शनिवार, 31 दिसंबर 2016

निगम पार्षद तुलसी गाँधी ने गांधी नगर की प्रताप गली और जैन मंदिर की गलियों का उद्घाटन किया

मो. रियाज़

नई दिल्ली। धर्मपुरा वार्ड नंबर 233 की निगम पार्षद तुलसी गांधी के अथक प्रयासों से गलियों के निर्माण के लिए एम.सी.डी. द्वारा फण्ड पास होने पर गांधी नगर के प्रताप गली और जैन मंदिर गली को आर.सी.सी की गली बनाने का शुभारंभ हुआ। इस अवसर पर निगम पार्षद तुलसी गांधी के साथ वार्ड अध्यक्ष अशोक शर्मा, जितेन्द्र शर्मा, राकेश कंगरा, जोग सिंह, सतवीर, नाजिम सलमानी, मुन्ना भाई, मंदिर वाले बाबा व कांग्रेस परिवार आदि की उपस्थिति में उद्घाटन किया गया। 

 


शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

प्रधानमंत्री की आक्रामकता का अर्थ

 

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार जिस तरह से कालाधन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं चेतावनी दे रहे हैं उनसे निस्संदेह संघर्ष के संकल्प का आभास मिलता है। हालांकि उसमेें देश को नकदीरहित या कम नकदी के प्रयोग की ओर ले जाने का आह्वान भी करते हैं, लेकिन इसे भी कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का ही अंग बनाकर पेश करते हैं। प्रधानमंत्री ने वर्ष के अपनी इस आखरी बार मन की बात को एक प्रकार से पूरी तरह कालाधन रखने वालों के खिलाफ केन्द्रित कर दिया। इसी तरह एक दिन पहले पुणे एवं मुंबई के भाषणों में भी उन्होंने यही किया। हमने पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध नेताओं के भाषण सुने हैं, कार्रवाइयां भी देखी हैं, पर इसके पहले देश ने किसी प्रधानमंत्री के मुंह से इस तरह की आक्रामकता नहीं देखी गई। प्रधानमंत्री कालाधन रखने वालों और भ्रष्टाचारियों को खुलेआम चेतावनी दे रहे हैं कि आप बदल जाइए, जो कानून है उसका पालन करिए, मुख्य धारा में आ जाइए और चैन की नींद सोइए नहीं तो हमें आपके विरुद्ध कार्रवाई करनी ही होगी। इसी तरह मन की बात में उन्होंने जनता से कहा कि सरकार प्रतिबद्ध है और आपका सहयोग है तो लड़ना आसान है। मैं विश्वास दिलाता हूं कि ये पूर्णविराम नहीं है। रुकने या थकने का सवाल ही नहीं उठता।

अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि सरकार प्रतिबद्ध है, रुकने या थकने का सवाल नहीं है तो इसके अर्थ गंभीर होते हैं। इसका अर्थ होता है कि सरकार भ्रष्टाचारियों और कालाधन वालों को पकड़ने तथा सजा दिलवाने एवं ईमानदारी को प्रोत्साहित करने के लिए जितना कुछ संभव होगा अवश्य करेगी। तो क्या कर सकती है सरकार? कुछ की तो उन्होंने चर्चा भी की। मसनल, जगह-जगह छापेमारी हो रही है। नए और पुराने नोट पकड़े जा रहे हैं, सोने पकड़ें जा रहे हैं, बेनामी संपत्तियों के कागजात पकड़े जा रहे हैं....। इस अभियान के बीच यह तो साफ हो गया है कि कालधन रखने वालों ने बैंकों के कुछ कर्मियों के साथ मिलकर अपने धन को सफेद करने की कोशिश की। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा भी कि वो तो गए ही, वैसे बैंककर्मियों को भी अपने साथ ले गए। यह वाक्य व्यंग्य में कहा गया था लेकिन इसमें एक चेतावनी और कार्रवाई का संदेश भी निहित था। यानी इस तरह की गड़बड़िया करने वालों को छोड़ा नहीं जाएगा। प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात में तू डाल डाल हम पात पात कहावत का उल्लेख भी किया। मन की बात में प्रधानमंत्री ने लोगों के पत्रों की भी चर्चा की। अगर उनका कहना सच है तो फिर देश से भारी संख्या में इस अभियान को समर्थन मिल रहा है। उन्होंने कहा कि मुझे पत्र लिखकर लोग कहते हैं कि मोदी जी रूकना मत, भ्रष्टाचार को रोकने में जितने कड़े कदम उठाना पड़े उठाना। इसके द्वारा प्रधानमंत्री यही संदेश देना चाह रहे थे कि जब लोग हमारे साथ हैं तो हमें कार्रवाई करने में कोई समस्या नहीं है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि लोग भ्रष्टाचारियों के खिलाफ हैं, कालधन रखने वालों के खिलाफ हैं और कड़ी कार्रवाई चाहते हैं। जब लोग चाहते हैं तो सरकार को वैसा करना ही होगा।

मन की बात सहित प्रधानमंत्री के ऐसे सारे भाषणों को एक साथ मिला दें तो इसका एक निष्कर्ष साफ है- सरकार ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिस अभियान की शुरुआत कर दी है वह आगे बढ़ता रहेगा। प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश भर में जो छापेमारी हो रही है वह सब आम जनता द्वारा दी गई जानकारियों के आधार पर हैं। यह हो सकता हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय में फोन से, ईमेल से, माई गव वेबसाइट आदि पर लोग कुछ सूचनाएं देते हों कि फलां बैंक में गड़बड़ियां हो रहीं हैं। यह एक रणनीतिक बयान भी हो सकता है ताकि भय से कोई बैंककर्मी ऐसा न करे। यानी उसको यह विश्वास हो कि हम कुछ कर रहे हैं तो कोई न कोई किसी तरह प्रधानमंत्री तक यह बात पहुंचा देगा और मेरे खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। जो भी हो हमें मानकर चलना होगा कि ऐसी छापामारी और धड़पकड़ की कार्रवाइयां आने वाले समय में भी हमें देखने को मिलेगी। वैसे भी प्रधानमंत्री ने इसके बाद बेनामी संपत्ति के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी साफ शब्दों मंे दे ही दिया। यह सच है कि 1988 के बेनामी सपंत्ति कानून में संशोधन कर सरकार ने इसे ज्यादा कड़ा बनाया। उसके तहत अगर कार्रवाई होगी तो फिर बेनामी संपत्ति वालांे की खैर नहीं।

लेकिन यह सब सुनने में जितना रोमांचक लगता है, आसान दिखता है उतना है नहीं। यह बात तो समझ में आती है कि लगातार कार्रवाई से एक भय पैदा होता है और इसके परिणामस्वरुप भी बहुत सारे लोग भ्रष्टाचार करने से बाज आते हैं। किंतु इतने बड़े देश में जहां भ्रष्टाचार एक बड़े वर्ग का स्वभाव बन चुका है, जहां इस वर्ग के लिए कालाधन ही सफेद धन का पर्याय हो गया हो, जहां घुसखोरी को अपने काम करने का पारिश्रमिक मानने की मानसिकता हो, वहां कालाधन, भ्रष्टाचार का खात्मा कठिन है। आखिर एक-एक आदमी की जांच कौन करेगा? केन्द्र सरकार की जो एजेंसियां हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। उनके पास सीमित कर्मचारी हैं और उनके जिम्मे दूसरे काम भी हैैं। फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि जिन विभागों को कालाधन, भ्रष्टाचार सहित बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कार्रवाई कर उसे सरकारी खजाने में लाना तथा ऐसा करने वालों को कठघरे में खड़ा करने की जिम्मेवारी हैं वो सत्य हरिश्चन्द्र के वंशज हैं यानी खांटी ईमानदार हैं? वे भी तो बेईमान हो सकते हैं। वो भी तो लेनदेन करके मामले को रफा-दफा कर सकते हैं। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो। प्रधानमंत्री को कहां से सारी सूचनाएं मिल जाएंगी और ऐसी कुछ सूचनाएं मिलतीं भी हैं तो जहां रक्षक ही भक्षक हो जाए वहां कोई क्या कर सकता है।

इसलिए प्रधानमंत्री के अंदर यदि वाकई भ्रष्टाचार को नष्ट करने इरादा है, यदि वे वाकई आगे बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कार्रवाई करना चाहते हैं तो उसका समर्थन किया जाएगा, लेकिन यह विश्वास करना कठिन है कि केवल सरकारी स्तर की ऐसी कार्रवाइयों से इस लड़ाई में पूर्ण विजय मिल जाएगी। हम नहीं कहते कि इसका असर नहीं होगा। अवश्य होगा। कानूनी कार्रवाइयों का असर होता है लेकिन इसकी अपनी सीमाएं भी हैं। जहां तक नकदी की जगह गैर नकदी लेनदेन को बढ़ावा देने की बात है तो अगर देश के बड़े वर्ग की आदत में यह शुमार हो तो भ्रष्टाचार में कमी आएगी। सरकार इसके प्रचार-प्रसार के लिए जितना कुछ कर रही है उसका असर भी हो रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में इसकी अपील कर रहे हैं, लोगों को समझा रहे हैं, मन की बात मंें भी उन्होंने इसकी विस्तृत चर्चा की.....इन सबका असर नहीं होगा ऐसा नहीं है। बावजूद इन सबके क्या हम यह कह सकते हैं कि सरकार के इन सारे अभियानों से भ्रष्टाचार नियंत्रित हो जाएगा, कालाधन पर मर्तांतक चोट पड़ेगी तथा बेनामी संपत्तियों के खोल तार-तार हो जाएंगे? विश्वास के साथ हां में इसका उत्तर देना कठिन है। वस्तुतः भ्रष्टाचार कानूनी से ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या बन चुकी है। जब तक समाज में स्वाभाविक रुप से ईमानदार रहने, देश के प्रति समर्पण, नैतिक और सदाचार व्यवहार के भाव का माहौल नहीं होगा कोई भी अभियान पूरी तरह सफल नहीं हो सकता। इसके लिए देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है जिनसे हमको आपको झकझोड़ा जा सके, हमें भान कराया जा सकंे कि वाकई ऐसा करने वाले हम अपराधी हैं, पापी हैं..। सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का ऐसा काम नहीं हो रहा है। वैसे कानून और व्यवस्था भी हमारे यहां राज्यों का विषय है। ऐसे कानूनी अभियानों की सफलता के लिए राज्यों का पूरा साथ चाहिए। अभी तक केन्द्र की कार्रवाइयों से अनेक राज्य सरोकार नहीं दिखा रहे हैं। इस स्थिति को भी बदलना होगा। प्रधानमंत्री यदि कानून के स्तर से जितनी सफलता मिल सकती है उसे पाना चाहते हैं तो फिर राज्यों को साथ लेने की बड़ी पहले करनी होगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,9811027208

 

प्रधानमंत्री की आक्रामकता का अर्थ

 

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार जिस तरह से कालाधन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं चेतावनी दे रहे हैं उनसे निस्संदेह संघर्ष के संकल्प का आभास मिलता है। हालांकि उसमेें देश को नकदीरहित या कम नकदी के प्रयोग की ओर ले जाने का आह्वान भी करते हैं, लेकिन इसे भी कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का ही अंग बनाकर पेश करते हैं। प्रधानमंत्री ने वर्ष के अपनी इस आखरी बार मन की बात को एक प्रकार से पूरी तरह कालाधन रखने वालों के खिलाफ केन्द्रित कर दिया। इसी तरह एक दिन पहले पुणे एवं मुंबई के भाषणों में भी उन्होंने यही किया। हमने पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध नेताओं के भाषण सुने हैं, कार्रवाइयां भी देखी हैं, पर इसके पहले देश ने किसी प्रधानमंत्री के मुंह से इस तरह की आक्रामकता नहीं देखी गई। प्रधानमंत्री कालाधन रखने वालों और भ्रष्टाचारियों को खुलेआम चेतावनी दे रहे हैं कि आप बदल जाइए, जो कानून है उसका पालन करिए, मुख्य धारा में आ जाइए और चैन की नींद सोइए नहीं तो हमें आपके विरुद्ध कार्रवाई करनी ही होगी। इसी तरह मन की बात में उन्होंने जनता से कहा कि सरकार प्रतिबद्ध है और आपका सहयोग है तो लड़ना आसान है। मैं विश्वास दिलाता हूं कि ये पूर्णविराम नहीं है। रुकने या थकने का सवाल ही नहीं उठता।

अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि सरकार प्रतिबद्ध है, रुकने या थकने का सवाल नहीं है तो इसके अर्थ गंभीर होते हैं। इसका अर्थ होता है कि सरकार भ्रष्टाचारियों और कालाधन वालों को पकड़ने तथा सजा दिलवाने एवं ईमानदारी को प्रोत्साहित करने के लिए जितना कुछ संभव होगा अवश्य करेगी। तो क्या कर सकती है सरकार? कुछ की तो उन्होंने चर्चा भी की। मसनल, जगह-जगह छापेमारी हो रही है। नए और पुराने नोट पकड़े जा रहे हैं, सोने पकड़ें जा रहे हैं, बेनामी संपत्तियों के कागजात पकड़े जा रहे हैं....। इस अभियान के बीच यह तो साफ हो गया है कि कालधन रखने वालों ने बैंकों के कुछ कर्मियों के साथ मिलकर अपने धन को सफेद करने की कोशिश की। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा भी कि वो तो गए ही, वैसे बैंककर्मियों को भी अपने साथ ले गए। यह वाक्य व्यंग्य में कहा गया था लेकिन इसमें एक चेतावनी और कार्रवाई का संदेश भी निहित था। यानी इस तरह की गड़बड़िया करने वालों को छोड़ा नहीं जाएगा। प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात में तू डाल डाल हम पात पात कहावत का उल्लेख भी किया। मन की बात में प्रधानमंत्री ने लोगों के पत्रों की भी चर्चा की। अगर उनका कहना सच है तो फिर देश से भारी संख्या में इस अभियान को समर्थन मिल रहा है। उन्होंने कहा कि मुझे पत्र लिखकर लोग कहते हैं कि मोदी जी रूकना मत, भ्रष्टाचार को रोकने में जितने कड़े कदम उठाना पड़े उठाना। इसके द्वारा प्रधानमंत्री यही संदेश देना चाह रहे थे कि जब लोग हमारे साथ हैं तो हमें कार्रवाई करने में कोई समस्या नहीं है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि लोग भ्रष्टाचारियों के खिलाफ हैं, कालधन रखने वालों के खिलाफ हैं और कड़ी कार्रवाई चाहते हैं। जब लोग चाहते हैं तो सरकार को वैसा करना ही होगा।

मन की बात सहित प्रधानमंत्री के ऐसे सारे भाषणों को एक साथ मिला दें तो इसका एक निष्कर्ष साफ है- सरकार ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिस अभियान की शुरुआत कर दी है वह आगे बढ़ता रहेगा। प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश भर में जो छापेमारी हो रही है वह सब आम जनता द्वारा दी गई जानकारियों के आधार पर हैं। यह हो सकता हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय में फोन से, ईमेल से, माई गव वेबसाइट आदि पर लोग कुछ सूचनाएं देते हों कि फलां बैंक में गड़बड़ियां हो रहीं हैं। यह एक रणनीतिक बयान भी हो सकता है ताकि भय से कोई बैंककर्मी ऐसा न करे। यानी उसको यह विश्वास हो कि हम कुछ कर रहे हैं तो कोई न कोई किसी तरह प्रधानमंत्री तक यह बात पहुंचा देगा और मेरे खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। जो भी हो हमें मानकर चलना होगा कि ऐसी छापामारी और धड़पकड़ की कार्रवाइयां आने वाले समय में भी हमें देखने को मिलेगी। वैसे भी प्रधानमंत्री ने इसके बाद बेनामी संपत्ति के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी साफ शब्दों मंे दे ही दिया। यह सच है कि 1988 के बेनामी सपंत्ति कानून में संशोधन कर सरकार ने इसे ज्यादा कड़ा बनाया। उसके तहत अगर कार्रवाई होगी तो फिर बेनामी संपत्ति वालांे की खैर नहीं।

लेकिन यह सब सुनने में जितना रोमांचक लगता है, आसान दिखता है उतना है नहीं। यह बात तो समझ में आती है कि लगातार कार्रवाई से एक भय पैदा होता है और इसके परिणामस्वरुप भी बहुत सारे लोग भ्रष्टाचार करने से बाज आते हैं। किंतु इतने बड़े देश में जहां भ्रष्टाचार एक बड़े वर्ग का स्वभाव बन चुका है, जहां इस वर्ग के लिए कालाधन ही सफेद धन का पर्याय हो गया हो, जहां घुसखोरी को अपने काम करने का पारिश्रमिक मानने की मानसिकता हो, वहां कालाधन, भ्रष्टाचार का खात्मा कठिन है। आखिर एक-एक आदमी की जांच कौन करेगा? केन्द्र सरकार की जो एजेंसियां हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। उनके पास सीमित कर्मचारी हैं और उनके जिम्मे दूसरे काम भी हैैं। फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि जिन विभागों को कालाधन, भ्रष्टाचार सहित बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कार्रवाई कर उसे सरकारी खजाने में लाना तथा ऐसा करने वालों को कठघरे में खड़ा करने की जिम्मेवारी हैं वो सत्य हरिश्चन्द्र के वंशज हैं यानी खांटी ईमानदार हैं? वे भी तो बेईमान हो सकते हैं। वो भी तो लेनदेन करके मामले को रफा-दफा कर सकते हैं। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो। प्रधानमंत्री को कहां से सारी सूचनाएं मिल जाएंगी और ऐसी कुछ सूचनाएं मिलतीं भी हैं तो जहां रक्षक ही भक्षक हो जाए वहां कोई क्या कर सकता है।

इसलिए प्रधानमंत्री के अंदर यदि वाकई भ्रष्टाचार को नष्ट करने इरादा है, यदि वे वाकई आगे बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कार्रवाई करना चाहते हैं तो उसका समर्थन किया जाएगा, लेकिन यह विश्वास करना कठिन है कि केवल सरकारी स्तर की ऐसी कार्रवाइयों से इस लड़ाई में पूर्ण विजय मिल जाएगी। हम नहीं कहते कि इसका असर नहीं होगा। अवश्य होगा। कानूनी कार्रवाइयों का असर होता है लेकिन इसकी अपनी सीमाएं भी हैं। जहां तक नकदी की जगह गैर नकदी लेनदेन को बढ़ावा देने की बात है तो अगर देश के बड़े वर्ग की आदत में यह शुमार हो तो भ्रष्टाचार में कमी आएगी। सरकार इसके प्रचार-प्रसार के लिए जितना कुछ कर रही है उसका असर भी हो रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में इसकी अपील कर रहे हैं, लोगों को समझा रहे हैं, मन की बात मंें भी उन्होंने इसकी विस्तृत चर्चा की.....इन सबका असर नहीं होगा ऐसा नहीं है। बावजूद इन सबके क्या हम यह कह सकते हैं कि सरकार के इन सारे अभियानों से भ्रष्टाचार नियंत्रित हो जाएगा, कालाधन पर मर्तांतक चोट पड़ेगी तथा बेनामी संपत्तियों के खोल तार-तार हो जाएंगे? विश्वास के साथ हां में इसका उत्तर देना कठिन है। वस्तुतः भ्रष्टाचार कानूनी से ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या बन चुकी है। जब तक समाज में स्वाभाविक रुप से ईमानदार रहने, देश के प्रति समर्पण, नैतिक और सदाचार व्यवहार के भाव का माहौल नहीं होगा कोई भी अभियान पूरी तरह सफल नहीं हो सकता। इसके लिए देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है जिनसे हमको आपको झकझोड़ा जा सके, हमें भान कराया जा सकंे कि वाकई ऐसा करने वाले हम अपराधी हैं, पापी हैं..। सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का ऐसा काम नहीं हो रहा है। वैसे कानून और व्यवस्था भी हमारे यहां राज्यों का विषय है। ऐसे कानूनी अभियानों की सफलता के लिए राज्यों का पूरा साथ चाहिए। अभी तक केन्द्र की कार्रवाइयों से अनेक राज्य सरोकार नहीं दिखा रहे हैं। इस स्थिति को भी बदलना होगा। प्रधानमंत्री यदि कानून के स्तर से जितनी सफलता मिल सकती है उसे पाना चाहते हैं तो फिर राज्यों को साथ लेने की बड़ी पहले करनी होगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,9811027208

 

मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

आम नागरिक सेवा समीति एवं आरडब्ल्यूए की एक संयुक्त बैठक हुई

मो. रियाज़

नई दिल्ली। आज आम नागरिक सेवा समीति एवं आरडब्ल्यूए की एक संयुक्त बैठक हुई। इसमें दोनों के कार्यकर्ताओं ने कुछ सामजिक अनछुए मुद्दों पर चर्चा की। इस बैठक में सभी ने अपने-अपने विचार रखे। इनमें कुछ मुद्दों पर समाज की भलाई के लिए कुछ अहम फैसले लिये गये। इसके अलावा संगठन को और मजबूत बनाने पर भी चर्चा हुई। इस बैठक में यह भी चर्चा हुई कि संस्था में जो लोग भी आना चाहे वो लोग आ सकते हे ये कोई राजनीतिक मंच नहीं है।

इस बैठक में मुख्य रूप से शेख राशिद अली, प्रदीप जैन, मोहम्मद अनीस, लियाकत खान, जमालुददीन, सुभाष खरोलिया, शौएब  चौधरी, मुन्ना खान, सदाकत चौधरी, अमीर हसन, पप्पी भाई, अनीस मंसूरी थे।

इस बैठक के अंत में यह भी फैसला लिया गया कि जल्द ही हम सब लोग अपने संगठन के माध्यम से दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल साहब से मुलाकात करेंगे और उनसे अपने छेत्र के विकास के लिये चर्चा करेंगे।

बुलंद मस्जिद कब्रिस्तान में सौंदर्यकरण का कार्य का शुभांरभ

-निगम पार्षद तुलसी गांधी के अथक प्रयास से शुरू हुआ कार्य
-इसमें होने वाले मुख्य कार्य कब्रिस्तान में मिट्टी का पड़ना, वजूखाना, चलने के लिए फुटपाथ, पानी की बोरिंग, कमरा आदि।

मो. रियाज़


नई दिल्ली। धर्मपुरा वार्ड 233 की निगम पार्षद तुलसी गांधी के अथक प्रयासों से वार्ड में रोजाना कुछ न कुछ कार्य हो रहे हैं। जिसमें एक नया कार्य ओर जुड़ गया जो पूरे वार्ड के लिए बहुत जरूरी था और इसके लिए निगम पार्षद काफी समय से प्रयास कर रही थीं। यह कार्य हुआ बुलंद मस्जिद कालोनी के कब्रिस्तान में। श्रीमती तुलसी गांधी ने इस कब्रिस्तान के सौंदर्यकरण के लिए काफी मेहनत की है जिससे वार्ड में हो रही परेशानी खत्म हो सके। निगम पार्षद तुलसी गांधी ने प्रयास करके पूर्वी दिल्ली नगर निगम द्धारा बुलंद मस्जिद कब्रिस्तान में दीवार को ऊंचा करने, वजू खाना बनवाने, फुटपाथ का कार्य, पानी के लिए बोरिंग करवाने, बिजली मीटर लगवाने, मिटटी डलवाना, कमरा बनवाने आदि के कार्य शुरू करवाने को मंजूरी ली और जनता को नए साल का तोहफा दिया।
कब्रिस्तान के सौंदर्यकरण के शुभारंभ के अवसर पर श्री अरविंदर सिंह लवली जी पूर्व अध्यक्ष दिल्ली प्रदेश कांग्रेस व पूर्व मंत्री (दिल्ली सरकार) ने निगम पार्षद श्रीमती तुलसी गांधी व क्षेत्र की जनता के साथ कब्रिस्तान का कार्य शुरू करवाया एवं क्षेत्र का दौरा किया। क्षेत्र का दौरा करने के बाद गरीबों को कम्बल बांटे गए। कब्रिस्तान का कार्य शुरू करने के लिए क्षेत्र की जनता ने श्री अरविंदर सिंह लवली और निगम पार्षद श्रीमती तुलसी गांधी का धन्यवाद किया। इस मौके पर समाजसेवक डी.के.गाँधी, ब्लाक अध्यक्ष अशोक शर्मा, हाजी अनीस, हारून भाई, हाजी समीर, राजेश शर्मा, जमील भाई, बाबा शेर खान, जाहिद ऑटो, नसीम अलबी, शबाब अहमद, मेहरुद्दीन भाई, निशार भाई, अली शेर, नसीम आदि लोग शामिल हुए।



 

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

बिना शुल्क गेहूं आयात पर विवाद

 

अवधेश कुमार

केन्द्र सरकार पर इस बात को लेकर तीखा हमला हो रहा है कि उसने गेहूं से आयात शुल्क पूरी तरह खत्म क्यों कर दिया। वैसे इससे पहले सितंबर महीने में ही सरकार ने गेहूं के आयात पर लगने वाले शुल्क को 25 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया थां तब भी इसका विरोध हुआ था। अब 8 दिसंबर से उस 10 प्रतिशत को भी खत्म कर दिया गया है। इस समय जबकि केन्द्र सरकार पर नोट वापसी को लेकर चारों तरफ से विपक्ष हमला कर रहा है एवं उसे धनपतियों के समर्थक सरकार कह रहा है इस निर्णय को भी उससे जोड़ दिया गया है। कहा जा रहा है कि यह निर्णय किसान विरोधी है। यदि विदेश से बिना शुल्क यानी सस्ते गेहूं आएंगे हमारे देश में जो पैदावार होगी उसे कौन खरीदेगा। चूंकि उत्तर प्रदेश एवं पंजाब में आगामी कुछ महीनों मेें चुनाव होने वाले हैं, और ये दोनों प्रदेश सबसे ज्यादा गेहूं उत्पादन करने वाले राज्य है, इसलिए वहां भाजपा विरोधी पार्टियां इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहीं हैं। दोनों राज्यों में बहुमत किसानों और कृषि पर निर्भर रहने वालों का है। उत्तर प्रदेश में 76 प्रतिशत तथा पंजाब में 63 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। इसलिए भाजपा विरोधी पार्टियों को लगता है कि इसे मुद्दा बनाकर वे बहुमत जनता का समर्थन पा लंेगे। प्रश्न है कि क्या वही सही है जो विपक्ष कह रहा है या सच्चाई इसके अलावा भी है?

ऐसा नहीं है कि सरकार को यह निर्णय करते वक्त इस बात का अहसास नहीं था कि इसका विरोध होगा तथा चुनाव में उसे जनता के बीच विपक्ष के आरोपों का जवाब देना होगा। बावजूद इसके यदि उसने यह निर्णय किया है तो इसके कुछ ठोस कारण होंगे। दरअसल, यह विषय ऐसा है जिसे संतुलित होकर समझने तथा राजनीतिक पार्टियों के वक्तव्यों से अलग होकर विचार करने की आवश्यकता है। एक तर्क यह है कि जब देश में 2015-16 में 9 करोड़ 35 लाख टन के गेहूं का पैदावार हुआ तो फिर गेहूं की किल्लत का सवाल कहां से पैदा हो गया कि सरकार ने शुल्क मुक्त आयात का निर्णय लिया? ध्यान रखिए कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2014-15 में गेहूं की पैदावार 8 करोड़ 65 लाख 30 हजार टन ही हुआ था। इसके अनुसार 2015-16 में गेहू ज्यादा पैदाा हुई। तो फिर ऐसा क्यों? यही नहीं यह भी माना जा रहा है कि किसानों ने अब तक 2 करोड़ 21 लाख 63 हजार हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई कर दिया है। यह पिछले साल के 2 करोड़ 2 लाख हेक्टेयर से ज्यादा है। यानी अगर बुवाई ज्यादा है तो फिर पैदावार भी ज्यादा होगी। इसमें सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरी हो गई कि उसे आयात को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता महसूस हुइ? तो यह है एक पक्ष और इसके आधार पर सरकार का निर्णय अतार्किक लग सकता है। एक हद तक किसान विरोधी भी। विपक्ष इसे ही अपने तरीके से उछाल रहा है।

अब जरा दूसरे पक्ष को भी देखिए। कई विश्वसनीय हलकों से 9 करोड़ 35 लाख टन पैदावार के आंकड़े पर प्रश्न उठाए गए। इन पक्षों का कहना है कि गेहूं की पैदावार 8 करोड़ से 8.5 करोड़ टन के बीच ही हुई। खासकर गेहूं कि व्यापार से जुड़े वर्ग ने यही आंकड़ा दिया। हम इन दोनों दावों के बीच की सच्चाई का पता नहीं कर सकते। लेकिन कुछ बातें तो सच है। मसलन, भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 9 दिसंबर के आंकड़ोें के अनुसार 1 करोड़ 65 लाख टन ही गेहूं का भंडार पड़ा है। पिछले वर्ष इस समय 2 करोड़ 68 लाख 80 हजार टन था। इस तरह जिसे अंग्रेजी में बफर स्टॉक कहते हैं उसमें 1 करोड़ टन से ज्यादा की कमी है। यह पिछले नौ साल की सबसे बड़ी कमी है। जाहिर है, यह सामान्य स्थिति नहीं है। इतना कम भंडार तो होना ही नहीं चाहिए था। वैसे सरकार को इसका जवाब तो देना चाहिए कि इतना कम भंडार क्यों है? लेकिन जो है वो हमारे सामने है और उसके आलोक में ही विचार करना होगा। तत्काल अपने देश के अंदर के गेहूं से इसकी भरपाई की कोई संभावना नहीं है। जब गेहूं पर आयात शुल्क था तब भी आयात हो रहा था। आटा मीलों ने सरकार से आयात शुल्क हटाने की मांग की थी, क्योंकि उनके यहां पर्याप्त गेहूं आ नहीं रहा था। यह सच है कि पिछले कुछ दिनों में बाजार में गेहूं एव आटा दोनों के दामों में बढ़ोत्तरी हुई है और यह जारी है। ऐसे में कोई भी सरकार करे तो क्या करे? उसके सामने आगे कुंआ एवं पीछे खाई वाली स्थिति होती है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि सरकार ने गेहूं की बाजार में पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित कर इसके मूल्य को नियंत्रित करने को प्राथमिकता दिया है। आखिर जो वर्ग खरीदकर खाता है उसका ध्यान रखना भी सरकार का दायित्व है। जब दाम बढ़ेंगे तो लोग चिल्लाएंगे कि देखो किस तरह गेहूं और आटे के दाम बढ़ गए और सरकार ने कुछ नहीं किया। दालों के दामों पर मचे हंगामे हमारे सामने है। राजधानी दिल्ली में ही 24 रुपए किलो गेहूं मिल रहे हैं। तो उन करोड़ों उपभोक्ताओं के हित को भी ध्यान मंे रखना आवश्यक था। बिना आयात संभव नहीं था। गेहूं के आयात का अर्थ है कि इसकी उपलब्धता में कमी नहीं होगी तथा सरकार इसके मूल्य को नियंत्रित रख सकती है। गेहूं के आयात का मूल्य 210 से 215 डॉलर प्रति टन है। इस तरह जब ये बाजार में आ जाएंगे तो माना जा रहा है कि सरकार ने गेहंूं का जो न्यूनतम मूल्य 1625 रुपए क्विंटन घोषित किया हुआ है उससे भी जगह-जगह 50 रुपए से 200 रुपए प्रति क्विंटल तक की कमी आ सकती है। यह बहुत बड़ी कमी होगी और उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी। दूसरे, यह शुल्क रहित व्यवस्था स्थायी रुप से नहीं है। अभी इसे 29 फरबरी 2017 तक के लिए किया गया है। मार्च तक नई फसल आ जाने का अनुमान है। करीब 35 लाख टन गेहूं के आयात का सौदा अभी तक हुआ है। इससे ज्यादा की तत्काल संभावना नहीं दिखती है, क्योंकि कालासागर से कुछ समय बाद आवागमन संभव नहीं होगा। हो सकता है इतने आयात के बाद सरकार फिर से शुल्क लगा दे। अगर हमारे यहां पैदावार बेहतर होता है और बाजार में न्यायसंगत मूल्य पर पर्याप्त मात्रा में गेहूं उपलब्ध रहता है तो फिर सरकार क्यों शुल्क रहित आयात करवाएगी? उसे पागल कुत्ते ने तो काटा नहीं है कि ऐसा करके राजनीतिक जोखिम मोल ले। आखिर इसी सरकार ने पहले गेहूं पर आयात शुल्क बढ़ाया था जो कि 31 मार्च 2016 तक के लिए था, फिर इसे 30 जून तक किया गया और यह सितंबर तक जारी रहा।

 सरकार ने गेहूं का जो न्यूनतम मूल्य घोषित किया हुआ है वह तो जारी रहने ही वाला है। तो किसानों का पैदावार केन्द्र एवं राज्य सरकारें दोनों खरीदकर अपना भंडारण करेंगी। निजी व्यापारी भी इससे कम पर न खरीद पाएं इसकी व्यवस्था अवश्य राज्य सरकारों को करना चाहिए। किंतु यह माना जा रहा है कि इस बार ठंढी कम होगी एवं गरमी के कारण गेहूं जितना पैदा होना चाहिए संभवतः नहीं होगा। इस समय हम आप निश्चयात्मक तौर पर कुछ नहीं कह सकते, पर यदि ऐसी बातें विशेषज्ञों की ओर से कही जा रही है तो इसका संज्ञान लेना ही होगा। मौसम विभाग ने कम ठंढ की भविष्यवाणी तो कर दिया है। जाहिर है, सरकार का निर्णय इन सारे कारणों और तथ्यों को एक साथ मिलाकर देखने से तार्किक एवं आवश्यक लगता है। हां, सरकार का फोकस पैदावार एवं किसान हों ताकि बार-बार ऐसा करने को विवश न होना पड़े। उम्मीद है सरकार ऐसा ही करेगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज न घटाना अस्वाभाविक नहीं

 

अवधेश कुमार

भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से नीतिगत दरों में कोई बदलाव न करने से कई हलकों में निराशा व्यक्त की गई है। ज्यादातर अर्थवेत्ता यह अनुमान लगा रहे थे कि नोट वापसी के बाद बैंकों के पास आए भारी नकदी के बाद रिजर्व बैंक कम से कम रेपो दर में .25 प्रतिशत की कमी करेगा। यानी ब्याज दरों में कटौती का जो सिलसिला पूर्व गर्वनर के कार्यकाल में जारी हुआ और स्वयं उर्जित पटेल ने पिछली मौद्रिक समीक्षा में जारी रखा वह आगे भी कायम रहेगा। ध्यान रखिए कि पिछले अक्टूबर में रिजर्व बैंक ने रेपो दर में .25 प्रतिशत की कमी की थी। गवर्नर बनने के बाद पटेल की यह दूसरी और नोटबंदी के बाद पहली मौद्रिक नीति समीक्षा थी। प्रश्न उठता है कि इस बार ऐसा क्यों नहीं किया? यह प्रश्न इसलिए क्योंकि पिछले तीन महीने में अर्थव्यवस्था में सुधार का ठोस संकेत नहीं मिलने और साथ ही नोटवापसी से कई उद्योगों में मांग में भारी कमी की आशंका को देखते हुए सभी मानकर चल रहे थे कि रेपो रेट में कमी होगी। नोट वापसी से आर्थिक गतिविधियों में जो सुस्ती दिख रही है उसको गति देने के लिए कई कदम उठाने की जरुरत है। माना जा रहा था कि अगर केन्द्रीय बैक ब्याज दर में कटौती करता है कि उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों को कम दर में कर्ज मिलेगा और इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। जाहिर है, रिजर्व बैंक इस तर्क से सहमत नहीं था।

स्वयं उर्जित पटेल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि महंगाई की आशंका को देखते हुए ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि अक्टूबर में ब्याज दरों में 0.25 प्रतिशत की कटौती की गई थी। उसके बाद कटौती की जरूरत नहीं रह गई थी। ध्यान रखने की बात है कि जनवरी 2015 से रिजर्व बैंक ने रेपो दर में 7 बार कटौती की है। केन्द्रीय बैक ने कई बातें को ध्यान में रखा है। इनमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण पहलू है महंगाई। इसने जनवरी-मार्च 2017 तक 5 प्रतिशत महंगाई दर का लक्ष्य रखा है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित महंगाई 0.10-.015 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। खराब होने वाले सामानों के दाम घटेंगे। ऐसा लगता है कि छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) को महंगाई थामने की ज्यादा जरूरत महसूस हो रही है। महंगाई की दर फिलहाल काफी हद तक काबू में है। लेकिन रिजर्व बैंंक का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि तथा 7वें वेतन आयोग के कारण लोगों के हाथ में आए पैसे की वजह से महंगाई की दर आने वाले महीनों में बढ़ सकती है।

क्रिसिल की ओर से हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार पेट्रोल के दाम 5 से 8 प्रतिशत तक तथा डीजल के 6 से 8 प्रतिशत तक बढ़ सकते हैं। यह ओपेक देशों की ओर से अगले महीने से होने वाली कच्चे तेल उत्पादन में कटौती के कदम की परिणति होगी। ऐसे में आने वाले महीनों में महंगाई बढ़ने की आशंका गहरी है। रेपो दर को यथास्थिति में रखने के पीछे एक बड़ा कारण यह हो सकता है।  केंद्रीय बैंक ने इस बात पर ध्यान दिया कि गेहूं, चना और चीनी जैसी खाद्य वस्तुओं के दाम तेजी से चढ़ रहे हैं। ऐसे में दर कम करने से महंगाई में और अधिक वृद्धि हो सकती थी। इससे दिसंबर से फरवरी के दौरान परिस्थितियां विपरीत हो सकती थीं कोई भी केंद्रीय बैंक ब्याज दर में कमी पर तभी विचार करता है, जब उसे ऐसा लगे कि इस फैसले से उपभोग में इजाफा होगा और लोग कर्ज लेकर खर्च करेंगे। इसके अलावा वह ऐसा तब करता है, जब उसे लगे कि इससे निवेश का माहौल तैयार होगा। अभी दोनों स्थितियां नहीं थीं। अमेरिका में अगले सप्ताह ब्याज दरों पर महत्वपूर्ण फैसला हो सकता है। राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद यह माना जा रहा है कि ज्यादातर नीतियां महंगाई को बढ़ावा देने वाली होंगी। ऐसे में ब्याज दरों के बढ़ने की उम्मीद काफी सशक्त है। अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने पर भारत जैसे देशों से पूंजी का जाना तय है। इससे रुपए में दवाब देखने को मिलेगा। डॉलर के मुकाबले रुपया बीते एक महीने में काफी कमजोर हुआ है। ब्याज दरों में कटौती रुपए की कमजोरी को बढ़ा सकती थी। इस परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि  रुपए को समर्थन देने के लिए भी रेपो दर में कटौती नहीं की गई। केंद्रीय बैंक ने कहा भी है कि कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में महंगाई ने रफ्तार पकड़ी है, जबकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में यह धीमी रही है। अमेरिका, जापान और चीन जैसे देश विकास के लिए महंगाई को बढ़ाने वाली नीतियां अपना सकते हैं। इसके चलते उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों पर दबाव होगा, जो पहले से ही ब्रेग्जिट और अन्य राजनीतिक परिस्थितियों के चलते अस्थिरता के माहौल में हैं।

यहां यह भी विचारणीय है कि रिजर्व बैंक ने वित्त वर्ष 2016-17 में विकास का अनुमान भी 7.6 प्रतिशत से घटाकर 7.1 प्रतिशत कर दिया है। यह महत्वपूर्ण है। विकास अनुमान में कमी के लिए उसने नोटवापसी को एक महत्वपूर्ण कारण माना है। मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि नोटबंदी से कई तरह की औद्योगिक गतिविधियों पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। खासतौर पर खुदरा कारोबार, होटल, रेस्तरां, पर्यटन व कई असंगठित क्षेत्र से जुड़े उद्योगों पर इसका खराब असर पड़ेगा। इन पर विपरित असर पड़ने से विकास दर की गति आगे तो नहीं ही बढ़ेगी। यानी पीछे लौटेगी। किंतु राहत की बात है कि रिजर्व बैंक ने उन अनुमानों को नकार दिया है जिसमें विकास दर के एकदम पीछे जाने की आशंका व्यक्त की जा रही थी। अगर विकास दर पीछे हट रहा है तो उसे थामने के लिए ब्याज दर में कटौती भी एक कारगर नीति मानी जाती है। साफ है कि रिजर्व बैंक ने अन्य दूसरे कारणों से जिनका जिक्र उपर किया है ऐसा नहीं किया है। यानी महंगाई और अन्य कारणों को तरजीह दी है। वैसे भी नोट वापसी के परिणामों को देखने के लिए भी कुछ वक्त चाहिए। जिन क्षेत्रों पर विपरीत असर की बात रिजर्व बैंक मान रहा है उनके बारे में भी वह आगे दूसरी बातें कहता है।  रिजर्व बैंक  अपनी समीक्षा में कहता है कि उसको भरोसा है कि आने वाले दिनों में नए करंसी नोटों का सर्कुलेशन तेज होगा और लोग गैर नकदी आधारित भुगतान की ओर बढ़ेंगे।

दूसरे लोगों के अनुमानों सेे यह कदम भले विपरीत हो, पर वित्त मंत्रालय ने ब्याज दरों के मौजूदा स्तर को बनाए रखने के फैसले को साहसिक बताया है। आर्थिक मामलों के विभाग के सचिव शक्तिकांत दास ने कहा कि वैश्विक स्तर पर काफी अनिश्चितता है, महंगाई बढ़ने के आसार हैं और इस पर लगाम लगाना मुश्किल है। ऐसे में रिजर्व बैंक का कदम सही है। अगर यहां भी अनिश्चितता रहती तो विदेशी निवेशकों को यह अच्छा संकेत नहीं देता। वैसे यह सच है कि नोटवापसी के फैसले के बाद बैंकों में भारी मात्रा में नकदी जमा की गई है। यानी बैंकों के सामने नकदी का संकट नहीं होना चाहिए। बैंक अपनी जमाओं में से आसानी से कर्ज बांट सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि रेपो दर में कमी करने या न करने से नकदी की उपलब्धता पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। इसीलिए ब्याज दरों में कोई राहत नहीं दी है। जब बैंकों के पास तरलता (फंड) का कोई अभाव ही नहीं है और मांग की भी बेहद कमी है तो ऐसा करना व्यर्थ ही होता।  दूसरे, एक सच यह भी है कि रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को घटाने के पहले जो उपाय किए हैं, उनका फायदा अभी तक बैंकों ने आम जनता को नहीं दिया है। रिजर्व बैंक अगर ब्याज दरों में कटौती करता है तो बैंकों के ऊपर कर्ज की दर घटाने का दवाब बढ़ता है। साथ ही कर्ज की दर घटने पर अपने मुनाफे को बचाने के लिए बैंक जमाओं पर दर को घटाते हैं। रिजर्व बैंक नहीं चाहता था कि जमाकर्ताओं की जमाओं पर ब्याज दर में अभी कमी आए।

वैसे रिजर्व बैंक ने रेपो दर में भले कटौती न की हो लेकिन बैंकों के लिए 100 प्रतिशत इन्क्रीमेंटल (बढ़ी हुई) सीआरआर यानी नकदी आरक्षी अनुपात की सीमा को हटा दिया है। अब बैंकों को अपने यहां होने वाले जमा के अनुपात में पूरी रकम नकद आरक्षी अनुपात के रूप में सुरक्षित नहीं रखनी पड़ेगी। रिजर्व बैंक का यह कदम बैंकों में नकदी को बढ़ाएगा। रिजर्व बैंक ने 26 नवंबर को बैंकों में बढ़ती तरलता को नियंत्रित करने के लिए 100 प्रतिशत इन्क्रीमेंटल सीआरआर की सीमा तय की थी। तो रिजर्व बैंक ने 100 प्रतिशत सीआरआर को वापस लेकर बैंकोें को बड़ी राहत दी है। गर्वनर ने कहा भी कि अब बैंक पर अब सीआरआर का कोई बोझ नहीं होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि बैंकों पर इसके सकारात्मक प्रभाव होंगे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

 

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख से उम्मीदें

 

अवधेश कुमार

तो सारे कयासों पर विराम लग गया। पाकिस्तान में जनरल राहील शरीफ को सेवानिवृत्ति मिल गई एवं लेफ्टिनेंट जनरल कमर जावेद बाजवा को उनकी जगह नया थल सेना प्रमुख नियुक्त कर दिया गया। अपने तीन कार्यकाल में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पांचवे थल सेना अध्यक्ष को नियुक्त किया है। निश्चय ही उनको सेना प्रमुख बनाने के पहले नवाज शरीफ ने हर पहलू पर गंभीरता से विचार विमर्श किया होगा। आखिर जनरल जहांगीर करामात की जगह जनरल परवेज मुखर्रफ को उन्होंने ही नियुक्त किया था और उसके बाद क्या हुआ यह हम सबको पता है। वहां तख्ता पलट हुआ, शरीफ को सपरिवार निर्वासित जीवन तक व्यतित करना पड़ा। वे उसे दुःस्वप्नों की तरह भूल जाना चाहेंगे। उसकी पुनरावृत्ति न हो इसके लिए वे पूरी तरह सतर्क होंगे। हालांकि जनरल महमूद हयात का नाम बाजवा से उपर चल रहा था लेकिन नवाज शरीफ ने बाजवा का चयन किया और जनरल हयात को ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी का चेयरमैन बनाया गया। तो यहां दो प्रश्न हमारे सामने उठते हैं। एक कि  जिस तरह से सेना प्रमुख के रुप में आसानी से राहिल शरीफ सेवानिवृत्त हो गए और उनकी जगह नए सेना प्रमुख आ गए उसका पाकिस्तान के लिए क्या अर्थ है। दूसरे, भारत के लिए उसके क्या मायने हैं? आखिर भारत के साथ वो किस तरह के रिश्ते चाहेंगे?

दूसरा प्रश्न हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उनकी नियुक्ति ऐसे समय हुई जब नियंत्रण रेखा एवं सीमा पर पाकिस्तान की ओर से लगातार युद्ध विराम का उल्लंघन हो रहा है तथा दोनों ओर से गोलीबारी जारी है। पूरी स्थिति ऐसी है कि कब क्या हो जाए कोई नहीं कह सकता। पाकिस्तान ने राहिल शरीफ के नेतृत्व में इस वर्ष 270 बार से ज्यादा युद्ध विराम का उल्लंघन किया है। क्या जनरल बाजवा उस नीति को आगे बढ़ाएंगे या फिर उसमें बदलाव करेंगे? वस्तुतः पाकिस्तान में जैसा हम जानते हैं सेना एक ऐसी संस्था है जिसकी विदेश नीति में प्रभावी भूमिका होती है और खासकर भारत से संबंधित नीतियों में। भारत की तरह वहां सेना केवल राजनीतिक नेतृत्व की नीतियों का पालन नहीं करती। कई बार राजनीतिक नेतृत्व को सेना की सोच के अनुसार भी काम करना पड़ता है। तो बाजवा क्या करेंगे? कई विश्लेषक उनके एक वक्तव्य को उद्धृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान के लिए आंतरिक आतंकवाद भारत से बड़ा खतरा है। वैसे भी पाकिस्तानी सेना जानती है कि भारत अपनी ओर से कभी आक्रमण नहीं करने वाला, युद्ध नहीं थोपने वाला। इसलिए उनका बयान व्यावहारिक था।

सेना प्रमुख बनने के बाद केवल व्यक्तिगत सोच का महत्व नहीं होता, सेना के मुख्यालय की सोच और नीति को आगे बढ़ाना होता है। सेना के मुख्यालय की सोच भारत विरोध की रही है। राहिल शरीफ ने अपने सेवानिवृत्त होने के पहले यह धमकी दी कि अगर पाकिस्तान ने सर्जिकल स्ट्राइक किया तो भारत की पीढ़ियां याद करेंगी और उन्हें पढ़ाया जाएगा कि सर्जिकल स्ट्राइक क्या होता है। बाजवा इस नीति से पीछे हट जाएंगे कहना कठिन है। जब नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बने थे उनकी नीति भारत सहित पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध बनाने की थी। किंतु समय बीतने के साथ उनको नीतियां बदलनी पड़ी या वे बदलने को मजबूर हो गए। जब पूर्व सेना प्रमुख जनरल अश्फाक कयानी ने दोबारा अपने सेवा विस्तार से इन्कार कर दिया तो राहिल शरीफ पहली पसंद नहीं थे लेकिन वे बने और उनके कार्यकाल का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय वजीरीस्तान में जर्बे अज्ब ऑपरेशन चलाना था जो पाकिस्तान में हिंसा फैला रहे आतंकवादियों के खिलाफ था विशेषकर तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान और उसके सहयोगियों के खिलाफ। जून 2014 में उत्तरी वजीरिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के खिलाफ चलाए गए इस ऑपरेशन के बाद राहिल के उन आलोचकों का मुंह बंद हो गया जो कहते थे कि उनमंे काबिलियत नहीं है। कराची में आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन लेने और शांति कायम करने में भी राहिल शरीफ की भूमिका अहम रही है। लेकिन जो कुछ कयास लगाए गए कि वे नवाज शरीफ पर अपनी नीतियां आरोपित करते हैं उनके पक्ष में ज्यादा प्रमाण नहीं आए। माना जाता है कि बाहर जो भी छवि बनी हो राहिल पूरे कार्यकाल में सरकार के समर्थक के रूप में बने रहे। सरकार की विदेश और सुरक्षा नीति में कभी भी राहिल शरीफ का बड़ा हस्तक्षेप नहीं रहा। ने वे उस पर कभी कुछ सार्वजनिक रुप से बोलते थे। यही कारण था कि वो सोशल मीडिया में कभी भी ज्यादा लोकप्रिय नहीं रहे।

वास्तव में जिस तरह से शांतिपूर्वक पद का स्थानांतरण हुआ उसमें राहिल शरीफ की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कुछ समय के लिए यह मानना होगा कि जनरल कयानी और फिर जनरल शरीफ दोनों का जाना पाकिस्तान में लोकतंत्र के सफलता की पटरी पर चलने का संकेत है। जनरल शरीफ पिछले 20 साल में निर्धारित सेवाकाल के बाद अवकाश ग्रहण करने वाले पहले सेना प्रमुख हैं। भविष्य का कुछ नहीं कह सकते लेकिन अभी इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। अगर वाकई वहां लोकतंत्र मजबूत होता है और सेना का प्रभाव थोड़ा कम होता है तो यह पूरे क्षेत्र के हित में होगा। किंतु ज्यादा निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगा। भारत के संदर्भ में तो कतई नहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिसंबर 2015 में लाहौर गए जहां से वे नवाज शरीफ के घर तक गए लेकिन पठानकोट हो गया और पूरा माहौल मिनट में मटियामेट। ऐसा आगे भी हो सकता है। कमर बाजवा की नियुक्ति किन कारणों से हुई है? वह अभी ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट के इंस्पेक्टर जनरल थे। राहिल शरीफ भी आर्मी चीफ बनने से पहले इस पर पर रह चुके थे। कमर बाजवा को कश्मीर और उत्तरी इलाकों के मसलों की गहरी समझ है। कश्मीर मुद्दे को लेकर उनको खासा अनुभव है। बलोच रेजिमेंट का होेने की वजह से उत्तरी इलाके की समस्याओं के बारे मंे भी उनका व्यावहारिक अनुभव है। जाहिर है वहां के विद्रोह से निपटने में उनकी समझ का परीक्षण होगा। बाजवा ने पाकिस्तान की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण कॉर्प-10 का भी नेतृत्व किया है। कॉर्प 10 सेना का वो हिस्सा है जो भारत से सटे सीमा पर और नियंत्रण रेखा पर तैनात रहता है। बाजवा गिलगित और बालिस्टान में फोर्स कमांडर की पोस्ट पर भी रह चुके हैं। बलोच रेजीमेंट से पाकिस्तान को पहले भी 3 सेना प्रमुख (जन. याहया खान, जन. असलम बेग और जन. अशफाक परवेज कयानी) मिल चुके हैं। कहने का तात्पर्य यह कि अगर कश्मीर और बलूचिस्तान का अनुभव उनके सेना प्रमुख बनाए जाने का कारण है तो फिर इसका निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है। इन दोनों मामलों पर भारत की नीतियां स्पष्ट हैं।

हमारे पूर्व सेना प्रमुख जनरल विक्रम सिंह कांगों में शांति मिशन के दौरान बाजवा के साथ काम कर चुके है। उन्होंने उन्हें प्रोफेशनल सैनिक कहा है। साथ ही यह भी कहा है कि देश के अंदर आने पर प्राथमिकताएं बदल जातीं हैं। इसलिए कांगो मिशन के आधार पर हम निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। उन्होंने कहा कि हमें बाजवा और उनके दृष्टिकोण के प्रति सतर्क रहने और निगाह बनाए रखने की जरूरत है। वास्तव में बलूच और कश्मीर दोनों पर कोई सेना प्रमुख पाकिस्तान की परंपरागत नीतियों से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिए जनरल बाजवा से भी हम तत्काल ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते। हालांकि अगर वो जेहादी ताकतों को पाकिस्तान के लिए खतरा मानते हैं तो उनकी नीतियां बदलनी चाहिए। लेकिन कश्मीर में सक्रिय जेहादी तत्वों को पाकिस्तानी मुजाहिद मानते हैं। क्या बाजवा की सोच इससे अलग होगी? क्या कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर काम करते हुए या गिलगित बलतिस्तान में सेवाएं देते हुए उनकी सोच थोड़ी अलग थी? ऐसा था नहीं तो फिर हम तत्काल यह क्यों मान लें उनके आने से स्थितियां बदल जाएंगी? पाकस्तानी सेना भारत को दुश्मन देश मानकर काम करती है। उसका बहुत साफ लक्ष्य है भारत को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाना। जनरल बाजवा इसमें आमूल बदलाव ले आएंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। एक ओर बाजवा ने पद भार ग्रहण किया और दूसरी ओर जम्मू कश्मीर में एक जगह नगरोटा में सेना पर हमले हुए जिसमें दो जवाब शहीद हुए तथा दूसरी जगह सांबा में सीमा सुरक्षा बल पर आतंकवादियों ने हमला किया। हालांकि बाजवा ने कहा कि नियंत्रण रेखा पर हालात सुधरेंगे। देखना है वे क्या करते हैं। स्वयं पाकिस्तान के हित में यही है कि युद्ध विराम का वह पालन करे तथा आतंकवादियों का निर्यात करना बंद करे। युद्ध विराम के उल्लंघन से पाकिस्तान को अब ज्यादा क्षति हो रही है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

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