शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

क्या अमित शाह के नए कार्यकाल में खड़ी चुनौतियों से पार पा सकते हैं

 

अवधेश कुमार

अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष के रुप में अगला कार्यकाल मिलेगा इसे लेकर किसी को संदेह नहीं था। वे डेढ़ वर्ष पूर्व भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एकमात्र पसंद थे और आज भी हैं। तो उनकी चाहत के विपरीत किसी और के अध्यक्ष पद पर चयन का प्रश्न ही कहां उठता था। संघ भी मोदी को मुक्त होकर काम करने देने के पक्ष में है और इसलिए पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए उनकी सोच को प्राथमिकता दिया जाना लाजिमी था। लेकिन अगस्त 2014 में जब अमित शाह ने राजनाथ सिंह का औपचारिक रुप से स्थानापन्न किया तब और आज की परिस्थितियों में गुणात्मक अंतर आ गया है। तब भाजपा नरेन्द्र मोदी की तूफानी लोकप्रियता के वाहन में सत्ता तक पहुंची थी। उनके कार्यकाल का हनीमून था। चारों ओर उम्मीद और आशावाद की लहर  थी। मोदी के समर्थन मंें अभूतपूर्व जन आलोड़न का दौर था। स्वयं अमित शाह ने उत्तर प्रदेश प्रभारी के रुप में आशातीत सफलताएं दिलवाईं थीं। वैसी लोकप्रियता और सफलता के काल में अंतर्निहित या सामने खड़ी चुनौतियों का सहसा अहसास नहीं होता। संयोग से उसके बाद महराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड चुनाव में पार्टी को सफलताएं भी मिली। इन सफलताओं में अध्यक्ष के रुप में उनकी महिमा बढ़नी ही थी। प्रधानमंत्री मोदी ने पार्टी की सभा में उन्हें अब तक का सबसे सफल अध्यक्ष तक कह दिया। ं

जरा आज की परिस्थितियों पर नजर दौड़ाइए। 2016 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी का सफाया हो गया तो बिहार में वह अपनी पुरानी स्थिति भी बरकरार रखने में सफल नहीं रही। यही नहीं हाल के कुछ राज्यों के स्थानीय निकाय चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन काफी बुरा रहा है। इसमें मोदी और अमित शाह का गृह प्रदेश गुजरात भी शामिल है। जाहिर है, दोनों समय की तुलना करें तो एकदम दो ध्रुवों जैसी स्थिति नहीं तो लगातार बढ़तीं गुणात्मक प्रतिकूलताएं साफ दिखाई देंगी। कम से कम इतना तो अमित शाह भी स्वीकार करेंगे कि अगस्त 2014 की अनुकूलता की स्थिति आज नहीं है। लोकप्रियता का तूफान धीमा पड़ा है। सरकार के हनीमून का काल अब खत्म हो चुका है। वास्तव में अध्यक्ष की नेतृत्व क्षमता, प्रबंधन व रणनीतिक कौशल .....सबकी असली परख का दौर तो इस नए कार्यकाल में ही होगी। चुनावी दृष्टि से देखें तो इस वर्ष पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुड्डुचेरी विधानसभा का चुनाव है। इसमें असम को छोड़कर भाजपा कहीं से भी उम्मीद नहीं कर सकती है। किंतु यह कहकर तो आप अपने को बरी नहीं कर सकते कि इन राज्यों में हमारा कुछ दांव पर था ही नहीं। अगर इन चुनावों में पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन नहंी किया तो फिर विपक्ष का सरकार पर दबाव बढ़ेगा। इससे बचाने की जिम्मेवारी अमित शाह एवं मोदी की जोड़ी की है। वैसे भी केरल में अमित शाह और मोदी दोनों पूरा जोर लगा रहे हैं। इन राज्यों में प्रदर्शन अच्छा नहीं हुआ तो अर्थ यही लगाया जाएगा कि पार्टी की महिमा क्षीण हो रही है और हार का दौर जारी है। इसका जवाब पार्टी अध्यक्ष के रुप में अमित शाह को ही देना होगा। इसके बाद 2017 में उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर फिर हिमाचल प्रदेश एवं गुजरात का भी चुनाव है। इनमें मणिपुर को छोड़कर सारे राज्यों में भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होगी। यहां अमित शाह के लिए करो या मरो की स्थिति होगी। यही स्थिति 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान एवं कर्नाटक विधानसभा चुनाव में होगी। तो कुल मिलाकर 2018 तक 15 राज्यों के विधानसभा चुनावों का सामना भाजपा को अमित शाह के पार्टी नेतृत्व में करनी है। 

इसके बाद बताने की आवश्यकता नहीं है कि इस दूसरे कार्यकाल में अमित शाह के सामने चुनौतियां कितनी बड़ीं हैं। अगर अमित शाह एवं मोदी यह स्वीकार कर लेते हैं कि वर्तमान पार्टी एवं सरकार में जो चेहरे हैं उनकी बदौलत इन चुनौतियों को पार पाना संभव नहीं तो वे पार्टी के सांगठनिक एवं वैचारिक पुनर्गठन तथा उसके बाद सरकार के पुनगर्ठन के लिए बड़े कदम उठाएंगे। बड़े कदम का अर्थ है व्यापक बदलाव। इसकी आवश्यकता साफ दिखाई दे रही है। पार्टी में प्रमुख पदों पर दो तीन लोगों को छोड़ दे ंतो वही चेहरे विद्यमान रहे हैं जो पहले से रहे हैं। अगर ये सब इतने ही योग्य होते तो 2004 में और फिर 2009 में पार्टी की वैसी पराजय नहीं होती। अमित शाह ने अध्यक्ष बनने के बाद जो टीम बनाई उसमें तीन चार लोगों को छोड़कर शेष चेहरे लगभग वही रहे। जो नए आए उनका प्रदर्शन भी ऐसा नहीं रहा जिनसे उम्मीद की जाए। यही स्थिति सरकार की थी। मोदी ने भी जो लोग उपलब्ध थे उनमें ही मंत्रालयों के बंटवारे कर दिए। मोदी सामान्य कार्यों के साथ जिस तेज गति से कुछ मौलिक, कुछ सामान्य बदलाव के कदम उठाने की कोशिश कर रहे हैं उन सबको आधार देने की स्थिति न पार्टी की है और न सरकार में दिखने वाले चेहरे ही उसके अनुरुप दौड़ लगाने की क्षमता प्रमाणित कर पाए हैं। उनमें एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो समय की आवाज और मोदी के आगाज को ठीक से समझ भी नहीं पाया है। इनका पूरा सरोकार यहीं तक सीमित है कि किसी तरह अपना पद और कद बना रहे। ऐसी टीम से आप बड़ा लक्ष्य तो छोड़िए सामान्य चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते। इसके विपरीत इनके कारण आपकी चुनौतियां बढ़तीं हैं। नेता का अर्थ है जनता के बीच काम करते हुए निकला हुआ लोकप्रिय चेहरा। ऐसे कितने चेहरे इस समय पार्टी एवं सरकार में हैं? अगर नहीं हैं तो आपको लाना होगा। नहीं लाएंगे तो फिर चारों खाने चित्त गिरेंगे। 

अमित शाह ने 9 अगस्त 2014 को पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि मोदी जी के कांग्रेस मुक्त भारत के साथ हमें भाजपा युक्त भारत बनाना है, विपक्ष की मानसिकता से बाहर निकलनी है तथा सत्तारुढ़ दल की तरह व्यवहार करना है। भाजपा युक्त भारत के लिए पार्टी मशीनरी को पूर्ण गतिशील बनाने और उसके द्वारा जन आलोड़न पैदा करने की आवश्यकता है। क्या अमित शाह पार्टी में नए चेहरे के साथ वैसा कलेवर देने पर विचार कर रहे हैं? इसका परीक्षण टीम के गठन से ही हो जाएगा। क्या पार्टी अपने साथ सरकार के पुनर्गठन के लिए भी वैसे लोग उपलब्ध करा पाने की स्थिति में पहुंच पाएगी? आखिर सरकार मंे भी तो पार्टी से ही लोगो को लिया जाएगा। ये ऐसे प्रश्न है जिन पर भाजपा का आगामी राजनीतिक और चुनावी प्रदर्शन निर्भर है। सत्तारुढ़ पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती होती है, सरकार और संगठन में तालमेल। इस मामले मंे अमित शाह का पहला कार्यकाल बुरा नही ंतो आदर्श भी नहीं रहा है। सरकार और पार्टी तथा सरकार और कार्यकर्ता के बीच दूरी बढ़ी है। सरकार की छवि केवल सरकारी जन संचार माध्यमों के यांत्रिक प्रचार से बेहतर नहीं होती। जनता की नजर में बेहतर बनाए रखने में पार्टी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह तभी हो सकता है जब पार्टी में संतुलित, विषयों के जानकार, जनता की नब्ज पहचानने वाले, देश की अंतर्धारा को समझने वाले तथा पार्टी के प्रति समर्पित निष्ठावान और व्यवहार कुशल लोगों की टीम हो। अगर मोदी और अमित शाह की सोच इस दिशा में जाती है तो उनको परिश्रम करके ऐसे लोगों की तलाश करनी होगी और वे मिल भी जाएंगे। अगर सोच नहीं जाती है तो फिर कुछ भी उम्मीद करना बेमानी होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

पेशावर विश्वविद्यालय पर हमला

 

अवधेश कुमार

यह करीब एक वर्ष बाद पेशावर के किसी शिक्षण संस्थान पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था। सुरक्षा बलों के दावों पर विश्वास करें तो सभी चार आतंकवादी मारे गए और बाचा खान विश्वविद्यालय को मुक्त करा लिया गया है। हालांकि कुछ आतंकवादियों के बच निकलने की भी खबर है। वैसे मृतक छात्रों की जितनी संख्या 20-25 बताई जा रही है वह उतनी नहीं है जितने का अनुमान था। अगर विश्वविद्यालय में करीब 3000 छात्र थे और आतंकवादियों ने घुसकर उनको गोली मारना आरंभ किया तो फिर उसमें हताहत होने वालों की संख्या ज्यादा होनी स्वाभाविक थी। बहरहाल, कारण कोई भी राहत की बात है कि यह कम से कम मृतकों और घायलों की संख्या के अनुसार पेशावर के सैनिक विद्यालय पर 16 दिसंबर 2014 को हुए हमले की पुनरावृत्ति साबित नहीं हो सका। उस समय आंकवादियों ने कुल 146 लोगों की जानें ले लीं थीं जिनमें 132 बच्चे थे। हालांकि आरंभिक खबरों में बताया गया था कि आतंकवादियों ने विश्वविद्यालय में 60-70 छात्रों के सिर में गोली मार दिया है। आतंकवादियों ने विश्वविद्यालय में बॉयज होस्टल पर कब्जा कर लिया था। हमले के भय से अनेक छात्रों ने जान बचाने के लिए स्वयं को बॉथरूम में बंद कर लिया। आतंकवाद से लड़ने के अनुभवी पाकिस्तानी सुरक्षा बलों को अगर चार घंटे तक मोर्चा लेना पड़ा तो इसका अर्थ है कि यह हमला बहुत बड़ा रहा होगा।

पाक मीडिया के अनुसार 20 जनवरी को खैबर पख्तूनवा में पेशावर से 30 किमी दूर चरसद्दा में स्थित इस विश्वविद्यालय में सीमांत गांधी के नाम से मशहूर खां अब्दुल गफ्फार खां की बरसी के मौके पर मुशायरा होने वाला था। इसके कारण वहां काफी संख्या में छात्र मौजूद थे। 600 के करीब मेहमान भी थे जो मुशायरे में शामिल होने के लिए आए थे। जाहिर है, आतंकवादियों ने काफी सोच समझकर ज्यादा से ज्यादा हताहत करने के मंसूबे से ही हमला किया था। चूंकि पिछले काफी समय से पाकिस्तानी सेना व अन्य सुरक्षा बल आतंकवादियों के साथ संघर्ष कर रही है, इसलिए इनसे लड़ने का उसे काफी अनुभव हो गया है। इसी कारण उसने आतंकवादियों को एक जगह घेरने की रणनीति बनाई तथा उसमें सफलता मिली। पहले पाकिस्तान की स्पेशल कमांडो टीम को विश्वविद्यालय कैम्पस में उतारा गया। यह कमांडो टीम वीवीआईपी की सुरक्षा में तैनात रहती है तथा इसे आतंकवाद से जूझने का प्रशिक्षण है। फिर सेना को बुलाया गया। कुछ पैराट्रूपर्स को कैम्पस की छत पर उतारा गया जहां से उनने मोर्चा संभाला। सेना ने अपने 7 हेलिकॉप्टर्स आकाश में उड़ाए। सेना ने धीरे-धीरे ऑपरेशन को अपने हाथों में लिया। इस तरह कहा जा सकता है कि पूरे योजनाबद्व तरीके से सुरक्षा बलों ने इनका मुकाबला किया जिससे इस संकट से क्षति संभावनाओं से कम हुई एवं जल्दी आतंकवादियों को मार गिराया गया।

निश्चय ही पेशावर सैन्य विद्यालय पर हमले से वहां की सेना और आतंकवादियों ने सीख लिया है तथा भविष्य में ऐसे हमलों से कैसे निपटा जाए इसका बाजाब्ता अभ्यास किया है। पेशावर विद्यालय पर भी सुबह ही करीब 10.30 बजे पाक सुरक्षा बलों की ड्रेस में सात तालिबानी आतंकी स्कूल के पिछले दरवाजे से आ गए थे। विश्वविद्यालय में भी उनने ऐसे ही प्रवेश किया। सैन्य विद्यालय में ऑटोमेटिक हथियारों से लैस सभी आतंकी सीधे स्कूल के ऑडिटोरियम की ओर बढ़े। वहां मौजूद मासूमों पर उन्होंने अंधाधुंध गोलियां बरसाईं। तब छात्र वहां फर्स्ट एड ट्रेनिंग के लिए इकट्ठा हुए थे। इसके बाद आतंकी एक-एक क्लासरूम में घुसकर फायरिंग करने लगे। कुछ ही मिनटों बाद स्कूल के अंदर लाशें बिछ गईं। बच्चों के सामने ही आतंकियों ने स्कूल की प्रिंसिपल ताहिरा काजी को जिंदा जलाया था। आतंकियों ने कुछ बच्चों को लाइन में खड़ा कर गोलियों से भूना, तो कुछ छिपे बच्चों पर तब तक गोलियां बरसाईं जब तक उनके चीथड़े न बिखर गए। इस कत्लेआम के लगभग 40 मिनट बाद पाक सेना ने मोर्चा संभाला था और लगभग छह घंटे चले ऑपरेशन के बाद आतंकवादियों को मार गिराया गया। इस बार सेना व सरक्षा बलों ने आतंकवादियों को उस तरह कोहराम मचाने का अवसर नहीं दिया।

 इस आतंकवादी हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालीबान ने ली है। अगर वह ऐलान नहीं करता तब भी संदेह उसी की ओर जाती। ध्यान रखिए तहरीक-ए-तालीबान ने ही आर्मी स्कूल पर हमला किया था। तहरीक का पिछले दो साल से पाकिस्तानी सेना के साथ उत्तरी वजीरीस्तान एवं श्वात घाटी में सीधी लड़ाई चल रही है। लेकिन इनका अंत करना पाकिस्तान के लिए टेढ़ी खीर साबित हुआ है। हालांकि सुरक्षा बलों के औपरेशन से यह निष्कर्ष निकलता है कि उनमें आतंकवादी हमलों से लड़ने की पूरी क्षमता है। वे उनके तौर तरीकों से वाकिफ हैं। इसीलिए प्रश्न उठता है कि आखिर इतनी सक्षम सेना व अन्य सुरक्षा बल आतंकवाद पर काबू करने में सफल क्यों नहीं हो रहे हैं? पेशावर सैन्य विद्यालय पर हमले के बाद स्वयं प्रधानमंत्री नवज शरीफ और सेना प्रमुख राहील शरीफ ने वहां का दौरा किया था तथा उसके बाद से आतंकवादियेां के खिलाफ लड़ाई और कार्रवाई सघन हुई। उसके बाद एक दर्जन से ज्यादा आतंकवादियांें को फांसी पर चढ़ाया गया है। आतंकवादियांें के मामले की तेजी से न्यायालयों में सुनवाई की कोशिश की गई। कुछ न्यायालयों ने जल्दी में फैसले भी दिए और उन पर अमल हुआ। वास्तव में उस हमले ने पूरे पाकिस्तान को हिला दिया था। चूंकि मरने वालों में ज्यादातर बच्चे सेना के परिवार के थे, इसलिए भी कार्रवाई काफी सघन हुई। लेकिन वर्तमान हमले से साफ है कि तहरीक ने हार नहीं माना है।

वर्तमान हमले के समय नवाज शरीफ स्विटजरलैंड के दौरे पर थे और जनरल राहील शरीफ सउदी अरब में। नवाज शरीफ ने वहीं से बयान दिया कि बेकसूर छात्रों और नागरिकों को मारने वालों का कोई मजहब नहीं होता है। हम एक बार फिर मुल्क से दहशतगर्दी को खत्म करने का कमिटमेंट करते हैं। मुल्क के लिए मरने वालों की कुर्बानी को जाया नहीं जाने दिया जाएगा। यही संकल्प नवाज शरीफ ने 17 दिसंबर 2014 को भी लिया था। ऐसा नहीं है कि उसके बाद कार्रवाई नहीं हुई। तेजी से कार्रवाई हुई लेकिन पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक के शाासनकाल से जिस तरह देश का तालिबानीकरण हुआ और बाद की सरकारों ने उसे बढ़ावा दिया, पोषण दिया उससे बाहर निकलना उसके लिए अब कठिन हो गया है। वही तालीबानी सोच और उसके अनुसार खड़ा आतंकवाद उसके लिए ऐसा नासूर बना गया है जिसमें वह फंस चुका है। आतंकवादी हमला वहां आम हो गया है। अब दुनिया का ध्यान भी पाकिस्तान का आम आतंकवादी हमला नहीं खींचता। प्रतिक्रिया यह होती है कि ऐसा तो वहां होता ही रहता है। विश्वविद्यालय पर हमले के एक दिन पहले यानी 19 जनवरी को पेशावर में ही करखानो बाजार में एक सुरक्षा जांच पोस्ट के पास धमाका हुआ जिसमें 11 लोग मारे गए तथा 15 घायल हो गए थे।  इसके पूर्व 29 दिसंबर 2015 को पेशावर के ही निकट मरदान कस्बे में स्थित नेशनल डाटाबेस एंड रजिस्ट्रेशन अथॉरिटी के कार्यालय के बाहर हुआ। यह आत्मघाती हमला था जिसमें 22 लोग मारे गए तथा 40 लोग घायल हुए। 18 सिंतबर 2015 को पेशावर स्थित एयरफोर्स कैंप पर को सुबह आतंकवादियों ने हमला कर दिया। इसमें 30 से ज्यादा लोग मारे गए। मरने वालों में 7 से 10 आत्मघाती आतंकवादी भी शामिल थे। इन हमलांे की ओर हमारा ध्यान नहीं गया। इन सारे हमलों की जिम्मेवारी तहरीक ने ही ली।

लेकिन इससे पता चलता है कि पेशावर और खैबर पख्तूनख्वा प्रांत इनके निशाने पर लंबे समय से है। बाचा खान विश्वविद्यालय पर हमले का कारण भी समझ में आता है। कोई भी आधुनिक शिक्षा तंत्र जो इनकी जेहादी सोच और शरीया शासन के विपरीत शिक्षा देगा वह इनके रास्ते की बाधा है। बादशाह खान तो वैसे भी मजहब के आधार पर पाकिस्तान विभाजन के विरोधी थे और सेक्यूलर सोच के व्यक्ति थे। खैबर पख्तुनख्वा में हालांकि एनएनपी इस समय सत्ता में नहीं है, लेकिन उसका पूरा प्रभाव है। उसका संबंध उस परिवार से है। वह आतंवकाद या मजहबी राज की विरोधी प्र्र्र्रगतिशील विचार की पार्टी है। तो आतंकवादियों ने पहले सेना के विद्यालय पर हमला करके अपने खिलाफ कार्रवाई को चुनौती दी थी और विश्वविद्यालय पर हमला उनका एक विचारधारा पर हमला है। ऐसे विचारधारा पर हमला, जो आधुनिकता का समर्थक है, जो बदलाव का समर्थक है, जो तालीबानी सोच का जमकर विरोध करती है। शरीफ चाहे जितना संकल्प व्यक्त करंे, तालिबान ऐसे हमले आगे भी करेगा। आखिर पाकिस्तान उस विचारधारा के खिलाफ तो संघर्ष नहीं करता जिससे आतंकवाद पैदा होता है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स,दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

क्यों हो रहे हैं अफगानिस्तान में भारतीय मिशनों पर लगातार हमले

 

अवधेश कुमार

दो सप्ताह से भी कम समय में अफगानिस्तान स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावासों पर या उसके पास तीन हमले हो चुके हैं। पहले 3 जनवरी को मजार ए शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला हुआ, उसके बाद 5 जनवरी को जलालाबाद में भारतीय एवं पाकिस्तानी वाणिज्य दूतावास के बीच हमला हुआ और अब फिर जलालाबाद में भारत और पाकिस्तान के वाणिज्य दूतावास के पास ही हमला हुआ है। ध्यान रखिए कि इसके पूर्व जलालाबाद वाणिज्य दूतावास पर हमले को लेकर दो तरह के मत प्रकट किए गए। एक मत यह था कि हमला भारतीय दूतावास पर नहीं, बल्कि पाकिस्तान दूतावास पर हुआ है, जबकि दूसरा मत यह था कि निशाना दोनों था। वस्तुतः दूसरी बात सच के ज्यादा निकट लगती है। शायद आतंकवादियों ने उस संशय को खत्म करने के लिए वहां फिर से हमला किया। पिछली बार आतंकवादी सुरक्षा के कारण बहुत आगे बढ़ने में सफल नहीं थे और 400 मीटर की दूरी पर विस्फोट करके वापस भागे। इस बार उन्होेंने तमात सुरक्षा व्यवस्थाओं के बीच दूतावास भवन के 200 मीटर की दूरी पर हमला करने में कामयाबी पाई और उसके बाद संघर्ष भी किया जिसमें आधा दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 

इसे संयोग भी कह सकते हैं या सुरक्षा व्यवस्था की कामयाबी कि तीनों हमलों में वाणिज्य दूतावासों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा, कोई भारतीय हताहत नहीं हुआ। यह हमारे लिए राहत और संतोष का विषय है। किंतु यह तो विचार करना ही होगा कि आखिर आतंकवादी लगातार इस तरह भारतीय मिशनों को निशाना क्यों बना रहे हैं? मजार ए शरीफ हमले के बारे में बल्ख प्रांत के पुलिस प्रमुख ने कहा है कि वे सीमा पार से आए प्रशिक्षित सैन्यकर्मी थे। यह बहुत बड़ा आरोप है। उसका कहना है कि वे पढ़े लिखे थे और पूरी तैयारी से आए थे। ध्यान रखिए कि यह हमला तीनों में सबसे बड़ा था जिससे निपटने में सुरक्षा बलों को 25 घंटे से ज्यादा समय लगा। आतंकवादियों ने पहले भीषण हमला करते हुए दूतावास में घुसने की कोशिश की थी और उसमें नाकाम रहने पर उन्होेंने पास के एक मकान में घुसकर मोर्चा बना लिया। जाहिर है, हमलावर आत्मघाती थे और उनके मारे जाने के बाद ही स्थिति शांत हुई। भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवानों ने उनके हमले का आरंभ मंें दिलेरी से मुकाबला किया जिससे वे घुसने में कामयाब नहीं हो सके। इसका अर्थ है कि आतंकवादियों ने भारतीय दूतावासों को अपने निशाने पर रखा है और आगे भी वे हमला करेंगे।

हमलावर कौन हो सकते हैं यह प्रश्न तो महत्वपूर्ण हैं, पर इनसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उनका इरादा क्या है? आखिर वे क्यों भारत के खिलाफ इस तरह वाणिज्य दूतावासों को ही निशाना बना रहे हैं? हम पाकिस्तान से आकर हमला करने के आरोप को भी नकार नहीं सकते। जब आतंकवादी सीमा पार से आकर पठानकोट में हमला कर सकते हैं तो वे अफगानिस्तान में क्यों नहीं कर सकते हैं। वैसे भी काबुल दूतावास पर सात वर्ष पूर्व के हमले में अमेरिका की खुफिया एजेंसियों ने भी आईएसआई का हाथ माना था। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शायद इस समय भारत के साथ अच्छे संबंधों की कोशिश कर रहे हैं, पर अफगानिस्तान में भारत की विस्तृत और प्रभावी उपस्थिति पाकिस्तान की अफगान नीति के एकदम विरुद्ध है। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान में बड़े वर्ग को लगता है कि भारत वहां पांव जमाकर दरअसल अफगानिस्तान को उसकी डोर से बाहर खींच रहा है। यह बात वहां उठाई जाती रही है। इस कारण वहां भारत को क्षति पहुंचाने की उसकी नीति हो सकती है। वैसे भी अफगानिस्तान में अन्य हमलों में भी सीमा पर से आने वाले आतंकवादियों का हाथ रहा है जिसे कम करने के लिए ही वर्तमान अफगान सरकार ने पाकिस्तान से अच्छे संबंध बनाने की कोशिश की और इसमें सफलता न मिलने पर निराशा व्यक्त किया। तो आतंकवादी वहां पाकिस्तान की ओर से आते हैं और हमला करके चले जाते हैं यह स्थापित और पुष्ट तथ्य है।

इसके साथ जो नया आयाम जुड़ा है वह है 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अफगानिस्तान की यात्रा एवं नई संसद भवन को वहां की सरकार को सौंपने का प्रचारित कार्यक्रम। आतंकवाद चाहे वे अफगानिस्तान के अंदर रहकर संघर्ष कर रहे हों, या पाकिस्तान की सीमा से आकर उनका लक्ष्य वहां किसी कीमत पर संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को पांव न जमाने देना है। शासन की इस्लामिक व्यवस्था की उनकी अपनी सोच है जिसे तालिबान के शासनकाल में उनने क्रियान्वित किया था। वे इसके परे कुछ भी नहीं मान सकते। इसमें जब भारत वहां लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए कोई ठोस काम करता है तो फिर उसका विरोध आतंकवादी अपने तरीके से करेंगे ही। जरा सोचिए, लोकतंत्र का शीर्ष निकाय संसद का भवन ही आप बनाकर दे रहे हैं और उसमंें प्रधानमंत्री भाषण दे रहे हैं कि अफगानिस्तान मंे लोकतंत्र के मजबूत होने से पूरे क्षेत्र को लाभ होगा, भारत इसके प्रति पूरी तरह प्रतिबद्व है, वह अफगानिस्तान को इसके लिए हर संभव सहायता देता रहेगा तो इसकी प्रतिक्रिया आतंकवादियों के बीच कैसी होगी? जब हमारे प्रधानमंत्री छाती ठोंककर वहां आतंकवादियों से शांति का रास्ता अपनाने को कहते हैं तो उसका संदेश क्या जाएगा? इसके अलावा भी भारत वहां अफगानिस्तान के पुननिर्माण, प्रशासनिक कार्यक्षमता बढ़ाने, आतंरिक सुरक्षा को मजबूती देने..... आदि के अनेक कार्य कर रहा है। तो थोड़े शब्दों में कह सकते हैं कि आतंकवादी इस समय भारत द्वारा संसद भवन बनाकर सौंपने, उसमें प्रधानमंत्री के भाषण, अफगानिस्तान में लोकतंत्र की मजबूती तथा वहां शांति एवं स्थिरता में काम करने की गति तीव्र करने की भारतीय नीति का हिंसक विरोध कर रहे हैं। वे भारत को भयभीत कर वहां अपनी गतिविधियां रोकने के लिए मजबूर करना चाहते हैं। वाणिज्य दूतावासों से ही वहां व्यवसाय से लेकर निर्माण आदि के कार्य संपन्न होते हैं। इसलिए वाणिज्य दूतावास उनके निशाने पर हैं और रहेंगे। वैसे एक मत यह भी है कि पाकिस्तान के अंदर जो तत्व भारत के साथ संबंध सामान्य बनाने के विरोधी हैं वे इस हमले के द्वारा दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ाने के लक्ष्य को पूरा करना चाहते हैं। इसे भी हम खारिज नहीं कर सकते।

तो कारण हमारे सामने हैं और इनके अर्थ भी साफ हैं। इस बात को फिर याद दिलाना होगा कि आगे ऐसे और हमले होते रहेंगे। वैसे तो भारतीय मिशनों पर खतरा लंबे समय से रहा है और इसका ध्यान रखते हुए अफगानिस्तान सरकार की सहमति से इनकी सुरक्षा के लिए 2008 में ही भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस के कमांडो को तैनात किया गया था। हाल में खतरे के पूर्व आकलन के बाद काबुल, जलालाबाद, हेरात, कंधार और मजार-ए-शरीफ वाणिज्य दूतावासों पर ज्यादा कमांडो तैनात कर उनकी सुरक्षा बढ़ा दी गई थी। इसके परिणाम सामने हैं कि हमारे दूतावासों का न कुछ बिगड़ा है और न एक भी भारतीय का वहां बाल बांका हुआ है। किंतु इसमें निश्चिंत होने का कोई कारण नहीं है। आतंकवादी चाहे पाकिस्तान से भेजे गए हों या स्थानीय हों, अपने लक्ष्य को पाने के लिए वहां ज्यादा तैयारी से बड़े हमले कर सकते हैं। आतंकवादियों के भय से हम अपनी नीतियों और सक्रियताओं को कम नहीं कर सकते। अफगानिस्तान अब हमारा सामरिक साझेदार है और क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय हित के मद्दे नजर हम वहां से भागने का विकल्प नहीं चुनने वाले। तो फिर उपाय क्या है? भारत को इसका ध्यान रखते हुए एक बार फिर से अपने मिशनों ही नहीं, जो प्रमुख कार्यस्थल हैं, जहां सरकारी एवं गैर सरकारी कंपनियां कार्यरत हैं...उन सबकी सुरक्षा की समग्र समीक्षा करके आवश्यकतानुसार अफगानिस्तान सरकार की सहमति से अपनी सुरक्षा व्यवस्था और बढ़ानी चाहिए। हालांकि इसका अंतिम निदान अफगानिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत करने, उसके आर्थिक ढांचा को ताकत देने तथा उसकी स्वयं की सुरक्षा व्यवस्था को सशक्त और विश्वसनीय बनाने में है। भारत इन तीनों लक्ष्यों पर काम कर रहा है और उसमें तेजी लाने की आवश्यकता है।

अवधेश कुमार, ई.ः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

 

 

 

शनिवार, 9 जनवरी 2016

आतंकवाद विरोधी तैयारी और रणनीति की आमूल समीक्षा की जरुरत

 

अवधेश कुमार

तो पठानकोट ऑपरेशन मुंबई हमले से भी लंबा हो गया। जाहिर है, हमें अपनी कमजोरियों और विफलताओं पर ध्यान देने की जरुरत है। जरा स्थिति की समीक्षा करिए। किसी को कल्पना नहीं थी कि पठानकोट वायुसेना स्टेशन पर आतंकवादी हमले से निपटने में इतना समय लग जाएगा। समय उससे ज्यादा लग गया जितना 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमले में लगा था। तब 81 धंटे ऑपरेशन चला था। मुंबई हमला बड़ा था एवं उसमें मानवीय और संसधानों के क्षति बहुत ज्यादा थी। हालांकि उस समय एनएसजी को भेजने के फैसले और उसके वहां पहुंचने में ही 18 घंटे लग गए थे। पठानकोट में आतंकवादियों की घुसपैठ की सूचना मिलने के बाद तुरत एनएसजी का दस्ता पहुंच गया था। इस मायने में कह सकते हैं कि सरकार की प्रतिक्रिया त्वरित एवं समयपूर्व थी। बावजूद इसके वे इतने सुरक्षित क्षेत्र में हमला करने तथा इतने अधिक समय तक संघर्ष करने में सफल रहे। लेफ्टीनेंट कर्नल निरंजन तो मृतक आतंकवादी के शरीद में बंधे विस्फोटक से शहीद हो गए। इतने प्रशिक्षित अधिकारी का शहीद होना हमारे लिए बड़ी क्षति है, पर इसमें आवश्यक सतर्कता और आतंकवाद से निपटने में कुशलता की कमी भी दिखती है।

जी हां, यह ऐसा पहलू है जिस पर भारत को आत्मसमीक्षा की आवश्यकता है। ऐसे कई प्रश्न हैं जिनका उत्तर तलाशने की आवश्यकता है ताकि भविष्य में फिर ऐसी चूकें न हों। आखिर हमारे इतने बड़े अधिकारी यह क्यों नहीं सोच सके कि मृतक के शरीर में विस्फोटक हो सकता है? हमारी कमजोरियांे पर विचार करना इसलिए जरुरी है, क्योंकि भारत के लिए खतरा यहीं तक नहीं है। इस समय ही जो सूचना है अगर आठ आतंकवादी दरिया अज्ज की ओर से घुसे थे तो दो कहां गए? खुफिया इनपुट तो यही है कि वो दिल्ली की ओर प्रस्थान करने में सफल रहे हैं। यानी पंजाब से लेकर दिल्ली तक कहीं भी हमले की आशंका बनी हुई है। इसके अनुरुप सुरक्षा व्यवस्था एवं अतिसतर्कता की स्थिति कब तक बनाए रखी जा सकती है। किंतु हमारे पास चारा क्या है? पता नहीं ये कहां दूसरा पठानकोट दुहरा दें।

हम चाहे जितना दावा करें लेकिन आतंकवाद का सामना करने की हमारी तैयारी में भारी कमजोरियां हैं। आखिर आतंकवादी एके 47, 55 मोर्टार रायफल, ग्रेनेट लांचर सहित गोला आदि लेकर दो दिनों तक घूमते रहे और हमारी सुरक्षा एजेंसियां उनको पकड़ने या उनका पता करने तक में विफल रही। पूर्व पुलिस अधीक्षक की नीली बत्ती वाली गाड़ी लेकर करीब 35-36 कि. मी. घूमते रहे और उन्हें कोई रोकने वाला नहीं मिला। अगर वे फौजी वर्दी पहने थे तब भी किसी ने क्यों नहीं सोचा कि पुलिस की गाड़ी में फौजी क्यों घूम रहे हैं? हम महाशक्ति की ओर प्रयाण करने की उद्घोषणा कर रहे हैं। कल्पना करिए, क्या अमेरिका में या पश्चिम यूरोप के देशों में इतनी सूचना के बाद यह संभव होता? वैसे अगस्त 2014 में जासूसी के आरोप में एक जवान की गिरफ्तारी के बाद से पठानकोट वायुसेना अड्डे पर पर हमले का अलर्ट था। ताजा खुफिया इनपुट्स के बाद आईएसआई से जुड़े होने के शक में पिछले दो महीने में 14 लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। जानकारी के अनुसार पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले की साजिश एक साल से चल रही थी। पुलिस ने बेस कैंप की जानकारी पाकिस्तान तक पहुंचाने के आरोप में 30 अगस्त, 2014 को सेना के जवान सुनील कुमार को गिरफ्तार किया था।  वह राजस्थान के जोधपुर जिला के गांव गुटेटी का रहने वाला था। विडम्बना देखिए कि पुलिस वक्त पर चालान भी न्यायालय में पेश नहीं कर सकी और सुनील को जमानत तक मिल गई। यह कैसी सुरक्षित व्यवस्था है! जो जानकारी हमारे पास आई सुनील फेसबुक के जरिए आईएसआई की एक कथित एजेंट मीना रैणा के संपर्क में आया था। उसने मीना को वायुसेना के सीक्रेट्स बताए थे। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि आतंकवादियों ने इसी जानकारी के आधार पर हमले की साजिश रची।

पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भारत की रक्षा गोपनीयता जानने के लिए अपना तरीर्का बदल दिया है। पिछले दो महीने में दिल्ली और पंजाब से बीएसएफ के अब्दुल राशिद, राइफलमैन फरीद खान, हैंडलर कैफियतउल्लाह, वायुसेन के रंजीत और अश्विनी कुमार को, उत्तर प्रदेश से मोहम्मद एजाज और राजस्थान से दीना खान, इमामुद्दीन, पूर्व सर्विसमैन गोरधन सिंह राठौड़ और बीरबल खान की गिरफ्तारी हुई। दो महीने में गिरफ्तार 14 आरोपियों से पूछताछ में खुलासा हुआ कि इन लोगों ने सेना के ग्वालियर अड्डे और वायुसेना के बठिंडा और जैसलमेर अड्डे के बारे में जानकारी लीक की थी।  इनसे कुछ नक्शे और एयर स्ट्रिप्स के बारे में भी जानकारी मिली थी। इन आरोपियों ने भारत ब्रिटेन के संयुक्त अभ्यास इंद्रधनुष की भी जानकारी लीक की थी। क्या यह हमारी सुरक्षा व्यवस्था की विफलता नहीं है? इतनी जानकारियां ये आईएसआई को दे रहे थे और हमें भनक तक नहीं लगी। पता नहीं आने वाले समय में और कितने ऐसे घर के भेदिया पकड़ में आएं। जब घर में ऐसे भेदिए देशद्रोही हों तो दुश्मन को हमला करने के स्थान तक पहुंचने में हमेशा आसानी होगी। इसे कैसे रोका जाए यह पूरे सुरक्षा महकमे के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न है।

अब आइए और कुछ ऐसे प्रश्नों पर विचार करें जिनसे आतंकवाद के विरुद्ध हमारी तैयारियां एवं व्यवस्थाएं कठघरे में खड़ा होतीं हैं। सबसे पहला प्रश्न। आखिर क्यों लगा ऑपरेशन में इतना समय? यह सवाल हम सबको मथ रहा है। वायुसेना अड्डे की सुरक्षा समन्वय कमी नजर आई है। जब सेना बुलाई गई तो उसे जगह समझने में ही समय लगा। वायुसेना के पास ड्रोन और हेलिकॉप्टर हैं, पर उनको आतंकवाद के विरुद्व जितना सक्षम होना चाहिए नहीं हैं। उनने कुछ काम किया, पर अल्पकाल में उतना सटिक नहीं जितना वे कर सकते हैं। हम मानते हैं कि 18 वर्ग किमी का इलाका और वो भी सरकंडे से भरा हुआ होने के कारण सर्च ऑपरेशन मंें समय लगता है। किंतु यह भी साफ है कि इसका पहले से अभ्यास नहीं किया गया था। जब वो आतंकवादियों के रडार पर था तो सेना, एनएसजी आदि के एक समूह को पहले से उस क्षेत्र की पूरी जानकारी होनी चाहिए थी। यह आतंकवादी हमले के मॉक ड्रिल से हो सकता था जो नहीं किया गया। दूसरे, हमले की खुफिया सूचना थी कि पठानकोट में हमला होगा। तो उसे रोका क्यों नहीं गया। पठानकोट वायुसेना अड्डा हो सकता है इसे समझा जाना चाहिए था। वे इस जगह को चुनते इसे समझने के कई कारण थे। यह सीमा से केवल 25 किमी दूर है। यानी पहुंचना आसान है। यहां वायुसेना के 18 विंग हैं। मिग-21, मिग-29 और अटैक चॉपर तैनात हैं। यहां से चीन तक निगरानी होती है। आतंकवादियों को मालूम था कि यहां हमला करने से बड़ा नुकसान होता। दुनियाभर में इसका संदेश जाता। तो आकलन में हमसे बड़ी चूक हुई है। अगर उनको घुसपैठ करने से ही रोक दिया गया होता तो यह नौबत ही नहीं आती। पंजाब सीमा पर सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ है। पहले गुरुदासपुर हमले में और पठानकोट के लिएए घुसपैठ एक ही जगह से हुई है। तो यहां बीएसएफ विफल दिखती है। 5 या 6 लोग घुसकर हमारे इतने जवानों की जानें ले लें यह भी तो हमारी सुरक्षा पर प्रश्न उठाता ही है। मुठभेड़ में अब तक सात जवान शहीद हुए हैं। इनमें एनएसजी के एक लेफ्टिनेंट कर्नल, एक गरुड़ कमांडो व पांच डिफेंस सिक्योरिटी कोर (डीएससी) के जवान शामिल हैं। गृह सचिव राजीव महर्षि के अनुसार वायुसेना के आठ और एनएसजी के 12 जवान घायल हुए हैं। ध्यान रखिए अभी तक किसी आतंकी हमले में एनएसजी के एक साथ इतने सारे कमांडों घायल नहीं हुए हैं।

यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि आतंकवादी फिर वायुसेना अड्डे के अंदर कैसे पहुंच गए? गृह सचिव राजीव महर्षि का कहना है कि एनएसजी कमांडो पठानकोट में आतंकवादियों के सही ठिकाने के पता चलने का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही उनके पठानकोट एयरबेस के पास होने का पता चला, कमांडो ने कार्रवाई शुरू कर दी। उनके अनुसार आतंकवादियों को तकनीकी परिसंपत्तियों के पास पहुंचने से रोक दिया गया। अगर ऐसा नहीं होता तो देश को काफी क्षति हो सकती थी। यह तो ठीक है लेकिन इतने से आगे ऐसा न होगा इसकी आश्वस्ति नहीं मिलती। हम न भूलें कि आतंकवादियों ने एक साल में पंजाब में दूसरा बड़ा हमला करके यह संदेश दिया है कि वो कश्मीर मसले को अब पंजाब तक लाना चाहता है। संभव है आईएसआई की नजर भारत की नदियों पर है। पाकिस्तान के जितने न्यूक्लियर प्लान्ट हैं, वो उन नदियों के किनारे हैं, जिनका नियंत्रण भारत के पास है। वे आगे और हमला करेंगे। इसलिए आवश्यक है कि हमारी जितनी भयावह कमजोरियां उजागर हुईं है। उनको दूर करने के युद्धस्तर पर प्रयास हों। हालांकि यह मानना उचित नहीं है कि मोदी और नवाज मिलन की प्रतिक्रिया में ही यह हमला हुआ। उससे जोड़ना आसान है। आतंकवादी उसका विरोध करते हैं और बातचीत एवं संबंधों के सामान्य होने को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। पर ऐसे हमले की तैयारी के लिए ज्यादा समय चाहिए। आठ दिन के अंदर इस तरह का हमला संभव नहीं है। यह सुनियोजित हमला था एवं इसके लिए पहले से सारी तैयारियां की गईं थीं। उन्हें वायुसेना अड्डे में प्रवेश के लिए सबसे माकूल स्थान से लेकर अंदर के रास्तों का पता था। यह इतने कम दिन में संभव हो ही नहीं सकता। फिर भी हमें बातचीत में सतर्क तो रहना ही होगा। अच्छा है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बेंगलुरु दौरे से ही पूरे मामले का लगातार जायजा लिया और दिल्ली लौटते ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल और विदेश सचिव एस. जयशंकर सहित उच्चाधिकारियों की बैठक बुला ली। प्रधानमंत्री इन कमजोरियांे और विफलताओं पर गहराई से चर्चा करके उनको दूर करने का कदम उठाएं यही देश उनसे उम्मीद कर रहा है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

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