गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

इस जल त्रासदी से सबक ले पूरा देश

अवधेश कुमार

भारत के जो राज्य हर वर्ष बाढ़ का कहर झेलते हैं उनमें बिहार का स्थान सबसे उपर है। हालांकि 1975 के बाद कभी इसकी राजधानी पटना को जलप्लावित होते नहीं देखा गया था। 50 वर्ष की आयु वालो को तो 1975 की भयावह जल त्रासदी की याद भी नहीं होगी। हालांकि तब बारिश के साथ नदियों का पानी बाढ़ का मुख्य कारण था। इस बार गंगा, सोन और पुनपुन तीनों नदियों का जल स्तर सामान्य था। यानी पूरी त्रासदी केवल बारिस के पानी से पैदा हुई। वैसे तो देश के 14 से ज्यादा राज्यों में बाढ़ ने अपना कहर दिखाया। 1800 के आसपास लोग बाढ़ के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं और अरबों का नुकसान हुआ। बिहार में भी करीब 150 लोग अपनी जान गंवा बैठे। संयुक्त राष्ट्रसंघ की रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया भर में बाढ़ की सर्वाधिक विनाश का शिकार होने वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल है। हर वर्ष औसत 1600 लोग बाढ़ के कारण जान गंवाते हैं। इस आंकड़े को यदि ध्यान में लाएं तो पहला निष्कर्ष यह आएगा कि जब हर वर्ष बाढ़ कहर मचाती ही है तो फिर इतनी हाय तौबा क्यों? मीडिया द्वारा पटना की बाढ़ को लगातार टीवी चैनलों पर दिखाए जाने से गुस्साएं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पत्रकारों से पूछा भी कि क्या पटना का पानी ही सबसे बड़ा मुद्दा है? उन्होंने दूसरे दिन पत्रकारों को यहां तक कह दिया कि आप लोगों की कोई जरुरत नहीं है। उनके अधिकारी एक चैनल से इतने नाराज थे कि उसके पत्रकारों को मुख्यमंत्री आवास के अंदर नहीं जाने दिया गया। मुख्यमंत्री कार्यालय के एक बड़े अधिकारी एक पत्रकार को धक्का देते देखे गए। ऐसा अभद्र दृश्य नीतीश के शासन में पहले नहीं देखा गया था। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पटना में बाढ़ की भयावहता और मीडिया के कवरेज से मुख्यमंत्री कितने परेशान और खिझे हुए थे।
नीतीश कुमार ने इसे जलवायु परिवर्तन यानी धरती का तापमान बढ़ने से मौसम में आ रही अस्तव्यस्तता को जिम्मेवार ठहरा दिया। यानी सरकारी तंत्र की तो इसमें कोई गलती थी ही नहीं। यह सच है कि पांच दिनों तक लगातार मुसलाधार वर्षा होगी तो पानी जमा होगा। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कि बारिश हो और पानी तुरत कहीं विलीन हो जाए। वर्षा होगी तो पानी धरती पर दिखेगा ही। कई सालों से बिहार सूखे से त्रस्त था। सूखा के पहले भी सितंबर के दूसरे सप्ताह के बाद बारिस लगभग न के बराबर हो रही थी। हालांकि सामान्य तौर पर जब मौसम चक्र संतुलित था तो बारिश अक्टूबर के पहले दो सप्ताह तक होती ही थी। वर्तमान बारिश हथिय नक्षत्र का था। इसका नाम हथिया इसीलिए पड़ा क्योंकि इस नक्षत्र में सबसे मोटी बारिश लगातार होती है। पांच दिनांें में 440 मिलीमीटर पानी असाधारण स्थिति थी। किंतु जिस तरह का दृश्य पटना में दिखा वह भी अकल्पनीय था। छः फूट तक पानी किसी राज्य की राजधानी में जमा हो जाए तो यह सरकार की जल निकासी व्यवस्था के ध्वस्त होने से लेकर शहर की पूरी बसावट की योजना में व्याप्त अस्त-व्यस्तता को साबित करता है। दूसरे, उस दौरान जिस तरह लोगों को पानी तक के लिए छटपटाते देखा गया, अनेक परिवारों को चार-चार दिन तक कुछ खाने को नहीं मिला, लोग पानी के कारण अपने घरों में कैद रहे वह भी अस्वीकार्य है।
यह आपदा प्रंबंधन की हमारी दयनीय विफलता को दर्शाता है। क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि किसी प्रदेश का उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री पानी के कारण तीन दिनों तक अपने ही घर में कैद होने को विवश हो जाएं? जब उप मुख्यमंत्री तक को समय पर बाहर नहीं निकाला जा सका तो अन्यों की क्या हालत हुई होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। हालांकि उपमुख्यमंत्री बाहर आने के साथ एक जगह अपने साथ के बचाव दल को दूसरे फंसे लोगों को निकालने का निर्देश देते देखे गए। यह प्रशंसनीय व्यवहार था। किंतु इससे शासन की विफलता ढंक नहीं जाती। 

वैसे मीडिया ने तो केवल पटना को ही दिखाया, अन्यथा बिहार के कई शहरों और सैकड़ों गांवों को इसी तरह की त्रासदी का शिकार होना पड़ा। अगर केन्द्र एवं प्रदेश सरकारें पटना जल त्रासदी को सबक के रुप में ले तो इसकी भयावहता को भविष्य में काफी हद तक कम किया जा सकता है। पटना को हमारे यहां शहरों में जल निकासी, कूड़ा निस्तारण प्रबंधन के चरमरा जाने तथा अनियोजित बस्तियों के लगातार बढ़ते जाने का प्रतीक मानना होगा। यह साफ हो गया था कि पटना की नालियां गंदगी और कूड़े से भर गईं है। अन्य शहरों की तरह वहां भी पिछले दो दशक से ज्यादा में इतने आवासीय एवं व्यावसायिक भवनों का बेतरतीब तरीके से निर्माण हुुआ है कि उनके लिए पर्याप्त नागरिक सुविधा विकसित कर पाना नगर निगम तो छोड़िए किसी के वश की बात नहीं। यही नहीं बिहार के जयादातर शहरों में सीवर की कोई योजना ही नही है। निर्माणों का एक बड़ा भाग वास्तव में विनाश को आमंत्रण देने वाले हैं। भारी बारिश में यदि जल निकासी व्यवस्था दुरुस्त हो तो ऐसे मारक जमाव की स्थिति पैदा नहीं होगी। यह ठीक है कि पानी निकलने में समय लगेगा लेकिन अगर नदी का स्तर शहर की सतह से नीचे है तो निकलता रहेगा। यहां तो ऐसा दृश्य था मानो जल निकासी के लिए बने सारे नालों में दरवाजा बंद कर दिया गया हो। यह इसलिए पैदा हुई क्योंकि नालों की पर्याप्त सफाई बरसों से नही हुई है। पटना नगर निगम के बजट पर मत जाइए। बजट आवंटन अपने-आप सब कुछ नहीं होता। जिन कार्यों के लिए ये आवंटित हैं उनको साकार किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि समय के साथ जल निकासी व्यवस्था तथा कूड़ा प्रबंधन का जैसा ढांचा विकसित होना चाहिए वैसा हुआ ही नहीं। इसमें नागरिक चेतना का विकास भी जरुरी है। हमारी जिम्मेवारी भी है कि हम कूड़ा कहां और कैसे फेंकते हैं इसका ध्यान रखें। उसको जल निकासी पथ में डालेंगे तो यह हमारे लिए एक दिन डुबा देने का कारण बनेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान की लगातार अपील, इस पर किए जा रहे खर्च और व्यापक जन जागरण के बावजूद हमारे देश के बड़े वर्ग का कूड़ा निस्तारण का शर्मनाक आचरण नहीं बदल रहा। यह सब केवल पटना की स्थिति नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़कर पूरे भारत की मोटा-मोटी तस्वीर ऐसी ही है।
प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से जल वचाव का आह्वान किया है और उस पर सरकार योजना बनाकर खर्च भी कर रही है। खूब प्रचार हो रहा है। लेकिन पटना में देखा गया कि लोग बारिश के पानी को बचाने के प्रति भी सतर्क नहीं थे, अन्यथा बड़े भाग को पीने के पानी का संकट नहीं होता। जाहिर है, सरकारों को जल निकासी के साथ, कूड़ा प्रबंधन एवं बस्तियों व आवासीय परिसरो के निर्माण को व्यवस्थित करने के लिए सतत भागीरथ प्रयत्न के साथ आम जन के आचरण में भी व्यापक या कुछ मायनों में आमूल बदलाव की आवश्यकता है। ऐसा नहीं हुआ तो फिर विपत्ति को हम आमंत्रित करते रहेंगे। केवल छाती पीटने से कुछ नहीं होने वाला। इसके साथ यह भी सच है कि पटना में आपदा प्रबंधन यानी राहत और बचाव ऑपरेशन बिल्कुल उंट के मुंह मे जीरा के फोरन जैसा ही था। पिछले वर्ष केरल में आई भयानक बाढ़ में भारत का आपदा प्रबंधन विश्व स्तर का दिखा था और उसकी प्रशंसा हुई थी। किंतु पटना में जितने व्यापक पैमाने पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन, राज्य आपदा प्रबंधन से लेकर स्थानीय विभागों एवं वायुसेना का संसाधन झोंका जाना चाहिए वह नदारद था। यह दोनों सरकारों की ओर से अमानवीय रवैया था। दो दिनों तक तो कोई दिखा ही नहीं। सब कुछ नियति के भरोसे। जब दिखे तो चारों ओर त्राहि-.त्राहि के बीच इतनी कम संख्या में राहतकर्मी और उनके साथ सामग्रियों का सीमित भंडार क्षोभ पैदा करने वाला था। भारत के आपदा प्रबंधन की इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी प्रशंसा की थी। यह सच है कि आज भारत के पास विश्व स्तर का राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन है। यदि आवश्यकता का सही आकलन करके राहत व बचाव अभियान चलाया जाता तो तस्वीर बिल्कुल अलग होती। कुल मिलाकर कहने की आवश्यकता यह कि पटना की जल त्रासदी से केन्द्र व राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों और आम नागरिकों को सबक लेकर भविष्य के लिए अपने आचरण में व्यापक बदलाव करना होगा।
अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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