गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

क्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के राष्ट्रपति को आदेश देना उचित है?

बसंत कुमार

अभी हाल ही में अपने एक निर्णय में इस अध्यादेशों को मंजूरी देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को समय-सीमा के अंदर करने और संविधान के अनुच्छेद 142 के इस्तेमाल करने पर विवाद गहरा गया है। भारत के एक सांसद निशिकांत दुबे ने अपने बयान से इस विवाद को और अधीक गहरा दिया है उन्होंने कहा कि यदि कानून बनाना सर्वोच्च न्यायालय का काम है तो संसद को बंद कर दिया जाना चाहिए। दर असल देश के उपराष्ट्रपति जो जाने माने वकीलों भी रहे हैं श्री जगदीप धनखड़ ने सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों पर सवाल उठाए, जिसके बाद भाजपा के दो सांसदों निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा की तीखे प्रतिक्रिया आई। इसके बाद इन बयाने पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के प्रेसिडेंट कपिल सिब्बल, पूर्व प्रेसिडेंट दुष्यन्त दवे और पूर्व जस्टिस जे चेलमेश्वर की प्रतिक्रिया से इस मामले में तल्खी और बढ़ गई है आखिर इस विवाद की शुरुआत कैसे हुई।

सर्वोच्च अधिकारी ने 8 अप्रैल 2025 को एक ऐहितासिक फैसले से राज्यपाल के राज्यविधान मण्डल द्वारा पारित विधायकों पर कार्यवाही करने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के लिए भी उन विधेयकों पर समय-सीमा निर्धारित कर दी जिन्हें राजयपाल ने राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए निर्धारित किया हो। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ संशोधन पर सुनवाई के दौरान सरकार से सीधे सवाल किए। इसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट को लेकर अप राष्ट्रपति और अन्य नेताओं ने भी विवादित टिप्पणी की जिससे इस मामले में विवाद काफी गहरा हो गया। राज्यसभा इंटर्नस को संबोधित करते हुए उप राष्ट्रपति ने न्याय पालिका द्वारा राष्ट्रपति के निर्णय लेने के लिए समय-सीमा तय किए जाने पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा की सुप्रीम कोर्ट लोकतांत्रिक ताकतों पर परमाणु मिसाइल नहीं दाग सकता। उनका कहना था कि संविधान के तहत के कोर्ट के पास एक मात्र अधिकार है कि अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करने का। सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और संसद के प्रति जवाबदेह होती हैं और सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति के कोई आदेश नहीं दे सकता।

हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र है और यह राजनीतिक विचारक मोंटस्क्यू के शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर काम करता है और संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों का अपना अपना रोल होता है। तीनों एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते, हां न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा कर सकती है। अगर कोई कानून संविधान के दायरे में नहीं है और किसी के मौलिक अधिकारों का हनन करना है तो न्यायपालिका उसे निरस्त कर देता है। केशवानंद भारतीय केस में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया था कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है लेकिन वह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर से छेड़छाड़ नहीं कर सकते।

प्रश्न यह है कि सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा बनाए गए नियमों की समीक्षा तो कर सकता तो है पर क्या वह देश के संवैधानिक हेड यानि राष्ट्रपति को अपनी शक्ति के उपयोगी के लिए समय-सीमा का निर्देश दे सकता है। राष्ट्रपति को अपनी शक्तियों की गाइडलाइंस संविधान के अंदर ही निहित है उसे किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा निर्देश नहीं दिया जा सकता। संसद द्वारा पारित विधेयक जब राष्ट्रपति की मंजूरी ले लेता है तो वह कानून बन जाता है परंतु यह भी प्राविधान है कि यदि राष्ट्रपति चाहे तो संसद द्वारा पारित विधेयक को संसद को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है पर यदि यह बिल संसद में पुनर्विचार के पश्चात फिर राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज दिया जाता है तो तो महामहिम को इस बिल पर हस्ताक्षर ही करने होते हैं। कहने का मतलब यह है कि राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रमुख होता है और उसके द्वारा उपयोग की जाने वाली शक्तियों के उपयोग भी संविधान के अंदर ही होता है और अन्य संस्था द्वारा निर्देश दिए जाएंगे तो देश में संसदीय लोकतंत्र का ढांचा ही बिगड़ जाएगा।

जहां तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति के लिए संसद द्वारा पारित विधेयक को अपनी मंजूरी देने की समय-सीमा का निर्देश देने का प्रश्न है तो सर्वोच्च न्यायालय को अपने आधीन न्यायालयों का केसों का निपटाने का निर्देश दे। देश की अदालतों में करोड़ों केस दशकों से लम्बित पड़े हैं और यदि कोई व्यक्ति ट्रायल कोर्ट द्वारा किसी आपराधिक मामले में दोषी करार दिया जाता है तो उसकी अपील का निस्तारण हाई कोर्ट द्वारा बीस साल तक नहीं हो पाया और अपील कर्ता कनविक्ट का ठप्पा लगाए इस दुनिया से बिदा हो जाता है देश के अधिकांश अपील आम अपील कर्ता के लिए बेमानी होती है क्योंकि वह महंगे वकील की फीस दे नहीं सकता जो मेंशन करके उसको अपील लगवा सके। यदि संसद कानून बनाकर इन अपीलों का निस्तारण करने की समय-सीमा तय कर दे तो क्या न्याय पालिका इसे अपने अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं मानेगी। जब संसद ने न्यायपालिका में जज की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए एन जे ए सी बनाने के लिए कानून बनाया तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप माना और इसे स्टे कर दिया, इसलिए देश में संसदीय लोक तंत्र सुचारू रूप से चले यह सुनिश्चित करने के लिए कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका को अपने अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर चलना होगा।

कुछ वर्ष पूर्व एक हाईकोर्ट के जज जस्टिस कर्णन ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर बीस जजों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात की इसे सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की अवमानना माना और उन्हें 6 माह को जेल कर दी। वहीं एक हाईकोर्ट के जज जस्टिस वर्मा के घर से करोड़ों रुपए का काला धन मिला पर इस मामले में एक एफआईआर तक भी हुई और जस्टिस वर्मा को सिर्फ ट्रांसफर कर दिया गया। देश की न्यायपालिका पर लोग अटूट आस्था रखते है और यह बरकरार रहनी चाहिए।

यह सही है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं संसद (विधायिका) तीनों ही अपने अपने क्षेत्रों में सुप्रीम है पर भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति को आदेश देकर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्रों को लांघने का काम किया है। सर्वोच्च न्यायालय को इस बात का आत्मावलोकन करना होगा कि देश के विभिन्न न्यायलयों में करोड़ों केस कई दशकों से पेंडिंग पड़े हैं और न्याय की आस लगाए लोगों कि पीढ़ियां गुजर जाती है इस कारण हमारे लोक तंत्र के सभी स्तंभों को अपनी अपनी सीमा में रहकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

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