शनिवार, 5 मार्च 2016

न्यायालय ने जेएनयू की सम्पूर्ण सफाई की आवश्यकता जताई है

अवधेश कुमार

हमारे देश में प्रचार तंत्र की महिमा ऐसी है कि कई बार उसका एक पक्ष सामने आ जाता है और दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष हाशिए पर चला जाता है। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जमानत मिलने के बाद जिस ढंग से उनके भाषण का कई टीवी चैनलों पर लाइव प्रसारण हुआ और उस पर चर्चा हुई उसमें यह महत्वपूर्ण तथ्य छिपा दिया गया कि उसे छः महीने की अंतरिम जमानत मिली है, जिसके साथ शर्तें हैं और जमानत देते हुए न्यायालय ने अत्यंत ही कड़ी टिप्पणियां की हैं। वास्तव में चर्चा न्यायालय की टिप्पणियों की होनी चाहिए, न्यायालय ने जो कुछ कहा है उस पर विचार कर आगे की कार्रवाई का रास्ता निकाला जाना चाहिए। लेकिन इसके परे एक बहुत बड़ा वर्ग कन्हैया के ही महिमामंडन में लगा है। सच तो यह है कि कन्हैया को जमानत देते हुए न्यायालय ने यह शपथ पत्र लिया है कि वो ऐसे किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लेंगे या किसी ऐसी गतिविधि का हिस्सा नहीं बनेंगे जो कि राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है। यही नहीं अपनी टिप्पणी में न्यायालय ने कहा कि विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष के नाते यह उनकी जिम्मेवारी है कि वहां कोई देशविरोधी गतिविधियां नहीं हो और इसके प्रति वो उत्तरदायी भी होंगे।

हम यहां यह निष्कर्ष नहीं दे रहे कि कन्हैया ने देशविरोधी नारा लगाए या नहीं, किंतु न्यायालय की यह सामान्य टिप्पणी नहीं है। सबसे पहले तो अंतरिम जमानत का अर्थ ही यह है कि न्यायालय और पुलिस की बंदिश कन्हैया पर कायम है और छः महीने की उनकी गतिविधियों के आधार पर उनका स्थायी जमानत निर्भर करेगा। उन्हें छः महीने बाद फिर से जमानत की अर्जी लगानी होगी। न्यायालय ने अपने 23 पृष्ठांे के फैसले में ऐसी टिप्पणियां की हैं जिनका निष्कर्ष यह है कि जेएनयू में व्यापक सफाई की आवश्यकता है। वास्तव में कन्हैया के अंतरिम जमानत आदेश में न्यायालय ने जिस प्रकार का क्षोभ और जैसी पीड़ा व्यक्त की है और कन्हैया की जमानत में जो शर्तें लगाईं हैं वही अपने आप बहुत कुछ कह देता है। ध्यान रखिए दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने यह विषय नहीं था कि कन्हैया देशद्रोही नारा लगाने का दोषी है या नहीं है। लेकिन न्यायालय ने टिप्पणी की है कि कन्हैया ने जो भाषण दिया है और संविधान के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है वह वास्तव में उनके दिल की बात है या अपनी सुरक्षा के लिए हथियार यह स्पष्ट नहीं है। यानी दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनको संदेहों से बरी नहीं किया है। वस्तुतः न्यायालय द्वारा उनसे आगे किसी देशविरोधी गतिविधियों में भाग न लेने का शपथ पत्र लेना ही उनको संदेहों के दायरे में लाता है। कन्हैया दोषी हैं या नहीं है यह न्यायालय के फैसले से तय हो जाएगा। मुख्य बात है जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय ने देशविरोधी नारा लगना। उनको लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।

न्यायलय की टिप्पणी इस मायने में निश्चय ही हम सबको झकझोड़ने वाली है। न्यायाधीश महोदया ने लिखा है कि जब वसंतु ऋतु में चारों और प्रकृति हरियाली एवं रंग बिरंगी फुलों की छटा बिखेरती है तो प्रतिष्ठित जेएनयू में शांति के फूल गायब क्योें है इसका उत्तर वहां के छात्रों, प्राध्यापकों और जो लोग वहां पूरा प्रबंधन करते हैं उनको देना होगा। जाहिर है, न्यायालय ने भले स्पष्ट रुप से नहीं लेकिन परोक्ष तौर पर वर्तमान स्थिति के लिए सबको जिम्मेवार माना है। मूल बात यह कि उच्च न्यायालय ने यह माना है कि जेएनयू में देश विरोधी नारे लगे और यह इसलिए हुआ कि वहां के छात्रों के दिमाग में ऐसी भावनाएं भरी गईं हैं। न्यायालय कहता है कि उन छात्रों को अपनी सोच पर आत्मंथन करना चाहिए जो हाथों में अफजल गुरु एवं मकबूल बट्ट की तस्वीरें लिए हुए नारा लगाते दिख रहे हैं। आगे न्यायालय लिखता है कि छात्रों के दिमाग में राष्ट्र विरोधी विचारों के न सिर्फ कारणों को प्राध्यापकों द्वारा समझा जाना चाहिए बल्कि जो जेएनयू चला रहे हैं उनको इसके उपचारात्मक कदम भी उठाना चाहिए। तो न्यायालय ने यद्यपि कोई आदेश या निर्देश नहीं दिया है जो उसके सामने विचार के लिए लाए भी नहीं गए थे, पर यह तो माना है कि जेएनयू के माहौल, वहां की गतिविधियां, विचारों के प्रसार आदि में व्यापक परिवर्तन लाने की जरुरत है। अब यह सरकार और जेएनयू प्रशासन पर निर्भर है कि वह न्यायालय की टिप्पणियों केा किस तरह लेता है और कुछ कार्रवाई करता भी है या इसी मामले तक सीमित रह जाता है।

जो लोग यह आरोप लगा रहे हैं कि पूरे जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है उनका जवाब भी अपनी टिप्पणियों से उच्च न्यायालय ने ही दे दिया है। यही नहीं अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का जवाब भी न्यायालय ने दे दिया है। उसने कहा है कि संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जो गारंटी दिया है उनमें प्रत्येक नागरिक को अपनी विचारधारा या राजनीतिक जुड़ाव का अनुसरण करने की पर्याप्त गुंजाइश है, लेकिन देश विरोधी नारा या सोच इस गारंटी में नहीं आता। कन्हैया को उल्लिखित करते हुए न्यायालय लिखता है कि संविधान की गारंटी का तर्क देते समय संविधान की ही धारा 51 ए के चौथे भाग को नहीं भूलना चाहिए जिसमें नागरिकों के लिए मौलिक कर्तव्यों की बात है। इसके अनुसार अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जेएनयू में अधिकारों की तो बात की जा रही है लेकिन कर्तव्यों की नहीं। दूसरे शब्दों कहें तो न्यायालय ने इन सबको अपने कर्तव्यों से चूकने का दोषी मान लिया है। फैसले में लिखा गया है कि जेएनयू मेें जिन कुछ छात्रों द्वारा जिनने कार्यक्रम आयोजित किया या उसमें भागीदारी की जो नारे लगाए गए वे अभव्यक्ति या भाषण की स्वतंत्रता के तहत रक्षित होने का दावा नहीं कर सकते। चूंकि न्यायालय केवल जमानत पर विचार कर रहा था, उसके सामने पूरे मामले की सुनवाई का प्रश्न नहीं था, इसलिए उसने अपने को काफी सीमित रखा है। कल्पना करिए अगर उसे फैसला देना होता तो उसकी टिप्पणियां कितनी मार्मिक और सख्त होतीं। उसने लिखा है कि ये नारे लगाने वाले तभी तक सुरक्षित हैं जब उचाइयों पर हमारी सेना सीमाओं की रक्षा कर रही है और ये नारा लगाने वाले वहां एक घंटा भी नहीं खड़ा हो सकते। इस तरह न्यायालय ने अंतरिम जमानत देते हुए जमकर लताड़ लगाई, हमारी आपकी आंखें भी खोली, सबको आत्ममंथन करने को प्रेरित किया तथा जेएनयू में व्यापक बदलाव का विचार भी दिया।

अगर न्यायालय कह रहा है कि कोई संक्रमण हो जाए तो पहले एंटीबाओटिक दिया जाता है, उसके बाद भी ठीक नहीं होता तो उसका ऑपरेशन करना होता है और उससे भी ठीक नहीं हो व गैंगरिन हो जाए तो उसे काटकर हटाना होता है। न्यायालय की इस स्थापना पर वे लोग क्या कह रहे हैं जो देशविरोधी नारों के खिलाफ कार्रवाई के विरुद्ध हाय तौबा मचाए हुए हैं और इसे जेएनयू को कलंकित करने की कार्रवाई मान रहे हैं? बड़ी विचित्र स्थिति है। जिनने देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाए, जिनने भारत को बर्बाद करने के नारे लगाए, जिनको कश्मीर की आजादी तक और भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहने का ऐलान किया....उन्होंने इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को बदनाम किया या उनके खिलाफ कार्रवाई करने वालों ने? उच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों पर आप क्या कहंेंगे? वह तो कह रहा है कि अगर स्थिति गैंगरिन की है तो उसे काटिए। न्यायालय ने हवा में तो बात की नहीं है। उसके सामने जो तथ्य आए उसके आधार पर ही उसका निष्कर्ष है। और उसका निष्कर्ष यह कि जेएनयू वाकई ऐसी बीमारी से ग्रस्त हो गया है जिसका उच्च स्तरीय उपचार की अपरिहार्यता है। आखिर जेएनयू के संदर्भ में एंटिबायोटिक या औपरेशन या अंग काटने का स्वरुप क्या हो सकता है? यही न कि ऐसे तत्वों से उसे मुक्त किया जाए तथा ऐसा माहौल बनाया जाए कि फिर देश विरोधी हरकतों की पुनरावृत्ति न हो। यह केवल नारा लगाते दिखने वालों के खिलाफ कार्रवाई से नहीं हो सकता है।

जाहिर है, यदि न्यायालय की टिप्पणियों को आधार बनाएं तो सरकार पर यह जिम्मेवारी आ जाती है कि वह वहां के वातावरण बदलने के लिए पर्याप्त कदम उठाए। न्यायालय कहता है कि जेएनयू के प्राध्यापकांे को ऐसी भूमिका निभानी होगी जिससे वे उन्हें सही रास्ते पर चलने का मार्गदर्शन कर सकें ताकि वे भारत के विकास में योगदान दे सकें और जेएनयू के निर्माण का जो उद्देश्य था, उसके पीछे जो सपने थे उन्हें प्राप्त किया जा सके। जिन प्राध्यपकों ने अभी तक वहां के वातावरण को प्रदूषित किया है उनसे हम न्यायालय की भावना का सम्मान करते हुए ऐसी भूमिका की उम्मीद नहीं कर सकते। तो फिर? रास्ता यही है कि उसकी व्यापक सफाई हो। इसके लिए विरोध की चिंता किए बगैर सरकार को समग्र सफाई के न्यायोचित कदम उठाने चाहिएं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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