शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

ताइवानी प्रतिनिधिमंडल के दौरे पर चीन का गुस्सा

 

अवधेश कुमार

ताइवान के एक प्रतिनिधिमंडल के भारत दौरे पर जिस तरह की तीखी प्रतिक्रिया चीन से आ रही है वह यकीनन दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन अनपेक्षित नहीं है। हालांकि भारत की ओर से साफ कह दिया गया है कि चीन को ताइवान के प्रतिनिनिधि दल के दौरे के राजनीतिक मायने नहीं निकालने चाहिए। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने स्पष्ट किया है कि यह गैर राजनीतिक दौरा था। वास्तव में ताइवान के अकादमिक क्षेत्र के कुछ नामचीन तथा करोबारियों के साथ कुछ सांसदों का प्रतिनिधिमंडल भारत आया था। ऐसे समूह कई कारणों से दौरे करते रहते हैं। इनका कारण धार्मिक हो सकता है, अकादमिक आदान-प्रदान हो सकता है, पर्यटन हो सकता है..व्यापारिक हो सकता है.। ऐसे दौरों पर भी चीन यदि आपत्ति प्रकट करता है तो उसे क्या कहा जाए। विकास स्वरूप ने ठीक ही कहा कि मुझे लगता है कि वो चीन भी जाया करते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। सच यह है कि  पहले भी ताइवान के दल भारत की यात्रा पर आते रहे हैं। वे इस तरह की यात्रा पर चीन भी जाते हैं। लेकिन चीन हमेशा ताइवान को लेकर सशंकित रहता है और ऐसे कड़े बयान देता है जिससे कोई देश उसे मान्यता देने या उसकी आजादी को स्वीकारने की घोषणा न करे।

ताइवानी प्रतिनिधिमंडल के भारत दौरे पर चीन की प्रतिक्रियाओं को देखिए और निष्कर्ष निकालिए कि वह इससे कितना परेशान है। सबसे पहले बीजिंग में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा कि भारत ताइपे से जुड़े मुद्दों में समझदारी बरते ताकि चीन-भारत रिश्ते बेहतर रखे जा सकें। गेंग ने कहा कि जिन लोगों ने भारत का दौरा किया वे ताइवान के कथित जनप्रतिनिधि हैं और बीजिंग ताइवान के किसी भी उस देश से किसी भी तरह के आधिकारिक संपर्कों का विरोध करता है, जिन देशों के साथ चीन के कूटनीतिक रिश्ते हैं। हमें उम्मीद है कि भारत हमारी वन चाइना पॉलिसी यानी एक चीन नीति का सम्मान करेगा। हम हमेशा से उन देशों का विरोध जताता रहे हैं, जो एक ही वक्त में चीन और ताइवान के साथ संबंध रख रहे हैं। देखा जाए तो इस बयान में आक्रामकता है, फिर भी इसे संयमित कहा जाएगा। लेकिन चीन की सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने इस पर विस्तार से लिखा। उसके लिखा कि भारत ताइवानी कार्ड खेलना बंद करे। इस मुद्दे को छेड़ना आग से खेलने जैसा होगा, जिसके गंभीर नतीजे होंगे। यह सीेधे-सीधे धमकी थी। अखबार में कहा गया है कि ताइवान भारत में स्टील, दूरसंचार और सूचना तकनीक क्षेत्र में निवेश कर मोदी के मेक इन इंडिया अभियान को मजबूत कर रहा है। ग्लोबल टाइम्स ने यह भी लिखा कि भारत-ताइवान के बीच उच्च स्तर की बातचीत हमेशा से नहीं रही। फिर भारत ने ताइवान के प्रतिनिधिमंडल को क्यों निमंत्रित किया? ग्लोबल टाइम्स एक जगह यह लिखता है कि...कुछ भारतीय रणनीतिकारों ने मोदी सरकार को ताइवान कार्ड खेलने की सलाह दी है ताकि एक चीन नीति के प्रति प्रतिबद्धता के बदले चीन भी एक भारत नीति पर चले। एक चीन नीति का अर्थ है कि चीन एक देश है और ताइवान उसका एक राज्य है। ध्यान रखिए जिसे हम चीन कहते है उसका नाम पीपुल्स पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना है तो ताइवान भी अपने को रिपब्लिक ऑफ चाइना कहता है। यानी दोनों अपने को ची नही मानते हैं। एक चीन नीति का चीन की नजर मंे यह भी अर्थ है कि दुनिया के जो देश पीपुल्स रिपब्लिक से सबंध रखेंगे उन्हें रिपब्लिक से संबंध खत्म करने होंगे। 

कहने की आवश्यकता नहीं कि चीन इस दौरे को लेकर तथा भारत के साथ ताइवान के संभावित रिश्ते को ध्यान में रखकर आगबबूला है। वह इस तरह दबाव कायम करना चाहता है कि भारत ताइवान के साथ रिश्ते को आगे न बढ़ाए। इस लेख में तो यह भी कहा गया है भारत लंबे समय से चीन से जुड़े ताइवान मुद्दे, दक्षिण चीन सागर और दलाई लामा के मसले को हवा देता रहा है। भारत का ताइवान कार्ड खेलने का उद्देश्य चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा को घेरना है। हाल के वर्षों में गलियारा के काम में काफी तेजी आई है। लेकिन भारत को चीन की तरक्की देखकर चिंता सता रही है। हम बताना चाहते हैं कि वन बेल्ट-वन रोड की यह परियोजना भारत समेत क्षेत्र के सभी देशों को फायदा पहुंचाएगा। चीन की यह प्रतिक्रिया केवल भारत के साथ नहीं है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पिछले दिसंबर में ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन से फोन पर बात की थी, जिस पर चीन ने एतराज जताया था। चीन को यह डर लग रहा है कि है कि कहीं ट्रम्प एक चीन की नीति पर अमेरिका के रुख में कोई परिवर्तन न कर दें। चीन ने उस समय ट्रम्प को चेतावनी दी थी कि वह वन चाइना पॉलिसी यानी एक चीन नीति पर अमेरिका के रुख को बदलने की कोशिश न करें। हालांकि, ट्रम्प ने पिछले हफ्ते चीन की वन चाइना पॉलिसी को स्वीकारने की बात की है।

वास्तव में ताइवान चीन के गले की हड्डी है। ताइवान के लोग लगातार अपने यहां स्वतंत्र चुनाव से सरकार का गठन कर रहे हैं और वे स्वयं को आजाद देश ही नहीं मानते, कुछ पार्टियां वहां ऐसी हैं जो मानती हैं कि चीन का उन पर नहीं उनका दावा पूरे चीन पर बनता है। यह बात सच है कि ताइवान का मामला अभी अंतरराष्ट्रीय पटल अनिर्णित है। एक समय चीन के में जरुर उसे संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दी गई, लेकिन बाद मंें उसकी जगह चीन को लिया गया एवं तबसे उसके बारे मंे कोई निर्णय नहीं हुआ। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि ताइवान दुनिया में अलग-थलग पड़ा देश है। उसके आर्थिक ही नहीं रक्षा संबंध भी अनेक देशों से है। भारत ने चीन की कम्युनिस्ट सरकार यानी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को 1950 में मान्यता दिया एवं ताइवान के साथ उसके संबंध नहीं रहे। लेकिन 1995 में नरसिंह राव सरकार ने बदली अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर इंडिया ताइपाई एसोसिएशन का गठन कर ताइवान के साथ एक अनौपचारिक संबंध बनाया। दोनों देशों के बीच दोहरे कराधान को समाप्त करने सहित कई समझौते हुए हैं। 2014 में भारत और ताइवान के बीच द्विपक्षीय व्यापार 5.9 अरब डॉलर का था। ताइवानी कंपनी फॉक्सकौन्न, जो कि विश्व की बड़ी हार्डवेयर निर्माता कंपनियों में शुमार है, भारत में 5 अरब डॉलर का निवेश कर रहा है। ताइवान की कई कंपनियां इसी तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया योजना मंे निवेश करने आ रहीं हैं। दोनों देशों के बीच विज्ञान, तकनीक और संस्कृति के क्षेत्र में भी सहयोग कर रहे हैं। ताइवान अनेक चीनी पााठ्यक्रमों के लिए शिक्षक भेज रहा है।

चीन के कहने भर से तो हम सारे संबंध खत्म नहीं कर सकते। ताइवान वैसे भी हार्डवेयर में दुनिया का अग्रणी देश है और भारत सॉफ्टवेयर में। इस नाते दोनों के व्यापारिक संबंध एक दूसरे के हित में होंगे। स्वयं चीन ने ताइवान के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंध कायम किए हैं। इसलिए उसे किसी प्रतिनिनिधिमंडल के दौरे पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया करने से बचना चाहिए था। अभी तक भारत ने राजनीतिक रुप से ताइवान के साथ संबंध नहीं बनाया है। हालांकि जिस ढंग से चीन पाक अधिकृत कश्मीर में कारगुजारी कर रहा है उसे याद करें तो फिर निष्कर्ष कुछ और ही आएगा। तब भी भारत की नीति चीन के साथ टकराव मोल न लेने की है। ताइवान की स्थिति का फैसला पूरे विश्व समुदाय को करना है। किंतु चीन के भय से ताइवान से किसी प्रकार का संबंध बनाया ही नहीं जाए,उसे अलग-थलग रखा जाए, उसकी विशेषज्ञता का लाभ विश्व और भारत का मिले ही नहीं यह नहीं हो सकता। तइवान की वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती साइ इंग वेन ने जनवरी 2016 मंे अपनी विजय के साथ ही कहा कि भारत के साथ संबंध उनकी प्राथमिकता में है। भारत को इसका लाभ उठाना चाहिए। इससे चीन को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

फैसले के बाद तमिलनाडु की राजनीति

 

अवधेश कुमार

तो उच्चतम न्यायालय ने शशिकला और उनके दो अन्य रिश्तेदारों के मामले में अपना फैसला सुना दिया। वास्तव में इस फैसले के कानूनी पहलू हैं जिनकी चर्चा जरुरी है लेकिन इसकी राजनीतिक परिणति अन्नाद्रमुक और तमिलनाडु के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में उन्हें चार साल की सजा होने का मतलब है कि अगले 10 वर्ष तक वो चुनाव नही लड़ सकती। इस तरह जयललिता की मृत्यु के बाद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने का उनकी महत्वाकांक्षा ध्वस्त हो गई है। अगर साढे तीन साल वो जेल में गुजराने के बाद बाहर आती हैं तो उस समय क्या राजनीतिक परिस्थितियां होंगी उस पर उनका राजनीतिक भविष्य निर्भर करेगा। किंतु जेल जाते-जाते उन्होंने तमिलनाडु विधायक दल का नया नेता निर्वाचित करवा दिया और ओ. पन्नीरसेल्वन को अन्नाद्रमुक की प्राथमिक सदस्यता से भी बरखास्त कर दिया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि वो जेल में रहते हुए भी स्व. जयलिता की तरह सरकार और पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहती हैं। इसमें वो सफल होतीं हैं या नहीं यह समय बताएगा। किंतु इतना तो बेहिचक कहा जा सकता है कि शशिकला जयललिता नहीं है कि जेल में रहते हुए भी अपने रुतबे से पार्टी पर पूरी तरह पकड़ बनाए रख सकेे।

शशिकला जिस तरह से सक्रिय होकर मुख्यमंत्री पद संभालने के लिए अडिग दिख रहीं थीं उनसे साफ था कि उनको उच्चतम न्यायालय से राहत मिलने की पूरी उम्मीद थी। इसका कारण कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा 11 मई 2015 को जया और शशिकला समेत सभी चार दोषियों को पूरे मामले से बरी कर दिया जाना था। उच्च न्यायालय ने 1000 पृष्ठों का फैसला सुनाया था और उसमें जो आधार दिए थे उससे शशिकला एवं उनके समर्थकों का उम्मीद बंधना स्वाभाविक था। ध्यान रखिए कि विशेष न्यायालय ने 27 सितंबर 2014 को मामले में जया, शशिकला और उनके दो रिश्तेदार वीएन सुधाकरन, इलावरसी ं को चार वर्ष की सजा सुनाई थी।  इस मामले की सुनवाई तमिलनाडु के बाहर बेंगलुरु की विशेष न्यायालय में स्थानांतरित हुआ था। न्यायालय ने शशिकला और उनके संबंधियों पर 10 करोड़ और जयललिता पर 100 करोड़ का जुर्माना भी लगाया था। जया ने इस फैसले को कर्नाटक उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी जिसमें बरी होने का फैसला आया था। उच्च न्यायालय ने फैसले के कई आधार दिए थे। उसने कहा था कि जयललिता के पास आय से 8.12 प्रतिशत संपत्ति अधिक थी। यह 10 प्रतिशत से कम है जो मान्य सीमा में है। उसके अनुसार संपत्ति के आकलन को एजेंसियों ने बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है। उसने कुल संपत्ति का आकलन 37 करोड़ किया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि जो संपत्तियां खरीदीं गईं, उसके लिए आरोपियों ने राष्ट्रीयकृत बैंकों से बड़ा कर्ज लिया था। उच्च न्यायालय के अनुसार निचले न्यायालय ने इस पर विचार नहीं किया। यह भी साबित नहीं होता कि अचल संपत्ति काली कमाई से खरीदी गईं। आय के स्रोत जायज हैं। उच्च न्यायालय ने यहां तक कह दिया कि  निचले न्यायालय का फैसला कमजोर था। वह कानून की नजरों में नहीं टिकता।

ऐसी स्पष्ट दिप्प्णी के बाद शशिकला यह उम्मीद कैसे कर सकतीं थी उच्चतम न्यायालय उनको सजा दे ही देगा। यह भी नहीं भूलिए कि मामले की सुनवाई के दौरान 76 गवाह अपने पुराने बयान से पलट चुके थे। ये वे लोग थे जो द्रमुक सरकार में गवाह बनाए गए थे। ंिकंतु उच्चतम न्यायालय की पीठ ने उच्च न्यायालय के सारे आधारों को अस्वीकार कर निचले यानी विशेष न्यायालय के फैसले को मान्य रखा है। यह शशिकला और उनके समर्थकों के लिए बहुत बड़ा अनपेक्षित आघात है। अब शशिकला के सामने उच्चतम न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका दायर करने का विकल्प है किंतु उसमें उनको रियायत मिल ही जाएगी ऐसा कहना मुश्किल है। दरअसल, जयललिता पर 1991 से 1996 के बीच मुख्यमंत्री रहने के दौरान उस समय के मूल्यों के अनुसार आय से ज्यादा 66.44 करोड़ की ज्यादा संपत्ति इकट्ठा करने का आरोप था। उन पर शशिकला के साथ मिलकर 32 ऐसी कंपनियां बनाने का आरोप था जिसके बारे में कहा गया कि इनका कोई व्यवसाय ही नहीं था। 1996 में तत्कालीन जनता पार्टी के नेता और अब भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने मुकदमा दायर किया था। इसमें अभियोजन पक्ष ने जयललिता की संपत्ति का ब्योरा देते हुए आरोप लगाया कि आरोपियों ने जो 32 कंपनियां बनाईं वो सिर्फ काली कमाई से संपत्तियां खरीदती थीं। इसके अनुसार इन कंपनियों के जरिए नीलगिरी में 1000 एकड़ और तिरुनेलवेली में 1000 एकड़ की जमीन खरीदी गई। उन पर गोद लिए गए बेटे वी.एन. सुधाकरण की शादी पर 6.45 करोड़ रुपए तथा अपने घर में अतिरिक्त निर्माण पर 28 करोड़ रुपए लगाने का आरोप लगा। इसके अनुसार जब वो पहली बार 1991 में मुख्यमंत्री बनीं तो अपनी संपत्ति तीन करोड़ रुपए घोषित की। मुख्यमंत्री के रुप में वो एक रुपया मासिक वेतन लेतीं थीं। उनके खिलाफ आरोप यह लगाया गया कि पांच वर्ष की अवधि में उनकी संपत्ति अगर 66.4 करोड़ रुपये की हो गई तो केवल भ्रष्टाचार के कारण। 1996 में उनके घर पर छापा के बाद मिले सामानों की तस्वीरें सारे अखबारों ने प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। वो चौंधिया देने वाली तस्वीरें थीं। उस समय 28 किलो सोना, 800 किलो चांदी, 10500 साड़ियां, 91 घड़ियां और 750 जोड़ी जूते मिले थे। ये सब अभी तक रिजर्व बैंक की बेंगलुरु शाखा में जमा है। कहा गया कि जयललिता अपनी संपत्ति की आय का स्रोत बताने में असफल रहीं। शशिकला पर इस सारे मामलों में उन्हें उत्प्रेरित करने तथा समान भागीदारी का आरोप था। जब उच्चतम न्यायालय ने फैसला दे दिया उसके बाद हम यह नहीं कह सकते कि वाकई ये दोषी नहीं थी। उच्चतम न्यायालय के फैसले पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता।

बहरहाल, जसललिता हमारे बीच नहीं है। आज अगर वो जिन्दा होतीं तो उन्हें फिर मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ता और वो भी जेल जातीं। ऐसी सजा के बाद उन्हें भी 10 वर्षों तक राजनीति से अलग रहना पड़ता। उच्च्तम न्यायालय ने यही कहा है कि चूंकि वो नहीं है इसलिए उनका मुकदमा बंद किया जाता है। किंतु चाहे 1996 हो या 2001 या 2014 तीनों समय जब जयललिता संकट में पड़ीं या उनको जेल जाना पड़ा तो उनके समर्थन में पूरे तमिलनाडु में लोग सड़कों पर छातियां पीटते उतरे। उनके समर्थक यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि वो भ्रष्टाचार कर सकतीं हैं। समर्थकों का यही विश्वास उनकी ताकत थीं जिसकी बदौलत वो राजनीति करतीं रहीं। आप कल्पना करिए। आज अगर जयललिता जीवित होतीं और यह फैसला आया होता तो पूरे तमिलनाडु में क्या स्थिति होती! फिर से लोग सड़कों पर होते और कोहराम मच गया होता। इसी से साबित होता है कि शशिकला जयललिता नहीं है। जयललिता के व्यक्तित्व में एक करिश्मा था जिसने भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बावजूद राजनीति में उनको जिन्दा रखा और अन्नाद्रमुक भी एक बना रहा। वो जेल में रहीं, लेकिन उनका प्रभाव सरकार एवं पार्टी दोनों पर कायम रहा। नेता उनका हर आदेश मानने के लिए तत्पर रहते थे। क्या शशिकला के साथ ऐसा ही होगा?

इसका उत्तर हां में देना कठिन है। आप देख लीजिए, उनको सजा हो गई, पर तमिलनाडु में कहीं कोई जन ज्वार नहीं है। यही तथ्य अन्नाद्रमुक पार्टी तथा सरकार दोनों के भविष्य को लेकर आशंका पैदा करता है। भविष्य का नहीं कह सकते, किंतु अभी तक कोई एक नेता अन्नाद्रमुक में नहीं जिनका नेतृत्व सबको स्वीकार हो। इसमें सरकार का पूरे कार्यकाल तक कायम रहना तथा पार्टी का एक रहना दोनों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह बना रहेगा। जललिता जिन्दा रहतीं और 10 वर्ष तक प्रत्यक्ष राजनीति से दूर रहने के बंधन के बावजूद उनका करिश्मा अन्नाद्रमुक नेताओं को अनुशासन में बांधे रखने तथा पार्टी को एक रखने में कामयाब होता। ऐसा शशिकला के संदर्भ में कतई संभव नहीं है। जाहिर है, आने वाले समय मंें तमिलनाडु में एक नई राजनीतिक रिक्ती दिक्षाई देगी जिसे भरने के लिए एक नई शक्ति के उभरने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

नई पीढ़ी नई-सोच संस्था ने लगाया निःशुल्क नेत्र जांच शिविर

नई पीढ़ी नई-सोच संस्था ने लगाया निःशुल्क नेत्र जांच शिविर
- 145 लोगों ने कराई अपनी जांच
- सभी को आई ड्राप्स व दवाई दी गई
 
 
नई दिल्ली, संवाददाता। नई पीढ़ी नई-सोच संस्था रोजाना कुछ न कुछ कार्य करती रहती है। इसी कड़ी में एक कार्य ओर जुड़ गया है। इस बार संस्था ने एच-4485, गली सितारा शाह, कुतुबुद्दीन चैक, अजमेरी गेट, दिल्ली-6 में निःशुल्क आंखों की जांच का कैंप लगाया इस कैंप में लोगों की आंखों की जांच की गई व लोगों को संस्था की ओर से दवाई भी दी गई। इस कैंप में डाॅ. विकास (आंखों के स्पेशलिस्ट, जग प्रवेश अस्पाताल) व उनकी टीम ने लोगों की आंखों की जांच की। संस्था को हिन्दू-मुस्लिम एकता सेवा समिति की टीम ने भी सहयोग दिया। 
इस जांच शिविर का उद्घाटन संस्था के उपाध्यक्ष मो. रियाज़ व हिन्दू-मुस्लिम एकता सेवा समिति अध्यक्ष मेहरूद्दीन उस्मानी ने किया। इस जांच शिविर में लम्बे समय से आंखों की तकलीफ की जांच गई। 
डॉ. विकास ने बताया कि इस शिविर में 145 लोगों ने आंखों में हो रही तकलीफों की जांच कराई व दवाई भी ली। उन्होंने कहा कि आज आंखों में दर्द आम बीमारी बनती जा रही है। यदि इसे समय पर दिखा लिया जाए तो यह तकलीफ नहीं देती।
हिन्दू-मुस्लिम एकता सेवा समिति अध्यक्ष मेहरूद्दीन उस्मानी ने कहा कि रियाज़ मेरे छोटे भाई जैसा है। इसने मुझे बताया कि इनकी संस्था आंखों की जांच का कैंप लगा रही है और इस मौके पर आपको रहना होगा तो मैंने हां कर दी क्योंकि यह समाज के लिए अच्छा कार्य कर रहे हैं तो मुझे कोई परेशानी नहीं और यह तो मेरा क्षेत्र भी लगता है। इस लिए मेरी टीम भी इस मौके पर आई है।
संस्था के उपाध्यक्ष मो. रियाज़ ने बताया कि इस शिविर में 145 लोगों ने अपनी आंखों की जांच कराई व दवाई प्राप्त की। इस अवसर पर दोनों संस्था के कई पदाधिकारी व सदस्य मौजूद थे, उन्होंने इसमें पूरा सहयोग दिया।









 

दिल्ली में मनाया गया हिंदी उर्दू शायरी का त्यौहार

-दिल्ली पुलिस कर्मी मनीष मधुकर ने किया दावत-ए- सुख़न का आयोजन
-विशेष पुलिस आयुक्त ने मुख्य अतिथि के रूप में की शिरकत
-देश के चुनिंदा 117 शायरों ने सुनायी शायरी

नई दिल्ली। राजधानी में आज हिंदी और उर्दू शायरी का त्यौहार दावत -ए- सुख़न 2 के रूप में मनाया गया। यहां शायरों और कवियों द्वारा गंगो जमुनी तहज़ीब की मिशाल पेश की गयी। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर विशेष पुलिस आयुक्त दिल्ली शशि भूषण कुमार सिंह ने शिरकत की। इस कार्यक्रम में तकरीबन 117 शायरों ने अपने कलाम पेश किए। जिनमें लगभग 13 उस्ताद शायरों का नाम शुमार है। इस कार्यक्रम में जहां एक ओर लोगों ने उर्दू शायरी का लुत्फ़ उठाया वहीं दूसरी ओर गीत और दोहों की गंगा में भी डुबकी लगाने का मौका मिला।
दावत-ए-सुख़न 2 का आयोजन दिल्ली के चाँदनी चौक इलाके में दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी के अमीर ख़ुसरो सभागार में किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत मुख्य अतिथि द्वारा दीप प्रज्ज्वलन और शमा जलाकर की गयी। कार्यक्रम 10 सत्रों में संपन्न हुआ। इस दौरान वरिष्ठ ग़ज़लकार राजेंद्र नाथ रहबर, मंगल नसीम, सीमाब सुल्तानपुरी, बाल स्वरुप राही, सर्वेश चंदौसवी, वक़ार मानवी, ज़फर मुरादाबादी, मंगल नसीम, राणा प्रताप गन्नौरी, देवेंद्र माँझी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, डॉ० इच्छाराम द्विवेदी, बनज कुमार बनज जी की अध्यक्षता में कवियों ने बेहतरीन क़लाम पढ़े। इस दौरान मुख्य अतिथि ने कहा कि लोगों को साहित्य के साथ हमेशा जुड़े रहना चाहिए व साहित्य का सम्मान करना चाहिए। उन्होंने कहा कि आपसी सदभाव बनाये रखने के लिए ऐसे कार्यक्रम निरंतर आयोजित होते रहने चाहिए। दावत-ए-सुख़न 2 के आयोजन समिति के अध्यक्ष मनीष मधुकर ने बताया कि यह कार्यक्रम उनकी पूरी टीम की कोशिशों का फल है। उन्होंने कहा कि देश भर में कविता के प्रचार प्रसार के लिए व नवोदित कवियों को वरिष्ठ कवियों के सानिध्य में पढ़ने का अवसर प्रदान करने के लिए यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। इस दौरान मशहूर उस्ताद शायर देवेन्द्र माँझी की किताब "ग़ज़ल के हिंदी में आसान छंद" का विमोचन भी हुआ।
इस दौरान रसिक गुप्ता, आशीष सिन्हा, अजय अक्स, जितेंद्र प्रीतम, अस्तित्व अंकुर, राम श्याम हसीन, मनोज बेताब, विजय स्वर्णकार, सुधाकर पाठक, सुशीला श्योराण तथा विजय कुमार चौबे आदि लोग उपस्थित रहे।

हिन्दू मुस्लिम एकता सेवा समिति की ओर से फ्री आँखों की जाँच का कैम्प लगाया गया

 
संवाददाता
नई दिल्ली। हिन्दू मुस्लिम एकता सेवा समिति की ओर से फ्री आँखों की जाँच का कैम्प लगाया गया जिसमें 125 लोगों की जाँच की गई और फ्री दवाई दी गई। कैम्प में समिति के अध्यक्ष मेहरुद्दीन उस्मानी, डॉ. विकास और उनकी टीम, समिति के सदस्य व पदाधिकारी व आम जनता।



शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

नगालैंड की इस हिंसा पर क्या कहें

अवधेश कुमार

नगालैंड की हिंसा विचलित करने वाली है। देश के अन्य भागों में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है कि स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का ऐसा तीखा विरोध हो सकता है। इस समय देश के केन्द्रीय संसद एवं विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का संघर्ष चल रहा है और एक राज्य में महिलाओं को स्थानीय निकाय में 33 प्रतिशत आरक्षण क्या दिया गया...आग लग गई। अनेक सरकारी भवनों को आग के हवाले करने के बाद कई इलाकों में कफर्यू लगाना पड़ा है, स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सेना को उतारना पड़ा है। प्रदर्शनकारियों ने मुख्यमंत्री टी आर जेलियांग के निजी घर में ही आग लगा दी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह होगी। सेना या पुलिस लोगों को हिंसा से रोक सकती है, उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है लेकिन जिस भावना से विरोध हो रहा है उसके पीछे जो तर्क दिया जा रहा है उसे नहीं रोक सकती है। दरअसल, विरोधियों का कहना है कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 371-1 के तहत नागा लोगों को जो अपनी परंपरा, संस्कृति, सामाजिक प्रथा की रक्षा के अधिकार मिले हैं उनका उल्लंघन हो रहा है। इसके लिए जानजातीय परिषदों का ज्वाइंट कोआर्डिनेशन कमेटी या संयुक्त समन्वय समिति का गठन हो चुका है। इसे नगा ट्राइबस एक्शन कमेटी या एनटीएसी नाम दिया गया है। इनका कहना है कि महिलाओं की आरक्षण की व्यवस्था उनकी परंपरा पर चोट है।

यह बड़ा विचित्र तर्क है। दरअसल, 2012 में नागा मदर्स संगठन ने उच्चतम न्यायालय में अपील की थी कि वो नागालैंड सरकार को शहरी स्थानीय निकाय में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मुहैया कराने के लिये निर्देश जारी करे। अप्रैल 2016 में उच्चतम न्यायालय ने नागा मदर्स संगठन के पक्ष में फैसला सुनाया। उच्चतम न्यायालय के फैसले के अनुपालन में नागालैंड सरकार ने 16 साल से लंबित शहरी स्थानीय निकायां में चुनाव कराने का फैसला किया। साथ ही उच्चतम न्यायालय के निर्देश को ध्यान में रखते हुए नगालैंड सरकार ने शहरी स्थानीय निकाय में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का प्रस्ताव किया। सामान्य तौर पर यह एक स्वाभाविक स्थिति दिखाई देगी। लेकिन नहीं। संयुक्त समन्वय समिति का मानना है कि सरकार इससे नगालैंड की परंपरा को ध्वस्त कर रही है। यानी राजनीति केवल पुरुषांे के लिए है, इसमें महिलाओं की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। नगालैंड में पर्दा प्रथा नहीं है। आप वहां जाएं तो उपरी तौर पर आपको पुरुषों और महिलाओं में कोई अंतर दिखाई नहीं देगा। किंतु इसके साथ एक सच यह है कि आज तक वहां की विधानसभा में एक भी महिला विधायिका नहीं बनी। हालांकि 1977 में रानो एम शैजा के रुप में एक महिला को लोकसभा में निर्वाचित करके भेजा गया था। यह बात अलग है कि वह केवल अपवाद होकर रह गया।

तत्काल सरकार ने चुनाव टाल दिया है। किंतु इसका हल क्या हो सकता है? चुनाव टालना तो हल नहीं है। यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि नगालैंड की राजधानी कोहिमा को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिया गया है। स्मार्ट सिटी योजना में केन्द्रीय आवंटन आप तभी हासिल कर सकते हैं जबकि कुछ शर्तें मानें। इसमंे शहरी निकाय चुनाव तथा 33 प्रतिशत महिला आरक्षण शामिल हैं। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो स्मार्ट सिटी केवल नाम का रह जाएगा। जब आपको धन नहीं मिलेगा तो निर्माण कहां से करेंगे। तो एक ओर उच्चतम न्यायालय का निर्णय दूसरी ओर स्मार्ट सिटी योजना की शर्तें। इसमें जेलियांग सरकार के पास विकल्प क्या है? चुनाव को कब तक टाला जा सकता है? उसे चुनाव कराना ही होगा और चुनाव 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के प्रावधान के तहत ही होना चाहिए। यह बिल्कुल न्यायसंगत स्थिति होगी। लेकिन ट्राइब्स एक्शन कमेटी ने राज्यपाल पीबी आचार्य को जो ज्ञापन सौंपा है उसमें कहा गया है कि सरकार ने चुनाव रद्द करने की मांग नहीं मानी इसलिए हिंसा हुई। उसमें पूरी सरकार को बरखास्त करने की मांग भी है। साफ है कि एनटीएसी जेलियांग सरकार के इस्तीफे से कम पर मानने को तैयार नहीं है।

निष्पक्षता से विचार करें तो इस पूरे प्रकरण में सरकार निर्दोष दिखाई देती है। उसने वही किया जो उसे करना चाहिए था। हालांकि दुर्भाग्य से हिंसा के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में दो लोग मारे गए और उससे स्थिति और बिगड़ गई। स्थिति बिगड़ने का यह एक तात्कालिक पहलू है। चूंकि विरोध में राजनीति भी हो रही है, इसलिए इस मौत का पूरा राजनीतिक उपयोग होगा। इस पहले से सरकार को संवेदनशीलता के साथ निपटना होगा। लेकिन महिला को राजनीति से अलग करने की सोच का क्या किया जाए? अगर वाकई वहां आदिवासी संगठनों की यही सोच है तो फिर इसका समाधान जरा कठिन है। वैसे एक और पहलू आश्चर्य में डालता है। नगालैंड के ग्राम विकास बोर्डों में महिलाओं को 25 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है। इसका विरोध तो नहीं हुआ। इसलिए कई बार यह भी आशंका पैदा होती है कि कहीं इसके पीछे कोई षडयंत्र तो नहीं। वैसे भी किसी कदम का अहिंसक विरोध समझ में आता है। किंतु इतनी व्यापक हिंसा कि जगह-जगह सरकारी भवनों को आगे के हवाले किया जाए यह कौन सा आंदोलन है। यह लोकतांत्रिक आंदोलन का तरीका नहीं है। यह काननू हाथ में लेना है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। तो इसके पीछे कुछ उपद्रवी तत्वों की साजिश हो सकती है। शेष लोग इस साजिश को न समझने के कारण उनके साथ आ गए होंगे।

 जाहिर है, सरकार को दोनों पहलुओं को ध्यान में रखते हुए कदम उठाना होगा। देश के अनेक राज्यों मंें महिलाओं को स्थानीय निकायों में आरक्षण मिला हुआ है। यह महिलाओं के उत्थान तथा पुरुषों के समक्ष लाकर उनको निर्णय प्रक्रिया मंे भागीदारी के लिए आवश्यक है। यह होना ही चाहिए। भारत देश का भाग होने के नाते नगालैंड इसका अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए इस पक्ष पर तो सरकार को दृढ़ता दिखानी होगी। यह नहीं हो सकता कि किसी सही कदम का विरोध हो और हाथ पीछे खींच लिया जाए। दूसरी ओर पूरे घटनाक्रम की गहराई से जाचं होनी चाहिए। इसके पीछे यदि कोई दूसरा सच है तो वह भी सामने आना चाहिए। किंतु इसके साथ यदि नगालैंड में कुछ लोगों के अंदर भी महिलाओं को राजनीति में नहीं आने की सोच है और इसे वहां की संस्कृति और परंपरा का अंग बताने वालों की संख्या है तो फिर इसका समाधान दूसरा होगा। इसके लिए तो मानसिकता बदलने का अभियान चलाना होगा। भारत सहित दुनिया भर का उदाहरण देकर यह बताना होगा कि आज चारों ओर महिलाएं पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। वे निर्णय प्रक्रिया में शीर्ष पर भी हैं। ऐसा न करने से नगालैड पिछड़ा प्रदेश रह जाएगा। उन्हें समझाना पड़ेगा कि संविधान में जो आपको अपनी संस्कृति और रीति रिवाज के संरक्षण का जो विशेषाधिकार मिला है वह इससे उल्ल्ंांघित नहीं होता है। इस विषय को केवल राज्य के हवाले छोडना भी उचित नहीं होगा। वास्तव में यह संकट केवल राज्य का नहीं पूरे देश का है। देश भर की महिला संगठनाें और नेत्रियों का नगालैंड में कार्यक्रम होना चाहिए। केन्द्र सरकार को भी उन संगठनों से बात करनी चाहिए जो अंादोलन में शामिल हैं।

अवधेश कुमार, : 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.: 01122483408, 9811027208

 

 

 

 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

समय का प्रत्युत्तर देने वाला बजट

 

अवधेश कुमार

वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत बजट में किसी को आश्चर्य में डालने वाला कोई तत्व नहीं है। एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण में जो विचार एवं सुझाव पेश किए गए थे बजट मुख्यतः उसी को साकार करने वाला दस्तावेज है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि बजट लकीर का फकीर है। आश्चर्य का तत्व इस मायने में नहीं है कि आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने अपनी दिशा का संकेत दे दिया था। वस्तुतः इसे प्रस्तुत भले जेटली ने किया था लेकिन विमुद्रीकरण की तरह ही यह मूलतः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बजट है। मोदी सरकार ने यदि 1924 से चली आ रही तारीख को बदलकर तथा रेल बजट को समाप्त कर इतिहास रचने का निर्णय किया तो उसके साथ यह सवाल अवश्य नत्थी होता था कि क्या तारीख की तरह बजट भी इतिहास रचेगा? यह यथास्थितिवाद का बजट बहोगा या इसमें कुछ नया विजन होगां? अगर आर्थिक सर्वेक्षण एवं बजट दोनों को साथ मिलाकर देखें तो कम से कम यह स्वीकार करना होगा कि इसमें नई दृष्टि और नए विचार समाहित हैं। देश के सामने जो आर्थिक चुनौतियां हैं उनका रेखांकन आर्थिक सर्वेक्षण में किया गया था एवं साहस के साथ बजट में उसका सामना करने की कोशिश है। बजट को लेकर जो जन अपेक्षाएं थीं उनको काफी हद तक अभिव्यक्त किया गया है। साथ ही भारत को प्रमुख आर्थिक शक्ति के रुप में खड़ा करने का जो सपना है उस दिशा में भी पर्याप्त छलांग लगाने का प्रयास इस बजट में देखा जा सकता है।

सरकार के लिए अर्थव्यवस्था के कुछ सकारात्मक पहलू सहायक रहे हैं। उदाहरण के लिए महंगाई दर दोनों स्तरों पर नियंत्रण में रहा है। इसलिए इस मोर्चे पर बहुत ज्यादा करने की आवश्यकता उसे नहीं थी। बहरहाल, विमुद्रीकरण के बाद के पहले बजट में उसकी प्रतिध्वनि का होना स्वाभाविक था। आर्थिक समीक्षा में इसके असर को कम करने के लिए चार सुझाव दिए गए थे। पहला, तेजी से रिमोनेटाइजेशन हो और जल्द से जल्द नकद निकासी सीमा को हटाया जाए। इससे विकास में सुस्ती और नकद की जमाखोरी कम होगी। दूसरा, डिजिटलाइजेशन को रफ्तार देने के साथ ही सुनिश्चित किया जाए कि यह बदलाव धीरे-धीरे, अंतवर्ती तथा प्रोत्साहन पर आधारित हो। तीसरा, नोटबंदी के बाद अब जीएसटी में भूमि और रियल एस्टेट को लाया लाया जाए। चौथा, कर दरों और स्टैम्प ड्यूटी में कमी लाए जाए। कर प्रणाली में सुधार से  े आय की सही घोषणा को बढ़ावा मिलता है। यह तो नहीं कहा जा सकता है ये सारे कदम उठाए गए हैं, पर कुछ किया गया है। 2. 5 लाख से 3 लाख तक आयकर में बदलाव इसका उदाहरण है। यह आवश्यक था। छोटे कारोबारियों के लिए निगम कर में 5 प्रशित कमी लाना भी इसी दिशा का कदम है।  ंिडजलटीकरण की दिशा में जितना संभव है किया गया है। दरअसल, सरकार का भ्रष्टाचार एवं कालाधन के अंत के लिए लेनदेन में पारदर्शिता लाने के संकल्प को पूरी शिद्यत के साथ बजट में रेखांकित किया गया हैै। 3 लाख से ज्यादा नकदी लेनदेन पर रोक, ट्रस्टों को 2 हजार तक ही नकद चंदा दिए जाने तथा सबसे बढ़कर राजनीतिक दलों को 2 हजार तक के नकद चंदा का प्रावधान ऐतिहासिक है। राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता लाने के इतने बड़े कदम की उम्मीद कम लोगों को ही थी।

आर्थिक समीक्षा में साफ कहा गया था कि विमुद्रीकरण का असर विकास और रोजगार पर पड़ा है। इसलिए विकास लक्ष्य को आप बहुत महत्वाकांक्षी नहीं रख सकते। चूंकि दुनिया भर में अर्थव्यवस्था और व्यापार को लेकर अनिश्चितता है, कुछ देश संरक्षणवाद की नीति पर चल रहे है उसमें भारत अकेले टापू साबित नहीं हो सकता। इसके संभावी असर को स्वीकार कर विकास दर को व्यावहारिक स्तर पर रखा जाना ही उचित था। हालांकि इस लक्ष्य पर कायम रहने से भी भारत दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था कहलाएगी। सरकार के लिए संतोष का विषय यह है कि कृषि ं मौजूदा वित्त वर्ष में 4.1 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। पिछले वर्ष कृषि विकास की दर 1.2 प्रतिशत रही थी। कृषि विकास का अर्थ भारत के 56-57 प्रतिशत लोगों की बेहतर स्थिति का होना है। बेहतर मानसून के कारण इस वर्ष भी कृषि विकास दर बेहतर रहेगी। रबी फसलों की बुवाई का आंकड़ा उत्साहजनक है। यह सरकार को आंखमूंदकर कई कठोर कदम उठाने का आधार प्रदान करता है। सरकार ने बजट को जिन दस स्तंभों पर आधारित किया है उसमें किसान, गांव और कृषि प्रमुख है। 21 लाख 47 हजार करोड़ के बजट में काफी कुछ इसके लिए दिया गया है। सरकार ने कृषि को और ताकत देने के लिए इसके लिए आवंटन राशि में ही वृद्धि नहीं की है, केवल कृषि के लिए कर्ज को ही नहीं बढ़ाया है, मिशन मोड में चल रहे प्रधानमंत्री सिंचाई योजना को भी तेज किया है, कृषि बीमा की योजना का विस्तार कर उसकी राशि को बढ़ाया है। विमुद्रीकरण से किसान काफी प्रभावित हुए थे। वैसे तो बजट के पहले ही सरकार उस दौरान उनके ब्याज दर को माफ कर दिया था। बजट में इसे ही विस्तारित कर उनको और छूटें दी गईं हैं। भारत मंे यदि कृषि की गति ठीक रहे तो अन्य संकट से हमारा देश आसानी से बच सकता है। ग्रामीणों की ज में धन आने का मतलब बाजार में खरीदारी का बढ़ना है और इससे चतुर्दिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

सरकार ने पिछले तीन बजटों में भी इस धारणा को तोड़ने की कोशिश की थी कि यह उद्योगपतियों की नहीं, उद्योग एवं करोबार के साथ संतुलन बिठाते हुए गांव की चिंता करने वाले, गरीबों का कल्याण करने वालों की सरकार है। इस बजट मंे भी इसे आगे बढ़ाया गया है। ग्रामीण विकास पर खास बल देना इसी का द्योतक है। कह गया है चले गांवों की और। वैसे भी भारत को विकसित करना है तो गांव और कृषि को सशक्त करना ही होगा। सेवा क्षेत्र यद्यपि संतोषजनक स्तर पर है लेकिन गांवों के लोगों की आर्थिक ताकत बढ़ने से सेवा क्षेत्र की भी वृद्वि होगी। सरकार के लिए चिंता का क्षेत्र वर्ष 2016-17 में औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि दर के कम होकर 5.2 फीसद के स्तरर पर आ जाना है। वर्ष 2015-16 में यह वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत थी। हालांकि आठ प्रमुख ढांचागत सहायक उद्योगों अर्थात कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी उत्पातद, उर्वरक, इस्पाात, सीमेंट और बिजली का अप्रैल-नवम्बर 2016-17 के दौरान 4.9 प्रतिशत की वृद्धि दर संतोषजनक है। पिछले वर्ष की समान अवधि में यह दर 2.5 प्रतिशत थी। लेकिन यह उस स्तर पर नहीं है जिसकी हमारी कामना है। अर्थव्यवस्था को कृषि, उद्योग एवं कारोबार सबके साथ संतुलित करने की आवश्यकता है। सरकार ने उद्योग वृद्धि के लिए जिन कदमों की घोषणाएं की हैं उनका असर होना चाहिए।

अर्थव्यवस्था में निजी निवेश की कमी चिंताजनक है। इसलिए सरकार के सामने इसे प्रोत्साहन देने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता थी और उसने उठाया है लेकिन निश्चयात्मक रुप से यह नहीं कह सकते कि निवेश होगा ही, इसलिए सार्वजनिक निवेश के विकल्प को अपनाया गया है। आधारभूत संरचना में निवेश का असर बहुआयामी होता है। हालांकि आवास के क्षेत्र में पहले से काफी कुछ किया गया है। 2022 तक सभी के लिए घर योजना के अंतर्गत सरकार ने पिछले बजट में काफी कदम उठाए थे जिनका प्रभाव इस क्षेत्र पर पड़ा है। निम्न मध्यम वर्ग एवं निम्न वर्ग की पहुंच की घर को बढ़ावा देने की योजना पर काफी काम हुआ है इसलिए इस बजट में बहुत कुछ करने की गुंजाइश नहीं थी। तब भी काफी कुछ हुआ है। इससे एक साथ अनेक उद्योगों के काम बढ़ेंगे एवं रोजगार के क्षेत्र में तीव्र विकास होगा। 5 वर्षों से रोजगार क्षेत्र में नकारात्मक विकास को खत्म करने के लिए यह अपरिहार्य था। आधारभूत संरचना के विकास तथा आवासों के निर्माण के साथ भारी रोजगार वृद्धि अविच्छिन्न रुप से जुड़ा है। 

आयात-निर्यात के मोर्चे पर आएं तो निर्यात में लगातार हो रही ऋणात्मक वृद्धि के रुख में कुछ हद तक सुधार के लक्षण दिखे हैं। अप्रैल से दिसंबर के बीच निर्यात 0.7 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 198.8 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है। इसी दौरान आयात 7. 4 प्रतिशत घटकर 275.4 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया। कुल मिलाकर 2016-17 (अप्रैल-दिसंबर) के दौरान व्यारपार घाटा कम होकर 76.5 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया है जबकि इससे पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में यह 100.1 अरब अमेरिकी डॉलर था। कुल मिलाकर वर्ष 2016-17 की प्रथम छमाही में चालू खाता घाटा भी कम होकर सकल घरेलू उत्पाद के 0.3 प्रतिशत पर आ गया, जबकि 2015-16 की प्रथम छमाही में यह 1.5 प्रतिशत और 2015-16 के पूरे वित्त वर्ष में यह 1.1 प्रतिशत था। इससे कुछ क्षण के लिए हम संतुष्ट हो सकते हैं। किंतु बजट एवं आर्थिक सर्वेक्षण दोनों में कच्चे तेल के दामों में वृद्धि को चुनौती माना गया है। कच्चे तेल के दाम जिस तरह बढ़े हैं उसमें व्यापार घाटा तथा चालू खाते का घाटा बढ़ सकता है। यह हमारे हाथ में नहीं है। बजट ने इसे साफ किया है। इसके हल के लिए दूसरे रास्ते निकालने होंगे। संयुक्त अरब अमीरात के साथ तेल भंडारण का करार इस दिशा में एक बेहतर कदम हो सकता है।

राजकोष को देखें तो यह 3.2 प्रतिशत लक्ष्य संतोषजनक है। इसके लिए गठित एनके सिंह समिति ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को दिया उसके अनुसार बजट में कदम उठाने की संभावना थी। सरकार राजकोषीय नियंत्रण एवं बजट प्रबंधन कानून में बदलाव का विधेयक इसी सत्र में लाएगी। इससे राजकोषीय घाटा की अवधारणा में भी बदलाव आ सकता है। वैसे भी अप्रत्यक्ष करों के संग्रह में अप्रैल-नवम्बर 2016 के दौरान 26.9 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आर्थिक सर्वेक्षण में आर्थिक गतिशीलता और सामाजिक न्याय दिलाने के लिए सुधारों की सिफारिश की गई थी। इसी में गरीबी मिटाने के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम लाने का सुझाव था। हालांकि वह नहीं हुआ लेकिन अन्य प्रावधान है। 5 लाख पंचायतों एवं 1 करोड़ लोगों को 2019 तक गरीबी से मुक्त करने का लक्ष्य बहुत बड़ा है। तो कुल मिलाकर यह संतुलित, साहसी, विकास और रोजगार को बढ़ावा देने वाला, समाज में पारदर्शिता स्थापित करने तथा गांवों तक सूचना क्रांति का लाभ पहुंचाकर डिजीटलीकरण के लक्ष्य को हासिल करने वाला एक यादगार बजट माना जाएगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30 , गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

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