शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

यह सरकार या भाजपा का नहीं देश का विरोध है

 

अवधेश कुमार

देश अगर कोई जीव होता तो निश्चय मानिए वह इस समय राजनीतिक दलों के व्यवहार पर चीत्कार कर रहा होता। भारत सरकार के पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित बलतिस्तान और बलूचिस्तान पर मुखर रवैये से पूरे देश में नए उत्साह और रोमांच का अनुभव किया जा रहा है। देश की सामूहिक आवाज यह है कि लंबे समय बाद या कई मायनों में पहली बार भारत सरकार ने पाकिस्तान के संदर्भ में एक निर्णय किया, जिस पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है और आगे बढ़े। लेकिन राजनीतिक पार्टियों को देखिए तो वे सरकार के विरोध की मानसिकता में ऐसे बयान दे रहे हैं जिनसे पाकिस्तान का समर्थन हो रहा है और भारत का विरोध। आप देख लीजिए सलमान खुर्शीद, पी. चिदम्बरम, दिग्विजय सिंह....कोई छोटे नेता नहीं हैं। इनकी आवाज सुन लीजिए। लगेगा ही नहीं कि कोई ऐसा भारतीय नेता बोल रहा है जो स्वयं शासन में रहा है। दिग्विजय सिंह तो सरकार के विरोध में पता नहीं किस तरह अपना संतुलन खो बैठे कि हमारे कश्मीर को भारत अधिकृत कश्मीर तक कह दिया। जब उन्हें किसी पत्रकार ने याद दिलाया तो वे उसे वापस लेने की बजाय कुतर्क करने लगे। दिग्विजय सिंह कांग्रेस पार्टी के पहले नेता होंगे जिनकी शब्दावली तथा पाकिस्तान और हुर्रियत कॉन्फ्रंेस के नेताओं की शब्दावली समान हैं। ठीक यही स्थिति कश्मीर में लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं की है।

सच कहा जाए तो 12 अगस्त के सर्वदलीय सम्मेलन के बाद ऐसा लगा था कि कश्मीर, बलूचिस्तान एवं समग्र पाकिस्तान नीतियों के संदर्भ में देश में राजनीतिक एकता कायम हुई है। उससे यह संदेश निकला था कि भारत फिर एक इतिहास बनाएगा, लंबे समय से कश्मीर पर अपने रक्षात्मक रवैये से निकलकर पाकिस्तान को रक्षात्मक होने और उसे दबाव में लाने में ही सफल नहीं होगा, बलूचांें का राष्ट्रवादी आंदोलन यदि आगे भारत की मदद से सफल हुआ तो पाकिस्तान तीसरी बार विभाजित हो जाएगा। यह यहीं तक नही रुकेगा सिंध एवं खैबर पख्तूनख्वा तक में आजादी का आंदोलन तीव्र होगा।  उसके बाद जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से इनका जिक्र कर दिया तो साफ हो गया भारत वाकई उस दिशा में मुखर होकर आगे बढ़ने का निर्णय कर चुका है। उसके बाद की घटना देखिए तो जब पाकिस्तान ने भारत के पास अपनी छलनीति के तहत कश्मीर मुद्दे पर विदेश सचिव स्तर की बातचीत के लिए प्रस्ताव भेजा तो भारत ने नहले पर दहला मारते हुए कहा कि हां, हम बातचीत के लिए तैयार हैं लेकिन आपके यहां से जो आतंकवाद हमारे यहां आ रहा है उस पर होगी। विदेश सचिव की ओर से जारी पत्र में यह भी पूछा गया कि आप अपने कब्जे वाले कश्मीर को खाली कब कर रहे हैं।

निश्चय मानिए पाकिस्तान को इस तरह के उत्तर की कल्पना नहीं रही होगी। शायद ही किसी को याद हो कि भारत की ओर से बाजाब्ता औपचारिक पत्र में पाक अधिकृत कश्मीर खाली करने की बात की गई हो। सच कहें तो भारत लंबे समय से कश्मीर और पाकिस्तान के संदर्भ में ऐसी ही नीतियों के लिए छटपटा रहा था। तो देश के आम अवाम ने इस नीति को हाथों-हाथ लिया है। जाहिर है, आम अवाम का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों से यह उम्मीद है कि वो इन नीतियों पर कंधे से कंधा मिलाकर सरकार के साथ खड़े होंगे। लोगों की अपेक्षा यह है कि राजनीतिक दलों का स्वर एक हो ताकि बाहर इन मामलों पर देश की एकता का संदेश जाए। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, नेताओं के बयान ऐसे आ रहे हैं मानो भारत की ही नीति गलत हो। सलमान खुर्शीद मानते हैं कि इससे पाकिस्तान भारत पर आंतरिक मामले में दखल का आरोप लगाएगा और संयुक्त राष्ट्र में उसका पक्ष मजबूत होगा। आश्चर्य है ऐसा व्यक्ति भारत का विदेश मंत्री रह चुका है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि जब 1971 में इंदिरा गांधी की सरकार ने बांग्लादेश में सैनिक हस्तक्षेप का निर्णय किया तो संयुक्त राष्ट्र के हमारे खिलाफ जाने की संभावना ज्यादा थी। उस समय हम एक गरीब और कमजोर देश थे, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप हमारे लिए अनुकूल देश नहीं थे। आज तो हमने अभी केवल बलूचिस्तान में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन, बलूचों के उत्पीड़न की बात की हैं। सैनिक हस्तक्षेप की बात भी नहीं हुई है। भारत की विश्व पटल पर आज 1971 से बिल्कुल अलग भविष्य के महाशक्ति की छवि है और अमेरिका सहित चीन को छोड़कर दुनिया के प्रमुख देश भारत के प्रति अनूकूल रवैया रखते हैं। सलमान खुर्शीद जैसे नेता को यह समझ क्यों नहीं आ रहा कि पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने तथा कश्मीर समस्या के समाधान कर लेने की शुरुआत का यही उपयुक्त समय है। उसने कश्मीर और पंजाब को हमसे अलग करने की कोशिश की तो उसका जवाब क्या है?

 हालांकि कांग्रेस का औपचारिक स्टैण्ड यह है कि पार्टी सरकार के साथ है, लेकिन उसके बड़े नेता इससे अलग बयान दे रहे हैं। पी. चिदम्बरम गृह मंत्री रहे हैं। वो कह रहे हैं कि कश्मीर की वर्तमान समस्या सरकार की विफलता है। वो इसका उपचार भी सुझाते हैं- पीडीपी भाजपा से अलग हो जाए तथा आगे कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस एवं पीडीपी की सरकार बने। जब 2010 में ऐसी ही पत्थरबाजी और हिंसा हुई थी तो चिदम्बरम का बयान था कि यह देश विरोधी तत्वों की कार्रवाई है जो पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहे हैं और लश्कर ए तैयबा के प्रभाव में हैं। जब वे गृहमंत्री थे तो यह देशविरोधियांे और पाकिस्तान की कार्रवाई थी और आज जब वे विपक्ष में हैं तो यह सरकार की विफलता हो गई। इन्हंीं बयानों को पाकिस्तान उद्वृत कर रहा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने जो प्रेस वक्तव्य जारी किया उसमें कहा है कि भारत सरकार ने बलूचिस्तान एवं आजाद कश्मीर यानी पाक अधिकृत कश्मीर पर जो स्टैण्ड लिया है उस पर वहां एक राय नहीं है। माकपा जैसी पार्टियंा हैं जो सर्वदलीय सम्मेलन में तो सरकार के साथ रहती है लेकिन टीवी चैनलों की बहस में और आम प्रतिक्रियाओं में कश्मीर पर भारत सरकार के रवैये की आलोचना करती है तथा हुर्रियत की आवाज निकालती है। उनके मुंह से एक बार भी नहीं निकल रहा है कि कश्मीर की वर्तमान स्थिति के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। उसकी जगह वो अपनी सरकार को कोस रहे हैं। वो नहीं कह रहे हैं कि बलूचिस्तान में बलूचों के उत्पीड़न की आवाज उठाने का भारत को हक है।

नेशनल कॉन्फ्रेंस जिसने लंबे समय कि जम्मू कश्मीर पर शासन किया उसका रवैया देखिए। इसके प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला विपक्षी दलों के साथ राष्ट्रपति से मिले और केवल प्रदेश एवं केन्द्र सरकार की शिकायत की। वे प्रधानमंत्री से भी मिले। उनका बयान है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पाक अधिकृत कश्मीर एवं बलूचिस्तान से पहले अपने कश्मीर की चिंता करें। वे वर्तमान स्थिति के लिए पाकिस्तान को जिम्मेवार मानते ही नहीं। यह कैसा बयान है? वे स्वयं शासन में थे और 2010 में जब पत्थरबाजी एवं हिंसा आरंभ हुई थी तो उनका बयान इसके उलट था। आखिर पाक अधिकृत कश्मीर पर बात करने से उनको क्यों समस्या है? कश्मीर में अशांति के पीछे पाकिस्तान है जिसके इशारे पर अलगाववादी तत्व लोगों को उकसा कर स्थिति बिगाड़ रहे हैं। अगर उमर अब्दुल्ला इसमें पाकिस्तान का हाथ नहीं मानने का बयान देते हैं तो इसे क्या कहा जाए। यह तो पाकिस्तान को बचाना हो गया। वे भूल रहे हैं कि इससे पाकिस्तान का समर्थन हो जाता है।

वास्तव में सरकार के विरोध में हमारे नेता उस सीमा तक जा रहे हैं जिनसे भारत की नीतियों का विरोध एवं पाकिस्तान का समर्थन हो जा रहा है। यह उचित नहीं है। तो राजनीतिक दलों से निवेदन होगा कि वो देश के लोगों का मूड समझें, कश्मीर समस्या के समाधान की आवश्यकता को ध्यान लाएं तथा पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने की आवश्यकता को महसूस करें एवं सरकार के साथ खड़े हों। यह इतिहास निर्माण की नींव डालने की वेला है जिसमें पूरे देश की आवाज एक होनी चाहिए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208  

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

उम्मीद बनाए रखने और आश्वस्त करने वाला भाषण

 

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा लाल किले की प्राचीर से 70 वें स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए भाषण में सबसे ज्यादा चर्चा बलूचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर तथा गिलगित बलतिस्तान पर उनके उद्गार का रहा। यह निश्चय ही भारत की विदेश नीति में एक बड़ा परिवर्तन है। लेकिन इसे कुछ समय के लिए परे हटा दें तो उनके भाषण में ऐसा बहुत कुछ था जिसकी चर्चा स्वतंत्रता दिवस संबोधन के संदर्भ में होनी चाहिए। अगर उनके पूरे भाषण का कोई एक निष्कर्ष निकालना हो तो कहा जाएगा कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरणा के सूत्र देते हुए देश को कई स्तरों पर आश्वस्त करने की कोशिश की। मसलन,  उनकी सरकार देश को उंचाइयों पर ले जाने के लिए वो सब कर रही है जो उसे करना चाहिए।

प्रधानमंत्री के दावों पर भारत में एक राय नहीं हो सकती। लेकिन स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री के लिए यह शायद इसलिए आवश्यक था, क्योंकि आलोचक उनकी सरकार के संदर्भ में एक ही बात कहते हैं कि धरातल पर तो कुछ दिखाई नहीं देता। जाहिर है, लाल किला इसके लिए बेहतर मंच था कि देश को समझाया कि उनकी कार्यपद्धति क्या है और उदाहरणों से बता दिया जाए कि उसके परिणाम किस तरह आ रहे हैं। मोदी के तीनों भाषणों को अगर देखा जाए तो यह स्वीकार करना होगा उन्होंने इसे केवल सरकार का कार्यवृत्त न बनाकर स्वतंत्रता संघर्ष के संकल्पों, स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों आदि की याद दिलाकर हमारे अंदर प्रेरणा पैदा करने की कोशिश की है कि हम उनके सपनों को पूरा करने के लिए कुछ करें। उनका पहला भाषण सरकार गठित होने के तीन महीने बाद ही था इसलिए उनके पास सरकार की उपलब्धियां गिनाने को कुछ नहीं था। इसलिए वो भाषण प्रेरणादायी और स्वतंत्रता दिवस के पीछे निहित भाव को पैदा करने वाला था। दूसरे भाषण में उनकी सरकार को एक वर्ष तीन महीने हो चुके थे और उसमें उन्होंने अनेक कार्यक्रम की घोषणाएं की तथा पूर्व में की गई कुछ घोषणाओं की दिशा में की गई प्रगति की बात की। लेकिन स्वतंत्रता के मूल्यों और संकल्पों की याद अवश्य दिलाई।

इस बार के भाषण में हालांकि सरकार के कदमों के तत्व ज्यादा थे, लेकिन इसमें भी उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के महत्व को रेखांकित किया। जैसे उन्होंने कहा कि आजादी का ये पर्व एक नए संकल्प नए उमंग के साथ राष्ट्र को नई उंचाइयों पर ले जाने का संकल्प पर्व है। उन्होंने याद दिलाया कि स्वराज ऐसे नहीं मिला। आजादी के संकल्प अडिग थे, हर हिन्दुस्तानी आजादी के आंदोलन का सिपाही था, हर एक का जज्बा था देश आजाद हो। हो सकता है हर किसी को बलिदान का सौभाग्य न मिला हो, जेल जाने का सौभाग्य न मिला हो, लेकिन हर हिन्दुस्तानी संकल्बद्ध था, महात्मा जी का नेतृत्व था, संशस्त्र क्रांतिकारियों की प्रेरणा थी। तब जाकर स्वराज्य प्राप्त हुआ। यहीं से उन्होंने जोड़ा कि अब स्वराज्य का सुराज में बदलना 125 करोड़ देशवासियों का संकल्प है। प्रधानमंत्री की इस बात से असहमति का कोई कारण नहीं है कि अगर स्वराज्य बलिदान के बिना नहीं मिला तो सुराज भी त्याग, पुरुषार्थ, पराक्रम, समर्पण और अनुशासन के बिना संभव नहीं। यानी उन्होंने देश के एक-एक व्यक्ति को यह समझाने की कोशिश की क हरेक को अपनी अपनी विशेष जिम्मेवारियों की ओर प्रतिबद्धता से आगे बढ़ना होगा तभी जाकर देश को सुराज प्राप्त होगा।

किंतु कुछ भी करने के लिए समाज में एकता चाहिए। दलितों के साथ दुर्व्यवहार का मुद्दा सुर्खियों में हैं और यह स्वाभाविक था कि प्रधानमंत्री इस पर बोलें।  प्रधानमंत्री ने महापुरुषों के कथनों को उद्धृत करते हुए यह बताया कि समाज उंच-नीच, पृश्य-अस्पृश्य में बंटता है तो समाज टिक नहीं सकता। ये बुराइयां पुरानी है तो उपचार भी ज्यादा कठोरता तथा संवेदनशीलता से करना होगा। और यह केवल सरकार से नहीं हो सकता। सरकार कानून के अनुसार कार्रवाई कर सकती है लेकिन देश के सभी लोगों की जिम्मेवारी है कि वो सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लडें और लड़ेंगे तभी जब स्वयं सामाजिक बुराइयों से उपर उठे। प्रधानमंत्री की यह अपील भी है और चेतावनी भी। वास्तव में उनका यह कहना सही है कि सशक्त हिन्दुत्सान सशक्त समाज के बिना नहीं बन सकता। इसी तरह सिर्फ आर्थिक पग्र्रति से भी सशक्त समाज नहीं हो सकता। सशक्त समाज के लिए सामाजिक न्याय जरुरी है। चाहे दलित हो या आदिवासी सभी यह समझें कि सवा सौ करोड़ देशवासी हमारा परिवर है। यह ठीक है कि प्रधानमंत्री के कहने भर से ये बुराइयां दूर नहीं हो सकतीं, लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर ये बातें रखनी बहुत जरुरीं थीं।

मोदी लोगों में उम्मीद पैदा करते हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि अगर आप नहीं करेंगे तो ऐसा नहीं होगा या इतनी समस्याएं है, चुनौतियां हैं जिनसे पार पाना आसान नहीं है। उन्होंने कहा कि देश के सामने समस्याएं अनेक हैं, लेकिन समस्याएं है तो सामर्थ्य भी हैं और जब हम सामर्थ्य की शक्ति को लेकर चलते हैं तो समस्याओं से समाधान के रास्ते भी मिल जाते हैं। भारत के पास अगर लाखों समस्याएं हैं तो 125 करोड़ मस्तिष्क भी समाधान का सामर्थ्य रखती हैं। इसके साथ उन्होने यह बताने का प्रयास किया कि उनकी सरकार इस दिशा में सक्रिय है। उन्होंने कहा कि मैं आज कार्यों का लेखा जोखा की जगह कार्यसंस्कृति की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा हूं।  हालांकि इसी कार्यसंस्कृति के बहाने उन्होंने उदाहरण में अपनी सरकार के अनेक कार्यो को गिना दिया। हम उसमें यहां विस्तार से नहीं जा सकते और उसकी आवश्यकता भी नहीं। उन्होंने अपनी सरकार का जो दर्शन रखा उसे अवश्य समझना चाहिए। जैसे उन्होंने कहा कि जब सुराज की बात करता हूं तो सुराज का सीधा मतलब हमारे देश के सामान्य मानव के मन में सुराज लाना। यानी सरकार सामान्य मानव के प्रति संवेदनशील, जिम्मेवार और समर्पित हौ। उत्तरदायित्व और जवाबदेही इसकी जड़ में होनी चाहिए। वहीं से उसे रस मिलता है तथा शासन को संवदेनशील भी होना चाहिए। इन सबके साथ पारदर्शिता का भी उन्होंने सुराज का महत्वपूर्ण अंग बताया। इसके अलावा दक्षता तथा सुशासन को भी जरुरी बताया। और इन सबके अंत में उन्होंने कहा कि सब कुछ का लाभ समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचता है या नहीं यह होगी सुराज की कसौटी। किंतु इन सबके लिए संकल्प चाहिए। यदि संकल्प नहीं हो तो कुछ नहीं हो सकता।

प्रधानमंत्री की सुराज की इस व्याख्या से सैद्धांतिक तौर पर कोई असहमत नहीं हो सकता। हां, यह जमीन पर कितना उतर रहा है या इसके हर पहलू को साबित करने के लिए उन्होंने जो उदाहरण दिए उनसे सहमति-असहमति हो सकती हैं। इस भाषण को सुनने के बाद यह मानना होगा कि प्रधानमंत्री के पास शासन का या सुराज का दर्शन है। जब किसी के पास दर्शन होगा, खाका होगा तभी तो वह उसे क्रियान्वित करने की कोशिश करेगा। तभी तो देश के नेता के नाते वह दिशा दे सकेगा। यदि किसी के पास दर्शन ही नहीं है, सुराज की समझ ही नहीं है उसकी कोई कल्पना नहीं है तो वह क्या करेगा? हम मोदी के विरोधी हों या समर्थक इस मायने में देश के नागरिक के नाते हमें संतोष होना चाहिए कि उनके पास सुराज की समझ है। इससे भी एक आश्वस्ति का भाव पैदा होता है। स्वतंत्रता दिवस के दिन स्वराज्य को सुराज के साथ जोड़कर तथा उसकी उदाहरण सहित विस्तृत व्याख्या करके मोदी ने अपनी ओर से वाकई देशवासियों को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि आपने जिसके हाथों बागडोर दी है उसे पता है कि आजादी का संकल्प क्या था और उसे किस तरह पूरा करना है।

हालांकि अपने भाषण में करीब 95 मिनट का ऐतिहासिक समय उन्होंने लिया और पिछले साल का 86 मिनट का अपना ही रिकॉर्ड तोड़ा। इसको थोड़ा कम किया जा सकता था। बहुत सारी बातें और उदाहरण ऐसे थे जो देशवासी कई बार सुन चुके हैं। मसलन, जनधन योजना की बात न जाने प्रधानमंत्री ने कितनी बार कही है। ऐसे उदाहरणें को एकाध पंक्ति में खत्म किया जा सकता था। आधार कार्ड से योजनाओं के लाभ की बात भी उनके मुंह से कई बार सुनी जा चुकी है। ऐसी और भी बातें थीं। लगता है वो देश में यह बनी हुई धारणा खत्म करना चाहते थे कि सरकार जितनी बात करती है उतना काम नहीं, इसलिए उन्होंने लोगों को समझा देने के लहजे में सारी बातें रखीं। जो भी हो यह मानना होगा कि अपने स्वतंत्रता दिवस संबोधन से उन्होंने देश के भविष्य को लेकर आशा, उम्मीद और आश्वस्ति पैदा करने की कोशिश की और इसमें निश्चय ही उन्हें एक हद तक सफलता भी मिली होगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः09811027208,01122483408

 

 

 

शनिवार, 13 अगस्त 2016

कश्मीर में कारगर हस्तक्षेप का उपयुक्त समय

 

अवधेश कुमार

यह सवाल हर भारतीय के मन मैं कौंध रहा है कि कश्मीर का क्या किया जाए? कैसे शांति स्थापित हो? आशंका यह पैदा हो रही है कि कश्मीर कहीं 1990 के दशक वाली स्थिति में न पहुंच जाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चन्द्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाबड़ा से इन्सानियत, जम्हूरियत, कश्मीरीयत की बात की। उन्होंने कहा कि पूरा देश कश्मीर से प्यार करता है, उसे स्वर्गभूमि मानता है और सभी भारतीय की इच्छा होती है कि वह एक दिन कश्मीर जाए। उन्होंने इस बात पर दुख प्रकट किया कि जिन बच्चों के हाथों में किताब, क्रिकेट के बैट आदि होने चाहिए उनके हाथों में पत्थर पकड़ा दिया गया है। यह एक प्रकार से प्रधानमंत्री की ओर से प्रस्ताव है कि हमने जिस इन्सानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की बात की है उस पर आकर समाधान तलाशा जाए। प्रश्न है कि कश्मीर के जो उत्पाती हैं वो इस अपील या प्रस्ताव को मानने के लिए तैयार हैं?

प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के एक दिन पहले मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने दिल्ली आकर गृहमंत्री से भेंट की और उसके बाद कहा कि आम अवाम के साथ सभी पक्षों से बातचीत की जाए। सभी पक्षों का उन्होंने तात्पर्य भी स्पष्ट कर दिया कि हुर्रियत यानी अलगाववादी और पाकिस्तान। उन्होंने लोगों के कथित घाव पर मरहम लगाने की बात की। उनकी पोटली में कश्मीर समस्या का यही समाधान है। मेहबूबा के ये विचार नए नहीं है। उनके पिता स्व. मुफ्ती मोहम्मद सईद भी जख्मों पर मरहम लगाने की बात करते थे। वे देश के गृहमंत्री रहे, जब आतंकवादियों ने उनकी बेटी का अपहरण कर लिया था। वे दो बार मुख्यमंत्री रहे। यह तो नहीं कहा जा सकता कि मुख्यमंत्री रहते उन्होंने उन तथाकथित जख्मों पर मरहम लगाने का काम नहीं किया। क्या उससे स्थिति में अंतर आ गया? उसी बात को फिर दुहराने का क्या अर्थ है? सामान्य तौर पर यह ठीक है कि समस्याओं का समाधान अंततः बातचीत से ही निकलता है। किंतु क्या वर्तमान कश्मीर इस कसौटी पर खरा उतरता है?

कहना बहुत आसान है कि लोगों से बातचीत की जाए। सवाल है कि जो लोग सुरक्षा बलों पर पत्थरों से हमले कर रहे हैं, एसिड फेंक रहे हैं और जो उनके पीछे हैं उनके साथ बातचीत कैसे की जाए? कोई भी इस तरह अपराध करेगा यानी कानून अपने हाथ में लेगा तो उससे कानून के तरीके से निपटना होगा। संसद में हुई बहस में कई अच्छी बातें भी आईं लेकिन कई सांसदों ने पैलेट गन का प्रयोग रोकने की मांग की। सुरक्षा बल पैलेट गन का प्रयोग रोक दें तो वे पत्थरबाजी, एसिडबाजी का मुकाबला कैसे करें यह भी माननीय सांसदों को बताना चाहिए। मेहबूबा मुफ्ती का रवैया बताता है कि उनके पास उपयुक्त सोच नहीं है। हो भी नहीं सकता। उपयुक्त सोच वस्तुस्थिति जैसी है उसी रुप में देखने से पैदा हो सकती है। कश्मीर को देखने के उनके नजरिए में ही दोष है। लोगों को चोट न पहुंचे, वे मारे न जाएं, उनको मनाया जाए यह सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन कश्मीर की आंतरिक स्थिति और उसके पीछे की साजिशकर्ता शक्तियों को देखें तो पूरी तस्वीर ही उलट जाती है। 8 जुलाई को आतंकवादी बुराहन वानी के सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मारे जाने के बाद जो हिंसा भड़की है वह रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इसके पीछे जो शक्तियां लगीं हैं उनको पहचाने और उनका इलाज तलाशे बगैर आप समाधान की दिशा में बढ़ ही नहीं सकते।

 1990 के बाद पहली बार है जब वहां किसी संगठन ने पोस्टर लगाया कि पंडितों घाटी छोड़ो, अन्यथा मरने के लिए तैयार रहो। इस पोस्टर पर लश्कर ए इस्लाम का नाम लिखा है जो हिज्बुल मुजाहीद्दीन आतंकवादी संगठन का भाग माना जाता है। लिखा गया कि इंडिया गो बैक, योअर गेम इज ओवर। यानी भारत वापस जाओ, तुम्हारा खेल खत्म हो चुका है। सैयद अली शाह गिलानी दीवार पर यह नारा लिखते कैमरे में देखे गए। वो नारा लगवा रहे हैं पाकिस्तान हमारा है, हम हैं पाकिस्तानी। क्या ये स्थितियां बात करने लायक है? 1989 के बाद यही स्थितियां थीं जिनमें घाटी से पंडितों को पलायन करना पड़ा था। एक ओर यह हालत है तो दूसरी ओर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कहते हैं कि इंशा अल्लाह, हम उस दिन के इंतजार में हैं जब कश्मीर पाकिस्तान होगा। हिज्बुल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकवादी संगठन और अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा घोषित आतंकवादी सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में खुलेआम सक्रिय है। वह कराची से बयान देता है कि हमने समझ लिया है कि अब हथियारबंद जेहाद ही हमारे पास एकमात्र रास्ता है तथा पाकिस्तान इसमें मदद कर रहा है। वह कश्मीर पर भारत पाकिस्तान के बीच नाभिकीय युद्ध तक की बात कर रहा है। हाफिज सईद की अति सक्रियता तो सामने है ही। अगर पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की शह नहीं हो तो सलाहुद्दीन इतना सक्रिय हो ही नहीं सकता। पाकिस्तान कश्मीर में वैसी स्थिति पैदा करना चाहता है ताकि यहां ज्यादा से ज्यादा उसके एजेंट सक्रिय हो, हालात ऐसे पैदा कर दें जिसमें भारत को कठोर सैन्य कार्रवाई करवानी पड़े, खून खराबा हो और कुल मिलाकर नियंत्रणविहीनता का वातावरण पैदा हो जाए।

क्या आप सीमा पार जाकर सलाहुद्दीन और हाफिज सईद से हाथ जोड़ेंगे कि आइए हम आपसे बात करना चाहते हैं, आप कश्मीर में शांति स्थापित करने में हमारी मदद कीजिए। पाकिस्तान का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान क्या हमारे बातचीत के आग्रह से अपना रवैया बदल लेगा? कश्मीर में कारगर हस्तक्षेप की यकीनन आवश्यकता है। वह इसलिए है ताकि स्थिति बिल्कुल हाथ से बाहर न निकल जाए। लेकिन वह हस्तक्षेप क्या हो सकता है इसकी समग्र योजना बनाने की जरुरत है। मेहबूबा ने तो ईद के मौके पर पत्थर फंेकने के अपराध में गिरफ्तार करीब छः सौ लोगों को जेल से रिहा किया उससे क्या हुआ? पाकिस्तान का झंडा फहराने वाली आसिया अंद्राबी पर मुकदमा होने के बावजूद सरकार ने गिरफ्तार नहीं किया। तो क्या उससे उसका ह्रदय बदल गया? हाफिज सईद कहता है कि आसिया अंद्राबी ने उससे फोन पर लंबी बातचीत की। क्या बातचीत की होगी? हर शुक्रवार को रुटिन की तरह पाकिस्तानी झंडा फहराने और नारा लगाने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। तो उससे उनका दिल पसीज गया क्या? अब तो आईएसआईएस और लश्कर ए तैयबा तक के झंडे लहराए जाते हैं।

क्या हमारे देश के नेतागण नहीं जानते कि अगर लोग घायल हो रहे हैं तो 4500 से ज्यादा सुरक्षा बल भी घायल हुए हैं। दो जवान भी मारे गए हैं। क्या उनके परिवारों के जख्म पर मरहम की आवश्यकता नहीं? कश्मीर पर छाती पीटने वालों में कोई नहीं कहता कि लोग पुलिस व अर्धसैनिक बलों पर हमले न करे केवल पुलिस और अर्धसैनिक बल पैलेट गन न चलाएं यह मांग की जा रही है। लोग अगर उन पर हमले करेंगे तो वो क्या करेंगे? उनके कैंपों पर भीड़ द्वारा भड़काऊ हमले हो रहे हैं। वे कितनी विकट परिस्थितियों में काम कर रहे हैं यह विचार का विषय होना चाहिए।

हालांकि हमने पूर्व में भी ऐसी स्थितियां देखी हैं। सन् 2010 में पत्थरबाजी और हिंसा चार महीने तक चलती रही थी। उस समय भी 20 सितंबर 2010 को सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर गया था। क्या निकला यह उसमें जाने वाले सांसद बता सकते हैं? तब भी सर्वदलीय प्रतिनिमंडल में कोई समस्या नहीं है। लेकिन यह कश्मीर की स्थिति पर कोई विशेष रिपोर्ट देगा, या समाधान का कोई विशेष रास्ता सुझा देगा ऐसा मानना बेमानी होगी। हालांकि कश्मीर में जम्मू और लद्दाख शांत है, उत्तरी कश्मीर में भी स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं है। समस्या का केन्द्र दक्षिणी कश्मीर है जहां हुर्रियत के सारे नेता रहते हैं। लेकिन 2010 में पाकिस्तान की यह नीति नहीं थी जो इस समय सेना और नवाज शरीफ ने अपना लिया है। इसलिए कश्मीर पर केवल बात की बजाय कारगर हस्तक्षेप किया जाए। दुनिया क्या कहेगी, पाकिस्तान कैसे छाती पीटेगा, तथाकथित मानवाधिकारवादी क्या कहेंगे इन सबकी चिंता छोड़कर संकल्पबद्ध कार्रवाई करनी होगी।  अगर नहीं किया गया तो घाटी की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। साथ ही पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए उसके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीर, गिलगित बलतिस्तान पर अपना दावा करके इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कूटनीति अपनाई जाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, 0981107208 

 

 

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

जीएसटी से क्या होगा

 

अवधेश कुमार

तो 16 वर्षों से समर्थन और विरोध के बीच लटका जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स या सामान और सेवा कर विधेयक राज्य सभा में पारित हो गया। हमने करीब सात घंटे की चर्चा में बहुत अच्छी, गंभीर बहस सुनी। ज्यादातर सदस्य तैयारी से आए थे और अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए, सुझाव दिए। विता मंत्री अरुण जेटली ने सबका सिलसिलेवार जवाब दिया। जीएसटी लोकसभा में पहले पारित हो चुका था, लेकिन राज्यसभा में नरेन्द्र मोदी सरकार को बहुमत न होने के कारण इसका पारित होना मुश्किल था। सरकार के गंभीर प्रयासों तथा राज्यों व विपक्ष की मांगों के अनुरुप कुछ संशोधन करने के कारण बहुमत सदस्यों का समर्थन मिल गया। मुख्य समस्या कांग्रेस से थी। उसने तीन संशोधन सुझाए थे जिसमें से विनिर्माण कर एक प्रतिशत हटाने का सुझाव मान लिया गया। कांग्रेस के सामने साफ हो गया था कि ज्यादातर दल इसके पक्ष में आ गए हैं, इसलिए विरोध करने से हम अलग-थलग पड़ जाएंगे। प्रश्न है कि जीएसटी पारित होने का अर्थ क्या है?

राज्य सभा में पारित होने भर से यह लागू नहीं हो जाएगा। यह फिर से लोगसभा में जाएगा। यह संविधान संशोधन विधेयक है इसलिए उसके बाद आधे से ज्यादा राज्यों में इसे पारित कराना होगा। तब यह संसद में आएगा और फिर राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए जाएगा। किंतु इसमें बाधा आएगी इसका कोई कारण नजर नहीं आता। तो यह मानकर चलना चाहिए कि अप्रैल 2017 से जीएसटी लागू हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि आजादी के बाद कर ढांचे में यह सबसे बड़ा बदलाव है। हम इसे न मानें तो भी कह सकते हैं कि 1991 से आरंभ उदारीकरण की दिशा का सबसे बड़ा बदलाव अवश्य है। जीएसटी के बाद भारत में व्यवसाय का तरीका काफी हद तक बदल जाएगा। यह एक देश एक कर के सिद्धांत पर आधारित कानून है। अभी तक सारे कर मिलाकर हम करीब 30 से 35 प्रतिशत कर चुकाते थे। अब यह समान रुप से 18 प्रतिशत होगा।

हालांकि यह कहना गलत होगा कि इसमें केवल एक कर होगा। यह ठीक है कि इससे केंद्र और राज्यों के 20 से ज्यादा परोक्ष कर जैसे उत्पाद शुल्क, सेवा कर, अतिरिक्त सीमा कर, विशेश अतिरिक्त सीमा कर, वैट/बिक्री कर, केन्द्रीय बिक्री कर, मनोरंजन कर, ऑक्ट्रॉय एंड एंट्री टैक्स, लग्जरी जैसे कर खत्म हो जाएंगे। इसके बावजूद जीएसटी में ही 3 तरह के कर होंगे। एक, सीजीएसटी यानी सेंट्रल जीएसटी इसे केंद्र सरकार वसूलेगी। दो, एसजीएसटी यानी स्टेट जीएसटी- इसे राज्य सरकार वसूलेगी। तीन, आईजीएसटी यानी इंटिग्रेटेड जीएसटी- अगर कोई कारोबार दो राज्यों के बीच होगा तो उस पर यह कर लगेगा। इसे केंद्र सरकार वसूलकर दोनों राज्यों में बराबर बांट देगी। देश के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के जरिये करीब 14.6 लाख करोड़ रुपए कर जमा होता है। इसमें से करीब 34 प्रतिशत अप्रत्यक्ष करों के जरिये मिलता है, जिसमें उत्पाद के जरिये 2.8 लाख करोड़ रुपए और सेवा के जरिये 2.1 लाख करोड़ रुपए आते हैं। प्रश्न है कि अगर सारे परोक्ष कर खत्म हो जाएंगे तो क्या केन्द्र एवं राज्यांे का राजस्व कम नहीं होगा?

वास्तव में यह प्रश्न हर व्यक्ति के ंअंदर उठेगा कि अगर 30-35 प्रतिशत की जगह 18 प्रतिशत कर होगा तो इससे कम होने वाली राजस्व की भरपाई कैसे होगी? मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियन की समिति ने सारे जोड़ घटाव के बाद 17-18 प्रतिशत राजस्व की सिफारिश की है। समिति के अनुसार इससे न सरकार का राजस्व बढ़ेगा, न घटेगा। इसके तीन कारणं हैं। पहली, बहुत सी चीजों पर अभी कम कर लगता है, वह बढ़ जाएगा। दूसरे, कुछ सामानों पर कर नहीं लगता था उस पर लगेगा। और तीसरे,  समिति का मानना है कि बहुत से कारोबारी बिक्री को कम दिखाते हैं। यानी चोरी करते हैं। जीएसटी में हर लेन-देन की ऑनलाइन एंट्री होगी। इससे चोरी मुश्किल हो जाएगी। वैसे राज्यों को पांच साल तक नुकसान की केंद्र से 100 प्रतिशत भरपाई होगी। पहले 3 साल तक नुकसान की भरपाई की बात थी। बावजूद सारी व्यवस्थाओं और सावधानियों के जीएसटी पर केंद्र और राज्यों के बीच अगर विवाद हुआ तो इस पर जीएसटी काउंसिल फैसला करेगी। इस काउंसिल में केंद्र और राज्य, दोनों के प्रतिनिधि होंगे।

अब प्रश्न है कि इसका व्यापार के लिए, हमारे लिए और समूची अर्थव्यवस्था के लिए क्या मायने हैं? कहने की आवश्यकता नहीं कि करो का जाल और दर कम होगा। कर भरने की प्रक्रिया सरल हो जाएगी। इससे व्यापार सुगम होगा। इसका सकारात्मक असर विदेशी निवेशकों पर पड़ेगा और विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी हो सकती है। सभी राज्यों में सभी सामान एक कीमत पर मिलेगा। अभी एक ही चीज दो राज्यों में अलग-अलग दामों पर पर बिकती है। ध्यान रखिए, शेयर बाजार जीएसटी से काफी खुश है। क्यों? क्योंकि उसे लगता है कि दुनिया में जहां भी जीएसटी लागू हुआ वहां विकास दर बढ़ी, कारोबार में तेजी आई, निवेश बढ़ा। सरकार का दावा है कि जीएसटी लागू होने के बाद विकास दर में 2 प्रतिशत की वृद्धि होगी। लेकिन अंतिम निष्कर्ष देने के पहले हमें थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए।

जीएसटी के लागू होने से सामानों के लाने ले जाने में लगने वाले समय में कमी आएगी, क्योंकि उनको जगह-जगह कर नहीं भरना होगा। इससे पुलिस घुसखोरी की परेशानी भी घटेगी। जाहिर है, इससे ट्रकों का अधिकतम उपयोग हो सकेगा। ऐसा होने पर भारी-भरकम बड़े ट्रकों का ज्यादा उपयोग हो सकेगा, जिससे ट्रांसपोर्टेशन की लागत में कमी आएगी। इसके साथ ही सामानों का अंतरराज्यीय परिवहन आसान होगा, जिससे लॉजिस्टिक सेवा की मांग में इजाफा होगा। जीएसटी के कारण लॉजिस्टिक सेक्टर में काम करने वाले असंगठित और संगठित कारोबारी के बीच कीमतों का अंतर खत्म होगा। दरअसल, कई असंगठित कंपनियां कर चोरी करती हैं और इसलिए वह कम कीमत पर सामान पहुंचाने का प्रस्ताव दे पाती हैं। एक जैसी कर दरें होंने से संगठित क्षेत की कंपनियों को फायदा होगा। माल ढुलाई लगभग 20 प्रतिशत सस्ती होगी। उपभोक्ता उत्पादों पर सात से 30 प्रतिशत कर लगता है। जीएसटी के लगने से कंपनियों को अधिक फायदा होगा, जिन्हें अतीत में कर छूट नहीं मिलती थी।

तो जनता को क्या मिलेगा? इसके बाद लेन-देन पर कर नहीं लगेगा। घर खरीदना हो या फिर ऐसी कोई दूसरी लेन-देन करनी हो, वे सस्ती हो जाएंगी। इन पर वैट और सेवा कर दोनों लगते हैं। जीएसटी के बाद इनका झंझट खत्म। रेस्तरां का बिल इसलिए कम होगा, क्योंकि अभी वैट, जो हर राज्य में अलग-अलग है और उसके साथ सेवा कर 6 प्रतिशत तथा बिल के 40 प्रतिशत हिस्से पर 15 प्रतिशत लगता है। जीएसटी के तहत सिर्फ एक कर लगेगा। उपभोक्ता सामग्रियों जैसे एयरकंडीशनर, माइक्रोवेव ओवन, फ्रिज, वॉशिंग मशीन सस्ती होगी। इन पर अभी 12.5 प्रतिशत उत्पाद कर और 14.5 प्रतिशत वैट लगता है। जीएसटी के बाद 18 प्रतिशत कर लगेगा।  अगर माल ढुलाई सस्ता होगा तो सामान भी सस्ते होंगे। इससे आम लोगों की जेब में धन बचेंगे।

किंतु यह मानना गलत होगा कि हमारे लिए सब कुछ केवल सस्ता ही होगा। कई चीजें महंगी हो जाएंगी। चाय-कॉफी, डिब्बाबंद खाद्य उत्पाद 12 प्रतिशत तक महंगे होंगे। इन पर अभी कर नहीं लगता। इसी तरह सेवाएं, मोबाइल बिल, क्रेडिट कार्ड का बिल या फिर ऐसी अन्य सेवाएं सब महंगी होंगी। अभी सेवाओं पर 15 प्रतिशत कर लगता है। जीएसटी के बाद यह 18 प्रतिशत हो जाएगा। जिन चीजों पर डिस्काउंट है उसमें डिस्काउंट के बाद की कीमत पर कर लगता है। जीएसटी में मूल्य पर कर लगेगा। इसी तरह कई सामग्रियां महंगी होगी। वैसे भी अगर आम सेवाओं पर कर 15 प्रतिशत देना होता है और जब 18 प्रतिशत देना होगा तो कम से कम 3 प्रतिशत महंगाई तो बढ़ेगी। यह सच है कि दुनिया में जहां भी जीएसटी लागू हुआ वहां आरंभ में महंगाई भी बढ़ी। उदाहरण के लिए मलेशिया में 2015 में जीएसटी आने के बाद से महंगाई दर 2.5 प्रतिशत तक बढ़ी है। यह एक तथ्य  है कि पूरी दुनिया में जहां भी जीएसटी लागू हुआ वहां लागू करने वाली सरकार चुनाव के बाद सत्ता में वापस नहीं आई क्योंकि आरंभिक वर्षों में कुछ चीजें महंगी हो जाती हैं और इसका खमियाजा सरकार को भुगतना पड़ता है। पता नहीं नरेन्द्र मोदी सरकार को इस तथ्य का भान है या नहीं।

तो ये सारे आकलन भविष्य के संदर्भ में हैं। वर्तमान में इसे देखने और भुगतने के लिए हमें इसके अमल में आने की प्रतीक्षा करनी होगी। इसके बाद ही उसके सही परिणामों को हम देख सकेंगे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

 

 

 

 

 

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