सोमवार, 8 मई 2023

आत्मनिर्भरता के लिए जीवन विज्ञान की शिक्षा उपयोगी

डाॅ. वीरेन्द्र भाटी मंगल
(वरिष्ठ साहित्यकार व चिंतक)
देश में नई शिक्षा नीति का निर्धारण हो चुका है। शिक्षा में नई नीति भावी नागरिक में मूल्यों के निर्माण की दिशा में उठा विशिष्ट कदम है। सही मायने में आत्मनिर्भर बनाने में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। वर्तमान आधुनिक शिक्षा व्यवसाय व नौकरी तक सिमटती जा रही है। जबकि शिक्षा सही मायने में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व बौद्धिक विकास का समन्वित रूप है। जीवन विज्ञान में शिक्षा को दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है, अर्थात् शिक्षा को अन्तिम परिभाषा, सर्वमान्य उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं चिन्तन आधारित शिक्षा विधियों का निर्माण होता है, यही दर्शन शिक्षा के नाम से पुकारा जाता है, केवल शिक्षाशास्त्र नहीं केवल दर्शनशास्त्र नहीं परन्तु नव-सर्जित विषय शिक्षा दर्शन का स्वरूप बन जाता है। दर्शन के विभिन्न अंग-ज्ञान दर्शन, मूल्य दर्शन, नीति दर्शन, सौन्दर्य दर्शन आदि के समान ही शिक्षा दर्शन के भी विभिन्न अंग निश्चित किये जाते हैं। इसमें अंतिम, शाश्वत एवं सूक्ष्म, ज्ञान, तर्क, नैतिकता, सौन्दर्यानुभूति आदि का अध्ययन शिक्षा के रूप, उद्देश्य, मूल्य, आदर्श, विधि, भावनात्मक दृष्टिकोण आदि के रूप में होता है।
शिक्षा से ही सभी समस्याओं का समाधान संभव है वहीं समाज निर्माण पूर्ण शिक्षा से ही निर्धारित होता है। शिक्षा में जीवन विज्ञान की परिकल्पना करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते है वर्तमान शिक्षा प्रणाली गलत नहीं है पर अधूरी है, संतुलित नहीं है। संतुलित शिक्षा प्रणाली वह होती है जिसमें व्यक्तित्व के चारों आयाम शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक-संतुलित रूप से विकसित हो। इन चारों आयामों का विशिष्ट रूप जीवन विज्ञान में देखने को मिलते है। शरीर, मन, बुद्धि और भावना का विकास भी अपेक्षित है। शिक्षा के दो आयाम शारीरिक विकास और बौद्धिक विकास प्रमुख रूप से प्रचलित है। आज की शिक्षा में इन दो आयामों का विकास तो हो रहा है लेकिन मानसिक व भावनात्मक विकास पर ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं जिसके कारण शिक्षा से मानवीय चिंतन की परिकल्पना का असंतुलन हो गया है।
आचार्य तुलसी व आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में शिक्षा में जीवन विज्ञान नीति के निर्धारण के लिए अनुंशषा पत्र तैयार किया गया। जिसमें जीवन विज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया गया। जीवन विज्ञान की कल्पना और योजना को व्यापक रूप से वैज्ञानिक तर्क संगत के साथ प्रयोग सिद्ध भी बताया गया। संतुलित एवं पूर्ण शिक्षा के लिए जीवन विज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया गया। जीवन विज्ञान में अध्यात्म और विज्ञान, मनोविज्ञान और समाज विज्ञान तथा सृष्टि संतुलन शास्त्र का समन्वित रूप है। शिक्षा में जीवन विज्ञान की परिकल्पना को विशिष्ट शिक्षा आयाम बताते हुए वे कहते है जीवन विज्ञान यह मानता है कि मस्तिष्क में अपार शक्ति है, और उस शक्ति का विकास जीवन विज्ञान के प्रयोगों से संभव है।
यदि अपराध व हिंसा को कम करना है तो समाज को भी संयम की जीवनशैली अपनाना होगी। यदि समाज के मुखिया ही नैतिक जीवन जिएं तो हमारा चिंतन बदल सकता है, तथा अपराध व हिंसा की समस्या भी कम हो जाएगी। शिक्षा दर्शन वास्तव में दर्शन होता है, क्योंिक उसमें भी अन्तिम सत्यों, मूल्यों, आदर्शों, आत्मा-परमात्मा, जीव, मनुष्य, संसार, प्रकृति आदि पर चिन्तन एवं उसके स्वरूप को जानने का प्रयत्न होता है, अतएवं यह दर्शन एक अभिन्न अंग ही होता है और प्रारम्भिक शिक्षा दार्शनिक दर्शन पर ही बल देते रहे हैं।
मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाना है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिये भी सहायक होता है, जो अपना भार स्वयं उठा लेता है। भारत जैसे विकासशील समाज में व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य को इंगित करते हुये लिखा था-केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता है। चिंतक विलमॉट ने स्पष्ट कहा है कि शिक्षा जीवन की तैयारी है। शिक्षा का प्रमुख कार्य बच्चों को जीवन के लिये तैयार करना है। शिक्षा के इस कार्य पर विचार करते हुये स्वामी विवेकानन्द लिखते है कि-क्या वह शिक्षा कहलाने के योग्य है जो सामान्य जन समूह को जीवन के संघर्ष के लिये अपने आपको तैयार करने में सहायता नही देती है और उनमें शेर सा साहस न उत्पन्न कर पाये। आजकल प्रयोजन व उद्देश्य की पूर्ति के बिना कोई कार्य नहीं होता। जब तक किसी राष्ट्र का नैतिक स्तर उन्नत नहीं होता, तब तक जो भी प्रयत्न हो रहा है, वह फलदायी नहीं बनेगा। जरूरी है समाज में नैतिक स्तर ऊँचा हो। यह सब शिक्षा के द्वारा ही संभव है।
जीवन विज्ञान का सिद्धांत कहता है केवल दो शब्दों में संपूर्ण दुनिया की समस्या और समाधान छिपे हुए हैं, एक है पदार्थ जगत और दूसरा है चेतना जगत। पदार्थ भोग का और चेतना त्याग का जगत है। हमारे सामने केवल पदार्थ जगत् है और इसकी प्रकृति है समस्या पैदा करना। इस जगत् में प्रारंभ में अच्छा लगता है और बाद में यह नीरस लगने लगता है। दूसरा है चेतना जगत जो प्रारंभ में कठिन लगता है लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति उस दिशा में जाता है उसे असीम आनंद प्राप्त होने लगता है। महाप्रज्ञ ने शिक्षा को सही मायने में मानव मस्तिष्क के लिए उपयोगी बनाया है। शिक्षा दर्शन में दार्शनिक सिद्धान्तों का शिक्षा के क्षेत्र में व्यवहार किस प्रकार होता है, और होना चाहिये इसे प्रभावी रूप से बताया गया हैं।
-राष्ट्रीय संयोजक-अणुव्रत लेखक मंच
लाडनूं (राजस्थान)
मोबाइल-9413179329

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