शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

जम्मू कश्मीर के जनादेश का अर्थ क्या है

अवधेश कुमार

भले जम्मू-कश्मीर में किसी पार्टी को बहुमत नहीं आया, पर वहां खुली आंखों कोई भी बदलाव की समां जलते देख सकता था। पहले और दूसरे चरण में जैसे ही 70 -71 प्रतिशत मतदान ने साफ कर दिया कि लोगों की आस्था भारत के संसदीय लोकतंत्र में बढ़ रही है। सभी 5 चरणों में कुल 65 प्रतिशत मतदाताओं द्वारा अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना कई दृष्टियों से असाधारण था। यह पिछले सारे चुनावों का रिकॉर्ड तो तोड़ा ही है, अन्य कई पहलू भी इसे असाधारण बनाते हैं। 2008 में 61.42 प्रतिशत और 2002 में 43.09 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया था। कंपकंपाती ठंड, कोहरे, लगातार आतंकवादी हमलाें, सामने लटकती मौत के खतरे और अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले अलगावादियों के बहिष्कार के बावजूद मतदाताओं का उत्साह अपने आप बहुत कुछ बयान कर रहा था। जम्मू में एक युवती कह रही थी मैंने उस उम्मीदवार को वोट दिया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेगा और युवाओं को उनकी प्रतिभा के अनुसार अवसर देगा और जिसका कोई पारिवारिक वंशवाद नहीं है। ध्यान रखिए कि दूसरे चरण के मतदान के बाद हर दिन बड़े छोटे आतंकवादी हमले हुए। उड़ी, त्राल और बारामूला ऐसे क्षेत्र थे जहां बड़े आतंकवादी हमले हुए, आतंकवादियों का यहां प्रभाव भी माना जाता है, पर यहां भी लोगों ने बढ़-चढ़कर वोट डाले। क्या इसे असाधारण नहीं माना जाएगा?

निस्संदेह, माना जाएगा। सैन्य शिविर पर हमला झेलने वाले उड़ी में 79 प्रतिशत मतदान हुआ। इस हमले में 11 सुरक्षाकर्मी और छह आतंकी मारे गए थे। आतंकी गतिविधियों के लिए बदनाम रहे बडगाम के चरार-ए-शरीफ इलाके में रिकॉर्ड 82.74 प्रतिशत मतदान हुआ। निस्संदेह, मतदान के बहिष्कार की अपील करने वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन सैयद अली शाह गिलानी के गृह नगर सोपोर में सबसे कम 30 प्रतिशत मतदान हुआ। पर सन 2008 के चुनाव में इस क्षेत्र में 20 फीसद से भी कम मतदान हुआ था। लोकसभा चुनाव में तो वहां एक प्रतिशत के आसपास ही मतदान हुआ था। तीसरे चरण की 16 सीटों पर जब  58 प्रतिशत मतदान हुआ जो आरंभ के दो चरणों से कम था तो लोगों ने कहा कि कहां गया उत्साह, पर वे भूल गए कि सन 2008 के चुनाव में वहां 49 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। इस दौरान कम से कम 20 आतंकवादी हमले हुए जिनमें 18 जवान 22 आतंकी और 9 नागरिक मारे गए। अंतिम तीन चरणों में हर बार एक सरपंच की हत्या हुई। जाहिर है, यह सब मतदाताओं को मतदान से दूर रखने के लिए ही था। लेकिन यहां यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि क्या मतदाताओं के इस उत्साह में किसी पार्टी को बहुमत तक पहुुुंचाने का भाव शामिल नहीं था?

अगर सतही तौर पर परिणामों का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष यही आएगा। किंतु हम इस पहलू को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि भाजपा को भले अपेक्षानुरुप सीटें नहीं आईं, पर उसने जम्मू कश्मीर के मतदाताओं को पक्ष और विपक्ष में आलोड़ित किया इसमें संदेह की रत्ती भर भी गंुजाइश नहीं। अलगाववादियों के कारण चुनाव बहिष्कार की राजनीति अगर कमजोर हुई तो भाजपा के कारण। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में उमड़ती भीड़ और लोगों का भाजपा की ओर आकर्षण ने भाजपा विरोधियों के अंदर यह भाव पैदा कर दिया कि अगर वे मतदान नहीं करेंगे तो भाजपा सत्ता में आ जाएगी। इससे आबोहवा बदलने लगी। उदाहरण के लिए त्राल और सोपोर को  लीजिए। त्राल दक्षिण कश्मीर में है और सोपोर उत्तर कश्मीर में। इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में लोकसभा चुनाव में सबसे कम मतदान हुआ था।

वहां एक मतदाता कह रहा था कि यह बीजेपी का डर है। हलमोग हर साल चुनाव का बहिष्कार करते थे। लेकिन इस बार लोग पोलिंग बूथ तक पहुंच रहे हैं। हमलोग डरे हुए हैं कि वोट नहीं किए तो बीजेपी इस सीट को जीत सकती है। बीजेपी की जीत कोई नहीं चाहता। त्राल विधानसभा क्षेत्र दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में है। यहां कुछ हजार सिखों के वोट हैं और 1,445 प्रवासी मतदाता हैं। यहां से भाजपा ने सिख उम्मीदवार को उतारा था। लोकसभा चुनाव में त्राल में कुल 1000 से भी कम वोट पड़े थे। इस बार इस विधानसभा क्षेत्र में 37 प्रतिशत मतदान हुआ। उत्तरी कश्मीर के सोपोर की चर्चा हम कर चुके हैं।  यह हुर्रियत चेयरमैन सैयद अली शाह गीलानी का जन्म स्थान है। उम्मीदवारों ने स्थानीय लोगों से मतदान केन्द्र तक आने की अपील की। इन्होंने कहा कि यदि वे मतदान नहीं करेंगे तो भाजपा को मदद मिलेगी। सोपोर में भाजपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। ऐसा भाजपा ने सज्जाद लोन की पार्टी पीपल्स कॉन्फ्रेंस को मदद करने के लिए किया है।
कश्मीर घाटी में विधानसभा चुनाव के अंतिम दौर के जिन इलाकों में चुनाव का सबसे ज्यादा बहिष्कार होता है, वहां आतंकवाद के सिर उठाने के बाद चुनाव में इस बार ज्यादा मतदाता शामिल हुए। श्रीनगर के आठ में चार विधानसभा क्षेत्र में मतदान दोपहर को 2008 का स्तर पार कर गया था। उड़ी में सेना के शिविर पर भयानक आतंकवादी हमले ने भले ही शहर को हिला कर रख दिया हो, लेकिन यह हमला मतदाताओं को अपने मताधिकार का उपयोग करने से रोक नहीं पाया। कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास स्थित इस शहर में सुबह से ही मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करने के लिए मतदान केंद्रों पर आते दिखे। एक ग्रामीण कह रहे थे ,मोहरा में आतंकवादी हमले के पीछे चाहे जो भी कारण रहा हो, हम अपने अधिकारों को छोड़ नहीं सकते। इलाके में कई तरह की समस्याएं हैं और हम हमारे प्रतिनिधियों से उनकी जवाबदेही चाहते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 8 दिसंबर को श्रीनगर के एसके स्टेडियम में चुनावी रैली को संबोधित किया। हालांकि घोषणा के अनुरुप एक लाख लोग नहीं आए, पर जितनी संख्या आई वह पर्याप्त थी। उसका असर भी वहां हुआ। आज अगर पीडीपी को वहां बढ़त मिली तो इसी कारण। अगर भाजपा वहां मौजूद नहीं होती या उसका भय नहीं होता तो हो सकता था परिणाम कुछ और होता। यह पूछा जा सकता है कि आखिर यह कौन सा बदलाव है जिसमें पुरानी पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है? तो यह घाटी की सोच और संस्कृति तथा रणनीतिक मतदानों की परिणति है। हालांकि हम सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस को दो जिलों में मिले मत एवं भाजपा को घाटी में प्राप्त 2.8 प्रतिशत वोट को न भूलें। नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस को यदि मत मिला तो इसका कारण रणनीतिक मतदान था।  यानी मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने इस आधार पर अपना निर्णय किया जो भाजपा को हरा सके उसे वोट देे। तो रिकॉर्ड मतदान के बावजूद किसी को बहुमत न मिलने का सूत्र यहां निहित है। कारण बहुमत का निर्धारण तो घाटी से ही मिलता। लेकिन लद्दाख में भाजपा को एक भी सीट क्यों नहीं मिली? वास्तव में भाजपा ने धारा 370 पर, लद्दाख को संघ शासित प्रदेश बनाने के मांग पर तथा पंडितों की पुनर्वापसी सहित अन्य मांगों पर खामोशी धारण करने का भी परिणाम उसे चखना पड़ा है। इनसे उसके अपने मतदाता भी रुठे, अन्यथा उसे ज्यादा सीटें आतीं। अगर ऐसा न होता तो नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस साफ हो गई होती।

हालांकि इसके बावजूद बदलाव की शुरुआत कश्मीर में हो गई है। भाजपा दूसरी सबसे बड़ी शक्ति के रुप में उभरी है जो उसके 44 प्लस से कम है, पर यह उपलब्धि और बदलाव भी छोटी नहीं है। हां, यह साफ है कि नरेन्द्र मोदी बाढ़ में लोगों के साथ खड़े होने, लगातार हर महीने की कश्मीर यात्रा और लोगांें को विश्वास मेें लेने की कोशिशों के बावजूद अभी घाटी में ठोस आधार बनाने में सफल नहीं रही। परिणाम के आधार पर सरकार गठन और उसकी स्थिरता पर समस्यायें साफ दिख रहीं हैं। पर दुनिया ने देख लिया कि वहां के बहुमत में लोकतंत्र के प्रति आस्था है, वे न आतंकवादियों के साथ हैं, न अलगाववादियों के। यह ऐसा पहलू है जो कश्मीर में बदलाव का सबसे ठोस स्तंभ के रुप में हमारे सामने दिख रहा है। भाजपा को घाटी में मत मिलना, सज्जाद लोन की ओर आकर्षण, लोगों का रणनीतिक मतदान करने को मजबूर होना......मोदी की श्रीनगर सभा की भीड़......आदि इस बदलाव के ही संदेश हैं। देखना होगा यह आगे सुद्ढ़ होता है, या फिर किसी दूसरी दिशा में मुड़ता है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

धर्म बदलाव पर बावेला

अवधेश कुमार

आगरा ने संसद से लेकर मीडिया तक भूचाल ला दिया है। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। हमारे नेताओं को तो अपनी संकीर्ण राजनीति के लिए मुद्दा चाहिए। यह हमारी राजनीति की विडम्बना है और त्रासदी भी कि वे किसी समस्या की तह तक जाने, उसमें विवेक और संतुलन से विचार कर प्रतिक्रिया देने, अपनी भूमिका निभाने की बजाय संकुचित राष्ट्रीय हित से विचार करते हैं। जिन नेताओं ने आगरा के 57 परिवारों के करीब 387 मुसलमानों के हिन्दू बनाए जाने या बन जाने को लेकर संसद से बाहर तक बावेला खड़ा किया हुआ है, बहिर्गमन कर रहे हैं उनमें से किसी एक ने भी वहां जाकर सच्चाई जानने और वहां यदि इस कारण सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है तो उसे रोकने की जहमत नहीं उठाई। यही नहीं कुशीनगर में और भागलपूर में कई हिन्दू परिवारों के ईसाई बनने की खबर सुर्खियों में है पर उसे लेकर कोई बावेला नहीं। आगरा धर्म परिवर्तन, परावर्तन या घर वापसी जो भी कहिए, उसके प्रमुख आरोपी पुलिस गिरफ्त में है। बावजूद हंगामा नहीं रुक रहा। आज की राजनीति में सबसे बड़ा कर्म मीडिया में बयान दे देना है और उपग्रह की कृपा से चैनल उसे 24 घंटे दिखाते हैं। लेकिन सच तो यही है कि इनकी आक्रामक शब्दावलियों से मामला सुलझने के बजाय उलझता है, जटिल होता है। ऐसा ही इस मामले में हुआ है।

भारत विविधताओं से भरा देश है और इसमें हमारे पूर्वजों ने एकता के तंतु तलाशकर इसको एक राष्ट्र के रुप में कायम रखने का सूत्र दिया। किसी भी स्थिति में यदि विविधता के एकता का वह सूत्र टूटता है तो उससे देश की आंतरिक शांति और स्थिरता को खतरा पहुंचेगा। यहां हर मजहब, पंथ को अपने अनुसार उपासना पद्धत्ति अपनाने, उसके अनुसार जीने का अधिकार है और उस पर किसी प्रकार का अतिक्रमण या उसके निषेध की कोशिश हमारी एकता के तंतु को तोड़ना आरंभ कर देगा। लेकिन इस समय जिस ढंग का बावेला मचा है उसमें सच तक पहुंचना आसान नहीं है। अगर हमें सच को समझना है, सही निष्कर्ष तक जाना है, झूठ और सच के अंतर को अलग करना है तो फिर जरा इस शोर से बाहर निकलकर विचार करना होगा। 

वास्तव में इसके कुछ दूसरे पक्ष हैं उन्हें भी देखना होगा। मसलन, संविधान के मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 25 में हर व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, उसके प्रचार करने का अधिकार है। इसलिए यदि कोई अपने धर्म का बिना सांप्रदायिक भावना फैलाये प्रचार करता है तो वह संविधान का पालन करता है। उसे आप रोक नहीं सकते। उसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपना मजहब, पंथ कुछ भी बदलता है तो उसे उसका अधिकार है। अगर कोई ऐसा करता है तो उसके पीछे कुछ प्रेरणा हो सकती है, वह प्रेरणा कोई व्यक्ति भी दे सकता है। इसलिए किसी को अपना मजहब बदलने के लिए प्रेरित करना भी अपराध नहीं हो सकता। यहां तक यदि हमारे राजनेता और मीडिया के पुरोधा समझने की कोशिश नहीं करेंगे तो फिर समस्या और जटिल होगी। समस्या तब आएगी, संविधान और कानून विरुद्ध तब होगा जब आप किसी को प्रेरणा देने में लालच लोभ का उपयोग करते हैं, उसे बरगलाते हैं, या भयभीत करते हैं। यदि व्यक्ति भय से, लालच से या गलत बात बताने से अपना मजहब बदलने को प्रेरित होता है तो वह संविधान एवं कानून दोनों की दृष्टि से अमान्य है। कई राज्यों ने अपने-अपने यहां धर्म परिवर्तन पर कानून बनाया हुआ है और उसके अनुसार वह कार्रवाई करती है।

अब इन कसौटियों पर आगरा की घटना को देखें। वहां मुसलमान से हिन्दू बनने वाले अत्यंत ही गरीब तबके के हैं। वे पता नहीं बंगलादेशी हैं या पश्चिम बंगाल के हैं। कहा गया कि उनके पूर्वज कुछ ही दशक पूर्व हिन्दू से मुसलमान बने। यह सच है या झूठ इसकी जांच हो सकती है। लेकिन इससे कोई अंतर नहीं आता। मूल प्रश्न यह है कि क्या बजरंग दल या धर्म जागरण मंच ने उनको बरगलाकर, प्रलोभन देकर या डराकर ऐसा किया? पहली नजर में ही यह असंभव लगता है कि एक साथ इतने परिवारों को कोई भय, प्रलोभन या बरगलाकर मजहब छोड़ने को बाध्य कर देगा। यह भी साफ है कि जो हुआ वो खुले में हुआ। उस कार्यक्रम के समाचार स्थानीय समाचार पत्रों में घटना के पहले ही आ गये थे। दूसरे, जिस दिन परिवर्तन का कार्यक्रम था उस दिन भी मीडिया को बुलाया गया था। उसकी पूरी वीडियो फुटेज हमारे पास उपलब्ध है। बाजाब्ता बैनर लगा था बुद्धि शुद्धि कार्यक्रम, पुरखों की घर वापसी। यानी छिपकर गोपनीय तरीके से कुछ नहीं हुआ। वे सारे स्नान करके आए, पुरुषों ने जनेउ पहने, उनको कलेवा पहनाया गया, फिर गंगाजल का पान और सबने मिलकर हवन किया। उस हवन में सबने अपनी टोपी डाली। सारा कार्यक्रम आर्य समाज की परंपरागत पद्धति से हुआ, इसलिए शपथ पत्र पर उनके हस्ताक्षर कराए गए। 

इन सारे तथ्यों को देखने के बाद यह मानना मुश्किल है कि उनको यह पता ही नहीं हो कि वे मुसलमान से हिन्दू बन रहे हैं। यह हो सकता है कि उनने कहा हो कि हमारे पास राशन कार्ड नहीं हैं, मतदाता पहचान पत्र या आधार कार्ड नहीं है और ऐसा करने वालों ने सब बनवा देने का वचन दिया हो। यह समाचार भी मिला है कि आयोजकों में से कुछ बात कर रहे थे कि अब इनका हिन्दू नामकरण करके मतदाता बनवाना है और आघार कार्ड भी बनवा देना है। यहां तक तो सच लगता है। पर क्या यह प्रलोभन की श्रेणी में आएगा? क्या इतने के लिए कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपना मजहब बदल लेगा? जाहिर है, इसको गले उतारना संभव नहीं है। इसके अलावा कोई ऐसी बात सामने नहीं आई है जिससे यह जबरन, प्रलोभन वश या बरगालकर किया गया कार्यक्रम लगे। तब प्रश्न है कि उनमें से कुछ लोग क्यों कह रहे हैं कि उन्हें बताया ही नहीं गया उनको मुसलमान से हिन्दू बनाया जा रहा है? कुछ महिलाओं की आंखों से निकलते आंसू बता रहे हैं कि जो कुछ हुआ उससे उनके अंदर पीड़ा है। वो पीड़ा किन कारणों से है यह बात अलग है।

एक व्यक्ति इस्माइल, जिसका नाम राजकुमार रखा गया था उसके द्वारा थाना में प्राथमिकी दर्ज कराई गई। कोई भी देख सकता है कि यह भी दबाव में हुआ। जिस ढंग से मुसलमान समुदाय के लोग सड़कों पर उतरे, वे लोग पहले उस बस्ती में गए, वहां बातचीत की और फिर आम तौर पर जैसा हमारे समाज में होता है जैसे पहले उनको मुसलमान से हिन्दू बनने के लिए समझाया बुझाया गया उसी तरह उनको इसे अस्वीकारने के लिए समझाया बुझाया गया। इस समय मुस्लिम नेताओं, उलेमाओं, की गतिविधियां उस मुहल्ले में तेज हो चुकी है, उन्हें अक्षर ज्ञान और कुरान शरीफ पढ़ाये जा रहे हैं। ऐसा नहीं किया जाता तो वो गरीब लोग, जिनके पास अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई एक दस्तावेज तक नहीं, वो कहां से प्राथमिकी की हिम्मत करते। लेकिन अब प्राथमिकी दर्ज हो गई है तो फिर जांच निष्पक्ष और दबावरहित हो। ऐसे अधिकारी जिसका रिकॉर्ड बेदाग हो उसे जांच का जिम्मा दिया जाए। जांच और कानूनी कार्रवाई पूरी तरह राज्य का मामला है। राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार है। तो फिर उस जांच की प्रतीक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिए।  

वैसे यह सच है कि कई हिन्दू संगठन लंबे समय से घर वापसी के नाम पर इस प्रकार का आयोजन कर रहे हैं। आर्य समाज, हिन्दू महासभा, शंकराचार्यों के संस्थान.......लेकिन वो इतनी शांति और सहमति से होती है कि उसे लेकर शायद ही हंगामा होेता है। संघ परिवार के घटक भी करते हैं, पर हर बार ऐसा नहीं होता। संघ का संगठन धर्म जागरण मंच यह कार्य करता है। जो सब आर्य समाज के तरीके से होता है। वैसे ईसाई या मुसलमान बनना जितना आसान है उतना हिन्दू बनना नहीं। यहां जाति है। हिन्दू एक जातिविहीन समाज नहीं कि बस आप हिन्दू बन गए। इसलिए इस प्रश्न का निदान कठिन है कि किसी को हिन्दू बनना है तो वह किस जाति का होगा। अगर किसी को धर्म जागरण मंच, या बजरंग दल हिन्दू बना दे और घोषित कर दे कि ये अमुक जाति के हो गए तो वो जाति उसे स्वीकार कर ही ले यह आवश्यक नहीं। जहां तक मैंने इसे समझने की कोशिश की है इन लोगों ने जगह-जगह उनके पूर्वजों के इतिहास को खंगाला है और उससे जानने की कोशिश की है कि परिवर्तन के पहले ये किस जाति के थे। कई जगह ये उस जाति का सम्मेलन बुलाते हैं, उनमें उन मुसलमानों को भी बुलाते हैं जिनको हम धर्म परिवर्तन कहते हैं और ये परावर्तन या घर वापसी। उन्हें बताया जाता है कि आप इस जाति के थे और यदि आप वापस आते हैं तो आपकी रोटी बेटी का संबंध इस जाति के लोग करने को तैयार हैं। इस तरह कोशिश तो योजना पूर्वक हो रही है। किंतु, भारत में जाति की जटिलता को देखते हुए यह आसान नहीं है। इसलिए कई घटनायें ऐसी भी हुईं कि वे समझाने पर तैयार तो हुए लेकिन उनकी परेशानी बढ़ गई। इसलिए हिन्दू संगठनों के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है हिन्दू समाज के अंदर जाति की खाई, उंच नीच छूताछूत....के अंत के लिए अभियान चलाना। अगर कोई हिन्दू से धर्म बदला तो उसका सबसे बड़ा कारण यह जातिभेद ही रहा है। लेकिन जो नेता चीत्कार कर रहे हैं उनको इन सबसे कोई लेना देना होगा ऐसा लगता नहीं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

श्रीनगर की सभा का संदेश

अवधेश कुमार
सामान्यतः चुनाव में किसी पार्टी के बड़े नेता रैलियां करते हैं। यह एक सामान्य घटना होती है। पर श्रीनगर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली इस श्रेणी से कई मायनों में भिन्न थी। इसलिए इसका महत्व अलग है। सबसे पहले तो शेर ए कश्मीर स्टेडियम में रैली करने का साहस करना ही महत्वपूर्ण है। 30 वर्ष में किसी नेता की यहां रैली नहीं हुई। इसके बगल के स्टेडियम में अवश्य रैलियां हुईं। अटलबिहारी वाजपेयी की हुई, मनमोहन सिंह की भी हुई। पर वो भी चुनावी रैलियां नहीं थी। नरेन्द्र मोदी ने यहां चुनावी रैली करके एक साथ कई संदेश दिए हैं। हालांकि उन्होंने एक बार भी पाकिस्तान का नाम नहीं लिया, पर सीधा संदेश उसके लिए था कि वह यह समझने की भूल न करे कि अब भी उसके पिट्ठुओं के हाथों घाटी का नियंत्रण है। भाजपा जैसी पार्टी यहां अगर रैली कर पा रही है तो इसका सीधा अर्थ यह है कि अलगावावादी हाशिये पर धकेले जा चुके हैं। इससे दुनिया में भी भारत के अनुकूल ठोस संकेत गया है। इस रैली को कवर करने के लिए दुनिया के महत्पूर्ण समाचार संस्थानों के संवाददाता वहां उपस्थित थे और उनने देखा कि कितनी भारी संख्या में लोग आए।

वास्तव में जिस तरह जम्मू कश्मीर के लिए अन्य राज्यों की तरह ही यह तो महत्वपूर्ण है कि वहां किस पार्टी को बहुमत या सबसे ज्यादा सीटें मिलतीं हैं, पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वहां कितनी संख्या में लोग मतदान कर रहे हैं ठीक उसी तरह इस रैली में मोदी ने क्या कहा इसका महत्व तो है पर शांतिपूर्वक इतनी बड़ी रैली कर लेना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।  इससे यह साबित हो जाता है कि आतंकवादियों के लगातार हिंसा करने की कोशिशों, मतदान न करने की धमकियों तथा अलगाववादियों के बहिष्कार के बावजूद लोगों ने रैलियों में भागीदारी की और भारी संख्या में मतदान किया। आखिर मोदी की रैली में आने से रोकने के लिए तीन दिनों पूर्व से ही आतंकवादी हमलों का जो सिलसिला आरंभ हुआ वह रैली के पूर्व तक जारी था। सच कहें तो एक दिन में चार आतंकवादी हमला प्रदेश के हाल के वर्षों का सबसे बड़ा हमला था। बावजूद इसके रैलियों में लोग आए और मोदी को पूरी तरह सुना। विरोधी यह आरोप लगा रहे हैं कि भीड़ आई नहीं लाई गई थी। सामान्यतः यह आरोप विरोधी हमेशा लगाते हैं। इसलिए इस बहस में पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं कि लाए गए थे, आए थे, किस तरह के लोग आए थे, क्यों आए थे..... आदि आदि। श्रीनगर की दृष्टि से यह बहुत बड़ी भीड़ थी, इसलिए इसे एक सफल सभा मानी जाएगी। अभी तक घाटी में किसी नेता की इतनी बड़ी सभा नहीं हुई।

चूंकि यह चुनावी सभा थी इसलिए मुख्य फोकस पार्टी को वोट दिलाने पर होना था। घाटी में बदलती सोच के बीच इस चुनावी सभा में मोदी ने जो कुछ कहा उसके कुछ विन्दुओं पर सहमति-असहमति स्वाभाविक है। लेकिन उनके भाषण का मुख्य थीम क्या था? यही न कि हम कश्मीर में बिना भेदभाव के विकास और शांति के लिए प्रतिबद्ध हैं, लोगों की पीड़ा और दुख को अपनी पीड़ा और दुख समझते हैं और हमने शासन में आने के समय से अपने कार्यों द्वारा यह प्रमाणित किया है।

अगर हम पूरे भाषण का संक्षिप्त सिंहावलोकन करें तो इसे मुख्य नौ विन्दुओं में बांट सकते हैं। सबसे पहले इसमें कश्मीर के लोगों को यह विश्वास दिलाना था इस प्रदेश में इतनी क्षमता है कि यहां के नवजवानों को शिक्षा या रोजगार के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि बाहर के लोग यहां आ सकते हैं। दूसरे, यह इसलिए नहीं हुआ कि अब तक के शासन ने विकास और शांति के लिए ईमानदारी और संकल्प से काम नहीं किया। तीसरे, कश्मीर के लोगों की समस्या का समाधान एक ही है, विकास। मोदी विकास तथा सबका साथ सबका विकास का नारा हर जगह उछालते हैं। इसके द्वारा उन्होंने यह संदेश दिया कि हम यहां किसी के बीच भेदभाव नहीं करते। चौथा, विकास के लिए सड़कों सहित आधारभूत संरचना के विस्तार तथा पन्न बिजली उत्पादन के कारखाना लगाने की बात की। यानी एक साथ पर्यटन एवं ठोस विकास की आधारशाीला रखने के वायदे। पांच, पुलिस और सेना को खलनायक मानने की जगह उनके बलिदान को याद कीजिए। यानी हमारी आपकी रक्षा में यहां 33 हजार पुलिस ने अपनी जान दी है। छठा, सेना ने बाढ़ में स्वयं जान देकर हमारी जान बचायी, लेकिन यदि गलती करेंगे तो सजा भी मिलेगी। उनने साफ किया कि दो युवकों को गोली मारने के मामले में पहली बार सेना ने गलती मानी और उन पर मुकदमा दर्ज किया। यह आगे भी होगा। सातवां, कश्मीर के प्रति अपना लगाव दिखाना। यानी लगाव ऐसा है कि मैं हर महीने यहां आया हूं और आगे भी आउंगा। बाढ़ के समय आया और 1000 करोड़ की घोषणा की, दीपावली मनाने की जगह आपके बीच आया। आठवां, कश्मीर के लिए अटल जी ने जम्हूरियत, इन्सानियत एवं कश्मीरियत की जो बात की उसी रास्ते चलकर कश्मीर के आन बान शान को वापस लाउंगा। नौवां, मुसलमानों के प्रति भेदभाव का मेरा चरित्र नहीं। इसके लिए कच्छ में बहुसंख्य मुस्लिम आबादी के होते हुए भकंप से नष्ट जिले को सबसे विकसित जिला बनाने का उदाहरण दिया।

ध्यान रखिए जैसा मैंने आरंभ मे कहा कि मोदी ने न तो पाकिस्तान का नाम लिया और न ही यहां पर आतंकवादियों, अलगाववादियों के बारे में कोई बात की। यही बात वे झारखंड की सभाओं में बोल चुके थे। आम धारणा यही थी कि जिस तरह पिछले कई दिनों से भयानक आतंकवादी हमले हुए हैं तथा उन हमलों में पाकिस्तान की सामग्रियां, सेना द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुएं, अस्त्र मिले हैं उसके मद्दे नजर मोदी अवश्य इसे अपने भाषण के मुख्य अंशों में शामिल करेंगे। पर उनका भाषण इस धारणा के विपरीत था। साफ है कि यह एक रणनीति थी और इसक उद्देश्य भी साफ था। हालांकि कच्छ का उदाहरण देकर उन्होंने बता दिया कि पाकिस्तान का दोष है तो भी मैं यहां उनका नाम न लेकर केवल आपके और आपके हित की बात करुंगा और उसे पूरा करुंगा। कुल मिलाकर मोदी ने यह स्वीकार किया कि कश्मीरी अवाम की समस्यायें बढ़ी हैं, दुख बढ़े हैं लेकिन आपका दुख मेरा दुख है, आपकी पीड़ा ये मेरी पीड़ा है, आपकी मुसीबत मेरी मुसीबत है....यह कहकर उन्होंने मरहम लगाने एवं अविश्वास की खाई को पाटने का काम किया। और संकल्प यह कि हमें कश्मीर को नई उंचाइयों पर ले जाना है। पर्यटन की चर्चा करते हुए यह कहने का उद्देश्य क्या हो सकता है कि हिन्दुस्तान के पास दुनिया को दिखाने के लिए कश्मीर से बढ़िया और क्या है.?

चुनावी सभा थी तो अपनी पार्टी को बहुमत देने की अपील होगी ही। मोदी की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए...,‘ जम्मू कश्मीर के भाइयों, जो बुरे थे उनसे मैं आपको बाहर निकालने आया हूं। ...... कश्मीर में आपने कांग्रेस की सरकार देखी, बाप बेटे की सरकार देखी, बाप बेटी की सरकार देखी......। आपको क्या दिया? इनने अपना तो कल्याण किया, आपको कुछ नहीं दिया। एक बार मुझे मौका दीजिए। आतंकवाद तो लगभग खत्म हुआ, भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ। भ्रष्टाचार नहीं जाएगा तो कश्मीर का विकास नहीं।’ यानी जो भी सरकारें आईं सबने भ्रष्टाचार किया है, अगर वे ठीक से काम करते तो कश्मीर इस समय दुनिया का स्वर्ग होता। यही तीनों पार्टियों पर सबसे तीखा हमला था और इसका राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है। उन्होंने कहा कि नेपाल में दक्षेस बैठक के दौरान मैने कहा कि हम जो पड़ोस के देश है। हम किस बात के लिए लड़ रहे हैं, किसके लिए लड़ रहे हैं? आओ हम कंधे से कंधा मिलाएं और गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ें, हमें लड़ना है बेरोजगारी, के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ.....। तो यही नारा कश्मीर के लिए है। यहां आपस में लड़ने की जगह हम भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी के खिलाफ लड़ेंगे और कश्मीर को भारत का स्वर्ग फिर से बनाएंगे। इसलिए अपील कि मैं आपकी सेवा करने आया हूं। आप हमें सेवा करने का मौका दीजिए। पूरे विश्व में आज हिन्दुस्तान की जय जयकार क्यों हो रही है? इसलिए कि 125 करोड़ देशवासियों ने पूर्ण बहुमत की सरकार चुनी है। मोदी को कोई देखता है तो सोचता है कि इसके पीछे 125 करोड़ लोग हैं, इसलिए सीना तानकर खड़ा हो जाता है। इसलिए सीना तानकर खड़ा होना है तो पूर्ण बहुमत की भाजपा की सरकार बनाइए और कंधे से कंधा मिलाकर भ्रष्टाचार से बेरोजगारी से मुक्ति दिलाए, कश्मीर को नई उंचाइयों पर ले जाएं...।
तो इस तरह अंतिम वोट की अपील को अलग कर दें जो स्वाभाविक था कि मोदी ने एक सुस्पष्ट थीम की तरह श्रीनगर सभा को संबोधित किया।  इसकी प्रभाव की परीक्षा तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा। पर इस समय यह मानने में कोई समस्या नहीं कि मोदी ने इस सभा के द्वारा कश्मीर के अवाम, सम्पूर्ण भारत, सीमा पार पाकिस्तान, आतंकवादियों तथा विश्व समुदाय को कश्मीर की एक साकार तस्वीर और उसकी बदलती हुई फिजां का दर्शन कराया है। इसका असर आने वाले समय में और मुखर रुप में देखने को मिलेगा।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

पश्चिम बंगाल का राजनीतिक टकराव

अवधेश कुमार

कोई भी महसूस कर सकता है कि पश्चिम बंगाल ममता बनर्जी एवं भाजपा के बीच राजनीतिक टकराव का एक नया और सबसे बड़ा मोर्चा बन गया है। संसद में हमने देखा कि किस तरह तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने सहारा की कथित लाल डायरी का मामला उछालकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को कठघरे में खड़ा करने की रणनीति अपनाई। यह एक दिन पहले कोलकाता रैली में अमित शाह द्वारा ममता बनर्जी पर किए गए हमले और पश्चिम बंगाल को तृणमूल कांग्रेस मुक्त करने की घोषणा के बाद आया है। मामला कहां तक पहुंच गया है इसका प्रमाण है ममता द्वारा प्रधानमंत्री की आदर्श ग्राम योजना से अपने सांसदों को हटने का निर्देश। अब तृणमूल के सांसद एक भी गांव गोद नहीं लेंगे। दोनों पार्टियों का जैसा तेवर है और हमने ममता बनर्जी का जो राजनीतिक आचरण आज तक देखा है उसमें इस संघर्ष का आगे और उग्र और आक्रामक होना निश्चित है। हमने दोनों पार्टियों के बीच हिसंक टकराव देख रहे हैं, लोगों को मरते और घायल होते भी देख रहे हैं। जाहिर है, यदि टकराव इस दिशा में बढ़ता है तो राजनीति और स्वयं पश्चिम बंगाल के लिए काफी चिंताजनक स्थिति होगी।

हालांकि ममता बनर्जी को इस संघर्ष में ज्यादातर भाजपा विरोधी पार्टियों का समर्थन नहीं मिला है। इसका कारण साफ है। इस समय उन्होंने सारधा चीट फंड घोटाले में पार्टी नेताओं की गिरफ्तारी एवं उनके घर छापेमारी को लेकर अपना तेवर कड़ा किया है। इस मामले में वो जिस सीमा तक चलीं गईं वह राजनीति के किसी मापदंड के तहत नहीं आता। राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, पर बगैर ठोस कारण के किसी नेता की रैली पर आप कैसे रोक लगा सकते हैं? ममता बनर्जी ने अमित शाह की प्रस्तावित रैली को प्रतिबंधित कर दिया। जिस ढंग से ममता रैली न होेने देने पर अड़ गईं थीं वह लोकतंत्र के किसी दायरे में नहीं आता था। जिस वामपंथी शासन को ममता लोकतंत्र विरोधी, फासीवादी, विरोधियों का दमन करने वाला करार देतीं थीं खुद उनका व्यवहार उसी तरह का हो गया। हालांकि वामपंथी सरकार ने अनावश्यक कभी किसी की रैली प्रतिबंधित करने का कदम नहीं उठाया। आप रैली के समानांतर रैली से उसका उत्तर दीजिए, लेकिन बिना किसी कारण के आप किसी नेता की सभा को कैसे रोक सकते हैं?

कोलकाता के विक्टोरिया हाउस के सामने अमित शाह की रैली आयोजित हो या न हो यह राज्य में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच राजनीतिक संघर्ष का विषय हो गया था। भाजपा स्प्लैनेड स्क्वेयर में शाह की रैली करना चाहती थी, उसी अनुसार तैयारी कर रही थी, किंतु कोलकाता पुलिस और फिर सिटी कॉर्पाेरेशन ने इजाजत नहीं दी। कोलकाता पुलिस का कहना था कि विक्टोरिया हाउस हैवी ट्रैफिक वाली जगह है, ऐसे में रैली की इजाजत देने से लोगों को परेशानी होगी। मजे की बात देखिए कि तृणमूल कांग्रेस 21 जुलाई को ठीक इसी जगह पर पार्टी कार्यकर्ताओं की सालाना सभा का आयोजन कर चुकी थी। साफ है कि यह एक अहंकारी और अलोकतांत्रिक ज़िद थी। अंततः न्यायालय ने ममता को पीछे हटने को मजबूर कर दिया। कोलकाता उच्च न्यायालय ने ममता सरकार के रवैये की आलोचना करते हुए भाजपा को विस्टोरिया हाउस के सामने स्प्लैनेड स्क्वेयर में अमित शाह की रैली की सशर्त अनुमति दे दी। सरकार द्वारा सांप्रदायिक तनाव भड़काने सहित कई प्रकार की साजिश की आशंका के जवाब में उच्च न्यायायलय ने कहा कि ठीक है हम  रैली पर नजर रखने के लिए 3 सदस्यीय टीम बना देते हैं और बना दिया।

यहां प्रश्न भाजपा का नहीं था। आप किसी पार्टी को पसंद न करें, या आपका उससे विरोध है, इसलिए उसे प्रचार प्रसार की अनुमति नहीं देंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा? अगर ममता बनर्जी को लगता है कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार सीबीआई को हथियार बनाकर उनके नेताओं को निशाना बन रही है तो इसके लिए राजनीतिक एवं कानूनी दोनों स्तरों पर संघर्ष के रास्ते हैं। वास्तव में सारधा चीट फंड घोटाले में उनके सांसदों के खिलाफ जैसे-जैसे सीबीआई का ंिशकंजा कसा है ममता का तेवर उग्र हुआ है। उन्होंने सड़कों पर उतरकर स्वयं मार्च किया और धर्मतल्ला में सभा को संबोधित किया। हालांकि शारधा चीटफंड घोटाले की जांच की आग उड़ीसा से लेकर असम तक पहुंच चुकी है। उड़ीसा में नवीन पटनायक के करीबी नेता भी इसकी जद में आ गए हैं, पर पटनायक ने ऐसा रवैया नहीं आया। कांग्रेस में नरसिंह राव सरकार में गृह राज्यमंत्री रहे असम निवासी मतंग सिंह एवं उनकी पूर्व पत्नी मनोरंजना सिंह से भी पूछताछ हुई है। कांग्रेस ने ऐसा तेवर नहीं अपनाया जैसा ममता ने अपनाया है। ममता कह रहीं हैं कि केंद्र सरकार जांच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल कर रही है। हमारे नेताओं और सांसदों पर फर्जी आरोप लगाए जा रहे हैं। ताकत की यह लड़ाई नहीं थमी तो तृणमूल दिल्ली तक जाएगी और वहां प्रदर्शन करेगी। सीबीआई की जांच उच्चतम न्यायायल की मौनिटरिंग मंें चल रही है। ममता को अगर समस्या है तो न्यायालय में जाना चाहिए। वे भाजपा के खिलाफ राजनीतिक अभियान भी चलायें, लेकिन वे उसी तरह भाजपा पर टूट पड़ीं हैं जैसे कभी वामदलों विशेषकर माकपा पर टूटतीं थी। हालांकि इस मामले में उनको प्रदेश की किसी पार्टी का साथ नहीं मिलने वाला। माकपा का तो अधिकृत बयान है कि ममता सीबीआई जांच मंे बाधा डालने की कोशिश कर रहीं हैं।

उनके ही राज्यसभा सांसद कुणाल घोष, जो इस समय सारधा घोटाले में जेल में बंद हैं, ने जेल में आत्महत्या करने की कोशिश की एवं आत्महत्या नोट में ममता बनर्जी का नाम लिखा है। इसमें केन्द्र सरकार क्या कर सकती है? कुणाल ने पहले ही चेतावनी दी थी कि अगर इसके असली दोषी को जेल में नहीं डाला गया तो वे आत्महत्या कर लेंगे और उनने ऐसा करने की कोशिश की। यह न केन्द्र सरकार ने करवाया न सीबीआई ने। इस भ्रष्टाचार के दाग ने ममता के सफेद चादर पर कालिमा जड़ दिया है। ममता की मूल शक्ति उनकी ईमानदारी और सादगी है। इस पर यदि प्रश्न खड़ा होता है तो उन्हंे गुस्सा आना स्वाभाविक है। पर वे क्यों भूल रहीं है कि यह घोटाला वर्तमान सरकार के आने के पूर्व सामने आया एवं जांच पहले से चल रही है। यह साफ हो गया कि लोगों का पैसा लेकर कंपनी ने गलत तरीके से खर्च किया, ऐसे चैनल चलाए गए एवं अखबार निकाले गए जिनसे वामपंथ के विरुद्ध एवं ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश हुई। कुणाल घोष को ममता ने इसी का इनाम सांसद बनाकर दिया। हां, इसमें ममता शामिल हैं, इस पर दो राय हो सकती है, लेकिन यदि आपके नेतृत्व में काम करने वाले ऐसा कर रहे थे, जिन्हें आप पुरस्कार दे रहीं है तो आप पर प्रश्न उठेगा। पर सीबीआई ने न तो उनसे पूछताछ की कोई बात की है न उनके खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई का संकेत ही दिया है। बावजूद ममता बनर्जी कह रहीं है कि हिम्मत हो तो मोदी सरकार व सीबीआइ मुझे गिरफ्तार करके दिखाए। क्यों? साफ है कि वो अपनी एवं पार्टी की गिरती छवि से परेशान हैं।

एक बड़ी वजह भाजपा का प्रदेश में उभार है। जिले जिले में पूर्व माकपा या दूसरी वामपंथी पार्टियों के सदस्य भाजपा में शामिल हो रहे हैं, कुुछ कांग्रेस के लोग भी आ रहे हैं और उनका टकराव तृणमूल से उसी तरह हो रहा है जैसे कभी वामदलों विशेषकर माकपा के साथ तृणमूल का होता था। हालांकि यह पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक नये दौर की शुरुआत है जिसे हम अपने नजरिये से विश्लेषित कर सकते हैं। किंतु यह सच है कि भाजपा तृणमूल के समानांतर एक बड़ी ताकत के रुप में उभर रही है। अमित शाह की रैली में उमड़ी भीड़ इसका प्रमाण था। भाजपा आज माकपा का स्थानापन्न कर रही है तथा दोनों पार्टियों में हिसंक टकराव बढ़ रहा है। इस स्थिति का जितनी जल्दी अतं हो उतना ही अच्छा। ममता मुख्यमंत्री के नाते यह समझें कि राजनीतिक विरोध एवं निरंकुश निर्णय में अंतर होता है। वो भाजपा से वैचारिक स्तर पर लड़ें यह उनका अधिकार है। उसी तरह भाजपा को भी उनके खिलाफ अहिंसक संघर्ष का अधिकार है। सारधा घोटाला हुआ है तो उसकी जांच होगी और जो चपेटे में आयेंगे उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी। इसका निदान उच्चतम न्यायालय कर सकता है, न कि हम किसी की सभा को रोकें ......उसको अनावश्यक चुनौतीं दें।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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