रविवार, 28 जून 2020

डेसू मजदूर संघ ने चीनी सामान व चीनी राष्ट्रपति का पोस्टर जला विरोध किया

संवाददाता 

 नई दिल्ली। डेसू मजदूर संघ ने आईटीओ स्थित बीएसईएस के ऑफिस के बाहर डेसू मजदूर संघ के पदाधिकारियों व सदस्यों ने चीन के खिलाफ नारेबाजी करते हुए चीनी सामान व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पोस्टर जलाए का पुतला फूंका और चीनी सामान का पूरी तरह से बहिष्कार की मांग की। डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव की अगुवाई में एक रैली निकालकर गलवन घाटी में शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि के बाद चीन के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किया। 

 डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव ने कहा कि भारत का हर नागरिक चीनी सामान का बहिष्कार कर एक सिपाही की ही भूमिका निभाएं। वहीं गलवान घाटी में शहीद हुए 20 सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का फोटो जलाकर विरोध प्रदर्शन किया।

डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव ने मोदी सरकार से मांग किया कि चीनी वस्तुओं के आयात से संबंधित लाइसेंस को तुंरत तत्काल निरस्त किए जाए। उन्होंने कहा कि जिन कंपनियों को चीन से सामान आयात करने के लाइसेंस दिए गए हैं। उसे तुरंत प्रभाव से निरस्त किए जाएं ताकि भारत के नागरिकों द्वारा चलाए जा रहे चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन पूर्ण रूप से सफल हो सके। उन्होंने आगे कहा कि हमें अपने देश में बने सामानों का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि चीन ने जो दुस्साहस किया है उसके लिए देश का हर व्यक्ति अब आर्थिक तौर पर उसका जवाब देगा।
इस मौके पर डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष श्री किशन यादव, महामंत्री सुभाष चन्द, ऋषि पाल,  अब्दुल रज्जाक, सभाजीत पाल, दिनेश,  सैन्तुल त्यागी, अशोक आदि मौजूद थे।



शुक्रवार, 26 जून 2020

इस तरह का विरोध और उपहास उचित नहीं

अवधेश कुमार

पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा कोरोना संक्रमण को ठीक करने के दावे के साथ कोरेानिल नाम की औषधि सामने लाने के साथ देश में जिस तरह तूफान खड़ा किया गया है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई नहीं कहता कि उस दवा के बारे में स्वामी रामदेव या अन्य लोग जो दावा कर रहे हैं उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लीजिए, लेकिन इस तरह का उपहास उड़ाना, उसे एक धोखाधड़ी बताना तथा अभियान चलाकर बदनाम करने की कोशिश किसी दृष्टि से तार्किक, मानवीय और उचित नहीं माना जा सकता। स्वामी रामदेव के पूर्व तीन कंपनियों ने एलोपैथी औषधियां बाजार में उतारी तो कोई हंगामा नहीं हुआ। हालांकि उन औषधियों से कोराना का संक्रमण दूर हो जाएगा इसकी गारंटी न कंपनी दे रही और न उसका उपयोग करने वाले डॉक्टर। प्रश्न है कि अगर पंतजलि आयुर्वेद यह दावा कर रहा है उसने इसका क्लिनिकल ट्रायल किया है, जिसमें उसे सफलता मिली है तो उसका परीक्षण करने में हर्ज क्या है? उनका दावा है कि कोरोना संक्रमित मरीजों पर परीक्षण के दौरान आरंभिक3-4 दिनों में 69 प्रतिशत और सात दिनों में 100 प्रतिशत मरीजों को स्वस्थ करने में सफलता मिली है। बिना इसकी जांच परख किए एगाबरगी झूठ करार दे देने का औचित्य क्या है? उत्तराखंड सरकार ने उस दवा को बेचने की स्वीकृति भी प्रदान की है।  

आयुष मंत्रालय ने तत्काल उस दवा के प्रचार और बिक्री को रोक दिया है। यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता है और उसे अपने मानकों पर संतुष्ट होना ही चाहिए। उसने कहा है कि दवा से जुड़े वैज्ञानिक दावे के अध्ययन और विवरण के बारे में मंत्रालय को कुछ जानकारी नहीं है। पतंजलि को अनुसंधान, कोरोनिल में डाले गए जड़ी-बुटियों सहित नमूने के आकार, स्थान आदि सारी जानकारियों के साथ उन अस्पतालों का ब्योरा देने को कहा गया है, जहां अनुसंधान अध्ययन किया गया। संस्थागत नैतिकता समिति की मंजूरी भी दिखाने को कहा गया है। मंत्रालय उत्तराखंड सरकार के सम्बंधित लाइसेंसिंग प्राधिकरण से इस दवा को स्वीकृति देने संबंधी आदेश की कॉपी मांगी गई है। यह बिल्कुल उचित कदम है। मंत्रालय के बयान के एक अंश पर नजर डालिए, ‘संबद्ध आयुर्वेदिक औषधि विनिर्माता कंपनी को सूचित किया गया है कि आयुर्वेदिक औषधि सहित दवाइयों का इस तरह का विज्ञापन औषधि एवं चमत्कारिक उपाय (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 तथा उसके तहत आने वाले नियमों और कोविड-19 के प्रसार के मद्देनजर केंद्र सरकार की ओर से जारी निर्देशों से विनियमित होता है। ’ पतंजलि की ओर से भी आयुष मंत्रालय को पूरी जानकारी दे दी गई है। इसके अनुसार यह दवा पतंजलि रिसर्च इंस्टीट्यूट और नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, जयपुर ने मिलकर बनाई है। उनका दावा है कि क्लििनिकल कंट्रोल ट्रायल के लिए उन्होंने सारी स्वीकृतिंया लीं तथा रैंडमाइज्ड प्लेसबो कंट्रोल्ड क्लीनिकल ट्रायल के जितने भी मानक परिमितियां हैं, उन सभी को शत-प्रतिशत पूरा किया गया है। पहले एथिकल स्वीकृति ली गई, फिर भारत की क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री से ट्रायल की अनुमति मिली और इसके बाद दवा का ट्रायल शुरू हुआ। इसके अनुसार इंदौर और जयपुर में 280 मरीजों पर इसका ट्रायल किया गया। 

हम इन सारी बातों को बिना जांच किए झूठ कैसे कह सकते हैं? आयुष मंत्रालय का बयान बिल्कुल स्पष्ट है। उससे साफ होता है कि मंत्रालय नियमों को लेकर कितना सतर्क और सख्त है। इससे कोरोना जैसी नई बीमारी के प्रति उसकी संवेदनशीलता और जिम्मेवारी भी झलकती है। जाहिर है, फैसला आयुष मंत्रालय को करने देना चाहिए। मंत्रालय जब तक सारे मापदंडों पर परख नहीं लेगा कोरोना दवा के रुप में इसकी स्वीकृति नहीं दे सकता। जैसा हम जानते हैं भारत में आयुर्वेदिक दवाओं को मंजूरी देने का जिम्मा आयुष मंत्रालय के पास है। केन्द्रीय आयुर्वेद विज्ञान अनुसंधान परिषद या सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंसेज पूरी प्रक्रिया पर नजर रखती है।  एलोपैथिक दवाओं को स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशालय डायरेक्टरेट जनरल ऑफ हेल्थ सर्विसिज के तहत आने वाले केन्द्रीय औषधिक मानक नियंत्रण संगठन या सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन स्वीकृति प्रदान करती है। इसी ने तीन कंपनियों की तीन एलापैथी दवाओं की स्वीकृति दी है। किंतु यहां कुछ बातें समझने की आवश्यकता है। आयुर्वेद एवं एलौपैथ प्रणाली में अनुसंधान, दवाओं के निर्माण, रोगों के निर्धारण, उनका उपचार आदि में मौलिक अंतर है। आयुर्वेद हमारे यहां लंबी और गहन साधाना, प्रयोगों, अनुभावों से आगे बढ़ीं और सशक्त हुईं। इसके लिए किसी डिग्री आदि की अवश्यकता नहीं थी। आयुर्वेद के जितने प्राचीन मानक ग्रंथ हैं वे सब ऋषि-मुनियों द्वारा रचित हैं। हमने आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अनुरुप आयुर्वेद के शिक्षालय अवश्य स्थापित किए, जो आवश्यक थे। अध्ययन, अनुसंधान और उपचार के लिए कुछ बड़े संस्थान भी खड़े किए गए हैं और किए जा रहे हैं। लेकिन आज भी हजारों ऐसे लोग हैं जो स्वयं जड़ी-बुटियों-वनस्पतियों से लेकर हमारे सामने उपलब्ध खाने-पीने की वस्तुओं से उपचार करते हैं और अनेक बार उसके चमत्कारिक परिणाम सामने आते हैं। काफी संख्या में ऐसे लोग हैं जो बताते हैं कि वे सारा इलाज करके हार गए थे, लेकिन फलां जगह के एक वैद्य ने या किसी गांव के बिना डिग्रीधारी व्यक्ति ने जड़ी-बुटियों, भस्मों से हमें ठीक कर दिया। कहने का तात्पर्य यह कि आयुर्वेद की किसी प्रक्रिया को समझने और जांचने का मानक वह नहीं हो सकता जो एलोपैथ का है। दोनों अलग-अलग स्वरुप की विधाएं हैं। इसका इस विधा के अनुरुप ही परीक्षण और अध्ययन करना होगा। आखिर जब एलोपैथ या दूसरी पैथियों की परख आयुर्वेद की कसौटियों के अनुसार नहीं हो सकती तो आयुर्वेद की दूसरी पैथियों के अनुसार क्यों होना चाहिए?

कोरोनिल कारगर दवा है या नहीं यह प्रश्न तो एक कंपनी से जुड़ा हुआ है और अब आयुष मंत्रालय को फैसला करना है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में यह दुखद तथ्य फिर सामने आया है कि हम अपने यहां गहन साधना से विकसित विधाओं को लेकर आत्महीनता के शिकार हैं। उपार की हर पैथी की अपनी विशेषता है और उसे स्वीकार करना चाहिए। किंतु आयुर्वेद एलोपैथ की तरह कोई नया आविष्कार नहीं कर सकता ऐसी सोच हमारी आत्महीनता को दर्शाती है। दूसरे, एलोपैथी दवाओं का ऐसा ताकतवर समूह है जो दूसरी पैथी को आसानी से मैदान में उतरने नहीं देता। वे अपनी दृष्टि से तरह-तरह के प्रश्न उठाते हैं तथा सरकारी तंत्र एवं बुद्धिजीवी उन्हीं मानकों पर आयुर्वेद को खरा उतरते देखना चाहते हैं। हम यह क्यों मान लेते हैं कि आयुर्वेद में ऐसी बीमारी की दवा विकसित नहीं हो सकती जिसमें एलोपैथ विफल हो रहा हो? कोरोना काल में ही हम देख रहे हैं कि करोड़ों लोग आयुर्वेदिक पद्धति के काढ़े का इस्तेमाल करके स्वयं को बचाए हुए हैं। हमने कोराना संक्रमित ऐसे मरीजों के बयान देखे हैं जो बता रहे हैं कि जब उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा तो उन्होंने वैद्यों की सलाह के अनुसार फलां-फलां जड़ी-बुटियों-वनस्पतियों का सेवन आरंभ किया और धीरे-धीरे बीमारी से मुक्त होते गए। जब कोई उसका आधुनिक विज्ञान की पद्धति से परीक्षण करेगा तो शायद परिणाम भी उसी तरह आएंगे जैसा ठीक होने वाले संक्रमित लोग बता रहे हैं। किंतु हम यह मानकर कि आयुर्वेद से कोरोना संक्रमण ठीक हो ही नहीं सकता इन सारे लोगों को झूठा करार देें यह तो किसी तरह तार्किक और नैतिक व्यवहार नहीं हुआ। हालांकि सरकार ने भी अब यही नीति बनाई है कि जिस भाषा में दुनिया समझती है उसी भाषा में उसे आयुर्वेद को समझाया जाए। पिछले दिनों केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि हम अपनी प्राचीन विद्या को बिल्कुल वैज्ञानिक तरीके से साबित करके दुनिया के सामने रखेंगे। दुनिया को जवाब देने के लिए यह नीति सही है और पतंजलि भी दावा कर रही है कि उसने इसीलिए उसका उसी तरीके से क्लिनिकल ट्रायल किया है। तो देखते हैं। किंतु ध्यान रखिए, आयुर्वेद में इस तरह के क्लििनिकल ट्रायल की न परंपरा रही है और न इसका ऐसा ढांचा विकसित हुआ। अब ऐसा करने की कोशिश हो रही है और यह सही है लेकिन आयुर्वेदिक या जड़ी-बुटियों से बने मिश्रणों के प्रभावों को परखने का एकमात्र तरीका यह नहीं हो सकता। वैसे भी कोरोनिल में जिन जड़ी-बुटियों मसलन, गिलोय, अश्वगंधा, तुलसी आदि के मिश्रण हैं उनसे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने की बात आयुष मंत्रालय भी मानता है। इनका काढ़ा तो लोग पी ही रहे हैं।  आयुष मंत्रालय ने इसके प्रचार और बिक्री पर रोक लगाई है तो उसे तीव्र गति से स्थापित मानकों पर इसकी पूरी जांच और परीक्षण करना चाहिए। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्पलेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208


शुक्रवार, 19 जून 2020

चीन से निपटने में हिचक का कोई कारण नहीं

 अवधेश कुमार

यह भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित होने का 70 वां वर्ष है। इसे मनाने के लिए दोनों देशों के बीच 70 कार्यक्रम तय हुए थे। ऐसा नहीं है कि भारत चीन की दुर्नीतियों को नहीं समझता है, लेकिन पूरी तरह सतर्क एवं अपनी भूमि की सुरक्षा के प्रति गंभीर रहते हुए अपनी ओर से संबंधों में शांति और विश्वास कायम करना भारत का चरित्र है और यही हम हमेशा प्रदर्शित करते हैं। चीन ने गलवान में जिस तरह से असभ्य व गुण्डागर्दी सदृश खूनी जंग को अंजाम दिया उसका तात्कालिक निष्कर्ष तो यही है कि उसके साथ संबंधों में स्थायी शांति एवं स्थिरता की कल्पना व्यर्थ है। वास्तव में गलवान घाटी में जो कुछ चीन ने किया दो सभ्य देशों की सेनाओं के बीच उस तरह के झड़प की कल्पना तक नहीं की जा सकती। चीन से वास्तविक नियंत्रण रेखा और सीमा पर निपटते हुए भी भारतीय राजनीतिक नेतृत्व बयानों मे ंहमेशा संयत रुख अपनाता रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन के खिलाफ पहली बार इस तरह का सार्वजनिक वक्तव्य दिया है जिसका संदेश बिल्कुल साफ है। उन्होंने कहा कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। उन्होने भारत की नीति स्पष्ट करते हुए कहा कि भारत शांति चाहता है, लेकिन भारत उकसाने पर हर हाल में यथोचित जवाब देने में सक्षम है। इस तरह प्रधानमंत्री ने चीन के सामने अपना विकल्प स्पष्ट कर दिया है कि शांति के प्रयास को हमारी कमजोरी न समझें, हम आपसे हर स्तर पर निपटने में सक्षम हैं और आप नहीं माने तो निपटेंगे। साथ ही इससे सेना को भी स्पष्ट संकेत मिल गया है कि नियंत्रण रेखा एवं सीमा पर परिस्थितियों के अनुरुप व्यवहार के लिए जो आप करेंगे सरकार को उसका पूरा समर्थन होगा। 

प्रधानमंत्री के इस स्पष्ट बयान के बाद अन्य किसी के बोलने की आवश्यकता नहीं रह जाती। चीन को भी समझ आ गया है कि उसने जो कुछ किया वह उसके लिए आगे ज्यादा महंगा पड़ सकता है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ फोन पर बातचीत के दौरान भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि जो कुछ हुआ उसके लिए दोषी आप हैं। इसके बाद यह बताने की आवश्यकता नहीं कि भारत किस स्तर पर जाने को मानसिक रुप से तैयार हो चुका है। देश में संदेह प्रकट करने वाले महान विभुतियों को भी समझ लेना चाहिए कि यह बदला हुआ भारत है। वैसे भी मई से जारी विवाद के बीच चीन द्वारा सैन्य लामबंदी को देखते हुए भारत ने अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक पूरे क्षेत्र में सैनिकों की संख्या बढ़ा दी  थी। वास्तव में अब तक जितनी जानकारी सामने आ चुकी है उसके अनुसार गलवान घाटी में चीनी सैनिकों ने कब्जे का षडयंत्र रचकर अंजाम देने की कोशिश की तथा धोखा से भारतीय सैनिकों पर हमला किया। हालांकि हमारे जवानों ने चीनी सैनिकों के साथ बिना किसी हथियार के  संघर्ष किया और वीरतापूर्वक लड़ते हुए उनको भी मारा तथा वीरगति को प्राप्त हुए। निस्संदेह, 20 जवानों का बलिदान सामान्य घटना  नहीं है। यह साफ है कि वार्ता मंे चीनी फौज पीछे हटने पर सहमत दिख रही थी लेकिन अंदर ही अंदर उन्होंने गलवन और श्योक नदी के संगम के पास प्वाइंट-14 चोटी पर कब्जे की साजिश रच रखी थी। चीनी सैनिक पहले से पत्थरों, हथौड़ियों , लोहे के रड, कंटीले तारों आदि के साथ तैयार थे। सोमवार यानी 15 जून को दोपहर से भारतीय सेना के कमांडिंग ऑफिसर के साथ 10 सैनिक पैट्रोल पॉइंट-14 के पास चीनी सैनिकों के लौटने की निगरानी कर रहे थे। चीनी सैनिकों को यहां से हटना था, लेकिन जब वे अपनी जगह से नहीं हटे तो झड़प शुरू हो गई। यह भी देखा गया कि चीनी सैनिक कब्जे के लिए तारबंदी कर रहे है। इसे रोकने की कोशिश स्वाभाविक थी। चीनी सैनिकों ने अचानक भारतीय कमांडिंग ऑफिसर कर्नल संतोष बाबू पर लोहे की रॉड से हमला बोल दिया। अगर आठ घंटे तक खूनी भीड़ंत चलती रही तो इसका मतलब साफ है कि चीनी सेना ने हर हाल में कब्जा करने की योजना बना रखी थी जिसे वे किसी कीमत पर साकार करना चाहते थे। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि 14 हजार से ज्यादा फीट की उंचाई पर और शून्य से भी कम तापमान के बीच जहां ठीक से खड़ा होने की भी जगह नहीं, वहां पहले से योजना बनाकर तैयार चीनी सैनिकों ने बिना पूर्व तैयारी के किस तरह सामना किया होगा कि अपनी से दोगुनी संख्या में उनको मारा तथा घायल भी किया। विदेशी एजेंसियों की खबरे बता रहीं हैं कि 20 भारतीय जवानों के मुकाबले उनके चीन 43 सैनिकों को जान गंवानी पड़ी और कुछ घायल भी हुए। अब तो अमेरिका ने भी पुष्टि कर दी है कि चीन के कम से कम 35 सैनिक अवश्य मारे गए हैैं। अगर हताहतों की संख्या ज्यादा नहीं होती तो चीनी सैन्य हेलिकॉप्टरों को मृत जवानों के शवों व घायल जवानों को एअरलिफ्ट करने की नौबत नहीं आती। जो लोग बिना सोचे-समझे अपनी सरकार और देश को कोस रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि चीन ने हमारी करीब 45 किलोमीटर क्षेत्र को कब्जा करने की कोशिश की थी जिसे हमने नाकाम किया है। 1962 में हमने 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन गंवाई थीं। 

अपने जवानों के खोने का गम हमारे अंदर अवश्य है, पर सच कहा जाए तो 2017 में डोकलाम के बाद चीन को भारत की ओर से यह दूसरा करारा जवाब दिया गया है। जून, 2017 में जब चीन ने जबरन यहां सड़क निर्माण का काम शुरू किया तो भारतीय सैनिकों ने उसे रोक दिया था। चीन को कल्पना भी नहीं थी कि भारत इस सीमा तक अपने जवानों के साथ डट जाएगा। भारत ने उनकी एक न चलने दी। दोनों की सेनाएं 75 दिन से ज्यादा वक्त तक आमने-सामने डटी रहीं और चीन को पीछे हटना पड़ा। चीन को उसी समय समझ जाना चाहिए था कि यह बदला हुआ भारत है जो उसकी धौंस-पट्टी मे ंतो नहीं ही आएगा, आवश्यकता पड़ने पर सीध सैन्य मुकाबला भी कर सकता है। इसके बावजूद उसने गलवान में गलती कर दी। ऐसा करने चीन ने अपने ही समझौतों को तोड़ा है। जिस तरह की लिखित व्यवस्थाएं दोनों देशों की सहमति से बनी थी उनमें बार-बार घुसैपठ, कब्जा, झड़प आदि की कोई गुंजाइश ही नहीं है। किंतु जो देश वचन में कुछ और अंतर्मन में कुछ का चरित्र रखता हो वह कभी भी पलट सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से चीन के साथ संबंधों को बेहतर करने की जितनी कोशिश हो सकती थी की है। वे पांच बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। अलग-अलग मौकों पर चीनी राष्ट्रपति शि जिनपिंग से उनकी 18 बार मुलाकात हो चुकी है। अपनी ओर से मोदी ने पूरी कोशिश की कि एशिया के दो सबसे बड़े देशों के बीच विश्वास कायम रहे ताकि हम शांति से विकास के रास्ते अग्रसर हों। मोदी के सार्वजनिक संबोधन में दिखी आक्रामकता इसी कारण है कि शि जिनपिंग अपने वायदे के अनुरुप व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हालांकि ऐसा नहीं था कि मोदी उनके भुलावे में आ गए। मोदी को मालूम है कि चीन से एक-एक इंच जमीन लेने का संसद का संकल्प है और स्वयं भाजपा के घोषित सिद्धांतों में यह शामिल है। किंतु तत्काल विवादों पर बातचीत का एक मैकेनिज्म चलाते हुए अन्य अंतःक्रियाएं चलती रहें यह भारत की नीति थी जिसे थोड़े परिवर्तन के साथ मोदी ने आगे बढ़ाने की पहल की। इसका एक परिणाम यह तो है ही कि दुनिया के प्रमुख देश मान रहे हैं कि भारत ने चीन के साथ शांति, विश्वास एवं सहयोग की हरसंभव कोशिश की है लेकिन चीनी नेतृत्व हर हाल मंें भारत के उत्थान को बाधित करने तथा सीमा क्षेत्रों के सामरिक रुप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर धोखे से कब्जा कर अपनी स्थिति ज्यादा मजबूत करने की गंदी नीति पर चल रहा है। 

भारत का पक्ष अब साफ है- आप अगर शांति नहीं चाहते हैं तो आपकी भाषा में जवाब दिया जाएगा। चीन की सेना और हथियारों की संख्या पर मत जाइए। जब भारतीय जवानों ने बिना हथियार के उनकी साजिश को विफल कर दिया तो आगे उनको सफल होने दिया जाएगा ऐसी कल्पना मूर्ख ही कर सकते हैं। यह मत सोचिए कि चीन के साथ यदि संघर्ष हुआ तो भारत कमजोर पड़ जाएगा। 1962 की जंग हम अपनी गलतियों से हारे थे। अगर वायुसेना का उपयोग किया जाता तो संभव था युद्ध का परिणाम दूसरा होगा। किंतु उसके पांच वर्ष बाद 1967 में ही भारतीय जवानों ने चीन को बुरी तरह पराजित किया। सच कहा जाए तो चीन ने गलवान से अपने महिमा कमजोर होने तथा पतन की शुरुआत स्वयं कर दी है। 1962 के बाद हमने जितने युद्ध लड़े सबमें विजय पाई है जबकि चीन ने एक भी सीधा युद्ध लड़ा नहीं है। वास्तव में हमारे 20 सैनिकों ने जान देकर इतिहास का ऐसा अध्याय लिख दिया है जहां से चीन की विश्व शक्ति के उदय के दौर पर विराम लग सकता है। भारत आर्थिक, कूटनीतिक एवं सैन्य तीनों स्तरों पर चीन का सामना करने के लिए कमर कस चुका है। चीन को सबक सिखाने में हमारे सामने जितनी भी परेशानियां और चुनौतियां आएं उनको सहने तथा झेलने की तैयारी हर भारतीय की होनी चाहिए। चीन से सीमा विवाद वैसे भी बातचीत से सुलझने वाली नहीं यह साफ हो चुका है। तो भारत को भविष्य का ध्यान रखते हुए आक्रामकता के साथ तीनों मोर्चा पर आगे बढ़ना चाहिए। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

बुधवार, 10 जून 2020

आजमगढ़ में दलित प्रवासी मजदूर की नींबू के पेड़ पर लटकती लाश पर रिहाई मंच ने उठाए सवाल

  • लाॅक डाउन में रवीना ने दिल्ली में बच्चा खोया और आजमगढ़ में पति
  •  रातभर बेटे को खोजा नहीं मिला सुबह मिली उसकी लाश
  •  आजमगढ़ में दलित प्रवासी मजदूर की नींबू के पेड़ पर लटकती लाश पर रिहाई मंच ने उठाए सवाल
  •  परिवार ने कहा आत्महत्या नहीं हत्या दर्ज हो मुकदमा

लखनऊ/आजमगढ़ 10 जून 2020। रिहाई मंच ने आजमगढ़ के धड़नी ताजनपुर गांव में दलित प्रवासी मजदूर की आत्महत्या की सूचना के बाद मृतक के परिजनों से मुलाकात की। प्रतिनिधिमंडल में रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव, बांकेलाल, विनोद यादव, अवधेश यादव और धरमेन्द्र शामिल थे। मंच ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय, मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय, इलाहाबाद, राज्यपाल उत्तर प्रदेश, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राज्य अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, गृह मंत्रालय, उत्तर प्रदेश, राज्य मानवाधिकार आयोग, उत्तर प्रदेश, आयुक्त आजमगढ़ मंडल आजमगढ़, उप पुलिस महानिरीक्षिक आजमगढ़ परिक्षेत्र आजमगढ़, जिलाधिकारी आजमगढ़, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक आजमगढ़, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, नई दिल्ली, श्रम एवं सेवायोजन मंत्रालय, उत्तर प्रदेश को पत्र लिखकर कार्रवाई की मांग की।

 रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि दिल्ली से आजमगढ़ लौटे दलित प्रवासी मजदूर अंगद राम की मौत के कारणों की उच्च स्तरीय जांच करवाई जाए। यह मानवाधिकार का गंभीर मसला है क्योंकि कोरोना महामारी के दौर में प्रवासी मजदूर बहुत मुश्किल से अपने घरों को पहुंचे हैं और वहां पर अगर उनकी हत्या कर आत्महत्या कहा जा रहा है तो ऐसे में यह आने वाले दिनों में यह गंभीर संकट खड़ा कर देगा। इस मामले में अब तक न परिजनों से किसी प्रकार का पुलिस ने बयान लिया और न ही उनके आरोपों के आधार पर शिकायत दर्ज की। ऐसे में गावों के दबंगों का मनोबल बढ़ेगा जिससे प्रवासी मजदूर के परिवारों को डर-भय के साए में जीना होगा। क्योंकि प्रवासी मजदूर का गांवों में वो सामाजिक आधार नहीं जो इस प्रकार के दबंगों का है।

अंगद राम की पेड़़ पर टंगे फोटो को लेकर बहुत से सवाल हैं जो परिस्थितजन्य साक्ष्य हैं जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। क्योंकि व्यक्ति झूठ बोल सकता है परन्तु परिस्थितिजन्य साक्ष्य नहीं। इस मामले के ऐसे साक्ष्यों के बारे में परिवार बताता है कि पहली नजर में ही लग जाता है कि उन्हें मारकर पेड़ पर टांग दिया गया। क्योंकि फोटो में साफ देखा जा सकता है कि अंगद के पैरों में जो चप्पल थी वो सामान्य स्थिति में पैरों में ही मौजूद थी। जो नहीं हो सकता। क्योंकि कोई व्यक्ति अगर फांसी लगाएगा तो तड़पेगा और छटपटाएगा ऐसे में चप्पल उसके पैर में नहीं टिक सकती। पेड़ पर चढ़ने के गीली मिट्टी के जो निशान हैं वो पैरों के बताए जा रहे हैं। ऐसे में यह कैसे हो सकता है क्योंकि उसके पैरों में चप्पल मौजूद थी। क्या ऐसा हुआ होगा कि वो चप्पल निकालकर पेड़ पर चढ़ा होगा और फिर फांसी लगाते वक्त चप्पल पहना होगा। वहीं जिस नीबू के पेड़ पर उसको टंगा हुआ बताया जा रहा उसमें उसका पैर वहां मौजूद पुलिस के कमर के करीब दिख रहा है जो जमीन से लगभग तीन फुट के करीब है। नीचे ऐसे कोई निशान नहीं हैं जिससे यह कहा जाए कि वह किसी सहारे पर खड़ा होकर फांसी लगाया होगा। नीबू का वह पेड़ झंखाड़ युक्त है जिसकी डालें पतली-पतली और काफी सघन हैं। ऐसे में उस पर चढ़ना और फिर उसपर से फांसी लगाना संभव प्रतीत नहीं होता। वहीं उसकी शारीरिक स्थिति भी परिजनों की आशंका को और पुष्ट करती है। परिजनों का फंदे में लटकी उसके गर्दन की स्थिति और हाथों की स्थिति पर भी सवाल है।
प्रतिनिधिमंडल के बांकेलाल, विनोद यादव, अवधेश यादव और धरमेन्द्र शामिल को मृतक पच्चीस वर्षीय अंगद राम की पत्नी रवीना ने बताया कि उनके पति नई दिल्ली में जीटीबी अस्पताल की कैंटीन में नौकरी करते थे। पहले वे ताहिरपुर गांव दिल्ली में रहते थे पर कमरे का किराया काफी ज्यादा था तो वे गाजियाबाद के डिस्टेंस कालोनी भोपरा में रहने लगे और अंगद वहां से नौकरी पर जाने लगे। लाॅक डाउन में काम बंद हो गया था। रवीना गर्भवती थी 10 अप्रैल  को बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। वहां न खाने के कोई व्यवस्था थी न चिकित्सा की। अल्ट्रासाउंड में ग्यारह-ग्यारह सौ रुपए लग जाते थे। पैसे खत्म होने के बाद रवीना अपनी मां के यहां से पैसे मंगाए और दिल्ली से आजमगढ़ ट्रेन द्वारा पति के साथ आईं।
रवीना पति की आत्महत्या की पूरी कहानी को न सिर्फ नकारती हैं बल्कि कहती हैं कि उनकी हत्या हुई है। कोई आदमी आत्महत्या करेगा क्या उसके पैर में चप्पल रहेगा वह सवाल करती हैं। वे बताती हैं कि उनके पति राजेसुल्तानपुर अपने मौसी के घर गए हुए थे और 5 जून की शाम 6 बजे के करीब घर से लौटकर आए। लेकिन उन्होंने चाय तक नहीं पी और कहा कि प्रधान जी बुला रहे हैं मैं मिलकर आता हूं। 

रात आठ बजे के करीब उनकी माता विमलौता पता करने प्रधान के घर गईं तो प्रधान घर पर नहीं थे। अंधेरा होने के बाद भी जब वह नहीं लौटकर आए तो घर वाले चिंतित होकर ढूंढने निकले। अगले दिन 6 जून की सुबह घर के लोग खेते में काम कर रहे थे कि सुबह के तकरीबन नौ बजे गांव के एक लड़के ने सूचना दी कि अंगद की लाश नीबू के पेड़ पर लटक रही है। जिसके बाद पूरा परिवार दौड़ते हुए वहां पहुंचा तो पहले से मौजूद प्रधान ने उन्हें घटना स्थल तक जाने नहीं दिया।
उनकी मां विमलौता बताती हैं पुलिस से उन्होंने कहा कि आप लोग हमसे क्यों नहीं मिलने दे रहे हैं। उनका बड़ा बेटा राजेश आजमगढ़ शहर में काम करता है उसको तो आ जाने दीजिए। पर पुलिस आनन-फानन में लाश को लेकर आजमगढ़ चली गई।
मीडिया में आई खबर कि एक माह पूर्व विषाक्त पदार्थ का सेवन कर आत्महत्या के प्रयास को उनकी पत्नी रवीना ने झूठा करार देते हुए बताया कि वो लोग 19 मई को गाजियाबाद से श्रमिक  ट्रेन द्वारा चले और 20 मई को आजमगढ़ के सरायमीर रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। उसके बाद बस द्वारा सठियांव कोरेनटाइन सेंटर में रात गुजारी और अगले दिन घर आए और 13 दिन तक घर के सामने की मड़ई में रहे। अचानक हुई बारिश के बाद उन्हें घर के अंदर दाखिल होना पड़ा। साथ ही साथ वह कहती हैं कि जो मीडिया में आ रहा है कि एक महीने पहले वह जहर खाए थे यह कैसे हो सकता है क्योंकि उस वक्त तो हम थे ही नहीं। हम दिल्ली में थे। उनके और उनके पति में किसी भी तरह की नाराजगी नहीं थी और न ही घर में कोई कलह।
अंगद की मां बताती हैं कि उनके बेटे-बहू दिल्ली से आए तो वे खुश थे। हों भी क्यों न इस महामारी में हर आदमी अपने परिवार में रहना चाहता है। मीडिया में आई बातों को परिजनों ने प्रधान की मनगढ़ंत कहानी बताया। उनकी मां बताती हैं उनके पड़ोसी से जमीन विवाद के चलते कई बार उन्होंने मेरे बेटों को जान से मारने की धमकी दी थी। वो बताती हैं कि उनके ज्येष्ठ तुरंती हमारे यहां रहते थे और उनकी देखभाल वो लोग किया करते थे। अचानक उनकी मृत्यु हो गई। जिसके बाद उनकी बेटी धरमनी की देवारान रेनू जमीन को लेकर विवाद करती थीं। वो प्रधान के रवैए पर भी सवाल उठाती हैं और कहती हैं कि मेरे बेटे की जहर खाने की झूठी बात प्रधान ने फैलाई। सुबह लाश की खबर मिलने के बाद जब वे गए तो प्रधान घटना स्थल पर मौजूद थे।
आखिर प्रधान ने उनको यह सूचना क्यों नहीं दी जबकि मैं रात में उनके घर गई थी। उनका बेटा प्रधान के बुलावे पर गया था और उसके बाद गायब हो गया और जब मिला तो उसकी लाश मिली। साथ ही वो कहती हैं कि प्रधान कह रहे हैं कि उनके बेटे ने सुबह के आठ बजे फांसी लगाई यह उन्हें कैसे मालूम है। क्या वो घटना स्थल पर मौजूद थे। अगर उन्हें मालूम था तो बचाया क्यों नहीं। हमको उसकी मौत की खबर नौ बजे के करीब मिली जबकि घटना स्थल से उनके घर की दूरी पांच मिनट की भी नहीं है।

सोमवार, 8 जून 2020

इंडस्ट्रीज एंड ट्रेडर्स वेलफेयर एसोसिएशन दिल्ली प्रदेश (रजि.) ने कोरोना योद्धाओं को सम्मानित किया

संवाददाता
नई दिल्ली। कोरोना वायरस के वैश्विक संकट-काल में समाज और देश को बचाने के लिए समर्पित स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिसकर्मियों, सफाईकर्मियों, बिजली विभाग के कर्मचारियों, समाजसेवियों आदि की सेवा-निष्ठा के लिए इंडस्ट्रीज एंड ट्रेडर्स वेलफेयर एसोसिएशन दिल्ली प्रदेश (रजि.) ने कोरोना योद्धा सम्मान देने की शुरुआत की।
यह संस्था अब तक कोरोना महामारी के दौरान अलग-अलग क्षेत्र में अपनी सेवा दे रहे 200 कोरोना योद्धाओं को सम्मान पत्र देकर सम्मानित कर चुकी। आज भी अपने कार्यालय पर संस्था के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष राम निवास गुप्ता, उपाध्यक्ष आर.बी. यादव, कोषाध्यक्ष अमित जैन ने 50 कोरोना योद्धाओं को सम्मान पत्र देकर सम्मानित किया। इस सम्मान को पाने वाले दिल्ली पुलिस के जवान, दिल्ली सिविल डिफेंस के वालिंटियर, दिल्ली होम गार्ड के वॉलिंटियर, क्षेत्रीय डॉक्टर, मीडिया कर्मी, बिजली विभाग के कर्मचारी, समाजसेवी संस्थाओं के सदस्य व पदाधिकारी, सोशल वर्कर आदि थे।
विदित हो दिल्ली, कोरोना के खिलाफ अपनी सबसे मुश्किल जंग कोरोना योद्धाओं के मजबूत इरादे की वजह से ही लड़ रही है। दिल्ली के हीरो अपने परिवार की चिंता ना करते हुए दिन-रात बस दिल्ली को सुरक्षित बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन कोरोना वायरस महामारी के संकटकाल में कोरोना योद्धाओं को भी कोरोना के संक्रमण का शिकार होना पड़ा है फिर भी कोरोना इनके हौसलों को पस्त नहीं कर पाया है। अपने योद्धाओं का जोश, जुनून और लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के समर्पण का तहे दिले से शुक्रिया और सम्मान देने के लिए ही इंडस्ट्रीज एंड ट्रेडर्स वेलफेयर एसोसिएशन दिल्ली प्रदेश (रजि.) ने कोरोना योद्धा सम्मान देने की शुरुआत की।
इस मौके पर संस्था के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष राम निवास गुप्ता ने कहा कि हमने सिर्फ एक शुरुआत की है ताकि कोरोना योद्धाओं को एक छोटा सा सम्मान दे सकें जिससे यह योद्धा इस कोरोना महामारी की लड़ाई में अपने आप को अकेला न महसूस करें। यह सम्मान उन्हें नई ऊर्जा देगा।
संस्था के दिल्ली प्रदेश उपाध्यक्ष आर.बी. यादव ने कहा कि हमारी संस्था आगे भी ऐसे कोरोना योद्धाओं को सम्मानित करती रहेगी जिन्होंने इस वैश्विक संकट-काल में समाज और देश को बचाने के लिए अपने जीवन की भी परवाह नहीं की और लोगों की सेवा की।
संस्था के कोषाध्यक्ष अमित जैन ने कहा कि हमें जैसे-जैसे कोरोना वायरस महामारी के संकटकाल में सेवा करने वाले कोरोना योद्धाओं का पता चल रहा है। वैसे-वैसे हम उन्हें संस्था की ओर से सम्मान पत्र देकर सम्मानित कर रहे हैं जिससे उनके हौंसलों में कोई कमी न आ सके।
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