शुक्रवार, 29 मार्च 2019

भारत बना अंतरिक्ष सामरिक महाशक्ति

 अवधेश कुमार

27 मार्च इतिहास के महत्वपूण अध्याय में दर्ज हो गया हे। भारत ने जैसे ही 300 कि. मी. पृथ्वी की कक्षा में लाइव लियो उपग्रह को निशाना बनाकर ध्व्सत किया अंतरिक्ष सामरिक क्षेत्र की चौथी महाशक्ति बन गया। अभी तक यह क्षमता अमेरिका, रुस और चीन को हासिल थी। जब 11 जनवरी 2007 को चीन ने धरती से छोड़े गए मध्यम दूरी के बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र द्वारा अंतरिक्ष में 537 मिल यानी 865 किलोमीटर पर स्थित अपने मौसम संबंधी पुराने उपग्रह को नष्ट किया तो दुनिया में हंगामा मचा था। 12 वर्षों बाद भारत ने वही क्षमता हासिल की है। हालांकि राजनीति ने भारत की इस महान वैज्ञानिक उपलब्धि को थोड़ा फीका किया हे लेकिन इससे जो कुछ हो गया उसका महत्व खत्म नहीं हो जाता। दुनिया के प्रमुख देश भौचक्क हैं कि आखिर भारत ने ऐसा कैसे कर लिया। जिस तरह 1998 में नाभिकीय परीक्षण हो जाने के पहले दुनिया को भनक तक नहीं लगी ठीक वैसे ही इस मामले में हुआ है।

यह कोई सामान्य उपलबिध नहीं हे। लाइव उपग्रह तीव्र गति से अपने कक्ष में चक्कर लगाते रहते हैं। पृथ्वी की अपनी गति है। उसमें निशाना लगाना आसान नहीं होता। यह वैसे ही है जैसे रायफल से निकली हुई गोली को दूसरी गोली से निशाना बनाना। सिर्फ तीन मिनट में सफलतापूर्वक ऑपरेशन पूरा किया गया। भारत ने ऐसा करके दुनिया में अंतरिक्ष सामरिक क्षमता की अपनी धाक जमा लिया है। उपग्रह रोधी मिसाइल या ए सैट यानी एंटी सेटेलाइट मिसाइल विकसित करना सामान्य होता तो फ्रांस रुस जर्मनी जापान जैसे देश ऐसा कर चुके होते थे। इसके लिए भारत को कहीं से भी तकनीकी सहयोग नहीं मिलना था। लेकिन हमारे वैज्ञानिकों ने सम्पूर्ण स्वदेशी तकनीक और अुसंधान पर आधारित अग्नि मिसाइल और अडवांस्ड एयर डिफेंस सिस्टम को मिलाकर ए सैट मिसाइल प्रणाली तैयार कर दिया। आम मिसाइल में वारहेड अपने लक्ष्य से टकराते हैं और विस्फोट में नष्ट कर देते हैं। भारत ने एंटी सेटेलाइट मिसाइल यानी उपग्रह रोधी मिसाइल में बिना विस्फोटक यानी बारुद के उपग्रह को नष्ट करने का काम किया है। इसमें काइनेटिक उर्जा का उपयोग हुआ जिसमें केवल भौतिक प्रतिक्रिया से उपग्रह नष्ट होते हैं। तो हमारे पास उपग्रह रोधी मिसाइल आ गया है। वैसे आजतक किसी भी युद्ध में इस तरह के हथियारों का उपयोग नहीं किया गया है। लेकिन अब यह जरुरी हो गया है। इस श्रेणी के मिसाइल का उपयोग केवल उपग्रह नष्ट करने तक ही सीमित नहीं है। इससे आकाश से लेकर धरती पर किसी भी गतिमान अस्त्र का पीछा कर उसे नष्ट करने की क्षमता हमारे पास आ गई है। उपग्रह काफी छोटे होते हैं। जब उनको नष्ट किया जा सकता है तो उस तरह की छोटा कोई भी लक्ष्य वेधा जा सकता है।

वस्तुतः 2012 में जब हमने अग्नि 5 मिसाइल का परीक्षण किया उसके बाद ही ऐसा करने की क्षमता आ गई थी। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन के पूर्व अध्यक्ष वी. के. सारस्वत तथा भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष माधवन नायर ने कहा है कि तत्कालीन सरकार के साहस न दिखाने के कारण भारत को इतना समय लगा। बकौल सारस्वत उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सहालकार एवं राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सामने पूरा प्रेंजेंटेशन दिया था। बहुत ध्यान से सुना देखा गया लेकिन हरि झंडी नहीं मिली। सरकार बदलने के बाद यही प्रेजेंटेशन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने आगे बढ़ने की अनुमति दे दी और परिणाम सामने है। भारत ने मिशन शक्ति कोड नाम से इस पर काम आरंभ किया। छः महीने से 300 वैज्ञानिक इस मिशन में लगे थे। देश की सुरक्षा और सामरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता है। भारत अंतरिक्ष में हथियार होड़ का पक्षधर कभी नहीं रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने संबोधन में कहा कि मैं विश्व समुदाय को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हमने जो यह नई क्षमता हासिल की है, वह किसी के विरुद्ध नहीं है। भारत अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ के विरुद्ध रहा है। हम अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण विकास के लिए उपयोग करने की नीति पर कायम हैं। हम कभी भी युद्ध को बढ़ावा नहीं दंेगे। हमारा कदम बिल्कुल सुरक्षात्मक है। वास्तव में यह संक्षिप्त अंतरिक्ष सामरिक डॉक्ट्रिन यानी सिद्धांत हो गया। भारत के जिम्मेवार रिकॉर्ड को देखते हुए पाकिस्तान के अलावा कोई शंका उठा भी नहीं सकता है। चीन ने जब ऐसा किया तो जापन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। अमेरिका ने कहा था कि चीन का कदम शांति की उसकी घोषित नीति के अनुमूल नहीं है। तो यह भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि एवं प्रमुख देशों के साथ विश्वसनीय संबंधों की परिणति है कि तीखी प्रतिक्रिया हमारे खिलाफ नहीं आ रही है।

यह सुरक्षात्मक, क्षेत्रीय-अंतरराष्ट्रीय सामरिक शक्ति संतुलन तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से भी बहुआयामी उद्देश्यों वाला कदम है। भारत अंतरिक्ष की एक प्रमुख शक्ति है। अलग-अलग उपयोगों के लिए हमारे उपग्रह अंतरिक्ष में सक्रिय हैं। जीवन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उपग्रहों की भूमिका है और हमारे उपग्रह रक्षा, आपदा प्रबंधन, टेलीविजन, मोबाइल, रेडियो, मनोरंजन, कृषि, मौसम की जानकारी, नेविगेशन, शिक्षा, मेडिकल आदि हर क्षेत्र में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इतने विस्तार के बाद इनकी सुरक्षा व्यवस्था आवश्यक है। जब 12 वर्ष पहले चीन ने यह साबित कर दिया कि वह अंतरिक्ष में किसी भी मिसाइल को मार गिरा सकता है तो फिर हम आंखें मूंदकर नहीं रह सकते। हमें अपने उपग्रहों की सुरक्षा सुनिश्चित करना अनिवार्य था। जासूसी के लिए भी उपग्रहों का इस्तेमाल होता है। अब कोई हमारे क्षेत्र में ऐसा साहस नहीं कर पाएगा। भारत अनेक देशों का उपग्रह प्रक्षेपित करता है। उनके लिए संदेश है कि समय आने पर भारत उनके उपग्रहों की रक्षा भी कर सकता है। एशिया में चीन को अकेले इस मामले मे महाशक्ति रहने देना शक्ति संतुलन के सिद्धांत के विपरीत है। भारत सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए प्रयासरत है तो उसे हर दृष्टि से अपनी क्षमता दर्शाने की आवश्यकता है। वर्तमान विश्व व्यवस्था में आर्थिक विकास के साथ सामरिक क्षमता ही महाशक्ति बनकर वैश्विक भूमिका निभाने की अर्हंता हो चकी है। अब भारत जल, नभ, थल के साथ अंतरिक्ष की सामरिक क्षमता भी हासिल कर चुका है। नाभिकीय ताकत तो हम हैं हीं।

कहने का तात्पर्य यह कि भारत ने इस उपलब्धि से अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल किया है। इससे राष्ट्र का अपनी क्षमता के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है तथा गौरवबोध होता है। तो यह क्षण भारत के प्रति आत्मगौरव का बोध कराने वाला है जिसे राजनीति मलीन कर रही है। राजनीति को परे रखकर देश की महान उपलब्धि में सहभागी होने की बजाय हम आपस में आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं। विपक्षी दलों की समस्या है कि प्रधानमंत्री ने इसकी घोषणा क्यांें की? दुर्भाग्यपूर्ण आपत्ति है। प्रधानमंत्री को छोड़कर ऐसे मामलों पर देश और दुनिया को संबोधित कौन कर सकता था? इसमें अपनी उपलब्धियों को बताने के साथ भारत की अंतरिक्ष सामरिक नीति के बारे में दुनिया के आश्वस्त भी करना था। यह भूमिका राजनीतिक नेतृत्व ही निभा सकता था। किंतु भारत की राजनीति जिस अवस्था में पहुंच गई है उसमें इससे परे कुछ सकारात्मक उम्मीद कर भी नहीं सकते। चीन ने जब यह कारनामा किया तो तो वहां से कभी एक शब्द विरोध मे ंनहीं आया। आ भी नहीं सकता था। अमेरिका ने 26 मई 1958 से 13 अक्टूबर 1959 के बीच 12 परीक्षण किए, लेकिन ये सभी असफल रहे थे। वहां किसी ने प्रश्न नहीं उठाया कि ऐसा क्यों हो रहा है। रुस जब सोवियत संघ था तो उसने अंतरिक्ष की सामरिक महाशक्ति बनने का अभियान चलाया। वह भी आरंभ में सफल नहीं हुआ। 1967 से 1982 तक उसने ऐसे अनेक सफल परीक्षणें किए। इस बीच अमेरिका ने भी सफलतायें हासिल कीं। खासकर रोनाल्ड रेगन के के काल में तो लगातार परीक्षण हुए। अमेरिका द्वारा अंतिम बार 13 सितंबर 1985 को उपग्रह विरोधी परीक्षण किया गया था। तत्कालीन दोनों महाशक्तियों की भूमिका से ऐसा लगने लगा मानो अंतरिक्ष युद्ध आरंभ हो जाएगा। आज अंतरिक्ष में उस तह शस्त्र की होड़ नहीं है तो उसका कारण इन देशों का संतृप्त अवस्था में पहुंच जाता है। अंतरिक्ष का इतना विकास हो चुका है कि दुनिया के अतीत और वर्तमान चरित्र को देखते हुए हम यह मानकर नहीं चल सकते कि कभी वहां जोर आजमाइश नहीं होगी। इसलिए हमें हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूरभाषः0112483408, 9811027208

 

 

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

इस आतंकवादी हमले के पीछे धर्मयुद्ध का खतरनाक विचार है

 अवधेश कुमार

न्यूजीलैंड जैस देश में, जहां हिंसा की घटना वर्षों से अपवाद रही हो,  वहां अचानक किसी मजहबी स्थल पर खून की होली खेली जाए, सरकार , पुलिस और आम नागरिक की क्या मानसिक दशा होगी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। ग्लोबल पीस इंडेक्स यानी वैश्विक शांति सूचकांक में न्यूजीलैंड 2017 एवं 2018 में दुनिया का दूसरा सबसे शांत देश माना गया। पहले भी उसका स्थान दुनिया के सबसे शांत 4 देशों में रहा है। 2007 से 2016 के बीच यहां हत्याओं के मामले दहाई अंक में भी नहीं थे। हां, 2017 में यहां हत्या के 35 मामले सामने आए और यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना। ऐसे देश में कुछ ही मिनटों के अंदर 49 लोगों को दिनदहाड़े भून दिया गया वह भी एक विशेष मजहब को निशाना बनाकर। पहला हमला क्राइस्टचर्च के अल नूर मस्जिद में हुआ जबकि दूसरा हमला इसके उपनगरीय इलाके लिनवुड में। हमलावरों ने मस्जिद में जुमे की नमाज का समय चुना ताकि वे नमाज के लिए एकत्रित हुए मुसलमानों को अधिक से अधिक संख्या में मार सकें। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने अपने संबोधन में साफ कहा कि इसे आतंकवादी हमला के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। यह हर दृष्टि से आतंकवादी घटना है। भारत के लिए यह निजी तौर पर भी दुख की घड़ी है क्योंकि हमारे सात नागरिकों के मारे जाने की पुष्टि हो गई है।

दुनिया भर में हो रहे आतंकवादी हमलों की प्रवृत्ति के बीच इस हमले के पीछे का विचार इतना खतरनाक है कि अगर इसका विस्तार हो गया तो दुनिया का बड़ा भाग हिंसा-प्रतिहिंसा का शिकार हो जाएगा। इसे व्हाइट सुप्रीमेसी यानी श्वेत लोग सबसे उच्च है और उनका ही वर्चस्व होना चाहिए जैसी सोच की परिणति भी माना गया है। हमारे पास पूरी जानकारी मुख्य हमलवार 28 वर्षीय ब्रेंटन टैरंट के सोशल मीडिया पोस्ट एवं उसके द्वारा बनाए गए मैनिफेस्टो पर आधारित है। हमलावर ने व्हाइट सुप्रीमैटिस्ट होने का संदेश दिया है। उसने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को व्हाइट सुप्रीमेसी का प्रतीक बताया है। पर उसने श्वेत सर्वोच्चता का प्रयोग किस संदर्भ में किया है यह मूल बात है। जरा सोचिए, हमलावर ने हमला के पूर्व फेसबुक पर घोषणा कर दिया था कि वह हिंसा की लाइव स्ट्रीमिंग करेगा और उसने 17 मिनट तक फेसबुक पर लाइव किया। इस तरह योजना बनाकर शांत और संतुलित तरीके से हत्या करने वाले के विचार का गहराई से विश्लेषण कर ईमानदारी और साहस के साथ सच को रखना जरुरी है। टैरंट ने फेसबुक पर पोस्ट में हमला क्यों किया इस शीर्षक के तहत लिखा है कि यह विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा हजारों लोगों की मौत का बदला लेने के लिए है। उसके द्वारा बनाए मैनिफेस्टो का शीर्षक है- द ग्रेट रिप्लेसमेंट यानी महान बदलाव। अपने मैनिफेस्टो में टैरंट ने 2017 में स्वीडन के स्टॉकहोम में एक उज्बेक मुसलमान द्वारा भीड़ पर ट्रक चढ़ाने की घटना का जिक्र किया है, जिसमें 5 लोगों की मौत हो गई थी। हमले में 11 साल की एक स्वीडिश बच्ची की मौत ने उसे झकझोर दिया था। यहां से जब वह फ्रांस पहुंचा तो शहरों और कस्बों में प्रवासियों की भीड़ देखकर हिंसा का निश्चय कर बैठा।

 प्रवासियों से उसका मतलब मुस्लिम शरणार्थियों और प्रवासियों से है। हाल के वर्षों में जेहादी आतंकवादियों द्वारा ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, स्विडेन...में किए गए हमलों ने उसके अंदर यह विचार पैदा किया कि मुसलमान श्वेतों पर विजय पाने के लक्ष्य से हिंसा कर रहे हैं। वे हमला कर हम पर अपना वर्चस्व स्थापित करेंगे और अपने मजहब को लादेंगे। उसकी नजर में इसका जवाब श्वेतों की प्रतिहिंसा ही हो सकती है। उसने मैनिफेस्टो में साफ लिखा है कि हमला करने वालों को बताना है कि हमारी जगह उनकी कभी नहीं होगी। जब तक एक भी श्वेत व्यक्ति है, तब तक वे कभी नहीं जीत पाएंगे। इन विचारों को पढ़ने के बाद साफ हो जाता है कि अगर उसके अंदर हिंसा के द्वारा श्वेत सर्वोच्चता का नसमझ विचार पनपा तो जहादी आतंकवादी हमलों के कारण। यह विचार किसी एक टौरंट के अंदर पैदा नहीं हुआ होगा। इसने आतंकवाद का जवाब आतंकवाद से अवश्य दिया है, पर ऑस्ट्रेलिया से लेकर यूरोप, अमेरिका...सब जगह जेहादी आतंकवाद को लेकर मुसलमानों के बारे में ऐसी भावना व्यापक रुप से फैली है। शरणार्थियों एवं प्रवासियों पर छोटे-बड़े हमले की घटनाएं चारों ओर हुई है। मुसलमानों को शरण देने का इन देशों में तीव्र विरोध हो रहा है।

नई पीढ़ी के अंदर इस्लाम एवं ईसाइयत के संबंधों का इतिहास पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस पर पुस्तकें और वेबसाइट आ रहे हैं। इनमें क्रूसेड्स यानी इस्लाम एवं ईसाइयत के बीच चले धर्मयुद्धों का इतिहास भी है। बताया जाता है कि जिन देशों में इस्लाम है उसमें से ज्यादातर में कभी ईसाइयत थी। यानी इस्लाम ने हिंसा और मारकाट से इस्लाम का फैलाव किया है। एक ओर लोगों के अंदर ऐसा विचार घनीभूत हो रहा है और दूसरी ओर सरकारें मुस्लिमों के प्रति उदार व सहिष्णुता को प्रश्रय देने की स्वाभाविक नीति अपनाती है। इससे बड़े वर्ग में खीझ पैदा होता है। न्यूजीलैंड में किसी को शरण मिलना अत्यंत आसान है। प्रधानमंत्री ने कहा कि क्राइस्टचर्च इन पीड़ितों का घर था। इनमें से बहुत लोगों ने शायद यहां जन्म न लिया हो। न्यूज़ीलैंड उनकी पसंद का देश था। यह एक उच्च विचार है जो होना ही चाहिए, पर इसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया न हो इसका पूर्वोपाय भी करना होगा। करीब 49.5 लाख की आबादी में मुसलमानों की संख्या डेढ़ लाख के आसपास होगी। लेकिन इनका आम धारा से बिल्कुल अलग मजहब आधारित जीवन शैली को एक वर्ग पचा नहीं पाता है। हमलावर के ट्विटर अकाउंट पर पोस्ट किए गए संदेश में मुस्लिमों और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमले का जश्न मनाने की बात कही गई।  

 टैरंट ऑस्ट्रेलिया का नागरिक है, लेकिन उसने वहां हमला करने की जगह न्यूजीलैंड को चुना। क्यों? हमलावर ने लिखा कि न्यूजीलैंड जैसे देश में हमले से स्पष्ट संदेश जाएगा कि धरती पर कोई जगह उनके लिए सुरक्षित नहीं है। न्यूजीलैंड जैसे सुदूर देश में भी बड़ी संख्या में प्रवासी आ गए हैं। इसका संदेश साफ था कि जिस देश को सबसे शांत माना जाता है वहां हमला करने से उनके अंदर भय पैदा होगा कि कहीं भी उनको निशाना बनाया जा सकता है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने  उसे एक दक्षिणपंथी, हिंसक आतंकवादी करार दिया है। आप इसके लिए जो भी नाम दे दीजिए, यह विचार चाहे जितना गलत हो लेकिन शून्य में पैदा नहीं हुआ है। अगर आईएसआईएस, अल कायदा, अल सबाब, तालिबान जैसे संगठन अपने घृणित मजहबी विचारों पर आधारित आतंकवादी घटनाओं को अंजाम नहीं देते तथा पश्चिम को पराजित करने का विष विचार नहीं फैलाते तो प्रतिक्रिया का कोई कारण ही नहीं रहता।

यह हमला उसी तरह है जैसे आईएसआईएस ने लोन वूल्फ का सिद्धांत दिया। यानी जो जहां है और उसके पास जो कुछ भी उपलब्ध है उसी से हमला करे। टैरंट के आतंकवाद का भी कोई संगठित स्वरुप नहीं है जहां विचारधारा से लेकर हथियारों का प्रशिक्षण, हमलों की योजनाएं तथा वित्तपोषण उपलब्ध है। टैरंट के किसी संगठन का सदस्य होने का प्रमाण नहीं मिला है। हां, उसने कई अति राष्ट्रवादी संगठनों को दान देने तथा ऐंटी-इमिग्रेशन ग्रुप से संपर्क करने की बात लिखी है। टैरंट पहले कम्यूनिस्ट था। उसने अपने लिए इको-फासिस्ट शब्द का प्रयोग किया है। आप अपने अनुसार इसका अर्थ लगाने को स्वतंत्र हैं। ट्विटर हैंडल से एक फोटो ट्वीट की गई, जिसमें दिखी बंदूक का इस्तेमाल हमले में किया गया। इस पर एक संदेश था, जिसमें इतिहास में दर्ज ऐसे लोगों के नाम लिखे थे, जिन्होंने नस्ल और मजहब के नाम पर लोगों को मारा था। राइफल पर 14 लिखा था, जिसे प्रधान के मंत्र के संदर्भ में माना जा रहा है। इसे हिटलर के 14 वर्ड्स से जोड़कर भी देखा जा रहा है। उसके विचारों तथा तौर-तरीकों से आप इको फासिस्ट का मतलब समझ सकते हैं। यह निश्चय ही खतरनाक विचार है जिसको आगे बढ़ने से पहले हर हाल में रोका जाना चाहिए। कितु जब तक जेहादी विचारधारा पर आधारित आतंकवाद खत्म नहीं होगा, पश्चिमी यूरोप एवं अन्य जगह रहनेवाला मुस्लिम समुदाय अपने मजहबी कर्मकांड का पालन करते हुए भी अन्य धर्मावलंबियों के साथ घुलने-मिलने का स्वाभविक व्यवहार नहीं करता इसे रोकना संभव नहीं है। नहीं रुका तो यह दो मजहबों के बीच जगह-जगह हिंसक हमले और प्रतिहमले का कारण बन सकता है। यह एक नए किस्म का क्रूसेड्स होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

2019 का आम चुनाव अलग पिच पर हो रहा है

 अवधेश कुमार

चुनाव आयोग ने भले आम चुनाव की दुंदुभि अब बजाई है, पर राजनीतिक दल काफी पहले से मोर्चाबंद में जुट गए थे। हां, आयोग की घोषणा के साथ चुनावी आचार संहिता लागू हो गई है जिसके बाद सरकारें नई घोषणायें नहीं कर सकेंगी तथा राजनीतिक दल अपने वाणी एवं व्यवाहर में ज्यादा संयमित हो जाएंगे। 89 करोड़ 88 लाख मतदाताओं का यह दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव होगा। यह संख्या 2014 के आम चुनाव से 8 करोड़ 43 लाख अधिक है। हालांकि 2009 से 2014 के बीच 10 करोड़ मतदाता बढ़े थे। उसकी तुलना मंें यह वृद्धि कम है। शायद इस बीच आबादी उस अनुपात में नहीं बढ़ी है। यह पहला आम चुनाव होगा जिसमें सभी इवीएम के साथ वीवीपैट लगेंगे एवं जिन वाहनों में ये जाएंगे उनके साथ जीपीएस लगा होगा ताकि वे कहां है इनका पता लग सके। चुनाव आयोग ने ईवीएम पर संदेह करने को बार-बार खारिज करते हुए इसे शत-प्रतिशत सुरिक्षत प्रणाली कहा है। बावजूद इतनी सख्त व्यवस्था का उद्देश्य एक ही है कि किसी तरह चुनाव प्रक्रिया पर किसी तरह की उंगली उठने की स्थिति न बचे। उममीद करनी चाहिए कि चुनाव परिणामों के लिए फिर ईवीएम को जिम्मेवार नहीं बनाया जाएगा। उम्मीदवारों के लिए पैन कार्ड अनिवार्य करने तथा मुकदमों के बारे में विज्ञापन देने की अनिवार्यता को लेकर निस्संदेह, प्रश्न उठाए जा सकते हैं। चुनाव को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाने के नाम पर हम ऐसे लौह दीवार न खड़ी कर दें कि जमीनी संघर्ष से निकले हुए कार्यकर्ताओं-नेताओं का चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाए। किंतु यह अलग से बहस का विषय है। इस समय चुनाव की घोषणा के साथ सबका एक ही प्रश्न है आखिर इस बार होगा क्या?

यह चुनाव पिछले कई चुनावों से अलग हैं। पिछले करीब एक वर्ष से विरोधी दलों का मुख्य नारा है, नरेन्द्र मोदी हटाओ। किसी एक नेता को केन्द्र बनाकर विरोध की राजनीति भारत की नई पीढ़ी के मतदाता पहली बार देख रहे हैं। 1991,1996,1998,1999,2004, 2009 एवं 2014 में इस तरह एक नेता के ऐसे तीखे विरोध का वातावरण नहीं था। जाहिर है, 18 वर्ष से लेकर 40 के आसपास की उम्र वाले मतदाता राजनीति का यह परिदृश्य पहली बार देख रहे हैं। ऐसे मतदाताओं की संख्या 65 प्रतिशत के आसपास होगी। इनका मत चुनाव परिणाम के लिए मुख्य निर्धारक होगा। 1977 में विपक्ष का सम्मिलित स्वर इंदिरा गांधी हटाओ का था तो उसके पीछे आपातकाल मुख्य कारण था। 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश हुई तो बोफोर्स मुख्य मुद्दा था एवं विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से विद्रोह कर बाहर आए थे। वे उस चुनाव में मुख्य चेहरा थे। इस बार ऐसा कोई वातावरण नहीं है। बनाने की कोशिश जरुर हुई हैै। कितना बना है कहना मुश्किल है। मोदी विरोधी धरातल पर एक होने के बावजूद विपक्ष के बीच 1977 तथा 1989 जैसी एकजुटता नहीं है। तमाम कोशिशांें के बावजूद विपक्ष का राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन नहीं बन सका तथा कई राज्यों में भी ये बंटे हुए हैं। जिसे यूपीए या संप्रग कहते हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर संगठित नहीं है। इसके समानांतर चुनाव आते-आते नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के नेतृत्व मंें राजग राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो चुका है।

यह चुनाव में एक कारक हो सकता है। जरा दोनों खेमों की तस्वीर पर नजर दौड़ा लीजिए। राजग के पास नरेन्द्र मोदी के रुप में एक सर्वसम्मत नेता है तथ सभी राज्यों मंें सीटों का स्पष्ट बंटवारा हो चुका है जबकि दूसरी ओर महाराष्ट्र, तमिलनाडु और झारखंड को छोड़ दंे तो विरोधी एकजुटता की अभी तक तस्वीर साफ नहीं है। सबसे ज्यादा 80 सीटें देने वाली उत्तर प्रदेश में बसप-सपा-रालोद गठबंधन में काग्रेस को जगह नहीं मिली। पिछले चुनाव में राजग में 18 दल शामिल थे जिनकी सीटें थीं, 336। इसके समानांतर यूपीए में 14 दल शामिल थे जिनकी सीटें थीं, 60। अगर मतों के अनुसार देखें तो पिछले चुनाव में भाजपा को 31 एवं राजग को 39 प्रतिशत मत मिला था। इसके समानांतर यूपीए को 23.3 प्रतिशत मत था। इस तरह दोनों के बीच उस समय 16 प्रतिशत का बड़ा अंतर था। कांग्रेस को 19.5 प्रतिशत मत आए थे। इस समय के समीकरण के अनुसार देखें तो राजग तेलुगू देशम एवं रालोसपा के बाहर आने के बावजूद 350 सीटों के साथ उतर रही है। चुनाव में उतरते समय उसके पास 41 प्रतिशत से ज्यादा मत हैं। इसके समानांतर यूपीए का चूंकि एक राष्ट्रीय स्वरुप नहीं हैं, इसलिए इस तरह का आंकड़ा उसके बारे में नहीं दिया जा सकता। जिसे यूपीए कहते है उसके पास 68 सीटें हैं। कांग्रेस का 19.5 प्रतिशत तथा बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि में उसके सहयोगियों को मिला दे ंतो यह 23 प्रतिशत के आसपास ठहरता है। पश्चिम बंगाल में यदि वामदलों के साथ गठबंधन हो जाए तो सीटों की संख्या 78 और मत करीब 25 प्रतिशत हो जाएगा। लेकिन कुल मिलाकर 2019 चुनाव की शुरुआत आंकड़ों की दृष्टि से मजबूत राजग एवं कमजोर संप्रग से हो रही है।

प्रमुख राज्यों में देश में पांचवा सबसे ज्यादा 39 सांसद देने वाले राज्य तमिलनाडु की राजनीति में व्यापक परिवर्तन आ गया है। इस बार तमिलनाडु राजनीति को लंबे समय तक निर्धारित करने वाले व्यक्तित्व एम करुणानिधि एवं जे जयललिता दोनों नहीं हैं। दोनों ओर गठबंधन हो चुका है। पिछली बार अन्नाद्रमुक ने एकपक्षीय जीत हासिल की थी। भाजपा अन्नाद्रमुक के साथ है तो कांग्रेस द्रमुक गठबंधन मे। सामान्य धारणा यही है कि वहां 2014 के परिणामों की पुनरावृत्ति नहीं होगी लेकिन एकपक्षीय जीत की भी संभावना नहीं है। इसी तरह चौथा सबसे ज्यादा सांसद वाले बिहार में लंबे समय बाद चुनाव लालू यादव की अनुपस्थिति में हो रहा है। पिछली बार राजग ने 40 में से 32 सीटें जीतीं थीं। जद यू अलग था, राजद अलग था। इस बार जद यू, भाजपा एवं रामविलास पासवान की लोजपा एक साथ है। दूसरी ओर अभी तक कांग्रेस, राजद, रालोसपा, हम एवं वाम दलों के बीच सीट बंटवारा नहीं हो पाया है। इसमें इस समय यह कहना मुश्किल है कि राजद नेतृत्व वाला गठबंधन राजग को परास्त कर आगे निकल जाएगा। दूसरा सबसे ज्यादा 48 सांसद वाले महाराष्ट्र में राजग को लेकर अनेक आशंकायें खडी की गईं थीं। वहां भी भाजपा ने शिवसेना के साथ आराम से 25 और 23 सीटों पर गठबंधन कर लिया।

तो कुल मिलाकर मोदी एवं भाजपा विरोध का स्वर जितना तेज रहा हो, चुनाव के मुहाने पर राजनीतिक समीकरण एवं अंकगणित में विरोधी आगे नहीं दिखते। छः राज्य ऐसे हैं जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला हैं। इन राज्यों की 100 सीटों में से कांग्रेस को 2014 में केवल तीन सीटें मिलीं थीं। इनमें से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में उसने भाजपा को पराजित किया है तथा गुजरात में अच्छी टक्कर दी है। सामान्य विश्लेषण में इन परिणामों के अनुसार कांग्रेस को कम से कम 32-35 सीटें मिलनी चाहिए। भाजपा को सबसे अधिक 71 और गठबंधन के साथ 73 सीटेें उत्तर प्रदेश से मिली थी। बसपा और सपा अलग-अलग लड़े थे। बसपा को 19.77 प्रतिशत तथा सपा को 22.35 प्रतिशत मत मिले थे। दोनों का 42.12 प्रतिशत तथा रालोद के 0.86 प्रतिशत के साथ यह 42.98 प्रतिशत हो जाता है। भाजपा के 42.63 प्रतिशत तथा अपना दल के 1 प्रतिशत मत को मिला दें कुल 43.63 प्रतिशत होता है। इस तरह बसपा सपा के सम्मिलित मत इनके पास पहुंच जाते हैं। इन मतों के अनुसार बसपा सपा रालोद को 42 सीटों पर बढ़त हासिल है। 15 सीटों पर सपा-बसपा के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट थे। 17 सीटों पर भाजपा 10 प्रतिशत से कम अंतर से जीती थी। इसके आधार पर भाजपा का पक्ष कमजोर दिखाई देता है। लोकसभा चुनाव में जरूरी नहीं मतदान बिल्कुल उसी तरह हो। दूसरे, जैसे ही हम माहौल की ओर देखते हैं ये विश्लेषण कमजोर पड़ जाते हैं।

वस्तुतः इस समय यह चुनाव बिल्कुल अलग पिच पर होता दिख रहा है। चुनाव को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा कारक पाकिस्तान की सीमा में घुसकर भारतीय वायुसेना द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध की गई कार्रवाई हो गया है। इसके कायम रहते मतों एवं समीकरणों का सामान्य विश्लेषण प्रासंगिक नहीं रहेगा। 2014 में पूरे उत्तर एवं पश्चिम भारत में नरेन्द्र मोदी की लहर थी। उसमें सारे मुद्दे गौण हो गए थे। इस बार आतंकवादी ठिकानों पर वायुसेना की बमबारी ने मोदी के पक्ष में राष्ट्वाद का ऐसा आलोड़न पैदा किया है जिसमें सारे मुद्दे पीछे जा रहे हैं। एक तूफान जैसी स्थिति है। अगर कोई प्रतिकूल स्थिति पैदा नहीं हुई तो यह 2019 के आम चुनाव के परिणामों का सबसे बड़ा निर्धारक होगा। कितने आतंकवादी मरे, कहां अड्डे ध्वस्त हुए, मसूद अजहर को किसने छोड़ा आदि प्रश्न राष्ट्रवाद के इस तूफान में तिनके की तरह उड़ रहे हैं। अभी तक विपक्ष इस आलोड़न की काट तलाश नहीं पाया है। विपक्ष के लिए जरुरी हो गया है कि राष्ट्रवाद की इस पिच पर वह कुछ अलग प्रकार के मुद्दों की गुगली फेंके जो अभी तक दिखा नहीं है। वस्तुतः आज की स्थिति में राजग को पराजित करने के लक्ष्य में विपक्ष की चुनौतियां कहीं ज्यादा बढ़ी हुई है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

गुरुवार, 7 मार्च 2019

यह राजनीति अपने देश को ही कठघरे में खड़ा करती है

अवधेश कुमार

आम भारतीयों तक जैसे ही यह समाचार पहुंचा कि हमारे वायुसेना के लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर जैश ए मोहम्मद के ठिकानों पर हमला किया पूरे देश में उत्साह और रोमांच का अभूतपूर्व वातावरण बन गया। आम लोगों के लिए यह समाचार ही काफी था। विदेश सचिव ने आकर बयान दे दिया और यह देश के लिए पर्याप्त था। लोगों को यही लगा कि वर्षों से आतंकवाद से त्रस्त हमारे देश ने अब पाकिस्तान को और दुनिया को दिखा दिया कि हमारे पास राजनीतिक इच्छाशक्ति है और उसे पूरा करने के संसाधन एवं लक्ष्य पा लेने के लिए जान की बाजी लगा देने वाले जाबांज भी। पूरी दुनिया ने भारत के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोला,बल्कि कुछ देशों ने तो बयान दिया कि भारत ने आत्मरक्षा में कदम उठाया है। पाकिस्तान के सामने समस्या पैदा हो गई कि वह प्रतिक्रिया व्यक्त करे तो कैसे? किंतु हमारे देश की पार्टियों और नेताओं ने धीरे-धीरे जो वातावरण बना दिया उससे पाकिस्तान का काम आसान हो गया। वहां की संसद में मंत्री भारतीय नेताओं को उद्वृत कर रहे हैं, पाकिस्तानी मीडिया में नेताओं के बयान चल रहे हैं और उन पर बहस हो रही है कि देखो सारे नेता नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ हैं।

हर विवेकशील भारतीय का दिल अपने नेताओं के आचरण पर रो पड़ा है। जब 28-29 सितंबर को थल सेना ने नियंत्रण रेखा पार कर सर्जिकल स्ट्राइक किया तब भी विरोधी नेता प्रमाण मांग रहे थे। किसी ने फर्जिकल स्ट्राइक कहा तो किसी ने कुछ। सैन्य औपरेशन के महानिदेशक डीजीएमओ ने बाजाब्ता पत्रकार वार्ता करके सूचना दी कि हमने सर्जिकल स्ट्राइक किया है। देश के लिए इतना ही काफी होना चाहिए। उस एक कार्रवाई से एक बदले हुए आत्मरक्षा के लिए आक्रामक चरित्र वाले भारत का दुनिया को दर्शन हुआ था। लेकिन हमारे नेताओं राजनीति के लिए देश की यह छवि भी बर्दाश्त योग्य नहीं थी। नेताओं ने आतंकवाद के विरुद्ध इतने साहसी और ऐतिहासिक कार्रवाई से पैदा उत्साह पर पानी फेरने की भूमिका निभाई। उड़ी में सोते हुए जवानों को जलाकर मार डालने से क्रोधित सेना ने अपना बदला ले लिया था जिसके बाद सबको साथ खड़ा होकर विजयोत्सव मनाना चाहिए था। यही व्यवहार इस समय भी अपेक्षित था। आखिर 1971 के बाद सोच-विचार कर योजनापूर्वक हमारे वायुयानों ने पहली बार केवल नियंत्रण रेखा नहीं अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर खैबर पखतूनख्वा तक जैश के ठिकानों पर बमबारी किया। यह विश्वास पैदा हुआ कि आगे जब भी आतंकवादी हमला हुआ और उसमें सीमा पार का हाथ नजर आया तो भारत ऐसा ही करेगा।

कल्पना करिए, यदि इस समय सारे राजनीतिक दल एकजुट रहते तो कैसा दृश्य होता। पाकिस्तान ही नहीं दुनिया को संदेश मिलता कि यह पूरे देश की लड़ाई है। पहले दिन तो सबने कह दिया कि वो सेना को सैल्यूट करते हैं। हालांकि उसमें भी राजनीति थी, क्योंकि लोकतांत्रिक देश होने के कारण फैसला राजनीतिक नेतृत्व करता है,सेना उसको साकार करती है। उसके बाद 21 दलों की बैठक में सरकार के खिलाफ सेना के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाते हुए निंदा प्रस्ताव ही पारित कर दिया गया। यहीं से पूरा वातावरण विषाक्त होने लगा। फिर स्वनामधन्य नेता सामने आ गए। दिग्विजय सिंह मैदान में कूदे यह कहते हुए कि आपने 300 आतंकवादी मारे तो उसका सबूत दीजिए। जिस तरह अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारने का सबूत दुनिया के सामने रख दिया वैसे ही भारत को भी रख देना चाहिए। दिग्विजय सिंह को पता नहीं कि अमेरिका में किसी ने भी तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा से सबूत नहीं मांगा था। किसी को नहीं पता कि ओसामा कहां दफनाया गया। किंतु वह एक व्यक्ति को मार डालने का मामला था जो एक घर में छिपकर परिवार के साथ रहता था, इसलिए उसका पूरा साफ वीडियो बनाना संभव था। भारत के 14 विमानों की कार्रवाई वैसी नहीं थी। यद्यपि सेना के तीनों अंगांें के अधिकारियों ने संयुक्त पत्रकार वार्ता में बताया गया कि हमने सबूत दे दिए हैं और यह निर्णय बड़े नेतृत्व को करना है कि उसे कब दिखाया जाएगा। किंतु उसे दिखाया ही जाए यह क्यों जरुरी है?

दिग्विजय के साथ कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, पी. चिदम्बरम, अजय सिंह, ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल.....जैसे नेता सबूत मांग रहे हैं कि आपने कितने आतंकवादी मारे इसे साबित करिए। सिब्बल साहब ने ट्विट कर दिया कि इंटरनैशनल मीडिया में पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकियों को नुकसान की कोई खबर नहीं है। इस पर जवाब दिया जाना चाहिए। क्यों देना चाहिए? क्या उनके पास सूचना के विशेष तंत्र हैं? कुछ रिपोर्ट और लेख तो उनमेें भारतीयों के भी हैं जिनमें अरुंधति राय भी शामिल हैं। सिब्बल की नजर में इनकी विश्वसनीयता है लेकिन हमारी सेना की नहीं। नवजोत सिंह सिद्धू ने कहा कि हम आतंकवादी मारने गए थे या पेंड़ गिराने। राजनीतिक विरोध में इस सीमा तक न चले जाएं कि देश का विरोध करने लगें और देश के पराक्रम सेना की वीरता को दुनिया की नजर में झुठा बना दें। यही हो रहा है। वस्तुतः जब राजनीति में अदूरदर्शी और गैरजिम्मेवार नेताओं का वर्चस्व हो जाए तो ऐसी ही त्रासदी सामने आती है। मजे की बात देखिए कि ये नेता कह रहे हैं कि सेना का राजनीतिकरण नही किया जाए। यह क्या है? दिग्विजय सिंह ने कहा कि मैं सेना की कार्रवाई पर कोई सवाल नहीं खड़े कर रहा। तो किस पर सवाल खड़े कर रहे हैं? मोदी और निर्मला सीतारमण लड़ाकू विमान उड़ाकर गए नहीं थे। सेना के पायलट गए थे। उनने कहा कि मिशन पूरा हुआ तो सरकार ने माना। इसलिए आप मोदी सरकार या भाजपा  नहीं सेना पर संदेह पैदा कर रहे हैं। भारतीय वायुसेना के कारण भारत की जो धाक बनी है और उससे आतंकवादियों के अंदर जो भय पैदा हुआ है उसे आप खत्म करने पर तूले हैं।

इनमें देश की एकता को तोड़ने का पाप है तो सेना के मनोबल पर विपरीत असर डालने का भी और भारत को दुनिया की नजर में झूठा साबित करने का शर्मनाक हरकत तो है ही। आप इससे बड़ी क्षति देश को पहुंचा नहीं सकते। इस तरह की राजनीति मोदी या सरकार विरोधी नहीं भारत विरोधी है। अमित शाह ने कहा कि 250 आतंकवादी मारे गए हैं तो आप उनसे सवाल करिए। हालांकि अमित शाह का बयान विपक्षी नेताओं के कार्रवाई के सबूत मांगने के बाद आए हैं। इससे दुखद तथ्य क्या हो सकता है कि पाकिस्तान को सबसे बड़ी राहत इन नेताओं के बयानों से ही मिली है। कुछ पत्रकारों के ट्वीट ने भी पाकिस्तान सरकार को अपने अवाम के सामने बचाव का आधार दिया है। पाकिस्तान तो परेशान था कि अपना पक्ष रखे तो कैसे? हालांकि 4 मार्च को कोयम्बटूर में वायुसेना प्रमुख बी. एस. धनोआ ने बिना राजनीति पर कुछ बोले इनकी बातों का करारा जवाब दे दिया। उन्होंने जो कुछ कहा वह प्रमाणित करता है कि नेताओं की नासमझी से सेना के लक्ष्य और संकल्प पर कोई अंतर नही पड़ा है। उन्होंने साफ कहा कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई अभी जारी है। धनोआ से जब सवाल किया गया कि पाकिस्तान बालाकोट में आतंकवादी ठिकानों को निशाना बनाए जाने की बात को खारिज कर रहा है, तो उन्होंने कहा कि हमने टारगेट हिट करने का प्लान बनाया था, तो हमने टारगेट हिट किया है। हम टारगेट हिट करते हैं, मानव शवों को नहीं गिनते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके बाद भी इन नेताआंे की जुबान बंद नहीं हुई है। तो अब जनता को ही इसका जवाब देना होगा। कोई पाकिस्तानी नेता अपनी सरकार के खिलाफ नहीं बोल रहा, अपनी सेना पर प्रश्न नहीं उठा रहा। पाकिस्तानी पत्रकार अपने देश के साथ खड़े हैं जबकि भारत के पत्रकारों का एक वर्ग उनको भारत विरोध करने की सामग्री प्रदान कर रहा है। 

मान लीजिए वहां एक भी आतंकवादी नहीं मरा। यह भी मान लीजिए कि जैश का भवन भी उम्मीद के अनुरुप नष्ट नहीं हुआ। तो क्या इससे इतनी बड़ी कार्रवाई का महत्व घट जाता है? कितनी क्षति हुई यह मुख्य बात है ही नहीं। मुख्य बात यह है कि आतंकवादी हमले के बाद वायुसीमा पार कर कार्रवाई का साहसी निर्णय करके उसे साकार किया गया। सेना उनकी सीमा में गई और एक शुरुआत हुई है। पाकिस्तान के अंदर भय पैदा हुआ है, आतंकवादी संगठनों में आतंक पैदा हुआ है कि भारत कभी भी हमें निशाना बना सकता है, पाक सेना को अपनी पूरी नीति और रणनीति नए सिरे से निर्धारित करनी पड़ रही है। सवाल उठाने वाले नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आपके शासन काल में क्या हुआ? मुंबई हमले के बाद वायुसेना ने सीमा पार करने की अनुमति मांगी थी। आपके क्यों नहीं दिया? युद्ध में केवल सेना नहीं लड़ती, देश के नेताओं का बयान, निर्मित वातावरण दुश्मन के विरुद्ध प्रचार और उसके झूठ का पर्दाफाश भी भूमिका निभाती है। भारतीय नेताओं के रवैये से हम इन मोर्चो पर कमजोर पड़ रहे हैं।

 

अधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408,9811027208

 

 

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