गुरुवार, 24 मार्च 2022

हिजाब पर कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला सतर्क करने वाला

अवधेश कुमार

शिक्षालयों में हिजाब पहनने का विवाद इतनी आसानी से नहीं निपटेगा यह स्पष्ट था। कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला आया नहीं कि सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हो गई। जाहिर है पहले से इसकी तैयारी हो चुकी थी और उच्च न्यायालय के आदेश का अनुमान भी लगा लिया गया था। किंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय कह रहा है इस्लाम मजहब में हिजाब पहनना मजहब प्रथा का अनिवार्य हिस्सा नहीं है तो उसने उसका आधार भी दिया है। जब यह धार्मिक प्रथा का अनिवार्य अंग नहीं है तो  संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित नहीं हो सकता। इस तरह उच्च न्यायालय ने विद्यालयों, महाविद्यालयों समेत  शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक के आदेश को सही ठहरा दिया है। जो लोग इसे जबरन मजहबी अधिकार मनवाने पर तुले हैं वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। वे इसे मजहबी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन साबित कर रहे थे और उच्च न्यायालय कह रहा है कि नहीं यह धार्मिक मामला है ही नहीं तो मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे हो गया। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट लिखा है कि राज्य सरकार द्वारा विद्यालयों में ड्रेस का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत छात्रों के अधिकारों पर तर्कसंगत नियंत्रण है और 5 फरवरी का कर्नाटक सरकार का आदेश अधिकारों का उल्लंघन नहीं है । ध्यान रखिए , उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित सदस्य पीठ का सर्वसम्मति फैसला है। इस्लाम के जानकारों में भी ऐसे लोग थे जो बता रहे थे कि हिजाब कभी भी मजहब के आईने में इस्लाम की अनिवार्य व्यवस्था रही नहीं। लेकिन देश में ऐसा बहुत बड़ा वर्ग पैदा हो गया जो किसी सामान्य आदेश को भी अपने मजहब अधिकारों पर उल्लंघन मानकर  इस्लाम के विरुद्ध साबित करने पर तुल जाता है । कितना तनाव कर्नाटक में पैदा हुआ और उसका असर अलग-अलग राज्यों में कैसा हुआ इसे याद करिए तो आपके सामने इसके पीछे की चिंताजनक इरादे स्पष्ट हो जाएंगे। कट्टरपंथी तत्व मुस्लिमों के बहुत बड़े समूह के अंदर यह बात गहरे बिठा चुके हैं कि जिस तरह भाजपा सरकारें काम कर रही हैं और न्यायालयें फैसला दे रही हैं उससे देश में मुसलमानों के लिए मजहबी रीति-रिवाजों, परंपराओं का पालन करना कठिन हो जाएगा। इस झूठ ने आम मुसलमानों के अंदर गहरी शंकायें पैदा की है और वे उनके आह्वान पर सड़कों पर उतर उग्र बन जाते हैं। इससे केवल कट्टरता बढ़ रहा है । ये बार-बार पराजित होते हैं लेकिन इन पर असर नहीं है। 

उच्च न्यायालय के सामने इस्लामिक आस्था या धार्मिक प्रथा के प्रश्न के साथ यह भी था कि छात्रों को इस पर आपत्ति करने का अधिकार है या नहीं ।उसने साफ कहा है कि नहीं है। उसने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि सरकार का 5 फरवरी का आदेश गलत, मनमाना और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 यानी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। वास्तव में पूरे फैसले को गहराई से देखें तो यह कई मायनों में दूरगामी महत्व वाला तथा इस्लाम के नाम पर लादी गई प्रथाओं को गलत साबित कर हर वर्ग के जागरूक और सच्चे आस्थावान लोगों की आंखें खोलने वाला है । उदाहरण के लिए मजहबी स्वतंत्रता के अधिकार पर न्यायालय की टिप्पणी है कि संविधान के अनुच्छेद 25 के संरक्षण का सहारा लेने वाले को न केवल अनिवार्य मजहबी प्रथा साबित करनी होती है बल्कि संवैधानिक मूल्यों के साथ अपना जुड़ाव भी दर्शना होता है। यदि प्रथा मजहब का अभिन्न हिस्सा साबित नहीं होती तो मामला संवैधानिक मूल्यों के क्षेत्र में नहीं जाता । यह ऐसी टिप्पणी है जिसका आने वाले समय में बार-बार उल्लेख किया जाएगा। हालांकि हमें उच्चतम न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए लेकिन अगर उच्च न्यायालय को यह प्रमाण मिल जाता कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है और छात्राएं न पहनने के बाद मजहब से खारिज हो जाएंगी तो वह ऐसा फैसला कतई नहीं देता। ऐसा है ही नहीं और स्वयं इस्लामी देशों में भी इसके प्रमाण हैं तो कोई न्यायालय अलग फैसला कैसे दे सकता है। 

 आम मुसलमानों और देश को यह बताया जाना आवश्यक है कि न्यायालय ने फैसले में स्पष्ट कहा है कि प्रथमदृष्टया रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की गई जिससे साबित होता है कि हिजाब पहनना इस्लाम में मजहब का अभिन्न हिस्सा है और याचिकाकर्ता छात्राएं शुरू से ही पहन रही हैं। उन छात्राओं की तस्वीरें आ चुकी हैं जिसमें वो पहले कॉलेज यूनिफॉर्म में जाती थी। अनेक मुस्लिम छात्राएं यूनिफॉर्म में जातीं रहीं। अचानक उन्होंने हिजाब पहन लिया और इसे भी न्यायालय ने उद्धृत किया है। न्यायालय की टिप्पणी है कि ऐसा नहीं है कि अगर हिजाब पहनने की परंपरा नहीं निभाई गई या जिन्होंने हिजाब नहीं पहना वे गुनाहगार होंगी, इस्लाम अपना गौरव खो देगा और मजहब के तौर पर उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। जरा सोचिए,  तर्क यही दिया जाता था और है कि महिलाएं मजहब के अनुसार गुनाहगार साबित हो जाएंगी, इस्लाम पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा और  इसका अस्तित्व मिट सकता है। जाहिर है, कट्टरपंथी समाज में विद्वेष पैदा करने के इरादे से झूठ फैला रहे थे। न्यायालय ने फैसला इससे जुड़े सभी पहलुओं को ध्यान रखते हुए दिया है, जिसमें शिक्षा, विद्यालय, शिक्षक, वस्त्र आदि की अवधारणा, महत्व आदि का विश्लेषण है। विद्यालय की अवधारणा शिक्षक, शिक्षा और यूनिफार्म के बगैर अपूर्ण है और यह सब मिलकर एकीकरण करते हैं। स्कूल में यूनिफार्म की अवधारणा नई नहीं है। अनेक मुस्लिम देशों में भी इस तरह के स्कूल चलते हैं और वहां मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर नहीं जाती। एक याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि यूनिफॉर्म पहली बार अंग्रेजों के समय लाया गया था। न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि यह अवधारणा पुराने गुरुकुल काल से चली आ रही है। भारतीय ग्रंथों समवस्त्र, शुभ्रवेश आदि का जिक्र है, उसके विवरण हैं। एक याचिकाकर्ता ने बड़ी चालाकी से अपील की थी कि यूनिफार्म के रंग की हिजाब की इजाजत दे दिया जाए। जाहिर है, न्यायालय ऐसा कर देता तो स्कूल के यूनिफॉर्म का कोई मतलब नहीं रह जाता। निश्चित रूप से इससे छात्राओं की दो श्रेणियां हो जातीं जिनमें एक हिजाब के साथ यूनिफार्म पहनने वाली और दूसरी बगैर हिजाब के। इससे यूनिफॉर्म का उद्देश्य विफल हो जाता। न्यायालय की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए- नियम का उद्देश्य एक सुरक्षित स्थान बनाना है जहां ऐसी विभाजन कारी रेखाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और समतावाद के आदर्श सभी छात्रों के लिए समान रूप से स्पष्ट होने चाहिए।

अगर उद्देश्य वाकई अपनी धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करनी होती तो ऐसे मामले विवादित नहीं बनते और न न्यायालय में जाते। इनके पीछे उद्देश्य हमेशा गलत होता है। ध्यान रखिए , उच्च न्यायालय ने ही कहा है  कि  सामाजिक शांति और सौहार्द बिगाड़ने के लिए अदृश्य शक्तियों ने हिजाब विवाद को पैदा किया। ध्यान रखने की बात है कि जब न्यायालय के समक्ष कुछ वकीलों ने इसमें पीएफआई के छात्र संगठन केंपस फ्रंट ऑफ इंडिया तथा कुछ अन्य मुस्लिम संगठनों की भूमिका की ओर इशारा किया तो न्यायालय ने सरकार से जानकारी मांगी। राज्य के महाधिवक्ता की ओर से बंद लिफाफे में न्यायालय को कुछ कागजात दिए गए थे। न्यायालय ने लिखा है कि जो कागजात हमें सौंपे गए थे हमने उसे देखने के बाद वापस कर दिया है और हम उम्मीद करते हैं कि इस मामले में त्वरित और प्रभावी जांच होगी और दोषियों के खिलाफ बिना देर किए कार्रवाई की जाएगी। निश्चय ही ये पंक्तियां उन शक्तियों को नागवार गुजरेंगी जो पुलिस जांच को पक्षपातपूर्ण और मुसलमानों को उत्पीड़ित करने वाला बता रहे थे। साफ है कि न्यायालय की नजर में पुलिस की अभी तक की कार्रवाई गलत नहीं है। तो मान कर चलिए कि आने वाले दिनों में जिन तत्वों ने इस विवाद को भड़काया उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। हालांकि फैसला कुछ भी आ जाए इस देश में इस्लाम के नाम पर छाती पीटने वाले मानेंगे नहीं। उदाहरण के लिए नेशनल कांफ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा कि फैसले से हैरान और हताश हूं। वे हिजाब को महिलाओं के उस अधिकार से जुड़ा बता रहे हैं जो उन्हें उनकी इच्छानुसार कपड़ा पहनने की इजाजत देता है। महबूबा मुफ्ती फैसला को निराशाजनक कह रहीं हैं। उनके अनुसार यह सिर्फ धर्म का मामला नहीं है चयन की स्वतंत्रता से भी जुड़ा हुआ है । उमर और महबूबा उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। महबूबा की बेटियों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और अगर उन्होंने हिजाब पहना था तो उसकी तस्वीर भी उन्हें सामने लाना चाहिए। इस तरह के दोहरे चरित्र वाले लोग समाज के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। न्यायालय ने इसकी ओर सचेत किया है। उच्चतम न्यायालय का फैसला भी आने दीजिए, पर ऐसे तत्वों के प्रति  सतर्क रहना और इनका तार्किक विरोध करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का दायित्व बन जाता है। 

अवधेश कुमार ,ई -30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल -98110 27208

रविवार, 20 मार्च 2022

विधानसभा चुनावों के नतीजे: बहुवाद और प्रजातंत्र की दशा और दिशा


राम पुनियानी

उत्‍तरप्रदेश, पंजाब, उत्‍तराखंड, मणिपुर और गोवा में हुए विधानसभा चुनावों के न‍तीजे आ गए हैं. चार राज्‍यों में भाजपा को सत्‍ता मिली है और पंजाब में आप की सरकार बन गयी है. पंजाब में आप की जीत के पीछे कांग्रेस में गुटबाजी और शिरोमणी आकाली दल की गलत नीतियां जिम्‍मेदार बताई जा रहीं हैं. गोवा में भाजपा को विपक्ष के बिखराव का भी लाभ मिला क्‍योंकि वहा कांग्रेस के अतिरिक्‍त आप और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी मैदान में थी. उत्‍तराखंड और मणिपुर में भाजपा की शक्‍तिशाली चुनाव म‍शीनरी के सामने कांग्रेस ठहर नहीं सकी. यह इस तथ्‍य के बावजूद कि भाजपा को सत्‍ता में रहने के कारण स्वाभाविक विरोध का सामना करना पड़ रहा था.

असली लड़ाई उत्‍तरप्रदेश में थी, जहाँ भाजपा ने शानदार जीत हासिल की. पूरे देश में, और विशेषकर उत्‍तरप्रदेश में, नोटबंदी, बेरोज़गारी और महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी थी. कोरोना के नाम पर तुरत-फुरत लगाए गए कड़े लॉकडाउन के कारण गरीब प्रवासी मजदूरों को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर वापस जाना पड़ा था. आक्‍सीजन की कमी के चलते भारी संख्‍या में कोरोना पीडि़तों को अपनी जान खोनी पड़ी थी. उत्‍तरप्रदेश में ही उन्‍नाव और हाथरस में हुई बलत्‍कार और हत्‍या की जघन्य घटनाओं ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था. यही वह राज्‍य है जहाँ एक केन्‍द्रीय मंत्री के पुत्र ने अपनी एसयूवी से किसानों को कुचलकर मार डाला था. यही वह राज्‍य है जहाँ बीफ और गौरक्षा के मुद्दों को लेकर समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण किया गया था और सरकार की नीतियों के चलते अवारा मवेशी किसानों की फसलें नष्‍ट कर रहे थे. यही वह राज्‍य है जहाँ मानव विकास सूचकांकों में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से गिरावट आई है .

उत्‍तरप्रदेश में जातिगत समीकरणों पर भी खूब चर्चा हुई. चुनाव के ठीक पहले कई ओबीसी नेताओं ने भाजपा को छोड़कर समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के नेतृत्‍व वाले गठबंधन का दामन थाम लिया. ज़मीनी स्‍तर पर काम कर रहे कई पत्रकारों ने यह दावा किया था कि चुनावों में समाजवादी पार्टी की जीत निश्‍चित है. फिर ऐसा क्‍या हुआ कि भाजपा ने बहुत आसानी से समाजवादी पार्टी को पटखनी दे दी?

जहाँ जातिगत समीकरणों और सत्‍ता-विरोधी लहर का लाभ समाजवादी पार्टी को मिला, वहीं भाजपा के पक्ष में कई कारक काम कर रहे थे. साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण तो था ही, आरएसएस का अत्‍यंत प्रभावी नेटवर्क भी था. हमें यह याद रखना होगा कि भाजपा एक बड़े कुनबे का हिस्‍सा है, जिसका नेतृत्‍व हिंदू राष्‍ट्रवाद के पितृ संगठन आरएसएस के हाथों में है. जब भी कोई चुनाव होता है, संघ के हज़ारों प्रचारक और लाखों स्वयंसेवक भाजपा की ओर से मोर्चा सम्‍हाल लेते हैं. उत्‍तरप्रदेश में चुनाव के पहले संघ के सर सहकार्यवाहक अरूण कुमार ने संघ के अनुषांगिक संगठनों के नेताओं की एक बैठक बुलाकर उन्‍हे यह निर्देश दिया था कि चुनाव अभियान में वे भाजपा की मदद करें.

इस बार तो संघ के मुखिया मोहन भागवत ने भी खुलकर कहा था कि‍ चुनाव अभियान में हिंदुत्‍ववादी कार्यक्रमों (राम मंदिर, काशी विश्‍वनाथ कॉरिडोर) व राष्‍ट्रवादी कार्यवाहियों (बालाकोट) को प्रमुखता से उठाया जाए. चुनाव के दूसरे चरण की समाप्‍ति के बाद भागवत ने संघ के कार्यकर्ताओं से ज़ोर-शोर से भाजपा के पक्ष में काम करने का निर्देश दिया था क्योंकि ऐसा लग रहा था कि पहले दो चरणों में भाजपा का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था. जहाँ तक जातिगत समीकरणों का प्रश्‍न है उन्‍हे साधने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण को और गहरा किया गया. सोशल इंजीनियरिंग के जरिए पार्टी ने पहले ही पददलित वर्गों को अपने साथ ले लिया था. संघ के कुनबे के पास पहले से ही एक विशाल प्रचार तंत्र है जिसके जरिए वह समाज के प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति तक अपनी बात पहुंचा सकता है. यह सचमूच अद्भुत है कि संघ ने किस प्रकार बढ़ती हुई कीमतों, युवाओं में बेरोज़गारी, किसानों की बदहाली और अल्पसंख्‍यकों को आतंकित करने की अनेक घटनाओं के बावजूद मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में सफलता हासिल की . 

सन् 2017 के चुनाव में भाजपा गठबंधन ने यह प्रचार किया था कि केवल वही हिन्‍दुओं के हितों की रक्षा कर सकता है और समाजवादी पार्टी व कांग्रेस मुस्‍लिम परस्‍त हैं. इस बार योगी आदित्‍यनाथ ने गज़वा-ए-हिन्‍द का डर दिखाया और कहा कि मुसलमान अपनी आबादी बढ़ाकर देश पर अपना नियंत्रण स्‍थापित करना चाहते हैं. योगी और मोदी दोनों मुस्‍लिम अल्‍पसंख्‍यकों को निशाना बनाते रहे. मोदी ने कहा कि साईकिल (समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्‍ह) का इस्‍तेमाल बम धमाके करने के लिए किया जाता रहा है. यह दुष्‍प्रचार भी किया गया कि केवल मुसलमान ही आतंकवादी होते है. योगी, समाजवादी पार्टी को मुसलमानों से और मुसलमानों को माफिया, अपराध और आतंकवाद से जोड़ते रहे. कैराना के नाम पर डर पैदा किया गया और मुज़फ्फरनगर हिंसा के लिए मुसलमानों को जिम्‍मेदार ठहराया गया. आदित्‍यनाथ ने 80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत की बात कहकर समाज को बाँटने का भरसक प्रयास किया. वे मुलायम सिंह यादव को अब्‍बाजान कहते रहे. इस बार योगी ने भाजपा के विघटनकारी एजेंडे को लागू करने में अपने सभी पिछले रिकॉर्ड ध्‍वस्‍त कर दिए.

इन नतीजों का 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर क्‍या असर होगा यह कहना अभी मुश्‍किल है. यद्यपि मोदी ने तो यह कह ही दिया हैं कि 2024 में इन्‍ही चुनावों के नतीजे दोहराए जाएंगे. यह सही है कि वर्तमान में देश में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर ऐसी कोई राजनैतिक शक्‍ति नही है जो विभाजनकारी राजनीति के बढ़ते कदमों को थाम सके, हमारी प्रजातांत्रिक संस्‍थाओं में आ रही गिरावट को रोक सके, लोगों के लिए रोज़गार की व्‍यवस्‍था कर सके, आर्थिक असमानता को घटा सके और किसानों की बदहालही को दूर कर सके. आज हमारे देश में धार्मिक अल्‍पसंख्‍यक डरे हुए हैं और अपने मोहल्‍लों में सिमट रहे हैं.

देश में प्रजातांत्रिक अधिकारों और धार्मिक स्‍वतंत्रता से जुड़े सूचकांकों में गिरावट आ रहीं है. फिरकापरस्‍ती ने जनमानस में गहरी जड़ें जमा ली हैं. साम्‍प्रदायिक ताकतें अत्‍यंत कुशलतापूर्वक लोगो की राय बदल रहीं हैं. गोदी मीडिया, सोशल मीडिया, आईटी सेल और फेक न्‍यूज़ साम्‍प्रादायिक राष्‍ट्रवादियों को मजबूती दे रहे हैं.

विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह साफ हैं कि भाजपा-आरएसएस की चुनाव मशीनरी अत्‍यंत शक्‍तिशाली है और बंटा हुआ विपक्ष उसका मुकाबला नहीं कर सकता. विपक्ष का हर नेता अपने आप को मोदी के विकल्‍प के रूप में प्रस्‍तुत कर रहा है. इससे न तो साम्‍प्रादियक ताकतें पराजित होंगी और ना ही देश संविधान के दिखाए रास्‍ते पर चल सकेगा. क्‍या सभी विपक्षी पार्टियां, संवै‍धानिक मूल्‍यों की रक्षा और जनकल्‍याण पर आधारित न्‍यूनतम सांझा कार्यक्रम तैयार कर एक गठबंधन नहीं बना सकतीं? इस गठबंधन का नेता कौन हो यह चुनाव के बाद तय किया जा सकता है. गठबंधन के जिस घटक के सबसे अधिक सांसद हो, प्रधानमंत्री का पद उसे दिया जा सकता हैं. अब समय आ गया है कि जो लोग गाँधी, अम्‍बेडकर और भगतसिंह के मूल्‍यों की रक्षा करना चाहते हैं वे अपने व्‍यक्‍तिगत हितों की परवाह न करते हुए देश और उसके नागरिकों के हितों की चिंता करें. यह हमारे नेताओं के लिए परीक्षा की घड़ी है. क्‍या वे केवल अपनी प्रगति की सोचते रहेंगे या वे देश के करोंड़ों नागरिकों की फिक्र करेंगे? (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन्  2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

गुरुवार, 17 मार्च 2022

वह आदिवासी संस्कृति पर हमला था: एल. एस. हरदेनिया

आदिवासियों के ऐतिहासिक भगोरिया उत्सव के दौरान दो आदिवासी महिलाओं के साथ बदसलूकी और उनकी इज्जत लूटने का प्रयास करने की हरकत की जितनी भर्त्सना की जाए कम है। झाबुआ और आसपास के आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाने वाला यह उत्सव अत्यधिक उच्च मर्यादाओं के साथ मनाया जाता है। मुझे स्वयं इस उत्सव में शामिल होने का अवसर मिला है। उत्सव में पुरूष और महिलाएं पूरे उत्साह के साथ भाग लेते हैं। उत्सव का माहौल ऐसा होता है कि भाग लेने वाले यह भूल जाते हैं कि वे पुरूष हैं या महिला।

सदियों से मनाए जाने वाले इस उत्सव में कभी भी बदसलूकी की शिकायत नहीं मिली। टाईम्स ऑफ इंडियामें प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार कुछ लोगों ने दो महिलाओं का हाथ पकड़कर उन्हें चूमने का प्रयास किया। जब इन महिलाओं ने भागने की कोशिश की तो पुरूषों की एक भीड़ ने उन्हें घेर लिया और उनके साथ बदसलूकी की।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह बदसलूकी होती रही और लोग उसे मौन रहकर देखते रहे। मेरी राय मंे यह हरकत आदिवासियों की संस्कृति पर हमला था। मेरी मांग है कि जिन लोगों ने ऐसी हरकत की है उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाए। साथ ही यह भी पता लगाया जाए कि इस साजिश के पीछे किसका हाथ है और क्या यह योजनाबद्ध तरीके से की गई हरकत है।   

(एल  एस हरदेनिया,  संयोजकराष्ट्रीय सेक्युलर मं एवं अध्यक्ष कौमी एकता ट्रस्ट द्वारा जनहित में जारी  मोबाईल 09425301582)

कांग्रेस के मटियामेट होने की जिम्मेदारी किसकी

अवधेश कुमार

कांग्रेस पार्टी ऐसी दशा में पहुंच गई है जहां उसके घोर समर्थक भी कहते हैं कि उस पर चर्चा के अब कोई मायने नही। पांच राज्यों के चुनावों में फिर मटियामेट होने के बाद कांग्रेस के पास कहने के लिए ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी तरह की उम्मीद जग सके। सोनिया गांधी परिवार के घोर समर्थक और उनके लिए मोर्चा लेने वाले भी कह रहे हैं कि इन्हें पार्टी से ही नहीं राजनीति से अलग कर लेना चाहिए ताकि कांग्रेस खड़ा होने का अवसर प्राप्त कर सके। यानी इन सबकी दृष्टि में कांग्रेस के पुनर्जीवित व पुनर्गठित होने में सबसे बड़ी बाधा परिवार ही है। निश्चित रूप से सभी इससे सहमत नहीं होंगे किंतु यह प्रश्न तो उठेगा ही कि अगर आज कोई सक्षम कार्यकर्ता या नेता या कार्यकर्ताओं- नेताओं का समूह कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा करने के लिए सामने आए तो क्या उसे ऐसा अवसर मिलेगा? 

कह सकते हैं कि ऐसा कोई व्यक्ति तो दिख नहीं रहा। ऐसा व्यक्तित्व कौन है इसका फैसला कैसे होगा? कोई कोशिश करेगा तभी तो उसकी प्रतिभा और क्षमता का पता चलेगा। क्या अभी कांग्रेस में ऐसी कोशिश करने वाले को स्वतंत्रता और समर्थन मिलने की गुंजाइश है?इसी प्रश्न के उत्तर में कांग्रेस का अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों निहित है। पांचों राज्यों में रणनीति बनाने से लेकर उम्मीदवारों के चयन व नेतृत्व का चेहरा तय करने आदि का नियंत्रण किनके हाथों में था? इसके उत्तर में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा का नाम लेने में किसी को मिनट भर भी देर नहीं लगेगी। उत्तर प्रदेश की पूरी कमान प्रियंका वाड्रा के हाथों थी तो राहुल गांधी पांचो राज्यों के मुख्य प्रचारक। निश्चित रूप से सोनिया गांधी अपनी अस्वस्थता के कारण सामने नहीं आ सकती लेकिन हर फैसले और विमर्श में उनकी भूमिका रही होगी। दुर्भाग्य यह है कि जब भी कोई गंभीरता से कांग्रेस के हित की दृष्टि से परिवार के अलग होने का सुझाव देता है तो उन्हें सीधे कांग्रेस विरोधी और किसी न किसी पार्टी का समर्थक या अन्य तरह के आरोपों से लाद दिया जाता है। जरा सोचिए, उत्तराखंड में हर 5 वर्ष पर सत्ता बदलने की परंपरा रही है। इस नाते कांग्रेस के पास पूरा अवसर था। वहां कांग्रेस ही मुख्य विपक्ष थी। बावजूद उसकी ऐसी दशा हो गई कि मुख्यमंत्री के उम्मीदवार हरीश रावत तक चुनाव हार गए। इसी तरह मणिपुर में लगातार तीन बार सत्ता में रहने के बाद 2017 में भाजपा से ज्यादा सीटें रहने के बावजूद वह।सरकार नहीं बना पाई और इस बार उसकी दशा जद यू और एनपीएफ की तरह हो गई। कांग्रेस को जद यू और एनपीएफ के समान 5 सीटें मिली हैं। इनसे ज्यादा एनपीपी ने 7 सीटें प्राप्त की है। भाजपा को 32 सीटें तथा 37.83% मत मिला है तो कांग्रेस को केवल 16.83%। एनपीपी को 17.29% वोट मिला। यानी कांग्रेस वहां अब भाजपा के बाद दूसरे स्थान पर भी नहीं है। जो विधायक जीत कर आए हैं वो कितनी देर तक कांग्रेस के साथ रहेंगे यह भी नहीं कहा जा सकता। संभव है आने वाले दिनों में विधानसभा में कांग्रेस का नाम लेवा इस विधानसभा में ना रहे ।गोवा में भी उसके पास अवसर था लेकिन कांग्रेस 11 सीटों तक सीमित हो गई जबकि भाजपा 20 स्थान पाने में कामयाब रही। कांग्रेस के शीर्ष चेहरा पी चिदंबरम वहां जमे हुए थे। वे भी कुछ न कर सके। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इसके बाद फिर कांग्रेस इन राज्यों में खड़ी हो पाएगी?

 पंजाब में कांग्रेस इसके पहले कभी 18 सीटें और 22.98 प्रतिशत मत के निचले स्तर पर नहीं गई। जिसे परिवार ने मुख्यमंत्री बनाया वही दोनों स्थानों से चुनाव हार गए। जिसे अध्यक्ष बनाया वह भी गए। अकाली दल और भाजपा के गठबंधन टूटने तथा अमरिंदर सिंह के बाहर निकलने के बाद कुछ विशेष न कर पाने की हालत में कांग्रेस के पास सत्ता में वापसी का पूरा अवसर था। लेकिन आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को धूलधुसरित कर दिया। सच कहा जाए तो कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को इतनी बड़ी जीत थाली में सौंप कर दे दी। उत्तर प्रदेश के बारे में कह सकते हैं कि  वहां कांग्रेस है ही नहीं। हालांकि यहां भी प्रश्न उठेगा कि क्यों नहीं है। कितने राज्यों में कहा जाएगा कि कांग्रेस है ही नहीं? कल कहा जाएगा कि बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, दिल्ली आदि में तो कांग्रेस है ही नहीं। आखिर इन राज्यों की राजनीतिक मुख्यधारा से कांग्रेस गायब किसके काल में हुई और क्यों हुई? सोनिया गांधी के हाथों जब कांग्रेस का नेतृत्व आया तो इन सारे राज्यों में वह सशक्त थी। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, दिल्ली और उड़ीसा में मुख्य ताकत थी। यही सच्चाई बताती है कि कांग्रेस की वर्तमान दशा एक-दो दिन की नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस के सिमटते जाने की प्रक्रिया लगातार बढ़ती रही और उसे रोकने में नेतृत्व कामयाब नहीं हुआ। यह बात सही है कि कांग्रेस के पतन की शुरुआत बरसों पहले हो चुकी थी और 2004 एवं 2009 में परिस्थितिवश वह सत्ता में आ पाई। लेकिन जहां तक आए वहां से संभाल कर रखने और उसे सशक्त करने की जिम्मेवारी नेतृत्व की ही थी। सोनिया गांधी शीर्ष नेतृत्व पर थी। सरकार के प्रधान मनमोहन सिंह थे लेकिन सत्ता और राजनीति का पूरा सूत्र सोनिया गांधी के हाथों केंद्रित था। इसलिए पूरी दुर्दशा की जिम्मेवारी किसके सिर जाएगी? पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को बाहर करने, सिद्धू को अध्यक्ष बनाने, उनके सारे आत्मघाती बयानों को सहन करने तथा चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने जैसे निर्णयों के पीछे किसी तरह की स्वीकार्य तार्किकता दिखाई देती है? इसके पीछे कोई एक कारण था तो यही कि अमरिंदर सोनिया परिवार के विरोधी न होते हुए भी संपूर्ण रूप से निष्ठावान नहीं हो सकते थे। सिद्धू परिवार को महत्व देते थे और चन्नी निष्ठावान फुल। अगर लक्ष्य कांग्रेस की मजबूती की जगह परिवार की सुरक्षा हो जाए तो पार्टी की यही दशा होगी। यह कोई एक जगह की बात नहीं है । आप पिछले ढाई दशक के अंदर केंद्र से राज्यों तक पार्टी में सामने आए चेहरों पर नजर दौड़ाइये पूरी तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी।

इस समय कांग्रेस लगभग नष्ट होने की कगार पर है। जहां भी कांग्रेस है वहां ज्यादातर पार्टियां उसे निगल जाने के लिए प्रयासरत है। तृणमूल कांग्रेस पहले आगे थी। अब आम आदमी पार्टी भी सामने है। दिल्ली और पंजाब के बाद उसका निशाना हरियाणा और कर्नाटक है। वह गुजरात में भी कोशिश करेगी और गोवा में अगले चुनाव तक किसी तरह कांग्रेस का नामोनिशान मिटा देने के लिए काम करेगी। तृणमूल पश्चिम बंगाल में साफ करने के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों से कांग्रेस की अंत्येष्टि का पूरा आधार तैयार कर चुकी है। अभी तक सोनिया गांधी परिवार और उनके रणनीतिकारों की ओर से एक ऐसा बयान नहीं आया जिससे पता चले कि इन पार्टियों का ग्रास बनने से कांग्रेस को बचाने की सोच तक इनके पास है। यह बात समझ से परे है कि कि सोनिया गांधी , राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा तथा उनके समर्थकों को इसका आभास नहीं कि जब पार्टी खत्म हो जाएगी तो परिवार की हैसियत कुछ नहीं रहेगी। क्यों नहीं पार्टी में नया नेतृत्व या नेतृत्व मंडली विकसित करने की पहल हो रही है? राहुल गांधी ने त्यागपत्र दे दिया लेकिन बिना पद के ही संपूर्ण नीति निर्धारण का सूत्र उनके हाथों सीमित रहेगा। सोनिया गांधी प्रवास तक करने की स्थिति में नहीं लेकिन कार्यकारी अध्यक्ष तब तक वो रहेंगी जब तक राहुल गांधी के सिर सेहरा नहीं बंध जाता। जो नेता इसके विरुद्ध असंतोष प्रकट कर रहे हैं या बयान दे रहे हैं वह भी खुलकर सामने नहीं आते। अगर वे सब कांग्रेस को बचाना चाहते हैं तो उन्हें खुलकर विद्रोह करना चाहिए तथा समानांतर कांग्रेस बनाकर नए सिरे से पुनर्रचना और पुनर्गठन के लिए जी जान लगाना चाहिए। जिन्हें कांग्रेस के पतन की पीड़ा और उसको बचाने की छटपटाहट है उनके सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं। ऐसा कोई करता नहीं दिख रहा है इसलिए इस समय  कांग्रेस के उठकर खड़े होने की किसी तरह की उम्मीद करना हास्यास्पद हो जाएगा।

अवधेश कुमार,ई- 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल -98110 27208

बुधवार, 16 मार्च 2022

कश्मीर फाईल्स‘ का उपयोग समाज को विभाजित करने के लिए न करें: एल. एस. हरदेनिया

फिल्में स्वस्थ मनोरंजन का स्त्रोत होती हैं। उनका उपयोग समाज को विभाजित करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए जैसा कुछ लोग 'द कश्मीर फाईल्स'के मामले में कर रहे हैं। विभाजित और ध्रुवीकृत समाज विकास के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा होता है।

ऐसे समाज में न तो गरीबी का अभिशाप कम होता है, न ही शिक्षा के मंदिरों के पट खुल पाते हैं और ना ही स्वास्थ्य की सुविधाओं में इजाफा होता है। हां, चुनाव जरूर जीता जा सकता है।

इसलिए 'द कश्मीर फाईल्स'का उपयोग समाज में तनाव पैदा करने के लिए न करें। अंत में यह कहना चाहूंगा कि मध्यप्रदेश सरकार ने पुलिसकर्मियों को 'द कश्मीर फाईल्स'देखने के लिए एक दिन का अवकाश देने की घोषणा की है। काश गांधीफिल्म देखने के लिए एक दिन की छुट्टी दी जाती तो कितना अच्छा होता। 
(एल  एस हरदेनिया संयोजक, राष्ट्रीय सेक्युलर मंच एवं अध्यक्ष कौमी एकता ट्रस्ट द्वारा जनहित में जारी  मोबाईल 09425301582)

 

शनिवार, 12 मार्च 2022

चुनाव परिणामों का सच यही है

अवधेश कुमार

जिन लोगों ने पांच राज्यों में अलग चुनाव परिणामों की उम्मीद लगा रखी थी निश्चित रूप से उन्हें आघात लगा है। हमारे समाज में अग्रिम मोर्चे पर खड़े ऐसे लोगों की संख्या काफी है जो धरातल की वास्तविकता की बजाय अपनी सोच के अनुरूप जन मनोविज्ञान की कल्पना कर लेते हैं। इस समूह का मानना था कि पांच में से चार राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं ,इसलिए प्रदेश के साथ केंद्र सरकार के दोहरे विरोधी जन मनोविज्ञान का सामना करना होगा।  इसके साथ इनका विश्लेषण यह भी था कि केंद्र और प्रदेश की भाजपा सरकारों ने नीतियों और वक्तव्यों में हिंदुत्व पर जैसी  प्रखरता दिखाई है उससे मुसलमानों और ईसाइयों के साथ पढ़ा-लिखा वर्ग भी नाराज है। इस तरह उसे तीन प्रकार के सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना है और उसकी सरकारों का जाना निश्चित है। चुनाव परिणामों ने फिर एक बार इन्हें पूरी तरह गलत साबित कर दिया है। हालांकि चुनावी अंकगणित के आधार पर अभी भी ये अपनी हवाई कल्पनाओं को सही साबित करने के लिए अलग-अलग तरह के तर्क और तथ्य दे रहे हैं। हम और आप जानते हैं कि ये सारे तथ्य और तर्क खोखले हैं जिनका वास्तविकता से लेना-देना नहीं।

उत्तर प्रदेश को लीजिए तो तीनों श्रेणी का सत्ता विरोधी रुझान सबसे ज्यादा यही होना चाहिए। आखिर हिंदुत्व का सर्वाधिक मुखर प्रयोग इसी राज्य में हुआ। अल्पसंख्यकों में मुसलमानों तथा भाजपा विरोधियों की सर्वाधिक संख्या यही थी। भाजपा के विरुद्ध प्रचार करने वाली गैर दलीय ताकतें भी यहां सबसे ज्यादा सक्रिय थीं। यह वातावरण बनाया गया था कि भाजपा को पराजित करना है तो एकजुट होकर बिना आगा पीछा सोचे सपा के पक्ष में मत डाला जाए। हुआ भी यही। बसपा की कमजोर उपस्थिति के कारण भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में हुआ। सपा को प्राप्त मतों और सीटों में वृद्धि का मूल कारण यही है। उसके पक्ष में सकारात्मक के बजाय भाजपा हराओ मानसिकता का नकारात्मक मत ज्यादा है। दूसरी ओर भाजपा के पक्ष में सकारात्मक मत ज्यादा है। दरअसल, हिंदुत्व और उस पर आधारित राष्ट्रीयता के साथ केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा समाज के वंचित तबकों के हित में किए गए कार्य, उनको पहुंचाए गए लाभ, अपराध नियंत्रण के कारण कायम सुरक्षा स्थिति तथा नेतृत्व के रूप में केंद्र में नरेंद्र मोदी और प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति ने विरोधियों की कल्पनाओं को ध्वस्त कर दिया। नेतृत्व के स्तर पर इन दोनों के सामने कोई नेता टिकता ही नहीं था। प्रोफेशनलों, कारोबारियों ,महिलाओं ..सबके लिए सुरक्षा प्राथमिक चिंता का विषय था और इस कसौटी पर केवल भाजपा सरकार खरी उतरती थी। इसी तरह केंद्र और प्रदेश सरकार ने आम जन के पक्ष में कल्याणकारी कार्यक्रमों के साथ सिर पर छत, संकट काल में पेट में अन्न तथा जेब में थोड़े पैसे पहुंचाने की नीतियों से ऐसा बड़ा समर्थक समूह खड़ा कर दिया है जिसकी काट किसी के पास नहीं।

ये बातें भाजपा शासित सभी राज्यों में थोड़ा या ज्यादा लागू होतीं हैं। चाहे उत्तराखंड हो मणिपुर या गोवा सब जगह लाभार्थियों का एक बड़ा वर्ग तैयार हो चुका है। जितनी संख्या में लोगों को आवास इन सरकारों में मिले, बिजलियां पहुंचाई गई, किसानों के खाते में धन पहुंचा,गरीब मजदूरों के निबंधन के बाद खातों में धन पहुंचा तथा कोरना टीकाकरण हुआ उन सबसे सरकारों की सकारात्मक छवि बनी। उत्तराखंड में लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी का रिकार्ड बना देना असाधारण है। भाजपा ने तीन मुख्यमंत्री बदले और उसकी छवि पर इसका असर हुआ लेकिन दूसरी ओर इससे पार्टी के अंदर का असंतोष दूर हो गया। पार्टी के अंदर असंतोष नहीं हो तो लड़ाई जीतना आसान होता है। पार्टी की भारी विजय के बावजूद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हालांकि स्वयं हार गए   लेकिन जितना कम समय मिला उसमें उनको लेकर प्रदेश  किसी तरह की नकारात्मक धारणा कायम नहीं हुई। भाजपा एकीकृत होकर चुनाव लड़ रही थी। जो छोटे-मोटे विद्रोह हुए उनका ज्यादा असर नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहाड और तराई के लिए विकास की जो कल्पना दी और केदारनाथ व अन्य धार्मिक स्थलों से लेकर तीर्थ यात्राओं के लिए जितना कुछ किया उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उत्तराखंड के लोगों के समक्ष भाजपा के सामने केवल कांग्रेस ही दूसरा विकल्प है। उत्तराखंड की स्थापना के बाद कोई भी सरकार लगातार दोबारा चुनाव में वापस नहीं आई। इसमें कांग्रेस के लिए उम्मीद थी। कांग्रेस उत्तराखंड के लिए भाजपा के समानांतर कोई ऐसा विज़न नहीं दे सकी जिससे जनता का आकर्षण उसकी ओर बड़े स्तर पर पैदा हो। हरीश रावत उत्तराखंड के लोगों के लिए जाने पहचाने नेता हैं लेकिन उन्हें ही एक समय अपनी पार्टी की अंदरूनी कलह से दुखी होकर ट्वीट करना पड़ा। केंद्रीय नेतृत्व इस अवस्था में नहीं कि उनकी कोई मदद कर सके। 

मणिपुर और गोवा दोनों राज्यों के चुनाव परिणामों से भी कुछ मुखर संदेश निकले हैं। मणिपुर में बहुमत प्राप्त करने का सर्वाधिक प्रमुख संदेश यही है कि भाजपा वहां स्थापित ताकत बन चुकी है। लगातार तीन बार सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की दशा सबके सामने है। साफ है कि पूर्वोत्तर में अब भाजपा मुख्य ताकत है। पिछले चुनाव में केवल 21 सीट पाने वाली भाजपा पांच वर्ष तक सरकार चलाने में सक्षम इसलिए हुई , क्योंकि दूसरी पार्टियों के विधायक भी किसी से उम्मीद करते थे। हालांकि तृणमूल कांग्रेस के लिए यह परिणाम आघात पहुंचाने वाला है ,क्योंकि कांग्रेस को निगलते जाने के कारण उसका मानना है कि वह पूर्वोत्तर की प्रमुख शक्ति होगी। साफ है कि मणिपुर उसके लिए पश्चिम बंगाल नहीं है। गोवा में पिछली बार भाजपा को केवल 14 सीटें मिली थी। कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा नहीं किया और ज्यादातर गैर कांग्रेसी विधायकों का रुझान भाजपा की तरफ था। इस बार मनोहर पर्रिकर जैसा नेता न होने के बावजूद लोगों ने अगर उसे 18 सीटें दी तो जाहिर है न सरकार के विरुद्ध रुझान था और न ही कांग्रेस सहित आम आदमी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस को लेकर कोई आकर्षण। तृणमूल ने यहां भी कांग्रेस के नेताओं को शामिल कर अपने आपको राष्ट्रीय स्तर की पार्टी साबित करने की कोशिश की थी। चुनाव परिणामों ने उसके सपने को यहां भी धराशाई किया है।

पंजाब में भाजपा लंबे समय से बड़ी शक्ति नहीं रही है। अकाली दल के गठबंधन में उसे 23 विधानसभा और 3 लोकसभा सीटें ही लड़ाई के लिए मिलती रही है। इस कारण जनसंघ के समय एक ताकत होते हुए भी बाद में उसका राजनीतिक विस्तार पूरे प्रदेश में नहीं हो पाया। कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से अलग तो हुए लेकिन उसे ज्यादा क्षति पहुंचाकर अपनी पार्टी को सक्षम बनाएं, लोगों के बीच जाकर माहौल बनाएं ऐसा अभियान उन्होंने नहीं चलाया। इसमें भाजपा, पंजाब लोक कांग्रेस तथा ढिंढसा के अकाली दल के गठबंधन के बेहतर करने की उम्मीद भी नहीं थी। भाजपा से अलग होने के बाद अकाली दल का एक बड़ा मत आधार कट गया। बसपा वहां अब इस स्थिति में नहीं कि दलितों का बड़ा वर्ग उसे अपनी पार्टी माने। दूसरी ओर  अंतर्कलह से जूझती हुई कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी विकल्प के रूप में उपलब्ध थी। हालांकि मतदान को लेकर पार्टियों के परंपरागत मतदाता के अंदर उत्साह नहीं था तभी तो 2007,  2012 और 2017 की तुलना में काफी कम वोट पड़े है। मोहाली जैसी जगह में नए मतदाताओं में से केवल 35% ने वोट डाला। हर चुनाव में सक्रिय रहने वाले अनिवासी पंजाबी भी इस बार चुनाव से दूर रहे। इस तरह पंजाब के चुनाव को कद्दावर नेताओं तथा उनके नेतृत्व वाली पार्टियों की अनुपस्थिति के कारण परिवर्तन की आकांक्षा वाली जनता द्वारा जो है उसमें से किसी को मत देने के विकल्प का परिणाम कहा जा सकता है। इसका तात्कालिक निष्कर्ष यह हो सकता है कि पंजाब अभी उपयुक्त राजनीतिक धाराओं की तलाश करेगा।

किसी दल, विचारधारा या नेताओं से वितृष्णा से परे हटकर निष्पक्षता से विश्लेषण करें तो इन पांच राज्यों ने देश के आम जन की सामूहिक सोच को प्रकट किया है। यह सोच साफ करती है कि भाजपा और उसके नेताओं की विचारधारा ,उप पर आधारित नीतियों ,जनकल्याणकारी संबंधी उनके कार्यक्रमों आदि को लेकर बनाई गई नकारात्मक और विपरीत धारणा का जमीन स्तर के यथार्थ से लेना देना नहीं है। उत्तर प्रदेश से लेकर पूरब में मणिपुर और समुद्र के किनारे गोवा जैसे आधुनिक जीवन शैली वाले प्रदेश की आवाज में कुछ एकता है तो इसकी ध्वनियों को जरा गहराई से समझने की आवश्यकता है।

अवधेश कुमार, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092



गुरुवार, 3 मार्च 2022

सरकारों को मीडिया के नजरिए के आधार पर अपनी विज्ञापन नीति निर्धारित नहीं करनी चाहिए

एल. एस. हरदेनिया

यह प्रसंग पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल का है। अंग्रेजी साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' देश का एक शक्तिशाली अखबार था। उसकी छवि नेहरू विरोधी समाचारपत्र की थी। समाचार पत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादी एवं पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध प्रतिबद्ध था। उस दौरान अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मुखिया भारत आए। बंबई में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में उनसे पूछा गया कि इस तथ्य के बावजूद कि ब्लिट्ज प्रधानमंत्री नेहरू और पूंजीवाद का घोर विरोधी है, आपकी कंपनी उसे भरपूर विज्ञापन देती है ऐसा क्यों? प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि जिस समाचारपत्र को हम विज्ञापन देते हैं, वह क्या लिखता है, उसकी नीति क्या है, वह किसका समर्थन करता है, किसका विरोध करता है, इससे हमें कोई मतलब नहीं है। हम तो यह देखते हैं कि उसके पाठकों की संख्या कितनी है। क्योंकि विज्ञापन देने का हमारा उद्धेश्य अपने उत्पाद की विशेषताओं की जानकारी ज्यादा से ज्यादा पाठकों को देना और विज्ञापन के माध्यम से पाठकों को प्रभावित करना है।

जहां साधारणतः निजी क्षेत्र विज्ञापन की ऐसी नीति अपनाता है वहीं सरकारों की विज्ञापन की नीति भिन्न होती है। सरकारें विज्ञापन के माध्यम से मीडिया पर नियंत्रण रखने का प्रयास करती हैं। जिन देशों में सैकड़ों वर्षों से लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है, वहां यह मान्यता है कि लोकतंत्र उसी हालत में फलता-फूलता है जहां प्रतिपक्ष शक्तिशाली हो। ब्रिटेन में तो प्रतिपक्ष को हर मेजिस्टिीज अपोजीशन कहा जाता है। परंतु इसके विपरीत उन देशों में जो कुछ दशकों पहले ही आजाद हुए, सत्ता में बैठा दल प्रतिपक्ष को कमजोर करने का सतत प्रयास करता रहता है। सत्ता में बैठा दल ऐसा ही व्यवहार मीडिया के साथ भी करता है।

इस समय मेरे घर पर 20 से 25 दैनिक समाचारपत्र आते हैं। मैं प्रायः देखता हूं कि मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन लगभग सदैव ऐसे समाचारपत्रों में प्रकाशित होते हैं जिनके कालमों में सरकार विरोधी सामग्री कम ही छपती है। कबजब सरकार विरोधी समाचारपत्रों में ऐसे विज्ञापन भी नहीं छपते जिनका उद्धेश्य ऐसे कार्यक्रमों एवं योजनाओं की जानकारी पाठकों को देना होता है जो मूलतः जनहितैषी हैं।

जैसे कुछ दिन पहले मध्यप्रदेश में पोलियो अभियान लांच किया गया। परंतु इस अभियान का विज्ञापन उन समाचारपत्रों को नहीं दिया गया जिन्हें सरकार अपना विरोधी मानती है। वर्तमान में सरकारी विज्ञापन ‘दैनिक भास्कर‘ में नजर नहीं आते। कम से कम मुझे तो दैनिक भास्कर में पोलियो अभियान का विज्ञापन नहीं दिखा। पोलियो हमारे देश का अत्यधिक महत्वपूर्ण अभियान है जिसपर हमारे बच्चों का भविष्य निर्भर है। पोलियो ड्राप की दो बूंदे इस बात की गारंटी होती हैं कि आप पर लकवे का हमला नहीं होगा। ऐसा जनोपयोगी विज्ञापन जिन अखबारों में नहीं छपा उनके पाठकों को इस बात का पता नहीं लगेगा कि उन्हें अपने बच्चों को पोलियो की दवा की दा बूंदें पिलाना है। 

कोरोना के संदर्भ में भी अनेक चेतावनी भरी सूचनाएं दी जाती हैं। विज्ञापन के माध्यम से भी यह किया जाता है। परंतु ये सूचनाएं उन समाचारपत्रों के पाठकों तक नहीं पहुंच पातीं जिन्हें किन्हीं कारणों से सरकारी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं। 

पता नहीं यह संभव होगा या नहीं परंतु चुनावों के माध्यम से सत्ता हासिल करने वाली सरकारों को मीडिया के नजरिए के आधार पर अपनी विज्ञापन नीति निर्धारित नहीं करनी चाहिए। संसदीय प्रजातंत्र के तीन स्तंभ हैं - विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका। विधायिका के सदस्यों को (प्रतिपक्ष सहित) सरकारी कोष से वेतन व अन्य सुविधाएं मिलती हैं। इसी तरह किसी न्यायाधीश का वेतन इस कारण नहीं रोका जाता क्योंकि उसने सरकार विरोधी फैसले सुनाए। इसी तरह किसी अधिकारी का वेतन मात्र इस कारण नहीं रोका जाता कि उसने फाईल में मंत्री की राय के विपरीत राय दी है। 

मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। आए दिन मंत्री और अन्य राजनीतिक नेता मीडिया का गुणगान करते रहते हैं। परंतु जब मीडिया पर हमला होता है तब वे मौन धारण कर लेते हैं। मीडिया को भी जहां तक संभव हो ‘न काहू दोस्ती, न काहू से बैर' का रवैया अपनाना चाहिए और लगभग ऐसा ही रवैया सरकारों को भी अपनाना चाहिए। ऐसा होने पर ही मीडिया रचनात्मक भूमिका अदा कर सकता है।

-एल. एस. हरदेनिया, (मो. 9425301582)

 

जेटीबीएस संघ के संयोजक जमील अहमद ने रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव का किया धन्यवाद

नई दिल्ली। कोरोना के कारण जब पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया और लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने वाला साधन रेल को भी पूरी तरह से बंद कर दिया गया जिसका सीधा असर गरीब जनता पर पड़ा। पहले जनरल टिकट लेकर लोग सुपरफास्ट ट्रेनों में सफर कर लेते थे मगर वो दो साल से बंद था जिसे फिर से सुपरफास्ट ट्रेनों में लागू कर दिया गया है। इससे रेल यात्रियों को राहत मिलेगी और वे अपने गंतव्य स्थान तक कम राशि का टिकट लेकर पहुंच जाएंगे।

इस पर अखिल भारतीय जेटीबीएस संघ के संयोजक जमील अहमद ने खुशी का इजहार करते हुए कहा की केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव को धन्यवाद देते हुए कहा कि भारतवर्ष की रेल यात्रियों में खुशी की लहर है क्योंकि दो वर्षों बाद केंद्रीय मंत्री और उनके सहयोगियों ने जनरल टिकट फिर से सुपरफास्ट ट्रेनों में लागू कर दिया है। इससे रेल यात्रियों को राहत मिलेगी और वे अपने गंतव्य स्थान तक कम राशि का टिकट लेकर पहुंच जाएंगे और रेलवे को भी लाभ पहुंचेगा भारतवर्ष के रेल यात्रियों को दो सालो में बहुत महंगा किराया देकर यात्रा की और अतिरिक्त शुल्क भी दिया कोरोना के कारण देश के ज्यादातर तब कों का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया।


ज्यादातर लोगों की रोजी-रोटी छिन गई और काम की तलाश में जो लोग एक शहर से दूसरे शहर काम की तलाश में जाते थे उन्हें भी महंगा किराया देना पड़ रहा था। अब रेलवे के फैसले से सभी यात्रियों में खुशी की लहर है आशा करते हैं कि आगे भी केंद्रीय रेल मंत्री भारत वर्ष के नौजवानों के लिए कोई ना कोई नई योजना बनाएंगे जैसे कि पहले की सरकारों ने बेरोजगार नौजवानों के लिए और विकलांगों के लिए एसटीडी/ पीसीओ, मिसलेनियस आइटम, खानपान के छोटे स्टाल, रेलवे के प्लेटफार्म पर दिया थे इससे बहुत सारे नौजवानों को काम मिला और तत्कालीन सरकार को उनका सपोर्ट भी मिला यह सरकार भी इसी प्रकार के कार्य करते हुए देश को आगे बढ़ाएगी।

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