शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

सांस्कृतिक समुद्र मंथन के दौर से गुजर रहा है देश

 

अवधेश कुमार

 इन दिनों राजनीति में कुछ ऐसी घटनाएं घट रहीं हैं जिनकी कल्पना कुछ समय पूर्व तक नहीं की जा सकती थी। कौन सोच सकता था कि कांग्रेस के कद्दावर नेता तथा सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी के निकटस्थ गुलाम नबी आजाद को यह कहना पड़ेगा कि पहले चुनावों में हमारी मांग ज्यादा होती थी और यह 95 प्रतिशत हिन्दू भाइयों की तरफ से होता था जो घटकर अब 20 प्रतिशत रह गया है। हालांकि इसे कहने के लिए उन्होंने सर सैयद अहमद के 200 वें जन्म दिन पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम को चुना। वे बता रहे हैं कि पिछले चार वर्षों में भारत का वातावरण ऐसा बदल गया है जिसके बारे में वे कभी सोचते भी नहीं थे। उनके कहने का सार यह था कि समाज में हिन्दू मुसलमान के बीच खाई इतनी बढ़ गई है कि लोग उनको चुनावी सभाओं में बुलाने से इसलिए बचते हैं कि कहीं उनका हिन्दू वोट न खिसक जाए। आजाद की तरह पार्टी में सोचने वाले दूसरे मुसलमान नेता भी हैं किंतु वे सार्वजनिक तौर पर बोलने से बचते हैं। इस समय कांग्रेस पार्टी चुनावों में केवल मुस्लिम नेताओं का ही नहीं वैसे नेताओं का भी इस्तेमाल करने से परहेज कर रही है जिनकी छवि मुस्लिमपरस्त की हो गई है। दिग्विजय सिंह इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। मध्यप्रदेश चुनाव में अपनी उपेक्षा से दुखी होकर उन्हें कहना पड़ा कि पार्टी उनका उपयोग इसलिए नहीं कर रही क्योंकि उनके जाने से वोट कट जाता है।

कांग्रेस के किसी मुस्लिम नेता से आपके निजी रिश्ते हैं तो बात करते ही पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। आपको हिन्दू आतंकवाद पर बयान देने वाले सुशील शिंदे कहीं दिखाई नहीं देंगे। वस्तुतः 2014 की पराजय के बाद ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में बनी समिति ने जो रिपोर्ट सौंपी उसमें साफ कहा गया था कि यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस की हिन्दू विरोधी एवं मुस्लिमपरस्त की छवि बन गई जिसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। दूसरी ओर मुसलमान भी हमें छोड़कर जहां भी अवसर मिला क्षेत्रीय पार्टियों की ओर चले गए। उस समय पार्टी में इस पर जितना मंथन होना चाहिए नहीं हुआ। किंतु जैसे-जैसे कांग्रेस विधानसभा चुनाव हारती गई उसके अंदर यह भय पैदा होता गया कि कहीं हम स्थायी रुप से राजनीति के हाशिए पर न पहुंच जाए। संघ, भाजपा तथा राजनीति के बाहर के हिन्दुत्ववादी सोनिया गांधी को ईसाई के रुप में पेश करते ही है, राहुल गांधी को भी वे कई बार रोमपुत्र कह देते हैं। तो बहुत सोच-समझ इस छवि को तोड़ने की रणनीति बनाई गई। इस दिशा में पहला बड़ा वक्तव्य कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का था जिन्होंने राहुल गांधी की स्व. राजीव गांधी को मुखाग्नि देते समय की तस्वीर को प्रदर्शित करते हुए बताया कि वे न केवल हिन्दू हैं बल्कि जनेउधारी हिन्दू हैं। कांग्रेस के इतिहास में पहली बार अपने नेता के धर्म एवं जाति के बारे में ऐसा वक्तव्य दिया गया। हालांकि राहुल गांधी का कभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ।

राहुल गांधी का चुनावों के दौरान मंदिरों का कैमरे के सामने दौरा, पूरी रीति-रिवाज से पूजा-पाठ करने से लेकर कैलाश मानसरोवर की कठिन यात्रा तथा उसकी पूरी तस्वीर जारी करना आदि हिन्दुत्वनिष्ठ छवि निर्मित करने की ही प्रक्रिया का अंग है। कांग्रेस का मानना है कि इसके बगैर नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा को चुनौती नहीं दी जा सकती। गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को जैसी टक्कर दी उसके कई कारण थे, लेकिन पार्टी का आकलन है कि राहुल गांधी की धर्मनिष्ठ हिन्दू की छवि की उसमें प्रमुख भूमिका थी। पार्टी यह भी मानती है कि अगर ऐसा नहीं किया जाता तो कर्नाटक में ज्यादा दुर्दशा होती एवं भाजपा बहुमत पा जाती। यह सामान्य राजनीतिक रणनीति लग सकती है किंतु भारतीय राजनीति में युगांतकारी बदलाव का आयाम इसमें अंतर्निहित है। यह केवल कांग्रेस की ही बात नहीं है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा गोहत्या बंदी के समर्थन का ट्वीट तथा अंगकोर वाट की तर्ज पर विष्णु मंदिर बनाने का ऐलान सामान्य घटना नहीं है। संभव है एक दिन वो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का भी समर्थन कर दें। देश ने केरल में सीताराम येचुरी को सिर पर यज्ञकलश लिए हुए तस्वीरें मीडिया में देखीं। तेलांगना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव का धार्मिक कर्मकांड तो लगातार चर्चा में है। हिन्दुत्व के खिलाफ आक्रामक दिखने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हिन्दू धार्मिक उत्सवों में मीडिया के कैमरे लेकर जाने को विवश होना पड़ा है। उन्होंने दुर्गा पंडालों को नकद राशि दान करने की भी घोषण कर दी। पूर्वोत्तर का ही नहीं दक्षिण भारत के वायुमंडल में भी आपको हिन्दुत्व का आवेग दिखाई पड़ेगा।

ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे आपको राजनीति की यह नई धारा ठोस रुपाकार ग्रहण करते हुए दिखेगी। इसमें हिन्दुत्व निष्ठ प्रदर्शित करने की छवि मूल में है। राजनीतिक दल भले वोट के भय से ऐसा कर रहे हों, लेकिन इसीसे संभव है भारत अपनी सांस्कृतिक अस्मिता पाने के लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाए। आजादी के दौरान और उसके बाद के नेताओं में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगांे की थी जो मानते थे कि भारतीय संस्कृति का नवनीत अध्यात्म है। यही भारत की आत्मा है और इसके आधार पर इस राष्ट्र के शरीर की स्वाभाविक रचना हो सकती है। किंतु सेक्यूलरवाद की विकृत व्याख्या, हिन्दू वोटों के प्रति निश्चिंता व उसे चुनौती न मिलने तथा मुस्लिम वोटों की अति चिंता ने पूरी राजनीति की दिशा को विकृत कर दिया। जैसे हर व्यक्ति का एक चरित्र होता है वैसे ही राष्ट्र का भी होता है। राष्ट्र को उसके चरित्र के अनुरुप विकसित करने की कोशिश नहीं की गई तो उसमें बहुविध प्रकार की बीमारियां समस्याओं के रुप में खड़ी हो जाती है। यही भारत के साथ हुआ है। समय बीतने के साथ इस देश का सामूहिक मानस यह अनुभव तो करने लगा कि कुछ गलत हो रहा है, वह व्यवस्था के सामने नासमझ होकर भौचक्क खड़ा रहा, उसे समझ नहीं आया कि क्या होना चाहिए लेकिन उससे मुक्ति की छपटपटाहट अंदर हिलोड़े मारने लगीं। सही समझ और दिशा के कारण उसका प्रकटीकरण उस रुप में नहीं हुआ जैसा होना चाहिए। राजनीति के माध्यम से उसने कभी क्षेत्र या राष्ट्र के स्तर पर करवट लेने की कोशिश की, क्षणिक सफलताएं भी मिलीं लेकिन फिर उसे आघात लगा।

यह अपक्रम जारी है। 1990 के दशक में आरंभ अयोध्या आंदोलन ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण को सबसे बड़ा बल दिया लेकिन इसे अनुशासित और दिशायुक्त बनाने में विफलता के कारण हुए बाबरी विध्वंस के साथ यह फिर कमजोर पड़ गया। हालांकि सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान की वेदना खत्म नहीं हुई। 1998-99 में देश ने फिर नेताओं को एक मौका दिया जिसे गंवा दिया गया। फिर एक निराशा। देश ने फिर करवट बदला और 2014 भारतीय राजनीति में इस क्रम का सबसे मुखर परिवर्तन था जिसे पाराडाइम शिफ्ट माना गया। एक बड़ी उम्मीद के साथ नरेन्द्र मोदी सरकार की शुरुआत हुई। आरंभ में देश, विदेश तथा स्वतंत्रता दिवस आदि के अपने भाषणों से उन्होंने इस उम्मीद को बनाए भी रखा। किंतु धीरे-धीरे फिर एक निराशा की स्थिति पैदा हो रही है। वस्तुतः इस राजनीतिक सफलता का मर्म सही तरीके से समझने में भाजपा के नेता भी सफल नहीं रहे हैं। 2014 का चुनाव परिणाम सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सामूहिक राजनीतिक प्रस्फुटन था। किंतु उसका एक सकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि अन्य दलों को लग गया है कि अब हिन्दुओं को नजरअंदाज करके राजनीति नहीं की जा सकती। अगर हिन्दुओं में एकजुटता आ गई तो वे हमें पछाड़ सकते हैं। आखिर लोकसभा की 87 ऐसी सीटंें, जिन पर मुस्लिम निर्णायक माने जाते हैं उनमें से 2014 में 43 भाजपा ने जीत ली। तो यह जो भाव पैदा हुआ है वह राजनीतिक लाभ हानि के ईद-गिर्द सिमटा दिखते हुए भी ऐतिहासिक है। सच कहा जाए तो भारत पिछले करीब तीन दशक से सांस्कृतिक समुद्रमंथन के दौर से गुजर रहा है। इसमें अमृत और विष दोनों निकल रहे हैं। इसका रास्ता यह नहीं है कि मुस्लिम नेताओं को महत्वहीन कर दें। वस्तुतः राजनीतिक दल अपनी छोटी दृष्टि के कारण इसकी अपने अनुसार व्याख्या कर रहे हैं। किंतु अंतिम रुप मंें इसका परिणाम देश के लिए अच्छा होगा। भले इसमें अभी समय लगे। हो सकता है इस मंथन में आने वाले समय में आज के कई दल ही अप्रासंगिक हो जाएं। वास्तव में जो दल सांस्कृतिक करवट लेने की इस अंतर्धारा को सही तरीके से समझकर अपनी नीतियां नहीं बनाएगा वह अपने आप बहाकर किनारे कर दिया जाएगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

कश्मीर में आतंकवाद की इस प्रवृत्ति को ध्वस्त करना होगा

 

अवधेश कुमार

जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों का मारा जाना सामान्य घटनाएं होती हैं। किंतु कई बार ऐसे आतंकवादी मारे जाते हैं जिनका संकेत और संदेह बहुत बड़ा होता है। हाल में कुपवाड़ा के हंदवाड़ा में हिज्बुल मुजाहिदीन के 3 आतंकवादियों को मारा जाना ऐसी ही बड़ी घटना है। इसमें हिज्बुल का स्थानीय कमांडर मन्नान वशीर वानी भी शामिल था। मन्नान का मारा जाना लगभग वैसा ही है जैसा जुलाई 2016 में बुरहान वानी का खात्मा था। बुरहान वानी जिस तरह भटके कश्मीरी युवाओं के अंदर आतंकवाद के प्रति रोमांच पैदा करता था मन्नान भी वही स्थान ग्रहण करता जा रहा था। मन्नान आतंकवादी बनकर हथियार उठाने के पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भूगर्भशास्त्र में पीएचडी कर रहा था। बुरहान वानी इतना पढ़ा लिखा नहीं था इसलिए वह विचारों से उस तरह युवाओं को जेहाद के नाम पर प्रभावित नहीं कर सकता था जिस तरह मन्नान कर रहा था। इस्लाम की वहाबी विचारधारा का मन्नान ने गहरा अध्ययन किया थां। वास्तव में अपने अध्ययन और सोच के कारण वह स्थानीय युवाओं को आतंकवादी बनाने का सबसे बड़ा केन्द्रक हो चुका था। बिना पढ़ा लिखा आतंकवादी तो केवल संघर्ष कर सकता है लेकिन मन्नान वानी जैसा आतंकवादी विचार प्रक्रिया पर हाबी होकर उसे आतंकवादी बना देता है।

हालांकि आरंभ में हिज्बुल ने उसे कुपवाड़ा का ही कमांडर बनाया था लेकिन वह कुपवाड़ा के साथ दक्षिण कश्मीर के ही कुलगाम, पुलवामा और शोपियां में भी सक्रिय था एवं आतंकवादियों की भर्तियां कर रहा था। वह कश्मीर शरियत की बहाली का कट्टर समर्थक था। आतंकवादी बनने के बाद मनान वानी ने कश्मीर में जिहाद को सही ठहराते हुए सोशल मीडिया पर कई लेख लिखे। आप उसको पढ़ेंगे तो उसमें कश्मीर के हालात, इस्लाम और जिहाद पर ऐसी बातें लिखी हुईं हैं कि जिससे कश्मीर के मुस्लिम युवा आसानी से प्रभावित हो सकते हैं। सोशल मीडिया पर इसके पहले किसी आतंकवादी ने इस तरह के लेख नहीं लिखे थे। मारे जाने से करीब पंद्रह दिन पहले भी उसका एक लेख सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। सोशल मीडिया पर अंडर बैरेल ग्रेनेड लांचर लिए हुए उसकी तस्वीरें तथा उसके साथ इस तरह का विचार भारत एवं कश्मीर की व्यापक समझ न रखने वाले मुस्लिम युवाओं के लिए आतंकवादी बनने को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त थे। हालांकि वह ज्यादा दिन पहले आतंकवादी नहीं बना था। 4 जनवरी 2018 तक उसका परिवार से फोन पर बातचीत हो रहा था। उसके बाद उसने फोन बंद कर दिया था। माना जा सकता है कि 5 जनवरी से वह पूर्ण आतंकवादी बन गया था। इस तरह उसके आतंकवादी यात्रा केवल नौ महीने चली। हाल के महीनों में सुरक्षा बलों की सुनियोजित रणनीति एवं चुस्ती के कारण आतंकवादियों की औसत आयु इससे भी कम हो गई है। वानी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगता है कि जैसे ही यह सूचना फैली कि सुरक्षा बलों ने उसे घेर लिया है भारी संख्या में लोग उसकी ढाल बनने निकल पड़े। सुरक्षा बलों पर पत्थरांे से हमले हुए, उनको हर तरह से रोकने की कोशिशें हुईं। सुरक्षा बलों को बड़ी कवायद करनी पड़ी। उन्हें दोनों तरफ संघर्ष करना पड़ा। यही नहीं उसकी मौत के बाद अलगाववादियों के सांझा मंच ज्वाइंट रजिस्टेंस लीडरशिप (जेआरएल) ने 12 अक्टूबर को कश्मीर बंद भी आयोजित किया।

स्थानीय पढ़े लिखे युवाओं का आतंकवादी बनने की प्रवृति गंभीर चिंता का विषय है। मन्नान वानी स्वयं भी मेधावी था तथा उसका परिवार भी शिक्षित। उसके पिता बशीर अहमद लेक्चरर हैं और एक भाई इंजीनियर है। उसने वॉटर एन्वायरमेंट एनर्जी एंड सोसाईटी विषय पर आईसेक्टर विश्वविद्यालय भोपाल में हुए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सर्वश्रेष्ठ पत्र प्रस्तुत करने का सम्मान भी अर्जित किया था। इस सम्मेलन में चीन, अमरीका और इंग्लैंड सहित विभिन्न मुल्कों के 400 से ज्यादा लोगों ने भाग लिया था। उसने मानसबल स्थित एक प्रतिष्ठित सैनिक स्कूल से 11वीं और 12वीं की पढ़ाई की थी। वानी को पढ़ाई के दौरान कई पुरस्कार भी मिले। वानी वर्ष 2011 से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) से पढ़ाई कर रहा था, जहां उसने एम. फिल की पढ़ाई पूरी करने के बाद भूविज्ञान से पीएचडी में प्रवेश लिया। आज भी कॉलेज की वेबसाइट पर उसे मिले पुरस्कारों के साथ नाम दर्ज है। ऐसा युवा यदि आतंकवादी बन रहा है तो इसका अर्थ है कि कश्मीर के लोगों के बीच उससे ज्यादा इस्लामी कट्टरपंथ (रैडिकलाइजेशन) फैलाया जा चुका है जिसकी हम कल्पना करते है।  वानी की तरह अनेक युवा आतंकवाद की तरफ इसी कारण जा रहे हैं। वानी के बाद, तहरीक-ए-हुर्रियत के अध्यक्ष मोहम्मद अशरफ सेहराई का बेटा एवं एमबीए का छात्र जुनैद अशरफ सहराई भी आतंकवादी समूह में शामिल होने के लिए गायब हो गया था। बाबा गुलाम शाह बदशाह विश्वविद्यालय के बी.टेक के छात्र ईसा फजली जैसे दूसरे युवकों के आतंकवादी समूह में शामिल होने का पता भी इस वर्ष के आरंभ में ही चला था।

जम्मू-कश्मीर के सोपोर में पिछले 3 अगस्त को मुठभेड़ में मारा गया अल बद्र का आतंकवादी खुर्शीद अहमद मलिक भी काफी मेधावी छात्र था। मारे जाने के बाद सब-इंस्पेक्टर परीक्षा में उसके चयन का परिणाम आया। पिछले साल ही उसका बीटेक पूरा हुआ था। वह 31 जुलाई को घर पर यह कहकर निकला था कि कश्मीर प्रशासनिक सेवा का फॉर्म जमा करने जा रहा है। पता चला कि उसने ऑनलाइन फॉर्म तो जमा किया था, लेकिन घर नहीं लौटा। जाहिर है, उसे भी रैडिकलाइज किया गया था। उसने इंजीनियरिंग के बाद गेट परीक्षा भी पास की थी। आतंकवादी बनने वालों में गांदरबल का युवक रऊफ भी शामिल है जो सरकारी पॉलिटेक्निक में चौथे सेमेस्टर का स्टूडेंट है। भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के जम्मू-कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले एक अधिकारी इनामुल हक का भाई के भाई के आतंकवादी संगठन में शामिल होने की आशंका है। शोपियां जिले के द्रागुद गांव से ताल्लुक रखने वाला और श्रीनगर के एक कॉलेज से यूनानी मेडिसिन सर्जरी की पढ़ाई कर रहा शम्स-उल-हक मेंगनू 26 मई से लापता है। मेंगनू का भाई जम्मू-कश्मीर के बाहर अपनी सेवा दे रहा है। इसी साल अप्रैल में दक्षिण कश्मीर के शोपियां में सेना का एक जवान मीर इदरीश सुल्तान लापता हो गया था। बाद में खबर आई कि वह अन्य दो व्यक्तियों के साथ हिज्बुल मुजाहिदीन में शामिल हो गया है।

जेहाद और आतंकवाद का विचार युवाओं एवं छात्रों में किस तरह फैल रहा है इसका प्रमाण 10 अक्टूबर को जालंघर के एक छात्रावास से मिला। पंजाब पुलिस और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने जालंधर से तीन ऐसे छात्रों को गिरफ्तार किया जिनके संबंध जाकिर मूसा के संगठन अंसार गजवात-उल-हिंद से थे। इंस्टिट्यूट के हॉस्टल के एक कमरे से एक असॉल्ट राइफल समेत दो हथियार और विस्फोटक भी बरामद किए गए। वस्तुतः जेहादी समूहों ने छात्रों का जेहादीकरण करने के लिए ऑपरेशन स्टूडेंट शुरु किया है। इसके तहत कश्मीरी मुस्लिम छात्रों को रेडिकलाइज कर आतंक फैलाने की कोशिश हो रही है। दक्षिण कश्मीर में स्थानीय भर्तियां करने के साथ देश के दूसरे हिस्सों में भी पढ़ाई कर रहे कश्मीरी छात्रों को लक्षित किया जा रहा है। ये समूह ऐसे छात्रों की सूची तैयार करते हें जो कश्मीर के बाहर पढ़ाई कर रहे हैं। आतंकवादी समूहों के साथ उनके जो ओवरग्राउंड कार्यकर्ता है वे उनसे संपर्क कर उनको रैडिकलाइज करने की कोशिश करते हैं। सुरक्षा बलों ने ऐसे अनेक मेल पकड़े हैं जिनकी संवीक्षा से उन तक पहुंचना संभव हो रहा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मन्नान वानी से भी इसी तरीके से संपर्क किया गया। उनको समर्थन भी है तभी तो वानी के मारे जाने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों के एक वर्ग ने नमाज-ए-जनाजा पढ़ने की कोशिश की और उसे रोकने पर अस्वीकार्य नारे लगाए। 

सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार दक्षिण कश्मीर में शोपियां और पुलवामा जिले से ज्यादा युवा आईएसआईएस कश्मीर और असंर-गजवात-उल-हिंद जैसे आतंकवादी संगठनों में शामिल हो रहे हैं। सुरक्षा बलों की मानें तो इस साल अबतक 130 से अधिक स्थानीय युवा आतंकवादी बने। 2017 में इनकी संख्या 126 थी। 2010 के बाद यह सर्वाधिक संख्या है। जम्मू-कश्मीर सीआईडी द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के मुताबिक स्थानीय आतंकवादियों की संख्या में इजाफा हुआ है। निश्चय ही यह स्थिति जम्मू कश्मीर में आतंकवाद से संघर्ष तथा उसके समूल नाश करने के उद्देश्य को कठिन बनाता है। हालांकि सुरक्षा बलों के कारण आतंकवादी लगातार मारे जा रहे हैं किंतु जब तक इनके रैडिकलाइजेशन करने वाला ढांचा ध्वस्त नहीं किया जाता मुन्नान वानी जैसे न जाने कितने मेधावी छात्र आतंकवादी बनने के लिए तैयार होते रहेंगे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः0112483408, 9811027208

 

 

 

 

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

पुनर्विचार के लिए अपील जरुरी

 

अवधेश कुमार

हाल में उच्चतम न्यायालय ने ऐसे कई फैसले दिए हैं जिन पर सघन बहस चल रही है। विवाहेतर यौन संबंधों यानी व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का मामला ऐसा ही है। उच्चतम न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध मानने वाले भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया और कहा कि यह महिलाओं की स्वायत्तता और व्यक्तित्व को ठेस पहुंचाता है।  मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा (सेवानिवृत) की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से 158 साल पुराने इस दंडात्मक प्रावधान को खत्म किया है। यहां तक कह दिया कि इस प्रावधान ने महिलाओं को पतियों की संपत्ति बना दिया था। किंतु ऐसे लोगों की बडी़ संख्या है जो महिलाओं के साथ समानता के अधिकार का न केवल समर्थन करते हैं, बल्कि व्यवहार में उसे जीते भी हैं, उन्होंने भी इस फैसले पर चिंता प्रकट की है। चूंकि मामला उच्चतम न्यायलय का है इसलिए कोई बड़ा व्यक्तित्व सीधे विरोध में नहीं उतरा है, लेकिन वातावरण वैसा ही जैसे समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखने के फैसले के समय था।

इस विषय में आगे बढ़ने से पहले यह देखें कि इन न्यायामूर्तियों ने अपने-अपने फैसले में क्या-क्या कहा है? प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि 497 महिला के सम्मान के खिलाफ है।  महिला को समाज की इच्छा के हिसाब से सोचने को नहीं कहा जा सकता। संविधान की खूबसूरती यही है कि उसमें मैं, मेरा और तुम सभी शामिल हैं। पति कभी भी पत्नी का मालिक नहीं हो सकता है। न्यायमूर्ति एएम खानविलकर ने कहा कि ये पूरी तरह से निजता का मामला है। व्यभिचार अनहैपी मैरिज यानी अप्रसन्न विवाह का केस भी नहीं हो सकता, क्योंकि अगर इसे अपराध मानकर केस करेंगे, तो इसका मतलब दुखी लोगों को सजा देना होगा। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह कानून मनमाना है, महिला की सेक्सुअल च्वॉइस को यानी उसे यौन विकल्प अपनाने से रोकता है। न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन ने कहा कि यह संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन है। पीठ की महिला न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने कहा कि कोई ऐसा कानून जो पत्नी को कमतर आंके, ऐसा भेदभाव संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। एक महिला को समाज की मर्जी के मुताबिक सोचने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

 इन न्यायाधीशों ने यूं ही यह निष्कर्ष भी नहीं दिया है। इसमें दुनिया के अलग-अलग देशों के कानूनों, प्राचीन से लेकर आधुनिक धर्मग्रंथों, संहिताओं आदि को उद्धृत किया गया है। इसमें यहूदी, ईसाई, इस्लाम, हिन्दू...आदि सभी धर्मों का हवाला है। यह भी बताया गया है कि अंग्रेजों के समय भी लॉड मैकाले ने भारतीय दंड संहिता के पहले दस्तावेज में व्यभिचार को एक दंडनीय अपराध बनाने से इनकार कर दिया था। न्यायपीठ ने जिस पृष्ठभूमि में इस कानून को लागू किया गया उसे भी साफ किया है। इसके अनुसार 1860 में जब भारतीय दंड संहिता लागू हुई तो एक बड़ी आबादी खासकर हिंदुओं में तलाक को लेकर कोई कानून नहीं था क्योंकि शादी को एक संस्कार माना जाता था। इसके अलावा 1955 तक एक हिंदू पुरुष को कई महिलाओं से शादी करने की आजादी थी। उस समय व्यभिचार तलाक का आधार नहीं हो सकता था, क्योंकि तलाक के कानून ही नहीं थे एवं एक हिंदू पुरुष को कई पत्नियां रखने का अधिकार था। ऐसे में किसी विवाहित पुरुष को अविवाहित महिला के साथ शारीरिक संबंध के लिए अपराधी नहीं ठहराया जा सकता था क्योंकि वह पुरुष जब चाहे उस महिला के साथ शादी कर सकता था। हालांकि सच यही है कि हिन्दू समाज में पुरुषों का बहुविवाह कभी भी आम प्रचलन नहीं रहा। इतिहास में बहुपत्नियों के उदाहरण हैं, लेकिन अत्यंत कम। वैसे इस पुराने कानून के दो मूलभूत आधार अब खत्म हो चुके हैं। 1955-56 के बाद हिंदू कोड लागू हो गया, जिसके तहत एक हिंदू पुरुष केवल एक ही औरत से शादी कर सकता है। हिन्दुओं के लिए भी तलाक का कानून बन गया और व्यभिचार को हिंदू कानूनों में तलाक का आधार भी बना दिया गया।

 अब यहां इस कानून को समझना जरुरी है। धारा-497 के तहत अगर कोई शादीशुदा पुरुष किसी अन्य शादीशुदा महिला के साथ आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बनाता तो केवल उक्त महिला का पति एडल्टरी (व्यभिचार) के नाम पर उस पुरुष के खिलाफ केस दर्ज करा सकता था।  वह व्यक्ति अपनी पत्नी के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकता था और न ही विवाहेतर संबंध में लिप्त पुरुष की पत्नी इस दूसरी महिला के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकती थी। धारा 497 केवल उस पुरुष को अपराधी मानती थी, जिसके किसी और की पत्नी के साथ संबंध हों । पुरुष के लिए पांच साल की सजा का प्रावधान भी था। कोई पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, लेकिन उसके पति की सहमति नहीं लेता है, तो वह अपराधी हो लेकिन जब पति किसी दूसरी महिला के साथ संबंध बनाता है, तो उसे अपनी पत्नी की सहमति की कोई जरूरत नहीं है। निष्कर्ष यह निकाला गया कि महिला के पति को ही शिकायत का हक होना कहीं न कहीं महिला को पति की संपत्ति जैसा दर्शाता है किंतु इसमें अगर पत्नी को मामला दर्ज करने का अधिकार नहीं था तो उसे विवाहेतर यौन संबंधों पर आपराधिक मामला का सामना करने से ही वंचित रखा गया। इस नाते इसे केवल महिलाओं के खिलाफ मानना शत-प्रतिशत सही नहीं लगता। दूसरे, अगर व्यभिचार अपराध नहीं माना जाएगा तो पति अपनी महिला दोस्त के साथ पत्नी की जानकारी में भी संबंध बनाए तो वह उस महिला के पति के माध्यम से भी मामला दर्ज नहीं करा सकती। और तलाक? तो जो पुरुष ऐसा करेगा वह तो शायद पत्नी से पिंड छुड़ाने की तैयारी कर चुका होगा। तो समस्या महिला के साथ भी खड़ी होगी।

ध्यान रखिए, इस मामले के याचिकाकर्ता केरल के अनिवासी भारतीय जोसेफ साइन ने धारा-497 को चुनौती देते हुए कहा था कि कानून लैंगिक दृष्टि से तटस्थ होता है लेकिन इसके प्रावधान पुरुषों के साथ भेदभाव करता है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14 (समता के अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग, भाषा अथवा जन्म स्थल के आधार पर विभेद नहीं) और अनुच्छेद 21 (दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन होता है। इसे लैंगिक तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) करने का संविधान पीठ से अनुरोध किया गया था ताकि विवाहेतर संबंध रखने वाले महिला और पुरुष दोनों को अपराध की परिधि में लाया जा सके। यही होना चाहिए। ठीक है कि इस कानून का अत्यंत ही कम उपयोग हुआ है। किंतु कानून का रहना भी कई बार आपराधिक मनोवृत्तियों के निरोध का कारण बनता है। कानून को रद्द करने का संदेश यह जा रहा है कि अब विवाहेतर यौन संबधों को पूरी आजादी मिल गई है। कोई व्यभिचारी पति या पत्नी किसी के साथ कभी भी यौन संबंध बना सकता-सकती है और इनके खिलाफ पुलिस कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकती। ऐसी यौन स्वच्छंदता भारतीय समाज के लिए कितना विघटनकारी हो सकता है इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है। भारत में विवाह आज भी एक संस्कार है। पति-पत्नी का संबंध प्रेम, विश्वास और सहकार का अनुपम उदाहरण है। समाज को सशक्त करने वाली ईकाई परिवार का यही सबसे मजबूत स्तंभ है। यदि यह स्तंभ टूट गया तो केवल यौन स्वैच्छाचार को ही प्रोत्साहन नहीं मिलेगा, परिवार विघटन की शुरूआत होगी। तो भारत बचेगा कहां। समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करना तथा धारा 497 को निरस्त करने से यही भय पैदा हो रहा है।  

 हालांकि फैसले में ही कुछ बातें कही गईं हैं। जैसे यह तलाक का आधार तो बन सकता है लेकिन अपराध नहीं। अगर इस वजह से पार्टनर खुदकुशी कर ले खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला माना जा सकता है। कोई व्यवहार शादी टूटने का आधार बन सकता है, आत्महत्या का कारण बन सकता है लेकिन उस कृत्य को अपराध नहीं माना जाएगा...इस व्यवस्था पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसलिए जरुरी है कि विवोहतर संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर रखने के वर्तमान तथा समलैंगिकता को भी मान्य कर देने के फैसले के विरुद्ध अलग-अलग पुनर्विचार याचिकाएं डाली जाएं। फैसले में स्वयं दीपक मिश्रा ने कहा है कि व्यभिचार को अभी भी नैतिक रूप से गलत माना जाएगा। घरों को तोड़ने के लिए कोई सामाजिक लाइसेंस नहीं मिल सकता। हम मानते हैं कि हमारा समाज कानून से ज्यादा सांस्कृतिक धाराओं से घनीभूत हुई नैतिकता, पवित्रता, धार्मिकता आदि से संचालित होता है। यहां आपसी रिश्ते कानून से नहीं भावनाओं और सदियों से चली आ रही सामाजिक दायित्व बोध से कायम रहते हैं। किंतु कानून से इन सबको मुक्त करने का भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव होगा और वह नकारात्मक ही होगा।

अवधेश कुमार, ईः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

वर्तमान फैसले से अयोध्या विवाद के शीघ्र निपटारे का रास्ता बना

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि मस्जिद नमाज अदा करने के लिए जरूरी नहीं है। न्यायलय के लिए इसे स्पष्ट करना इसलिए आवश्यक था क्योंकि इसके बाद ही मुख्य मामला आगे बढ़ता। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति अशोक भूषण तथा न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ ने 2-1 के बहुमत के फैसले में कहा है कि मस्जिद ही इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। जम इस्लाम का ही अभिन्न अंग नहीं है को नमाज अदा करने के लिए भी जरुरी नहीं है। न्यायमूर्ति नजीर ने अलग राय व्यक्त की लेकिन बहुमत का फैसला ही मान्य होता है। यह बहुत बड़ा फैसला है। हालांकि 1994 में उच्चतम न्यायालय का पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस पर फैसला दे चुका था लेकिन चूंकि इसे फिर से उठा दिया गया इसलिए इसका दोबारा निर्णय करना आवश्यक हो गया था। अगर उच्चतम न्यायालय का निर्णय इसके विपरीत आता यानी वह कहता कि इस्लाम का मस्जिद से रिश्ता अटूट है और नमाज पढ़ने के लिए यह जरुरी है तो एक बड़ा बवंडर खड़ा हो जाता। अयोध्या विवाद के बाबरी पक्ष ने 24 वर्ष पहले यह मामला उठाया ही इसलिए था ताकि हिन्दू जिस तरह विवादित स्थल पर पूजा करते हैं उसी तरह उन्हें भी नमाज अदा करने की इजाजत मिल जाए। न्यायालय ने तब भी इसकी गहन सुनवाई की और इस्लाम की मजहबी पुस्तकों एवं विद्वानों को उद्धृत करते हुए साफ कर दिया कि नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद आवश्यक नहीं है। प्रश्न है कि फिर इसे क्यों उठाया गया?

दरअसल, एक पक्ष मामले को लंबा खींचना चाहता है। उसके लिए इसे कानूनी दांव-पेच में उलझाना जरुरी है। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला सुनाया था। अपने आदेश में बेंच ने 2.77 एकड़ की विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बांटा था। राम मूर्ति वाले पहले हिस्से में राम लला को विराजमान कर दिया। राम चबूतरा और सीता रसोई वाले दूसरे हिस्से को निर्मोही अखाड़े को दिया और बाकी बचे हुए हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को। इस फैसले को सभी पक्षकारों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इनको स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाकर यथास्थिति बहाल कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा कि मामले का फैसला आस्था के अनुसार नहीं बल्कि तथ्यों के आधार पर होगा। बाबरी पक्ष के लोग यह तर्क तो देते हैं कि उच्चतम न्यायालय ने इसे दीवानी मामला माना है और यह सही है लेकिन वे इस आस्था का प्रश्न भी बना देते हैं। नमाज और मस्जिद का रिश्ता वाला पेच ऐसा ही था।

5 दिसंबर 2017 को अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू हुई थी। बाबरी पक्षकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि नमाज अदा करना धार्मिक कर्मकांड है और मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह इस्लाम का अभिन्न अंग है। उन्होंने ही प्रश्न उठाया कि क्या मुस्लिम के लिए मस्जिद में नमाज पढ़ना जरूरी नहीं है? इसका जवाब यह कहते हुए दिया कि उच्चतम न्ययालय ने 1994 में दिए फैसले में कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। उनके अनुसार नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग है और यह जरुरी धार्मिक गतिविधि है तो 1994 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। उनका कहना था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला भी 1994 के फैसले के आलोक में था। मामले को फिर से संविधान पीठ के पास भेजने की मांग की गई। इससे मुख्य मामले की सुनवाई रुक गई। इसके साथ उस फैसले के खिलाफ 13 याचिकाएं न्यायालय के समक्ष डालीं गईं। कोई भी समझ सकता है कि इसके पीछे मामले में शीघ्र न्याय के रास्ते डालने की ही रणनीति मुख्य थी। पीठ द्वारा यह कहने के बाद कि इसे संविधान पीठ को सौंपने की आवश्यकता नहीं है यह अध्याय समाप्त हो गया है।

वास्तव में 6 दिसंबर 1992 को विवादास्पद ढांच ध्वस्त किए जाने के बाद केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर उस जगह का अधिग्रहण कर लिया था। हालांकि अधिग्रहण के बावजूद हिन्दुओं के पूजा पाठ पर कोई रोक नहीं लगाई गई। इसी के खिलाफ याचिका डाली गई कि मस्जिद का अधिग्रहण किया ही नहीं जा सकता। यह मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों पर कुठाराघात है, क्योंकि इससे हमारा नमाज पढ़ने का हक खत्म हो जाता है। यह अलग बात है कि वहां नमाज कब पढ़ा गया इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जबकि लगातार पूजा पाठ के साक्षात प्रमाण हैं। उस समय उच्चतम न्यायालय ने न केवल अयोध्या विवाद, रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद के महत्व, मस्जिदों के निर्माण के इतिहास, इस्लाम के इतिहास, नमाज के नियम, उन पर कुरान शरीफ सहित अलग-अलग पुस्तकों की राय आदि का अध्ययन कर निष्कर्ष दिया कि नमाज के लिए कहीं भी मस्जिद अनिवार्य नहीं किया गया है। यही सच भी है मस्जिद निर्माण बहुत बाद में आरंभ हुआ। पांच वक्त नमाज अदा करने वाले हर समय मस्जिद जाते नहीं। हां, जमात के साथ नमाज अदा करने के लिए कोई एक जगह चाहिए, उसमें वजु करने यानी अपने को पवित्र करने आदि की व्यवस्था चाहिए इसलिए मस्जिदों का निर्माण हुआ। किंतु मस्जिद केवल एक भवन ही है। हिन्दू मन्दिरों की तरह किसी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती कि उनकी पूजा वहीं की जाए। वैसे हिन्दू धर्म में भी सामान्य पूजा के लिए मंदिर आवश्यक नहीं है। किंतु जैसे द्वादश ज्योर्तिलिंग हैं, 52 शक्तिपीठ हैं, वैसे ही कुछ दूसरे धार्मिक महत्व के स्थापित मंदिर हैं। उनकी पूजा वहीं हो सकती है। नमाज के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने उसी फैसले को फिर से स्पष्ट किया है। इसमें कहा है कि सरकार के पास किसी भी धार्मिक स्थल के अधिग्रहण करने का अधिकार है, वह मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा कुछ भी हो सकता है। हां, यदि वह स्थान किसी विशिष्ट महत्व का हो, जिसके अधिग्रहण से उस विशेष धर्म की धार्मिक गतिविधियों का लोपन होता हो तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। पीठ ने कहा कि तब संविधान पीठ के सामने ऐसा कोई पहलू नहीं आया जिससे साबित हो कि रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद का मस्जिद किसी विशेष महत्व का है, जिसके अधिग्रहण से धार्मिक गतिविधि खत्म हो जाएगी, इसलिए न्यायालय का निष्कर्ष यह है कि इसके अधिग्रहण से संविधान की धारा 25 और 26 में मिले अधिकार का कहीं से उल्लंघन नहीं होता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि संविधान की टिप्पणी अयोध्या कानून 1993 के तहत कुछ निश्चित क्षेत्र के अधिग्रहण के संदर्भ में थी। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि मस्जिद को इस्लाम के धार्मिक व्यवहार का अंग कभी भी माना ही नहीं जाएगा।

न्यायालय की इन टिप्पणियों का पहला निष्कर्ष तो यही है कि अब अयोध्या विवाद को किसी कानूनी पेच में फंसाने की संभावना लगभग खत्म हो गई है। इसका महत्व यह है कि अब न्यायालय 29 अक्टूबर से प्रतिदिन मामले की सुनवाई करके यह निर्णय कर सकेगा कि विवादास्पद स्थान पर किसका कानूनी हक बनता है। बाबरी पक्ष भले उपर से जो कहे लेकिन वे इस फैसले से नाखुश हैं। अधिवक्ता राजीव धवन ने तो फैसले को ही गलत बता दिया। असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि इसे संविधान पीठ के पास भेजा जाना चाहिए था। ये विचित्र और दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियां हैं। वैसे यह तर्क गलत था कि 30 सितंबर 2010 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला 1994 के उच्चतम न्यायालय के फैसले के आलोक में था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला काफी विस्तृत फैसला था। इसमें ऐतिहासिक, खुदाई से प्राप्त पुरातात्विक, धार्मिक आदि सारे सबूतों का विवरण है। हां, उसमें 1994 के फैसले का उद्धरण भी है, पर यह आधार कतई नहीं है। उच्चतम न्यायालय चाहता तो इस दलील को एकबारगी खारिज भी कर सकता था। किंतु ऐसा करने से फिर इनको बाहर प्रश्न उठाने का बहाना मिल जाता। प्रश्न तो आगे भी उठाएंगे किंतु यह किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के गले नहीं उतरेगा। बाबरी पक्ष को भय यही है कि अगर उस स्थान को मुसलमानों के लिए विशेष महत्व का माना ही नहीं गया तो फिर मुख्य फैसला में भी यह पहलू आ सकता है। यह भय उनके अंदर 1994 से ही बना हुआ है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद उनका यह भय और बढ़ा है। वैसे सच तो यही है कि रामजन्मभूमि हिन्दुओं के लिए जितने गहरे धार्मिक महत्व का विषय है, उतना बाबरी इस्लाम की दृष्टि से किसी महत्व का स्थान नहीं हो सकता। बहरहाल, इस बड़े पेच से निकलने के बाद अयोध्या विवाद के फैसले की ऐतिहासिक घड़ी आ रही है।   

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

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