बसंत कुमार
सरकार
की त्रिभाषा नीति के तहत अब देश के हर राज्य में मात्र भाषा सहित तीन भाषाएं सिखनी
होंगी और इसमें एक भाषा हिंदी हो सकती है। यद्यपि यह तय करने का अधिकार शिक्षण
संस्थान के पास होगा कि वे कौन-कौन सी तीन भाषाएं पढ़ाएंगे, सरकार
की इस पॉलिसी में यह सिफारिश की गई है कि छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होगी, इस
पॉलिसी के अनुसार प्राइमरी कक्षाओं (कक्षा एक से पांचवीं तक) में पढ़ाई मातृभाषा
या स्थानीय भाषा में कराई जाए। माध्यमिक कक्षाओं (कक्षा 6 से 10 तक)
में तीन भाषाओं की पढ़ाई अनिवार्य होगी। गैर हिंदी भाषी राज्यों में तीसरी भाषा
अंग्रेजी या कोई एक आधुनिक भाषा होगी। सेकेंडरी कक्षाओं (11वीं व 12वीं)
में स्कूल चाहे तो विदेशी भाषा को विकल्प के रूप में पढ़ा सकेंगे। वहीं गैर हिंदी
भाषी राज्यों में हिंदी को दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जा सकेगा। हिंदी भाषी
राज्यो में दूसरी भाषा के रूप में अन्य भारतीय भाषाओं जैसे बांग्ला, तमिल
और तेलगु भाषा हो सकती है। भारत के दक्षिण राज्यों विशेष रूप से तमिलनाडु में इस
पॉलिसी का विरोध हो रहा है क्योंकि वहां पर अभी भी 2 लैंग्वेज पॉलिसी लागू है
और तमिलनाडु के स्कूलों में तमिल और अंग्रेजी ही पढ़ाई जाती है और नई शिक्षा नीति
यानि ट्राई लैंग्वेज फार्मूले पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार आमने-सामने आ गई है
और केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तमिलनाडु सरकार से राजनीति से ऊपर
उठकर काम करने की सलाह दी है। यहां तक की उनके और तमिलनाडु के
मुख्यमंत्री के स्टालिन के बीच इस मामले में जुबानी जंग तेज हो गई है जो बहुत ही
दुर्भाग्य पूर्ण हो गई है।
जैसा
कि हम सभी जानते हैं कि आजादी के बाद से ही दक्षिण भारत के राज्यों की राजनीति
हिंदी भाषा के विरोध में टिकी रही है और इस बार भी ऐसा दिखायी दे रहा है और केंद्र
के ट्राई लैंग्वेज फॉर्मूले का विरोध फिर सामने आ रहा है। जहां केंद्र सरकार ने
स्पष्ट कर दिया है कि यदि नई शिक्षा नीति का पालन तमिलनाडु सरकार द्वारा नहीं किया
गया तो तमिलनाडु को समग्र शिक्षा नीति के लिए मिलने वाली 2400 करोड़
की राशि नहीं मिलेगी। तमिलनाडु सरकार को लिखे गए पत्र में केंद्रीय मंत्री
धर्मेंद्र प्रधान ने स्पष्ट किया है कि यह किसी के ऊपर किसी भाषा को थोपने का
प्रश्न नहीं है क्योंकि विदेशी भाषाओं पर जरूरत से अधिक निर्भरता अपनी भाषा को
सीमित करती हैं और यह पॉलिसी इसे दुरुस्त करने का प्रयास है। इसके विरोध में तमिलनाडु
के मुख्यमंत्री ने कहा है कि तमिलनाडु के लोग इस धमकी को सहन नहीं करेंगे। यदि राज्य को समग्र शिक्षा फंड से वंचित किया गया तो केंद्र को तमिलों के
विरोध का सामना करना पड़ेगा।
जहां
तक दक्षिण भारत के राज्यो में लोगों के हिंदी बोलने वालों की संख्या का सवाल है तो
इसे पहली भाषा के रूप में इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे कम दक्षिण भारत के
लोगों की है।, पूर्वोत्तर भारत के लोगों का ऐसा ही हाल है। वर्ष 2011 की जनगणना
के अनुसार देश के 43.63% लोगों की पहली भाषा हिंदी ही है अर्थात् वर्ष 2011 में 125 करोड़
आबादी वाले देश में 53
करोड़ लोग हिंदी को मातृभाषा मानते थे। इसी जनगणना से यह
बात सामने आई कि वर्ष 1975
से वर्ष 2011 के बीच हिंदी भाषियों की संख्या में 6% की
वृद्धि हुई है।
जहां तक दक्षिण के राज्यों में हिंदी भाषा बोलने की बात है लक्षद्वीप
में 0.2%, पुडुचेरी में 0.51%,
तमिलनाडु में 0.54% और केरल में 0.15% पाई गई।
कर्नाटक में 3.29%
लोग बोलचाल में हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को मिलाकर यह आंकड़ा 3.6% है और उड़ीसा में यह आंकड़ा
2.95% है। दक्षिण की भाँति पूर्वोत्तर में भी हिंदी बोलने वालों की संख्या में काफी
कमी पाई गई है। वर्ष 2011
की जनगणना की माने तो सिक्किम में 7.9% और
अरुणाचल में यह आंकड़ा 7.09%
है?
ऐसे ही नागालैंड में 3.18%। लोग हिंदी भाषी है। त्रिपुरा
में केवल 2.11%
लोग हिंदी बोलते पाए गए, मिजोरम में 0.97% और
मणिपुर में 1.11 लोगों को हिंदी भाषी बताया गया और आसाम में यह आंकड़ा, 6.73 पाया गया था।
इन
परिस्थितियों में सरकार का त्रिभाषा फॉर्मूला देश की सांस्कृतिक एकता के लिए बहुत
सार्थक है। दरअसल नई शिक्षा नीति सतत विकास के लिए सरकार के एजेंडा 2030 के
अनुकूल है और इसका उद्देश्य 21वीं शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुकूल स्कूल
और कालेज की शिक्षा को अधिक समग्र, लचीला बनाते हुए भारत को एक
ज्ञान आधारित जीवन्त समाज और वैश्विक महाशक्ति में बदलकर प्रत्येक छात्र में निहित
अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बहुभाषा
वाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए त्रिभाषा सूत्र पर बल देने का निर्णय
लिया गया परंतु दक्षिण के कुछ राज्यों ने उन पर हिंदी थोपने के नाम पर इस नीति का
विरोध शुरू कर दिया है जो गलत है।
उत्तर
दक्षिण के भाषाई विरोध को भांपते हुए संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा
में राष्ट्रीय भाषा के रूप में संस्कृत का समर्थन किया था, उनका
मानना था कि देश को आजादी के बाद अंग्रेजी को कम से कम 15 वर्षों
तक आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा जा सकता है तब तक संस्कृत आम जन मानष में पूरी
तरह से स्वीकार्य जनभाषा नहीं हो जाती। वे इस बात से आशंकित थे कि आजाद भारत कहीं
भाषायी झगड़े की भेट न चढ़ जाए और भाषा को लेकर कोई विवाद न पैदा हो इसलिए जरूरी
है कि राजभाषा के रूप में ऐसी भाषा का चुनाव हो जिसका सभी भाषा भाषी आदर करते हों।
बाबा
साहेब डॉ. आंबेडकर यह मानते थे कि सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत है और उन्हें
पूरा भरोसा था कि संस्कृत के नाम पर देश के किसी भी भाग में कहीं भी कोई भी विवाद
नहीं होगा। डॉ. आंबेडकर ने राज्य भाषा परिषद में अपना, पंडित
लक्ष्मीकांत मैत्रे,
टीटी कृष्णमाचारी समेत अन्य 15 सदस्यों से हस्ताक्षर
युक्त प्रस्ताव पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार के समक्ष रखा और इस प्रस्ताव के
तीन मुख्य बिन्दु थे-
1. भारतीय
संघ की आधिकारिक भाषा संस्कृत को बनाया जाए।
2. शुरुआती
15 वर्षो तक अंग्रेजी संघ की अधिकारिक भाषा बनी रहेगी।
3. संसद में
अंग्रेजी का उपयोग सिर्फ 15
वर्षों के लिए हो इसके लिए कानून बना दें।
पर
राजभाषा परिषद ने डॉ. आंबेडकर के प्रस्ताव को नहीं माना और यह निश्चय किया कि
अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को प्रतिष्ठित किया जाए और संस्कृत को भारतीय संघ की
अधिकारिक भाषा बनाने का डॉ. आंबेडकर का सपना पूरा नहीं हो सका।
विश्व
में संभवतः भारत ही एक ऐसा देश है जहां आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अपनी
अधिकारिक/ सम्पर्क भाषा विकसित नहीं कर पाए है और ट्राई लैंग्वेज के सवाल पर
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के स्टालिन
के बीच विवाद और दुर्भाग्यपूर्ण है। देश की समृद्धि और एकता के लिए
हमे क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर सोचना होगा। यदि 1947 में पंडित नेहरू ने डॉ. आंबेडकर
की संस्कृत को अधिकारिक भाषा बनाने की बात मान ली होती आज भाषा के नाम पर यह विवाद
नहीं होता पर यह उस समय न हो सका। पर पूरा देश अपनी रुढिवादी सोच को त्यागकर 45% लोगों
द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिंदी को अपनी सम्पर्क भाषा के रूप में अपना ले जो देश
को समृद्ध व एकता के सूत्र में पिरो सके।
(लेखक एक पहल एनजीओ के
राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)
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