शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

ईवीएम को निशाना निर्दोष को जा देने जैसा अपराध

 

अवधेश कुमार

यह भारत देश है जहां एक हैकर लंदन के एक कार्यक्रम में अमेरिका से मुंह ढंके हुए दावा करता है कि चुनावों में ईवीएम की हैकिंग बड़े पैमाने पर होती है और हमारे यहां उस पर हंगामा मच जाता है। हालांकि हैकर सैयद शुजा ने केवल 2014 के आम चुनाव में ही बड़े पैमाने पर हैकिंग का दावा नहीं किया, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान को भी इसमें शामिल किया है और कहा कि इन चुनावों में उसने हैकिंग को नाकाम कर दिया। उसने आम आदमी पार्टी से लेकर सपा, बसपा सब पर हैकिंग के लिए संपर्क करने का आरोप लगा दिया है। इन सबका क्या अर्थ है? लंदन में यह हैकथॉन कार्यक्रम इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा आयोजित किया गया। कार्यक्रम में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल की मौजूदगी तो प्रश्नों के घेरे में है ही। वैसे आयोजकों का दावा है कि उन्होंने सभी दलों को आमंत्रित किया था, चुनाव आयोग को भी। जैसा नाम से जाहिर है यह भारतीय पत्रकारों का संगठन है, पर इसके निशाने पर ईवीएम क्यों है इसका जवाब नहीं मिलता। इस संगठन ने पिछले वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के पूर्व अगस्त 2018 में भी लंदन में एक कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसमंे राहुल गांधी शामिल हुए थे। किंतु हम इसमें यहां नहीं जाना चाहेंगे। मूल प्रश्न यह है कि क्या एक हैकर का दावा स्वीकर कर आम चुनाव के पहले ईवीएम पर हमें घमासान करना चाहिए? चुनाव आयोग ने शुजा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करा दिया है। उसे पकड़कर भारत लाया जाए ताकि पता चल सके कि उसके पीछे कौन सी शक्तियां हैं।

  मान लें कि ईवीएम में गड़बड़ी हो सकती है। किंतु, ऐसा करने के लिए भारतीय चुनाव आयोग, राज्यों के चुनाव आयोग, उपर से नीचे तक का पूरा प्रशासन, हजारों की संख्या में ऐसा करने वाले विशेषज्ञ चाहिए। हर क्षेत्र में उम्मीदवार अलग होते हैं और उसी अनुसार ईवीएम में बटन बनाए जाते हैं। तो प्रत्येक क्षेत्र में गड़बड़ी के लिए आपको अलग टीम चाहिएं। इतने व्यापक पैमाने पर धांधली संभव है क्या? वस्तुतः यह एक प्रश्न सारे आरोपों पर भारी पड़ता है। जहां तक हैकिंग का प्रश्न है तो न यह इंटरनेट से जुड़ा होता है और न ही अन्य मशीन से कि इसे हैक किया जाए या ऑनलाइन दूसरी गड़बड़ियां पैदा की जा सके। यहां ईवीएम की तकनीक और प्रक्रिया का भी उल्लेख आवश्यक है। इसमें वन टाइम प्रोग्रामेबल चिप होता है। इसके संचालन के लिए वाईफाई और किसी कनेक्शन की आवश्यकता नहीं। ईवीएम का सॉफ्टवेयर कोड वन टाइम प्रोग्रामेबल नॉन वोलेटाइल मेमोरी के आधार पर बना है। निर्माता से बगैर कोड हासिल किए छेड़छाड़ हो ही नहीं सकती। ईवीएम में एक कंट्रोल यूनिट, बैलेट यूनिट और पांच मीटर केबल होता है। कंट्रोल यूनिट मतदान अधिकारी के पास होता है व बैलेटिंग यूनिट वोटिंग कम्पार्टमेंट के अंदर रखा होता है। कंट्रोल यूनिट के प्रभारी मतदान अधिकारी द्वारा बैलेट बटन दबाने के बाद ही मतदाता बैलेटिंग यूनिट पर उम्मीदवार एवं चुनाव चिन्ह के सामने बटन दबाकर मत डाल पाता बनाता है। मतदान अधिकारी मतपत्र को कंट्रोल यूनिट के साथ जोड़गा नहीं तो वोट नहीं हो सकता।

  अब मतदान प्रक्रिया और अन्य व्यवस्थाओं पर नजर दौड़ाइए। ईवीएम मशीन की कौन सी सीरीज किस मतदान केन्द्र पर होगी इसका पता मतदान कराने वाले दल को एक दिन पहले चलता है। मतदान आरंभ होने से पहले ईवीएम के हर पहलू की जांच की जाती है। सभी उम्मीदवारों के उपस्थित पोलिंग एजेंटों की सहमति के बाद ही मतदान आरंभ होता है। मतदान आरंभ करने के पहले मॉक पोलिंग की प्रक्रिया भी संपन्न होती है। इसमें सभी पोलिंग एंजेट वोट डालते है जिससे यह पता चल जाता है कि उनके दबाए गए बटन से सही उम्मीदवार को वोट गया या नहीं। किसी मशीन में टेंपरिंग या अन्य गड़बड़ी होगी तो इससे पता चल जाएगा। पोलिंग एंजेट द्वारा मतदान पार्टी के प्रभारी को सही मॉक पोल का प्रमाण पत्र देने के बाद मतदान शुरू होता है। हर मतदान केन्द्र में एक रजिस्टर बनाया जाता है जिसमें मतदान करने वाले मतदाताओं का विस्तृत विवरण अंकित रहता है। रजिस्टर में जितने मतदाताओं का विवरण होता है उतने ही मतदाताओं की संख्या ईवीएम में भी होती है। अब इसमें वीवीपैट यानी वोटर वेरीफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल मशीन जोड़ दिया गया है। मतदान करने के बाद वीवीपैट में लगी शीशे के स्क्रीन पर जिसे वोट दिया गया हो उस उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिह्न छपी हुई पर्ची सात सेकंड तक दिखाई देती है। किसी तरह का विवाद होने पर ईवीएम में पड़े वोट के साथ पर्ची का मिलान की जा सकती है। सभी ईवीएम को वीवीपैट से जोड़ने की व्यवस्था कर दी गई है इसलिए संदेह की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए थी।

हमारे देश की हालत यह है कि अगर कोई ईवीएम या वीवीपैट खराब हुआ और कुछ देर मतदान रुक गया तो भी उसे ईवीएम के साथ छेड़छाड़ बताने का हास्यास्पद तर्क दिया जाता है। कोई मशीन नहीं जिसमें खराबी आए नहीं। खराबी आने पर उसे ठीक करने या तुरत बदल देने की व्यवस्था होनी चाहिए। हर चुनाव में 20 से 25 प्रतिशत अतिरिक्त मशीने सेक्टर अधिकारी की निगरानी में रखी जाती हैं, जिन्हें वह मशीनों के खराब होने पर बदलता है। प्रत्येक सेक्टर अधिकारी के क्षेत्राधिकार में लगभग दर्जन भर मतदान केन्द्र आते हैं। कई बार ईवीएम या वीवीपैट में संचालन करने वालों के भूल से कुछ समस्यायें पैदा होतीं हैं। कुछ देर में ठीक से संचालित होने लगता है किंतु तब तक हंगामा हो जाता है। मतदान के पूर्व मतदान कर्मियों को ईवीएम एवं वीवीपैट चलाने का पूरा प्रशिक्षण दिया जाता है। बावजूद कुछ भूलें हो जातीं हैं। अतिरिक्त गरमी या अन्य कारणों से कुछ समय के लिए सेंसर वगैरह में समस्या आती है जिससे मशीनें हैंग होतीं हैं। ये स्थितियां स्वाभाविक हैं। किंतु कई बार तो अति होती है। पिछले वर्ष चार लोकसभा एवं 10 विधानसभा उपचुनावों में प्रचार किया गया कि करीब 25 प्रतिशत ईवीएम में गड़बड़ी हुई और मतदान प्रभावित हुआ। चुनाव आयोग के अनुसार कुल 10365 ईवीएम में से केवल 96 को खराबी की वजह से बदलना पड़ा। नेताओं ने तो यहां तक आरोप लगाया कि जहां भाजपा विरोधी मत पड़ने हैं वहां ईवीएम में खराबी पैदा की गई ताकि मतदान बाधित हो सके। आरोप लगाने वाले भूल गए कि वे चुनाव आयोग को आरोपित कर रहे हैं, क्योंकि निष्पक्ष मतदान करने की जिम्मेवारी उसकी है। यह कितना दुखद है इसे व्यक्त करने के लिए शब्द छोटे पड़ जाएंगे।

कहने का तात्पर्य यह कि ईवीएम को निशाना बनाना निर्दोष को अपराधी बनाकर कठोर दंड देने के समान है। यह एक अपराध है जो राजनीतिक दल कर रहे हैं। अगर ईवीएम पर थोड़ी भी शंका होगी तो चुनाव आयोग इसे बनाए रखने पर अड़ा क्यों रहेगा? पूरा चुनाव आयोग और वह भी 2001 से  राजनीतिक दलों के हाथों खेलेगा ऐसा मान लें तो कोई संस्था विश्वसनीय बचेगी ही नहीं। चुनाव आयोग ने कई बार राजनीतिक दलों या सामाजिक संगठनों एवं व्यक्तियों को आमंत्रित किया, चुनौती भी दी कि आकर इसे हैक करने या इसमें गड़बड़ी करने का प्रमाण दीजिए। कोई गया नहीं। यह मामला अनेक उच्च न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय गया और हर बार याचिकाकर्ताओं को मुंह की खानी पड़ी। उच्चतम न्यायालय 13 बार इस संबंध में अपना मत दे चुका है। पिछले वर्ष 23 नवंबर को ही मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने ईवीएम की जगह मतपत्रों से चुनाव कराने की याचिका खारिज करते हुए कहा कि हर व्यवस्था में संदेह की गुंजाइश रहती है। ऐसा लगता है कि कुछ शक्तियां भारत की हर संस्था, हर व्यवस्था को संदेह के घेरे में लाने के लिए सक्रिय हैं और दुर्भाग्य से हमारी पार्टियां, नेता उसमें अपनी भूमिका से योगदान करते हैं। दुनिया में कौन देश ईवीएम का प्रयोग करता है और कौन नहीं इसके आधार पर हम अपने यहां की व्यवस्था का आकलन क्यों करें? 2004 के आम चुनाव से हमारे यहां ईवीएम की सम्पूर्ण व्यवस्था हो गई और यह पूरी तरह सफल है। मतदान पत्रों के काल में हमने मतपत्रों को लूटकर मुहर लगाते तथा बाहुबल के अनुसार परिणाम प्रभावित होते देखा है। मतपत्रों से मतदान में धांधलियों के बाद ही तो बदलाव की मांग हुई और ईवीएम का प्रयोग आरंभ हुआ। यहां तक आने के बाद पीछे लौटने की सोच राजनीतिक दलों के दिशाभ्रम के अलावा कुछ नहीं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

आखिर विकल्प क्या था

 

अवधेश कुमार

आलोक वर्मा की सीबीआई निदेशक पद पर बहाली के उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद साफ था कि सरकार पर तीखे राजनीतिक हमले होंगे और उनके खिलाफ कार्रवाई हुई तो उसे भी प्रश्नों के घेरे में लाया जाएगा। इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय चयन समिति द्वारा वर्मा को पद से हटाने के बाद आ रही प्रतिक्रियायें अनपेक्षित नहीं हैं। खासकर वर्मा के इस्तीफे के बाद तो हमला और तीखा होना ही था। तीन सदस्यों की समिति में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे इसके पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि वर्मा को चयन समिति के सामने पक्ष रखने का मौका मिलना चाहिए। समिति में प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश एवं विपक्ष के नेता होते हैं। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यह कहते हुए अपने को समिति से अलग रखा कि मैंने ही फैसला दिया है तथा अपने प्रतिनिधि के रुप में न्यायमूर्ति ए सिकरी को भेजा। अगर न्यायमूर्ति सिकरी भी प्रधानमंत्री से सहमत थे तो मानना चाहिए कि वर्मा पर आरोप गंभीर हैं। न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा कि वर्मा के खिलाफ जांच की जरूरत है। चयन समिति के वक्तव्य के अनुसार भ्रष्टाचार और अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने के आरोप में वर्मा को हटाया गया। कांग्रेस या विरोधी नेता जो भी कहें लेकिन कोई सरकार होती तो फैसला यही होता। 

वस्तुतः उच्चतम न्यायालय के फैसले की अतिवादी एकपक्षीय व्याख्या की गई। न्यायालय ने वर्मा को  बहाल अवश्य किया लेकिन स्पष्ट कर दिया कि जब तक उच्चस्तरीय समिति उनके बारे में फैसला नहीं करती वे नीतिगत निर्णय नहीं करेंगे, नई पहल भी नहीं करेंगे। चूंकि न्यायालय ने सरकार द्वारा तात्कालिक रुप से नियुक्त एल नागेश्वर राव को भी कार्यकारी प्रमुख पद से हटाने का फैसला दे दिया था, इसलिए माना गया कि केन्द्र सरकार के सारे निर्णय को ही गलत माना गया है। न्यायालय ने ऐसा कहा ही नहीं था। न्यायालय का कहना केवल इतना था कि किसी भी परिस्थिति में निदेशक को हटाने या नियुक्त करने की जो मान्य प्रक्रिया है उनका पालन किया जाना चाहिए। जो स्थिति सीबीआई के अंदर पैदा हो गई थी उसमें सरकार ने सीवीसी की सिफारिश पर यह कहते हुए आपस में लड़ रहे निदेशक वर्मा तथा विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया था कि इनके बने रहते निष्पक्ष जांच संभव नहीं होगी। एक अभूतपूर्व अप्रिय स्थिति पैदा हुई थी। निस्संदेह, सरकार को पहले ही हस्तक्षेप करना चाहिए था। जब स्थिति विकट हो गई तब उसने हस्तक्षेप किया और कदम उठाया। वर्मा के पक्ष में फली एस. नरीमन, कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे और राजीव धवन जैसे वकील तो थे ही कॉमन कॉज की याचिका लेकर प्रशांत भूषण भी थे। तो यह नहीं कहा जा सकता कि उच्चतम न्यायालय में इनका पक्ष ठीक से नहीं रखा गया। प्रश्न तो यह भी है कि आखिर इतने बड़े वकील कैसे वर्मा के लिए आ गए? बावाजूद न्यायालय ने फैसले में इतना ही कहा कि सरकार का फैसला संस्था के हित में होना चाहिए।

सच कहा जाए तो न्यायालय ने संस्था का सम्मान बनाए रखने के साथ सरकार की महिमा कायम रहे इसका भी ध्यान रखा। न्यायालय ने यही कहा कि नियुक्ति, पद से हटाने और तबादले को लेकर नियम स्पष्ट हैं जिनका पालन होना चाहिए। इसका यह अर्थ तो था सरकार ने फैसला करते समय इसका पालन नहीं किया लेकिन इसका एक अर्थ यह भी था कि सरकार को फैसला करना है तो नियमों के अनुसार करे। फैसले में साफ था कि वह कोई नीतिगत फैसला तब तक नहीं ले सकेंगे, जब तक उनके मामले पर समिति फैसला नहीं ले लेती। समिति नए सिरे से आलोक वर्मा के मामले को देखेगी। जब उच्चतम न्यायालय ने सब कुछ समिति पर छोड़ दिया था और इसमें बहुमत से फैसला हुआ है तो इस पर उठाए जा रहे प्रश्नों को राजनीति के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है। मल्लिकार्जुन खड़गे तो कांग्रेस की नीति के अनुसार ही भूमिका निभायेंगे। वे कह रहे हैं कि उनको सीवीसी रिपोर्ट सहित सारे कागजात पढ़ने का पूरा मौका नहीं मिला। ध्यान रखिए कि फरबरी 2017 में आलोक वर्मा को सीबीआई का निदेशक बनाने का भी खडगे ने विरोध किया था और अब हटाने का।  उनको छुट्टी पर भेजे जाने के विरुद्ध खडगे खड़े हुए थे और न्यायालय भी चले गए थे। इसके बाद आप खुद फैसला करिए कि इस भूमिका को कैसे देखा जाए?

वर्मा ने अपने इस्तीफा में जो भी कहा हो, सच यह है कि सीबीआई निदेशक पद पर बहाली को उन्होंने पूर्व के समान स्वयं को पूर्ण अधिकार प्राप्त निदेशक के रुप में लिया एवं उसी अनुसार फैसला करना आरंभ किया। दूसरे दिन ही वर्मा ने जांच एजेंसी के पांच बड़े अधिकारियों का स्थानांतरण कर दिया। इनमें दो संयुक्त निदेशक, दो उप महानिरीक्षक और एक सहायक निदेशक शामिल हैं। उन्होंने अंतरिम निदेशक एल नागेश्वर राव के ज्यादातर स्थानांतरण आदेशों को रद्द कर दिया था। राव ने वर्मा की टीम के 10 सीबीआई अधिकारियों के स्थानांतरण किए थे। वर्मा ने कुछ और निर्णय कर दिए। उन्होंनें एसपी मोहित गुप्ता को राकेश अस्थाना के खिलाफ लगे आरोपों की जांच का जिम्मा सौंपा। इसके अलावा अनीश प्रसाद को मुख्यालय में डिप्टी डायरेक्टर (एडमिनिस्ट्रेशन) बनाए रखने और केआर चौरसिया को स्पेशल यूनिट-1 (सर्विलांस) की जिम्मेदारी सौंपी गई। ऐसा लगा जैसे वे इस बीच हुए सारे निर्णयों को पलटकर उस स्थिति में लाना चाहते हैं जहां से वे छोड़कर गए थे। वर्मा भूल गए कि उच्चतम न्यायालय ने नागेश्वर राव के बारे में भी कहा था कि केवल रुटिन का काम देखेंगे लेकिन बाद में उनके फैसले को सीलबंद लिफाफे में मांगकर देखा था तथा उस पर कोई विरोधी टिप्पणी नहीं की थी। इसका अर्थ हुआ कि न्यायालय ने राव के निर्णयों को गलत नहीं माना था। 

वर्मा को हटाने के निर्णय पर तूफान खड़ा करने की कोशिश में लगे लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय ने सीवीसी की जांच की निगरानी के लिए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए के पटनायक को नियुक्त किया था। उनकी देखरेख में हुई जांच में वर्मा के आचरण को  संदेहों के घेरे में माना गया है। उसमें अपराध संहिता के तहत मामले चलाने की संभावना तक व्यक्त की गई है। सीवीसी की रिपोर्ट में वर्मा पर आठ आरोप लगाए गए। सीवीसी ने कहा है कि मांस कारोबारी मोइन कुरैशी के मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम हैदराबाद के कारोबारी सतीश बाबू सना को आरोपी बनाना चाहती थी लेकिन वर्मा ने मंजूरी नहीं दी। सीवीसी रिपोर्ट में रॉ द्वारा फोन पर पकड़ी गई बातचीत का भी जिक्र है। सना अस्थाना के खिलाफ दर्ज मामले में भी शिकायतकर्ता है। उसने बिचौलियों को दी गई रिश्वत के बारे में जानकारी दी थी। उसने रॉ के दूसरे शीर्ष अधिकारी सामंत गोयल के नाम पर भी जिक्र किया जिन पर बिचौलिये मनोज प्रसाद को बचाने का आरोप अस्थाना के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी में है। सीबीआई द्वारा गुड़गांव में भूमि अधिग्रहण के मामले में वर्मा द्वारा आरोपियों को बचाने का आरोप है। सीवीसी ने इस मामले में विस्तृत जांच की सिफारिश की थी। सीवीसी का यह भी कहना है कि वर्मा पूर्व केन्द्रीय मंत्री लालू प्रसाद से जुड़े आईआरसीटीसी मामले में आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रहे थे। ये सारे आरोप गहरे जांच की मांग करते हैं और सीबीआई को ही यह करना है। प्रश्न यह भी है कि अगर एक ही आरोप वर्मा एवं अस्थाना पर है और सीवीसी की जांच दोनों पर चल रही है तो एक व्यक्ति को कैसे पद पर बहाल किया जा सकता है और दूसरे को नहीं?

बहरहाल, मामले का एक बड़ा अध्याय यहां समाप्त हो गया, पर दोनों पर आरोपों की जांच चल रही है। सीबीआई इस सरकार के कार्यकाल में एक भी मामले को अंतिम परिणति में नहीं पहुंचा पाई। ऐसा लगता रहा है कि बड़े से बड़े मामलों को स्पर्श करके फिर फाइल को बंद करके रख दिया जाता था। क्यों? इसका जवाब मिलना चाहिए। बहरहाल, तत्काल यह मामला दो अधिकारियों तथा उसके कुछ मातहतों के बीच अवश्य दिखा, लेकिन यह सीबीआई की साख, विश्वसनीयता तथा कार्यकुशला के व्यापक आयाम तक विस्तारित है। शीर्ष एजेंसी को इसकी कल्पना के अनुरुप भूमिका में लाने के लिए काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

प्रधानमंत्री के साक्षात्कार में प्रश्नों पर विवाद उचित नहीं

 अवधेश कुमार

वर्ष 2019 के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यदि एक एजेंसी को 95 मिनट का लंबा साक्षात्कार देते हैं तो निश्चित रूप से उसका राजनीतिक उद्देश्य होगा। वैसे भी प्रधानमंत्री यदि देश के नाम संदेश देते तो वह भी इसी तरह सभी चैनलांे पर लाइव दिखाया जाता और चैनलों पर बहस के अलावा सामचार पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटांें पर भी उस पर टिप्पणियां आतीं। जाहिर है, प्रधानमंत्री भाषण की जगह साक्षात्कार के रुप में अपनी बात कहना चाहते थे। एजेंसी को साक्षात्कार देने का हेतु यही था कि वह सभी चैनलों पर चले। इसमें उन्होंने लगभग उन प्रश्नों का तो उत्तर दिया ही जो विपक्ष की ओर से उन पर एवं उनकी सरकार पर उठाए जाते रहे हैं, अपने संगठन परिवार को भी अयोध्या में राममंदिर मुद्दे पर संकेत देने की कोशिश की। इसमें बहुत सारे प्रश्न और उत्तर वही थे जो हम प्रधानमंत्री के मुंह से पहले भी सुन चुके हैं। बावजूद इसके देश के सामने एक साथ उन सबको रखना राजनीति के लिए जरुरी था। किंतु इस समय पूरे साक्षात्कार को ही विवादास्पद और स्टेज मैनेज्ड बताने की मुहिम चल रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साक्षाकार लेने वाली पत्रकार को कठघरे में खड़ा करते हुए उसे अंग्रेजी में प्लायबल यानी आज्ञाकारी करार दे दिया। राहुल ने यह भी कह दिया कि वो प्रश्न पूछ रही थी और जवाब भी स्वयं दे रही थी। देश में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी के अध्यक्ष का एक पत्रकार के बारे ऐसा बोलना अनुचित और अस्वीकार्य था।

यह ठीक है कि कई जगह पत्रकार को जितनी मर्यादित आक्रामकता प्रदर्शित करनी चाहिए थी उतनी वह नहीं कर पाईं। कई काउंटर प्रश्न पूछे जा सकते थे जो उन्होंने नहीं पूछा। किंतु हर पत्रकार का अपना तरीका होता है। वैसे राहुल गांधी एवं अन्य आलोचकों को कुछ बातें पता होनी चाहिए। यूपीए सरकार में भी आप किसी मंत्री से साक्षात्कार के लिए समय मांगते तो उनके सहायक का फोन आ जाता था कि प्रश्न बनाकर मेल कर दीजिए। इस सरकार में भी कुछ मंत्री ऐसा करते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो साक्षात्कार उस दौरान दिए उसमें भी ऐसा ही हुआ था। हालांकि ऐसे कुछ पत्रकार तब भी थे और आज भी हैं जो साक्षात्कार के बीच कुछ प्रतिप्रश्न या दूसरे प्रश्न भी पूछ लेते थे और पूछते हैं। सोनिया गांधी के दो साक्षात्कार मुझे याद हैं जिनमें राजनीति और सरकार पर कोई प्रश्न पूछा नहीं गया। उनसे सास इंदिरा गाधी से संबंधों, उनके खानपान, परिवार के रिश्ते जैसे प्रश्न पूछे गए। सरकार के किसी निर्णय या अन्य घटना पर साक्षात्कार या पत्रकार वार्ता की जगह उनका बयान आ जाता था और वह मीडिया की सुर्खियां बनता था। पूरे दस वर्ष ऐसे ही चला। सोनिया गांधी की चर्चा इसलिए क्योंकि वो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष थीं जिनके सुझाव यूपीए सरकार के लिए आदेश के समान होते थे। प्रधानमंत्री न होते हुए भी वो सुपर प्रधानमंत्री की भूमिका में थीं। राहुल के एक साक्षात्कार में तो उनके पेट का हालचाल तथा खानपान पूछा गया। तब उन पत्रकारों पर कोई प्रश्न नहीं उठा।

नरेन्द्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री पत्रकार वार्ता नहीं की। मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल में पांच पत्रकार वार्तायें की थीं। मोदी को पत्रकार वार्ता करनी चाहिए थी। पता नहीं क्यों वो पत्रकार वार्ता से बच रहे है। गुजरात में राष्ट्रीय चैनलों और प्रिंट के पत्रकारों के साथ उनका कड़ाव अनुभव शायद आड़े है। इससे उन्हें बाहर आना चाहिए था। किंतु जरा पत्रकार वार्ताओं का भी सच जान लीजिए। मनमोहन सिंह के हर पत्रकार वार्ता के पहले मीडिया संस्थानों से पत्रकारों के और उनके प्रश्न मंगाए जाते थे। प्रधानमंत्री कार्यालय उन प्रश्नों में से चयन करता था और उनके अनुसर पत्रकारों का क्रम निर्धारित होता था। पत्रकार का नाम लिया जाता था और उसके अनुसार प्रश्न आता था। हालांकि दो-चार अतिरिक्त प्रश्न भी हो जाते थे। या कोई पत्रकार अपने मूल प्रश्न में एकाध प्रश्न जोड़ देता था। हमने ऐसे दृश्य देखे जब एकाध असुविधाजनक प्रश्न पर मनमोहन सिंह को कठिनाई हुई तो उनके साथ बैठे मीडिया सलाहकार या दूसरे अधिकारी ने इस पर नाखुशी जाहिर की और प्रश्न को टालकर दूसरे का नाम ले लिया। मोदी सरकार में भी कई मंत्रियों की पत्रकार वार्ता में नाम और प्रश्न मांग लिए जाते हैं। हां, मंत्री जी की कृपा से कुछ ऐसे पत्रकारों को भी प्रश्न पूछने की अनुमति मिल जाती है जो सूचि में नहीं हैं। यह एक विकृत और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति है। किंतु इसके विरोध में मीडिया संस्थानों एवं पत्रकारों को ही खड़ा होना पड़ेगा।  क्या हम ये नहीं कह सकते कि पत्रकार वार्ता करनी है तो हमें प्रश्न पूछने की पूरी आजादी होनी चाहिए? 

इस समय ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो मोदी के साथ सब कुछ पूर्व लिखित पटकथा के अनुसार ही मंचित होता है। यह गलत आरोप है। मोदी ने प्रधानमंत्री के रुप में कई साक्षात्कार दिए हैं जिनमें ऐसे प्रश्न भी पूछे गए जो वाकई पत्रकार के मन से तत्क्षण निकले थे। अधिकतर टीवी संस्थानों से लेकर प्रिंट के प्रमुख अखबारों से उन्होंने बातचीत की है। उन्होंने कई अखबारों को ईमेल प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। हम यह मान लें कि जिनने मोदी का साक्षात्कार लिया सब सत्ता के सामने झुके हुए या मोदी की चापलूसी करने वाले पत्रकार थे तो इसका कोई तार्किक जवाब देने की आवश्यकता नहीं। किसी पत्रकार का नाम लेना उचित नहीं, अन्यथा इनका भी सप्रमाण चरित्र चित्रण किया जा सकता है। मोदी का तरीका यह है कि वो पत्रकार के साथ साक्षात्कार लेने के पहले औपचारिक नहीं रहते जैसे मनमोहन सिंह रहते थे। बातचीत कर पत्रकार को सहज संबंध की अवस्था में ले आते हैं। उनका हालचाल पूछते हैं, कुछ समस्यायें हैं तो उनकी जानकारी लेते हैं। इसका असर पत्रकार पर हो सकता है। वर्तमान साक्षात्कार को लेकर इतना नकारात्मक और विवाद का माहौल केवल मोदी के प्रति व्याप्त घृणा की परिणति है। प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए जवाबों से सहमति-असहमति हो सकती है जिसे प्रकट करने का सबको अधिकार है। उसका तार्किक और तथ्यात्मक विरोध करने तो कोई समस्या ही नहीं है। पर मोदी साक्षात्कार दें, कोई वक्तव्य दें वो सब केवल अभिनय है, जिस पत्रकार को साक्षात्कार का अवसर मिल गया वह गिरा और बिका हुआ है ऐसी ओछी मानसिकता रखने से हम कभी निष्पक्ष आकलन नहीं कर सकते। ऐसा करने वाले हैं कौन उनके चेहरे देखिए, थोड़ी पृष्ठभूमि खंगालिए, सच सामने आ जाएगा।

मोदी या किसी भी मंत्री या नेता को इतना अधिकार मिलना चाहिए कि अगर वो कुछ बात करना चाहते हैं तो वो इसका चयन करें कि किस संस्था और पत्रकार से करेंगे। ऐसा पहले से होता रहा है। मूल बात होती है उसमें उन्होंने कहा क्या। इस साक्षात्कार में मुख्यतः चार बातों पर देश को कुछ नया सुनने को मिला- सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, रिजर्व बैंक के गवर्नर का इस्तीफा एवं राममंदिर निर्माण। सर्जिकल स्ट्राइक की जो विस्तृत कथा उन्होंने बताई उसमें कुछ अंश नये थे और यह देश को जानना जरुरी था। नोटबंदी को भी उन्होंने झटका न मानकर इसका थोड़ा नया विश्लेषण किया। इसी तरह उर्जित पटेल के इस्तीफा पर उन्होंने कहा कि वो छः महीना पहले से उनसे मुक्त करने की मांग कर रहे थे। प्रधानमंत्री ने उनके कार्यों की प्रशंस भी की। इस पर यकीनन काउंटर प्रश्न बनता था। किंतु पत्रकार नहीं पूछ पाई तो उनकी कमजोरी हो सकती है, इसके लिए उसे बिका हुआ कहना उचित नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात मंदिर निर्माण पर थी। प्रधानमंत्री ने कहा कि न्यायालय की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही सरकार कोई कदम उठा सकती है। साक्षात्कार से यह तो सामने आया कि प्रधानंमंत्री मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं लेकिन वो उच्चतम न्यायालय का सम्मान बचाए रखकर ही कदम उठाना चाहते हैं। हालांकि भाजपा के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून में उच्चतम न्यायालय द्वारा परिवर्तन को संसद में पलटना बना है। इस विषय पर कुछ सामने आया  ही नहीं। इन पर बहस करने की जगह साक्षात्कार को नाटक और पत्रकार को उसका पात्र बनाने वाले अपने को ही छोटा साबित कर रहे हैं। कौन पत्रकार है जिसे प्रधानमंत्री या कोई मंत्री बात करने के लिए बुलाए और वह तैयार नहीं होगा?

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

इतनी बड़ी आतंकवादी साजिश से बचा देश

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए), दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा तथा उत्तर प्रदेश आतंकवाद निरोधी दस्ते या एटीएस ने राजधानी दिल्ली से उत्तर प्रदेश तक छापा मारकर जो कुछ सामने लाया है उसका सच यही है कि भारत अनेक आतंकवादी हमलों से बचा लिया गया है। ये तैयारी के अंतिम चरण में थे। सबके पास हथियार पहुंचने के पहले ही ये पकड़ में आ गए इसलिए इनकी साजिशें सफल नहीं हुई। किंतु कुछ बुद्धिजीवियों और सक्रियतावादियों की नजर में यह पूरी कार्रवाई ही फर्जी है। एनआईए, उत्तर प्रदेश पुलिस तथा दिल्ली पुलिस इतनी नकारा है कि बिना किसी सबूत के 26 स्थानों पर छापा मारेगी? क्या वे इतने गैर जिम्मेवार हैं कि बिना किसी आधार के 10 लोगें को आतंकवादी होने के संदेह में गिरफ्तार कर लेंगे? पहले इनने 16 लोगों को पकड़ा था जिनमे से पूछताछ के बाद छः को छोड़ दिया गया। सच यही है कि छापेमारी कर आतंकवादी संगठन आईएसआईएस से प्रेरित जिस मॉड्यूल का पर्दाफाश किया है उसे सुरक्षा ऑपरेशनों के इतिहास की एक बड़ी सफलता के रुप में याद किया जाएगा। छापेमारी दिल्ली, मेरठ, अमरोहा, लखनऊ और हापुड़ में हुई। पिछले कुछ दिनों से सुरक्षा एजेंसियों के रडार पर इनमें से कुछ लोग थे। जैसा एनआईए के आईजी आलोक मित्तल ने बताया ये मॉड्यूल 4 महीने से तैयार हो रहा था। इसकी जानकारी थी और 20 दिसंबर को ही इस मामले में कई धराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया जा चुका था।

गिरफ्तार हुए लोगों में सब साधरण परिवार एवं व्यवसाय से हैं। इनके साधारण होने के नाम पर छापा एवं गिरफ्तारी का उपहास उड़ाने वाले एवं विरोध करने वाले जरा बरामद सामग्रियों पर एक नजर डाल लें। छापेमारी में बड़ी संख्या में विस्फोटक, सुसाइड जैकेट, रिमोट कंट्रोल, एक देसी रॉकेट लॉंचर, 25 पिस्तौल, 100 मोबाइल फोन, 135 सिम कार्ड, लैपटॉप, 120 अलार्म घड़ियां,150 राउंड गोला-बारूद, करीब 25 किलोग्राम बम बनाने की सामग्री , पोटैशियम नाइट्रेट, पोटैशियम क्लोरेट,  सल्फर बरामद हुआ है। इनके पास से स्टील पाइप भी मिले हैं, जिसका पाइप बम बनाने में प्रयोग होता है। तलवारें भी मिलीं हैं। ये सारी सामग्रियां देश में शांति फैलाने में प्रयोग तो हो नहीं सकती थी। सर्वसामान्य ही नहीं, सुरक्षा स्थितियों को बेहतर तरीके से समझने वाले का भी कलेजा धड़क गया है। अगर ये न पकड़े जाते तो पता नहीं कहां-कहां खून और विध्वंस का खेल खेला जाता इसकी कल्पना से सिहरन पैदा हो जाती है। हाल के वर्षों में आतंकवादी इन्हीं सामग्रियों का उपयोग कर विस्फोट करते रहे हैं।

गहराई से विचार करें तो साफ दिखाई देगा कि इनकी साजिशों में आत्मघाती विस्फोट भी शामिल था। बुलेट प्रूफ सुसाइड जैकेट का इस्तेमाल आत्मघाती हमलों के लिए किया जाता है। वे रिमोट कंट्रोल बम भी बना रहे थे और आत्मघाती दस्ता तैयार कर रहे थे। दिल्ली में आतंकवादियों की टीम अगले कुछ दिनों में कई जगहों पर सिलसिलेवार बम धमाका या आत्मघाती हमले करने की तैयारी कर रहा था। ये आतंकवादी भीड़-भाड़ वाली जगहों, महत्वपूर्ण कार्यालयों और नेताओं पर आत्मघाती हमले की साजिश रच रहे थे। इनसे पूछताछ में हुए खुलासे के अनुसार दिल्ली पुलिस मुख्यालय, झंडेवालान में केशवकुंज स्थित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्यालय और कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति तथा महत्वपूर्ण स्थल उनके निशाने पर थे। इन्होंने दक्षिणी दिल्ली तथा नई दिल्ली के भीड़भाड़ वाले कुछ बाजारों की रेकी भी की थी। राजधानी में मुंबई जैसे हमले की साजिश भी शामिल थी। इन लोगों ने इंटरनेट पर मुंबई हमले और कई अन्य हमलों से संबंधित वीडियो भी कई बार देखी थी। जैसा मित्तल ने कहा ये तैयारियों के अंतिम चरण के करीब थे। वे लोग बम बनाने में सफलता मिलने का इंतजार कर रहे थे और रिमोट नियंत्रित आईईडी और पाइप बम के जरिए विभिन्न जगहों पर विस्फोट करना चाहते थे। दिल्ली के जाफराबाद से पकड़े गए संदिग्ध अनस के मोबाइल चैट से यह भी सामने आया है कि ये 29 नवंबर को अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि पर आत्मघाती आतंकवादी हमला करना चाहते थे जिसे अंजाम नहीं दे पाए। एनआईए को जो वीडियो मिले हैं उसमें ये आतंकवादी टाइम बम बनाते देखे जा सकते हैं। इस वीडियो में जो आवाज है वो भी सोहेल की है। सोहेल को ही इस मॉड्यूल का प्रमुख माना गया है।

 इतना सब कुछ सामने आने के बाद भी यदि किसी को यह कपोल कल्पित लगता है तो वैसे लोगों को क्या कहा जाए यह आप तय कर लीजिए। अब इनके संगठन को समझ लीजिए। यह आईएस से प्रभावित विदेश के कुछ आतंकवादियों से संपर्क में रहने वाला समूह है जिसका नाम हरकत-उल-हर्ब-ए-इस्लाम है।. इसका सामान्य अर्थ है, इस्लाम के हितों के लिए लड़ाई करना। उत्तर प्रदेशं विधानसभा चुनावों के दौरान कानपुर में आतंकवादियों का एक खोरासान मॉड्यूल सामने आया था। आईएस ने दुनिया में इस्लामी साम्राज्य का जो नक्शा तैयार किया था उसमें भारत का पश्चिमी भाग शामिल था और उसे खुरासान नाम दिया था। ठीक उसी के तौर-तरीके पर हरकत उल हर्ब ए इस्लाम भी काम कर रहा है। नेटवर्किंग के जरिए हरकत उल हर्ब-ए-इस्लाम आम लोगों को आतंकवादी संगठन का साथ देने के लिए कई तरीकों से प्रभावित करता है। आईएस अपने मुख्य केन्द्र इराक एवं सीरिया में पराजित किया जा चुका है लेकिन वह खत्म नहीं हुआ है। उसके जेहाद के विचार से प्रभावित अलग-अलग नामों से संगठन आतंकवाद को अंजाम देते रहे हैं।

पकड़े गए संदिग्ध आतंकवादियों पर नजर डाल लें तो स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी। हरकत उल हर्ब-ए-इस्लाम संगठन का अमीर 29 वर्षीय मुफ्ती मोहम्मद सोहैल उर्फ हजरात मूलरूप से उत्तर प्रदेश के अमरोहा का रहने वाला है। लेकिन वह पूरे परिवार के साथ दिल्ली के जाफराबाद में लंबे समय से रह रहा था। सुहैल ने मदसरता जामा मस्जिद अमरोहा और देवबंद के किसी मदरसे में पढ़ाई की है। अमरोहा में वह कम आता था। किंतु हाल के दिनों में अमरोहा ही उसका केन्द्र हो गया था। इस समय वहा अमरोहा में हकीम महताबउद्दीन मदरसे में बतौर मुफ्ती का काम कर रहा था। पूछताछ में पता चला कि किसी विदेशी आतंकवादी के निर्देशन में वह नेटवर्क संचालित करता था। दिल्ली के अनस ने अपने घर से 5 लाख का सोना चोरी किया था, जिसे बेचकर हथियार खरीदे गए। अनस यूनुस एमिटी यूनिवर्सिटी से सिविल इंजीनियरिंग कर रहा है। वह इलेक्ट्रिकल सामान जुटाकर बम और रॉकेट लॉन्चर बनाने की तैयारी कर रहा था। तीसरा राशिद ज़फ़र है जो गारमेंट के कारोबार में है और जाफराबाद का रहने वाला है। चौथा सईद अमरोहा का रहने वाला है और बेल्डिंग की दुकान चलाता है। पांचवा सईद का ही भाई रईस अहमद है जो दूसरी शॉप चलाता है। इन दोनों भाइयों ने बड़ी मात्रा में केमिकल और बम बनाने का सामान इकट्ठा किया था। छठवां जुबेर मालिक है जो दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष का छात्र है। सातवां जुबेर का भाई ज़ैद मालिक है। वह फ़र्ज़ी दस्तावेजों पर सिम कार्ड, बैटरी, कनेक्टर्स इकट्ठा कर रहा था। आठवां इफ्तिखार हापुड़ का रहने वाला है और एक मस्जिद में इमाम है। उसने सुहैल को हथियार मुहैया करवाने में मदद की थी।

ये सभी लोग विदेश में बैठे एक हैंडलर के संपर्क में थे। दो ऑनलाइन हैंडलरों ने विदेश से संगठन के लोगों को बम, टाइमर और रिमोट कंट्रोल बम बनाना सिखाया। जो लोग कह रहे हैं कि एक बेल्डिंग करने वाले का आतंकवाद से क्या लेना-देना वे जरा इसे समझ लें। चूंकि बम बनाने के लिए वेल्डर की जरूरत होती है, इसलिए अमरोहा के रईस को शामिल किया गया। संगठन ने आतंकवादी हमलों के लिए सारे बम अमरोहा में ही तैयार कराए। इनमें से सिर्फ लांचर बम को ये लोग दिल्ली भेज पाए थे। बाकी बमों की आपूर्ति हमलों के मुताबिक होनी थी। इसके पहले ही ये पकड़ में आ गए। इसमें एक चौंकाने वाला सूत्र लखनउ की महिला है। अभी तक की जानकारी इतनी ही है कि महिला ने अपने जेवर बेचकर संदिग्ध आतंकवादियों को करीब पौने तीन लाख रुपये भिजवाये थे। महिला के साथ उसका बड़ा बेटा (18) दीनी तालीम हासिल कर रहा है, भी संदिग्ध आतंकवदियों के संपर्क में था। वह आठवीं कक्षा तक शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल का छात्र था। महिला ने उसका नाम मदरसे में लिखवाया था। संदिग्ध महिला की कथा पढ़कर यह समझ में आ जाता है कि किस तरह इस्लाम की कट्टरवादिता एक सामान्य घरेलू महिला को जेहादी आतंकवाद के प्रति समर्पित कर देता है। महिला आभूषण बेचकर आतंकवादियों की मदद कर रही थी तो सोचना चाहिए कि हमारे यहां उग्र इस्लामीकरण यानी रैडिकलाइजेशन के लिए किस तरह के तत्व व सामग्रियां उपलब्ध हैं। जाहिर है, ऐसे और भी लोग न जाने कहां-कहां जेहाद की गलत व्याख्या का शिकार होकर आतंकवाद का हथियार बन रहे होंगे। वर्तमान ऑपरेशन को एक बड़ी सफलता स्वीकार कर यह कहना होगा कि हमारे सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकवाद की बड़ी साजिशों को नष्ट किया है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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