शनिवार, 8 जून 2024

उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा का इतना बुरा प्रदर्शन क्यों

बसंत कुमार

वर्ष 2024 के आम चुनावो के परिणाम आ चुके है और एनडीए को तीसरी बार सरकार बनाने का जनादेश मिल चुका है पर जिस दल न लगातार दो टर्म तक शासन किया हो और सीएए, ट्रिपल तलाक़, अनुच्छेद 370 जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर महत्वपूर्ण फैसले लिए हों तथा देश को विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई हो वह इस चुनाव में 240 सीटों पर सिमट गई और 273 का जादुई आंकड़ा प्राप्त करने के लिए जनता दल (यू) और तेलगु देशम पार्टी जैसे सहयोगियों पर आश्रित होने को मजबूर है।

सबको आशा थी कि मोदी सरकार अपने तीसरे टर्म में कॉमन सिविल कोड, जनसंख्या नियंत्रण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर फैसला ले सकेगी, पर जिस तरह का जनादेश आया है उस पर राष्ट्रीय महत्व के इन मुद्दों पर फैसला लेना अब सरकार के लिए लेना मुश्किल हो जाएगा। चुनाव के समय जो विपक्षी दल सरकार पर संविधान नष्ट करने और आरक्षण समाप्त करने जैसे अनर्गल आरोप लगा रहे थे वे वास्तव में भाजपा के प्रगतिशील कदमों जैसे कामन सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण को रोकना चाहते थे और इसी कारण देश की जनता के सामने इस प्रकार के झूठे प्रचार किये गए। परन्तु भाजपा के लिए आत्मचिंतन का विषय है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता बनाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा 2019 के 66 सीटों के मुकाबले 33 सीटों पर ही क्यों सिमट गई और सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि भाजपा अयोध्या में 500 वर्षों से लंबित अयोध्या में भव्य राम मन्दिर के निर्माण के बावजूद फैजाबाद(अयोध्या) की सीट भी नहीं बचा पाई।

प्रदेश में मोदी और योगी की डबल इंजन सरकार की अनेका नेक उपलब्धियों के बावजूद प्रदेश में भाजपा की इतनी दुर्गति क्यों हुई। इस विषय में प्रदेश लोकसभा के लिए प्रत्याशियों के चुनाव के लिए बनाई गई हाई कोर कमेटी को दिल्ली प्रदेश भाजपा से सीख लेनी चाहिए थी जिन्होंने अपने गौतम गंभीर, डॉ. हर्ष वर्धन, मीनाक्षी लेखी जैसे बड़े नाम वाले 6 सांसदों के टिकट काटकर उन लोगों को टिकट दे दिये जिनके विरुद्ध जनता में नाराजगी न हो और ऐसा करके उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के गठबंधन होने के बावजूद 7 की सातों सीट पर कब्जा कर लिया। परंतु उत्तर प्रदेश भाजपा में टिकट वितरण का उत्तरदायित्व उन लोगों को दिया गया जो मूल रूप से भाजपाई होने के बजाय बसपा जैसी पार्टियों से आये थे और पहली बार भाजपा में टिकट बंटवारे में बसपा वाली पद्धति अपनाई गई और पार्टी द्वारा समय-समय पर विभिन्न स्रोतों द्वारा कराए गए सर्वे रिपोर्टों को दरकिनार कर उन सांसदों को पुन: टिकट दे दिये गए जिनके खिलाफ क्षेत्र की जनता में आक्रोश था और पार्टी नेतृत्व इस बात को जानता था और कार्यकर्ता इस कृत्य से इतने नाराज थे कि पार्टी मीटिंगों में शक्ल दिखाने के बावजूद पार्टी प्रत्याशी को वोट दिलाने के लिए घर से बाहर नहीं निकले।

उत्तर प्रदेश भाजपा में मनमानी टिकट बटवारे के साथ साथ प्रदेश में अपेक्षित परिणाम न आने का कारण संगठन में लगे नेताओ और मंत्रियों का घमंड तथा कार्यकर्ताओं के प्रति उनका उदासीन रवैया रहा है जब भी कोई कार्यकर्ता अपनी कोई बात कहने की कोशिश करता तो उसे यह कहकर डांट दिया जाता कि तुम बस मोदी और कमल का निशान देखो बाकी कुछ मत सोचो। यह सही है कि श्री नरेंद्र मोदी जी पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा हैं तो क्या उनका नाम लेकर संगठन हाथ पर हाथ धरे बैठा रह जाए और इन दोयम दर्जे के नेताओं ने सब कुछ मोदी, योगी और भगवान् राम भरोसे छोड़ दिया और अबकी बार 400 के पार नारे लगाते रहे। किसी नेता या प्रत्याशी न सरकार की उपलब्धियों और अपने द्वारा क्षेत्र में किये गए काम की चर्चा करना जरूरी नहीं समझा और पार्टी के बड़े नेताओं के समक्ष सही बात कहने का साहस किया तो उसे छड़ दिया गया। किसी भी नेता ने विपक्ष द्वारा संविधान बदलने और आरक्षण समाप्त करने के दुष्प्रचार का जबाब देना जरूरी नहीं समझा। पर मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली की प्रदेश इकाइयों ने सब कार्यकर्ताओं को मिलाकर काम किया और वहां पर भाजपा के पक्ष में 100% परिणाम आए।

इस चुनाव में एक और बात सामने आई कि भारतीय जनता पार्टी 11 राज्यो में 11 अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटों में से मात्र 30 सीटों पर विजय प्राप्त कर पाई जबकि वर्ष 2019 में पार्टी ने ऐसी 49 सीटों पर कब्जा किया था और इसमे अधिकांश सीटें उत्तर प्रदेश में जीती गई, वहां पर 17 आरक्षित सीटों में से 15 भाजपा के खाते में गई थी जबकि इस बार पूरे प्रदेश में मात्र 7 सीटे ही भाजपा के खाते में आई, परिणाम बताते है कि देश की 131 आरक्षित सीटों में से भाजपा की झोली में मात्र 55 ही भाजपा की झोली में आई और बाकी 71 सीटे विपक्षी दलों को मिली। सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि बहुजन समाज पार्टी का वोट शेयर 19% से गिरकर मात्र 9% ही रह गया है अर्थात संविधान की सुरक्षा के नाम पर मायावती की पार्टी के मुख्य वोटरों जाटवों ने बसपा के पक्ष में अपना वोट देकर खराब करने के बजाय अपना वोट उस दल या गठबंधन को देना चाहते थे जो भाजपा को हरा सके और इसी कारण उत्तर प्रदेश में उन्होंने सपा और कांग्रेस गठबंधन प्रत्याशियों को वोट दिया।

उत्तर प्रदेश में जाटव वोटरों का भाजपा से नाराजगी का एक और कारण प्रदेश की सभी आरक्षित सीटों पर एकाध अपवाद को छोड़कर सभी जगह जाटव चमारों को टिकट न देकर सभी सीटों पर पासी और खटिक जाति के लोगों को टिकट दिया, भाजपा ने एक राष्ट्रीय महामंत्री को विशेष रूप से 2019 में हारी 18 सीटों को जीत में बदलने के लिए विशेष अधिकार के साथ भेजा पर वे जाटवों के प्रति अपने पूर्वगृह के कारण 18 हारी सीटों को तो जीत में नहीं बदल पाए अपितु जीती हुई सीटे भी हार गए। यदि जाटवों और अन्य दलितों को कांग्रेस की ओर पुन: जाने से रोकना है तो पार्टी को जाटवों के प्रति बसपा का वोट बैंक वाले पूर्वग्रह को छोड़ना होगा क्योंकि वे अब बसपा के अतिरिक्त किसी अन्य दल में अपना विकल्प तलाश रहे है और नगीना सीट से चंद्र शेखर रावण की विजय इस बात का प्रमाण है यदि पार्टी ने मछली शहर से कार्यकर्ताओं की नाराजगी को नजर अंदाज करके बीपी सरोज को टिकट न देकर वहां से किसी जाटव को टिकट दिया होता तो तो पूर्वांचल की दर्जनों भर सीटों पर स्थिति अलग होती और जाटव दलितों का वोट सपा और कांग्रेस की झोली में नहीं जाता।

यह निर्विवाद सत्य है कि आज भी नरेंद्र मोदीजी देश के सबसे लोकप्रिय नेता है और एनडीए की तीसरे टर्म की वापसी उनकी रात दिन की मेहनत का नतीजा है और भाजपा की सीटों में वर्ष 2019 के मुकाबले 60-65 सीटों का कम आने का मुख्य कारण गलत प्रत्याशियों का चयन और सांसदों एवं मंत्रियों द्वारा भाजपा के कर्मठ कार्यकर्ताओं को उचित सम्मान न देना रहा है। यदि पार्टी को वर्ष 2014 और 2019 की तरह परिणाम पाना है तो पार्टी को विभिन्न सर्व रिपोर्ट को दरकिनार कर मनमाने ढंग से टिकट देने की प्रवृत्ति को बदलना होगा और संगठन में उन लोगों को शामिल करना होगा जो बड़े नेताओ की हां में हां मिलाने के बजाय उनके सामने सच्चाई से अपनी बाते कह सके।

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