शुक्रवार, 24 जून 2016

रघुराम राजन की विदाई के बाद

 

अवधेश कुमार

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन द्वारा स्वयं इस घोषणा के बाद कि वे दूसरा कार्यकाल नहीं लंेेगे उनसे संबंधित विवाद का अंत हो जाना चाहिए। जिस तरह से भाजपा नेता एवं राज्य सभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोलते हुए कह दिया था कि उनको दूसरा कार्यकाल नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि वो भारतीय कम विदेशी ज्यादा हैं उनसे तीखा विवाद आरंभ हो गया था। नेताओं और मीडिया का एक वर्ग राजन के पक्ष में मोर्चा खोलकर सुब्रह्मण्यम स्वामी पर हमला कर रहा था। इसमें सरकार की खामोशी का संकेत भी साफ था। शायद सरकार स्वयं भी उन्हें दूसरा कार्यकाल देने के पक्ष में नहीं थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि रिजर्व बैंक का गवर्नर कौन होगा इसकी चर्चा मीडिया में न हो। वित्त मंत्री अरुण जेटली का वक्तव्य था कि इसका फैसला सही समय पर होगा। स्वयं राजन ने पहले कहा था कि यह प्रश्न उनके जवाब देने का नहीं है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि सरकर की ओर से सकारात्मक संकेत न मिलने के कारण राजन ने स्वयं अपनी ओर से ही यह घोषणा कर दी। उनकी घोषणा पर अरुण जेटली का यह वक्तव्य कि सरकार उनके निर्णय का स्वागत करती है सब कुछ अपने आप कह देता है।

भारत जैसे देश में कोई एक व्यक्ति इतना अपरिहार्य नहीं हो सकता कि उसके बिना काम न चले। भारतीय रिजर्व बैंक राजन के पूर्व भी अपनी भूमिका निभा रहा था और बाद में भी निभाएगा। अभी तक रिजर्व बैंक के गवर्नर को कई मामलों में कुछ ज्यादा शक्तियां रहीं हैं और यों कहें कि मौद्रिक नीति के मामले में वीटो पावर भी। इसलिए कोई भी सरकार रिजर्व बैंक के गवर्नर के पद पर वैसे व्यक्ति को बिठाना पसंद करती है जिसके साथ उसका तालमेल बेहतर हो। राजन के साथ मोदी सरकार दो वर्ष से काम अवश्य कर रही थी लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि उनके बीच जैसा तालमेल और संवाद होना चाहिए वैसा था। आखिर ब्याज दर को लेकर वाणिज्य मंत्री सीतारमण ने ही राजन के खिलाफ बयान दे दिया था। भारतीय रिजर्व बैंक का इतिहास भी अजीब रहा है। आज तक रिजर्व बैंक में काम करते हुए केवल एक व्यक्ति एम नरसिम्हन ही 1977 में रिजर्व बैक के गवर्नर के पद पर पहुंचे। राजन को मिलाकर अभी तक रिजर्व बैंक के 23 गवर्नर हो चुके हैं। इसके पूर्व भी गवर्नरों से सरकारों का विवाद हुआ है। पूर्व यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही गवर्नर डी. सुब्बाराव से वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम का तनाव ब्याज दर को लेकर हो गया था। सरकार की मंशा के विपरीत डी. सुब्बाराव ब्याज दर घटाने को तैयार नहीं हुए।

वैसे भी मोदी सरकार बैंकों की दिशा में ऐसे कई बड़े सुधारों को लेकर आई है और स्वयं रिजर्व बैंक की निर्णय प्रक्रिया मंे सुधार करने जा रही है। इसके लिए उसे अपने मनमाफिक गर्वनर चाहिए। सरकार पूरी बैंकिंग प्रणाली में आमूल बदलाव लाना चाहती है तथा रिजर्व बैंक की पुनर्रचना की ओर कदम उठा रही है। देश के सामने उपस्थित वित्तीय चुनौतियां तथा दुनिया की स्थिति को देखते हुए कई बड़े बदलाव प्रस्तावित हैं। उदाहरण के लिए सरकार मौद्रिक नीति समिति या एमपीसी गठित करने जा रही है जिसमें सरकार की ओर से तीन सदस्य होंगे और रिजर्व बैंक के दो सदस्य तथा गवर्नर इसमें शामिल होंगे। इसमें गवर्नर को भी समान शक्तियां हासिल होंगी। यानी मौद्रिक नीति वे अकेले नहीं तय कर पाएंगे। बैंकों के लिए ब्याज दर के मामले में भी उनका वीटो अधिकार खत्म हो जाएगा। अभी भी रिजर्व बैंक की एक समिति है जो अर्थव्यवस्था के अपने आकलन के अनुकूल ब्याज दर की सिफारिश करता है लेकिन गवर्नर के लिए उसे स्वीकार करना जरुरी नहीं है। वह उसे अस्वीकृत कर अपने अनुसार ब्याज दर निर्धारित कर सकता है। रघुराम राजन इस प्रकार की समिति के पक्ष में नहीं थे। सरकार की घोषणा है कि समिति सितंबर से काम करना आरंभ कर देगी। राजन का कार्यकाल भी 4 सितंबर को समाप्त हो रहा है। इस तरह रघुराम राजन अंतिम ऐसे अधिकार प्राप्त गवर्नर होंगे। इसके बाद सरकार की भूमिका मौद्रिक नीति तय करने में बढ़ जाएगी। यानी ब्याज दर कितना होगा, रेपो दर क्या होगा, रिवर्स रेपो कितना होगा....आदि सरकार की सोच से निर्धारित होगी। सरकार एवं रिजर्व बैंक के सदस्य के समान संख्या में होने का मतलब यही है।

रघुराम राजन के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने कुछ किया ही नहीं। उन्होंने सुधार के कई दूरगामी कदम उठाए। अभी उन्हें संसदीय समिति के समक्ष उपस्थित होना है जिसमें वो अपनी उपलब्धियां रखेंगे। अनौपचारिक तौर पर कुछ आंकड़े मीडिया के लिए उपलब्ध कराए गए हैं। मसलन, विकास दर वित्त वर्ष 2015-16 की अंतिम तिमाही में 7.9 प्रतिशत होना, मई में थोक महंगाई दर 0.79 प्रतिशत एवं खुदरा महंगाई दर 5.76 प्रतिशत, रेपो दर 6.5 प्रतिशत, विदेश्ी मुद्रा भंडार 367 अरब डॉलर....आदि। इसे केवल रिजर्व बैंक की उपलब्धि मानें या सरकार की इस पर यकीनन विवाद की गुंजाइश है। राजन के समय की एक बड़ी चुनौती बैंकों के फंसे कर्ज यानी एनपीए रही है। हालांकि यह समस्या उनके पहले से चली आ रही थी लेकिन पिछले सालों में वह काफी बिगड़ी है। राजन ने सरकारी बैंकों को कहा कि जहां कहीं भी खातों में एनपीए छिपाया गया है उनको सामने लाया जाए ताकि यह साफ हो सके कि वाकई यह कितना है। बैंकों को इसके लिए चेतावनी दी गई। तो यह उनकी उपलब्धि है कि लगभग एनपीए का आंकड़ा उन्होंने निकाल लिया और यह प्रक्रिया ठीक तरीके से चल रही है।  यह इस समय 5 लाख 78 हजार करोड़ रुपए के लगभग है। मार्च 2015 में सरकारी बैंकों का एनपीए 2 लाख 67 हजार करोड़ दिख रहा था जो इस समय 4 लाख 76 हजार करोड़ रुपया है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि सारे खाते को खंगालने का काम अभी अधूरा है। यानी एनपीए में और बढ़ोत्तरी हो सकती है। राजन की जगह जो नए गवर्नर आएंगे उनके सामने यह एक बड़ी चुनौती होगी। हमारे बैंक घाटे में चल रहे हैं और इस स्थिति में उनका घाटा और बढ़ना है। राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने एनपीए की वसूली के लिए हाल में ही बैंकों को ज्यादा अधिकार दिए हैं। सरकार भी इनके लिए नया कानून लेकर आ रही है। यह काम रिजर्व बैंक के नेतृत्व में होना है। राजन के प्रयासों से इतना तो हो गया कि बैंक आसानी से पहले की तरह अब एनपीए नहीं छिपा सकते। लेकिन बैंक आगे सतर्क रहें, एनपीए की हमेशा निगरानी होती रहे, न हो तो उन अधिकारियों को सजा दिया जाए तथा वसूली की प्रक्रिया तेज हो यह सब करने की आवश्यकता है। राजन यह काम अगले गवर्नर के लिए छोड़कर जा रहे हैं। राजन ने सुधारों की दिशा में कई काम और करने की कोशिश की जिसमें भारत में एक मजबूत कर्ज बाजार स्थापित करना था। यूनिवर्सल बैक का लाइसेंस देना भी इसी में शामिल था। इसी तरह पेमेंट बैंक एवं स्मॉल बैंक की शुरुआत का कदम भी उठाया गया। 11 पेमेंट बैंकों के लाइसेस दिए गए है। इससे भारत की कई अलग क्षेत्रों काम करने वाल दिग्गज कंपनियों के लिए बैंकिंग सेवा में आने का रास्ता खुल गया है। किंतु जब तक यूनिवर्सल बैंक एंव कस्टोडियन बैंक का लाइसेंस नहीं दिया जाएगा यह कार्य अधूरा ही रहेगा। तो यह काम आने वाले गवर्नर को करना होगा।

प्रधानमंत्री घर तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाने की बात करते रहे हैं। वे मोबाइल बैंकिंग को आसानी से आम लोगों तक पहुंच बनाने का आह्वान कर रहे हैं। यह कैसे होगा? पेमेंट बैंक एवं स्मॉल बैंक गांवों तक लोगों के पास वाकई पहुंच रहे हैं या नहीं यह देखना रिजर्व बैक के गवर्नर की ही जिम्मेवारी होगी। अगर नहीं पहुंच रहे हैं तो उनमें क्या सुधार की आवश्यकता है यह भी करना होगा। वास्तव में बैंकिंग सेवा का पूरा वर्णक्रम बदलने की नरेन्द्र मोदी की योजना है। भारत जैसे देश में यह आसान नहीं है। पोस्टल सेवा को बैंकिंग सेवा देने संबंधी सुविधाएं दी गईं हैं। ऐसे और भी कदम उठाए जाएंगे जिनका नियमन और विकास भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के सिर होगा।

अवधेश कुमार, ईः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

शुक्रवार, 17 जून 2016

कैराना पर संवेदनशील होकर विचार करें

 

अवधेश कुमार

कैराना पर राजनीति देखकर दिल दहल रहा है। एक सांसद ने कैराना से पलायन करने वाले लोगों की सूची देश के सामने रखी। उस सूची में कुछ त्रुटियां थीं। यानी 346 लोगों की सूची में 9 लोग मृत पाए गए और 6 लोग वहीं रहते पाए गए। बस, क्या था। लोगांें का पलायन कुछ लोगों के लिए छोटा मुद्दा हो गया और सूची की त्रुटि मुख्य मुद्दा। इसके समानांतर टीवी कैमरों पर वहां से पलायन कर गए लोगों के कारुणिक व भयावह वक्तव्य तथा अखबारों मंे आ रही रिपोर्टिंग साफ बता रहीं हैं कि वहां से भारी संख्या में पलायन हुआ है और वह स्वाभाविक नहीं है। रोजी रोटी या बेहतर रोजगार और व्यवसाय के लिए अपना कस्बा या शहर छोड़कर जाने की प्रवृत्ति पूरे देश में है लेकिन इससे बस्तियां खाली नहीं होतीं। इससे आबादी के अनुपात में इतना असंतुलन नहीं आता कि किसी समुदाय की संख्या 2011 के 30 प्रतिशत से घटकर 8 प्रतिशत हो जाए। कतारों से घरों पर ताले नहीं लटकते। एक-एक कर दूकानों पर यह बोर्ड नहीं चिपकता कि यह बिक्री का है।

उत्तर प्रदेश सरकार को देखिए। उसने स्थानीय प्रशासन को इसकी जांच सौंप दी और उसने जांच रिपोर्ट सरकार को दे भी दी। इसमें साफ कहा गया है कि कोई भी पलायन असामान्य है ही नहीं। हालांकि यह भी मानता है कि 252 लोगों ने पलायन किया है लेकिन कहता है कि इनमें भय से पलायन करने वाले केवल तीन परिवार हैं। इसके अनुसार 73 परिवार ऐसे हैं जो तीन वर्ष में पलायन करके गए हैं। 179 परिवार ऐसे मिले जो चार वर्ष से अधिक और 10 वर्ष से कम समय में वहां से गए हैं। इनमें 67 परिवारों को गए हुए 10 वर्ष से अधिक हो गए। अगर प्रशासन यह कह रहा है तो फिर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को क्या पड़ी है कि इस मुद्दे को गंभीरता से ले। उन्होंने तो एक दिन मीडिया से बात करते हुए एक पत्रकार को ही कह दिया कि तुम कैराना की तुलना कश्मीर से करते हो तुम्हारा मुंह काला। समाजवादी पार्टी का स्टैण्ड है कि भाजपा ने जानबूझकर राजनीतिक लाभ के लिए मामले को उठाया है। वह इसे सांप्रदायिक रंग देकर चुनावी लाभ लेना चाहती है। कुल मिलाकर अगर अखिलेश सरकार के लिए इस मामले की जांच स्थानीय प्रशासन से कराना था तो उसके लिए मामला पर पूर्ण विराम लग गया है। हालांकि यह विडम्बना ही है कि जिस प्रशासन के निकम्मेपन से यह पलायन हुआ उसे ही ंजांच की जिम्मेवारी दी जाए। क्या प्रशासन कभी यह स्वीकार करेगा उसके रहते वहां कानून के राज की स्थिति ऐसी हो गई थी कि एक वर्ग के अपराधी और गुंडे तत्वों के भय से लोग वहां से भागने लगे? यह सामान्य समझ की बात है कि प्रशासन कभी ऐसा स्वीकार नहीं कर सकता। 

वास्तव में यह देश का दुर्भाग्य है कि कैराना तथा कांधला जैसी बस्तियों से हुए पलायन को जितनी गंभीरता और संवेदनशीलता से लिया जाना चाहिए आम राजनीति और बौद्धिक जगत की प्रतिक्रिया उसके विपरीत रही है। भाजपा के प्रतिनिधिमंडल के जवाब में विपक्षी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल गया। यह एक अच्छी पहल थी। बाहर से प्रतिक्रियात्मक बयान की जगह वहां जाकर स्वयं देखने का निर्णय स्वागतयोग्य था। ंिकंतु जाने के पहले ही इनने हुकुम सिंह की सूची को नकार दिया। दिल्ली में ही इन नेताओं के बयान से स्पष्ट हो गया कि ये क्यों वहां जा रहे हैं। वही हुआ। वे कुछ लोगों से मिले और उनका निष्कर्ष निकल गया कि यहां से अस्वाभाविक पलायन हुआ ही नहीं है। उनके हाथ में वहां से बाहर गए मुसलमानों की एक सूची भी थमाई गई। इनने सूची की जाच करने की जहमत भी नहीं उठाई। विपक्षी नेता अगर उन परिवारों से अकेले में बात करते जिनके परिजन वहां से पलायन कर गए और वो डरते सहमते हुए वहां संपत्ति की रक्षा के लिए रुके हुए हैं तो उन्हें सच का पता चल जाता है। वैसै कैराना का सच तब तक समझ में नहीं आ सकता जब तक वहां से पलायन करके अन्यत्र बस गए लोगो से जाकर बातचीत न की जाए। यह न विपक्ष नेताओं ने किया न भाजपा ने।

हालांकि भाजपा को इसका श्रेय देना होगा कि उसकी टीम ने कम से कम वहां दिन भर रहकर विस्तृत जांच की, लोगों से बातचीत की, एक वर्ग द्वारा उनका विरोध भी हुआ, पर वे लौटने के बावजूद वहां रुके। विपक्षी नेता यदि उतने ही विस्तार से वहां काम करते तो उनकी समझ में सच्चाई आ जाती। सच्चाई क्या है? सच्चाई यह है कि वहां से भारी संख्या में लोगों का पलायन हुआ है और उनका कारण गुण्डागर्दी, भयादोहन, अपराध ही है। यह महज संयोग नहीं है कि ये अपराधी तत्व एक विशेष समुदाय से रहे हैं। आज के समय का संकट यह है कि जब मुसलमान पीड़ित होते हैं तब तो वह राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। उस पर बोलना अपने सेक्यूलर होने का प्रमाण माना जाता है। अगर उसी जगह हिन्दू पीड़ित हों और कोई उसे मुद्दा बनाना भी चाहे तो उस पर इतने हमले होने लगते हैं...उसे गलत साबित करने की इतनी प्रभावी और हंगामेदार कोशिशें होतीं हैं कि उसमें सच दब जाता है। यह अजीब किस्म का सेक्यूलरवाद है। कैराना इसी का शिकार हो रहा है। दबाव देखिए कि भाजपा प्रतिनिधिमंडल ने जांच करके जो रिपोर्ट राज्यपाल को सौंपी उसमें लिखा है कि एक वर्ग विशेष का पलायन हुआ है। उसे कानून व्यवस्था का मुद्दा माना है। भाजपा के प्रवक्ता भी मथुरा कांड और कैराना पलायन दोनों को एक ही तराजू पर रखकर इसे सपा सरकार के शासन काल में कानून व्यवस्था की स्थिति ध्वस्त होने तथा अपराध एवं गुंडागर्दी का परिणाम बता रहे हैं।

कोई यह नहीं कह सकता कि कैराना या कांधला या जहां से भी पलायन की रिपोर्टें आ रहीं हैं वहां के सारे मुसलमान एक साथ हिन्दुओं पर टूट पड़े हैं। अपराधी तत्वों की संख्या कम ही होती है। लेकिन अगर अपराधी तत्व के खिलाफ बहुसंख्यक आबादी चुप रहती है तो फिर अल्पसंख्यक को वहां से भागने के सिवा कोई चारा नहीं बचता। कश्मीर में पंडितों का पलायन क्यों हुआ? सारे मुसलमान तो आतंकवादी थे नहीं, पर वे बहुसंख्य होते हुए भी खामोश रहे और पंडितों के सामने वहां से जान और इज्जत बचाने के लिए भागने का ही एक विकल्प बचा था। यही स्थिति कैराना और कांधला की है। जब तक इसे इस सच के आइने में नहीं देखा जाएगा तब तक न सच दिखाई देगा और न इसके निदान का कोई रास्ता निकलेगा। प्रशासन अगर कह रहा है कि केवल तीन परिवार भय से पलायन किए हैं तो तीन भी क्यों किए हैं यह सवाल तो उठैगा। वैसे यह सफेद झूठ है। वास्तव में  वहां कानून के राज का अंत हो गया था। अगर कानून का राज रहता तो ऐसी स्थिति पैदा ही नहीं होती। पानीपत में जाकर बस गए एक व्यापारी के अनुसार एक दिन उनके पास कुछ लोग आए और कहा कि 20 लाख रुपया दो। इनने हाथ जोड़कर कुछ दिनों का समय मांगा। समय देते हुए धमकी दी गई कि अगर पुलिस के पास गए तो वहीं खड़ा मिलूंगा और गोली मार दंूंगा। उसी दिन एक व्यापारी की हत्या हो गई। अगले दिन दो व्यापारियों की हत्या हुई जिस पर प्रशासन की ओर से ऐसी कार्रवाई नहीं हुई जिससे अन्यों का भय दूर हो और परिणामतः ये अपने परिवार के साथ एक सैंण्ट्रो कार में बैठकर वहां वे भाग निकले। यह एक उदाहरण कैराना और कंाधला के सच को समझने के लिए पर्याप्त है।

अखिलेश सरकार को यह सच कैसे समझाया जाए? गृहमंत्रालय ने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी है। वह रिपोर्ट वही होगी जो स्थानीय प्रशासन ने प्रदेश सरकार को दिया है। अखिलेश सरकार यह तो मान नहीं सकती कि उसके राज में कहीं वाकई कानून के राज का ऐसा अंत हो गया था कि वहां सांप्रदायिक गुुंडों और अपराधियों की बन आई थी। अब तक वे इसे नहीं स्वीकारेंगे कानून के राज की स्थापना के लिए जो कठोर कदम उठाए जाने चाहिएं नहीं उठाए जाएंगे। सवाल सरकार की संवेदनशीलता का है। जब तक वह संवेदनशील तरीके से इस मामले पर विचार नहीं करेगी कुछ नहीं हो सकता।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

रविवार, 12 जून 2016

एमटीसीआर में भारत की सदस्यता ऐतिहासिक कूटनीतिक उपलब्धि

 

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भारत का एमटीसीआर या मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में प्रवेश अब औपचारिक मात्र रह गया है। वास्तव में यह एक बड़ी और ऐतिहासिक कूटनीतिक सफलता है। इसमंे हम अमेरिका के सहयोग को नहीं भूल सकते। पिछले वर्ष जब भारत ने इसकी सदस्यता के लिए आवेदन दिया तो कई देशों ने इसका तीखा विरोध किया। कुछ देश आसानी से ऐसे महत्वपर्ण क्लबों का विस्तार नहीं करना चाहते। लेकिन भारत का अक तक का रिकॉर्ड तथा अमेरिका के साथ संयुक्त कूटनीति ने माहौल को बदल दिया। विरोध करने वालों के लिए औपचारिक विरोध की अंतिम तिथि 6 जून रख दी गई थी। ध्यान रखिए 7 जून को मोदी और बराक ओबामा की मुलाकात होनी थी। इसके मद्दे नजर ही यह तिथि तय की गई थी। भारत एवं अमेरिका की इस संबंध में चलने वाली कूटनीति पर नजर रखने वालों को इसमें कोई संदेह नहीं था कि वर्षों की भारत की आकांक्षा पूरी होने का ऐतिहासिक क्षण आ गया है। मिसाइल बनाने और उनका परीक्षण करने में समर्थ राष्ट्र होने के बावजूद भारत के साथ रंगभेद की नीति का अंत होगा और हम उस क्लब मंे शामिल होंगे और यह हो गया। एमटीसीआर की सितंबर-अक्टूबर में होने वाली प्लेनरी में भारत की सदस्यता की घोषणा हो जाएगी। हालांकि सदस्यता की घोषणा के लिए किसी प्रकार की बैठक की आवश्यकता नहीं है। इसके अध्यक्ष रोनाल्ड वीज अगले महीने भारत के दौरे पर भी आ सकते हैं।

पहले यह समझें कि एमटीसीआर है क्या? इसकी स्थापना 1987 में हुई थी। ं इसमें आरंभ में केवल 7 देश अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, जापान, इटली, फ्रांस और ब्रिटेन शामिल थे। आज इस समूह में 34 सदस्य हैं। भारत 35 वंां होगा। यानी 29 वर्षों में इसकी संख्या पांच गुणी बढ़ी है। इसका उद्देश्य जैसा नाम से ही स्पष्ट है बैलिस्टिक मिसाइल, इसकी तकनीक, सामग्री आदि के प्रसार या बेचने की सीमाएं तय करना है। यह मुख्य रुप से 500 किलोग्राम पेलोड ले जाने वाली और 300 किमी तक मार करने वाली मिसाइल और अनमैन्ड एरियल व्हीकल टेक्नोलॉजी (ड्रोन) के खरीदे-बेचे जाने पर नियंत्रण रखता है। जाहिर है, भारत को भी इस सीमा का पालन करना होगा। एमटीसीआर के अलावा तीन ऐसी नियंत्रण व्यवस्था है जिसमें भारत प्रवेश चाहता है और अमेरिका मजबूती से भारत का साथ दे रहा है। ये तीन है- न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी, ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और वैसेनार अरेंजमेंट हैं। ऑस्ट्रेलिया ग्रुप रासयनिक हथियारोे और वैसेनार अरेंजमेंट छोटे हथियारों पर नियंत्रण संबंधी व्यवस्था है। इन सबकी सदस्यता मिल जाने के बाद भारत दुनिया में हर किस्म के हथियार और उसकी तकनीकों की बिक्री, हस्तांतरण, सहयोग के तौर पर देने आदि के नीति निर्धारण में भूमिका अदा कर पाएगा। एनएसजी का फैसला भी तुरत होने वाला है। भारत का दावा एमटीसीआर की तरह ही इसलिए मजबूत है कि भारत ने कभी हथियारों के प्रसार में भूमिका नहीं निभाई और इसका रिकॉर्ड दुनिया के सामने है। किंतु हम यहां इनमें विस्तार से नहीं जाएंगे और एमटीसीआर पर ही केन्द्रित रहेंगे।

 हम यह देखें कि एमटीसीआर में शामिल होने का भारत के लिए क्या महत्व है। मूल महत्व तो यही है कि हमारे लिए मिसाइल रंगभेद के दौर का अंत हो गया। हम दुनिया के उन विशिष्ट 35 देशों मंेे शामिल हो गए। इसके बाद 300 कि. मी. और 500 ग्राम की सीमा का घ्यान रखते हुए भारत दूसरे देशों को मिसाइल तकनीक दे सकेगा। भारत रुस के साथ संयुक्त उद्यम में ब्रह्मोस सुपरसोनिक मिसाइल का निर्माण कर रहा है। अब यह उन दूसरे देशों को बेच सकता है जिनका रिकॉर्ड अच्छा हो, जिनके द्वारा इसके दुरुपयोग करने की क्षमता नहीं है। इस प्रकार भारत एक अस्त्र निर्यातक देश हो सकता है। भारत को भी बेहतरीन तकनीक प्राप्त करने का द्वार खुल गया है। अब भारत को मिसाइल संबंधी उच्च तकनीकांे की प्राप्ति के रास्ते कोई बाधा नहंी रही। अब भारत अमेरिका से प्रिडेटर ड्रोन्स खरीद सकेगा। प्रिडेटर ड्रोन्स मिसाइल तकनीक ने ही अफगानिस्तान में तालिबान के ठिकानों को तबाह किया था। जनरल एटॉमिक्स कंपनी द्वारा बनाए गए प्रीडेटर ड्रोन्स अनमैन्ड एरियल व्हीकल  है। इन्हें जनरल एटॉमिक्स एमक्यू-1 प्रीडेटर भी कहा जाता है। भारत लंबे समय से इसके पाने की कोशिश कर रहा था लेकिन एमटीसीआर में नहीं होने के कारण अमेरिका के लिए इसे बेचना संभव नहीं था। जैसा हम जानते हैं। यह एक परीक्षित अस्त्र है। सबसे पहले इसका उपयोग अमेरिका वायुसेना और सीआईए ने किया था।  नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) की फौजों ने बोस्निया, सर्बिया, इराक, यमन, लीबिया में भी इनका प्रयोग किया था। प्रीडेटर के अद्यतन प्रारुप में हेलफायर मिसाइल के साथ कई अन्य हथियार भी लोड होते हैं।  प्रीडेटर में कैमरा और सेंसर्स भी लगे होते हैं जो इलाके की पूरी मैंपिंग में खासे मददगार होते हैं।

पाकिस्तान और चीन भारत के एमटीसीआर में जाने से परेशान हैं तो यह अकारण नहीं है। पाकिस्तान को भय है कि भारत आतंकवादियों का ड्रोन से पीछा कर हमला कर सकता है। आतंकवादियों से संघर्ष में यह ज्यादा कामयाब होगा। अपने क्षेत्र में जम्मू कश्मीर में ही नहीं, समय आने पर आतंकवादियों के लिए सीमा पार भी इसका इस्तेमाल हो सकता है। पाकिस्तान की मीडिया में इस बात की बड़ी चर्चा हो रही है कि भारत एमटीसीआर में जाने के बाद क्या क्या कर सकता है और पाकिस्तान उससे मुकाबले में कहां ठहरता है। तो यह है एमटीसीआर में हमारे जाने का महत्व और प्रिडेटर ड्रोन आने की संभावना मात्र से पैदा हो रहा भय। निश्चय मानिए इसका प्रभाव आतंकवादी समूहों पर भी पड़ेगा। उनके अंदर यह भय कायम होगा कि जिस तरह अमेरिका ने अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान की स्वात घाटी आदि में इसका उपयोग करके हजारों आतंकवादियों को मार डाला है वैसा ही भारत भी कर सकता है। अगर हम प्रिडेटर ड्रोन से इतना भय पैदा कर सके तो यही बड़ी उपलब्धि होती है।

ध्यान रखिए एमटीसीआर ने पूर्व में हमारे विकास को काफी बाधित करने की कोशिश की है। हमारे लिए केवल अपने मिसाइल कार्यक्रम ही नहीं अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए भी दुनिया से तकनीक और सामग्री हासिल करना कठिन बना दिया गया। हालांकि इसने विश्व को मिसाइल प्रसार से काफी हद तक बचाया भी है। वास्तव में इस व्यवस्था ने अनेक देशों के मिसाइल कार्यक्रम को रोका है, नष्ट कराया है या फिर उसे धीमा करा दिया है। कई देशों के खरीदने के कार्यक्रम स्थगित हो गए। उदाहरण के लिए अर्जेंटिना, मिस्र, और इराक को बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम रोकना पड़ा। ब्राजिल, दक्षिण अफ्रिका, दक्षिण कोरिया और ताइवान को मिसाइल और अंतरिक्ष यान प्रक्षेपण कार्यक्रम को ठंढे बस्ते में डालना पड़ा। कुछ पूर्वी यूरोपीय देशांें जैसे पोलैण्ड एवं चेक गणराज्य को एमटीसीआर में प्रवेश की लालच में अपने बैलिस्टिक मिसाइलों को नष्ट तक करना पड़ा। ऐसे कुछ और वाकये हैं जब एमटीसीआर के भय ने देशों को मिसाइल कार्यक्रम से दूर कर दिया।

 भारत पर भी कम दबाव नहीं था और हमारी बांहे मरोड़ने की कम कोशिशें नहीं हुईं, लेकिन भारत ने अपने पड़ोस के नाभिकीय अस़्त्र तथा प्रक्षेपास्त्र विकास के मद्दे नजर स्वतः विकास और निर्माण की दिशा में काम करना आरंभ किया और प्रगति भी की। भारत ने इतना किया कि इसके प्रसार से अपने को दूर रखा तथा कभी अंधराष्ट्रवाद का प्रदर्शन नहीं किया, किसी को धमकी नहीं दी, अपनी ताकत की धौंस नहीं दिखाई। इसके विपरीत ईरान पर सीरिया को मिसाइल हस्तांतरण करने का आरोप है। पाकिस्तान को भी इसी श्रेणी का देश माना जाता है। भारत के इसी व्यवहार ने एमटीसीआर में प्रवेश का रास्ता बना दिया है। ध्यान रखिए चीन को इसकी सदस्यता नहीं मिली है। हालांकि उसने इसके नियमों के पालन की स्वतः घोषणा की हुई है। हम न भूलंे कि सदस्यता के साथ कुछ दायित्व भी आते हैं। वह दायित्व है दुनिया में मिसाइलों के गलत हाथों में पड़ने से रोकने का। आतंकवाद के खतरनाक विस्तार तथा दुनिया के अनेक क्षेत्रों में बढ़ते तनाव और अशांति के कारण अनेक देशों के अंदर मिसाइल पाने का विचार घर कर रहा है। संभव है उत्तर कोरिया की उदण्डता ने उन्हें यह अहसास कराया हो कि अगर वह कर सकता है तो हम क्यों नहीं। इस विचार को रोकना होगा। भारत को इसमें अन्य देशों के साथ भूमिका निभानी होगी। साथ ही कुछ देशों को प्रक्षेपास्त्र और अंतरिक्ष यान विकसित करने की क्षमता को मान्यता भी देनी होगी। तो भारत को दोनों स्तरों पर भूमिका निभानी है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 3 जून 2016

...तो अखलाक के घर में गोमांस ही था

 

अवधेश कुमार

जरा पिछले वर्ष अक्टूबर और वर्तमान समय के माहौल की तुलना कीजिए। पिछले वर्ष अक्टूबर के आरंभ में दादरी का बिसाहड़ा गांव नेताओं के जमावड़े का केन्द्र था। वहां जाने की होड़ ऐसी थी मानो जो वहां न गया उसकी सेक्युलर प्रतिबद्धता संदेहों के घेरे में आ जाएगी। जो नहीं जा पाए उनने सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर अपनी संवेदना मृतक अखलाक के परिवार के प्रति प्रकट की। पूरे देश की सुर्खियां और चारों और बयानवाजी। इस समय देखिए। मथुरा की फोरेंसिक लेबोरेटरी ने यह साफ कर दिया कि अखलाक की फ्रीज में रखा हुआ मांस या तो गाय का था या फिर बछड़े का। यह बड़ी खबर इसलिए है, क्योंकि उस सतय आरोप यही लगा था कि उसके घर मंे गोमांस नहीं था लेकिन गोमांस का शोर मचाकर सांप्रदायिक तत्वों ने इसे हिंसक रुप दिया एवं मोहम्मद अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। हिंसा का कोई समर्थन नहीं कर सकता। अखलाक की हत्या निंदनीय थी एवं जिनने हत्या की उनको उसके अनुरुप सजा मिलनी चाहिए। कानून के राज का तकाजा है कि हमें या आपको किसी से शिकायत है तो हम पुलिस तक जाएं और पुलिस कार्रवाई नहीं करती तो फिर उसके आगे भी रास्ता है। किसी सूरत में कानून हाथ में लेने या किसी की नृशंस हत्या नहीं होनी चाहिए। लेकिन अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है जिन लोगों ने यह आरोप लगाया कि अखलाक का परिवार गोमांस खाता है वे गलत नहीं थे तो फिर पूरे मामले को नए सिरे और नए नजरिए से देखने की आवश्यकता है।

निस्संदेह, इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार कठघरे मंे खड़ा हो जाती है। आखिर सरकार ने किस आधार पर उस परिवार को दो तीन दिनांे में ही पाक साफ होने का प्रमाण पत्र दे दिया? मांस की फोरेंसिक जांच एक दिन का काम है। यह संभव नहीं कि सरकार को इसका पता न हो। बावजूद इसके यदि उसने सच छिपाया तथा अखलाक के परिवार की लखनउ बुलाकर आवभगत की उसे मोटी वित्तीय सहायता दी गई तो क्यों? लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फोरेंसिक जांच पर प्रश्न उठा रहे हैं। मुख्यमंत्री के ऐसा बोलने का मतलब है जांच कर रही पुलिस प्रशासन का प्रभावित होना। यह आपत्तिजनक है। यह प्रश्न उठाना कि मांस कहां से मिला अब बिल्कुल अप्रासंगिक है। प्राथमिकी के अनुसार लोगांे ने अगर घरे में घुसकर अखलाक को मारा और वहां से मांस निकला तो फिर इस पर प्रश्न उठाना केवल अपनी गलतियों को ढंकने का खतरनाक प्रयास है। सच सामने आ गया है और इसके अनुसार ही कार्रवाई होनी चाहिए। दादरी के पशु चिकित्सालय में मांस भेजा गया था जिसने मथुरा फोरेंसिक लैब में भेजने की अनुशंसा की थी और यही रिपोर्ट अंतिम है चाहे उस पर मुख्यमंत्री प्रश्न उठाएं या कोई और।

 हत्या करने वालों को सजा देना एक बात है तथा गोवध एवं गोमांस के सेवन जैसे अपराध को छिपाना दूसरी बात। उत्तर प्रदेश में गोवध प्रतिबंधित है। अगर गोवध हुआ नही ंतो अखलाक के घर मंे गोमांस आया कैसे? जाहिर है गोवध या गोवंश का वध हुआ था। जरा घटनाक्रम की ओर लौटिए तो इसे समझना ज्यादा आसान हो जाएगा। बकरीद के एक दिन पहले दादरी के बिसहड़ा गांव में एक बछड़ा चोरी हो गया था। 28 सितंबर की रात अखलाक को एक प्लास्टिक बैग लिए घर से निकलते देखा गया। अखलाक ने इसे कचरे में डाल दिया। वहां मौजूद एक बच्चे ने यह बात लोगों को बता दी। उसके बाद गांव में यह बात फैलने लगी कि अखलाक ने उस बछड़े को जिबह कर उसका मांस खाया है और रखा है। उसी रात यानी 28 सितंबर को कुछ लोग मंदिर में गए एवं लाउडस्पीकर से यह ऐलान हुआ कि वहां गोवंश काटा गया है और सभी वहां एकत्रित हों। उसके बाद आक्रोशित भीड़ अखलाक के घर पहुंची और उसकी इतनी पिटाई हुई कि वह मर गया।

इस घटनाक्रम को हम चाहे जैसे लें। अब तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है। लेकिन उस समय गोमांस के आरोप को गलत साबित करने की कोशिश भाजपा को छोड़कर पूरी राजनीति ने की। आज भी अखिलेश यादव की ओर से यही कोशिश की गई है और दूसरी आवाजें भी उठेंगी। आज 18 लोग उस मामले में जेल में हैं। उनके खिलाफ मुकदमा चल रहा है। चूंकि अखलाक की हत्या हो गई इसलिए पूरी कार्रवाई ही एकपक्षीय हुई। किसी ने दूसरा पक्ष समझने की कोशिश ही नहीं की। राजनीतिक दलों और मीडिया का दबाव इतना था कि पुलिस के सामने कठोर कार्रवाई करते दिखने का ही एकमात्र विकल्प था। वैसे भी जब मामला अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का बना दिया जाए और अल्पसंख्यक की हत्या हो जाए तो फिर पलड़ा बहुसंख्यकों के खिलाफ ही भारी होता है। सवाल है कि आज उस मामले को कैसे लिया जाए? पुलिस की कार्रवाई की दिशा अब क्या हो? अब प्रदेश सरकार की भूमिका क्या हो? राजनीतिक दलों को क्या करना चाहिए?

सबसे पहले तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इसमें न्याय करते दिखें। इस बात की जांच होनी चाहिए कि वाकई जो बछड़ा गायब हुआ उसको गायब करने में अखलाक का हाथ था या उसकी जानकारी में हुआ? क्या उसका वध हुआ या दूसरे गोवंश का वध हुआ? उसका वध करने में कौन-कौन शामिल थे? पुलिस इस आधार पर अगर अब कार्रवाई नहीं करेगी तो यह अन्याय होगा और संदेश यही जाएगा कि जानबूझकर एक पक्ष को बचाने और दूसरे को फंसाने की कोशिश पुलिस करती है। प्रदेश सरकार को वाकई अब न्याय करते दिखना चाहिए जो नहीं दिख रहा है। अगर गोवध उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित है और यह हुआ है तो फिर अपराधियों को पकड़कर सजा दिलाना प्रदेश सरकार की जिम्मेवारी है। अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उस पर लगता यह आरोप सही माना जाएगा कि सपा सरकार मुसलमान वोटों के लिए जानबूझकर उनके अपराध को नजरअंदाज करती है। कुछ लोगों का मानना है कि लोग पुलिस के पास जाने की बजाय गांव में ही मामला निपटाने में इसलिए लग गए थे क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं था कि पुलिस इस मामले में निष्पक्ष कार्रवाई करेगी। इसके पूर्व भी पुलिस को अखलाक के पशु तस्करों से संबंध होने तथा गौहत्या में सलिप्त होने की बात पुलिस को बताई गई थी पर कार्रवाई कुछ नहीं हुई।

ऐसे माहौल में लोग कानून अपने हाथ में लेने के लिए उतावले हो जाते हैं। हालांकि किसी भी परिस्थिति में कानून हाथ में नहीं लिया जाना चाहिए। किंतु गोहत्या का मामला ऐसा है जिसकी खबर पर आम हिन्दू को गुस्सा आएगा। यह स्वाभाविक है। इसे हम आप किसी सूरत मंें नहीं रोक सकते। हां, कई बार कुछ विवेकशील लोग गुस्से को हिंसा में नहीं बदलने में कामयाब हो जाते हैं और कई बार नहीं होते हैं। निश्चय ही बिसहाड़ा में भी कुछ ने जरुर लोगों को हिंसा से रोकने तथा मांस सहित अखलाक को पुलिस के हवाले करने की कोशिश की होगी, पर व्यापक आक्रोश में उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बन गई। यह स्थिति बिसहाड़ा के साथ समाप्त हो जाएगी ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि फोरेंसिक रिपोर्ट के बाद पूरे प्रदेश में ही नहीं देश भर में उन सारे राजनीतिक दलों एवं उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ गुस्सा पैदा हुआ है। अखिलेश के बयान से यह गुस्सा और बढ़ा है। यह जानते हुए भी कि हत्या अपराध है जो जेल में बंद हैं उनके प्रति अचानक सहानुभूति की भावना पैदा हुई है। आप आम प्रतिक्रिया देखकर दंग रह जाएंगे। कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि अगर गोहत्या करने वाले को मारा गया तो इसमें गलत क्या है! जाहिर है, यह सोच अनुचित है और इस पर हर हाल में रोक लगनी चाहिए किंतु राजनीतिक दल अगर इसी तरह बिना आगा-पीछा सोचे केवल मुसलमान वोटांे की लालच में छाती पीटते पहुंचने लगेंगे तो इस प्रकार की सोच को बढ़ावा मिलेगा।

वास्तव में यह सभी राजनीतिक दलों के लिए एक सबक बनना चाहिए। यानी ऐसी किसी घटना पर निष्कर्ष निकालने तथा प्रतिक्रिया देने में संयम बरती जाए। एक पार्टी या संगठन परिवार से राजनीतिक विरोध के कारण किसी पक्ष को नायक एवं किसी को खलनायक बनाने का रवैया खतरनाक है और इसका अंत होना चाहिए। राजनीतिक दलों के नेताओं के बयान निकालकर पूछा जाए कि अब उनका क्या जवाब है तो वे क्या बोलेंगे? याद करिए जब वह घटना हुई पुलिस के भय से गांव के पुरुष तो कुछ समय के लिए भाग गए थे लेकिन महिलाएं उस समय भी चिल्ला-चिल्लाकर कहतीं थीं कि हम मुसलमानों के साथ वर्षों से रहते आए हैं....उनकी मस्जिदेें हमने बनवाई है.. हमारे बीच कोई मतभेद नहीं ....लेकिन तब उनकी सुनने वाला कौन था। उन महिलाओं ने कई बार नेताओं के गांवों जाने के रास्ते को ही घेर लिया था। वो अपनी बात सुनाना चाहतीं थीं। केजरीवाल उनके पास भी गए थे और महिलाओं ने उनसे कहा था कि यह एक व्यक्ति के खिलाफ मामला है पूरे हिन्दू मुसलमान का मामला नहीं। सच यही था। अगर हिन्दू मुसलमान का मामला होता तो वहां दंगा हो गया होता। ऐसा हुआ नही ंतो इसका कारण वर्षों का उनका आपसी संबंध ही था। अखलाक मुसलमान अवश्य था और उसकी हत्या हिन्दुओं की पिटाई से हुई यह सच है, किंतु यह हिन्दू बनाम मुसलमान का मामला नहीं था। केवल एक व्यक्ति के घर पर हमला हुआ, उसे निशाना बनाया गया। अगर गोहत्या नहीं हुई होती तो ऐसा नहीं होता। सवाल तेा यही है कि क्या वाकई राजनीतिक पार्टियां सबक लेंगी? अखिलेश यादव के बयान से तो ऐसा लगता नहीं।

अवधेश कुमार, ई.ः30 गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

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