शुक्रवार, 21 मार्च 2025

गांवों के शहरीकरण से नष्ट हो रहा है ग्रामीण जीवन

बसंत कुमार

कई वर्षों के पश्चात यह इच्छा हुई कि इस वर्ष की होली गांव में मनाई जाए और मैं अपनी श्रीमती जी के साथ आठ दस दिन के लिए अपने गाँव जौनपुर चला गया, जैसा की सभी परिचित है कि पूर्वांचल की होली और फगुआ का कोई भी जोड़ नहीं है। होलिका दहन से लेकर होली के दिन तक जो मस्ती और हुड़दंग होता है उसको शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। मेरे मन में भी गांव की उसी होली की स्मृतियां घर किए हुए थी और मुझे लगता था कि वही भाईचारा जो मेरे मन में था लोग शाम तक एक दूसरे को रंग लगते और फगुआ गाते मस्त रहते पर अब तो सब कुछ शराब और मोबाइल में सिमट कर रह गया है। 1990 के आर्थिक सुधार के युग और आधुनिकीकरण के बाद से शहर की कल्चर के साथ-साथ ग्रामीण भारत का भी कल्चर भी बदल गई है। आज विकास के नाम पर जिस तरह से गांवों को शहरीकरण की ओर ढकेला जा रहा है वह ग्रामीण भारत की मूल संस्कृति को विनष्ट कर रहा है या यूं कह सकते हैं कि अब ग्रामीण जीवन समाप्त हो रहा है।

मेरे गांव पहुंचने के एक दिन के बाद ही पता लगा कि घर का समर्सिबल खराब हो गया है और उसे ठीक करवाने के लिए दिया गया है और समर्सिबल के अत्यधिक प्रयोग के कारण पानी का जल स्तर नीचे चला गया है और आस-पड़ोस के सभी हैंड पंप ने पानी छोड़ दिया है और हमें पीने के लिए पानी बाजार से मंगवाना पड़ा जैसे कभी-कभी दिल्ली में करना पड़ता है क्योंकि कुंयें तो पहले से सूख गए थे और जब से वहां ट्यूबवेल और समर्सिबल आ गए हैं तब से हैंड पंपों ने भी काम करना बन्द कर दिया है। समर्सिबल के दुरूपयोग का आलम यह है कि उत्तर प्रदेश में गांवों में बिजली का मीटर न होने के कारण समर्सिबल से निकलने वाले पानी को खेतों में खुला छोड़ दिया जाता है जब तक बिजली रहती है तब तक समर्सिबल चलता रहता है चाहे पानी की आवश्यकता हो या न हो। पानी का इतना दुरूपयोग मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। ये लोग इस बात से बेखबर है कि निकट भविष्य में पूरा विश्व पानी की किल्लत झेलने वाला है।

1990 के दशक के पहले तक कुंये में पानी 30-40 फीट नीचे तक मिल जाया करता था और इतने ही नीचे तक बोरिंग करके हैंड पंप से भी पानी मिल जाता था और इस पानी के स्वाद में मिठास होती थी और सभी लोग इसे बगैर वाटर फिल्टर के पीते थे। अब जबसे समर्सिबल का प्रयोग शुरू हो गया पानी का स्तर 250 से 400 फीट तक पहुंच गया है और ये पानी बगैर फिल्टर किये हुए पीने लायक नहीं रह गया है और इसी कारण गांव के लोग भी वाटर प्युरिफायर या वाटर फिल्टर का उपयोग करने को मजबूर है अन्यथा वहां के मेहनतकश लोग भी पेट से संबंधित बीमारियों से जूझ रहे हैं। इसी बीच पता चला है कि गांव में भी पानी की लाइन बिछाई जा रही है और हर घर को नल से पानी मिलेगा और हर गांव में पानी की टंकी बनेगी अर्थात नलों से आने वाला पानी अब सिर्फ पीने के लिए नहीं अपितु घर के आस-पास उगने वाली सब्जियों आलू टमाटर प्याज आदि की सिचाई के लिए इस्तेमाल होगा यानि पीने वाला पानी अब सिचाई के लिए इस्तेमाल होगा और आने वाली पीढी पीने वाले पानी के लिए तरसेगी।

जब वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत घर-घर में शौचालय बनाने की घोषणा कि तो उनकी इस घोषणा ने उन महिलाओं को राहत की सांस दिलाई जो शौच जाने के लिए अंधेरा होने का इंतजार करती थीं लेकिन गांवों को आंख मूंद कर शहरों जैसा बनाने की होड़ ने गांव वालों की जिंदगी मुश्किल कर दी है। अंधाधुंध ट्यूबवेल-समर्सिबल लगने के कारण जमीन के नीचे जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है और कुंयें-हैंड पंप सूख जाने से लोगों को शौच के लिए दूर पीने के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है। सरकार को घर-घर शौचालय की मुहिम के साथ-साथ गांवों में घर-घर कुंआ की मुहिम चलानी चाहिए थी। जिससे पानी की हार्वेस्टिंग करने में मदद मिलती और बरसात का पानी नदी नालों में बर्बाद होने के बजाय कुंओं में इकट्ठा होता जिससे जमीन के नीचे जल स्तर बढ़ेता। उत्तर प्रदेश व अन्य राज्य सरकारे लोगों को नल का पानी देने के लिए हर गाँव में पानी की टंकी बनवाने की योजना बनवा रही है उसकी जगह हर गाँव में तालाब बनवाने की बात करती तो यह ग्रामीण संस्कृति के लिए वरदान होता, इससे जमीन के नीचे जल स्तर में सुधार होता और गाँव में पशुओं, गाय, भैंस, नील गाय, सांड आदि को पीने के लिए पानी मिलता। गांवों में मशीनों पर आधारित खेती प्रारंभ हो जाने के कारण पशु अब किसानों की संपत्ति (asset) होने के बजाय अब बोझ बन गये है। गांव के लोग दूध की आपूर्ति हेतु गाय, भैंस, बकरी पर आश्रित होने के बजाय मदर डेयरी के पैक्ड दूध पर आश्रित हो गये है।

आधुनिक मशीनीकरण पर अत्यधिक आश्रित होने के कारण गांव के युवा अब शरीरिक रूप से बहुत कमजोर हो गये हैं अब वे अपने पीने के लिए पानी रस्सी के सहारे कुंए से खींचना या हैंडपंप से पानी निकालने के लिए सक्षम नहीं रह गए हैं जबकि आज से तीन दशक पूर्व यही युवा कुंए से पानी खींचकर घर में पानी पीने से लेकर पशुओं के पीने के लिए उनकी नाद में दसियों बाल्टी पानी भरते थे पर आज ये लोग नल या समर्सिबल के पानी पर आश्रित हो गए हैं। पहले गाँव के लोग शाम को मील दो मील पैदल चलकर गांव की बाजार में जाते थे, वहां बैठकर एक-दूसरे का हाल चाल और देश-दुनिया की खबरों पर चर्चा करते थे और लौटते समय घर के लिए जरूरी समान लाते थे यह उनकी दिनचर्या का हिस्सा होता था और इसी बहाने उनका पैदल चलना हो जाता था।

अब ये चीजे बिलकुल समाप्त हो गई हैं अब हर घर में मोटर साइकिल आ गई है जो खरीद नहीं पाते उन्हें बेटे की शादी में दहेज में मिल जाती है परिणाम यह हो रहा है कि अब कोई दस कदम पैदल चलने की जहमत नहीं उठाता और यही कारण है कि गांव के लोगों को शहर के लोगों की शाही बीमारी यानि डाइबिटीज, हाईपरटेंशन, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियां होने लगी हैं। जो शरीरिक फिटनेस उनकी रोजमर्रा की गति विधियों से हो जाता था वे उसे अब जिम व ट्रेड मिल चलकर पाने की कोशिश कर रहे है जो ठीक नहीं है।

देश के गांवों में आँख मूंद कर बिना विचार किए शहरी योजनाओं को ले जाई जा रही है जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अंधाधुंध मशीनीकरण से गाँवों की बेफिक्री व बिंदास जिंदगी गायब होती जा रही है और शहरों में प्रदूषण से फैल रही बीमारियां अब गाँव के लोगों में फैल रही है। जहां शुगर, हृदय रोग, हाईपरटेंशन जिस बीमारियां शहर के लोगों को होती थी अब गांव के गरीब मजदूरों और किसानों को हो रही है। शारीरिक श्रम जो गांव के लोगों के स्वस्थ रहने का मूलमंत्र होता था अब समाप्त हो गया है। यह तो त्रासदी है कि दिल्ली और मुंबई में 12-14 घंटे काम कर लेता है पर अपने खेतों में 6-8 घंटे काम करके सम्मान के साथ जीना नहीं चाहता।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

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