शुक्रवार, 30 मार्च 2018

दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले की गलत व्याख्या न करे आप

 

अवधेश कुमार

दिल्ली उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग द्वारा सदस्यता रद्द किए गए विधायकों के बारे में जो फैसला दिया है वह यकीनन आम आदमी पार्टी के लिए राहत लेकर आया है। किंतु यह ऐसा फैसला नही ंहै जिससे यह मान लिया जाए कि इन विधायकों की सदस्यता पर लटकती तलवार खत्म हो गई है। फैसले में न्यायालय ने इस विषय पर विचार किया ही नहीं कि विधायक होते हुए संसदीय सचिव के रुप में ये लाभ के पद पर थे या नहीं। उसने केवल चुनाव आयोग के फैसले में प्रक्रियागत खामियां स्वीकार की है। इसी अधार पर न्यायालय ने चुनाव आयोग से सभी विधायकों को फिर से सुनने तथा उसके बाद राष्ट्रपति के पास अपनी अनुशंसा भेजने को कहा है। उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग को विस्तार से सुनवाई करनी चाहिए थी, लेकिन अभी यह नहीं माना जा सकता कि जिस तरह मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने 21 विधायकों की संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया था वह सही था एवं उसे लाभ के दोहरे पद के दायरे में नहीं लाया जा सकता। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ही 8 सितंबर 2016 को 21 विधायकों के संसदीय सचिव की नियुक्ति को रद्द कर दिया था। उच्च न्यायालय की जो टिप्पणियां थीं वहीं साबित करता था कि यह नियुक्ति संवैधानिक तरीकों से नहीं गई थी। न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि नियमों को ताक पर रख कर ये नियुक्तियां की गईं थीं। तो यह बात साफ है कि वो नियुक्तियां गलत थी। अब प्रश्न यह रह जाता है कि क्या उसके आधार पर इनकी सदस्यता जानी चाहिए या नहीं?

संविधान का अनुच्छेद 102 (1) (ए) स्पष्ट करता है कि सांसद या विधायक ऐसा कोई दूसरा पद धारण नहीं कर सकता जिसमें अलग से वेतन, भत्ता या अन्य कोई लाभ मिलते हों। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 191 (1)(ए) और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (ए) के अनुसार भी लाभ के पद में सांसदों-विधायकों को अन्य पद लेने का निषेध है। इन सब प्रावधानों का मूल स्वर एक ही है, आप यदि सांसद या विधायक हैं तो किसी दूसरे लाभ के पद पर नहीं रह सकते या यदि आप किसी लाभ के पद पर हैं तो सांसद या विधायक नहीं हो सकते। आम आदमी पार्टी तर्क दे रही है कि जिन विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया उनको न कोई बंगला मिला, न गाड़ी, न अन्य सुविधाएं। यानी जब उन्होंने कोई लाभ लिया ही नहीं तो फिर उनको दोहरे लाभ के पद के तहत सजा कैसे दी जा सकती है? यह तर्क पहली नजर में सही भी लगता है। किंतु यह मामले का एक पहलू है।

संसदीय सचिवों ने वाकई कोई लाभ या सुविधा लिया या नहीं इसमें जाने की आवश्यकता थी नहीं। मुख्य बात है कि संसदीय सचिवों का पद लाभ के पद के दायरे में आता है या नहीं। ऐसे कई राज्य हैं जहां संसदीय सचिव का पद लाभ के पद के दायरे के अंदर है तो कुछ राज्य ऐसे हैं जहां यह बाहर है। दिल्ली में इन्हें लाभ के पद के दायरे में रखा गया है। दिल्ली में 1997 में सिर्फ दो पद (महिला आयोग और खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष) ही लाभ के पद से बाहर थे। 2006 में नौ पद इस श्रेणी में रखे गए। पहली बार मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव पद को भी शामिल किया गया था। इसके अनुसार भी दिल्ली में मुख्यमंत्री केवल एक संसदीय सचिव रख सकते हैं। केजरीवाल ने 21 विधायकों की नियुक्ति करते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा।  मई, 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने भी संसदीय सचिव की नियुक्ति को लेकर विधेयक पास किया था। इसके बाद ममता बनर्जी ने 20 से ज्यादा विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया। बावजूद इसके कोलकता उच्च न्यायालय ने सरकार के विधेयक को असंवैधानिक ठहरा दिया। 13 मार्च 2015 को केजरीवाल सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था। इसके खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की ओर से वकील रविन्द्र कुमार ने याचिका दायर की थी। इसके समानांतर दिल्ली के एक वकील प्रशांत पटेल ने 19 जून 2015 को राष्ट्रपति के पास याचिका दायर की थी। इसमें संसदीय सचिव को लाभ का पद का मामला बताया था। जब विवाद बढ़ा तो दिल्ली सरकार 23 जून, 2015 को विधानसभा में लाभ का पद संशोधन विधेयक लाई। इसमें रिमूवल ऑफ डिस्क्वॉलिफिकेशन कानून-1997 में संशोधन किया गया था। इस विधेयक का मकसद संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद से बाहर रखना था। विधेयक पास करा कर 24 जून 2015 को इसे तत्कालीन उप राज्यपाल नजीब जंग के पास भेज दिया गया। उप राज्यपाल ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग से सलाह मांगी। चुनाव आयोग ने याचिका दायर करने वाले से जवाब मांगा। प्रशांत पटेल ने 100 पृष्ठ का जवाब दिया और बताया कि मेरे याचिका लगाए जाने के बाद असंवैधानिक तरीके से विधेयक लाया गया। चुनाव आयोग इस जवाब से संतुष्ट हुआ और उसके अनुसार राष्ट्रपति को सलाह दिया। राष्ट्रपति ने विधेयक वापस कर दिया।

उस समय प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे। आज आम आदमी पार्टी इसमें वर्तमान राष्ट्रपति को भी घसीट रही है। राष्ट्रपति की भूमिका हमारे यहां सलाह पर काम करने की है। अगर चुनाव आयोग विधायकों की सदस्यता जाने की अनुशंसा करता है तो राष्ट्रपति इस परहस्ताक्षर करेंगे ही। ध्यान रखिए कि दिल्ली विधानसभा में कोई विधेयक पेश करने के पूर्व उप राज्यपाल से अनुमति का प्रावधान है। केजरीवाल सरकार ने संसदीय सचिवों को लाभ के पद के दायरे से बाहर करने के लिए विधेयक पेश करने के पहले इसकी अनुमति तक नहीं ली। वैसे भी केजरीवाल सरकार अगर संसदीय सचिव के पद को लाभ का पद मानती ही नहीं थी तो फिर यह विधेयक लाने की आवश्यकता क्यों महसूस की गई? उनको पता था कि गलती हो चुकी है इसलिए सुधार के लिए विधेयक पारित कर दो ताकि संसदीय सचिव का पद लाभ के पद के दायरे से बाहर हो जाए। आम आदमी पार्टी का यह भी तर्क है कि जब उच्च न्यायालय ने संसदीय सचिव के रुप में उनकी नियुक्ति को रद्द कर दिया तो फिर उनकी सदस्यता को खत्म करने का औचित्य नहीं है। वे चुनाव आयोग पर राजनीतिक दृष्टिकोण से यानी केन्द्र सरकार के इशारे पर ऐसा करने का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप दुर्भाग्यपूर्ण है चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और सभी पार्टियों की जिम्मेवारी है कि उसे अपनी राजनीति में न घसीटे। आज एक पार्टी का शासन है कल दूसरे का आएगा लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की साख बची रहनी चाहिए। कई बार न्यायालय तक के फैसले बदल जाते हैं। इसीलिए तो पुनर्विचार याचिका का प्रावधान है। उसने एक फैसला दिया और न्यायालय ने माना कि उसमें सुनवाई की जितनी और जिस तरह की प्रक्रिया का पालन होना चाहिए नहीं हुआ। तो उसका पालन होना चाहिए।

लेकिन आम आदमी पार्टी का यह तर्क वाजिब नहीं है कि जब वे संसदीय सचिव हैं ही नही ंतो फिर उनकी सदस्यता जाने का औचित्य क्या है? आज वे संसदीय सचिव नहीं है लेकिन इनके पास 13 मार्च 2015 से 8 सितंबर 2016 के बीच संसदीय सचिव का पद था। तो फैसला इस पर होगा कि जितने दिन वे संसदीय सचिव रहे उतने दिनों तक वे लाभ के दोहरे पद पर रहे या नहीं। 2006 में जया बच्चन मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि किसी पद से लाभ अर्जित नहीं करना, उस पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर नहीं करता है। वे तब उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम की अध्यक्ष थीं। वो भी वहां से कोई वेतन-भत्ता नहीं लेतीं थी। बावजूद इसके उन्हें सांसदी गंवानी पड़ी। इस फैसले का मतलब यही था कि यदि आपने लाभ का पद लिया है तो आपको सांसदी या विधायकी से हटना होगा भले आपने वेतन या भत्ता न लिया हो।

हालांकि हमें चुनाव आयोग के नए फैसले की प्रतीक्षा करनी होगी। हो सकता है वो फिर सुनवाई करे या उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय जाए। इस समय इतना कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी उच्च न्यायालय के फैसले की अतिवादी व्याख्या कर रही है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

तेदेपा के अलग होने के बाद राजग का भविष्य

 

अवधेश कुमार

तेलगुदेशम पार्टी (तेदेपा) का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग या एनडीए से बाहर जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। हां, केन्द्र सरकार में शामिल अपने दोनों मंत्रियों से पिछले 8 मार्च को इस्तीफा कराने के बावजूद यदि चन्द्रबाबू नायडू ऐसा फैसला नहीं करते तो आश्चर्य अवश्य होता। हालांकि इसका निर्णय करने में वे समय लगाते किंतु आंध्रप्रदेश की ही दूसरी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दिए जाने को लेकर संसद में जो अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का ऐलान कर दिया उसमें चन्द्रबाबू को आनन-फानन में वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के जरिए नेताओं की बैठक बुलाकर यह निर्णय करना पड़ा। तेदेपा ने केवल राजग से ही अलग होने की घोषणा नहीं की है उसने भी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है। हालांकि 16 सांसदों वाले तेदेपा के अलग होने या अविश्वास प्रस्ताव से नरेन्द्र मोदी सरकार को तत्काल खतरा नहीं है, क्योंकि उसके पास अपनी ही पार्टी का बहुमत है। वैसे भी लोकसभा में अभी 536 सांसद ही है, इसलिए सरकार बचाने के लिए 269 का आंकड़ा चाहिए। भाजपा आराम से केवल अपनी बदौलत इसे पार कर जाएगी। किंतु यह देखना होगा कि इस अविश्वास प्रस्ताव में राजग में शामिल और कौन से घटक सरकार के खिलाफ आते हैं।

वास्तव में अविश्वास प्रस्ताव कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम नहीं है, क्योंकि आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देना केन्द्र सरकार के लिए संभव ही नहीं। संवैधानिक रुप से तो यह असंभव है ही, व्यावाहरिक तौर भी इससे परेशानियां बढ़ जाएंगी, क्यांेकि कई राज्य यही मांग कर रहे हैं। वाईएसआर कांग्रेस ने केवल तेदेपा को दबाव में लाने के लिए यह कदम उठाया जिसका असर पड़ा है। किंतु इससे मूल प्रश्न राजग के भविष्य को लेकर पैदा हुआ है। जब तेदेपा ने मंत्रियों से इस्तीफे के बाद यह घोषणा किया था कि वे फिलहाल राजग में बने रहेंगे तो निश्चय ही भाजपा ने राहत की सांस ली थी। अब उसके लिए स्थिति बदल गई है। तेदेपा का अलग होना किसी एक दल का अलग होना मात्र नहीं है। इसका तात्कालिक एवं दूरगामी असर कई तरीकों से हो सकता है। सबसे पहले तो भाजपा से असंतुष्ट राजग के अंदर या सरकार को समय-समय पर समर्थन दे रहे दूसरे दलांे के अंदर भी फैसला करने का मनोविज्ञान पैदा होगा। दूसरे, जो दल अलग जाएंगे वे अन्य दलों के साथ गठबंधन कर सकते हैं तो इससे 2019 का लोकसभा चुनाव परिणाम प्रभावित होगा। तेदेपा अगर बाहर गई है तो निश्चय ही भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति में वह कुछ दलों के साथ जुड़ेगी। अगर चुनाव पूर्व उसका गठबंधन नहीं हुआ तो चुनाव बाद अवश्य हो सकता है। कम से कम एक बार विशेष राज्य के दर्जे पर अलग होने के बाद दोबारा बगैर इसके वह भाजपा के साथ तो नहीं आ सकती। यह पहलू भाजपा के लिए ज्यादा चिंताजनक होना चाहिए।

वस्तुतः तेदेपा का राजग से बाहर आना भविष्य की केन्द्रीय राजनीति में नए गठबंधन का संकेत हो सकता है। उसके अलग होने का जिस तरह विपक्षी नेताओं में ममता बनर्जी ने स्वागत किया, सीताराम येचुरी ने उसके अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन किया उसमें नए समीकरण के संकेत साफ निहित हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में अभी 330 सांसद हैं। तेदेपा के अलग होने के बाद 314 सांसद बच जाते हैं। इसके अलावा राजग में अभी शिवसेना के 18, लोजपा के 6, अकाली दल के 4, राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के 3, जद यू के 2, अपना दल के 2 एवं अन्य दलों 4 सांसद शामिल हैं। इसमें शिवसेना लगातार मोदी सरकार के खिलाफ उसी तरह बयान देती है जिस तरह विपक्षी दल। पिछले 23 जनवरी को उसने यह घोषणा कर दिया था कि 2019 का आम चुनाव वह भाजपा से अलग लड़ेगा। हालांकि इसमें भाजपा का कोई दोष नहीं है किंतु यदि शिवसेना अपनी घोषणा पर कायम रहता है तो फिर राजग में यह दूसरा बड़ा बिखराव होगा। शिवसेना भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी है। 2014 लोकसभा चुनाव में साथ लड़कर दोनों ने कांग्रेस एवं राकांपा को प्रदेश से लगभग खत्म कर दिया था। उसके अलग होने का आगामी लोकसभा चुनाव परिणामों पर असर होना निश्चित है। हालांकि अगर शिवसेना को कोई दूसरा साथी नहीं मिलता तो क्षति उसे भी होगी लेकिन कुल मिलाकर भाजपा एवं राजग के लिए तो यह बड़ी क्षति होगी ही। बिहार में जद यू से हाथ मिलाने के बाद रालोसपा को भी लगता है कि उसके लिए अब राजग में बने रहना मुश्किल होगा। हालांकि इस मामले पर पार्टी में विभाजन है, पर संभव है लोकसभा चुनाव आते-आते वह भी अलग राह पकड़कर बिहार में राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर ले। वैसे इससे राजग को बहुत ज्यादा क्षति होने की संभावना नहीं है।

तो फिलहाल अभी प्रतीक्षा करनी होगी कि राजग से कौन-कौन से दल कब नाता तोड़ते या फिर नहीं तोड़ते हैं। तेदेपा ने शुरुआत की है तो यही तक रुकेगा इसकी भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती। पहले का वातावरण यह था कि आंध्रप्रदेश में यदि तेदेपा अलग होती है तो तत्काल 9 सांसदों वाली जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस भाजपा के साथ आ जाएगी। किंतु विशेष राज्य का दर्जा ऐसा मामला है जिसमें आंध्र की सभी पार्टियों ने मोदी सरकार को खलनायक बना दिया है। उसमंें जगनमोहन के लिए भाजपा के साथ आना जरा कठिन होगा। प्रदेश मंेे विशेष राज्य का दर्जा न दिला पाने के लिए इस पार्टी ने लगातार प्रदर्शन कर तेदेपा की नाकों मंें दम कर दिया था। अगर वह अब भाजपा के साथ जाती है तो फिर मतदाताओं को क्या जवाब देगी? लेकिन जन सेना के पवन कल्याण भाजपा के साथ आ सकते हैं। वे कितना प्रभावी होंगे यह अलग बात है। किंतु तेदेपा या वाईएसआर जैसी इस समय उसकी स्थिति नहीं है। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के अलग होने के बाद रिपब्लिकन पार्टी के अलावा कोई उसके साथ आएगा इसकी संभावना न के बराबर है। इन दो राज्यों में भाजपा को अपनी बदौलत चुनाव लड़ने की तैयारी अभी से करनी होगी। पता नहीं पार्टी इस बारे में क्या सोचती है। 

इस तरह तेदेपा के बाहर जाने के प्रभाव बहुआयामी हैं। आसानी से इसका राजनीतिक मायने और प्रभाव कुछ लोगों की समझ में नहीं आए लेकिन जब आप भविष्य की तस्वीर बनाते हैं तो बहुत कुछ आपके सामने स्पष्ट हो जाता है। तेदेपा का अलग होना भारतीय राजनीति में इस समय चल रहे एक नए हलचल और उससे उभर रहीं नई प्रवृत्तियों का संकेतक है। विपक्षी दलों में इस बात को लेकर एक राय बन ही रही है कि भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी को पराजित करना है तो साथ आना होगा। उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा उपचुनावों में बसपा सपा मिलन ने भाजपा को पराजित कर इस सोच को बल ही नहीं दिया है इस प्रवृत्ति को तेज कर दिया है। वैसे इसका हस्र अभी देखना बाकी है, फिर भी भाजपा के लिए 2019 की दृष्टि से यह चिंताजनक तो है ही। तेदेपा के बाहर आने से कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी दलों के एक बड़े खेमे में उत्साह बढ़ा है। राजनीति में माहौल काफी मायने रखता है और वह चुनाव पर प्रभाव भी डालता है। न भूलें कि इस साथ आने में राजग के कुछ दलों को भाजपा से अलग कर उनको अपने खेमे में लाने की कोशिश भी शामिल है। इसकी कोशिश वे कर रहे हैं। 

ध्यान रखने की बात है कि भाजपा की रणनीति 2019 के लिए राजग के विस्तार करने की रही है। तमिलनाडु को एक उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है। वहां राजग के विस्तार की वह लगातार कोशिश कर रही है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करुणानिधि से मिलने पहुुंच गए थे। अन्नाद्रमुक के साथ वे लगातार संपर्क बनाए हुए हैं। जो तीन नए समूह दिनाकरण, राजनीकांत एवं कमल हासन के बन रहे हैं उनके भाजपा के साथ आने की संभावना इस समय नहीं दिख रही है। अगर राजग में कुछ और टूट हुई तो तमिलनाडु ही नहीं कई राज्यों में उसके प्रयासों को धक्का लग सकता है। फिर उसे इन राज्यों में या तो अकेले लोकसभा चुनाव लड़ना होगा या फिर कुछ वैसे दल साथ रहेंगे जिनका मतदाता पर प्रभाव ही नहीं हो। निश्चय ही भाजपा नेतृत्व इन सारी संभावनाओं का आकलन कर रहा होगा, उस अनुसार रणनीतियां भी बनाने की कोशिश होगी, तेदेपा के बाहर जाने एवं बनते वातावरण में उसके लिए चुनौतियां काफी बढ़ गईं हैं। हम नहीं कहते कि भाजपा के लिए 2019 का भविष्य धूमिल हो चुका है, पर उसे साथी दलों को साथ बनाए रखने की पहले से कई गुणा ज्यादा कोशिश करनी होगी। भाजपा की ओर से तेदेपा से जल्दबाजी न करने की अपील की गई थी, जिसका असर नहीं हुआ। बेशक, तेदेपा ने किसी वाजिब कारण से तलाक नहीं दिया है, लेकिन इसकी सीख है कि कोई साथी दल या नेता असंतोष प्रकट कर रहे हैं तो उसे केवल शब्दिक गीदड़भभकी नहीं मानना चाहिए। बदलते माहौल में वे साथ छोड़कर जा सकते हैं। भाजपा को यह साफ समझना होगा कि जितने दल उसे छोड़कर जाएंगे उससे माहौल विपरीत बनेगा और कम से कम अभी उतने एवं उसी तरह जनाधार रखने वाले दलों के साथ आने की संभावना नहीं है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

श्रीलंका में बौद्ध मुस्लिम दंगा चिंताजनक

 

अवधेश कुमार

हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका फिर एक बार सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आया है और स्थिति को संभालने के लिए सरकार को आपातकाल लागू करना पड़ा है। आपातकाल लगाना ही यह साबित करता है कि स्थिति को सरकार कितना गंभीर मान रही है। हालांकि बौद्ध और मुस्लिम समुदाय के बीच हिंसक घटनाएं केवल कैंडी तथा उसके पड़ोस मंें ही घटी है लेकिन पूर्व के अनुभवों को देखते हुए सरकार ने एहतियातन पूरे देश में आपातकाल लगा दिया है ताकि इसका विस्तार न हो सके।  2014 में श्रीलंका में बड़े पैमाने दोनों समुदायों के बीच दंगे हुए थे। उसे संभालने में सरकार को नाकों चने चबाने पड़े थे। उस हिंसा में काफी संख्या में मुस्लिम और सिंहली विस्थापित हुए थे। उस घटना ने बता दिया था कि किस तरह दोनों समुदायों के बीच तनाव की खाई चौड़ी हो चुकी है। वास्तव में पिछले कुछ वर्षों में सिंहली बौद्धों तथा मुस्लिमों के बीच जिस तरह रिश्ते बिगड़े हैं उनको देखते हुए सरकार का यह कदम उचित ही है। वैसे आज से एक वर्ष पूर्व 26-27 फरवरी, 2017 को भी श्रीलंका के पूर्वी प्रांत के अंपारा कस्बे में भी सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। उसे किसी तरह प्रशासन ने रोक तो दिया लेकिन तनाव खत्म नहीं हुआ। कहा जा जा रहा है कि वर्तमान हिंसा की जड़ भी उन्हीं घटनाओं में निहित हैं।

जो सूचनाएं आईं हैं उनके अनुसार कैंडी में सिंहली बौद्ध समुदाय के एक ट्रक चालक की मौत हो गई। उसका कुछ दिन पूर्व चार मुसलमानों से झगड़ा हुआ था। कहा जाता है कि उसमें वह बुरी तरह घायल हो गया। उसकी अंत्येष्टि में काफी संख्या में लोग जुटे। उनमें उत्तेजना थी, उत्तेजक नारे लगे। इसके बाद कुछ मुसलमानों के घरों एवं दूकानों पर हमले हुए। हालांकि प्रतिकार उधर से भी हुआ लेकिन इसमें एक मुसलमान अपने जले घर में मृत पाया गया। इसके बाद हिंसा तेजी से फैली। इस घटना का पहला निष्कर्ष तो यही निकलता है कि स्थानीय प्रशासन इसे रोकने में नाकामयाब रहा। तनाव पहले से था और किसी की शवयात्रा में भारी संख्या में एक समुदाय के लोग शामिल हैं, नारे लग रहे हैं तो फिर प्रशासन को चौकन्ना हो जाना चाहिए था। यहां तक तो बात समझ में आती है। किंतु यह केवल प्रशासन का मामला नहीं है। मुसलमानों और बौद्धों का संबंध केवल कानून व्यवस्था से संबंद्ध नहीं है। हालांकि सरकार ने वहां सेना भेजी, विशेष पुलिस बल रवाना कर दिया, कफर््यू लगा दिया गया। काफी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इसका तात्कालिक असर तो यह हुआ है कि उसके बाद वहां हिंसा नहीं हो रही है। लेकिन दोनों समुदायों के संबंधों तथा पूरे माहौल को देखते हुए आप गारंटी नहीं दे सकते कि आगे फिर हिंसा नहीं होगी।

श्रीलंका में मुस्लिम आबादी केवल दस प्रतिशत है। इसके समानांतर सिंहली बौद्धों की संख्या 75 प्रतिशत के आसपास है। इसलिए दोनों के बीच कोई मुकाबला नहीं। किंतु बौद्धों के अंदर मुस्लिमों को लेकर कई प्रकार की आशंकाएं हैं। वे उन पर धर्म परिवर्तन से लेकर पुरातात्विक महत्व की चीजों को नष्ट करने जैसे कई प्रकार के आरोप लगाते हैं। इस कारण बौद्धों के कई संगठन तक खड़े हो गए हैं जो मुस्लिमों के खिलाफ बयान देते तथा मोर्चा निकालते रहते हैं। बौद्ध संगठन बोदु बाला सेना उन्हीं में सबसे बड़ा और सर्वाधिक सक्रिय है। इस संगठन के महासचिव गालागोदा ऐथे गनानसारा के बयान अक्सर श्रीलंकाई मीडिया में आते रहते हैं। वे कहते हैं कि मुस्लिमों की बढ़ती आबादी देश के मूल सिंहली बौद्धों के लिए खतरा है। 2014 में जब दोनों समुदायों के बीच तनाव चरम पर था उन्होंने कहा था कि मुस्लिम समुदाय का अतिवाद खतरा है और इन्हें मध्यपूर्व के देशों से मदद मिलती है। यह तो एक उदाहरण मात्र है जिससे यह समझा जा सकता है कि श्रीलंका की अंदरुनी सामाजिक स्थिति किस तरह के तनाव से गुजर रही है। वास्तव में ऐसे अनेक नेता और संगठन हैं जो गनानसारा की भाषा बोलते हैं।

म्यान्मार में बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच भीषण दंगों की प्रतिध्वनि यहां भी सुनाई पड़ रही है। सिंहली बौद्ध संगठन उस विषय को बराबर उठाते हैं। वे कहते हैं कि म्यान्मार में हमारे बौद्ध भाइयों के खिलाफ इन्होंने जुल्म किया है। यह प्रचार वहां काफी हुआ है और जाहिर है इसका असर भी है।  जिस तरह हमारे देश में और अन्यत्र रोहिंग्या शरणार्थी हैं, वैसे ही कुछ श्रीलंका भी पहुंचे हैं। ये इसका भी विरोध करते हैं। इन्हें देश के लिए खतरा बताते हुए इनको वापस भेजने की मांग करते हैं। इसके विपरीत श्रीलंकाई मुसलमान उनका समर्थन करते हैं, उनके प्रति सहानुभूति जताते हैं। इस कारण भी दोनों के बीच तनाव बना हुआ है।

हम तनाव और हिंसा की आलोचना कर सकते हैं। लेकिन केवल आलोचना ऐसी किसी समस्या का समाधान नहीं है। अगर श्रीलंका में दोनों समुदायों के बीच शांति स्थापित नहीं हुई तो वह एक नई समस्या से घिर जाएगा जिसका खतरा साफ मंडराता दिख रहा है। ऐसा नहीं है कि दोनों समुदाय के बीच तनाव की चिन्गारी केवल उस देश तक ही सीमित रहेगी। सच कहा जाए तो यह स्थिति केवल श्रीलंका के लिए ही चिंताजनक नहीं है। यह हमारे लिए भी चिंता का कारण है। पूरे दक्षिण एशिया में इसकी प्रतिक्रिया हो सकती है। म्यान्मार दंगा के बाद हमारे देश में ही उसकी प्रतिक्रिया में कई स्थानों पर ंिहसंा की घटनाएं र्हुइं। चाहे वह मुबई के आजाद मैदान की घटना हो या लखनउ का दंगा आज भी उसकी यादें सिहरन पैदा करतीं हैं। हमारे यहां भी रोहिंग्या मुसलमानों को शरण दिए जाने का मुद्दा बहुत बड़ा है तथा कई जगह तनाव का कारण बना हुआ है। इसलिए श्रीलंका में जो कुछ हो रहा है उसे उस देश तक सीमित मान लेना हमारे लिए उचित नहीं होगा। अगर वहां बौद्धों एवं मुसलमानों के बीच हिसंा फैलती है तो फिर इसकी लपटें दूर तक जाएगी। इसलिए भारत भी वहां की घटनाओं से आंखें मूंद नहीं सकता। किंतु हम इसमें कर क्या सकते हैं? समस्या का समाधान तो श्रीलंका को ही करना है।

श्रीलंका के विवेकशील लोग इस बात को अच्छी प्रकार समझते होंगे कि किसी देश की शांति और एकता इस बात पर निर्भर करती है कि वहां के रहने वाले विभन्न समुदायों के बीच किस तरह का संबंध है। अगर संबंधों में सद्भाव है तो वह देश शांतिपूर्वक विकास के रास्ते पर दौड़ लगाता है। यदि संबंधों में तनाव है, एक दूसरे के प्रति आशंकाएं हैं तो फिर यह देश में हिंसा का कारण भी बनता है तथा इससे प्रगति तो प्रभावित होती ही है। श्रीलंका की समस्या रही है कि वहां तमिलों को सामान्य नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया और इस कारण वहां लंबे समय तक गृहयुद्ध चला। हिंसक तमिल संगठन खड़े हो गए। रक्त और लौह की नीति से श्रीलंका ने तमिल उग्रवादियों को तो खत्म कर दिया लेकिन अभी तक मूल सिंहलियों और तमिलों के बीच जैसा भाईचारे का संबंध होना चाहिए था नहीं हुआ। अब मुस्लिमों की समस्या उनके सिर अलग से आ गई है। यह ऐसी समस्या है जिसे श्रीलंका को पार पाना ही होगा। श्रीलंका की सरकारों ने आरंभ से ऐसी नीतियां नहीं अपनाई जिससे सभी समुदायों के बीच परस्पर सद्भाव व सहकार कायम हो सके। उसे अपने पड़ोसी देश भारत से सीखना चाहिए था। आजादी के बाद हमने इतनी विविधताओं के रहते हुए किस तरह एकता के सूत्रों को मजबूत करने का प्रयास किया है। इतने पंथ-संप्रदाय, जातियां सब एक साथ किस तरह रहतीं हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां तनाव नहीं होते, दंगे नहीं होते, लेकिन उसके समाधान का रास्ता भी समाज के अंदर से निकल जाता है। श्रीलंका ने अभी तक यह गुर सीेखा नहीं है। उसे अपने देश के बचाना है तो यह कला भारत से सीखनी ही होगी। हम तो यही कामना करेंगे कि हमारा पड़ोसी देश शीघ्र तनाव से मुक्त हो तथा शांतिपूर्ण तरीके से प्रगति और खुशहाली के रास्ते पर बढ़े, पर करना तो उसे ही पड़ेगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

  

 

 

 

 

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

कांग्रेस पराजय से सबक लेने को तैयार ही नहीं

 

अवधेश कुमार

इस बात से कोई तटस्थ व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता कि कांग्रेस इस समय अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर गहरे निराशा में होगी। जिस तरह त्रिपुरा एवं नागालैंड से वह खत्म हो गई है तथा मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद वह सरकार बनाने में सफल नहीं हई उससे बड़ा राजनीतिक आघात किसी पार्टी के लिए कुछ नहीं हो सकता। मेघालय में जनता ने उसको बहुमत नहीं दिया तथा उसकी विरोधी पार्टियों को ज्यादा सीटें दे दीं। तो उसके खिलाफ एकत्रीकरण होना ही था। जाहिर है, पिछले वर्ष गुजरात चुनाव में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करने तथा भाजपा को कड़ी चुनौती देने से जो एक संभावना नजर आई थी वह पूर्वोत्तर पहुंचते-पहुंचते ध्वस्त होती दिख रही है। हाल में राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के उपचुनावों में मिली विजय का उत्साह भी काफूर है। कांग्रेस सहित भाजपा विरोधी दलों का मुख्य लक्ष्य 2019 हो चुका है। 2019 को कैसे साधा जाए यह कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है। हालांकि उसके पहले उसे करीब दो महीने बाद कर्नाटक विधानसभा चुनाव का सामना करना है जहां उसकी सरकार है। उसके बाद वर्ष के उत्तरार्ध में उससे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान विधानसभा चुनाव में उतरना है। स्वाभाविक है कि कांग्रेस 2019 को ध्यान में रखते हुए इन विधानसभा चुनावों में बेहतर करने की कोशिश करे। लेकिन क्या इसकी संभावना दिख रही है?

पूर्वोत्तर का परिणाम उसके लिए ऐसा झटका है जिसके मनोवैज्ञानिक असर से उबरना उसके लिए आसान नहीं होगा। आखिर गुजरात विधानसभा चुनाव तथा उसके बाद राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के उपचुनावों में प्रदर्शन के बाद वह जिस मानसिकता से पूर्वोत्तर में चुनाव लड़ रही थी वह मानसिकता तो हो नहीं सकती। इस समय तो एक पराजित पार्टी की मानसिकता के दौर से वह गुजर रही है। भाजपा ने कर्नाटक चुनाव की तैयारी एक वर्ष पहले आरंभ कर दिया था। जिस रणनीति, तौर तरीकों तथा प्रबंधन को भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपनाया लगभग वही वह राज्य के चरित्र के अनुरुप कर्नाटक में अपना रही है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने भाजपा के लिए हर चुनाव को करो या मरो का चरित्र दे दिया है। कांग्रेस अभी इस स्वरुप को प्राप्त करने से वंचित है। अगर उसने पूर्वोत्तर में अच्छा प्रदर्शन किया होता तो इस समय उसके संदर्भ में पूरा माहौल ही बदला होता। दूसरी पार्टियां भी कांग्रेस की ओर 2019 के लिए उम्मीद भरी नजर से देखती। वह स्वयं भी कर्नाटक विधानसभा चुनावों में विजय पाने की मानसिकता से उतरती।

किसी पार्टी के लिए चुनाव परिणामों के पूर्व भविष्यवाणी कर देना जोखिम भरा है। लेकिन आगामी विधानसभा चुनावों तथा उसके बाद लोकसभा चुनाव की दृष्टि से कांग्रेस के अंदर जो परिवर्तन कई स्तरों पर दिखना चाहिए था वह नहीं दिख रहा है। राहुल गांधी अध्यक्ष बन गए हैं, सोशल मीडिया का प्रबंधन बेहतर हुआ है लेकिन इसके अलावा क्या? यह प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं है। कांग्रेस की समस्या है कि वह चुनावी प्रदर्शनों पर कभी ईमानदारी और गहराई से सामूहिक आत्ममंथन नहीं करती। जब आत्ममंथन ही नही होगा तो फिर कहां-कहां चूकें हुईं वह भी पकड़ में नहीं आ सकता। जब चूकें ही पकड़ में नहीं आएंगी तो फिर सुधार कहां से होगा। आप देख लीजिए पूर्वाेत्तर की विफलता के बावजूद किसी तरह के मंथन की कोई आवश्यकता पार्टी महसूस नहीं कर रही है। हां, सोनिया गांधी अवश्य विपक्षी नेताओं को रात्रि भोज पर आमंत्रित कर रहीं हैं। इससे क्या होगा? सोनिया ने पहले भी विपक्षी नेताओं की बैठकें की हैं। एक भाजपा विरोधी समूह बनाने की उनकी कोशिश पहले से है। विपक्षी दल उनके भोज में शामिल होंगे, भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की बात भी करेंगे, लेकिन जब तक उन्हें नहीं लगेगा कि कांग्रेस वाकई भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है तब तक वे उसके छाते के नीचे आने को तैयार नहीं होंगे।

एक दो उपचुनावों में मिली विजय से यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है। आप उपचुनाव में जीत जाएं और जहां भी मुख्य चुनाव हो वहां भू-लुंठित हो जाएं तो फिर क्या होगा? यही हो रहा है। कांग्रेस को यह बात समझनी होगी कि विपक्षी दलांें को एक साथ लाने के प्रयास से ज्यादा जरुरी है अपने घर को संभालना, लगातार पराजय की स्थिति से बाहर निकलने का प्रयास करना। कांग्रेस यही नहीं कर रही है। आखिर 2014 के पराजय के बाद उसने अपने खोए जनाधार को पाने के लिए क्या किया है? उत्तर है, कुछ भी नहीं। एकाध सफलताओं पर पार्टी इतरा गई और मान लिया कि उसकी वापसी हो रही है। मसलन, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन थोड़ा बेहतर रहा। इसकी पार्टी ने गलत व्याख्या की। यह उसकी सफलता नहीं थी। नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन की सफलता थी। न तो बिहार में कांग्रेस के संगठन का विस्तार हुआ न सामाजिक समीकरण ही इसके पक्ष में बने। तो फिर वापसी का संदेश इसे कैसे मान लिया गया? उसके बाद हमने देखा पंजाब छोड़कर ज्यादातर चुनावों में वह पराजित होती रहीं। उत्तर प्रदेश से वह साफ हो गई, जबकि अपने को बचाने के लिए उसने बिहार की तर्ज पर समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ किया। उत्तर प्रदेश में केवल नाम के लिए उसके विधायक बचे हुए है।

वास्तव में पूर्वोत्तर के धक्के को वह अपने भविष्य के संकेत के रुप में ले यही सबक है। आखिर जिस पूर्वोत्तर में उसकी तूती बोलती थी वहां से लगभग वह साफ हो चुकी है। देश में भी आज कुल मिलाकर उसका शासन केवल तीन राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश में बचा हुआ है। इससे दुर्दिन वैसी पार्टी के लिए क्या हो सकता है जिसका कभी देश पर एकच्छत्र राज रहा हो? अगर कांग्रेस को फिर भी नहीं लगता कि उसे गहरे आत्ममंथन एवं उसके अनुरुप संगठन, नीति एवं रणनीति में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है तो फिर कुछ नहीं कहा जा सकता। कमजोर के साथ कोई जाना नहीं चाहता। आप चाहे विपक्षी दलों की जितनी बैठकें बुला लें,संसद के अंदर सरकार को घेरने में तो विपक्ष का साथ मिल सकता है लेकिन कोई आपके नेतृत्व में गठबंधन को तैयार नहीं होगा। इसके लिए आपको अपने को आमूल रुप से बदलना होगा, कुछ बेहतर चुनावी प्रदर्शन करना होगा जिससे यह संदेश फैले कि वाकई कांग्रेस भाजपा एवं मोदी को चुनौती देने की स्थिति में आ रही है। केवल नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना करने से तो जनाधार वापस नहीं आएगा। आलोचना करते रहिए। पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों मंें आपने नरेन्द्र मोदी सरकार पर हमला किया। इसके पूर्व उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड तक में किया। परिणाम क्या आया? जिस गुजरात में नोटबंदी एवं जीएसटी का व्यापक असर था। व्यापारी से लेकर पटेल और मध्यम वर्ग तक भाजपा से नाराज था वहां आप उसे पटखनी देने में सफल नहीं हुए तो कहां होंगे?

कल्पना करिए जो धक्का कांग्रेस को चुनावों में लगा है वैसा ही अगर मोदी और शाह के नेतृत्व में भाजपा को लगा होता तो क्या होता? क्या कांग्रेस की तरह भाजपा भी चुप्पी मारकर बैठी होती या फिर आत्ममंथन करके भविष्य के चुनावों में जोर लगाने का वातावरण बना रही होती? बिहार पराजय को भाजपा ने एक सबक के तौर पर लिया। जो गलतियां हुईं उनको पकड़ने की कोशिश की, उनमें काफी सुधार किए, कुछ तौर-तरीके बदले.....और उसके बाद के परिणाम हमारे सामने है। कांग्रेस कम से कम भाजपा से तो सीख ले ही सकती है। लगता ही नहीं कि पार्टी का इसकी ओर कोई ध्यान है। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी की रीति-नीति में व्यापक बदलाव दिखना चाहिए था। अभी तक न चेहरों में व्यापक परिवर्तन हुआ है, न नीति और न रणनीति में ही आवश्यक बदलाव दिख रहा है। और आत्ममंथन या चुनावी पराजय की व्यापक समीक्षा की तो चर्चा तक नहीं है। इसमें उसके भविष्य के बारे में कोई सकारात्मक या आशाजनक आकलन करना जरा कठिन है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

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