शनिवार, 29 जून 2019

तीन तलाक के विरुद्ध कानून बनना जरुरी

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रपति के अभिभाषण में तीन तलाक और हलाला की स्पष्ट चर्चा का मतलब ही था कि सरकार इसके खिलाफ फिर से विधेयक लाने की तैयारी कर चुकी है। इसलिए विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 17वीं लोकसभा में जब अपने पहले विधेयक के रूप में मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2019’ पेश किया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन पूरा दृश्य लगभग दिसंबर 2018 वाला ही था। विपक्ष की ओर से इसके विरोध में वही सारे तर्क दिए गए जो पहले दिए जा चुके थे। किंतु इस बार सबसे पहले इसे लाए जाने के तरीके का ही विरोध किया गया। अंततः लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने पेपर स्लिप से वोटिंग कराई और 74 के मुकाबले 186 मतों के समर्थन से विधेयक पेश हुआ। इस स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर विधेयक पेश करने में ही बाधा आई एवं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस सहित कई दलों ने इसका तीखा विरोध किया तो फिर इसका भविष्य क्या होगा? क्या इसकी दशा फिर पूर्व की भांति होगी? सरकार के पिछले कार्यकाल में यह लोकसभा में पारित हो गया लेकिन राज्यसभा में  लंबित रह गया। इस कारण इसे अध्यादेश के रुप में कायम रखा गया। प्रश्न यह भी है कि क्या इसके विरोध में जो तर्क दिए जा रहे हैं वे वाकई स्वीकार्य हैं या केवल राजनीतिक नजरिए से विरोध के लिए विरोध किया जा रहा है?

एआईएमएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी का विरोध और तर्क जाना हुआ है। उनका विरोध मुख्यतः पांच पहलुओं पर है। एक, तलाक सिविल मामला है। इसे अपराध बनाना गलत है। दो, अगर उच्चतम न्यायालय ने फैसला दे दिया कि एक साथ तीन तलाक से तलाक हो नहीं सकता तो फिर कानून क्यों? तीन, पति को जेल में डाल देंगे तो महिला को गुजारा-भत्ता कौन देगा? चार, यह मौलिक अधिकारों की धारा 14 और 15 का उल्लंघन है। पांच, यह हिन्दू और मुसलमानों में भेद करता है। इस बार कांग्रेस के सांसद शशि थरुर ने लोकसभा में पार्टी का मत रखा। थरूर ने कहा कि मैं तीन तलाक को खत्म करने का विरोध नहीं करता लेकिन इस विधेयक का विरोध कर रहा हूं। तीन तलाक को आपराधिक बनाने का विरोध करता हूं। मुस्लिम समुदाय ही क्यों, किसी भी समुदाय की महिला को अगर पति छोड़ता है तो उसे आपराधिक क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए। सिर्फ मुस्लिम पतियों को सजा के दायरे में लाना गलत है। यह समुदाय के आधार पर भेदभाव है। कांग्रेस ने पिछली बार लोकसभा में बहिगर्मन किया था। इस बार वह जिस तरह विरोध कर रही है उसमें कहना कठिन है कि जिस दिन इसे पारित करने के लिए रखा जाएगा तो वह मतदान में भाग लेगी या बहिगर्मन करेगी।

इन सारे विरोधों को सच की कसौटी पर कसिए। तलाक अवश्य सिविल मामला है। इस्लाम में तीन तलाक के दो प्रकार मान्य हैं, तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन। एक साथ तीन तलाक यानी तलाक-ए-विद्दत मान्य नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने 23 अगस्त 2017 को 395 पृष्ठों के अपने ऐतिहासिक फैसले इसके मजहबी, संवैधानिक, सामाजिक सारे पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए इसे गैर मजहबी एवं असंवैधानिक करार दिया था। असदुद्दीन ओवैसी जिस ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं उसने तथा जमियत-ए-उलेमा-ए हिन्द ने तलाक ए विद्दत के पक्ष में जितने तर्क दिए न्यायालय ने सबको खारिज कर दिया। इसने कई तर्क दिए थे। जैसे यह पर्सनल लौ का हिस्सा है और इसलिए न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता। तलाक के बाद उस पत्नी के साथ रहना पाप है और सेक्यूलर न्यायालय इस पाप के लिए मजबूर नहीं कर सकता। पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। यह आस्था का विषय है, संवैधानिक नैतिकता और बराबरी का सिद्धांत इस पर लागू नहीं होगा। पर्सनल लौ बोर्ड ने तो यह तर्क भी दिया कि इसे इसलिए जारी रखा जाए ताकि कोई पति पत्नी से गुस्सा होकर उसकी हत्या न कर दे। इसने महिलाओं की कम समझ होने का हास्यास्पद तर्क भी दिया। न्यायालय ने इन सारी दलीलों को ठुकरा दिया तो ये विरोध के लिए अलग कुतर्क ले आए हैं। न्यायलय ने साफ कर दिया कि इस्लाम में इसे कहीं मान्यता नहीं है।

कहने का तात्पर्य यह कि अगर यह इस्लाम में मान्य नहीं है, गैर कानूनी भी है तो फिर यह सिविल मामला नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति अपनी झनक, अहम् या वासना में एक महिला को क्षण भर में तलाक-तलाक-तलाक कहकर उसे पत्नी के अधिकारों से वंचित करता है तो यह स्पष्ट तौर पर आपराधिक कृत्य है। एक आपराधिक कृत्य के खिलाफ अपराध कानून ही बनाया जा सकता है। हां, अगर इस्लाम में मान्य तरीके से तीन तलाक होता है तो वह सिविल है और उसमें यह कानून लागू नहीं हो सकता। सभी समुदायों को शामिल करने का तर्क हास्यास्पद है। तीन तलाक या तलाक-ए-विद्दत केवल इस्लाम में है तो इसमें दूसरे समुदाय को कैसे शामिल किया जा सकता है। हिन्दुओं में तलाक लेने के लिए पूरी कानूनी प्रक्रिया है जिसका बिना पालन किए आप पत्नी को उसके अधिकारों से बेदखल करते हैं तो सजा के भागीदार हैं। उच्चतम न्यायालय ने एक साथ तीन तलाक को अमान्य करार दिया लेकिन उसके बाद भी ऐसा हो रहा है तो क्या किया जाए? परित्यक्त पत्नियां थाने जातीं हैं लेकिन पुलिस के पास ऐसा कानून नहीं जिसके तहत वह मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई करे। जैसा लोकसभा में बताया गया 2017 से तीन तलाक के 543 मामले, उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद 239 मामले, अध्यादेश के बाद भी 31 मामले सामने आए। जिस समय उच्चतम न्यायालय का फैसला आया उस समय सरकार का मत भी यही था कि घरेलू हिंसा कानून से काम चल जाएगा। किंतु अनुभव आया कि यह पर्याप्त नहीं है। इसलिए कानून अपरिहार्य है। मौलिक अधिकारों की धारा 14 कानून के समक्ष समानता तथा धारा 15 लिंग, मजहब, नस्ल, जाति आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। सच कहा जाए तो यह कानून महिलाओं को न्याय दिलाकर इन धाराओं का पालन करने वाला है।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि विपक्ष के विरोध एवं सुझावों के अनुरुप मूल विधेयक में कुछ बदलाव किए गए। वर्तमान विधेयक के अनुसार प्राथमिकी तभी स्वीकार्य की जाएगी जब पत्नी या उसके नजदीकी खून वाले रिश्तेदार दर्ज कराएंगे। विपक्ष और कई संगठनों की चिंता थी कि प्राथमिकी का कोई दुरुपयोग कर सकता है। दूसरे, पति और पत्नी के बीच पहल होती है तो मैजिस्ट्रेट समझौता करा सकते हैं। तीन, तत्काल तीन तलाक गैरजमानती अपराध बना रहेगा लेकिन अब इसमें ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि मजिस्ट्रेट पीड़िता पत्नी का पक्ष सुनने के बाद वाजिब वजहों के आधार पर जमानत दे सकते हैं। विधेयक के अनुसार मुकदमे का फैसला होने तक बच्चा मां के संरक्षण में ही रहेगा। आरोपी को उसका भी गुजारा देना होगा। यह तर्क विचित्र है कि अगर पति को जेल हो गया तो गुजारा भत्ता कौन देगा? मूल प्रश्न है कि किसी निर्दोष, निरपराध पत्नी के खिलाफ इस्लाम विरोधी अमानवीय कृत्य और अपराध करने वाले व्यक्ति को सजा क्यों नहीं होनी चाहिए? इस्लाम में निकाह बिल्कुल पारदर्शी व्यवस्था है जिसमें दो वयस्कों की सहमति से उपस्थित लोगों और काजी के सामने अनुबंध को साकार किया जाता है। इस तरह के सामाजिक, धार्मिक और विधिक अनुबंध को बिना किसी रस्म के अंत करने का अपराध करने वालों को तो कड़ी से कड़ी सजा होनी चाहिए। इसी से भय पैदा होगा एवं दूसरे सनकी सजा के भय से ऐसा करने से परहेज करंेेगे। कड़ा कानून ऐसे सामाजिक-धार्मिक अपराधों में भय निरोधक की भूमिका निभाता है।

अब प्रश्न है इस विधेयक के भविष्य का। लोकसभा में कोई समस्या है नहीं। राज्यसभा में इस समय 236 सदस्य हैं। बहुमत के लिए 119 सदस्यों का समर्थन चाहिए। इस समय राजग की संख्या इस प्रकार है- भाजपा 75, अन्नाद्रमुक 13, जदयू 6, अकाली दल-शिवसेना-नामित 3-3, आरपीआई-एजीपी 1-1। इसमें दो निर्दलीय अमर सिंह और सुभाष चंद्रा को मिलाकर 107 हो जाती है। 5 सदस्यांें वाले बीजद ने सरकार के साथ रचनात्मक सहयोग की घोषणा की है। दो सदस्यों वाले वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन भी मिल जाएगा। 6 सदस्यों वाले टीआरएस का रुख साफ नहीं है लेकिन सरकार बात कर रही है। 1-1 सदस्यों वाले एनपीएफ और बीपीएफ को साथ लाने में समस्या नहीं है। इस विधेयक के पारित होने के बीच ही होने वाले राज्य सभा चुनावों में भाजपा को 3 सीटें मिलना तय है। जद यू सहित विरोध करने वाले कुछ दूसरे दलों को बहिर्गमन कराकर सरकार विधेयक को पारित करा सकती है। तो इस बार एक साथ तीन तलाक पर उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले को मूर्त रुप देने वाले विधेयक के कानून में परिणत होने की संभावना पहले से ज्यादा प्रबल है। अगर ऐसा हुआ, जिसकी संभावना है तो यह कानून के द्वारा महिलाओं को न्याय दिलाने वाले एक सामाजिक क्रांति का आधार बन जाएगा।

अवधेश कुमार, ईः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

 

बुधवार, 26 जून 2019

बायोमेट्रिक मशीन के विरोध में बैठक का आयोजन

संवाददाता

नई दिल्ली। डेसू मजदूर संघ ने 25 जून की शाम को सूरजमल पार्क में बायोमेट्रिक मशीन के विरोध में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक की अध्यक्षता डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव ने की। इस बैठक में सैकड़ों की संख्या में सभी बिजली कंपनी में आउटसोर्स और एएमसी स्टाफ के कर्मचारी शामिल हुए। इस बैठक में आउटसोर्स और एएमसी के कर्मचारियों की बायोमेट्रिक मशीन पर हाजिरी लगाने के संबंध में चर्चा हुई। इस संबंध में चर्चा करते हुए डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव ने कहा कि जब तक बिजली कम्पनी सभी आउटसोर्स और एएमसी स्टाफ को सीटीसी पर या समान काम का समान वेतन नहीं देती तब तक डेसू मजदूर संघ बिजली कम्पनियों द्वारा आउटसोर्स और एएमसी की हाजिरी बायोमेट्रिक मशीन द्वारा अगर ली जाती है तो वह इसका विरोध करेगी। उन्होंने कहा कि हम आपके साथ थे, आपके साथ हैं और आपके साथ ही खड़े रहेंगे। इस बैठक में बिजली कंपनियों के अधिकारियों ने डेसू मजदूर संघ की मांगों को मान लिया है और आश्वासन दिया है कि वह जल्द ही इस समस्या पर विचार करके सभी आउटसोर्स और एएमसी के कर्मचारियों को बायोमेट्रिक मशीन पर हाजिरी से निजात दिलवाएगी। इस बैठक में डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष श्री किशन यादव, महामंत्री सुभाष चन्द, दिल्ली विद्युत बोर्ड एम्पलाॅइज यूनियन के महामंत्री श्री बिस्मबर दत्त, रिषी पाल, पवन कुमार, अब्दुल रज्जाक, मनोज विद्रोही, सतीश भाठी, सैनतुल त्यागी आदि मौजूद थे।
 











 

मंगलवार, 25 जून 2019

मंगलवार, 18 जून 2019

शनिवार, 15 जून 2019

जम्मू कश्मीर में नया अध्याय लिखा जा सकता है

 

अवधेश कुमार

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कार्यभार संभालने के साथ जिस तरह जम्मू कश्मीर पर ध्यान केन्द्रित किया है उससे साफ है कि केन्द्र सरकार के मुख्य फोकस में यह राज्य है। वस्तुतः भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में जम्मू कश्मीर के संबंध में कई घोषणाएं की हैं। पाकिस्तान में घुसकर हवाई कारवाई के बाद वैसे भी आम भारतीय की उम्मीदें सरकार से बढ़ गईं है। आम भारतीय यह मानकर चल रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इस बार जम्मू कश्मीर में स्थायी शांति बहाल हो जाएगी। कश्मीर में स्थायी शांति के आयाम काफी व्यापक हैं। इसमें आतकवादियों, उनके प्रायोजकों और समर्थकों , अलगाववादियों, मजहबी कट्टरपंथियों आदि के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई के साथ अब तक वहां शासन करने वाली पार्टियों की दोहरे चेहरे को जनता के सामने उजागर करने तथा जम्मू कश्मीर के अंदर राजनीतिक-प्रशासनिक असंतुलन को खत्म करना आदि शामिल हैं। गृहमंत्री का पद संभालने के कुछ ही घंटों के अंदर उन्होंने जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मलिक के साथ पूरी स्थिति पर बातचीत की। उसके बाद से बैठकों का सिलसिला चलता रहा। एक बैठक में तो विदेश मंत्री एस. जयशंकर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, तेल एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान तक शामिल थे। इसके संकेतों को समझे ंतो जम्मू कश्मीर में समग्रता में कदम उठाया जा रहा है। आखिर इसका विदेशी आयाम भी है और वित्तीय भी। सुरक्षा अधिकारियों के साथ उन्होंने अलग से बातचीत की। सुरक्षा अधिकारियों के साथ बैठक के बाद श्रीअमरनाथ यात्रा को सुरक्षित और व्यवस्थित करने की योजना को अंतिम रुप मिला। साथ ही  शीर्ष दस आतंकवादियों की सूची तैयार हुई जिन पर फोकस औगरेशन शुरू हो गया है। इनमें हिज्बुल मुजाहिदीन के उच्चतम कमांडर रियाज अहमद नायकू रियाज नायकू शामिल है।

 आतंकवाद को इस्लामी राज स्थापना का लक्ष्य घोषित करने वाले जाकिर मूसा सहित 103 आतंकवादी मारे जा चुके हैं। अमित शाह के नेतृत्व में इससे आगे का ही कार्य होना है। उनकी सक्रियता को लेकर कश्मीर घाटी में गलतफहमी भी फैलाने की कोशिश हुई है। इन सब बैठकों के बीच राज्य के विधानसभा सीटों के परिसीमन का मुद्दा भी सामने आ गया। इस पर किसी तरह का अधिकृत बयान हमारे पास नहीं है। पर अगर बैठक में बातचीत नहीं हुई होती यह खबर बाहर नहीं आती। कहा जा रहा हैकि शाह ने गृह सचिव राजीव गौबा और कश्मीर मामलों के अतिरिक्त सचिव ज्ञानेश कुमार के साथ परिसीमन पर विचार-विमर्श किया। इस पर आगे बढ़ा जाएगा या नहीं कहना मुश्किल है। जम्मू और लद्दाख के लोगों की पुरानी मांग है कि हमारे साथ प्रतिनिधित्व में असमानता है जिसे दूर किया जाना चाहिए। इसलिए ऐसा हो तो स्वागत किया जाएगा। अगर चुनाव आयोग को वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनाव कराने की हरि झंडी मिली है और परिसीमन करना है तो उससे पहले कर लेना होगा। परिसीमन की चर्चा के साथ ही नेशनल कॉन्फ्रेंस एवं पीडीपी दोनों के विरोधी स्वर सामने आ गए हैं। मेहबूबा मुफ्ती ने तो इसको जम्मू कश्मीर का सांप्रदायिककरण करार दे दिया तो उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया कि परिसीमन पर रोक 2026 तक पूरे देश में लागू है। यह केवल जम्मू कश्मीर के संबंध में रोक नहीं है। उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि अगर ऐसा हुआ तो वह इसका कड़ा विरोध करेंगे। निस्संदेह यदि परिसीमन का फैसला होता है तो इनके साथ अलगावादी ताकतें भी विरोध करेंगी। ईद के दिन घाटी में काफी समय बाद जिस तरह की पत्थरबाजी की गई संभव है उसके पीछे ऐसी ही ताकते हों जो वहां किसी तरह का बदलाव नहीं चाहतीं। वर्तमान परिसीमन के तहत ही तो घाटी का वर्चस्व है। जम्मू कश्मीर में आखिरी बार 1995 में परिसीमन हुआ था। स्वयं राज्य के संविधान के अनुसार हर 10 साल के बाद विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन किया जाना चाहिए। 1995 में राज्यपाल जगमोहन के आदेश पर 87 सीटों का गठन किया गया। विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं, लेकिन 24 सीटों को रिक्त रखा गया है। संविधान की धारा 47 के मुताबिक इन 24 सीटों को पाक अधिकृत कश्मीर के लिए खाली छोड़ गया है। शेष 87 सीटों पर चुनाव होता है। कायदे से विधानसभा क्षेत्रों का 2005 में किया जाना चाहिए था। लेकिन फारूक अब्दुल्ला सरकार ने इसके पूर्व 2002 में ही जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधित्व कानून 1957 और जम्मू-कश्मीर के संविधान में बदलाव करते हुए इस पर 2026 तक के लिए रोक लगा दी।

जरा यहां की भौगोलिक स्थिति को समझिए। जम्मू संभाग 26,200 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यानी राज्य का 25.93 फीसदी क्षेत्र फल जम्मू संभाग के अंतर्गत आता है। यहां विधानसभा की कुल 37 सीटें हैं। कल क्षेत्र का 58.33 प्रतिशत लद्दाख संभाग में है लेकिन यहां विधानसभा की केवल चार सीटें हैं। इसके समानांतर कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल 15.7 प्रतिशत यानी 15900 वर्ग किलोमीटर है और यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। कश्मीर संभाग के लोग कहते हैं कि उनकी जनसंख्या ज्यादा है। मसलन, 2011 की जनगणना के मुताबिक जम्मू संभाग की आबादी 5378538 है, जो राज्य की कुल आबादी का 42.89 प्रतिशत है। कश्मीर  की आबादी 6888475 है, जो राज्य की आबादी का 54.93 प्रतिशत है। कश्मीर घाटी की कुल आबादी में 96.4 प्रतिशत मुस्लिम हैं। जम्मू संभाग की कुल आबादी में डोगरा समुदाय की आबादी 62.55 प्रतिशत है। लद्दाख की आबादी 2,74,289 है। इसमें 46.40 प्रतिशत मुस्लिम, 12.11 प्रतिशत हिंदू और 39.67 प्रतिशत बौद्ध हैं। सवाल है कि विधानसभा क्षेत्रों का निर्धारण केवल आबादी के हिंसाब से होना चाहिए या भौगोलिक क्षेत्रफल के अनुसार? दोनों के बीच संतुलन होना चाहिए। कश्मीर में 349 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक विधानसभा है, जबकि जम्मू में 710 वर्ग किलोमीटर पर। परिसीमन के लिए सामान्यतः पांच पहलुओं को आधार बनाया जाता है- क्षेत्रफल, जनसंख्या, क्षेत्र की प्रकृति, संचार सुविधा तथा इससे मिलते-जुलते अन्य कारण। जम्मू कश्मीर में इनका ध्यान नहीं रखा गया है। जम्मू और लद्दाख को देखें तो क्षेत्रफल अधिक होने के साथ ही भौगोलिक स्थिति भी विषम है। संचार सुविधाओं की भी समस्या है। कुल मिलाकर जम्मू कश्मीर का क्षेत्र निर्धारण असंतुलित है और इसे दूर करना अपरिहार्य है। दूसरे, यहां अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय के आरक्षण में भी विसंगति है। जम्मू संभाग में अनुसूचित जाति के लिए सात सीटें आरक्षित हैं लेकिन उनका भी रोटेशन नहीं हुआ है। घाटी की किसी भी सीट पर आरक्षण नहीं है जबकि यहां 11 प्रतिशत गुज्जर-बक्करवाल और गद्दी जनजाति समुदाय के लोग रहते हैं।

अगर देश के लिए निर्धारित कसौटियों पर परिसीमन हुआ तो फिर पूरा राजनीतिक वर्णक्रम बदल जाएगा। जम्मू संभाग के हिस्से ज्यादा सीटें आएंगी। लद्दाख की सीटें भी बढ़ेंगी। कश्मीर की सीटें घट जाएंगी। तो कश्मीर घाटी की बदौलत अभी तक राज करने वाली दोनों मुख्य पार्टियों के लिए समस्या खड़ी होगी। इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक है। देश के अन्य राज्यों और जम्मू कश्मीर में अंतर है। किसी दूसरे राज्य में ऐसा असंतुलन नहीं है। जम्मू कश्मीर को भारत के सभी राज्यों की तरह समान धरातल पर लाना है तो वहां की राजनीतिक, प्रशासनिक, सुरक्षात्मक और सबसे बढ़कर संवैधानिक स्थितियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। परिसीमन तो इसमें से एक कदम होगा। यह सही है कि पैंथर्स पार्टी की ओर से भीम सिंह द्वारा इसके विरुद्ध दायर याचिका पर जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय तथा बाद में 2011 में उच्चतम न्यायालय की खंड पीठ ने भी परिसीमन के पक्ष में फैसला नहीं दिया। कई बार न्यायालय भी अपने फैसले बदलता है। सरकार चाहे तो इस दिशा में कदम उठा सकती है। तो देखते हैं क्या होता है।

बहरहाल, मोदी सरकार की पिछले सात-आठ महीने की जम्मू कश्मीर नीति को एक साथ मिला दें तो साफ हो जाएगा कि सुनियोजित तरीके से सभी मामलों पर कदम उठाए जा रहे हैं। ऑपरेशन ऑल आउट के तहत आतंकवादियों के खात्मे में तेजी, आतंकवाद के वित्तपोषण के अपराध में अलगाववादी नेताओें की एनआईए द्वारा गिरफ्तारी जिस समय अमित शाह बैठकें कर रहे थे उसी समय न्यायालय ने शब्बीर शाह, आसिया अंद्राबी और मसरत आलम को एनआईए के हिरासत में दे दिया जमायत-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध एवं उनके प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करना, घाटी में एक साथ 112 कंपनी सुरक्षा बलोें को उतारना, संदिग्धों के घर की तलाशी, हुर्रियत एवं उनके समर्थकों की सुरक्षा वापसी,प्रमुख हुर्रियत नेताओं के यहां छापा, अब आतंकवादियों की हिट लिस्ट बनाकर उनके खिलाफ केन्द्रित ऑपरेशन... और अब परिसीमन की चर्चा। इसके साथ 35 ए हटाने की घोषणा सरकार कर चुकी है। यह राष्ट्रपति के आदेश से कभी भी हो सकता है। पाकिस्तान को यह बताया जा ही चुका है कि अगर आपने आतंकवादी हमले कराए तो फिर आपके घर में घुसकर हम मारेंगे। इस तरह जम्मू कश्मीर में भारत के अनुकूल बदलाव का नया दौर चल रहा है जिसमें लक्ष्य भी साफ है,सुसंगति भी है और संकल्पबद्धता भी। उम्मीद करनी चाहिए कि नरेन्द्र मोदी सरकार 2 इन सबको तार्किक परिणति तक ले जाएगी। यह सब जम्मू कश्मीर के लिए इतिहास निर्माण जैसा होगा और यहां से एक नए अध्याय की शुरुआत होगी।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

मंगलवार, 11 जून 2019

शुक्रवार, 7 जून 2019

यह आत्मविनाश का रवैया है

 अवधेश कुमार

कांग्रेस संसदीय दल की बैठक से बाहर आई खबरें केवल कांग्रेस के लिए नहीं भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से चिंता पैदा करने वाली है। यह इसलिए क्योंकि देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली पार्टी दो करारी पराजय के बाद भी या तो यह समझ नहीं रही या समझने के लिए तैयार नहीं है कि इस दुर्दशा के लिए उसका स्वयं का विचार और व्यवहार जिम्मेवार है। राहुल गांधी का यह कहना कि हम 52 लोग भाजपा से लड़ने के लिए काफी हैं और हम ईंच-ईंच लड़ेंगे का सीधा मतलब यही है कि कांग्रेस नरेन्द्र मोदी सरकार से केवल टकराव की रणनीति अपनाएगी। संसद का टकराव केवल वहीं तक सीमित नहीं रहती, उसका असर देश के पूरे राजनीतिक वातावरण पर पड़ता है। कांग्रेस 16 वी लोकसभा के कार्यकाल में पहले एक वर्ष को छोड़ दे ंतो लगातार सरकार से मोर्चाबंदी करती रही। इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। इसके बावजूद यदि वह उससे ज्यादा तीखी लड़ाई की रणनीति अपना रही है तो फिर इसके उल्टे परिणाम होंगे।

संघर्ष के लिए राहुल गांधी ने जिस सिद्धांत को आधार बनाया वह कहीं ज्यादा चिंताजनक है। उन्होंने मोदी सरकार को ब्रिटिश सरकार साबित कर दिया। वस्तुतः इस आपत्तिजनक विशेषण के लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। उनसे यह तो पूछा ही जा सकता है कि भारत के मतदाताओं द्वारा संवैधानिक प्रक्रिया के तहत निर्वाचित किसी सरकार को आप ब्रिटिश सरकार कैसे कह सकते हैं? क्या नरेन्द्र मोदी सरकार ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह बाहर से आकर देश पर कब्जा करके हमें गुलाम बनाया है? अगर ऐसी गुलामी होती तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी संसदीय सौंध में न अपने संसदीय दल की बैठक कर पाते और न ही वे इतने आक्रामक ढंग से सरकार के खिलाफं बोलते। वे कह रहे हैं कि संविधान की, संस्थाओं की रक्षा के लिए हमें लड़ना है। यही बात वे पूरे चुनाव अभियान में बोलते रहे। अब उनका कहना है कि हमें पहले से ज्यादा आक्रामक होना है तथा जोर से बोलना है। यानी हमने पहले उतना जोर से नहीं बोला इसलिए पराजय हो गई। वे कहते हैं कि जिस ढंग से ब्रिटिश काल में हमें किसी संस्था से कोई मदद नहीं मिली फिर भी हम जीते उसी तरह हमें किसी संस्था की मदद नहीं मिलेगी लेकिन हम जीतेंगे। कांग्रेस जैसी आज भी राष्ट्रीय स्तर पर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी नेतृत्व की यह सोच साफ कर रही है कि वह पूरी तरह दिशाभ्रम का शिकार है और आने वाले समय में उसकी भूमिका सकारात्मक विपक्ष की नहीं होगी।

 राहुल गांधी ने स्वयं चुनाव परिणाम के बाद कहा था कि उनकी पार्टी सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी। उससे एक उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस जनता द्वारा नकारे जाने के बाद अपने विचार और व्यवहार में शायद परिवर्तन करने के लिए तैयार हो रही है। प्रश्न है कि आठ दिनों में ऐसा क्या हो गया कि सोच और तेवर पूरी तरह बदल गए? शायद राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी के रणनीतिकारों ने यह समझाया है कि अगर नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रति विनम्र और सहयोगी रहे तो कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच निराशा का संदेश जाएगा। वे मानेंगे कि कांग्रेस पराजय के आघात के नीचे दब गई है। यह समय उनको यह विश्वास दिलाने का है कि हम चुनाव जरुर हारे हैं, पर लड़ने का माद्दा नहीं खोया है। कांग्रेस के लिए कार्यकर्ताओं और समर्थकों का आत्मविश्वास बनाए रखना जरुरी है लेकिन एक तिलमिलाई हुई संतुलन खो चुकी पार्टी का चरित्र ग्रहण करना तो नुकसान ही पहुंचाएगा। कांग्रेस के जो विवेकशील कार्यकर्ता और समर्थक हैं वो भी कम से कम इससे सहमत नहीं होंगे कि नरेन्द्र मोदी सरकार ब्रिटिश सरकार है जिसने हमको गुलाम बना लिया है और संविधान को नष्ट कर संस्थाओं का गला दबा दिया है। तो सैद्धांतिक आधार कतई लाभकर नहीं हो सकता। दूसरे, राजनीतिक पार्टी को माहौल देखकर सधे तरीके से रणनीति बनानी चाहिए। बयान तो बिल्कुल ऐसा सधा देने की जरुरत होती है जिसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं हो। चुनाव परिणामों से साफ है कि देश के बड़े भाग में नरेन्द्र मोदी समर्थन की लहर है। इस समय विदेशी सरकार कहकर पहले से ज्यादा आक्रामक और टकराव के आह्वान की देश भर में उल्टी प्रतिक्रिया हो रही है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लड़ने की एक सीमा होती है। कोई राजनीतिक दल सतत लड़ते नहीं रह सकता। आक्रामक होने तथा सरकार पर जोर-जोर से बोलकर हमला करने की एक सीमा होगी। इसमें आप थक जाएंगे और पार्टी को संगठित करने, खोए समर्थन आधार पाने के लिए काम करने की शक्ति और समय नहीं बचेगा। उल्टे ऐसे व्यवहार से मोदी और भाजपा के समर्थक ज्यादा संगठित होंगे। कांग्रेस के लिए यह रणनीति आत्मविनाशक साबित होगी। कांग्रेस अगर आत्मविनाश करने पर तुली है तो हम आप कुछ नहीं कर सकते। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के अंदर से जितनी खबर आई थी उसके अनुसार राहुल ने कई नेताओं को गुस्से का निशाना बनाया। तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित कई राज्यों के अध्यक्षों द्वारा दिए गए गलत फीडबैक पर उन्होंने प्रश्न किया। यहां तक कहा कि कुछ बड़े नेताओं ने अपने बेटे को टिकट देने का दबाव बनाया और अपना ज्यादा समय उसे जिताने के लिए लगाया। उनका सीधा इशारा, कमलनाथ, अशोक गहलोत और पी.चिदम्बरम की ओर था।अगर राहुल गांधी को अपनी पार्टी नेताओं के चरित्र का पहले से पता नहीं था तो यही माना जाएगा कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष है ही नहीं। प्रियंका बाड्रा ने बैठक में कह दिया कि कांग्रेस के हत्यारे इसी कमरे में बैठे हैं। राहुल और प्रियंका यह क्यों नहीं सोचते कि जनता ने उनकी अपील और आक्रामकता को क्यों नकार दिया?

बहरहाल, कांग्रेस अध्यक्ष के पद से राहुल गांधी ने इस्तीफा देने का प्रस्ताव दिया जिसे कांग्रेस कार्यसमिति ने अस्वीकार किया, पर वे अड़े रहे। पता नहीं उनके मन में अभी क्या है? इसी बीच सोनिया गांधी का पत्र सार्वजनिक हुआ जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के नेतृत्व की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे निडरतापूर्वक लड़े हैं। कठिन समय में अच्छा नेतृत्व दिया पार्टी को। साफ है कि यह पत्र रणनीति के तहत लिखा गया। आखिर एक मां को अपने बेटे के लिए सार्वजनिक रुप से पत्र लिखने की क्या जरुरत हो सकती है? खबर यह दी जा रही थी कि राहुल इस्तीफे पर अड़ गए हैं। उन्होंने पार्टी के लोकसभा का नेता होने का मन बनाया है लेकिन अध्यक्ष रहने का नहीं। पार्टी दुर्दशा का शिकार हुई है तो उसकी मूल जिम्मेवारी अध्यक्ष के नाते राहुल के सिर ही आती है। सारी रणनीतिंयां उनके नेतृत्व में बनी। चौकीदार चोर है नारा बनाया चाहे जिसने हो, लेकिन आरंभ उन्होंने ही किया। घोषणा पत्र में देशद्रोह कानून खत्म करन से लेकर अफस्फा के महत्वपूर्ण  प्रावधान हटाने, जम्मू कश्मीर में इसकी समीक्षा करने तथा वहां सुरक्षा बलांे की संख्या कम करने का वायदा उनकी सहमति से दिया गया था जिसने भाजपा की राष्ट्रवाद और सुरक्षा की पिच को और मजबूत कर दिया। संभव है राहुल अध्यक्ष भी बने रहें। सोनिया के पत्र से इसका आधार भी बन गया है। वैसे राहुल अध्यक्ष रहे या कोई और कांग्रेस उस स्थिति में नहीं कि परिवार के नियंत्रण से बाहर जाए। आखिर सोनिया गांधी को संसदीय दल का अध्यक्ष बना ही दिया गया। पार्टी का नेतृत्व परिवार के ही ईर्द-गिर्द रहेगा तो नई दिशा से कुछ हो पाना संभव भी नहीं है चाहे जितनी कवायद की जाए। 

 इन सब घटनाओं को एक साथ मिलाकर देखें तो कई साफ निष्कर्ष सामने आता है। एक, राहुल गांधी अमेठी में अपनी पराजय के आघात से उबर नहीं पा रहे हैं। दो, कांग्रेस अभी तक यह समझ नहीं पा रही है कि केरल और पंजाब को छोड़कर देश भर में उसकी इतनी बुरी पराजय क्यों हुई? तीन, जिस मोदी और भाजपा को वे लोकप्रिय मान चुके थे उसे इतना बड़ा बहुमत कहां से प्राप्त हो गया? चार, राहुल और प्रियंका की अपीलों और आक्रामकताओं का असर क्यों नहीं हुआ? पांच,उसके साथ सहयोगी दलों को भी जनता ने क्यों नकार दिया? और सबसे बढ़कर उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा कि आखिर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का दुर्दिन खत्म क्यों नहीं हो रहा? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर मिलना तभी संभव होगा जब सोनिया गांधी, राहुल गांधी और उनकी सलहाकार मंडली भी सामने दिखते सच को देख सके। जब आप नहीं देखते तो यह समझ नहीं पाते कि आगे क्या करना है। इसी मानसिक अवस्था में आप देश की सरकार को औपनिवेशिक सरकार कहकर सांसदों-नेताओं का लगातार लड़ने का आह्वान करते हैं ताकि लगे कि उनका नेता वाकई हार मानने वाला नहीं है। जाहिर है, इस रास्ते कांग्रेस केवल अपना नुकसान करेंगी और चूंकि भाजपा के बाद वही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है, इसलिए लोकतंत्र भी इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। काश, कांग्रेस को सुबुद्धि आए, वह अपनी नीति-रीति और नेतृत्व की भूलों को समझकर पार्टी के व्यापक आंतरिक सुधार की दिशा में आगे बढ़े और आत्मविनाश से स्वयं को बचा सके। इस समय की अवस्था देखते हुए तो लगता नहीं कि कांग्रेस को सुबुद्धि मिलने वाली है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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