शनिवार, 26 मार्च 2016

भगत सिंह का आजादी के बाद सबसे बड़ा अपमान

 

अवधेश कुमार

क्या संयोग है! भगत सिंह की शहीदी दिवस के ठीक दो दिनों पूर्व हमारे देश की सबसे पुरानी पार्टी की उत्तराधिकारी कांग्रेस के एक बड़े नेता ने उन्हें ऐसी श्रद्धांजलि दी जिससे उनकी आत्मा तृप्त हो गई होगी। शशि थरुर जैसा गहराई से पढ़ा-लिखा व्यक्ति यदि कन्हैया कुमार जैसे एक छात्र नेता को आज का भगत सिंह कहते हैं तो इससे हमारे चिंतन की सामूहिक विकृति का पता चलता है। हालांकि कांग्रेस ने शशि थरुर के बयान से अपने को अलग कर लिया है, लेकिन यह एक ऐसे देशभक्त शहीद का अपमान है जिसकी स्मृतियां आज भी भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के करोड़ों लोगों को रोमांचित करतीं हैं। जिस व्यक्ति ने आजादी के संघर्ष में अपने विचारों और कर्तृत्व से न जाने कितनों को आत्मबलिदान की प्रेरणा दी, जिसकी लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेजों ने समय के पूर्व ही फांसी पर चढ़ा दिया और जिसके लिए पूरा देश रोता-बिलखता रहा...जिसने उतनी कम उम्र में इन्कलाब और क्रांति की अपनी व्यावहारिक परिभाषा दी, जिसने आजादी के संघर्ष के साथ आजाद भारत के लक्ष्य पर विस्तृत ंिचंतन देश को दिया.... उसकी तुलना कांग्रेस पार्टी का एक बड़ा नेता ऐसे नवजवान से करता है जिसके जीवन की कुल उपलब्धि इतनी है कि सारे वामपंथी संगठनों के समर्थन से जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष बन गया। जो चर्चा में इसलिए आया कि उसने जिस कार्यक्रम के रद्द होने का विरोध किया उसमें देशद्रोही नारे लगे...नारा लगाने में यह शामिल था या नहीं इसमें संदेह है, पर उसने नारा को रोका हो इसके प्रमाण नहीं है। जिसने जेल से छूटने के बाद अभी तक अफजल गुरु को आंतकवादी और दोषी मानने का एक बार भी बयान नहीं दिया उसे यदि शशि थरुर आज का भगत सिंह कहते हैं तो इसके विरुद्व देश मे उबाल पैदा होना स्वाभाविक है। थरुर अकले नहीं, एक सोच के प्रतिनिधि हैं जिनके मुंह से ऐसी शर्मनाक तुलना हुई है।

शशि थरुर जवाहर लाल नेहरु की सोच का वाहक होने का दावा करते हैं। क्या पंडित नेहरु कन्हैया जैसे छात्र को कभी आदर्श बनाकर पेश कर सकते थे?

जवाहरलाल नेहरू तो भगत सिंह के तरीकों और सोच के समर्थक नहीं थे, फिर भी उन्होंनेे अपनी आत्मकथा में लिखा है कि साण्डर्स की हत्या का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी। क्या कन्हैया ने ऐसा कुछ कर दिया है जिससे उसके बारे में ऐसी बातें लिखीं जा सकें? इसके उलट उसने तो भगत सिंह के विपरीत काम किया। भगत सिंह का समाजवाद पूरी तरह मार्क्सवाद नहीं था जिसकी चर्चा शशि कर रहे थे। भगत सिंह तो शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां- मेरा रंग दे बसंती चोला, इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला, मेरा रंग दे बसंती चोला, यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला, नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला, मेरा रंग दे बसन्ती चोला.....गाते थे। आज के वामपंथियों के लिए चाहे वे किसी कम्युनिस्ट पार्टियों में हों या कांग्रेस में या कहीं यह भगवाकरण का प्रतीक हो जाएगा, सांप्रदायिकता का प्रतीक हो जाएगा, क्योंकि शिवाजी और महाराणाप्रताप तो इनके लिए देशभक्ति के परिचायक है ही नहीं।

जेल की कालकोठरी में उनकी लिखी पुस्तकें- आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर), आइडियल ऑफ़ सोशलिज़्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार... को पढ़िए तो कन्हैया जैसे चरित्र से आपको घृणा जाएगी। डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने तो लिख दिया कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि गाँधीजी का। 1927 में लाहौर में अपनी गिरफ्तारी की चर्चा करते हुए भगत सिंह मैंं नास्तिक क्यों हूं में लिखते हैं-एक दिन सुबह सी.आई.डी. के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन मेरे पास आए। लंबी-चौड़ी सहानुभूतिपूर्ण बातों के बाद उन्होंने मुझे, अपनी समझ में यह अत्यंत दुखद समाचार दिया कि यदि मैंने उनके द्वारा मांगा गया वक्तव्य नहीं दिया तो वे मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षड्यंत्र तथा दशहरा बम उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिए मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे। आगे उन्होंने मुझे यह भी बताया कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकाने के लिए उचित प्रमाण मौजूद हैं। उन दिनों मुझे यह विश्वास था, यद्यपि मैं बिल्कुल निर्दाेष था, कि पुलिस यदि चाहे तो ऐसा कर सकती है। .... एक क्षण को भी अन्य बातों की कीमत पर अपनी गर्दन बचाने की मेरी इच्छा नहीं हुई। ... पहले ही अच्छी तरह पता है कि मुकदमें का, क्या फैसला होगा। एक सप्ताह में ही फैसला सुना दिया जाएगा। मैं अपना जीवन एक ध्येय के लिए कुर्बान करने जा रहा हूँ, इस विचार के अतिरिक्त और क्या सांत्वना हो सकती है?

जरा सोचिए, देश के लिए सर्वस्व अर्पण करने के इस भाव के कारण सभी प्रकार के मोहपाश से मुक्त व्यक्तित्व, जिसमें मृत्यु के भय से मुक्ति भी शामिल है, से आज हम किसकी तुलना कर सकते हैं? वो एक अनोखी दीवानगी थी, जिसमें देश की आजादी और आजादी के बाद की व्यवस्था के अलावा कुछ समा ही नहीं सकता था। वो ऐसी आसक्ति थी, जिसमें रिश्ते, नाते ही नहीं अपने शरीर तक की कोई चिंता नहीं। वो लिखते हैं कि मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वही पूर्ण विराम होगा - वही अंतिम क्षण होगा। .... एक छोटी सी जूझती हुई जिंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस हो। यही सब कुछ है। बिना किसी स्वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने आसक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। भगत सिंह ने केवल ऐसा लिखा नहीं। फांसी से दो घंटे पहले भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता मिलने आए थे। उन्होंने पूछा कि तुम कैसे हो? भगत सिंह ने कहा कि हमेशा की तरह प्रसन्न हूं। उन्होंने जब पूछा कि तुम्हारी कोई इच्छा है तो भगत बोले कि हां मैं फिर इस देश में पैदा होना चाहता हूं ताकि इसकी सेवा कर सकूं। तो जो कुछ उन्होंने लिखा वाकई उनका व्यवहार एकदम मृत्यु के सामने वैसा ही था।

...’ शशि थरुर को क्या भगत सिंह के ये पंक्तियां याद नहीं हैं? शशि थरुर और उनके जैसे लोगों को जो जेएनयू में प्रतिदिन राष्ट्रवाद की ऐसी परिभाषा गढ़ रहे थे जिसमें उन सारे शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों तथा स्वतंत्रता के बाद भारत के पुनर्गठन और पुनर्निर्माण में अपना जीवन लगाने वालों का अपमान हो रहा था भगत सिंह की इन्कलाब की सोच भी याद दिलाना आवश्यक है। माईन रिव्यू के संपादक रामानंद चटर्जी को लिखे पत्र में भगत सिंह कहते हैं कि इस नारा का मतलब यह नहीं कि सशस्त्र संघर्ष सदा चलता रहेगा। इन्कलाब जिन्दाबाद से हमारा मतलब है कभी पराजय स्वीकार न करने वाली वह भावना जिसने जतिन दास जैसे शहीद पैदा किए। हमारी इच्छा है कि हम यह नारा बुलंद करते समय अपने आदर्शों की भावना को जिंदा रखें। इन्कलाब सिर्फ बम और पिस्तौल के साथ ही नहीं जुड़ा होगा। बम और पिस्तौल तो कभी-कभी इन्कलाब के भिन्न-भिन्न रुपों की पुष्टि के लिए साधन मात्र हैं। हम यह स्वीकार करते हैं कि केवल बगावत को इन्कलाब कहना ठीक नहीं है। इसी में भगत सिंह ने लिखा कि हम देश में बेहतर बदलाव के लिए इस शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।

 इन सारे तथ्यों के आलोक में यह कहना बिल्कुल सही होगा कि आजाद भारत में भगत सिंह का, उनके विचारों का, सपनों का, बलिदान का.... सबसे बड़ा कोई अपमान हुआ है तो वह जेएनयू मंे शशि थरुर जैसों के द्वारा। शशि थरुर तो बोल गए, लेकिन वहां जाने वाले दर्जनों महानाम बिना बोले ही भगत सिंह सहित अन्य शहीदों का अपने शर्मनाक वक्तव्यों से लांछित करते रहे। ऐसे लोगों के लिए क्या शब्द प्रयोग किया जाए? इनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए यह देश के लोग तय करें। कारण, शहीदों और मनीषियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष अपमान सहन करना भी देशविरोधी व्यवहार ही होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूर.ः01122483408, 09811027208

शनिवार, 19 मार्च 2016

मुजीब खान बने हिन्दू मुस्लिम एकता सेवा समिति के मटिया महल विधान सभा अध्यक्ष

संवाददाता

नई दिल्ली। दिल्ली की मटिया महल विधान सभा के इलाके में हिन्दू मुस्लिम एकता सेवा समिति ने एक नुक्कड़ सभा का आयोजन किया। इस सभा में मुख्य अतिथि के रूप में हिन्दू मुस्लिम एकता सेवा समिति के अध्यक्ष मेहरुद्दीन उस्मानी उपस्थित रहे। इस सभा में इलाके के सीनियर लोगो ने शिरकत की। सभा को संबोधित करते हुये मेहरुद्दीन उस्मानी ने कहा कि इस समय देश बड़े नाजुक दौर से गुजर रहा है कुछ नेता उल्टे सीधे बयान देकर हिन्दू-मुस्लिम के बीच में नफरत की दीवार खड़ी करना चाहते हैं, जिससे देश दो हिस्से में बंट जाए। 

उन्होंने सरकार से मांग करते हुए कहा कि ऐसे नेताओ के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही की जाए। हमारी संस्था हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए पूरे देश में मुहिम
चलायेगी, जिससे देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता को बल मिले। हिन्दू-मुस्लिम में भाईचारा होगा तो देश अपने आप तरक्की करेगा। इस मौके पर मेहरुद्दीन उस्मानी ने युवा नेता मुजीब खान को मटिया महल विधान सभा का अध्यक्ष मनोनीत किया। समिति का अध्यक्ष मनोनीत होने के बाद मुजीब खान ने समिति को यकीन दिलाते हुये कहा कि मै ईमानदारी से हिन्दू-मुस्लिम एकता सेवा समिति और इलाके की सेवा करूँगा और इलाके के लोगों के लिए मैं हर मुश्किल को हल करने के लिए काम करता रहूंगा। समिति के जिला अध्यक्ष मो. जावेद ने कहा कि हमारी समिति गरीबों, मजलूमों, दबे-कुचलों के लिये काम करती है और समाज में फैल रही बुराइयों को रोकने के लिए भी काम करती है। इस मौके पर सोनू ने भी विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर प्रमुख रूप से एजाज, अहमद, सकलैन, आरिफ, जीशान, असलम आदि ने शिरकत की।





शुक्रवार, 18 मार्च 2016

संघ को लेकर ऐसे विवाद का औचित्य क्या है

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस समय तीन कारणों से चर्चा में है। राजस्थान के नागौर मंें आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में संघ ने लंबे समय बाद अपना गणवेश बदला है। संघ का गणवेश बदलना भी देश भर की सुर्खिंया बना। संघ का नाम ही ऐसा है कि वो जो कुछ करेगा या उसके बारे में जो कुछ बोला जाएगा वह सब देश की मीडिया की सुर्खियां पा जाता है। वहीं से दूसरा वक्तव्य आरक्षण के संदर्भ में आया। संघ के सर कार्यवाह भैय्या जी जोशी ने कहा कि अमीर लोगों को उन लोगों के लिए आरक्षण छोड़ देना चाहिए जिनको इसकी वाकई जरुरत है। संघ और आरक्षण बिहार चुनाव के समय से बहस और विवाद के विषय बनाए गए हैं। तब सर संघचालक मोहन भागवत ने अपने साक्षात्कार में आरक्षण की समीक्षा की बात की थी। उनके अनुसार ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे आरक्षण वाकई जरुरतमंदों को ही मिले। लेकिन इन सबसे अलग कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा संघ की विश्व के खंूखार आतंकवादी संगठन आईएसआईएस से तुलना करना हंगामे और तीखे विवाद का सबसे बड़ा कारण बना हुआ है। इसे लेकर संसद तक में ताप महसूस की जा रही है और संघ परिवार इसके खिलाफ देश भर में विरोध प्रकट कर रहा है। ये तीनों अलग-अलग खबरें हैं और इनका एक दूसरे से कोई संबंध भी नहीं लेकिन ये संघ से जु़ड़े हैं इसलिए इन पर अपने-अपने दृष्टिकोणों से टिप्पणियां की जा रहीं हैं।

गणवेश बदलना संघ का आंतरिक मामला है। वह अपने स्वयंसेवकों को किस तरह के वेश में देखना चाहता है यह उसका अपना अधिकार है। पहले स्वयंसेवक गणवेश के तौर पर सफेद शर्ट, खाकी हाफ पैंट, काला जूता, खाकी मोजा तथा सिर पर काली टोपी पहनते थे। अब अंतर इतना आया है कि स्वयंसेवक खाकी हाफ पैंट की जगह भूरे रंग का फुल पैंट पहनेंगे। संघ के अंदर भी इस पर दो मत हैं। कुछ का मानना है कि हाफ पैंट ही ठीक था, लेकिन शीर्ष नेतृत्व को लगा कि युवाओं को संगठन की ओर आकर्षित करने के लिए वेश में समय के अनुकूल बदलाव आवश्यक है। पांच वर्ष की चर्चा के बाद यह निर्णय हुआ है। देखना होगा कि वाकई इस बदलाव का संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने में कोई योगदान होता है या नहीं, पर किया उसी उद्देश्य से गया है। इस पर विरोधियों का प्रश्न है कि क्या संघ की ओर युवाओं का आकर्षण कम हुआ जिसके कारण उन्हांेने यह बदलाव किया है? कुछ ने यह कटाक्ष भी किया है कि केवल गणवेश नहीं विचार बदलें। यह विरोधियों की आवाज है जिससे संघ प्रभावित नहीं होता। 1925 में अपनी स्थापना से लेकर आज तक संघ की विचार यात्रा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया हैं। हां, आजादी के पहले स्वयंसेवक अपने शपथ मंें भारत को आजाद कराने की बात करते थे, जबकि आजादी के बाद वे इसे परम वैभव तक पहुंचाने की शपथ लेेते हैं। इसके अलावा हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र आदि पर उसके विचार यथावत हैं और हम आप उससे सहमत या असहमत हों....इसी विचार के आधार पर वह संगठन 91 वर्षों में लगातार विस्तारित और शक्तिसंपन्न होता गया है। इस समय कहा जा रहा है कि संघ और उसके विचार परिवार के संगठनों को मिलाकर वह दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है जिसका भारत के बाहर भी 150 से ज्यादा देशों तक फैलाव है।

लेकिन आरक्षण के संदर्भ में संघ की मूल विचारधारा में कोई बात नहीं कही गई है। समय-समय पर संघ के अधिकारी जो बात करते हैं उन्हें आरक्षण के संबंध में उसका विचार मान लिया जाता है। किंतु अगर संघ कह रहा है कि अमीर लोग गरीब लोगों के लिए आरक्षण का परित्याग करें तो इसमें गलत क्या है? क्या इसका केवल इसलिए विरोध होना चाहिए कि इसे संघ ने कहा है? या हम संघ के विरोधी हैं इसलिए उसकी बात को गलत मोड़ दे दें? कह दें कि संघ तो आरक्षण को खत्म करना चाहता है, इसलिए अलग-अलग तरीके से उसे अप्रासंगिक साबित करने की कोशिश कर रहा है। जब मोहन भागवत ने समीक्षा की बात की थी तब भी उस बयान में आरक्षण खत्म करने का भाव न था और न आज भैय्या जी जोशी के बयान में ही। चुनाव और राजनीति के कारण उस समय इसको गलत मोड़ दिया गया और चंूकि इस समय फिर पांच राज्यों के चुनाव हैं, इसलिए इसकी गलत दिशा में व्याख्यायित करने की पूरी संभावना है। आखिर आरक्षण की इस दृष्टि से समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए कि इसका लाभ वाकई उन लोगों तक पहुंचता है या नहीं जिनको इसकी जरुरत है? दुखद सच्चाई तो यह है कि एक परिवार लगातार आरक्षण का लाभ लेते-लेते व्यवहार में संपन्न और अभिजात्य की श्रेणी में आ जाता है और ज्यादा गरीब वर्ग इससे वंचित रह जाता है। इस दिशा में बदलाव समय की मांग है और यह बात कोई करे तो उसे आरक्षण विरोधी करार दिया जाए ये उचित नहीं। शायद पिछले बयान के कटु अनुभव को ध्यान में रखते हुए ही संघ ने अब अमीरों से आग्रह किया है कि अपने गरीब बंधुओं के लिए उनको आरक्षण छोड़ना चाहिए। हालांकि बात वही है कि किसी तरह आरक्षण उन तक पहुंचे जो इसके पात्र हैं या जिनको इसकी आवश्यकता है तथा आरक्षण का लाभ उठाकर जिनकी सामाजिक-आर्थिक अवस्था समुन्नत हो गई है उनको इससे बाहर किया जाए। संघ की सलाह कोई तत्काल मानेगा इसकी संभावना कम है, लेकिन इससे बहस तो छिड़ेगी।  वैसे संघ की आलोचना करने वाले भूल रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय ने भी क्रीमी लेयर यानी मलाईदार परत या संपन्न हो गए वर्ग को इससे बाहर करने का फैसला दिया हुआ है। 

अब आइए आजाद के बयान पर। हालांकि आजाद ने सफाई दी है कि उन्होंने संघ की तुलना आईएस से नहीं की है, लेकिन जमीयत ए उलेमा हिन्द के कार्यक्रम में भाषण देते हुए उन्होंने कह दिया कि आरएसएस की उसी तरह निंदा करते हैं जिस तरह आईएसआईएस की। इस भाषण का सीधा अर्थ यही निकलता है कि आजाद आईएसआईएस और संघ को एक ही तराजू का संगठन मान रहे हैं। संघ के विरोधियों की संख्या इतनी ज्यादा है और उनका बौद्धिक व मीडिया क्षेत्र में इतना प्रभाव है कि आजाद को कुछ समर्थन भी मिल रहा है। किंतु जरा पक्ष-विपक्ष से उपर उठकर विचार करिए। आईएसआईएस दुनिया का क्रूरतम आतंकवादी संगठन है जिसके नेता ने स्वयं को इस्लाम का खलीफा घोषित कर दुनिया को इस्लामिक साम्राज्य में बदलने की जुनूनी मानसिकता से अकल्पनीय हिंसा का अभियान चलाया हुआ है। सीरिया, इराक और तुर्की में संघर्ष के अलावा दुनिया भर में हमले कर रहा है। पूरी दुनिया में उसे लेकर दहशत है और उस पर कई देशों की सेनाएं हमला कर रहीं हैं। आप संघ के चाहे जितने भी विरोधी हों, लेकिन आईएसआईएस से उसकी तुलना कैसे कर सकते हैं? एक जेहादी आतंकवादी संगठन और खुले में काम करने वाले संगठन को समानता के धरातल पर कैसे रखा जा सकता है? जाहिर है, आजाद विरोध में सीमा का उल्लंघन कर गए हैं।

ऐसे बयानों के परिणाम भी भारत के लिए उल्टे आते हैं। भारत के विरोधी देश ऐसे बयानों को उद्वृत करके यह प्रचारित करते हैं कि देखिए वहां भी आइएस जैसा संगठन आरएसएस है। तीन वर्ष पहले तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जयपुर कांग्रेस की सभा में यह कह दिया था कि भाजपा के प्रशिक्षण शिविरों में बाजाब्ता हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है और आतंकवादी तैयार होते हैं। उस समय भी पूरा हंगामा हुआ। हालांकि वो नाम संघ का लेना चाहते थे, उनके मुंह से भाजपा निकल गया। बाद मंे उनको अपना बयान वापस लेना पड़ा। संघ का विरोध या आलोचना नई बात नहीं है। किंतु पिछले कुछ समय से गाहे-बगाहे आतंकवाद से उसका संबंध जोड़ने की कोशिश हुई है। केसरिया आतंकवाद या हिन्दू आतंकवाद शब्द का आविर्भाव उसी सोच से हुआ है। हालांकि सच यही है कि पूर्व सरकार भी संघ के संगठित आतंकवाद की संलिप्तता के सबूत न पा सकी और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर पूर्व संप्रग सरकार को तनिक भी सबूत मिल जाता तो वह संघ के खिलाफ अवश्य कठोर कार्रवाई करती। ऐसा नहीं हुआ तो उसके अर्थ स्पष्ट हैं। विचारधारा के आधार पर मतभेद समझ में आने वाली बात है लेकिन ऐसी विकृत सोच उचित नहीं कि उसके सही बयान को भी गलत साबित किया जाए और फिर सीमा से आगे बढ़कर उसे आतंकवादी संगठन के समकक्ष खड़ा कर दिया जाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

पांच राज्यों के चुनावों को यूं समझिए

 

अवधेश कुमार

पांच विधानसभा चुनावों का बिगुल बच चुका है। वैसे एक साथ मिलाकर देखें तो कुल 824 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहे हैं, लेकिन इनमें ऐसी राजनीतिक एकरुपता नहीं है जिनसे कि हम इसका कोई एक राजनीतिक अर्थ निकाल सकें। आप इन पांचों राज्यों को मिला दें तो पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल असम से 5 सीटें मिलीं थीं। यानी 824 में उसके पास केवल 5 सीटें हैं। इस आधार पर देखें तो उसके लिए ज्यादा कुछ दांव पर यहां नहीं है। किंतु लोकसभा चुनाव के आधार पर विचार करें तो असम से उसने 14 में से 7 सीटें तथा पश्चिम बंगाल से 2 सीटें जीतीं थीं। इस आधार पर यदि मूल्यांकन करें तो कम से कम इन दो राज्यों में अपने लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को बनाए रखना उसके लिए जरुरी है। इसमें यदि कमी आ गई तो दिल्ली और बिहार की पराजय को एक क्रम में मिलाते हुए माना जाएगा कि भाजपा का जादू वाकई चूक रहा है। लेकिन कांग्रेस के लिए यहां बहुत कुछ दांव पर है। असम और केरल में तो उसके मुख्यमंत्री ही हैं। केरल में हालांकि उसके नेतृत्व में सरकार गठबंधन की है। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में इन सारे राज्यों में कुल 170 सीटें जीतीं थीं। कम से कम उस पर अपने पुराने प्रदर्शन को दुहराने की चुनौती है। अगर वह नहीं दुहरा पाई तो निष्कर्ष यह आएगा कि बिहार में भले नीतीश एवं लालू के साथ गठबंधन मंे उसने 27 सीटें पा लीं लेकिन उसके उभार का दौर अभी आरंभ नहीं हुआ है।

वैसे एक साथ मिला लें तो इन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व दिखाई देगा। केरल में हालांकि वामदलों ने कुल 68 स्थान जीते थे, लेकिन माकपा भाकपा को छोड़कर 10 सीटें इनमें भी क्षेत्रीय पार्टियों के हाथों ही था। इसी तरह कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा में 72 में से 34 सीटें क्षेत्रीय पार्टियों के खाते में ही गईं थीं। अगर सारे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की सीटों को एक साथ मिला दें तो इनकी संख्या 493 होतीं हैं। इसके बाद कहने की आवश्यकता नहीं कि यह चुनाव क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व वाला था और राजनीतिक समीकरण इतना नहीं बदला है कि हम मान लें यह स्वरुप बदल जाएगा। इसलिए इन चुनावों के परिणाम से आगे की धारा का संकेत तभी मिलेगा जब कांग्रेस पहले से बेहतर या एकदम बुरा प्रदर्शन करे या फिर भाजपा को बेहतर सफलताएं मिल जाएं। क्या यह संभव है? ध्यान रखिए सत्तारुढ़ राजग में केवल एक सांसद वाली पुड्डुचेरी की ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस शामिल है।

शुरुआत असम से करें। 2011 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भले बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे 14 में से केवल 3 सीटें और 29.60 प्रतिशत मत मिल पाए। इसके समानांतर भाजपा को 7 सीटें और 36.50 प्रतिशत मत मिले। यानी लोकसभा चुनाव में पूरा परिदृश्य बदल गया था। चुनाव की घोषणा के पहले हमने देखा कि किस तरह कांग्रेस में विद्रोह हो गया और उसके नेता तथा विधायक भाजपा में आ रहे थे। भाजपा ने अपने आधार को मजबूत करने के लिए असम गण परिषद, बोडो पीपुल्स फ्रंट तथा दो अन्य जातीय समूह तिवा और सभा से गठबंधन किया है। कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक युनाइटेड फ्रंट से गठबंधन की कोशिश की लेकिन यह परवान नहीं चढ़ सका है। इसने पिछले विधानसभा चुनाव में 18 सीटें जीतीं थीं। लोकसभा चुनाव में 3 सीटें जीतकर इसने अपने को कांग्रेस के बराबर खड़ा कर दिया। हालांंिक इसको वोट केवल 14.8 प्रतिशत ही आए। यह अलग चुनाव लड़ेगी तो इसका नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ेगा। राज्य के अल्पसंख्यक मतों का बंटवारा होगा। वैसे भी 15 वर्ष के शासन के बाद कांग्रेस के संदर्भ में सत्ता विरोधी रुझान कुछ तो होगा ही। इसलिए यहां कांग्रेस, एआइयूडीएफ एवं भाजपा गठबंधन के बीच कड़ी टक्कर होगी। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सर्वानंद सोनोवाल एवं वर्तमान मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के व्यक्तित्व के बीच भी टक्कर होगी।

पश्चिम बंगाल में पिछले चुनाव में ममता बनर्जी ने कांग्रेस के साथ मिलकर लाल दुर्ग को उखाड़ फेंका था। माकपा वामदलों के साथ किसी तरह वापसी की कोशिश कर रही है। तृणमूल कांग्रेस व ममता बनर्जी के विरुद्ध माकपा ने वामदलों के मोर्चे में कांग्रेस को शामिल करने का कदम बढ़ाया है। वैसे पिछले विधानसभा चुनाव में तृणमूल के 184 सीटों के मुकाबले वामदलों ने केवल 42 सीटें जीतीं थी, लेकिन उसे करीब 39 प्रतिशत मत आए थे जो तृणमूल के बराबर थे। हां, कांग्रेस तृणमूल साथ थी तो कांग्रेस का 9.09 प्रतिशत मत बढ़ जाता है। लोकसभा चुनाव में तृणमूल ने 42 में से अकेल 34 स्थान तथा 39 प्रतिशत मत पाकर सबको पछाड़ दिया। इसमें भाजपा को भी 2 सीटें एवं 16.8 प्रतिशत मत पाए थे। यदि वामदल एवं कांग्रेस मिलते हैं तो मुख्य लड़ाई दोकोणीय होगी, लेकिन कुछ क्षेत्रों में भाजपा इसे त्रिकोणीय बना सकती है। ममता बनर्जी की सरकार के विरुद्व कोई बड़ा असंतोष नहीं दिख रहा है। हालांकि शारदा घोटाला, मालदा आदि घटनाओं को भाजपा उठाएगी। किंतु कुल मिलाकर पिछले विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव की बाजी पलटने का संकेत नहीं दे रहे।

केरल में पिछले विधानसभा चुनाव में ही वाम मोर्चा एवं कांग्रेस नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक मोर्चा के बीच कांटे की टक्कर थी। संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा को यदि 72 स्थान मिले तो वाम मोर्चा को 68। जाहिर है, वाम मोर्चा अवश्य इस अंकगणित को बदलना चाहेगा। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा ने 20 में से 8 सीटें जीतीं। मुख्यमंत्री ओमन चांडी पर कांग्रेस हालांकि दांव लगा रही है लेकिन सौर घोटाला जैसे भ्रष्टाचार, मोर्चा के अंदर असंतोष और विद्रोह आदि स्थितियां उसके प्रतिकूल जाते हैं। हालांकि वाम मोर्चा की अगुवाई करने वाली माकपा में भी अच्युतानंदन एवं पी विजयन के बीच मतभेद जगजाहिर हैं। भाजपा यहां कभी बड़ी खिलाड़ी नहीं रही, पर स्थानीय निकाय चुनावों में उसे कुछ सफलताएं मिलीं हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उसने 10.30 प्रतिशत मत प्राप्त किया था। इसने भारतीय धर्म जन सेना से गठजोड़ किया है जो वहां के बड़े समुदाय एझवा का दल माना जाता है जिसकी आबादी करीब 30 प्रतिशत है। तो भाजपा गठजोड़ कुछ क्षेत्रों में लड़ाई तिकोणीय बना सकती है और संभव है पहली बार विधानसभा में उसका खाता भी खुल जाए।

तमिलनाडु में पिछले विधानसभा चुनाव परिणाम और लोकसभा चुनाव दोनों एकतरफा थे। जयललिता के नेतृतव वाले अन्नाद्रमुक एवं एमडीएमके ने मिलकर चुनाव लड़ा। अन्नाद्रमुक को 234 स्थानों में अकेले 150 एवं डीएमडीके को 29 स्थान मिल गए। द्रमुक 23 स्थानों के साथ तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। कांगेस को केवल 5 स्थान मिले। लोकसभा की 39 में से अन्नाद्रमुक ने 37 सीटें जीत लीं एवं द्रमुक का खाता तक नहीं खुला। एक सीट भाजपा एवं एक पीएमके के खाते गया। अन्नाद्रमुक का वोट द्रमुक से करीब दोगुणा था। तो क्या यह स्थिति बदल जाएगी? 1980 से वहां कोई भी सरकार दोबारा सत्ता में नहीं लौटी है। किंतु जयललिता की लोकप्रियता में कमी नहीं दिख रही है। द्रमुक की कमान करुणानिधि स्टालिन को सौंप चुके हैं। कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन हो चुका हैं। किंतु दोनो पार्टियों का वोट एक साथ अन्नाद्रमुक को नहीं छूता है। तो देखें क्या होता है? भाजपा भी एक गठबंधन के साथ उतरेगी। वह कुछ सीटें शायद पा ले लेकिन परिणाम को बदल पाने की स्थिति में शायद ही होगी। पुड्डुचेरी का चुनाव तमिलनाडु से प्रभावित होता है। एन रंगास्वामी ने काग्रेस से अलग होकर चुनाव से पहले 2011 में ही ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस पार्टी बनाई तथा अन्नाद्रमुक तथा वामदलों के गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। एनआर कांग्रेस को अकेले 15 तथा अन्नाद्रमुक को 5 सीटें आईं। दूसरी तरफ द्रमुक, कांग्रेस, पीएमके और वीएमके का गठबंधन था। द्रमुक को केवल 2 तथा कांग्रेस को सात सीटें मिलीं थीं। हालांकि रंगास्वामी ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया था और 36.6 प्रतिशत मत लेकर वहां की एक सीट जीत ली थी। रंगास्वामी की सादगी और सरलता उनकी ताकत है तथा सुशासन के लिए जनता में वे प्रिय हैं। हिन्दू धर्म के उत्वसों पर छुट्टी देकर उन्होंने वहां के बड़े वर्ग को खुश किया है। इसके समानांतर कांग्रेस अपने नेता पूर्व मुख्यमंत्री वी. वैथीलिंगम के नेतृत्व में वापसी की कोशिश कर रही है। वैथीलिंगम की भी लोकप्रियता है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अकेले 26.3 प्रतिशत मत पाया था। अन्नाद्रमुक वहां किसी का खेल बनाने बिगाड़ने की स्थिति में है।

इस तरह पांच राज्यों के चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस के लिए कम से दो राज्यों असम और केरल में तथा एक हद तक पुड्डेचेरी में भी करो या मरो की स्थिति होगी। असम और केरल की पराजय का असर पार्टी के पूरे मनोविज्ञान पर होगा और अगले वर्ष उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड एवं पंजाब के चुनावों पर इसका असर हो सकता है। प. बंगाल मंे वह कम से कम अपना पिछला प्रदर्शन दुहराने की कोशिश करेगी। तमिलनाडु में द्रमुक पर उसकी आस लगी है। दूसरी ओर भाजपा चार राज्यों में अपनी ताकत बढ़ाने तथा असम में सरकार बनाने के लक्ष्य से चुनाव मैदान में उतर रही है। कांग्रेस की पराजय या उसकी शक्ति में कमी को भाजपा उसकी अलोकप्रियता के रुप में प्रचारित करेगी। हालांकि ये चुनाव मूलतः क्षेत्रीय पार्टियों की जय और पराजय वाले चुनाव ही है। केरल में भी कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन में है तो भाजपा भी। असम में भी क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन है। तमिलनाडु में तो मुख्य लड़ाई ही क्षेत्रीय पार्टियों से है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शनिवार, 5 मार्च 2016

न्यायालय ने जेएनयू की सम्पूर्ण सफाई की आवश्यकता जताई है

अवधेश कुमार

हमारे देश में प्रचार तंत्र की महिमा ऐसी है कि कई बार उसका एक पक्ष सामने आ जाता है और दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष हाशिए पर चला जाता है। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जमानत मिलने के बाद जिस ढंग से उनके भाषण का कई टीवी चैनलों पर लाइव प्रसारण हुआ और उस पर चर्चा हुई उसमें यह महत्वपूर्ण तथ्य छिपा दिया गया कि उसे छः महीने की अंतरिम जमानत मिली है, जिसके साथ शर्तें हैं और जमानत देते हुए न्यायालय ने अत्यंत ही कड़ी टिप्पणियां की हैं। वास्तव में चर्चा न्यायालय की टिप्पणियों की होनी चाहिए, न्यायालय ने जो कुछ कहा है उस पर विचार कर आगे की कार्रवाई का रास्ता निकाला जाना चाहिए। लेकिन इसके परे एक बहुत बड़ा वर्ग कन्हैया के ही महिमामंडन में लगा है। सच तो यह है कि कन्हैया को जमानत देते हुए न्यायालय ने यह शपथ पत्र लिया है कि वो ऐसे किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लेंगे या किसी ऐसी गतिविधि का हिस्सा नहीं बनेंगे जो कि राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है। यही नहीं अपनी टिप्पणी में न्यायालय ने कहा कि विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष के नाते यह उनकी जिम्मेवारी है कि वहां कोई देशविरोधी गतिविधियां नहीं हो और इसके प्रति वो उत्तरदायी भी होंगे।

हम यहां यह निष्कर्ष नहीं दे रहे कि कन्हैया ने देशविरोधी नारा लगाए या नहीं, किंतु न्यायालय की यह सामान्य टिप्पणी नहीं है। सबसे पहले तो अंतरिम जमानत का अर्थ ही यह है कि न्यायालय और पुलिस की बंदिश कन्हैया पर कायम है और छः महीने की उनकी गतिविधियों के आधार पर उनका स्थायी जमानत निर्भर करेगा। उन्हें छः महीने बाद फिर से जमानत की अर्जी लगानी होगी। न्यायालय ने अपने 23 पृष्ठांे के फैसले में ऐसी टिप्पणियां की हैं जिनका निष्कर्ष यह है कि जेएनयू में व्यापक सफाई की आवश्यकता है। वास्तव में कन्हैया के अंतरिम जमानत आदेश में न्यायालय ने जिस प्रकार का क्षोभ और जैसी पीड़ा व्यक्त की है और कन्हैया की जमानत में जो शर्तें लगाईं हैं वही अपने आप बहुत कुछ कह देता है। ध्यान रखिए दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने यह विषय नहीं था कि कन्हैया देशद्रोही नारा लगाने का दोषी है या नहीं है। लेकिन न्यायालय ने टिप्पणी की है कि कन्हैया ने जो भाषण दिया है और संविधान के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है वह वास्तव में उनके दिल की बात है या अपनी सुरक्षा के लिए हथियार यह स्पष्ट नहीं है। यानी दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनको संदेहों से बरी नहीं किया है। वस्तुतः न्यायालय द्वारा उनसे आगे किसी देशविरोधी गतिविधियों में भाग न लेने का शपथ पत्र लेना ही उनको संदेहों के दायरे में लाता है। कन्हैया दोषी हैं या नहीं है यह न्यायालय के फैसले से तय हो जाएगा। मुख्य बात है जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय ने देशविरोधी नारा लगना। उनको लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।

न्यायलय की टिप्पणी इस मायने में निश्चय ही हम सबको झकझोड़ने वाली है। न्यायाधीश महोदया ने लिखा है कि जब वसंतु ऋतु में चारों और प्रकृति हरियाली एवं रंग बिरंगी फुलों की छटा बिखेरती है तो प्रतिष्ठित जेएनयू में शांति के फूल गायब क्योें है इसका उत्तर वहां के छात्रों, प्राध्यापकों और जो लोग वहां पूरा प्रबंधन करते हैं उनको देना होगा। जाहिर है, न्यायालय ने भले स्पष्ट रुप से नहीं लेकिन परोक्ष तौर पर वर्तमान स्थिति के लिए सबको जिम्मेवार माना है। मूल बात यह कि उच्च न्यायालय ने यह माना है कि जेएनयू में देश विरोधी नारे लगे और यह इसलिए हुआ कि वहां के छात्रों के दिमाग में ऐसी भावनाएं भरी गईं हैं। न्यायालय कहता है कि उन छात्रों को अपनी सोच पर आत्मंथन करना चाहिए जो हाथों में अफजल गुरु एवं मकबूल बट्ट की तस्वीरें लिए हुए नारा लगाते दिख रहे हैं। आगे न्यायालय लिखता है कि छात्रों के दिमाग में राष्ट्र विरोधी विचारों के न सिर्फ कारणों को प्राध्यापकों द्वारा समझा जाना चाहिए बल्कि जो जेएनयू चला रहे हैं उनको इसके उपचारात्मक कदम भी उठाना चाहिए। तो न्यायालय ने यद्यपि कोई आदेश या निर्देश नहीं दिया है जो उसके सामने विचार के लिए लाए भी नहीं गए थे, पर यह तो माना है कि जेएनयू के माहौल, वहां की गतिविधियां, विचारों के प्रसार आदि में व्यापक परिवर्तन लाने की जरुरत है। अब यह सरकार और जेएनयू प्रशासन पर निर्भर है कि वह न्यायालय की टिप्पणियों केा किस तरह लेता है और कुछ कार्रवाई करता भी है या इसी मामले तक सीमित रह जाता है।

जो लोग यह आरोप लगा रहे हैं कि पूरे जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है उनका जवाब भी अपनी टिप्पणियों से उच्च न्यायालय ने ही दे दिया है। यही नहीं अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का जवाब भी न्यायालय ने दे दिया है। उसने कहा है कि संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जो गारंटी दिया है उनमें प्रत्येक नागरिक को अपनी विचारधारा या राजनीतिक जुड़ाव का अनुसरण करने की पर्याप्त गुंजाइश है, लेकिन देश विरोधी नारा या सोच इस गारंटी में नहीं आता। कन्हैया को उल्लिखित करते हुए न्यायालय लिखता है कि संविधान की गारंटी का तर्क देते समय संविधान की ही धारा 51 ए के चौथे भाग को नहीं भूलना चाहिए जिसमें नागरिकों के लिए मौलिक कर्तव्यों की बात है। इसके अनुसार अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जेएनयू में अधिकारों की तो बात की जा रही है लेकिन कर्तव्यों की नहीं। दूसरे शब्दों कहें तो न्यायालय ने इन सबको अपने कर्तव्यों से चूकने का दोषी मान लिया है। फैसले में लिखा गया है कि जेएनयू मेें जिन कुछ छात्रों द्वारा जिनने कार्यक्रम आयोजित किया या उसमें भागीदारी की जो नारे लगाए गए वे अभव्यक्ति या भाषण की स्वतंत्रता के तहत रक्षित होने का दावा नहीं कर सकते। चूंकि न्यायालय केवल जमानत पर विचार कर रहा था, उसके सामने पूरे मामले की सुनवाई का प्रश्न नहीं था, इसलिए उसने अपने को काफी सीमित रखा है। कल्पना करिए अगर उसे फैसला देना होता तो उसकी टिप्पणियां कितनी मार्मिक और सख्त होतीं। उसने लिखा है कि ये नारे लगाने वाले तभी तक सुरक्षित हैं जब उचाइयों पर हमारी सेना सीमाओं की रक्षा कर रही है और ये नारा लगाने वाले वहां एक घंटा भी नहीं खड़ा हो सकते। इस तरह न्यायालय ने अंतरिम जमानत देते हुए जमकर लताड़ लगाई, हमारी आपकी आंखें भी खोली, सबको आत्ममंथन करने को प्रेरित किया तथा जेएनयू में व्यापक बदलाव का विचार भी दिया।

अगर न्यायालय कह रहा है कि कोई संक्रमण हो जाए तो पहले एंटीबाओटिक दिया जाता है, उसके बाद भी ठीक नहीं होता तो उसका ऑपरेशन करना होता है और उससे भी ठीक नहीं हो व गैंगरिन हो जाए तो उसे काटकर हटाना होता है। न्यायालय की इस स्थापना पर वे लोग क्या कह रहे हैं जो देशविरोधी नारों के खिलाफ कार्रवाई के विरुद्ध हाय तौबा मचाए हुए हैं और इसे जेएनयू को कलंकित करने की कार्रवाई मान रहे हैं? बड़ी विचित्र स्थिति है। जिनने देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाए, जिनने भारत को बर्बाद करने के नारे लगाए, जिनको कश्मीर की आजादी तक और भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहने का ऐलान किया....उन्होंने इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को बदनाम किया या उनके खिलाफ कार्रवाई करने वालों ने? उच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों पर आप क्या कहंेंगे? वह तो कह रहा है कि अगर स्थिति गैंगरिन की है तो उसे काटिए। न्यायालय ने हवा में तो बात की नहीं है। उसके सामने जो तथ्य आए उसके आधार पर ही उसका निष्कर्ष है। और उसका निष्कर्ष यह कि जेएनयू वाकई ऐसी बीमारी से ग्रस्त हो गया है जिसका उच्च स्तरीय उपचार की अपरिहार्यता है। आखिर जेएनयू के संदर्भ में एंटिबायोटिक या औपरेशन या अंग काटने का स्वरुप क्या हो सकता है? यही न कि ऐसे तत्वों से उसे मुक्त किया जाए तथा ऐसा माहौल बनाया जाए कि फिर देश विरोधी हरकतों की पुनरावृत्ति न हो। यह केवल नारा लगाते दिखने वालों के खिलाफ कार्रवाई से नहीं हो सकता है।

जाहिर है, यदि न्यायालय की टिप्पणियों को आधार बनाएं तो सरकार पर यह जिम्मेवारी आ जाती है कि वह वहां के वातावरण बदलने के लिए पर्याप्त कदम उठाए। न्यायालय कहता है कि जेएनयू के प्राध्यापकांे को ऐसी भूमिका निभानी होगी जिससे वे उन्हें सही रास्ते पर चलने का मार्गदर्शन कर सकें ताकि वे भारत के विकास में योगदान दे सकें और जेएनयू के निर्माण का जो उद्देश्य था, उसके पीछे जो सपने थे उन्हें प्राप्त किया जा सके। जिन प्राध्यपकों ने अभी तक वहां के वातावरण को प्रदूषित किया है उनसे हम न्यायालय की भावना का सम्मान करते हुए ऐसी भूमिका की उम्मीद नहीं कर सकते। तो फिर? रास्ता यही है कि उसकी व्यापक सफाई हो। इसके लिए विरोध की चिंता किए बगैर सरकार को समग्र सफाई के न्यायोचित कदम उठाने चाहिएं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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