मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

हेमंत करकरे का सच वही नहीं जो हमें बताया गया

 अवधेश कुमार

हेमंत करकरे का नाम अचानक सुर्खियों में आ गया है। भोपाल से भाजपा उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर अपनी उत्पीड़न की व्यथा बताते हुए कह गईं कि हेमंत करकरे को मैने शाप दिया था। साध्वी की उम्मीदवारी के बाद से ही मौन धारण कर चुकी कांग्रेस बाहर आई और इसे शहीदों का अपमान बताया एवं भाजपा ने त्वरित प्रतिक्रिया दे दी कि हेमंत करकरे हमारे लिए शहीद हैं। साध्वी ने भी कह दिया कि इससे राष्ट्र विरोधियों को लाभ होगा मैं अपना बयान वापस लेती हूँ। किंतु, इससे अध्याय खत्म नहीं, बल्कि दोबारा आरंभ हुआ है। सोशल मीडिया पर सघन बहस चल रही है। अंतर्धारा में यह इस चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा बन गया है। हेमंत करकरे की जान 26 नवंबर 2008 को मुंबई आतंकवादी हमले में गई और साध्वी को मालेगांव द्वितीय धमाकों में हिन्दू आतंकवाद का खतरनाक चेहरा साबित करने का आधार उन्हीं के नेतृत्व में बना। इस तरह पूरे विवाद के दो पहलू हमारे सामने विचार के लिए हैं। क्या मुंबई आतंकवादी हमले में आतंकवाद निरोधक दस्ता या एटीएस प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका वाकई गौरवशाली थी? दो, क्या मालेगांव विस्फोट के मामले में साध्वी प्रज्ञा सहित अन्य हिन्दुओं को संलिप्त साबित करने में उन्होंने निष्पक्ष पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई?

इतिहास भावनाओं के आधार पर नहीं, उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किसी की भूमिका का मूल्यांकन करता है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर आतंकवादी हमले के समय वो वहां दिख रहे थे। इसका मतलब वे साहस के साथ मोर्चा पर आए। किन्तु जितने इत्मीनान से वे बुलेट प्रूफ जैकेट पहन रहे थे उससे लग नहीं रहा था कि वे आतंकवादी हमले के विरूद्ध युद्ध के मोर्चे पर हैं। एटीएस सहित मुंबई पुलिस की आतंकवादी हमले के संदर्भ में आत्मघाती दयनीय समझ, संघर्ष के लिए सामान्य व्यूह रचना का अभाव तथा आतंकवादियों के समक्ष बिल्कुल विफल हो जाने का आकलन उस जांच समिति ने किया जिसे तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने अत्यंत सीमित दायरे में जांच का जिम्मा दिया था। सरकार ने मांग के बावजूद अधिकार प्राप्त आयोग गठित नहीं किया। हालांकि अपनी सीमाओं में रहते हुए और भाषा मृदु रखते हुए भी आर डी प्रधान और वी बालाचन्द्रण समिति ने इनकी विफलताओं को उजागर किया। इसमें अनेक पुलिस अधिकारियों, सिपाहियों का नाम लेकर उनकी बहादूरी की प्रशंसा की गई है। किंतु मुंबई पुलिस आयुक्त तथा एटीएस प्रमुख करकरे की बिल्कुल प्रशंसा नहीं। क्विक रिस्पौंस टीम या क्यूआरटी तथा अस्सॉल्ट टीमें एटीएस की मुंबई शाखा के अंदर आती है। क्यूआरटी को जगह-जगह भेजा गया लेकिन समिति को उन्होंने कहा कि कोई अधिकारी नहीं था जो बताए कि करना क्या है। समिति ने लिखा है कि पूरा एटीएस अस्त-व्यस्त था। हेमंत करकरे प्रदेश एटीएस के प्रमुख थे। उनको योग्य एवं सक्षम तब माना जाता जब वे हमले के बाद क्विक रिस्पॉंस टीम को कमान के साथ दायित्वों का बंटवारा करते तथा स्वयं उनका मौनिटर करते। रिपोर्ट में अन्य पुलिस अधिकारियों के बारे में तो लिखा है लेकिन करकरे के पास हमले का सामना करने की योजना भी थी इसका जिक्र नहीं है।

इसमें 7 अगस्त 2006 से 11 अगस्त 2008 तक के आठ खुफिया सुचनाओं की चर्चा है। ये सारे एकदम सुस्पष्ट और सटीक नहीं है़ किंतु इसमें लश्कर-ए-तैयबा द्वारा समुद्र मार्ग से आकर हमला करने की साजिशों की बात है। उदाहरण के लिए 9 अगस्त 2008 के खुफिया रिपोर्ट में दक्षिण मुंबई के ताज होटल, ओबेराय होटल, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर आदि पर हमले का अलर्ट है। सूचनाओं के आधार पर कई पुलिस अधिकारियों ने उन जगहो का दौरा किया, होटल के प्रबंधन से बात की, कुछ व्यवस्थायें भी कीं किंतु एटीएस की इसमें कोई भूमिका नहीं थी। जो खुफिया सूचना मिलती वो गृहमंत्रालय से होकर पुलिस महानिदेशक, पुलिस आयुक्त कार्यालय के साथ एटीएस के डीआईजी के पास भी आती थी। करकरे की जिम्मेवारी थी कि वे इसके आधार पर पहल कर एक समन्वय बनाते। किसी भी इंसान के मरने का तो दुख होता ही है। किंतु करकरे आतंकवादी हमले की शक्ति क्या है इसका मोटा-मोटी आकलन किए बगैर व बिना किसी योजना के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से कामा अस्पताल की ओर चल पड़े। उस हमले में बच गए जवान का बयान है कि पांच मिनट चले होंगे कि अचानक एक पेड़ के पीछे से एके 47 राइफल लिए दो आतंकवादी निकले और अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। उसमें करकरे, के साथ अतिरिक्त आयुक्त अशोक काम्टे, मुठभेड़ विशेषज्ञ विजय सालस्कर और तीन पुलिसकर्मी जान गंवा बैठे। यह अत्यंत दुखद था। इन सबके पास हथियार थे, लेकिन ये यह नहीं सोच सके कि जो आतंकवादी आत्मघाती बनकर आया है वह कहीं भी हमला कर सकता था। इसलिए हाथों में हथियार लिए युद्ध की अवस्था में इन सबको होना चाहिए था। इन्होंने हाथों में हथियार तक नहीं लिया था। यह अगर करकरे की योग्यता और शूरवीरता थी तो फिर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। ऐसी घटनाओं में पुलिस नियंत्रण कक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नियंत्रण कक्ष में कॉल की भरमार थी। इसमें नियंत्रण कक्ष की आलोचना नहीं है लेकिन लिखा है कि मुंबई का पुलिस नियंत्रण कक्ष न तो आतंकवादियों की गतिविधियों को ट्रैक कर सका न ही उनका पीछा करन वाले पुलिस टीम को। घटनाएं क्षेत्र में घट रहीं थीं एवं वहा ंउपस्थित वरिष्ठ अधिकारी नियंत्रण कक्ष को अपनी रणनीतिक योजना की जानकारी नहीं दे रहे थे। हेमंत करकरे ने नियंत्रण कक्ष को कामा अस्पताल की ओर जाने की सूचना दी इसका कोई रिकॉर्ड वहां नहीं है।

ध्यान रखिए, हेमंत करकरे की जांच समिति ने चर्चा करने लायक तक नहीं समझा। रिपोर्ट से सरकार की कलई खुल रही थी। पुलिस महानिदेशक ने साफ कहा कि खतरे की सारी सूचनाएं सरकार के पास थी लेकिन उसने पुलिस को उसके अनुरुप आधुनिक शस्त्रास्त्रों तथा उपकरणों से लैश करने, उनका विशेष प्रशिक्षण कराकर लगतार अभ्यास कराते रहने तथा समुद्र किनारे उपयुक्त सुरक्षा व्यवस्था के लिए कदम उठाया ही नहीं। सरकार के सामने अपने को बचाने की समस्या थी। इसलिए केन्द्र एवं प्रदेश दोनों सरकारों ने दूसरा मोड़ देने की रणनीति अपनाई। पाकिस्तान की इसमें भूमिका थी और कसाब पकड़ा गया था। इसलिए पूरा फोकस वहां हो गया। पुलिस की विफलता के लिए आयुक्त हसन गफूर को हटा दिया गया। साफ है करकरे जिंदा होते तो रिपोर्ट में उनकी भूमिका की भी नाम लेकर चर्चा होती और उनको जाना ही पड़ता। सरकार किसी तरह संदेश देना चाहती थी कि उसकी पुलिस ने वीरतापूर्वक संघर्ष किया इसलिए उसने करकरे को मरणोपरांत अशोक चक्र जैसा वीरता पुरस्कार दे दिया। जगह-जगह करकरे की श्रद्धांजलि सभायें योजनापूर्वक कराईं गईं। उसके बाद से एक वातावरण बना हुआ है कि हेमंत करकरे तो आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए। कोई सच देखने की जहमत उठाता ही नहीं। आखिर उन्होंने कहां मोर्चाबंदी की, कहां मोर्चाबंदी के लिए व्यूह रचना की और कहां एक भी गोली चलाई?

 सच यह है कि करकरे का पूरा समय करीब दो महीने से मालेगांव एवं नासिक विस्फोटों में हिन्दू आतंकवाद प्रमाणित करने में लगा हुआ था। एटीएस की दूसरी और मुख्य भूमिका हाशिए पर चली गई। हिन्दू आतंकवाद की आज परिणति क्या है? साध्वी प्रज्ञा का नाम न अजमेर शरीफ विस्फोट में आया, न समझौता विस्फोट में और न हैदराबाद मक्का मस्जिद विस्फोट में। इन सारे मामलों का फैसला आ गया है। 29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए दो विस्फोटों में 6 लोग मारे गए तथा 101 घायल हुए थे। उस मामले में जिस तरह की यातना साध्वी प्रज्ञा को करकरे ने दिलवाई उससे लगता ही नहीं कि भारत में सभ्य पुलिस भी है। आज वो होते तो मुकदमा झेल रहे होते या जेल में होते। किसी महिला को अपनी बनाई कथा को स्वीकार करवाने के लिए नंगा करना, उल्टा लटकाना, बेरहमी से पीटना, गंदी गालियां देना, उसके शिष्य से पिटवाना.....पुलिस की किस व्यवहार संहिता में लिखा है? प्रज्ञा के आधे अंग को लगवा मार गया था। उसकी किडनी में समस्या हो गई। अब तक की स्थिति यही है कि एनआईए ने जांच के बाद 13 मई 2016 को दूसरे पूरक आरोप पत्र में कहा कि मामले में न मकोका लगाने का आधार है और न साध्वी प्रज्ञा ठाकुर सहित 6 लोगों के खिलाफ मुकदमा चलने लायक सबूत ही। हालांकि न्यायालय ने मुकदमा बंद करने को नकार दिया। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में जमानत अर्जी दी। 25 अप्रैल 2017 को उच्च न्यायालय ने साध्वी को जमानत दे दी। उच्चतम न्यायालय ने पुरोहित को भी  21 अगस्त 2017 को जमानत दे दिया।  आज की स्थिति यह है कि अन्य तीन मामलों की तरह ज्यादातर गवाहों ने न्यायालय में कह दिया है कि पहले उन्हें डराकर बयान दिलवाया गया था। क्या इससे साबित नहीं होता कि हेमंत करकरे ने एक बड़ी कथा गढ़ी तथा उसके अनुसार पुलिसिया ताकत का उपयोग कर गवाह बनाए? पूरी योजना संघ और उससे जुड़े संगठनों को संगठित आतंकवाद को संचालित करने वाला संगठन परिवार साबित करने की थी। अगर ऐसा व्यक्ति शहीद है तो फिर शहीद की परिभाषा बदलनी होगी।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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शनिवार, 20 अप्रैल 2019

यह चिट्ठी ही सेना का राजनीतिक दुरुपयोग है

 अवधेश कुमार

घटनाक्रम पर ध्यान दीजिए। कांग्रेस मुख्यालय पर पार्टी प्रवक्ता ने पत्रकार वार्ता बुलाकर बताया कि 156 पूर्व सैन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपील की है कि सेना के राजनीतिकरण को रोका जाए। कांग्रेस के नेता उस पत्र की कॉपी लेकर चुनाव आयोग के पास पहुच गए। बाहर आकर बयान दिया कि भाजपा सेना का वोट के लिए राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है जिससे पूर्व सैन्य अधिकारी नाराज हैं। अगर वाकई सेना के पूर्व अधिकारियों ने मिल-बैठकर ऐसा पत्र लिखने का निर्णय किया तो वे खुद राष्ट्रपति से समय मांग कर मिल सकते थे। ये स्वयं चुनाव आयोग के पास जा सकते थे। इसका अर्थ हुआ कि इसकी योजना कहीं और से बनी। योजना बनाने वालों ने पत्र लिखा। उसके बाद सेवानिवृत अधिकारियों को मेल और व्हाट्सऐप पर भेजकर पूछा गया कि क्या आप इससे सहमत हैं? कुछ लोगों ने सहमति व्यक्त की। हालांकि उन्हें भी इसके राजनीतिक उपयोग का अनुमान था या नहीं कहना कठिन है। योजनाकारों की सोच यही थी कि कि एक बार पूर्व सैन्याधिकारियों के नाम से पत्र जारी करके इसका अपने अनुसार राजनीतिक दुरुपयोग किया जाए। यही हुआ है।

उस पत्र पर जिनके नाम हैं उनमें से किसी ने नहीं कहा कि हमने आपस में बैठकर यह फैसला किया।  राष्ट्रपति भवन ने पत्र मिलने से ही इन्कार कर दिया। हो सकता है आगे उनके पास पत्र पहुंच जाए। कांग्रेस की पत्रकार वार्ता के बाद क्षण भर में यह खबर फैल गई कि सेना के सेवानिवृत्त बड़े अधिकारियों ने भाजपा और सरकार का विरोध किया है। यदि सेना के कुछ पूर्व अधिकारियों को लगे कि सही नहीं हो रहा है तो राष्ट्रगति को पत्र लिखने में कोई समस्या नहीं हैं। किंतु यहां स्थिति दूसरी है। जब इनकी कोई बैठक नहीं हुई तो फिर फैसला कहां हुआ? साफ है कि पूरा प्रकरण कांग्रेस ने पैदा किया। तूफान खड़ा हो ही रहा था कि कुछ लोग यह कहते हुए सामने आ गए कि मेरा नाम बिना मेरे से पूछा लिखा गया है। पत्र में पूर्व सेना प्रमुख जनरल एसएफ रॉड्रिग्ज का नाम है। उन्होंने इसे फेक न्यूज का सबसे घटिया उदाहरण बताया। उन्होंने कहा कि मैं कभी ऐसा पत्र लिख ही नहीं सकता हूं। 42 साल सेना में सेवा देने के बाद मैं ऐसा पत्र कैस लिख सकता हूं। एक पत्रकार ने जब उनसे पूछा कि फिर ऐसा पत्र क्यों लिखा गया? उनका जवाब था कि आप अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया में क्या चल रहा है। इस तरह पूर्व थलसेना प्रमुख ने संकेतों में बता दिया कि एक व्यक्ति और पार्टी को हराने के लिए बहुत सारी कोशिशें चल रहीं हैं। इसमें पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल एनसी सूरी का भी नाम है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि चिट्ठी में जो कुछ भी लिखा है, मैं उससे सहमत ही नहीं हूं। यह खबर उड़ी कि नोसेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल रामदास ने पत्र लिखा है। एअर मार्शल सूरी ने साफ कर दिया कि एडमिरल रामदास ने पत्र लिखा ही नहीं। उनके अनुसार यह पत्र ईमेल और ह्वाट्सएप पर घूम रहा है। पूर्व उप सेना उपप्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल एमएल नायडु का नाम भी 20 वें नंबर पर है। उन्होंने पहले आश्चर्य व्यक्त किया कि ऐसे पत्र में उनका नाम शामिल हैं। उन्होंने कहा कि न  पत्र के लिए मेरी सहमति ली गई और न मैंने कोई पत्र लिखा है। उनके तेवर काफी तल्ख थे।

 इन तीनों पूर्व शीर्ष सेनाधिकारियों के चेहरे को पढ़ें तो साफ दिख रहा था कि अगर राजनीतिक बयान देने से इन्होंने स्वयं को अलग नहीं रखा होता तो निंदा करते तथा कुछ और बात कहते। इसमें 31 वें नबर पर एक नाम मेजर जनरल हर्ष कक्कड़ का है। उन्होंने कहा कि मेरे से ईमेल पर पूछा गया था कि क्या आप इससे सहमत हैं तो मैंने कहा, हां। किंतु उन्होंने यह साफ किया कि सरकार ने पाकिस्तान की वायुसीमा में घुसकर एअरस्ट्राइक का निर्णय किया यह बहुत साहसी कदम है। किसी सरकार ने यह साहस नहीं दिखाया था। इसने जो सर्जिकल स्ट्राइक की अनुमति दी वह भी बहुत बड़ा निर्णय था। पहले की सरकारें ऐसा करने से बचतीं थीं। इसलिए सरकार को इसके नाम पर वोट मांगने का अधिकार है। यह निर्णय उसका है और ऐसा बोलने में कोई समस्या नहीं है। मेजर जनरल कक्कड़ ने कहा कि हम केवल सेना के नाम का दुरुपयोग करने को उचित नहीं मानते। इस मामले में भी उनका मत देखिए- आदित्यनाथ योगी जी ने कह दिया मोदी जी की सेना, कांग्रेस के नेता दीक्षित ने कैसी बात बोल दी, कुमारस्वामी ने क्या बोल दिया...हम चाहते हैं कि ऐसा न हो। हम जानते हैं संदीप दीक्षित ने थल सेना प्रमुख जनरल विपीन रावत के बारे में कहा था कि सेना प्रमुख गली के गुंडों की भाषा बोलते हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कह दिया कि जिसके पास खाना नहीं, जो गरीब है वो ही सेना में जाता है। ये दोनों बयान सेना का अपमान है। आदित्यनाथ योगी ने अपमान नहीं किया लेकिन मोदी जी की सेना कहना अनुचित था। विवाद होने पर उन्होंने बोलना बंद कर दिया। पूर्व सेना प्रमुख जनरल शंकर राय चौधरी ने कहा कि मैंने पत्र पर हस्ताक्षर किया है। हालांकि उन्होंने भी नहीं कहा कि पाकिस्तान में वायुसेना की कार्रवाई तथा सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीति में बात किया जाना आपत्तिजनक है।

तो इसका अर्थ हुआ कि यह राजनीतिक प्रयोजन से चलाया गया पत्र अभियान था जिसके साथ बड़े सैन्य अधिकारियों का नाम जोड़कर देश में अलग प्रकार का संदेश देने की रणनीति अपनाई गई। इसमें जिनने हस्ताक्षर किया उनमें से भी ज्यादातर का मत वही नहीं था जो कांग्रेस ने बताया। ध्यान रखिए, मेजर हर्ष कक्कर कह रहे हैं कि सरकार को वायुसेना की कार्रवाई तथा सर्जिकल स्ट्राइक का फैसला करने पर वोट मांगने का अधिकार है, पर पत्र में इसे गलत बताया गया है। पत्र का वह अंश देखिए-‘ ‘महोदय हम नेताओं की असामान्य और पूरी तरह से अस्वीकृत प्रक्रिया का जिक्र कर रहे हैं जिसमें वह सीमा पार हमलों जैसे सैन्य अभियानों का श्रेय ले रहे हैं और यहां तक कि सशस्त्र सेनाओं को मोदी जी की सेना बताने का दावा तक कर रहे हैं।इसमें कहा गया है कि सेवारत तथा सेवानिवृत्त सैनिकों के बीच यह चिंता और असंतोष का मामला है कि सशस्त्र सेनाओं का इस्तेमाल राजनीतिक एजेंडा चलाने के लिए किया जा रहा है। पत्र में चुनाव प्रचार अभियानों में भारतीय वायु सेना के पायलट अभिनंदन वर्धमान और अन्य सैनिकों की तस्वीरों के इस्तेमाल पर भी नाखुशी जताई गई है। तो क्या सहमति लेने के बाद इसका मजमून बदला गया? हर्ष कक्कड़ अगर मानते हैं कि सरकार ने साहसी फैसले किए और उसे पूरा अधिकार है कि जनता के सामने इसे रखकर वोट मांगे तो पत्र में इस पर चिंता क्यों प्रकट की गई है? जाहिर है, कांग्रेस की जो भी रणनीति रही हो, इससे पूरा मामला संदेहास्पद हो जाता है। पूरे प्रकरण को देखते हुए सेवानिवृत्त विंग कमांडर प्रफुल्ल बख्सी का बयान सही लगता है कि असल में यह पत्र लिखना ही सेना पर राजनीति है। हजारों की संख्या में ऐसे सेवानिवृत्त सेनाधिकारी हैं जो इस पत्र को बिल्कुल गलत मानते हैं।

यह प्रश्न भी उठता है कि सेना का राजनीतिक दुरूपयोग किसे कहेंगे? सेना का राजनीतिक दुरुपयोग तब होता जब कार्यरत जवानों को साथ लेकर वोट मांगा जाता या सेना के जवान किसी पार्टी के लिए वोट मांगते। जिस दिन भारत में ऐसा हुआ वह लोकतंत्र के लिए दुर्दिन होगा। पर यदि सरकार ने इतना बड़ा फैसला किया और जवानों ने उसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया तो इसका श्रेय लेगी। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बारे आज तक कांग्रेस कहती है कि इंदिरा जी ने पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश बनाया। वास्तव में ऐसा निर्णय प्रधानमंत्री के स्तर पर ही होता है। उसके एक वर्ष बाद विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा मुद्दा था और उसे भारी सफलता मिली। कोई भी सरकार होगी वह अपने ऐसे फैसले की चर्चा करके वोट पाने की कोशिश करेगी। यह सेना का दुरूपयोग कैसे हो गया? ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो सेना के शौर्य की चर्चा करना या चुनावी मंचों पर शहीद या वीरता प्रदर्शित करने वाले जवानों की तस्वीरे लगाना राजनीतिक अपराध है। यह गलत सोच है। बलिदान हुए जवान या वीरता प्रदर्शित करने वाले जवानों से देश के लिए मरने-मिटने की, अनुशासनबद्ध, संकल्पबद्ध रहने या होने की प्रेरणा मिलेगी। इससे भ्रष्टाचार करने, देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने, कायर बनने की प्रेरणा तो नहीं मिलेगी। वीरता और शौर्य राजनीति का मुद्दा बने इससे बढ़िया कुछ हो ही नहीं सकता। इससे जो माहौल बनेगा उससे देश के लिए काम करने, मरने मिटने के लिए हजारों तैयार हो सकते हैं। भाजपा भी ऐसा करे, कांग्रेस भी करे, दूसरी पार्टियां भी करें। लेकिन भारत की नासमझ पार्टियां इसके उलट सोच रही है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,01122483408, 9811027208

 

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

चुनावी समर में कांग्रेस अब बचाव की मुद्रा में

 अवधेश कुमार

निस्संदेह, कांग्रेस के लिए यह लोकसभा चुनाव करो या मरो की तरह है। हालांकि पिछले वर्ष तीन राज्यों में मिली सफलता से उसका मनोविज्ञान काफी बदला था लेकिन उसे पता है कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा की प्रकृति और प्रवृति काफी अलग है। 2014 का आम चुनाव उसके लिए ऐसा आघात था दुःस्वप्नों में भी जिसकी कल्पना कांग्रेस नेताओं ने नहीं की होगी। 2019 उनके लिए उस मर्मांतक आघात से बाहर निकलने का बड़ा अवसर है। किंतु चुनाव नजदीक आते-आते जो स्थितियां निर्मित हो रहीं हैं उनका ठीक से अवलोकन किया जाए तो कांग्रेस के लिए चिंता के अनेक वाजिब कारण उभरते हैं। भाजपा एवं उसके सहयोगी दलों को ऐसे-ऐसे मुद्दे मिल रहे हैं जिनके समक्ष कांग्रेस हमलावर नहीं रह सकती। उसके पास जवाब देने का ही विकल्प है। इस तरह विपक्ष के नाते सरकार के विरुद्ध उसके आक्रामक रहने तथा इसका चुनावी लाभ लेने की उम्मीद पर गहरा असर पड़ा है। किसी भी संघर्ष का मान्य नियम आक्रमण ही सबसे बड़ा बचाव है। मोर्चे पर आपके सामने बचाव की स्थिति जितनी पैदा होती है फतह का लक्ष्य उतना ही कमजोर होता जाता है। चुनाव परिणामों के पूर्व इस तरह का अंतिम निष्कर्ष देना जोखिम भरा है, पर कम से कम इस समय की पूरी स्थितियां ऐसी हैं।

  अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआईपी हेलिकॉप्टर घोटाला मामले में जांच लंबे समय से चल रहीं हैं और इसमें संदिग्ध अनेक लोगों के नाम भी हमारे सामने पहले से आ चुके हैं। पिछले वर्ष 4-5 दिसंबर को इस सौदे के बिचौलिये क्रिश्चियन मिशेल जेम्स के दुबई से प्रत्यर्पित किए जाने के बाद से कई नए तथ्य सामने आए हैं। प्रवर्तन निदेशालय ने चौथा पूरक आरोप पत्र विशेष न्यायालय में प्रस्तुत किया है। क्रिश्चियन मिशेल दुबई से लेकर यहां तक यही तर्क दे रहा है उसको राजनीतिक एजेंडे के तहत फंसाया गया है। उसके आरोप का निवारण न्यायालय करेगा। किंतु, उसके द्वारा इस सौदे में दूसरे बिचौलियों तथा अगस्ता वेस्टलैंड की सहयोगी कंपनी फिनमेकेनिका के अधिकारियों को भेजे गए संदेशों में जिस तरह कुछ कूट नाम आए हैं उनसे कांग्रेस का असहज होना स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए इसमें इटली की मां के पुत्र का उल्लेख है जिसके बारे में कहा गया है कि वह प्रधानमंत्री बनने वाला है। यह 2009 के पूर्व की स्थिति है। इसमें एपी, आरजी एवं एफएएम जैसे शब्द संक्षेप हैं। स्विट्जरलैंड में बिचौलिये गुइडो हैश्के की मां के घर से बरामद दस्तावेजों में ये नाम हैं। इसके साथ उस समय के मंत्रियों, नेताओं, रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों, नौकरशाहों से लेकर पत्रकारों तक के नाम हैं। कांग्रेस इसके पीछे राजनीतिक प्रतिशोध तलाश सकती है। पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ईडी को इलेक्शन ढकोसला बता भी दिया। पर इससे सौदे में कांग्रेसी नेताओं के संलिप्त होने का संदेह खत्म नहीं हो जाता। एपी को अहमद पटेल माना जा रहा है तो एफएएम को फैमिली। हम इसक् बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कह सकते। आरजी को रजत गुप्ता कहें या राहुल गांधी? किंतु संदेह की सूई तो घुमाई ही जा सकती है। आखिर फैमिली का मतलब क्या हो सकता है?

कांग्रेस बचाव में जितना संभव है तर्क दे रही है, कितु भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बना दिया है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे अपनी सभाओं में उठा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि इस मामले में सरकार आक्रामक है और राजनीति में इसके मायने हम सब जानते हैं। यह संयोग है या और कुछ कि 2014 के आम चुनाव में यूपीए सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप तथा प्रियंका बाड्रा के पति रॉबर्ट बाड्रा के जमीन घोटाले बड़े मुद्दे थे और 2019 आते-आते फिर लगता है जैसे घड़ी की सूई घूमकर वहीं पहुंच रही है। अंततः प्रवर्तन निदेशालय को बाड्रा से पूछताछ करने की अनुमति न्यायालय ने दी और इसमें आई जानकारियां देश के सामने हैं। बाड्रा को अग्रिम जमानत मिली हुई है लेकिन न्यायालय उसे कभी भी रद्द कर सकता है। कांग्रेस आरोप लगा रही है कि ईडी, सीबीआई या आयकर विभाग की सारी कार्रवाइयां केवल राजनीतिक बदले की परिणति है, पर इसे देश भी मान लेगा कहना कठिन है। इनमें से ज्यादातर मामले यूपीए के समय ही सामने आए एवं उनकी जांच भी आरंभ हुई। कांग्रेस ने इसका रास्ता यह चुना है कि जिन नेताओं या उनसे जुड़े लोगों पर आरोप हैं उनको आरोपी न मानकर उत्पीड़ित माना जाए। ऐसे नेताओं को पूरा महत्व देकर कांग्रेस संदेश देने की कोशिश कर रही है कि जांच एजेंसियों की कार्रवाइयों या न्यायालयी प्रक्रियाओं से वह अप्रभावित है। वे सब चुनाव में पूरी तरह सक्रिय हैं।

कांग्रेस की समस्या है कि अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर सोनिया गांधी एवं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक आरोपी हैं एवं न्यायालय से जमानत पर बाहर हैं। जब इन शीर्ष नेताओं पर ही आरोप हों तो वो अन्यों पर कैसे कार्रवाई कर सकते हैं? उदाहरण के लिए पी. चिदम्बरम और उनके पुत्र कार्ति चिदम्बरम पर एअरसेल मैक्सिस एवं आईएनएक्स मामले में सीबीआई एवं प्रवर्तन निदेशालय जांच काफी आगे बढ़ा चुकी है। कार्ति तो गिरफ्तार होकर जेल भी गए, पी चिदम्बरम को न्यायालय से गिरफ्तार न किए जाने का बार-बार आदेश लेना पड़ रहा है। कांग्रेस ने कार्ति को पी. चिदम्बरम के क्षेत्र तमिलनाडु के शिवगंगा से उम्मीदवार बना दिया है। हालांकि उसका कोई सक्रिय राजनीतिक जीवन नहीं रहा है। चिदम्बरम पार्टी के मुख्य नीति-निर्धारकों में शुमार हैं। अहमद पटेल पूरी तरह सक्रिय हैं। रॉबर्ट बाड्रा के कारण प्रियंका को पहले राजनीति मं सीधे लाने से कांग्रेस बच रही थी। अब वे कांग्रेस का चेहरा बनाई जा चुकीं हैं। इसका असर नेतृत्व के आत्मविश्वास पर तो पड़ता ही है, लोगों के बीच संदेश भी वही नहीं जाता तो राजनीतिक रणनीति के रुप में पार्टी देना चाहती है। ये जहां भी सक्रिय होंगे वहां स्थानीय भाजपा एवं राजग के नेता-कार्यकर्ता इनके खिलाफ आरोपों का प्रचार करेंगे। कार्ति के खिलाफ दोनों मामलों में आरोप शिवगंगा में खूब उछल रहे हैं।

कांग्रेस के नीति-निर्धारकों में कुछ नेता ऐसे हैं जिनने अपनी सोच से भी पार्टी को नुकसान पहुंचाया है। घोषणा पत्र में देशद्रोह कानून खत्म करने से लेकर सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून में बदलाव तथा जम्मू कश्मीर में सुरक्षा बलों की संख्या घटाने आदि को शामिल कर राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले पर भाजपा को पूरी तरह हमलावर बनने का आधार दे दिया है। इसमें कांग्रेस रक्षात्मक है। तज कहें तो कांग्रेस ने भाजपा  के हाथों मनचाहा मुद्दा थमा दिया है। सुरक्षा और जम्मू कश्मीर पर कांग्रेस का यह रुख बड़ा चुनावी मुद्दा बन चुका है। इसमें कांग्रेस पार्टी के पास बचाव ही एकमात्र रास्ता है। इन रणनीतिकारों ने प्रियंका बाड्रा की उत्तर प्रदेश में धर्मनिष्ठ हिन्दू की छवि बनाने के लिए यात्रायें कराईं। किंतु अयोध्या का संदेश उल्टा गया। वो अयोध्या जाकर भी रामजन्मभूमि का दर्शन करने नहीं गईं और इस बाबत पूछने पर कहा कि यह विवाद में है। अयोध्या की राजनीति तो रामजन्मभूमि के पिच से ही खेली जा सकती है। अगर आप उसे ही बाहर करेंगे तो इसका उल्टा संदेश जाएगा। भाजपा ने इसे भी मुद्दा बना दिया है। भाजपा कह रही है कि हमारे लिए वह विवादास्पद स्थान है ही नहीं। कांग्रेस ने रामजन्मभूमि मंदिर का समर्थक होने की जो छवि बनाई थी वह प्रियंका की यात्रा से लगभग ध्वस्त हो गई है। राहुल गांधी को अमेठी के साथ केरल के वायनाड से लड़ाने का फैसला भी जोखिम भरा है। कांग्रेस कह रही है कि इससे दक्षिण भारत के तीन प्रमुख राज्यों केरल, तमिलनाडु एवं कर्नाटक पर असर होगा। ठीक इसके विपरीत संदेश यह निकल रहा है कि राहुल गांधी मुस्लिम बहुल क्षेत्र में इसलिए गए हैं ताकि जीत सुनिश्चित हो सके। इसका दो विपरीत प्रभाव है। एक, राहुल पर अमेठी में जीत को लेकर आश्वस्त न होने के कारण केरल भागने का आरोप लग रहा है। विरोधी संदेश दे रहे हैं कि जब पार्टी का सबसे बड़ा नेता अपने परंपरागत क्षेत्र में ही जीत को लेकर सुनिश्चित नहीं है तो फिर देश भर में उसके अन्य उम्मीदवारों की हालत कैसी होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता  है। दूसरे, यह राहुल गांधी की पिछले दो वर्षों से निष्ठावान हिन्दू की निर्मित की गई छवि को लुंठित करने वाला कदम है। उनके नामांकन पत्र दाखिल करने के दौरान तथा उसके बाद आयोजित रोड शो में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के झंडों ने भी अपना काम किया है। भाजपा इसे कांग्रेस की मुस्लिमपरस्ती का प्रमाण बता रही है और कांग्रेस अपना बचाव कर रही है।     

इन सबका मतदाताओं पर क्या असर हो सकता है इसकी जरा कल्पना करिए और फिर निष्कर्ष निकालिए कि इस समय चुनावी रणक्षेत्र में कांग्रेस कहां खड़ी है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

कांग्रेस के लिए वायनाड के खतरे बड़े हैं

 अवधेश कुमार

वायनाड को तमिल और मलयालम के शब्द नाड का विस्तार माना जाता है जिसका अर्थ होता है धान की खेती। किंतु इस समय तो केरल का वायनाड राजनीति का चर्चित खेत बन गया है। राहुल गांधी का अमेठी के साथ वायनाड से चुनाव लड़ने के कारण यह सर्वाधिक हौट सीटों में से एक हो चुका है। साफ है कि एडक्कल गुफाओं, झरनों वं अन्य पर्यटक स्थलों के कारण प्रसिद्ध वायनाड चुनाव तक मुख्य चर्चा का केन्द्र बना रहेगा। चूंकि यहां की कुछ चोटियां समूह समुद्र तल से 2100 मीटर तक उंची हैं, इसलिए यह ट्रैकिंग के लिए भी लोकप्रिय है। राहुल गांधी के उम्मीदवार बनने के बाद यह तत्काल राजनीतिक ट्रैकिंग का क्षेत्र भी बन गया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटोनी के अनुसार पिछले कई हफ्ते से मांग उठ रही थी कि राहुल दक्षिण भारत से भी चुनाव लड़ें। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक से नेताओं के ऐसे बयान आए जिनमें राहुल गांधी को अपने राज्य से चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया गया था। ऐसे आमंत्रणों को सार्वजनिक कराने के पीछे मुख्यतः पार्टियों की राजनीतिक रणनीति की भूमिका सर्वोपरि होती है। इससे एक वातावरण बनाकर घोषणा की जाती है ताकि लगे कि वाकई उनके नेता की इतनी लोकप्रियता है कि कई राज्य एक साथ उनको चुनाव लड़ने के लिए अपने यहा बुला रहे हैं।

राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर बड़े कद का नेता साबित करना कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति है और उसके तहत पिछले तीन सालों में काफी कुछ किया गया है। यह कदम भी उसी रणनीति का अंग है। वैसे भी अमेठी के लोगों को सामान्य तौर पर समझाना शायद कठिन होता कि परिवार की परंपरागत सीट के साथ उन्हें दूसरी किसी सीट से लड़ने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। अब वे कह सकते हैं कि जनता और कार्यकर्ताओं की मांग को देखते हुए उन्हें ऐसा करना पड़ा है। अमेठी में 2009 के मुकाबले 2014 में जीत का अंतर काफी कम हो जाने और 2017 में यहां की सारी विधानसभा सीटें हार जाने के तर्क को हम परे रखते हैं। राहुल अमेठी में पराजय के डर से भागेंगे यह नहीं माना जा सकता। तो फिर? नेताओं के दो सीटों से लड़ने का यह कोई पहला मामला नही है। इसलिए राहुल का यह कदम असामान्य नहीं है। किंतु दो स्थानों से लड़ने के पीछे कुछ अन्य कारण भी होते हैं। मसलन, 2014 में नरेन्द्र मोदी वडोदड़ा और वाराणसी दो जगह से लड़े। वे तब गुजरात छोड़ने का संदेश नहीं देना चाहते थे तथा वाराणसी से पूरे उत्तर प्रदेश में पार्टी के पक्ष में बेहतर माहौल की कल्पना थी। निश्चय ही कांग्रेस यह संदेश तो देना ही चाहती है कि उनके नेता की उत्तर के अलावा दक्षिण में भी लोकप्रियता है। इसके साथ दक्षिण के राज्यों में पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने की भी सोच निहित होगी। कांग्रेस भारत की सबसे बड़ी पार्टी तभी तक थी जब तक उत्तर के अलावा दक्षिण में भी उसका प्रभाव था। 1977 में पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस साफ हो गई लेकिन आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल एवं तमिलनाडु में पार्टी का प्रदर्शन शानदार रहा। 2009 में यदि कांग्रेस 1991 के बाद पहली बार 200 पार कर पाई तो इसका एक कारण दक्षिण में उसका प्रदर्शन ठीक-ठाक था। केरल में उसे तब 13 सीटें मिलीं थीं।

कांग्रेस वायनाड के चुनाव के पीछे इसके सांस्कृतिक और भौगोलिक महत्व को उल्लिखित करती है। वास्तव में केरल का भाग होते हुए भी वायनाड सीट की सीमा एक ओर कर्नाटक के मैसूर और चामराजनगर तथा दूसरी ओर तमिलनाडु के नीलगिरि क्षेत्र से लगती है। पार्टी मानती है  कि राहुल का यहा से चुनाव लड़ना एक तरह से पूरे दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व होगा। कांग्रेस का तर्क मान लेते हैं। किंतु वायनाड ही क्यों का जवाब इतने से नहीं मिलता। एक बड़ा कारण तो यही है कि कांग्रेस के लिए यह सुरक्षित सीट है। परिसीमन के बाद 2009 में वायनाड अस्तित्व में आया था और तब से दोनों बार उसकी ही विजय हुई। 2009 में भाजपा को 3.85 प्रतिशत एवं 2014 में 8.83 प्रतिशत मत मिला। यह 2009 में चौथे एवं 2014 में तीसरे स्थान पर थी। हालांकि केरल में भाजपा का जनाधार इस बीच काफी विस्तृत हुआ है। बावजूद वह अपने गठबंधन के साथ इस सीटे से बहुत बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं कर सकती। इसलिए हम इसकी चर्चा यहीं छोड़ते हैं। तो सुरक्षित सीट एक प्रमुख कारण लगता है। लेकिन यह सुरक्षित है क्यों? वस्तुतः मुख्य बात वहां के सामाजिक समीकरण की है। दरअसल, वायनाड संसदीय क्षेत्र में वायनाड एवं मल्लपुरम की तीन-तीन विधानसभा क्षेत्र और कोझिकोड की एक विधानसभा सीट आती है। मल्लपुरम की आबादी में 70.04 प्रतिशत मुस्लिम एवं 27.5 प्रतिशत हिन्दू हैं। यहां 2 प्रतिशत ईसाई भी हैं। वायनाड लोकसभा क्षेत्र में हां 56 प्रतिशत मुसलमान एवं 44 प्रतिशत हिन्दू एवं ईसाई हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा यानी यूडीएफ में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी शामिल है जिसका यहां अच्छा प्रभाव है। कहने का तात्पर्य यह कि यहां की मुस्लिम आबादी राहुल के लिए इसे सुरक्षित सीट बना देती है।

इस सच को समझने के बाद आप कांग्रेस की रणनीति को लेकर सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। केरल में लोकतांत्रिक मोर्चा एवं वाममोर्चा दोनों के बीच मुस्लिम मतों को लेकर प्रतिस्पर्धा रही है। वहां भाजपा के मजबूत न होने के कारण संघ के कार्यकर्ताओं के बड़े वर्ग का मत भी इन दोनों मोर्चा के उस घटक की ओर जाता था जो मुसलमान उम्मीदवारों को हरा सकते थे। अब स्थिति बदली है। पिछले सालों में भाजपा यहां मजबूत हुई है। हिन्दुओं के बड़े तबके का आकर्षण यहां भाजपा बनी है। इसी कारण सबरीमाला पर भाजपा के आक्रामक होने के था कि पराजय का राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य कारण पार्टी की हिन्दू विरोधी एवं मुस्लिमपरस्त छवि बन जाना था। इसका लाभ भाजपा को मिला। इसे खत्म करने के लिए राहुल गांधी की निष्ठावान हिन्दू की छवि निर्माण करने की सुनियोजित कोशिशें हुईं हैं। पिछले वर्ष तीन राज्यों में विजय के बाद उसे शायद इस रणनीति के सफल होने का अहसास भी हुआ है। इसीलिए प्रियंका बाड्रा को भी उसी रास्ते पर चलाया जा रहा है। किंतु कांग्रेस के हिन्दुत्व की सीमा है। वह चुनावों में मुस्लिम मत खिसक जाने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहती। चुनाव आते-आते केरल से उसे अपना आवरण बदलना पड़ रहा है। आंध्र एवं तेलांगना में भी उसकी यही दशा है। तो राहुल मुस्लिम बहुल क्षेत्र से खड़ा होकर यह संदेश देने की भी कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस ने उनका साथ छोड़ा नहीं है। इस तरह राहुल का वायनाड से लड़ना कांग्रेस के हिन्दुत्व एवं उसके परंपरागत सेक्यूलरवाद, जिसका व्यवहार में अर्थ मुस्लिमपरस्तता हो गया था, के बीच झूलने का परिचायक है।

भाजपा ने इस पहलू को मुद्दा बना भी दिया है। इसलिए वायनाड राहुल जीत तो सकते हैं, क्योंकि वहां मुसलमान वामोर्चा की जगह उनको प्राथकिता देंगे। मुसलमानों को भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी ही दिखाई देंगे। किंतु ऐसा न हो कि दूसरे राज्यों में इसके विपरीत संदेश चले जाएं। भाजपा ने इसे जिस तरह मुद्दा बनाया है उसमें इसकी संभावना बढ़ रही है। दो नावों की सवारी हमेशा खतरनाक होती है। वामोर्चा के नेताओं ने राहुल एवं कांग्रेस के इस रवैये पर जितना तीखा हमला बोला है उसके मायने भी है। वे प्रश्न उठा रहे हैं कि कांग्रेस को अगर भाजपा के खिलाफ लड़ना है तो उसे यह सीट चुनने की क्या जरुरत थी? यहां तो वह हमसे लड़ रही है, इसलिए हम राहुल को हराने के लिए काम करेंगे। नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ एकजुटता का रोमांस तो पहले ही खत्म हो रहा था, केरल से उसका एक कर्कश स्वर और जुड़ गया है। यह विपक्ष के बिखराव ही नहीं, अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक दूसरे के विरुद्ध ही भिड़ जाने का संदेश देने वाला कदम है। इसका कुछ न कुछ मनोवैज्ञानिक असर तो देश भर के मतदाताओं पर होगा। और जो होगा वह कांग्रेस के अनुकूल तो नहीं ही हो सकता। राहुल गांधी और कांग्रेस के रणनीतिकारों को न भूलना चाहिए कि सोनिया गांधी को भी 1999 में अमेठी के अलावा कर्नाटक में कांग्रेस के लिए तब तक सबसे सुरक्षित सीट बेल्लाड़ी से लड़ाया गया था। वे वहां से जीतीं और कर्नाटक में उसे 18 सीटें भी मिलीं लेकिन अन्य राज्यों में उसका प्रदर्शन खराब रहा तथा कांग्रेस ने तब तक की सबसे कम 114 सीटें जीतने का रिकॉर्ड बना लिया।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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