शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

बुलंदशहर हिंसा के पीछे की साजिश को समझिए

 

अवधेश कुमार

बुलंदशहर में स्याना के महाव गांव की भयावह घटना ने मुख्यतः दो बातें साबित की हैं। एक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगाए गए बारुद के ढेर अभी खत्म नहीं हुए हैं। किंतु इससे भी बड़ी बात यह कि सारी स्थिति समझते हुए प्रशासन समय पर कार्रवाई करने में विफल रही। हालांकि अंत में स्थिति संभाल ली गई। बुलंदशहर में तब्लीगी इज्तमा के कारण भारी मुसलमान पहुंचे थे। अगर हिंसा या हिंसा के संदर्भ में किसी तरह की अफवाह फैलती तो आज क्या स्थिति होती इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है। पूरी घटना को देखें तो इसमें बड़ी सांप्रदायिक हिंसा का सुनियोजित षडयंत्र नजर आता है। इतनी संख्या में गोवंश को काटकर खेतों में डाल देने का क्या उद्देश्य हो सकता है? अगर किसी को गोकशी करनी है तो वह उसे छिपाने का प्रयास करेगा। खेतों में गाय के अवशेष जगह-जगह लटकाकर रखे गये थे। गाय के सिर और खाल आदि अवशेष गन्ने पर लटका रखे थे जो दूर से ही दिख रहे थे। ऐसा करने वालों को पता था कि चारों ओर से बुलंदशहर के तब्लीगी इज्तमा में जमा लोग इस रास्ते से भी लौटने वाले हैं जिसके पहले हिन्दू गोवंश के कटे अवशेषों को देखकर आक्रोशित हो चुके होंगे और वे गुस्से में उन पर हमला कर सकते हैं। उसके बाद तो हिंसा आग की तरह फैलनी ही थी।

इस दृष्टि से विचार करें तो कहा जा सकता है कि प्रदेश और देश सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के एक बड़े षडयंत्र से बचा गया है। हालांकि उसमें भीड़ से जूझते एक इन्सपेक्टर का बलिदान हो गया, एक नवजवान भी गुस्साये भीड़ एवं पुलिस के बीच संघर्ष का शिकार हो गया, चौकी तक जल गई, सरकारी वाहनों और संपत्तियों को भारी नुकसान हुआ और यह सब दुखद और एक सभ्य समाज के नाते शर्मनाक भी है किंतु विचार करने वाली बात है कि स्थिति इतनी बिगड़ी क्यों? गोहत्या की सूचना मिलने पर हिन्दू समाज गुस्से में आएगा यह राज्य सरकार और उसके मातहत काम करने वाले पुलिस और प्रशासन को बताने की आवश्यकता नहीं थी। कुछ दिनों पहले ही खुर्जा में 21 गोवंश कटे मिले थे। ऐसी स्थिति में लोगों का स्थानीय पुलिस प्रशासन के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करना भी स्वाभाविक था। लोग ट्रैक्टर, ट्रौली में भरकर यदि हाईवे या पुलिस चौकी पर प्रदर्शन करने की जिद पर अड़े थे तो गुस्सैल भीड़ को देखते हुए इसे भी अस्वाभाविक कतई नहीं कहा जा सकता है। आरंभ में पुलिस प्रशासन की कोशिश किसी तरह भीड़ को शांत करना ही होता है। किंतु ऐसे मामलों में जहां धार्मिक भावनायें भड़कीं हों शांत करना आसान नहीं होता। पुलिस की संख्या कम और भीड़ की ज्यादा। भीड़ ट्रैक्टर-ट्रॉली लेकर हाईवे पर चिंगरावठी पुलिस चौकी पर पहुंचीं। वहां की घटना के बारे में अलग-अलग विवरण है। पुलिस का कहना है कि कुछ लोग मान गए थे लेकिन इसी बीच पथराव होने लगा, तोड़-फोड़ की जाने लगी और फिर पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई की। बेकाबू भीड़ ने पुलिस के कई वाहन फूंक दिए और चिंगरावठी पुलिस चौकी में आग लगा दी।

एकाएक ऐसा नहीं हो सकता। मामले में पुलिस प्रशासन की हर स्तर पर विफलता साबित होती है। पुलिस को नौ बजे सुबह सूचना मिल गई थी। गोहत्या की घटना पर देश भर की जो स्थिति है और स्वयं उत्तर प्रदेश का जो माहौल है उसे देखते हुए पुलिस प्रशासन को तुरत एक्शन में आना चाहिए था। बिल्कुल सड़क से लगे इलाके में पहुंचना भी कठिन नहीं था। 10 बजे सुबह एसडीएम और स्याना के इंस्पेक्टर पहुंचे। 11 बजे सुबह ग्रामीण ट्रैक्टर-ट्राली में अवशेष लेकर चिंगरावठी चौकी रवाना होने लगे। यानी इस बीच दो घंटे का समय चला गया। हालांकि आसपास के कुछ थाने की पुलिस वहां पहुंच रही थी। करीब 11.30 बजे सुबह ग्रामीणों और पुलिस के बीच फायरिंग और पथराव शुरू हुआ। इस बीच स्थिति को संभाला जा सकता था। स्थिति जब नियंत्रण से बाहर हो गई तब करीब 12.30 बजे जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक बुलंदशहर से रवाना हुए। आखिर उसम वो किस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे? वे पहुंचे तब तक इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की मौत हो चुकी थी। आईजी, एडीजी और कमीश्नर तो 3.30 बजे पहुंचे। 10 बजे तक सोशल मीडिया के माध्यम से इसकी आधी-अधूरी जानकारी फैल चुकी थी। क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके सहयोगियों तक इतनी संवेदनशील घटना की जानकारी नहीं पहुंची? नहीं पहुंची तो इसका अर्थ है कि दावों के विपरीत पूरी व्यवस्था लचर है। अगर पहुंची और पुलिस प्रशासन को सक्रिय होने में इतना विलंब हुआ तो साफ है कि सरकार ने इसकी गंभीरता को समझते हुए समय पर आवश्यक कार्रवाई के निर्देश जारी नहीं किए।

 राज्य सरकार इसलिए भी कठघरे में है, क्योंकि पिछले काफी दिनों से खुफिया विभाग की रिपोर्टों के अंश सामने आ रहे थे जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गोहत्या सहित अन्य कार्यों से हिंसा भड़काने की योजनाओं की बात थीं। कहा गया था कि पुलिस प्रशासन अलर्ट पर है। पिछले कुछ महीनों में मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर समेत कई जिलों में गोहत्या की अफवाह मात्र पर तनाव पैदा हुआ है। पथराव, वाहनों में तोड़फोड़ व आगजनी की घटनायें हो चुकी है। पुलिस तक पर फायरिंग तक हो चुकी है। जिस प्रदेश की ऐसी स्थिति हो वहां इतनी लचर कार्रवाई शर्मनाक है। आधे घंटे के अंदर पर्याप्त संख्या में पुलिस, पीएसी, आरएएफ, प्रशासनिक अधिकारियों के साथ नेताओं का समूह पहुंच जाना चाहिए था। समय का विवरण बताता है कि इतनी बड़ी घटना को संभालने के लिए उच्च पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को जितनी तत्परता दिखानी चाहिए नहीं दिखाई गई। सरकार सचेत हो जाती तो ऐसी स्थिति नहीं होती। यह कैसा कानून का राज है जहां करीब एक घंटे तक युद्ध का मैदान बना हो, जहां पुलिस को चौकी छोड़कर भागना पड़ा... गांव के सामान्य लोग भी घरबार छोड़कर भाग रहे हों? कह सकते हैं उच्चाधिकारियों के सामने बुलंदशहर में तब्लीगी इज्तमा को शांतिपूर्वक संपन्न कराना तथा लोगों को सुरक्षित वापस भेजने की जिम्मेवारी थी। किंतु इस घटना को संभालने का दायित्व भी तो उन्हीं का था। पुलिस का लगा कि यदि जाम नहीं हटा तो सांप्रदायिक हिंसा हो सकती है इसलिए उन्होंने जबरन लोगों को हटाने की कोशिश की। पुलिस की थोड़ी संख्या बढने पर लाठीचार्ज हुआ और पूरी स्थिति बिगड़ गई। अब स्याना छावनी में तब्दील हो चुकी है। बड़े अधिकारियों के साथ पांच कंपनी आरएएफ और छह कंपनी पीएसी के साथ-साथ पर्याप्त संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया है। जब सब कुछ हो गया तो ऐसा करने से अब क्या हासिल होगा?

यह भी विचार करने की बात है कि अगर उत्तर प्रदेश में सारे अवैध कत्लखाने बंद हो गए, गोवंश की हत्या प्रतिबंधित है तो इतनी संख्या में उनके कटे अंग, उतारे गए चमड़े आदि आए कैसे? बजरंग दल के जिस जिला संयोजक पर लोगों को उकसाने का आरोप है उसने ही थाने को इसकी सूचना दी और नामजद रिपोर्ट लिखवाई थी। इसका मतलब यह हुआ कि मुख्यमंत्री के स्वयं रुचि लेने के बावजूद से गोवंश की हत्यायें हो रही हैं। इतनी संख्या में गोवंश की हत्या और उनके शरीर के अंगों को अलग करने का काम पेशेवर ही कर सकते हैं। जिसे अनुभव नहीं वह तो खाल नहीं उतार सकता। यह गंभीर विषय है और यह भी पुलिस प्रशासन की विफलता दर्शाती है। जड़ तो गोवंश की हत्या ही है। दुर्भाग्य से हम मूल कारणों को गौण बनाकर उसके बाद हुई हिंसा को प्रमुख मान रहे हैं। गोवंश की हत्या कर खेतों में रखने वाले समाज के दुश्मन हैं। लोगों को इसके खिलाफ प्रदर्शन करने, धरना देने का भी अधिकार है, पर कानून हाथ में लेना अपराध है। आप पुलिस पर हमला करें, गाड़ियां जलायें, थाने जलायें यह कतई स्वीकार्य नहीं। आखिर उस 47 वर्ष के पुलिस अधिकारी का क्या कसूर था? मारे गए उस नवजवान का क्या दोष था? पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार सुबोध कुमार सिंह की मौत बायीं आंख में गोली लगने से हुई और सिर पर भी भारी चीज की चोट के निशान पाए गए हैं। इस तरह गोली मारने का काम कोई अपराधी ही कर सकता है। षडयंत्रकारी यही चाहते थे कि लोग गुस्से में हिंसा करें और चारों ओर सांप्रदायिक संघर्ष हो। जिस तरह के षडयंत्र चल रहे हैं उसमें समाज को ज्यादा सतर्क और संतुलित होने की जरुरत है। अगर अहिंसक प्रदर्शन होता तो केवल गोहत्या का मुद्दा देश के सामने होता। प्रतिक्रिया में हुई हिंसा सुर्खियां बन रहीं हैं। पुलिस अपनी विफलता कभी नहीं स्वीकारती। किंतु  खुफिया रिपोर्ट आपके पास है और घटनायें पहले से घट रहीं हैं फिर भी कार्रवाई में ऐसी लापरवाही को क्या कहा जा सकता है?  यह सरकार और उसकी पुलिस को तमगा देने की भूमिका तो नहीं है। आप दूसरे को खलनायक बना दीजिए जबकि दोषी आप भी हैं।

 अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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