गुरुवार, 26 सितंबर 2019

इन राज्यों का चुनावी उंट किस करवट बैठेगा

 अवधेश कुमार

मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने अन्य पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों से परे जितने कम समय में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की वह प्रशंसनीय है। हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल 2 नवंबर एवं महाराष्ट्र का 9 नवंबर को खत्म हो रहा है। चुनाव आयोग के लिए उसके पूर्व चुनाव प्रक्रिया संपन्न करना अनिवार्य था। 21 अक्टूबर को दोनों राज्यों में मतदान संपन्न हो जाएगा एवं 24 अक्टूबर को मतगणना। तो आइए दोनों राज्यों के राजनीतिक समीकरणों तथा चुनावी संभावनाओं का पूर्वावलोकन करें। यह चुनाव नरेन्द्र मोदी सरकार-2 के संसद के पहले सत्र में रिकॉर्डतोड़ काम करने के आलोक में हो रहा है। वर्षों से भाजपा के घोषणा पत्र में शामिल अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर से खत्म किया जा चुका है। एक साथ तीन तलाक को अपराध बनाने का कानून भी बन चुका है। ध्यान रखिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी तक की अपनी सभाओं में इनको मुद्दा बनाया है। प्रधानमंत्री ने दोनों मामलों पर कांग्रेस ही नहीं राकांपा के शरद पवार को भी कठघरे में खड़ा किया है। इसका अर्थ स्पष्ट है। 370 एवं तीन तलाक तथा इन पर कांग्रेस एवं राकांपा की भूमिका इन चुनावों में बहुत बड़ा मुद्दा होगा। यह सच है कि पाकिस्तान ने कांग्रेस नेताओं के बयानों को भारत के खिलाफ अपने प्रचार एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रतिवदेनों में शामिल किया है। इसका असर मतदाताओं पर कितना होगा यह देखने लायक है।

महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा एवं शिवसेना के बीच ढाई दशक में पहली बार गठबंधन नहीं हुआ था। लेकिन भाजपा कुल 288 में से 122 सीटें जीतने में कामयाब रही, जबकि शिवेसना 63 पर सिमट गई। बाद की परिस्थितियों में दोनों को मिलकर सरकार बनाने को विवश होना पड़ज्ञ। इसके मुकाबले कांग्रेस को 42 एवं राकांपा को 41 सीटें मिलीं थीं। भाजपा को 27.81 प्रतिशत तथा शिवेसना को 19.35 प्रतिशत मत मिला था। इसके समानांतर कांग्रेस को 17.95 प्रतिशत तथा राकांपा को 17.24 प्रतिशत मत मिला। यदि दोनों को मिला दे ंतो कांग्रेस राकांपा को 35.19 प्रतिशत एवं भाजपा शिवसेना को 46.16 मिला। इस तरह दोनों के बीच करीब 11 प्रतिशत मतों का अंतर था। एआइएमआइएम ने 0.93 प्रतिशत मत लेकर 2 सीटें जीतीं थीं। अगर कांग्रेस के 94 लाख 96 हजार 95 और राकांपा के 91 लाख 22 हजार 285 मतों को मिला दे ंतो 1 करोड़ 86 लाख 18 हजार 380 हो जाता है। दूसरी ओर भाजपा के 1करोड़ 47 लाख 9 हजार 276 तथा शिवसेना के 1 करोड़ 2 लाख 35 हजार 970 मतों को मिलने पर 2करोड़ 49 लाख 45 हजार 246 मत होते हैं। इस तरह दोनों के मतों में 83 लाख 26 हजार 866 मतों का अंतर था। लोकसभा चुनाव में भाजपा एवं शिवेसना में समझौता हो गया था। भाजपा ने 23 तथा शिवसेना ने 18 सीटें जीतीं। राकांपा ने 4 तथा कांग्रेस ने केवल एक सीट जीतीं। भाजपा का 27.59 प्रतिशत और शिवसेना का 23.29 प्रतिशत मिलकर 50.88 प्रतिशत मत हो जाता हैं इसके सामनांतर कांग्रेस के 16.27 प्रतिशत एवं राकांपा 15.52 प्रतिशत को मिला दे ंतो यह 31.79 प्रतिशत ही होता है। इस तरह दोनों के बीच करीब 19 प्रतिशत मतों का अंतर है। इतने भारी मतों को पाटना तभी हो सकता है जब सरकार के खिलाफ व्यापक असंतोष हो या विपक्ष के विरुद्ध लहर।

 हरियाणा में भाजपा ने 90 में से 47 सीटें पर जीतकर पहली बार अपने दम पर सरकार बनाई। 19 सीटें लेकर दूसरे स्थान पर आईएनएलडी एवं 15 सीटों के साथ कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही। अन्य ने 9 सीटें प्राप्त कीं जिनमें शिरोमणी अकाली दल और बसपा को 1-1, हरियाणा जनहित कांग्रेस को 2, और निर्दलीयों ने 5 सीटें शामिल थीं। भाजपा ने 33.20 प्रतिशत, आईएनएलडी ने 24.11 प्रतिशत और कांग्रेस ने 20.58 प्रतिशत मत मिला। बसपा ने 4.37 प्रतिशत, हरियाणा जनहित कांग्रेस ने 3.57 प्रतिशत मत प्राप्त किया था।  भाजपा को 41 लाख 25 हजार 285, आईएनएलडी को 29 लाख96 हजार 203 तथा कांग्रेस 25 लाख 57 940 मत मिला था। हरियाणा जनहित कांग्रेस ने 4 लाख 43 हजार 444 तथा बसपा ने 5 लाख 42 हजार 985 मत पाए थे।  हरियाणा लोकसभा चुनाव में में भाजपा को 58.02 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 28.42 प्रतिशत मत मिला। सभी 10 सीटें भाजपा के खाते में गईं। भाजपा का अपना मत ही विधानसभा चुनावो से 25 प्रतिशत ज्यादा हो गया। अगर दोनों चुनावों के मतों के अनुसार गणना करें तो भाजपा के निकट कोई पार्टी नहीं है। महाराष्ट्र की तरह हरियाणा में भी भाजपा को हराने के लिए उसके खिलाफ जनता में व्यापक असंतोष तथा विपक्ष यानी कांग्रेस के पक्ष में लहर चाहिए।

अब दोनों राज्यों की राजनीतिक स्थिति पर नजर दौड़ाएं। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से महाराष्ट्र में कुल 16 विधायकों तथा 16 पूर्व विधायकों ने पाटी छोड़कर भाजपा एवं शिवसेना का दामना थामा है। नारायण राणे ने अपनी पार्टी स्वाभिमान पक्ष की भाजपा में विलय की घोषणा कर दी है। इस स्थिति का अर्थ यही है कि दूसरी पार्टियों के नेताओंं को लग रहा है कि अगर प्रदेश की राजनीति में  प्रासंगिकता बनाए रखनी है तो भाजपा या शिवेसना की ओर प्रयाण करना होगा। पांच वर्ष तक महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता ही लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के पक्ष में प्रचार कर पार्टी में आ जाते हैं और मंत्री भी बन जाते हैं। आज की स्थिति यह है कि भाजपा ने शिवेसना को छोड़ दिया होता तो शिवेसना से भी भारी संख्या में नेता भाजपा की ओर भागने की कोशिश करते। तो यह है महाराष्ट्र की स्थिति। हरियाणा में आईएनएलडी बंट चुकी है। दुष्यंत चौटाला जननाययक जनता पार्टी बनाकर चुनाव में मैदान में उतरे हैं। कांग्रेस में अंदर इतना कोहराम मच गया था कि अपनी बात पहुंचाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को रैली कर पार्टी नेतृत्व की यह कहते हुए आलोचना करनी पड़ी कि यह पहले वाली कांग्रेस नहीं है। हालांकि सोनिया गांधी ने एकता के लिए अशोक तंवर की प्रदेश अध्यक्ष पद से छुट्टी कर दी लेकिन पार्टी में चुनाव पूर्व एकता कामय करना कठिन है। हरियाणा में भी दूसरी पार्टियों के नेताओं ने भारी संख्या में भाजपा का दामन थामा है।

परंपरागत चुनावी विश्लेषण के दायरे में कोई महाराष्ट्र एवं हरियाणा के जातीय-सांप्रदायिक समीकरणों के अनुसार गणना कर सकता है कि फलां जाति का इतना मत और फलां समुदाय का इतना मत फलां के पक्ष में जाता हैं। आज का सच यह है कि 2014 के आम चुनाव से जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरणों को धक्का लगना आरंभ हुआ और वह प्रक्रिया पीछे नहीं लौटी है। नरेन्द्र मोदी का नाम ज्यादातर प्रदेशों में सभी समीकरणों पर भारी पड़ा है। पिछले चुनावों के बाद भाजपा ने दोनों राज्यों में लीक से हटकर मुख्यमंत्री दिया था। महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीस प्रदेश के दूसरे ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने तथा हरियाणा में भजनलाल के बाद दूसरी बार मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में किसी गैर-जाट को मुख्यमंत्री बनाया गया। पिछली बार चुनाव से पहले भाजपा ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था। इस बार दोनों राज्यों में मतदाताओं के सामने मुख्यमंत्री विद्यमान हैं। ये किसी प्रभावी जातीय समीकरण में नहीं आते। ऐसा नहीं है कि प्रदेशों में समस्यायें नहीं हैं, सरकारों के खिलाफ मुद्दे नहीं हैं ऐसा भी नहीं है। कितु एक तो देश के स्तर पर मोदी और शाह की लोकप्रियता, प्रदेशों के स्तर पर फडणवीस तथा खट्टर व अन्य मंत्रियों की लगभग स्वच्छ छवि तथा देश एवं प्रदेश दोनों में हताश विपक्ष उन मुद्दों को उस सीमा तक ले जाने में सक्षम नहीं है कि वह दोनों सरकारों को कठघरे में खड़ा होकर जवाब देने को विवश कर सके। दोनों प्रदेश सरकारों ने कम से कम पूर्व सरकारों की तुलना में निराश अवश्य किया है। वैसे भी अनुच्छेद 370 हटाने तथा पाकिस्तान के भारत के खिलाफ आग उगलने के विरुद्ध शांत रहकर मोदी सरकार ने जिस तरह दुनिया में उसे अलग-थलग करने में सफलता पाई है उसका जनमानस पर व्यापक असर है। विपक्ष सरकार के विरुद्ध जम्मू कश्मीर या पाकिस्तान को लेकर जितनी आलोचना करता है उतनी ही मात्रा में जनता उसके खिलाफ जाती है। यह मुद्दा दोनों प्रदेशों में प्रबल है। दोनों प्रदेशों में कांग्रेस के नेताओं ने जनता का मूड भांपकर ही तो पार्टी लाईन से अलग होकर अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन कर दिया। तीन तलाक विरोधी कानून भाजपा के हिन्दुत्व के अनुकूल है। तो हिन्दुत्व एवं राष्ट्रीयता दोनों का माहौल है। इस माहौल में हो रहे चुनाव इससे प्रभावित नहीं होंगे ऐसा नहीं माना जा सकता।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

इमरान का कबूलनामा नहीं झूठ का पुलिंदा

 

अवधेश कुमार

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान पता नहीं अपने को दुर्भाग्यशाली मान रहे होंगे या सौभाग्यशाली यह तो वे या उनकी जादूगरनी पत्नी जानती होंगी। हां, पाकिस्तान में अवश्य उन्हें दुर्भाग्यशाली मानने वालों की संख्या बढ़ रही है। 5 अगस्त से वो जो कुछ बोल रहे हैं उससे उनके मानसिक असंतुलन का पता चलता है किंतु उसके पीछे रणनीति होती है। यह बात अलग है कि उनकी सारी रणनीति उल्टी पड़ रही है। अभी रुस के अंग्रेजी समाचार चैनल आरटी को उन्होंने एक लंबा-चौड़ा साक्षात्कार दिया है। इसमें उहोंने कहा कि 1980 के दशक में पाकिस्तान ऐसे मुजाहिद्दीन लोगों को प्रशिक्षण दे रहा था कि जब सोवियत संघ, अफगानिस्तान पर कब्जा करेगा तो वो उनके खिलाफ जेहाद का ऐलान करें। इन लोगों के प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान को पैसा अमेरिका की एजेंसी सीआईए द्वारा दिया गया। उनकी पीड़ा है कि  एक दशक बाद जब अमेरिका, अफगानिस्तान में आया तो उसने उन्हीं समूहों को जो पाकिस्तान में थे, जेहादी से आतंकवादी होने का नाम दे दिया। वे कह रहे हैं कि पाकिस्तान ने तो अमेरिका की मदद की और आज वही पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहा है।ं इमरान खान कह रहे हैं कि यह सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि हमने इस समूह का साथ देकर क्या पाया है? मुझे लगता है कि पाकिस्तान को इससे अलग रहना चाहिए था, क्योंकि अमेरिका का साथ देकर हमने इन समूहों को पाकिस्तान के खिलाफ कर लिया। लगभग हमने 70 हजार लोगों की जिंदगी गंवाई। साथ ही इससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को 100 अरब डॉलर से ज्यादा का नुकसान हुआ है। यह प्रश्न तो स्वाभाविक रुप से उठता है कि आखिर इमरान ने रुसी टीवी से इस तरह की बात क्यों की? उन्होंने जो कहा वह कितना सच है? उन्होंने ऐसा क्यों कहा?

ध्यान रखिए कि अमेरिका यात्रा में भी उन्होंने अपने देश में अभी भी 35 से 40 हजार हथियारबंद जेहादी मौजूद ंहोना स्वीकार किया था। दरअसल, उनकी रणनीति विश्व समुदाय खासकर अमेरिका और पश्चिमी देशो की सहानुभूति पाने की रही है। वे यह संदेश देना चाहते हैं कि हमारा तो कोई दोष है नहीं, हम तो स्वयं इन हथियारबंद से लड़ रहे हैं और जनधन की क्षति उठा रहे है। पहले उनको उम्मीद थी कि अमेरिका में इस बयान का अच्छा असर होगा। तालिबान से बातचीत तक उनको उम्मीद थी कि अमेरिका उनको पुचकारेगा और अहसानमंद होगा। अब ट्रंप ने वार्ता ही नहीं तोड़ी है अफगानिस्तान सरकार की इस बात को स्वीकार किया है कि पाकिस्तान से पोषित और संरक्षित आतंकवादी ही सीमा पार कर हमले कर रहे हैं। एक तरफ जम्मू कश्मीर पर भारत के निर्णय से विचलित पूरा पाकिस्तान इमरान को कोस रहा है। यह स्थिति उन्होंने स्वयं पैदा की है। यदि वो केवल भारत की आलोचना करने तक सीमित रह जाते तो पाकिस्तान के लिए इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनता। आखिर गिलगित बाल्तिस्तान की संवैधानिक स्थिति में बदलाव का भारत ने विरोध किया लेकिन इमरान सरकार की तरह अतिवाद तक नहीं गया। इमरान ने सेना के दबाव में इसे इतना आगे बढ़ा दिया कि उनके पास पीछे हटने का कोई सम्मानजनक कोना भी नहीं बचा है। उनके बयानों से ही भय पैदा हुआ कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बदला हुआ भारत पहले की तरह सीमा के अंदर सीमित रहने वाला नहीं है। वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर कब्जा करने के लिए बालाकोट से काफी बड़ी कार्रवाई करेगा। जंग की उनकी एवं उनके मंत्रियों रट तथा उसमें नाभिकीय हथियार के इस्तेमाल के भय का भी दुनिया में असर नहीं हुआ। चीन को छोड़कर कोई देश साथ नहीं। मुस्लिम देशों से उम्मीद थी लेकिन वहां से भी निराशा। सउदी अरब तथा संयुक्त अरब अमीरात ने साफ कह दिया कि कश्मीर को मुस्लिम मुद्दा न बनाए।

कहने का तात्पर्य यह कि इमरान एवं उनके साथी हर तरफ से नाउम्मीद होने के बाद भी मंझधार से निकलने के लिए हाथ पैर मार रहे हैं। रुस एकमात्र देश है जिसने जम्मू कश्मीर में किए गए संवैधानिक एवं राजनीतिक परिवर्तन का मुखर समर्थन किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रुस यात्रा काफी सफल रही। इसमें इमरान ने हारे को हरिनाम की तरह एक चारा फेंका है कि अमेरिका ने रुस के खिलाफ हमारे यहां मुजाहीद्दीन तैयार किए जिसमें हमारे देश को सहयोग नहीं करना चाहिए था। यह रुस को समझाने की कोशिश है। किंतु उस समय का पूरा सच रुस को पता है। राष्ट्रपति पुतिन तो केजीबी से संबद्ध रहे हैं। उनसे क्या छिपा है। पूरे शीतयुद्ध में पाकिस्तान अमेरिका के साथ रहा। किंतु उस पर कोई दबाव नहीं था। वह स्वेच्छा से अमेरिका के साथ था। सच यह है कि पाकिस्तान राष्ट्र-राज्य की नींव जिस इस्लाम मजहब के आधार पर पड़ी उसमें मुजाहिद्दीन तैयार करना एवं जेहाद के नाम पर किसी कम्युनिस्ट शासन से युद्ध करना उसकी विचारधारा का हिस्सा था। कोई भी सभ्य और संतुलित देश सरकारी तंत्र में जेहाद के लिए इस तरह का ढांचा तैयार नहीं कर सकता था जिसमें आतंकवादियों की भर्ती, प्रशिक्षण एवं उनको युद्ध के लिए भेजने तथा पीछे से हर तरह की सहायता मिलती हो। सच यही है कि सोवियत सेनाओं के साथ लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान ने इस्लामी जगत से भी काफी सहायता ली। दूसरे इस्लामी देशों से भी लड़ाके आने लगे, धन आने लगे। सोवियत संघ की वापसी के बाद पाकिस्तान ने अपने द्वारा गठित किए गए तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता पर बिठा दियां। तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान पाकिस्तान का उपनिवेश बन गया।

तो इमरान एकपक्षीय बात बोल रहे हैं। वो कह रहे हैं कि पाकिस्तान ने 100 अरब डॉलर की क्षति उठाई। 2 जनवरी 2018 को डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान  को दी जाने वाली 255 मिलियन डॉलर की सैन्य मदद को रोकते हुए यह बताया था कि अमेरिका पिछले 15 सालों में पाकिस्तान को 33 अरब डॉलर से ज्यादा की सहायता दे चुका है। यानी आतंकवाद पर लगाम लगाने के लिए पाकिस्तान को डेढ़ दशक में अमेरिका से 2 लाख 8 हजार 461 करोड़ रूपये की मदद मिल चुकी थी। पाकिस्तान का रक्षा बजट सालाना 8.7 अरब डॉलर है जिसका चार गुना वह 15 साल में अमेरिका से वसूल चुका है। यह तो केवल 2002 से 2017 का आंकड़ा था। अगर शीतयुद्धकाल की घोषित रकम को देखें तो अमेरिका के एक रिसर्च थिंक टैंक सेंटर फॉर ग्लोबल डवलवमेंट की रिपोर्ट में बताया गया है कि 1951 से लेकर 2011 तक अलग-अलग मदों में अमेरिका ने पाकिस्तान को 67 अरब अमेरिकी डॉलर की मदद दी है। 11 सितंबर 2001 के हमले के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए अपना खजाना खोल दिया। इमरान आज स्वयं को पीड़ित बता रहे हैं लेकिन सच यही है कि उस समय के शासक जनरल परवेज मुशर्रफ ने अमेरिका को अपनी भूमि का इस्तेमाल करने की छूट देकर पाकिस्तान को बचा लिया और अरबो डॉलर से देश का भला किया। हां,सेंटर फॉर ग्लोबल डवलवमेंट के मुताबकि, वित्तीय वर्ष 2002 से 2009 के बीच आर्थिकी से जुड़े मदों में 30 प्रतिशत वित्तीय सहायता दी गई जबकि 70 प्रतिशत मदद सैन्य क्षेत्र में दी गई है।  2010 से 2014 के बीच सैन्य मदद में थोड़ी कमी आई है और आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में कुल मदद का करीब 41 प्रतिशत दिया गया।

ये मदद इसलिए दिए गए ताकि पाकिस्तान अपने यहां आतंकवाद के तंत्र को खत्म करेगा। पाकिस्तान ने अमेरिको को लगातार धोखा दिया। वह सब कुछ समझते हुए अफगानिस्तान युद्ध के कारण सहन करता रहा लेकिन बाद में अपना रुख कड़ा किया। अमेरिका ने शीतयुद्ध काल में इतने हथियार और सैन्य सामग्रिया पाकिस्तान में डाल दिया जिसकी उसे कल्पना नहीं थी। पाकिस्तान के शासकों ने उन्हीं सामग्रियों का उपयोग करते हुए पूर्वी क्षेत्र में भारत को लहूलुहान करने के लिए समानांतर आतंकवादी ढांचा खड़ा किया। पूरब से पश्चिम तक आप जेहादी आतंकवादियों का तंत्र खड़ा करेंगे पहले पंजाब और उसके बाद जम्मू और कश्मीर। इस ढांच को बाजाब्ता सरकार का अंग बनाया गया। परवेज मुशर्रफ ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में कहा कि वे सब हमारे लिए हीरो थे क्योंकि वे इस्लाम के लिए जेहाद कर रहे थे। ओसामा बिन लादेन से मिलना नेता एवं सैन्य अधिकारी अपना सम्मान समझते थे। इमरान इन सबको छिपाकर किसे मूर्ख बनाना चाहते हैं? भारत ने इसका तथ्यों के साथ पूरा सबूत दुनिया के सामने रखा है। इसी कारण वहा के अनेक संगठनांें और व्यक्तियों को प्रतिबंधित किया गया है। इमरान को इसका तो अफसोस है कि उनके पूर्वजों ने अमेरिका की मदद करके गलती की। वो भूल गए कि यह तो उनके देश की विचारधारा थी जो आज भी है। उनका देश उसी पैसे और सैन्य सामान से चल रहा था। वे यह नहीं बताते कि पंजाब और जम्मू कश्मीर में आतंकवाद को प्रायोजित करना गलत था या नहीं? अगर पूर्वजों की गलती बतानी है तो इसे भी बताइए। अगर इमरान पूर्वजों की गलती ढूंढेंगे तो पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य कार्रवाई सबसे बड़ी गलती लगेगी। 1971 के युद्ध ने पाकिस्तान को आर्थिक दृष्टि से डांवाडोल कर दिया था। उसमें अमेरिकी डॉलर एवं मदद के कारण उनका खर्च चलता था। इस तरह अगर वे अपने पूर्वजों की भूल देख्ेंगे तो धीरे-धीरे काफी पीछे चले जाएंगे। इसमें उनका स्वयं का नाम भी आ जाएगा। आखिर आतंकवादियों ने उनकी विजय में भूमिका निभाई है और उनके खिलाफ कार्रवाई करके वे उन्हें दुश्मन बनाना नहीं चाहते।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

भागवत और मदनी मुलाकात के मायने

 
संघ और जमीयत के बीच संवाद की शुरुआत

अवधेश कुमार

यह समाचार सामान्य नहीं है कि जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के साथ लंबी बातचीत की है। 30 अगस्त को संघ के झंडेवालान कार्यालय में दोनों की बातचीत काफी देर हुई। इसमें इस तरह की मीनमेख निकालने का कोई मायने नहीं है कि मदनी ही संघ कार्यालय क्यों गए और भागवत उनसे मिलने जमीयत के कार्यालय क्यों नहीं आए? जो मोटा-मोटी सूचना है उसके अनुसार भागवत को कोलकाता कार्यक्रम के लिए जाना था और मदनी से मुलाकात तय होने के कारण वे दिल्ली आए थे। बातचीत के बाद वे सीधे कोलकाता के लिए रवाना हो गए। हालांकि डेढ़ घंटे से ज्यादा चली इस मुलाकात के बारे में संघ ने औपचारिक रुप से कोई बयान नहीं दिया है लेकिन जमीयत की ओर से जरुर कुछ बातें कहीं गईं हैं। इसके अनुसार मदनी ने संघ प्रमुख को कहा कि इस समय मुसलमानों के अंदर भीड़ की हिंसा तथा तत्काल तीन तलाक के खिलाफ बने कानून को लेकर चिंता का माहौल है। मदनी ने कहा कि एक बड़े समुदाय में भय पैदा करके देश का विकास नहीं हो सकता। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मदनी ने किस तरह की बातें रखीं होंगी। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। कोई यह कल्पना करे कि मदनी संघ प्रमुख के सामने जाकर केवल संघ एवं भाजपा सरकार की प्रशंसा करेंगे तो यह अव्यावहारिक होगा। भारत के भविष्य की दृष्टि से इस बैठक में जो बातचीत हुई उसका महत्व तो है ही किंतु इन दोनें की मलाकात का महत्व उससे कहीं ज्यादा है। दोनों ने यह निर्णय किया कि हमें मिलकर बात करनी है तो उसके पहले काफी कुछ विचार किया होगा।

वास्तव में जो जानकारी है आगे निरंतर संपर्क एवं संवाद पर दोनों नेताओं में सहमति बनी है। इसमें समन्वय की जिम्मेदारी संघ के सह संपर्क प्रमुख रामलाल को दी गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह प्राथमिक मुलाकात थी जिसने आगे खुलकर संवाद करने का आधार बना है। हालांकि इस देश में ऐसे लोगोें की संख्या कम नहीं है जिनको इस बैठक से ऐतराज होगा। ऐसे निहित स्वार्थी तत्व राजनीतिक, बौद्धिक, एनजीओ, सामाजिक सक्रियतावाद.. सभी क्षेत्रों में हैं। साथ ही संघ परिवार के अंदर भी इसके विरोधी होंगे और जमतयत तथा व्यापक मुस्लिम समाज के भीतर भी। बहुत सारे लोगों का पूरा अस्तित्व ही संघ विरोध पर टिका है। उनके लिए ऐसी बैठकें और संवाद कलेजे पर सांप लोटने जैसा होगा। किंतु जो लोग निष्पक्ष भाव से भारत में सामाजिक-सांप्रदायिक एकता और शांति की कामना करते हैं वे इस पहल से अवश्य प्रसन्न होंगे। हां, व्यावहारिकता का तकाजा है कि हम ज्यादा उत्साहित नहीं हो सकते। इसके कई कारण है। सबसे पहला तो यह कि बड़ी शक्तियां इसको विफल करने में लग गई होंगी। जो लोग मुस्लिम वोट बैंक के आधार पर राजनीति करते हैं उनका एक प्रमुख एजेंडा होगा, किसी तरह आगे संवाद को बाधित करना। ऐसे अन्य लोग भी सक्रिय हो चुके होंगे। अगर वाकई दोनों पक्ष संवाद में रुचि रखते हैं तथा देश में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए मिलकर काम करना चाहते हैं तो आलोचनाओं, विरोधों, उपहास, उत्तेजना पैदा किए जाने से निरपेक्ष रखते हुए आगे बढ़ना होगा। संघ और मुस्लिम संगठनों के बीच पहले भी संवाद हुए हैं लेकिन हमेशा ऐसी शक्तियों ने उसमें विध्न डालकर विफल कर दिया। पूर्व सरसंघचालक स्व. कुपहल्ली सीतारमैया सुदर्शन की ओर से इसकी लगातार कोशिशें की गईं। वे तो प्रमुख शहरों की मस्जिदों में स्वयं जाकर वहां के मौलवियों से चर्चा करते थे। इसके लिए उन्होंने इस्लाम धर्म की मान्य पुस्तकों का अध्ययन किया। दो दशक पहले लखनउ मंें सुदर्शन और संघ के प्रतिनिधियों के साथ मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ लंबी बैठक हुई। यह बात अलग है कि वह संवाद निरंतर जारी नहीं रहा। किंतु उनकी सहमति से संघ के प्रचारक इन्द्रेश कुमार ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच नामक संगठन खड़ा किया। वह संगठन अपनी सीमाओं में लगातार सक्रिय है।

हालांकि इस बैठक में उस संगठन की कोई भूमिका थी या नहीं स्पष्ट नहीं है। संघ हिन्दुओं का संगठन है तथा जमीयत मुसलमानों का इसमें तो किसी को संदेह नहीं हो सकता। बातचीत में निरंतरता रहेगी या नहीं रहेगी, यह गतिरोध का शिकार हो जाएगा या वाकई आगे निकलते हुए किसी सहयोग में परिणत होगा इस समय कुछ कहना कठिन है। न यह संभव है कि संघ अपना विचार बदल लेगा और न जमीयत ही। इतने वर्षों से काम करने वाले संगठन की विचारधारा का भी क्रमिक विकास होता है और एक समय आने के बाद वह रुढ़ हो जाता है। बावजूद निरंतर संवाद से एक दूसरे को समझा जाता है उससे अपने विचारों की बेहतर परख होती है। इससे गलफहमियां भी समझ में आतीं हैं और उनको दूर करने की संभावनाएं बनतीं हैं। अरशद मदनी ने कहा कि हमें बंद कमरों से बाहर निकलकर मिलकर काम करना चाहिए। इतनी उम्मीद अभी शायद जल्दबाजी होगी। किंतु मदनी ने अगर ऐसा कहा तो इसका मतलब है भागवत के साथ बातचीत काफी सद्भावनापूर्ण माहौल में हुई।

पिछले वर्ष भागवत ने राजधानी दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय संवाद आयोजित कर संघ के बारे मंे पूरे विस्तार से जानकारी दी। उसमें हर क्षेत्र के लोग आमंत्रित किए गए थे। उनमंें पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी दिए गए। वह पूरा संवाद सार्वजनिक है। उसमें भागवत ने हिन्दुत्व की उदार व्याख्या प्रस्तुत करते हुए संघ को उसका प्रतिनिधि बताया। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि यदि हम मुसलमानों को अपने से अलग मानते हैं तो यह हिन्दुत्व होगा ही नहीं। तो संघ का एक सर्वग्राही एवं समन्वयवादी चरित्र उन्होंने प्रस्तुत किया। उसका कुछ असर हुआ है। कई ऐसे लोग जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे उनकी भाषा बदली है। जो सूचना है मदनी  ने जब एक समुदाय के भय की बात की तो भागवत ने कहा कि हम जब हिन्दुत्व या हिन्दू राष्ट्र की बात करते हैं तो उसमें मुसलमान शामिल हैं। ये ऐसी बातें हैं जिनको जब तक विस्तारपूर्वक नहीं समझाया जाएगा तब तक समझ में नहीं आ सकता। हिन्दुत्व से जुड़ा कोई विचार कभी अनुदार नहीं हो सकता। लेकिन दूसरे मजहब के लोगों के अंदर इसका विश्वास पैदा होना चाहिए।

हालांकि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। जो मुस्लिम संगठन हैं उनको भी अपने व्यवहार से बताना होगा कि वे दूसरे मजहबों-पंथों का सम्मान करते हैं। जो भी हो देश और दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू संगठन और भारत के बड़े मुस्लिम संगठन के बीच संवाद से कोई क्षति नहीं हो सकती। इसलिए इसको प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अगर दोनों संगठनों के बीच विश्वास का हल्का भी पुल बना तो देश की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। उदाहरण के लिए अभी उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद की सुनवाई हो रही है। न्यायालय कोई भी फैसला दे दे अगर दोनों पक्षों में तनाव बना रहे तो फिर उससे देश का भला नहीं हो सकता। अगर दोनों पक्षों के बीच संवाद है तो फैसले के बाद उसके अमल में लाने का वातावरण ही अलग होगा। वास्तव में सवाद से दूरियों की खाई कम हो सकतीं हैं। कुछ ऐसे मुद्दे हो सकते हैं जिन पर भविष्य में ये साथ काम भी कर सकते हैं। कहीं सांप्रदायिक तनाव में यदि दोनों संगठनों के नेता एक साथ लोगों के बीच जाए तो उसका चमत्कारिक असर हो सकता है।

किसी संगठन को अछूत मानकर चलने से किसी का भला नहीं है। हमारे देश में ऐसे लोगों का बड़ा वर्ग है जो मानता है कि संघ के साथ कोई काम किया ही नहीं जा सकता। ऐसा संगठन, जिसके 50 से ज्यादा अनुषांगिक संगठन हैं, जो मनुष्य जीवन के हर क्षेत्र में काम कर रहा है, देश से लेकर अनेक राज्यों में उसके ही परिवार के अंग भाजपा का शासन है उसे आप छांटकर देश में कोई बड़ा काम नहीं कर सकते। वैचारिक मतभेद या वैचारिक असहमति तो रहने वाली है। लेकिन उसमें भी देश और व्यापक रुप से मानव समुदाय के लिए साथ आने और काम करने की संभावना हमेशा रहती है। संघ और जमीयत के बातचीत की शुरुआत इस दिशा में एक मिसाल बने ऐसी कामना की जा सकती है। संघ ने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी को इस काम में लगा दिया है तो इसका मतलब हुआ कि उसने संवाद आगे बढ़ाने का निर्णय कर लिया है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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