शुक्रवार, 17 मई 2024

सिर्फ मार्क्स प्रतिशत को सफलता की गारंटी न माने

बसंत कुमार

पिछले सप्ताह सीबीएसई की 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के परिणाम आये हैं और तब से पूरा सोशल मीडिया इस तरह की पोस्टों से भरा पड़ा है कि मेरे बच्चे ने इतने प्रतिशत अंकों से पास किये है और उसे शुभकामनाएं दें। इन शुभकामना की पोस्ट डालने वाले पैरेंट्स जिनके बच्चे, 95 प्रतिशत या इससे अधिक अंक लाये हैं वो तो खुश हैं पर जिनके बच्चे कड़ी मेहनत के बावजूद, 90 प्रतिशत ही ला पाए हैं वे बहुत दुखी दिख रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने बच्चे से 95 प्रतिशत या इससे अधिक की उम्मीद की थी और पैरेंट्स की इस बात ने बहस को जन्म दे दिया कि क्या सिर्फ परीक्षा में अच्छा प्रतिशत ही सफलता की गारंटी का मापदंड होना चाहिए। अभी-अभी जो रिजल्ट आये हैं उससे उन बच्चों के पैरेंट्स हताश नजर आ रहे हैं जो दिन-रात कड़ी मेहनत करने के बाद भी 70-80 प्रतिशत नंबर ही ला पाए हैं पर क्या उन्हे अपने बच्चों की दिन-रात की मेहनत नजर नहीं आती।
हर व्यक्ति अपने बच्चों से 100 प्रतिशत की उम्मीद लगाए बैठा है पर बच्चों के 80-90 प्रतिशत अंक प्राप्त करने के पश्चात भी पैरेंट्स का निराश होना बच्चों के मन में बहुत असर डालता है और इसका दुष्परिणाम यह है कि हर साल परीक्षा का परिणाम आने के पश्चात कई बच्चे आत्महत्या तक का प्रयास करते हैं या कर लेते हैं।
इस तरह के पनपते बैर का मुख्य कारण सोशल मीडिया है। आज हर पैरेंट्स सोशल मीडिया के दबाव में जी रहा है। रिजल्ट आते ही फेसबुक पर हाई स्कोर करने वाले बच्चों की फोटोस् से पूरा सोशल मीडिया भरा होता है कोई लिखता है मेरे बपिछले सप्ताह सीबीएसई की 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के परिणाम आये हैं और तब से पूरा सोशल मीडिया इस तरह की पोस्टों से भरा पड़ा है कि मेरे बच्चे ने इतने प्रतिशत अंकों से पाच्चे के 99 प्रतिशत आये है और कोई लिखता है कि मेरे बच्चे के 95 प्रतिशत आये हैं। इस काम में मोटी फीस लेकर प्राइवेट स्कूल के प्रबंधक भी पीछे नहीं रहते वे इस बात से बेखबर रहते हैं कि कुछ ऐसे भी छात्र हैं जो अत्यंत प्रतिभाशाली होने के बावजूद अच्छे नंबर नहीं ला पाए है, ऐसा करके हम बच्चों के व्यक्तित्व का विकास करने के स्थान पर उन्हे किताबी कीडा बना रहे है। वस्तविकता यह है कि मार्क्स अब शो की चीज हो गई है और हम हाई मार्क्स को तमगा मानने लगे हैं और धीरे-धीरे यह समस्या विकराल रूप धारण कर रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों को हाई मार्क्स न ला पाने के बाद पैरेंट्स का व्यवहार उन्हें डिप्रेशन की ओर ढकेल रहा है।
अधिकांश पैरेंट्स मार्क्स के आधार पर बच्चों की इंटेलिजेंस का अंदाजा लगाते हैं जबकि एक परीक्षा में मार्क्स के आधार पर इंटेलिजेंस का अंदाजा लगाना सरासर गलत है। प्रायः यह देखा गया है कि अच्छे मार्क्स वाले छात्र जीवन के अन्य क्षेत्रों में उतने कारगर सिद्ध नहीं कर पाते हैं क्यांेकि 10वीं या 12वीं में अच्छे मार्क्स ले लेना बच्चे के इंटेलिजेंट होने की गारंटी नहीं है। अच्छे मार्क्स बच्चे की तैयारी और स्ट्रैटेगी पर निर्भर करती है, उसने किस तरह से पेपर अटेम्प्ट किया, कैसे जबाब दिया जैसी अनेक बातों पर निर्भर करता है। इसलिए कुछ कम मार्क्स के आधार पर किसी को कम और किसी को अधिक इंटेलिजेंट आंकना गलत है। इस विषय में स्कूल प्रशासन और शिक्षकांे का दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
इस विषय में अपने उपर बीती हुई कहानी बताना बहुत ही प्रासंगिक मानता हूँ। 1995 के आस-पास मेरे दोनों बेटे दिल्ली के मशहूर स्कूल एमिटी इंटरनेशनल साकेत में भर्ती हुए और कुछ वर्षाें तक दोनों अच्छे प्रतिशत वाली श्रेणी में शामिल रहे और स्कूल में पुरस्कृत होते रहे। इसी समय भारतीय खेल प्राधिकरण के एक कोच स्कूल में आये और बड़े बेटे अजीत रंजन को क्रिकेट कोचिंग में डालने की सलाह दी और कहा कि यह बच्चा आगे चलकर बड़ी क्रिकेट खेल सकता है और उनकी बात सच साबित हुई। उसने एमिटी में शिक्षा प्राप्त करते हुए विजय मर्चेंट ट्रॉफी, सीके नायडू खेली और मात्र 16 वर्ष की उम्र में रणजी कैंप किया और दिल्ली के अग्रणी कॉलेज सेंट स्टीफन कॉलेज का छात्र बना और वहां से इंग्लिश काउंटी खेली। पर इस दौरान उसका प्रतिशत 80-90 से गिरकर 50-60 प्रतिशत आ जाने पर मुझे स्कूल प्रिंसिपल और शिक्षकों से जितनी प्रताड़नाएंे झेलनी पड़ी थी वह बात मैं आज भी नहीं भूल पाता। एक बार तो उनकी क्लास टीचर ने उसका स्कूल से नाम कटवाकर प्राइवेट स्टूडेंट के तौर पर बोर्ड की परीक्षा देने की सलाह दी, पर जब उसने दिल्ली की क्रिकेट टीम में जगह बना ली तो सारी परिस्थितियां बदल गई और एमिटी एजुकेशन फ़ाउण्डेशन की अध्यक्षा श्रीमती अमिता चौहान के हस्तक्षेप के कारण उसे फ्रीशिप मिली और उसे स्कूल मैग़ज़ीन में पूरी कवरेज मिली और दशकों बाद भी उसे स्कूल में याद किया जाता हैं पर उसे भी स्कूल में कम मार्क्स की प्रताड़ना झेलनी पड़ी।
इसलिए 10वीं और 12वीं के मार्क्स को ही बच्चों के इंटेलिजेंट होने की गारंटी न माने और उन्हें सोशल मीडिया पर दिखाकर अपना स्टेट्स सिम्बल न बनायें बल्कि बच्चों को अपने व्यक्तित्व के विकास का पूरा मौका दें।

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