गुरुवार, 29 अगस्त 2019

बुद्धिमतापूर्ण कूटनीति की मिसाल

 अवधेश कुमार

फ्रांस के समुद्र किनारे बसे मनोरम दृश्यों वाले शहर बिआरित्ज में आयोजित जी 7 सम्मेलन पर दुनिया की नजर कई कारणों से रही होगी। किंतु विशेष आमंत्रित अतिथि के रुप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र की उपस्थिति से इसका आयाम विस्तृत हो गया था। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने के बाद पाकिस्तान ने जिस तरह से अपनी विदेश नीति को पूरी तरह भारत के खिलाफ झोंक दिया है उसमें दुनिया के एक हिस्से की नजर इस कारण भी थी कि मोदी वहां उपस्थित नेताओं से क्या बात करते हैं और नेतागण कश्मीर और भारत पर क्या बोलते हैं। सबसे ज्यादा ध्यान मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बैठक पर था। अगर दुनिया के कूटनीतिक इतिहास के आइने में देखा जाए तो दोनों नेताओं की बैठक का एक दृश्य उसके अध्याय में शामिल हो गया। ज्यादातर मीडिया ने उसी तस्वीर को अपने यहा सुर्खियां दी। ट्रंप यह कहते हुए मोदी के बायें हाथ पर अपने दायें हाथ की थपकी देते हैं कि ये अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं लेकिन यहां बोलना नहीं चाहते। इस पर मोदी ठहाका लगाते हैं और अपने बायें हाथ से उनके हाथ को पकड़े हुए दायें हाथ से ज्यादा जोर से थपकी लगाते हुए पकड़ लेते हैं। इस तरह के दृश्य दो देशों के नेताओं के शिखर सम्मेलन में शायद ही कभी सामने आया हो। इसीलिए अनेक विश्लेषकों ने उस दिन का दृश्य या सीन औफ द डे का नाम दे दिया। कूटनीति में शब्दों के साथ बडी लैंग्वेज यानी हाव-भाव का व्यापक महत्व होता है। तो आइए यह समझने की कोशिश करें कि मोदी ट्रंप के इस हाव-भाव और वहां दिए गए वक्तव्यों के मायने क्या हैं?

दोनों नेताओं के बीच प्रतिनिधिस्तरीय द्विपक्षीय बातचीत हुई। पत्रकारों के सामने आने के पहले रात में दोनों ने साथ भोजन किया था जिस दौरान भी बातचीत हुई थी। पत्रकारों ने कश्मीर पर सवाल पूछ लिया। प्रधानमंत्री मोदी ने जो जवाब दिया वह वाकई अद्भुत था। उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच कई द्विपक्षीय मामले हैं जिनका हम समाधान कर सकते है। हम इस पर दुनिया के किसी भी देश को कष्ट नहीं देना चाहते हैं। मोदी ने यह भी कहा कि भारत और पाकिस्तान, जो 1947 से पहले एक ही थे, मिलजुलकर अपनी समस्याओं पर चर्चा और समाधान भी कर सकते हैं। इस तरह के वक्तव्य की उम्मीद भारत में भी शायद ही किसी ने की होगी। हालांकि कश्मीर पर सवाल पूछा जाएगा इसकी पूरी उम्मीद मोदी को रही होगी इसलिए वे जवाब पहले से सोचकर गए होंगे। इस प्रकार से जवाब देने को आप श्रेष्ठ कूटनीति का उदाहरण मान सकते हैं। इसमें विनम्रता और शालीनता थी तो दृढ़ता और आत्मविश्वास भी था। साथ ही इसमें भारत की सक्षमता का संदेश देने का भाव भी था। मोदी यह भी कह सकते थे कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय मामला है और अभी हमने जो किया है वह हमारा आंतरिक विषय है जिसमें कोई दूसरा पक्ष दखलंदाजी नहीं कर सकता या किसी पक्ष की दखलअंदाजी की इजाजत हम नहीं देंगे। यह रुखी भाषा होती और शायद ट्रंप जैसा नेता या दूसरे नेता इससे भीतर ही भीतर नाराज हो सकते थे। इसकी जगह उन्होंने एकदम सहज भाव से कह दिया कि हम किसी को कष्ट नहीं देना चाहते। यानी बात वही थी कि इसमें किसी तीसरे पक्ष की कोई आवश्यकता नहीं है, पर इसको शालीन तरीके से कह दिया गया। यह एक परिपक्व देश के परिपक्व नेतृत्व की परिपक्व कूटनीति मानी जाएगी। 

परिणाम देखिए। ट्रंप ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री मोदी पर उन्हें पूरा भरोसा है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि चीजें पूरी तरह नियंत्रण में हैं। मुझे उम्मीद है कि वे कुछ अच्छा करने में कामयाब होंगे, जो बहुत अच्छा होगा। ट्रंप ने कहा कि मुझे उम्मीद है कि भारत और पाकिस्तान मिलकर समस्याओं को सुलझा लेंगे। ट्रपं के इस वक्तव्य का महत्व इस मायने में है कि इसके पहले वे तीन बार 22 जुलाई को ह्वाइट हाउस में इमरान खान से मुलाकात के दौरान, फिर 2 अगस्त एवं 21 अगस्त को मध्यस्थता करने का बयान दे चुके थे। 21 अगस्त को उन्होंने कह दिया कि वहां धर्म का मामला भी है। हिन्दू और मुसलमान हैं। इसमें भारतीय कूटनीति का एकमात्र लक्ष्य यही हो सकता था कि बिना किसी प्रकार तनाव पैदा किए, संबंधों को सामान्य बनाए रखते हुए ट्रंप को समझा दिया जाए कि आपका स्टैंड सही नहीं है जिसे आपको बदलना चाहिए। ट्रंप का बयान बताता है कि इसमें भारत को कम से कम तत्काल पूरी सफलता मिली है। इसी में हाथ पकड़ने की शारीरिक भाषा का महत्व बढ़ जाता है। उस दौरान मोदी भी ठहाका लगा रहे थे और ट्रंप भी। उपस्थित पत्रकार भी हंस रहे थे। यह हाव-भाव बता रहा था कि दोनों के बीच व्यक्तिगत संबंधी कितना सहज और अनौपचारिक है। यह समानता के स्तर पर व्यवहार करने तथा एक दूसरे पर विश्वास को भी दर्शाता है। इसकी तुलना ह्वाइट हाउस में इमरान खान एवं डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात के समय के दृश्य से कीजिए। दोनों अगल-बलग बैठे हुए थे। पर इमरान खान बिल्कुल असहज थे। पूरा माहौल औपचारिक था। साफ दिख रहा था कि पाकिस्तानी पत्रकारों को पहले से तैयार करके रखा गया था कि क्या प्रश्न पूछना है। उसी अनुसार पत्रकार प्रश्न पूछते गए और इमरान ने जवाब दिया तथा ट्रंप ने उसी में कह दिया कि कश्मीर के मामले पर वे दोनों देशों के बीच मध्यस्थता को तैयार हैं। हालांकि बाद में उन्होेंने इसमें जोड़ा था कि अगर मोदी चाहें तो।

इस तरह सधी हुई कूटनीति से मोदी ने निर्धारित लक्ष्य हासिल कर लिया। वहां उपस्थित अन्य नेताओं से भी मोदी की बात हुई। जर्मन की चांसलर एंजेला मर्केल से, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन से भी आमने सामने की बातचीत हुई। हालांकि उसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है और उसके बाद पत्रकार वार्ता भी नहीं हुई जिनसे हम कुछ अंदाजा लगाएं। वैसे इमरान खान ने फोन पर इन दोनों नेताओं से बातचीत की थी। जाहिर है, इमरान ने भारत के खिलाफ ही अपना पक्ष रखा होगा। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव एंटोनियो गुआटेरस से मुलाकात के बाद मोदी ने ट्वीट भी किया कि महासचिव के साथ बैठक शानदार रही। उसमें जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता आदि की चर्चा की जानकारी थी। एंटोनियो गुआटेरस पाकिस्तान के हस्तक्षेप के अनुरोध को यह कहकर ठुकरा चुके हैं कि मामला द्विपक्षीय है। थोड़े शब्दों मे कहा जाए तो भारत का लक्ष्य ट्रंप से अपने अनुकूल वक्तव्य दिलवा देना था। अमेरिका के राष्ट्रपति के अलावा दुनिया में किसी की हैसियत नहीं है कि वह मध्सस्थता का प्रस्ताव दे सके। उसके बाद भारत विरोधी देशों को भी नए सिरे से विचार करने को मजबूर होना पड़ रहा होगा। मोदी ने यह भी यूं ही नहीं कहा कि पाकिस्तान में चुनाव जीतने के बाद वहां के नए प्रधानमंत्री को मैंने फोन कर कहा था कि पाक और भारत दोनों को देशों को बीमारी, गरीबी, अशिक्षा आदि के खिलाफ लड़ना है। दोनों देश मिलकर इसके खिलाफ लड़ सकते हैं। इसका अर्थ भी साफ है कि हम तो शांतिपूर्ण विकास में साझेदारी करना चाहते हैं और हमारा इरादा आज भी यही है, पर पाकिस्तान साथ नहीं आता। यह अवसर नहीं था कि प्रधानमंत्री आक्रामक होकर पाकिस्तान पर आतंकवाद को पालने तथा जम्मू कश्मीर हिंसा कराने का सीधा आरोप लगाते। उन्होंने यह भी कह दिया कि राष्ट्रपति ट्रंप से भी हमारी इस संबंध में बात होती रहती है। पता नहीं क्या बात होती है, पर संदेश तो चला गया कि पाकिस्तान के संदर्भ में वे लगातार बात करते हैं। यानी यह मत समझिए कि हम पहली बार इस विषय पर बातचीत कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी कहा कि हम लोग व्यापार को लेकर बात कर रहे हैं, हम लोग सैन्य और दूसरी महत्वपूर्ण चीजों के बारे में बात कर रहे हैं।

इस तरह फ्रांस के बियारित्ज में परिपक्व और बुद्धिमतापूर्ण कूटनीति से प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम ने जम्मू कश्मीर के संदर्भ में स्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने में सफलता पाई है। ट्रपं का बयान भारत के लिए एक चुनौती बन गया था। मोदी ने फोन पर हुई बातचीत में अवश्य संकेतों में उन्हें समझाया होगा। किंतु मुलाकात के बाद ट्रंप का बयान बताता है कि उन्होंने अपनी समझ पर पुनिर्वचार किया है। आगे फिर उनमें कुछ बदलाव होता है तो देखेंगे। किंतु पाकिस्तान कितना हताश हो गया है इसका प्रमाण है इस मुलाकात के बाद इमरान खान का संबोधन जिसमें वे दुनिया को बता रहे हैं कि दोनों नाभिकीय शक्ति हैं और युद्ध हुआ तो केवल पाकिस्तान और भारत पर ही इसका असर नहीं होगा दुनिया भी इसकी चपेट में आएगी। एक ओर इस तरह का उत्तेजनापूर्ण भाषण और दूसरी ओर सहजता से मामले को द्विपक्षीय बताने तथा किसी तरह की आक्रामक बात न करने के आचरण में दुनिया भी अंतर कर रही होगी।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

तीनों सेनाओं के शीर्ष पर एक कमान की नियुक्ति के मायने

 अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री द्वारा स्वतंत्रता दिवस संबोधन में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) बनाए जाने की घोषणा से रक्षा महकमे और रक्षा विशेषज्ञों का उत्साह साफ महसूस किया जा सकता है। सीडीएस के लिए हिन्दी में हम आगे शायद प्रधान सेनापति शब्द का प्रयोग करें। हालांकि अभी प्रधानमंत्री ने केवल घोषणा की है। सीडीएस का स्वरुप, अधिकार और दायित्व आदि तय होना बाकी है। प्रधानमंत्री ने यही कहा कि बदले हुए समय में हमें सेना के तीनों अंगों को समान रुप से विकसित करना होगा। यानी यह नहीं होना चाहिए कि थल सेना तो ज्यादा मजबूत हो लेकिन वायुसेना उससे कम और नौसेना काफी कम। तीनों का अपना महत्व है। तीनों की क्षमता और आवश्ययकता के बीच समानता होनी चाहिए। इसी क्रम में यह भी आवश्यक है तीनों सेनाओं के बीच पूर्ण तालमेल हो। सीडीएस की भूमिका इसीलिए महत्वपूर्ण हो गई है। दुनिया की रक्षा तैयारियों को देखें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि आने वाले समय में जो भी युद्ध होगा वह काफी सघन होगा किंतु वह ज्यादा लंबा नहीं चल सकता। एक साथ देश की पूरी ताकत उसमें झांेकी जाएगी। इसमें जिसके पास सेना के तीनों अंग समान रुप से सक्षम होंगे तथा इनके बीच बेहतर समन्वय होगा उसकी स्थिति मजबूत होगी। बड़ी रक्षा चुनौतियों से धिरे भारत जैसे देश के लिए तो यह अपरिहार्य है। जिन्हें 1999 में करिगल में पाकिस्तानी सेना की हमारी सीमा में घुसपैठ और उसके बाद हुए युद्ध की पूरी कहानी पता है वे जानते हैं कि किस तरह उस दौरान थल सेना और वायुसेना के बीच भयावह मतभेद उभरे थे। यह हमारी बहुत बड़ी कमजोरी साबित हुई थी। युद्ध आरंभ होने के 22 दिन बाद सरकार को वायुसेना को शामिल होने का आदेश देना पड़ा था और तब तक काफी नुकसान हो चुका था। इसका मूल कारण यही था कि तीनो ंसेनाओं के बीच रणनीति विमर्श का तालमेल तथा सरकार के साथ समन्वय बिठाने वाला अधिकारप्राप्त कोई पद नहीं था।

वास्तव में रक्षा महकमे तथा विशेषज्ञ इसकी मांग लंबे समय से कर रहे थे। 26 जुलाई को करगिल युद्ध की समाप्ति के बाद 29 जुलाई 1999 को वाजपेयाी सरकार ने दो समितियां गठित कीं थीं। इनमें एक करगिल रिव्यू कमेटी यानी करगिल समीक्षा समिति का गठन के. सुब्रमण्हयम की अध्यक्षता में तथा रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति जनरल डीबी शेकाटकर की अध्यक्षता में गठित की गई थी। 7 जनवरी, 2000 को रिपोर्ट भी आ गई। दोनों समितियों ने उसी समय सीडीएस की सिफारिश की थी। इनमें इसकी आवश्यकता के साथ इसकी भूमिका का भी उल्लेख था। हालांकि करगिल समीक्षा समिति ने अपनी सिफारिशों में सीडीएस के साथ ही एक वाइस सीडीएस बनाने की सिफारिश भी की थी। रिपोर्टों पर विचार करने के लिए तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण  आडवाणी की अध्यक्षता में 2001 में मंत्रियों का एक समूह गठित हुआ जिसने रिपोर्ट को स्वीकार कर सीडीएस बनाने की अनुशंसा कर दी। इसके बाद की भूमिका नौकरशाही के हाथ आ गई। वहां से इसमंे अड़ंगा लगना आरंभ हो गया। यह तर्क दिया गया कि अगर तीनों सेना की एक कमान बनाकर उसके शीर्ष पर किसी व्यक्ति को बिठा दिया गया तो सैन्य विद्रोह की संभावना बढ़ जाएगी। किंतु वाजपेयी इस पर अड़ रहे । इसमें  एक नई संरचना सामने आई। अक्टूबर, 2001 में हेटक्वार्टर इंटिग्रेटिड डिफेंस स्टाफ (एचक्यूआईडीएस) बनाया गया। यह एक ऐसा संगठन है जो पिछले 18 वर्ष से काम कर रहा है लेकिन इसका अलग से कोई प्रमख तक नहीं है। वस्तुतः वीसीडीएस को चीफ ऑफ इंटिग्रेटिड डिफेंस स्टाफ में तब्दील करते हुए चेयरमैन चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (सीआईएससी) का रूप दिया गया। तीन सेना प्रमुखों में से जो वरिष्ठ है उसे चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी का अध्यक्ष बना दिया जाता है। लेकिन उसके पास कोई अधिकार नहीं है। वहां से रक्षा मंत्री तक पत्राचार होता है। रक्षा सचिव उसे फाइलों में रख दें या रक्षा मंत्री तक ले जाएं एवं कार्रवाई हो यह उनके अधिकार क्षेत्र में है।

आज का दुखद सच यही है कि सीआईएससी अपनी ही निहित कमजोरियों के कारण सेना के तीनों अंग के बीच तालमेल बिठाने में सफल नहीं है। इसकी किसी मायने में प्रभावी भूमिका है ही नहीं। हो भी नहीं सकती। रक्षा सचिव को रक्षा मामले में सबसे ज्यादा अधिकार प्राप्त है। ध्यान रखिए, सेना एवं रक्षा विशेषज्ञों द्वारा मामला उठाने पर 2012 में यूपीए सरकार ने नरेश चंद्र समिति का गठन हुआ था। उन्होंने सिफारिश की थी कि चेयरमैन, चीफ्स ऑफ स्टाफ कमिटी को स्थाई कर दिया जाए और सेनाध्यक्षों में से जो सबसे वरिष्ठ है उसे अध्यक्ष बनाया जाए। दरअसल, नौकरशाही में हमेशा सीडीएस को गहरा संदेह रहा है। इसलिए वे इसके पक्ष मंे न सिफारिश कर सकते थे न सिफारिश को स्वीकार ही। अब चूंकि प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है तो इसका साकार होना सुनिश्चित है।

अब प्रश्न है सीडीएस की जिम्मेदारी और दायित्वों का। साफ है कि केवल पद गठित करके उस पर किसी को बिठा देने भर से  आवश्यकतायें पूरी नहीं होंगी। तो? कुछ संभावनाएं दिख रहीं हैं और कुुछ सुझाव के रुप में सामने आए हैं। जो संभावनायें हैं उनके अनुसार यह न तो इतना उच्चाधिकार प्राप्त पद होगा जिससे कोई बड़ा खतरा पैदा हो और न बिना अधिकार के केवल नामधारी होगा। वह एक चार-तारा सैन्य अधिकारी हो सकता है जिसके हाथों कमान और नियंत्रण केन्द्रित होगी। यानी सीडीएस की नियुक्ति के साथ एकीकृत कमान संरचना आरंभ हो जाएगी। वह सैंन्य मामलोें पर सरकार को सलाह देगा जो अब फाइलों में दबा नहीं रहेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि सीडीएस तीनों सेनाओं के बीच तालमेल की भूमिका अदा करेगा। तालमेल का मतलब है कि उनके बीच जहां भी मतभेद होगा उसे भी दूर करेगा। इस तरह कहा जा सकता है कि सीडीएस के आविर्भाव के साथ सेनाओं की कार्यप्रणाली में काफी सुधार हो जाएगा। वह औपनिवेशिक प्रणाली से मुक्त होगी। किंतु इसको पूर्णता देने के लिए कई कदम उठाने होंगे। मसलन, सबसे पहले तो सीडीएस के पद पर ऐसे समर्थ और सक्षम सैन्य अधिकारी की नियुक्ति हो जिसे तीनों अंगों के कामकाज की समझ के साथ अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा स्थिति तथा देशों के संबंधों की भी पूरी जानकारी हो। आखिर सब कुछ व्यक्तित्व पर ही निर्भर करेगा। दूसरे, रक्षा मंत्रालय की संरचना में भी नए सिरे से व्यापक बदलाव हो। रक्षा मंत्रालय का चरित्र भी एक समन्वित कमान का होना चाहिए। सीडीएस की रक्षा मंत्री तक सीधी पहुंच हो और उनके माध्यम से वह प्रधानमंत्री से भी बात कर सके। एक सुझाव यह भी है कि रक्षा भूमि और पूंजीगत बजट को सीडीएस के तहत ला दिया जाए। इस पर सरकार अवश्य विचार कर रही होगी। सीडीएस सीधे रक्षा मंत्री के प्रति जवाबदेह हो।

जब आप सीडीएस की नियुक्ति करते हैं तो सेना के तीनों प्रमुखों की भूमिका में भी थोड़ा बदलाव करना होगा। आखिर उनके शीर्ष पर अब एक अधिकार प्राप्त सेनापति आ जाएगा। इसे भी परिभाषित और उल्लिखित करना होगा। विशेषज्ञों का सुझाव है कि इनको सामान्य स्थिति में जवानों के प्रशिक्षण, संगठन और सैन्य साजो-सामान से सुसज्जित करने जैसे मूल काम पर फोकस करना चाहिए। इससे इनका महत्व कम नहीं होता न इनकी भूमिका कमतर होती है। इनके लिए भी सुविधा हो जाएगी कि ये सीधे अपनी बात अब सीडीएस तक पहुुचाएंगे जहां से वह सरकार के पास चला जाएगा। सीडीएस तीनों सेना प्रमुखों से गहन विचार-विमर्श के बाद ही रणनीति को अंतिम रुप देकर रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री को अवगत कराएंगे। उसमें यह शामिल होगा कि तीनों प्रमुखों का क्या मत है। वास्तव में मूल प्रश्न रक्षा मामले में एक राष्ट्रीय सोच तथा कार्यसंस्कृति को विकसित करने की है। उम्मीद करनी चाहिए कि सीडीएस के गठन के साथ इसकी शुरुआत हो जाएगी। दुनिया के प्रमुख देशों मंे यह काफी पहले हो चुका है। हम काफी समय पीछे रह गए थे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

कांग्रेस के भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिन्ह

 


अवधेश कुमार

कांग्रेस पार्टी के अंदर जिस तरह अध्यक्ष के चयन को लेकर मंथन चलता दिख रहा था उससे कुछ समय के लिए यह भ्रम अवश्य पैदा हुआ कि शायद इस बार कोई नया नाम निकलकर सामने आए। राहुल गांधी ने 25 मई की कार्यसमिति से इस्तीफा देते समय स्पष्ट कर दिया था कि उनके परिवार से कोई अध्यक्ष नहीं होगा। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से जब सोनिया गाध्ंाी एवं राहुल दोनों बाहर निकल गए तो लगा कि वाकई इस बार परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के पार्टी की कमान संभालने की संभावना बन रही है। इसमें सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाए जाने का पहला निष्कर्ष यही है कि ये कवायदें केवल औपचारिकता थीं, परिवार से जुड़े और उसके वरदहस्त के कारण शीर्ष नेतृत्व में शुमार प्रमुख नेताओं के समूह ने मन बना लिया था कि बाहर का कोई अध्यक्ष नहीं हो सकता। जो सूचना है 10 अगस्त को पांच भागों में अलग-अलग क्षेत्रवार बैठकों के बाद शाम दोबारा कार्यसमिति की बैठक में फिर राहुल से इस्तीफे पर पुनर्विचार का आग्रह किया गया। इस पर पार्टी महासचिव प्रियंका वाड्रा ने बताया कि वह इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसके तुरत बाद सबसे पहले पी.चिदंबरम ने सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव रखा जो मिनट मंे गुलाम नबी आजाद, चिदंबरम, आनंद शर्मा और मनमोहन सिंह का सम्मिलित प्रस्ताव बन गया। इसके विरुद्ध कौन जा सकता था! सभी सदस्यों ने इस पर मुहर लगा दी। तो दो वर्ष बाद फिर अध्यक्ष की जिम्मेवारी घूमकर सोनिया के कंधो पर आ गई है। बैठक के बाद रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि कांग्रेस महाधिवेशन में नियमित अध्यक्ष के चुनाव तक वो पार्टी की बागडोर संभालेंगी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया कि महाधिवेशन कब होगा?

ढाई महीने की कसरत के बाद यदि पार्टी अस्वस्थता के कारण स्वयं को औपचारिक जिम्मेवारी से मुक्त करने वाली सोनिया की शरण में ही जाने को विवश है तो इसके मायने कांग्रेस की दृष्टि से अत्यंत ही चिंताजनक है। कांग्रेस इस समय अपने जीवन काल के सबसे गंभीर संकट और चुनौतियों का सामना कर रही है। गहराई से विचार करें तो उसके सामने राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी पार्टी के रुप में अपने अस्तित्व बनाए रखने का संकट है। यह एक दिन में पैदा नहीं हुआ है। 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस 44 स्थानों तक जब सिमटी तो उस समय सोनिया गांधी ही अध्यक्ष थीं। अगर कांग्रेस उस समय ईमानदारी से पराजय के कारणों का गहन विश्लेषण करती तो उसे नरेन्द्र मोदी के आविर्भाव से आलोड़ित होते समाज तथा तेजी से बदलते भारत के सामूहिक मनोविज्ञान और उसके समक्ष अपनी सारी कमजोरियों का अहसास हो जाता। ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में गठित समिति ने जगह-जगह जाकर समझने की कोशिश की और एक रिपोर्ट सोनिया गांधी को दिया। वह रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। हालांकि कांग्रेस के ही नेता बताते हैं कि राहुल गांधी ने अपने अनुसार उस रिपोर्ट के आधार पर बदलाव किया। किंतु उस समय समिति के दौरों के दौरान आ रही खबरों को याद करिए तो अनेक स्थानों पर नेताओं-कार्यकर्ताओं ने सोनिया एवं राहुल दोनों के नेतृत्व पर प्रश्न उठाए थे। सच कहा जाए तो 2019 का चुनाव परिणाम 2014 का ही विस्तार था। कांग्रेस इसलिए सन्निपात की अवस्था में आ गई, क्योंकि उसे राजनीति में होते पैराडाइम शिफ्ट यानी प्रतिमानात्मक परिवर्तन का अहसास हुआ ही नहीं। राहुल गांधी और सोनिया गांधी को उनके रणनीतिकारों ने बता दिया कि मोदी सरकार जा रही है और कांग्रेस 180 से ज्यादा सीटें जीतेंगी। अगर राहुल गांधी कहते हैं कि हमें पराजय के लिए अनेक लोगों को जिम्मेवार ठहराना है इसलिए अध्यक्ष नहीं रह सकते तो क्या उसमें सोनिया गांधी शामिल नहीं हैं?

2019 में हम खंडहर में परिणत होते जिस कांग्रेस को देख रहे हैं उसके लिए किसी दोषी माना जाएगा? अगर नरसिंह राव के कार्यकाल को छोड़ दे ंतो पिछले चार दशकों में नेहरु इंदिरा परिवार ही पार्टी का सर्वोच्च नीति-निर्धारक रहा है भले औपचारिक तौर पर उसके हाथों नेतृत्व रहा हो या नहीं। स्वयं सोनिया गांधी मार्च 1998 से 2017 तक अध्यक्ष रहीं।  2013 से उपाध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका निभा रहे थे एवं बाद में अध्यक्ष बन गए। 2019 के चुनाव परिणाम को देखें तो कांग्रेस को 52 में से 23 सीटंें तमिलनाडु एवं केरल से मिला है। अगर तमिलनाडु में द्रमुक ने उदारता से उसे सीटें न दी होतीं तथा केरल में शबरीमाला विवाद के कारण लोगों में वाममोर्चा के खिलाफ गुस्सा न होता तो वह 2014 से भी पीछे चली जाती। यदि मोदी सरकार ने शबरीमाला पर अध्यादेश लाया होता तो वहां का परिणाम भी थोड़ा अलग होता। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की नीतियों और व्यवहारों से सम्पूर्ण भारत एक बड़े बदलाव की ओर प्रयाण कर चुका है। इसमें जो भी पार्टी नीति, नेतृत्व और रणनीति में अनुकूल आमूल बदलाव करने का माद्दा नहीं दिखाएगा वह या तो इतिहास के अध्याय में सिमट जाएगा या फिर निष्प्रभावी अवस्था में जीवित रहेगा। आप देख लीजिए यह प्रक्रिया कितनी तेजी से चल रही है।

कांग्रेस लंबे समय से नीति, नेतृत्व और रणनीति के संकट का शिकार रही है। सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष की घोषणा करते हुए सुरजेवाला ने कहा कि वो तजुर्बेकार नेता हैं और देश जिन परिस्थितियों में गुजर रहा है उसमें हमें उनके नेतृत्व की जरुरत है। यह सोनिया गांधी ही थी जिनके नेतृत्व में 1999 में लड़े गए पहले चुनाव मेें कांग्रेस उस समय तक सबसे कम 114 सीटों तक सिमट गई थी। 2004 में भी उसे केवल 145 सीटें ही मिलीं थीं। चूंकि वाजपेयी सरकार के खिलाफ संघ परिवार में ही व्यापक असंतोष पैदा हो गया था, इसलिए नेताओं-कार्यकर्ताओं ने चुनाव में काम ही नहीं किया। 2009 के चुनाव में भाजपा एक लचर पार्टी की तरह लड़ रही थी। तो कांग्रेस को 206 सीटें आ गईं। कोई भी निष्पक्ष विश्लेषक स्वीकार करेगा कि सोनिया गांधी के कारण पार्टी एकजुट अवश्य रही, समय के अनुरुप कांग्रेस को वैचारिक धार देने तथा नेतृत्व समूह में उर्जावान-क्षमतावान चेहरों का चयन कर आगे लाने का कदम उन्होंने बिल्कुल नहीं उठाया। 10 जनपथ कुछ विश्वासपात्र-कृपापात्र नेताओं के सुझाव के अनुसार भूमिका निभाता रहा। देश बहुआयामी वैचारिक आलोड़न से गुजर रहा था और सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को यथास्थिति से निकलने की तैयारी तक नहीं की जा सकी।  2014 आते-आते विचार,व्यवहार और नेतृत्व के स्तर की जड़ता तथा क्षरण परवान चढ़ चुकी थी। नरेन्द्र मोदी की वाणी में लोगों को एक ऐसा प्रभावी नेतृत्व दिखा जिसके पास देश को जड़ता से निकालने का विचार एवं व्यवहार दोनों है। बदलाव की प्रक्रिया वहां से आरंभ हुई जो 2019 में सुदृढ़ हुई है। इसमंे ऐसे कांग्रेस के लिए जगह थी ही नहीं।

कांग्रेस नेतृत्व इस बहुआयामी बदलावों को समझने में अभी तक नाकाम है। चुनाव परिणामों का जो कारण कांग्रेस बता रही है उसमें न तो वह देश में आ चुके बदलाव के बयार को स्वीकार करती है न अपनी घातक कमजोरियों को। यही कारण है कि ले-देकर उसकी नजर राहुल से निकलते हुए प्रियंका और अंततः सोनिया गांधी तक टिक जाती है। कांग्रेस को इस समय ऐसे नेतृत्व की जरुरत थी जो भारतीय राजनीति में आ रहे आमूल बदलाव को समझते हुए उसके अनुरुप पार्टी को वैचारिक कलेवर देने तथा नेतृत्व के स्तर पर सक्षम लोगों को सामने लाने का साहस कर सके। जिसके पास नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह के अनुरुप परिश्रम करने की क्षमता के साथ वक्तृत्व कला भी हो। क्या सोनिया गांधी इन कसौटियों पर खरी उतरतीं हैं? एक बीमार महिला, जो 2014 की पराजय के बावजूद पार्टी में किसी स्तर पर बदलाव का माद्दा न दिखा सकी उससे ऐसी उम्मीद की ही नहीं जा सकती। इसके संकेत भी साफ हैं। अनुच्छेद 370 पर देश का बहुमत उत्साहजनक समर्थन दे रहा है और कांग्रेस नेतृत्व उसकी आलोचना कर रहा है। खीझकर पार्टी के अंदर से भी नेताओं ने सरकार के कदम का समर्थन कर दिया, पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की समझ में नहीं आया। आखिर सोनिया और राहुल की अनुमति के बिना 370 पर पार्टी के सामने बात रखने के लिए गुलाम नबी आजाद की योजना को मूर्त रुप कौन दे सकता था? यह वैचारिक दिशाभ्रम का केवल एक प्रमाण है। जिस राज्य में देखिए, कांग्रेस के अंदर नेताओं-कार्यकर्ताओं में अपने भविष्य को लेकर छटपटाहट है। लोग पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं, क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व भाजपा का सामना करने मंे सक्षम है। कांग्रेस के शीर्ष नेताओें में शामिल लोगों के सामने भी स्पष्ट हो चुका है कि सोनिया,राहुल और प्रियंका को लेकर आम जनता में बिल्कुल आकर्षण नहीं है। मोदी-शाह की तुलना में जनता इनको महत्व नहीं देने वाली। बावजूद यदि पार्टी परिवार से बाहर जाने का साहस नहीं कर पाई तो फिर यह मानकर चलिए कि वर्तमान कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य पर पहले से बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

इतिहास की भूलों का अंत और नए इतिहास का निर्माण

 
अवधेश कुमार

तो अब अनुच्छेद 370 इतिहास बन गया और उसके साथ 35 ए अपने-आप मर गया। जब राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह अपन हाथों में विधेयकों और संकल्पों की प्रतियां लेकर बोलने को खड़े हुए थे शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि वाकई वो इतिहास बदलने का दस्तावेज लेकर आए हैं। जैसे ही शाह ने कहा कि महोदय, मैं संकल्प प्रस्तुत करता हूं कि यह सदन अनुच्छेद 370(3) के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी की जाने वाली निम्नलिखित अधिसूचनाओं की सिफारिश करता है हंगामा आरंभ हो गया। एक ओर वाह-वाह तो दूसरी ओर विरोध। उन्होंने हंगामे के बीच ही पढ़ा कि संविधान के अनुच्छेद 370(3) के अंतर्गत भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 खंड 1 के साथ पठित अनुच्छेद 370 के खंड 3 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति संसद की सिफारिश पर यह घोषणा करते हैं कि यह दिनांक जिस दिन भारत के राष्ट्रपति द्वारा इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए जाएंगे और इसे सरकारी गैजेट में प्रकाशित किया जाएगा उस दिन से अनुच्छेद 370 के सभी खंड लागू नहीं होंगे, सिवाय खंड 1 के। हालांकि लोकसभा में हंगामा नीं हुआ। जिनको भी धारा 370 के अतीत और प्रावधानों तथा उसके परिणामों का पता है उनके लिए यह असाधारण तथा इतिहास को पूरी तरह बदल देने वाला कदम है। जम्मू कश्मीर को तीन भागों में बांटकर लद्दाख को अलग तथा जम्मू कश्मीर को केन्द्रशासित बनाने का फैसला भी अभूतपूर्व है।

यह आम धारणा थी कि धारा 370 को जम्मू-कश्मीर से हटाने का फैसला करने के लिए संसद का बहुमत पर्याप्त नहीं होगा। चूंकि इसे जम्मू कश्मीर की संविधान सभा ने भी पारित किया था इसलिए उसका कोई रास्ता निकालना होगा। संविधानविदों ने साफ कर दिया था कि राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 के उपबंध (3) के तहत अनुच्छेद 370 को खत्म करने का अधिकार है। शाह ने सदन में धारा 370 के खंड 3 का उल्लेख करते हुए कहा कि राष्ट्रपति महोदय ने एक नोटिफिकेशन निकाला है, कॉन्स्टिट्यूशन ऑर्डर निकाला है, जिसके अंदर उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का मतलब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा है। चूंकि संविधान सभा तो अब है नहीं। इसलिए, संविधान सभा के अधिकार जम्मू-कश्मीर विधानसभा में निहित होते हैं। चूंकि वहां राज्यपाल शासन है, इसलिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा के सारे अधिकार संसद के दोनों सदन के अंदर निहित है। राष्ट्रपति के इस आदेश को साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इसके पहले कांग्रेस पार्टी 1952 में और 1962 में धारा 370 में इसी तरीके से संशोधन कर चुकी है। इस तरह इसको  असंवैधानिक कहना गलत है।

वस्तुतः इस अनुच्छेद ने जम्मू-कश्मीर को अजीब तरह से विशेष अधिकारों वाला बना दिया था। उसका अलग संविधान था। जम्मू कश्मीर ने 17 नवंबर 1956 को अपना संविधान लागू किया था। इसका झंडा भी अलग था। कश्मीर में धारा 356 का भी इस्तेमाल नहीं हो सकता था। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती थी। भारत का अलग और कश्मीर का अलग। 35 ए के कारण जम्मू कश्मीर को अपनी नागरिकता देने का अलग से अधिकार था। भारतीय संसद जम्मू-कश्मीर के मामले में सिर्फ तीन क्षेत्रों-रक्षा, विदेश मामले और संचार के लिए कानून बना सकती थी। इसके अलावा किसी कानून को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार को राज्य सरकार की मंजूरी की जरुरत पड़ती थी।। शहरी भूमि कानून (1976) भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता था। जम्मू-कश्मीर के घोषित नागरिकों के अलावा कोई जमीन नहीं खरीद सकते थे। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 साल होता था। जम्मू-कश्मीर में महिलाओं पर शरियत कानून लागू होता था। कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से शादी कर ले तो उस महिला की जम्मू-कश्मीर की नागरिकता खत्म हो जाती थी। यदि कोई कश्मीरी महिला पाकिस्तान के किसी व्यक्ति से शादी करती थी, तो उसके पति को भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाती थी। धारा 370 के चलते कश्मीर में रहने वाले पाकिस्तानियों को भी भारतीय नागरिकता मिल जाती थी। जम्मू-कश्मीर में पंचायत के पास कोई अधिकार नहीं था। जम्मू-कश्मीर में काम करने वाले चपरासी को आज भी ढाई हजार रूपये ही बतौर वेतन मिल रहे थे।  कश्मीर में अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों को आरक्षण नहीं मिलता था। जम्मू-कश्मीर में भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं था। वोट का अधिकार सिर्फ वहां के स्थायी नागरिकों को ही था। दूसरे राज्य के लोग यहां वोट नहीं दे सकते और न चुनाव में उम्मीदवार बन सकते थे। सूचना का अधिकार (आरटीआई), शिक्षा का अधिकार (आरटीई) लागू नहीं होता था। यहां सीएजी भी लागू नहीं था। बताने की आवश्यकता हीं कि अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में ये सारी स्थितियां पूरी तरह खत्म हो गईं हैं। अब जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान पूरी तरह से लागू होगा। अलग झंडा नहीं होगा। यानी राष्ट्रध्वज तिरंगा रहेगा। दोहरी नागरिकता नहीं होगी। यहां पर राष्ट्रपति शासन लागू होगा। जम्मू कश्मीर पुलिस अब राज्यपाल को रिपोर्ट करेगी। अब देश का कोई भी नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति खरीद पाएगा।  नरेंद्र मोदी सरकार के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत का कोई भी नागरिक वहां के मतदाता और प्रत्याशी बन सकते हैं। कश्मीर विधानसभा वाला केंद्रशासित प्रदेश होगा। विधानसभा का कार्यकाल 6 साल की जगह 5 साल होगा।

लोगों के अंदर हमेशा 370 को लेकर गलतफहमी पैदा की गई। कहा गया कि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय विशेष था और इस कारण उसे विशेष अधिकार दिया गया। उनके साथ कुछ विशेष वायदा किया गया। आप 26 अक्टूबर 1947 का विलय पत्र देख लीजिए। वह हूबहू वही है जो दूसरे रियासतोें के विलय के लिए बना था। तो किसके और कब वायादा किया गया? गोपालस्वामी आयंगर ने धारा 306-ए का प्रारूप पेश किया था जो बाद में धारा 370 बनी। लेकिन यह कश्मीर में भारत के विलय के दो वर्ष बाद की बात थी। यह शेख अब्दुल्ला को अनावश्यक विशेष महत्व देने का परिणाम था। डॉ. अंबेदकर ने इसे देश की एकता और अखंडता के खिलाफ बताकर स्वयं को अलग कर लिया। नेहरु जी के कहने पर शेख अब्दुल्ला अंबेदकर के पास गए। अंबेदकर ने उन्हें डांटा कि तुम चाहते हो कि शेष भारत के लोगों को कोई अधिकार जम्मू कश्मीर में न मिले और तुम्हें शेष भारत में सारे अधिकार मिल जाए। नेहरु जी की जिद के कारण सरदार पटेल ने सदस्यों का समझाबुझाकर इसे अस्थायी एवं संक्रमणकालीv प्रावधान के रुप में रखवा दिया। यह नेहरु जी कृपा थी कि 1951 में राज्य को अपना अलग संविधान सभा गठित करने की अनुमति दी गई। नवंबर 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ। 26 जनवरी 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया। जो प्रावधान अस्थायी है उसे कब तक लागू रखा जाना चाहिए? अनंतकाल तक रखना तो संविधान निर्माताओं की भावनाओं का ही अपमान होता। यह जम्मू कश्मीर के भारत के साथ सम्पूर्ण रुप से एकाकार होने की मार्ग की बाधा बन गया था। साथ ही वहां के नेताओं को इस मायने में निरंकुश बना दिया था कि वे चाहे जितना भ्रष्टाचार करें उनकी गर्दन तक हाथ पहुंचाना मुश्किल था। वह पहले तीन और बाद मे दो परिवारों की जागीर जैसा हो गया था। इस तरह इतिहास के भयंकर भूल का परिमार्जन हुआ है और नए इतिहास निर्माण की शुऊआत हुई है।

कुप्रबंधन के कारण जम्मू कश्मीर जिस हालत में पहंच गया है उसमें उसकी वर्तमान राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्थिति बनाए रखना भी उचित नहीं होता। लद्दाख के लोग वर्षों से केद्रशासित प्रदेश बनाने की मांग कर रहे थे। जम्मू के लोग भी कश्मीर से अलग होना चाहते थे। यह आम शिकायत थी और इसमें सच्चाई भी थी कि घाटी के नेताओं ने जम्मू और लद्दाख के साथ लगातार अन्याय किया। आप सरकार नौकरियों से लेकर विकास की राशि खर्च होने का अनुपात देख लीजिए आपको सच पता चल जाएगा। वैसे भी जम्मू कश्मीर की समस्या का समाधान करना है तो केन्द्र की भूमिका वैधानिक रुप से प्रभावी होनी चाहिए। इसलिए पुनर्गठन के तहत राज्य को दो भागों में बांटकर केन्द्रशासित प्रदेश में बदलने का निर्णय कश्मीर के भविष्य की दृष्टि, राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद  तथा लोकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए बिल्कल उचित है। अब जम्मू कश्मीर विधानसभा वाला केन्द्र शासित प्रदेश होगा जबकि लद्दाख चंडीगढ़ की तरह बिना विधानसभा वाला केन्द्र शासित प्रदेश रहेगा। जम्मू और कश्मीर में दिल्ली और पुडुचेरी की तरह विधानसभा होगी। लद्दाख में चंडीगढ़ की तरह मुख्य आयुक्त होगा। जब स्थिति अनुकूल हो जाएगा तो फिर जम्मू कश्मीर को राज्य बना दिया जाए।

 इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा की जा चुकी है। लेकिन उच्चतम न्यायालय संसद के विरुद्ध जाकर इसे पुनर्बहाल करने का आदेश देगा यह मानने का कोई कारण नहीं है। भाजपा पर लंबे समय से आरोप लगता था कि वह अपने घोषणा पत्र में वायदा तो करती है, पर 370 हटाने के लिए कभी पहल तक नहीं करती। 35 ए को भी नहीं हटाती। तो एक बार में ही दोनों खत्म और जम्मू कश्मीर पर पंजा जमाये बैठे राजनीतिक नेताओं के वर्चस्व का भी अंत। इस मायने में जम्मू कश्मीर का वास्तविक विलय अब हुआ है। तो इससे इतिहास बदला और नया इतिहास निर्माण हुआ। इतिहास निर्माण की हर प्रक्रिया चुनौती भरी होती है। भारत के मस्तकपर 370 जैसे घाव का औपरेशन हो गया है। साहस और संतुलन के साथ आगे के कदम उठाने होंगे।

अवधेश कुमार, ईः30,गणेश नगर,पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाष-01122483408, 9811027208

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

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