शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

सांस्कृतिक समुद्र मंथन के दौर से गुजर रहा है देश

 

अवधेश कुमार

 इन दिनों राजनीति में कुछ ऐसी घटनाएं घट रहीं हैं जिनकी कल्पना कुछ समय पूर्व तक नहीं की जा सकती थी। कौन सोच सकता था कि कांग्रेस के कद्दावर नेता तथा सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी के निकटस्थ गुलाम नबी आजाद को यह कहना पड़ेगा कि पहले चुनावों में हमारी मांग ज्यादा होती थी और यह 95 प्रतिशत हिन्दू भाइयों की तरफ से होता था जो घटकर अब 20 प्रतिशत रह गया है। हालांकि इसे कहने के लिए उन्होंने सर सैयद अहमद के 200 वें जन्म दिन पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम को चुना। वे बता रहे हैं कि पिछले चार वर्षों में भारत का वातावरण ऐसा बदल गया है जिसके बारे में वे कभी सोचते भी नहीं थे। उनके कहने का सार यह था कि समाज में हिन्दू मुसलमान के बीच खाई इतनी बढ़ गई है कि लोग उनको चुनावी सभाओं में बुलाने से इसलिए बचते हैं कि कहीं उनका हिन्दू वोट न खिसक जाए। आजाद की तरह पार्टी में सोचने वाले दूसरे मुसलमान नेता भी हैं किंतु वे सार्वजनिक तौर पर बोलने से बचते हैं। इस समय कांग्रेस पार्टी चुनावों में केवल मुस्लिम नेताओं का ही नहीं वैसे नेताओं का भी इस्तेमाल करने से परहेज कर रही है जिनकी छवि मुस्लिमपरस्त की हो गई है। दिग्विजय सिंह इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। मध्यप्रदेश चुनाव में अपनी उपेक्षा से दुखी होकर उन्हें कहना पड़ा कि पार्टी उनका उपयोग इसलिए नहीं कर रही क्योंकि उनके जाने से वोट कट जाता है।

कांग्रेस के किसी मुस्लिम नेता से आपके निजी रिश्ते हैं तो बात करते ही पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। आपको हिन्दू आतंकवाद पर बयान देने वाले सुशील शिंदे कहीं दिखाई नहीं देंगे। वस्तुतः 2014 की पराजय के बाद ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में बनी समिति ने जो रिपोर्ट सौंपी उसमें साफ कहा गया था कि यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस की हिन्दू विरोधी एवं मुस्लिमपरस्त की छवि बन गई जिसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। दूसरी ओर मुसलमान भी हमें छोड़कर जहां भी अवसर मिला क्षेत्रीय पार्टियों की ओर चले गए। उस समय पार्टी में इस पर जितना मंथन होना चाहिए नहीं हुआ। किंतु जैसे-जैसे कांग्रेस विधानसभा चुनाव हारती गई उसके अंदर यह भय पैदा होता गया कि कहीं हम स्थायी रुप से राजनीति के हाशिए पर न पहुंच जाए। संघ, भाजपा तथा राजनीति के बाहर के हिन्दुत्ववादी सोनिया गांधी को ईसाई के रुप में पेश करते ही है, राहुल गांधी को भी वे कई बार रोमपुत्र कह देते हैं। तो बहुत सोच-समझ इस छवि को तोड़ने की रणनीति बनाई गई। इस दिशा में पहला बड़ा वक्तव्य कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का था जिन्होंने राहुल गांधी की स्व. राजीव गांधी को मुखाग्नि देते समय की तस्वीर को प्रदर्शित करते हुए बताया कि वे न केवल हिन्दू हैं बल्कि जनेउधारी हिन्दू हैं। कांग्रेस के इतिहास में पहली बार अपने नेता के धर्म एवं जाति के बारे में ऐसा वक्तव्य दिया गया। हालांकि राहुल गांधी का कभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ।

राहुल गांधी का चुनावों के दौरान मंदिरों का कैमरे के सामने दौरा, पूरी रीति-रिवाज से पूजा-पाठ करने से लेकर कैलाश मानसरोवर की कठिन यात्रा तथा उसकी पूरी तस्वीर जारी करना आदि हिन्दुत्वनिष्ठ छवि निर्मित करने की ही प्रक्रिया का अंग है। कांग्रेस का मानना है कि इसके बगैर नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा को चुनौती नहीं दी जा सकती। गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को जैसी टक्कर दी उसके कई कारण थे, लेकिन पार्टी का आकलन है कि राहुल गांधी की धर्मनिष्ठ हिन्दू की छवि की उसमें प्रमुख भूमिका थी। पार्टी यह भी मानती है कि अगर ऐसा नहीं किया जाता तो कर्नाटक में ज्यादा दुर्दशा होती एवं भाजपा बहुमत पा जाती। यह सामान्य राजनीतिक रणनीति लग सकती है किंतु भारतीय राजनीति में युगांतकारी बदलाव का आयाम इसमें अंतर्निहित है। यह केवल कांग्रेस की ही बात नहीं है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा गोहत्या बंदी के समर्थन का ट्वीट तथा अंगकोर वाट की तर्ज पर विष्णु मंदिर बनाने का ऐलान सामान्य घटना नहीं है। संभव है एक दिन वो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का भी समर्थन कर दें। देश ने केरल में सीताराम येचुरी को सिर पर यज्ञकलश लिए हुए तस्वीरें मीडिया में देखीं। तेलांगना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव का धार्मिक कर्मकांड तो लगातार चर्चा में है। हिन्दुत्व के खिलाफ आक्रामक दिखने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हिन्दू धार्मिक उत्सवों में मीडिया के कैमरे लेकर जाने को विवश होना पड़ा है। उन्होंने दुर्गा पंडालों को नकद राशि दान करने की भी घोषण कर दी। पूर्वोत्तर का ही नहीं दक्षिण भारत के वायुमंडल में भी आपको हिन्दुत्व का आवेग दिखाई पड़ेगा।

ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे आपको राजनीति की यह नई धारा ठोस रुपाकार ग्रहण करते हुए दिखेगी। इसमें हिन्दुत्व निष्ठ प्रदर्शित करने की छवि मूल में है। राजनीतिक दल भले वोट के भय से ऐसा कर रहे हों, लेकिन इसीसे संभव है भारत अपनी सांस्कृतिक अस्मिता पाने के लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाए। आजादी के दौरान और उसके बाद के नेताओं में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगांे की थी जो मानते थे कि भारतीय संस्कृति का नवनीत अध्यात्म है। यही भारत की आत्मा है और इसके आधार पर इस राष्ट्र के शरीर की स्वाभाविक रचना हो सकती है। किंतु सेक्यूलरवाद की विकृत व्याख्या, हिन्दू वोटों के प्रति निश्चिंता व उसे चुनौती न मिलने तथा मुस्लिम वोटों की अति चिंता ने पूरी राजनीति की दिशा को विकृत कर दिया। जैसे हर व्यक्ति का एक चरित्र होता है वैसे ही राष्ट्र का भी होता है। राष्ट्र को उसके चरित्र के अनुरुप विकसित करने की कोशिश नहीं की गई तो उसमें बहुविध प्रकार की बीमारियां समस्याओं के रुप में खड़ी हो जाती है। यही भारत के साथ हुआ है। समय बीतने के साथ इस देश का सामूहिक मानस यह अनुभव तो करने लगा कि कुछ गलत हो रहा है, वह व्यवस्था के सामने नासमझ होकर भौचक्क खड़ा रहा, उसे समझ नहीं आया कि क्या होना चाहिए लेकिन उससे मुक्ति की छपटपटाहट अंदर हिलोड़े मारने लगीं। सही समझ और दिशा के कारण उसका प्रकटीकरण उस रुप में नहीं हुआ जैसा होना चाहिए। राजनीति के माध्यम से उसने कभी क्षेत्र या राष्ट्र के स्तर पर करवट लेने की कोशिश की, क्षणिक सफलताएं भी मिलीं लेकिन फिर उसे आघात लगा।

यह अपक्रम जारी है। 1990 के दशक में आरंभ अयोध्या आंदोलन ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण को सबसे बड़ा बल दिया लेकिन इसे अनुशासित और दिशायुक्त बनाने में विफलता के कारण हुए बाबरी विध्वंस के साथ यह फिर कमजोर पड़ गया। हालांकि सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान की वेदना खत्म नहीं हुई। 1998-99 में देश ने फिर नेताओं को एक मौका दिया जिसे गंवा दिया गया। फिर एक निराशा। देश ने फिर करवट बदला और 2014 भारतीय राजनीति में इस क्रम का सबसे मुखर परिवर्तन था जिसे पाराडाइम शिफ्ट माना गया। एक बड़ी उम्मीद के साथ नरेन्द्र मोदी सरकार की शुरुआत हुई। आरंभ में देश, विदेश तथा स्वतंत्रता दिवस आदि के अपने भाषणों से उन्होंने इस उम्मीद को बनाए भी रखा। किंतु धीरे-धीरे फिर एक निराशा की स्थिति पैदा हो रही है। वस्तुतः इस राजनीतिक सफलता का मर्म सही तरीके से समझने में भाजपा के नेता भी सफल नहीं रहे हैं। 2014 का चुनाव परिणाम सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सामूहिक राजनीतिक प्रस्फुटन था। किंतु उसका एक सकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि अन्य दलों को लग गया है कि अब हिन्दुओं को नजरअंदाज करके राजनीति नहीं की जा सकती। अगर हिन्दुओं में एकजुटता आ गई तो वे हमें पछाड़ सकते हैं। आखिर लोकसभा की 87 ऐसी सीटंें, जिन पर मुस्लिम निर्णायक माने जाते हैं उनमें से 2014 में 43 भाजपा ने जीत ली। तो यह जो भाव पैदा हुआ है वह राजनीतिक लाभ हानि के ईद-गिर्द सिमटा दिखते हुए भी ऐतिहासिक है। सच कहा जाए तो भारत पिछले करीब तीन दशक से सांस्कृतिक समुद्रमंथन के दौर से गुजर रहा है। इसमें अमृत और विष दोनों निकल रहे हैं। इसका रास्ता यह नहीं है कि मुस्लिम नेताओं को महत्वहीन कर दें। वस्तुतः राजनीतिक दल अपनी छोटी दृष्टि के कारण इसकी अपने अनुसार व्याख्या कर रहे हैं। किंतु अंतिम रुप मंें इसका परिणाम देश के लिए अच्छा होगा। भले इसमें अभी समय लगे। हो सकता है इस मंथन में आने वाले समय में आज के कई दल ही अप्रासंगिक हो जाएं। वास्तव में जो दल सांस्कृतिक करवट लेने की इस अंतर्धारा को सही तरीके से समझकर अपनी नीतियां नहीं बनाएगा वह अपने आप बहाकर किनारे कर दिया जाएगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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