगह
कागज और अन्य पदार्थों की प्लेटे आने के कारण पत्तल उद्योग समाप्त होने के कगार पर
है फिर भी आज के युग में पत्तल बनाने वाली जाति के रूप में इनकी पहचान बरकार है पर
दुर्भाग्य वश इस आदिम जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया। पर जो हिंदू समाज में जो
तिरस्कृत जातियाँ थी जिनका काम मैला ढोना, मरे हुए पशुओं को ढोना और जच्चा
से संबंधित रहा है। वे अनुसूचित जाति में वर्गीकृत हैं पर आज भी मुसहर जा दलित
माने जाने पर असहज करती है।
अपने
आप को वनवासी मानकर कड़ी मशक्कत करके जीवन व्यतीत करने वाले मुसहर समुदाय की आज भी
यथास्थिति में बनी हुई है। अंधविश्वास और रुढिवदिता में फंसे होने के कारण उनके
अंदर किसी भी तरह से अपने हालत बदलने की अंत: प्रेरणा नहीं दिखाई देती। उन्हें कहने
को वनवासी कहा जाता है पर उन्हें उन संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जाता है जो
उन्हें मिलने चाहिए थे। उनका समाज शिक्षा की दृष्टि से बहुत पीछे है और आर्थिक
दृष्टि से उन्हें मजबूत करने के लिए कुछ नहीं किया गया है। यदि उन्हें आर्थिक
दृष्टि से मजबूत करने के लिए कुछ किया जाता तो निश्चित है उनकी अगली पीढ़ी का विकास
होता और आज की वनवासी की स्थिति से निकल पाते। उन पर वनवासी ठप्पा लगने के बावजूद
वे अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल नहीं किए गए है। दूसरी
ओर शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े होने के कारण अनुसूचित जाति में वर्गीकृत अन्य
जातियों के साथ स्पर्धा नहीं कर पा रहे है और अनुसूचित जाति के रूप में विकास करने
के जो अवसर उन्हें मिले हैं उसका उचित फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। वे न तो आजीविका
के नए पेशे में शामिल हो पाए हैं और उनके पारंपरिक आजीविका के साधन समाप्त हा गए
है। अब उनके विकास का एक ही रास्ता है वे शिक्षा, स्वास्थ और रहन-सहन के मानकों
पर बराबरी का दर्जा पाए।
आजादी
के अमृत महोत्सव यानि 75
वर्ष बीत जाने के बाद भी वे समाज की मुख्यधारा के साथ भी
नहीं जोड़े जा सके है। आज जब इस देश में शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि मध्यवर्ग के
लोगों की पहुंच से बाहर हो गई है। ऐसे में मुसहर और अन्य वनवासियों के बच्चो की
शिक्षा के विषय में सोचा ही नहीं जा सकता। जो लोग आर्थिक रूप से इतने निर्बल है कि
वे अपने बच्चो के लिए भोजन् की व्यवस्था नहीं कर सकते वे शिक्षा और स्वास्थ के
विषय में क्या सोचेंगे। इन लोगों में लगातार अभाव में जीने के कारण न कोई इच्छा रह
गई है और न कोई आकांक्षा है। बस किसी तरह से अपना दिन काटने वाले इस समुदाय को यह
लगता है कि सरकार मुफ्त राशन देती रहे जिससे इनका जीवन चलता रहे क्योंकि आज तक
उन्हें जिस वर्ग (अनुसूचित जाति) में आरक्षण मिल रहा है उसका लाभ वे नहीं उठा पा
रहे है इसलिए उन्हें सही वर्ग (अनुसूचित जनजाति) में वर्गीकृत करने की आवशयकता है। कुछ वर्ष पूर्व आरएसएस के सरसंघ चालक श्री मोहन भागवत ने कहा था की आरक्षण
नीति की समीक्षा की जानी चाहिए संभवतः उनका अभिप्राय आरक्षण में इसी विसंगतियों की
ओर था पर कुछ स्वार्थी लोगों ने यह आरोप लगाने शुरू कर दिए कि संघ और भाजपा दलित
आरक्षण समाप्त करना चाहती है।
कैसी
विडम्बना है कि मुसहर समाज अदिम जनजाति होने के बावजूद अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल
नहीं है और आजाद भारत में दलित और आदिवासी के बीच वर्गीकृत होने हेतु संघर्ष कर
रही है और हिंदू वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे रहने वाली तिरस्कृत जातियों चमार, भंगी
या अब दलित जातियों के साथ वर्गीकृत होने के कारण असहज महसूस कर रही है। वे इन
जाति के लोगों के यहां खाना नहीं खाते और इनके शादी विवाह में खाने के बजाय सीधा (आटा, चावल व
दाल) मांगते हैं और जिन सवर्ण हिंदुओं के यहां ये पत्तल देते हैं उनके यहां लोगों द्वारा
पत्तल में छोड़े गए जूठन को एकत्र करके खाते हैं। इस विकृति को शीघ्र दूर किया
जाना चाहिए।
जाति
में वर्गीकृत की गई और एसटी वर्ग के आरक्षण के कारण हर विभाग में उच्च पदों पर
मीना जाति के लोग विद्यमान है पर असली आदिम जाति मुसहर को वनवासी नाम तो दे दिया
गया पर अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया, जबकि
इन मुसहरों की जीवन शैली पर ध्यान दिया जाए तो ये संस्कृति और व्यवसाय से पूरी तरह
से आदिवासी है। इनको प्रलोभन देकर मिशनरियों द्वारा ईसाई बनाया गया और विगत कुछ
दशकों से इनका तेजी से हिंदूकरण किया जा रहा है और रामायण के राम वन गमन, अध्याय
में भगवान राम द्वारा माता शबरी के झूठे बेर खाने की घटना को खूब प्रसारित किया जा
रहा है पर इनके साथ इससे बड़ा छल और क्या होगा कि उन्हें आदिवासी (एसटी) के बजाय
दलित (एससी) वर्ग में वर्गीकृत कर दिया गया जबकि मुसहर समाज अपने आप को दलित के
रूप में स्वीकार नहीं करता।
(लेखक एक पहल एनजीओ के
राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)
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