शुक्रवार, 28 मार्च 2025

न्यायपालिका के प्रति आम जनमानस की आस्था पर प्रश्न चिन्ह?

बसंत कुमार

1970-80 के दशक में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठतम जज जस्टिस एच.आर. खन्ना को नजर अंदाज करते हुए जब जस्टिस एच. एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया तो सरकार की बड़ी आलोचना हुई और जनसंघ समेत सारे विपक्ष ने इस निर्णय को न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सरकार का हस्तक्षेप माना। इस पर यह कहा गया कि देश के आम नागरिक अमीर-गरीब सभी देश की न्यायपालिका पर अटूट श्रद्धा रखते हैं और न्यायपालिका पर इतना विश्वास रखते हैं कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति अपने विरोधी को यह कह देता है कि "आई विल सी यू इन द कोर्ट"! पर विगत कुछ वर्षों में यह धारणा बन गई है कि अब तो न्यायालयों में न्याय बिकने लगा है, जहां आम आदमी वकीलों की भारी फीस नहीं वहन कर सकता वहीं अमीर आदमी जजों को पैसा खिलाकर अपने माफिक फैसला करवा लेता है। कुछ दिन पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ जज न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से करोड़ों रूपये का कालाधन मिलने की खबर सामने आई तब से यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि क्या अब भी देश की जनता न्यायपालिका की निष्पक्षता पर अटूट विश्वास रख सकेगी।

इस मामले को विस्तार से जानने के लिए इस घटना पर दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय की रिपोर्ट पर एक दृष्टि डालना जरूरी है, रिपोर्ट के अनुसार यह घटना 14 मार्च की रात को जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास के स्टोर रूम में हुई जहां जस्टिस वर्मा के बंगले में रहने वाले लोग ही पहुंच सकते थे। दिल्ली पुलिस के आयुक्त को 15 मार्च को शाम 4.50 बजे इस आग की सूचना दी। इसके बाद चीफ जस्टिस डी.के. उपाध्याय हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार के साथ घटना स्थल पर पहुंच और जस्टिस वर्मा सी मुलाकात की। इसी दौरे के आधार पर उन्होंने अपनी रिपोर्ट तैयार की। चीफ जस्टिस उपाध्याय ने इस घटना की जानकारी 16 मार्च को भारत के मुख्य न्यायाधीश को दी और फिर जस्टिस वर्मा से संपर्क करके उन्हें इस घटना से संबंधित वो तस्वीरे दिखाई जो दिल्ली पुलिस के आयुक्त ने उन्हें भेजी थी। तब जस्टिस वर्मा ने इसे लेकर साजिश की आशंका व्यक्त की पर इसी बीच फायर ब्रिगेड के प्रमुख ने आनन-फानन में एक बयान जारी कर दिया कि जस्टिस वर्मा के यहां लगी आग में नोट बिलकुल नहीं मिले।

जहां तक जस्टिस वर्मा के विरुद्ध साजिश की बात है तो वे और उनका परिवार देश की न्यायपालिका में नए नहीं थे कि उनके खिलाफ साजिश की जाती। जस्टिस वर्मा के पिता अमरेंद्र नाथ वर्मा इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे और उनके बड़े भाई एस.एन. वर्मा सीनियर एडवोकेट थे यानी बार और बेंच में वर्मा परिवार का दबदबा रहा है। ऐसी पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति के खिलाफ साजिश की बात गले नहीं उतरती। आश्चर्य है कि करोड़ों रुपए के कालाधन के मामले में देश की प्रमुख जांच एजेंसिया (सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग) चुप्पी साधे रही। हाई कोर्ट के एक जज के यहां करोड़ों रुपए के कालाधन के जलने की घटना 14 मार्च को घटी और उसकी सूचना देश के मुख्य न्यायाधीश को चौथे दिन यानि 17 मार्च को मिली जो घटना स्थल से मुश्किल से 5-7 सौ मीटर दूर रहते हैं। लगता है कि इस मामले की लीपापोती के प्रयास किये गए हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या इस तरह की घटना किसी साधारण व्यक्ति के घर पर होती तो क्या जांच एजेंसियां या पुलिस इसी रफ्तार से काम करती।

इस घटना की वजह से वर्ष 2017 की एक घटना की याद ताजा हो गई जब मद्रास हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश जस्टिस चिन्नास्वामी कर्णन ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर उच्च न्यायपालिका के 20 न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की जानकारी दी। ऐसा पत्र लिखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस कर्णन के खिलाफ न्यायालय की अवमानना का मामला दर्ज किया और उन्हें पांच साल की कठोर कारावास की सजा सुनाई। उस समय उनका विरोध करने वालों ने इस दलित जस्टिस को पागल तक कह दिया था और इतिहास के ऐसे पहले न्यायाधीश बने जिसे अपनी कुर्सी से जेल भेजा गया हो। लेकिन अब जब एक जज के घर से करोड़ों का काला धन मिला है तो यह कहा जा सकता है कि जस्टिस कर्णन का आरोप सही था।

कई वर्षों पूर्व दिल्ली से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र में खबर छपी थी जिसमें दिल्ली के एक हास्पिटल में कार्यरत एक अटेडेंट ने किसी का मेडिकल बनवाने के लिए 20 की रिश्वत ली जिसमें उसे 5 मिले और बाकी मेडिकल सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर करने वाले डाक्टर को दिए। शिकायत मिलने पर एंटी करप्सन ब्रांच ने उसे गिरफ़्तर' किया। वह सस्पेंड हुआ और ट्रायल कोर्ट द्वारा दशकों तक मुकदमा चलने के बाद वह दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से डिस्मिस कर दिया गया। लगभग बीस वर्षों बाद भी उच्च न्यायालय में उसकी अपील का निपटारा नहीं हो सका और वह एक सजायाफ्ता का ठप्पा लगवाए इस दुनिया से विदा हो गया। दूसरी ओर यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान चारा घोटाले में नाम आने के बाद भी लालू प्रसाद यादव देश के रेल मंत्री बने रहे और उनके बचाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यह कहा कि जब तक उन पर दोष सिद्ध नहीं हो जाता तब तक वह निर्दोष माना जाना चाहिए पर यह सिद्धांत गरीब कर्मचारियों पर लागू नहीं होता है। उन्हें तो केस दर्ज होते ही निलंबित कर दिया जाता है, यह तो अच्छा हुआ कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार द्वारा प्रस्तावित अध्यादेश को प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ दिया नहीं ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराये जाने के बाद भी कई नेता आज भी सांसद या मंत्री बने रहते।

चिंता का विषय यह है कि एक आम व्यक्ति को छोटा मोटा अपराध हो जाने पर अपराध से कई गुना सजा दे दी जाती है और उनके बाल बच्चों को भूखा मरना पड़ता है पर हमारी न्यायपालिका के जजों को भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जाने के बाद भी उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया नहीं पूरी हो पाती। इस पर उन्हें त्यागपत्र देने का विकल्प मिल जाता है जिसके कारण उन्हें पेंशन सहित सारे लाभ मिल जाते हैं और देश में अपराध करने पर सजा व्यक्ति की जाति व हैसियत देख कर दी जाती है जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे ही विचार जस्टिस वर्मा के मामले के उजागर होने के बाद देश के उपराष्ट्रपति ने व्यक्त किए है। अब देखना यह है कि उनकी चिंता के बाद स्थित में कोई परिवर्तन होता है या नहीं।

जस्टिस वर्मा की यह आशंका की उनके आउट हाउस में पाए जाने वाले करोड़ों के नोट किसी की साजिश का हिस्सा हो सकते हैं। यह सब सही पाया जाए और साजिशकर्ता पकड़ा जाए जिससे देश की न्यायपालिका में अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले देश के करोड़ों लोगों का विश्वास बना रहे और लोगों की यह आशंका की भारत में न्याय मिलता नहीं खरीदा जाता है निराधार साबित हो नहीं तो लोग यह कहना छोड़ देंगे कि आई विल सी यू इन द कोर्ट।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

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