शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

भीड़ की हिंसा रोकने के लिए समग्रता में विचार जरुरी

 

अवधेश कुमार

केन्द्र सरकार देश भर में हर कुछ अंतराल पर हो रही भीड़ द्वारा हिंसा और हत्या से निपटने के लिए अपने स्तर पर जो कदम उठा रही है उसे स्वाभाविक माना जाना चाहिए। केंद्रीय गृह सचिव के नेतृत्व में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन हुआ है। समिति को चार हफ्तों में अपनी रिपोर्ट सौंपनी होगी। इसके अलावा गृह मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में एक मंत्रिमंडलीय समूह (जीओएम) भी बनाने का फैसला किया है जो उच्च स्तरीय समिति की अनुशंसाओं पर विचार करेगी। जीओएम में गृहमंत्री के साथ विदेश मंत्री, कानून मंत्री, सड़क एवं परिवहन मंत्री, जल संसाधन मंत्री और सामाजिक न्याय मंत्री शामिल होंगे। जीओएम अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपेगा। उसके बाद कदमों का समग्र तंत्र तैयार किया जाएगा। केंद्र सरकार ने यह भी संकेत दे दिया है कि भीड़ की हिंसा को दंडनीय अपराध के तौर पर परिभाषित करने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन किया जाएगा। यानी एक नया कानून बनेगा जिसके आधार पर राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं पर कार्रवाई कर सकेंगी। 17 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं को रोकने संबंधी जो दिशा निर्देश जारी किया था उसमें केन्द्र द्वारा अलग कानून बनाने की बात भी शामिल थी। केन्द्र की सक्रियता से यह माना जा सकता है कि हमें अगले कुछ दिनों मेें भीड़ द्वारा हो रही हिंसा को रोकने के लिए ज्यादा सशक्त तंत्र और आचरण देखने को मिलेगा।

वास्तव में देश का हर विवेकशील व्यक्ति उन्मादित भीड़ के हिंसक आचरण से चिंतित है। उच्चतम न्यायालय द्वारा हिंसा की तीखी आलोचना, केन्द्र एवं राज्यों को स्पष्ट निर्देश तथा पुलिस अधिकारियों के दायित्व निर्धारण के बावजूद घटनाएं रुकीं नहीं। जिस दिन केन्द्र सरकार ने ये तीन निर्णय लिए उस दिन तीन घटनाएं हमारे सामने आईं। एक घटना राजस्थान के अलवर की हैं जहां 20 जुलाई को गौ तस्करी के संदेह पर भीड़ द्वारा रकबर नामक एक व्यक्ति की हत्या की खबर आई। हालांकि अभी उसकी मौत को लेकर कई प्रश्न उठ गए हैं। रकबर के साथी ने बताया कि वह रात का फायदा उठाकर छिप गया और रकबर को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। किंतु एक सूचना यह भी है कि रात 12.40 बजे पुलिस को सूचना मिल और पुलिस 1.20 तक पहुंच भी गई थी। जिस समय पुलिस पहुंची उस समय तक वह जिंदा था। उसे समय पर अस्पताल पहुंचाया जाता तो शायद उसकी जान बच सकती थी। अभी तक जितनी जानकारी आई है उसके अनुसार पुलिस ने पहले गायों को गौशाला भेजने की व्यवस्था की उसके बाद वे उसे अस्पताल पहुंचाने गए। इसकी जांच हो रही है और राजस्थान सरकार का कहना है कि रिपोर्ट आने के बाद संबंधित पुलिसवालों पर कार्रवाई होगी। तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। एक असिस्सटेंट सब-इन्स्पेक्टर को निलंबित करने तथा तीन कॉन्स्टेबलों को लाइन हाजिर करने की सूचना दी गई है।

निस्संदेह, इस मामले में पुलिस की भूमिका भी एक महत्वपूर्ण पहलू है, किंतु भीड़ ने रकमर की पिटाई की यह सच है। दूसरी घटना भी राजस्थान के बाड़मेर की है जहां एक दलित युवक की गांव वालों ने इसलिए पीट-पीट कर हत्या कर दी, क्योंकि वह एक दूसरे समुदाय की लड़की से प्यार करता था। हालांकि यह घटना राजस्थान की मीडिया तक ही सीमित रह गई। तीसरी घटना मध्यप्रदेश की है जहां सिंगरौली जिले के एक गांव में एक 30 वर्षीय विक्षिप्त महिला को बच्चा चोर करार देकर लोगों ने मार डाला। ये तीन घटनाएं बतातीं हैं कि भीड़ हिंसा तो कर रही हैं लेकिन सबके कारण एक नहीं हैं। यानी राजनीतिक रंग देने के लिए भीड़ की हिंसा का जो विशेष प्रकार का चित्रण किया जा रहा है वह एकपक्षीय सच है। इसे उजागर करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि हिंसा को रोकना है तो सभी घटनाओं और उनके कारणों का अलग-अलग विश्लेषण करके निष्कर्ष तक पहुंचना होगा। उच्चतम न्यायालय ने भी अपने फैसले में गोरक्षा एवं बच्चा चोरी के नाम पर हो रही हिंसा व हत्या की घटनाओं का जिक्र किया था। न्यायालय ने बताया था कि पिछले 10 वर्षों में गोरक्षा के नाम पर 86 घटनाएं दर्ज की गईं जिनमें 33 लोगांे की हत्याएं हुईं। इस आंकड़े से ही स्पष्ट होता है कि गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा पूर्व सरकारों के कार्यकाल में भी होती रही है। उसी तरह बच्चा चोरी के नाम पर 20 मई 2018 से 15 लोगों की भीड़ द्वारा हत्या की बात उच्चतम न्यायालय के फैसले में दर्ज है।

हिंसा किस सरकार के कार्यकाल में हुई यह हमारा मुख्य फोकस नहीं हो सकता। हमार मुख्य उद्देश्य किसी तरह भीड़ के हिंसक चरित्र को खत्म करना होना चाहिए। दुर्भाग्य से इस पर हो रही राजनीति से मामला और बिगड़ रहा है। हमारी राजनीति का पूरा आचरण ऐसा हो गया है कि संयत होकर समस्या को दूर करने पर विचार करने की संभावनाएं मानो निःशेष हो गईं हैं। एक दूसरे को आरोपित करना यहीं तक राजनीति की भूमिक सीमित हो रही है। राजनीति के ऐसे व्यवहार से समस्या सुलझने की जगह और बिगड़ती हैं। ऐसा तो है नहीं कि जहां हिंसा हुईं वहां कार्रवाई नहीं हुई। अभी तक एक भी ऐसी घटना नहीं जिनमें आरोपी नहीं पकड़े गए, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं हुई। पिछले दिनों ही झारखंड में पिछले साल हुई भीड़ की हिंसा की एक घटना में 12 लोगों को सजा हुई है। राज्यांे ने भी इसे रोकने के लिए अपनी ओर से कई कदम उठाए हैं। अफवाह से दूर रहने के प्रचार भी हो रहे हैं। कानून हाथ में न लेने की अपील हो रही है। केन्द्र सरकार ने कहा है कि उसने राज्यों दो एडवायजरी जारी किया हुआ है। कानून और व्यवस्था राज्यों का विषय है इसलिए इसमें मुख्य भूमिका तो उन्हीं की है। बावजूद इसके यदि भीड़ द्वारा हिंसा हो रही है तो फिर मामला उससे ज्यादा गंभीर है जितना समझा जा रहा है।

आप सोचिए न 1 जुलाई को महाराष्ट्र के धुले में बच्चा चोर की अफवाह पर लोगों ने जब पांच निर्दोष लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर दी उसके बाद कितनी चर्चा हुई। मीडिया के माध्यम से बताया कि यह कोरा अफवाह है। कोई बच्चा चोर गिरोह नहीं है। बावजूद इसके आपको किसी पर संदेह होता है तो उसे पुलिस को सौंप दीजिए। किंतु बच्चा चोरी के नाम पर हिंसा हो गई। सिंगरौली की घटना अभी सबसे अंतिम है। इसके पहले 15 जुलाई को कर्नाटक में बीदर जिले के एक गांव में भीड़ ने चार लोगों की पिटाई की जिसमें एक मारे गए एवं तीन बुरी तरह घायल हुए। पुलिस नहीं पहुंचती तो चारों मार दिए गए होते। इस घटना में भी 30 लोगों को गिरफ्तार किया गया। यह समझने की जरुरत है कि ये कार्रवाइयां पर्याप्त साबित नहीं हो रहीं हैं।

केन्द्र द्वारा नए कानून बनाने के बाद सभी राज्यों की कानूनी कार्रवाई में एकरुपता आ जाएगी। अभी तक अलग-अलग मामलों में अलग-अलग धाराओं में मामला दर्ज हो रहा है। तो इसकी आवश्यकता है। अफवाहों को रोकने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। बावजूद इन सबके इससे आगे सोचने और काम करने की जरुरत है। इसमें सबसे प्रमुख है, सामाजिक जागरुकता। भीड़ को नियंत्रित करना आसान नहीं होता, किंतु भीड़ बनने के पहले की मनोस्थिति में किसी अफवाह की अवस्था में कैसा व्यवहार करें यह समझा पाना संभव है। हालांकि यह आसान नहीं है, लेकिन करना होगा। इसमें सरकार से ज्यादा सामाजिक-धार्मिक संगठनों और मीडिया की भूमिका होगी। दूसरे, देश के अनेक क्षेत्रों से गोतस्करी और गौ चोरी की वारदातों की पुष्ट खबरें भी आ रहीं हैं। जगह-जगह गोरक्षकों के ऐसे समूह खड़े हो गए हैं जो अपने निजी भविष्य की परवाह किए बगैर स्वयं ही फैसला करने पर उतारु हैं। कानून के राज में यह बिल्कुल अस्वीकार्य है। किंतु इतना कह देने भर से तो काम नहीं चहेगा। आप सोशल मीडिया पर होने वाली प्रतिक्रिया देख लीजिए। लोग कह रहे हैं कि अगर पुलिस गोरक्षा की भूमिका नहीं निभाएगी तो ऐसा होगा। गोरक्षा के नाम पर हत्या या हिंसा करने के आरोप में जितने लोग पकड़े गए हैं उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। गो तस्करी या चोरी रोकने की भूमिका तो सरकारों को ही निभानी होगी। इसमें कमी रहेगी तो जो लोग गाय के नाम पर प्राण देना या सजा भुगतना धर्मरक्षा मानते हैं उनको पूरी तरह रोक पाना कठिन होगा। ऐसे और भी कई पहलू हैं जिन पर तटस्थता और ईमानदारी से विचार करने की आवश्यकता है।

अवधेश कुमार, 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

शनिवार, 21 जुलाई 2018

शशि थरुर का बयान बिल्कुल अस्वीकार्य

 

अवधेश कुमार

शशि थरुर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में हैं। जाहिर है, वे जो कुछ बोलते हैं उनसे पार्टी केवल यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि वह उनका निजी बयान है। हालांकि पार्टी ने उनकी बात का खंडन कर दिया है। यह भी नसीहत दी है कि नेतागण बोलने में शब्दों को सोच-समझकर प्रयोग करें। पार्टी को पता है कि ऐसे बयान के उल्टे राजनीतिक परिणाम होते हैं जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलता है। वे कह रहे हैं कि अगर भाजपा 2019 में फिर से बहुमत पाकर जीती तो भारत हिन्दू पाकिस्तान बन जाएगा। उनके अनुसार वह संविधान में परिवर्तन कर इसे सेक्यूलर की जगह हिन्दू राष्ट्र बना देगी जहां अल्पसंख्यकों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा। इसकी वो विस्तृत व्याख्या करते हैं। हालांकि जब वो यह बोल रहे थे तो भले इसमें हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म तथा भारत राष्ट्र के चरित्र के बारे में इनकी अज्ञानता झलक रही थी, पर इसके खिलाफ तीखी प्रतिक्रियाएं होंगी इसका अहसास उन्हें अवश्य रहा होगा। वे कोई नवसिखुआ व्यक्ति नहीं हैं कि अपने बयानों के असर का अनुमान नहीं हो। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन्होेंने अनायास ऐसा बोल दिया है। उन्होंने जानबूझकर ऐसा बोला। बाद में जब उन्हें अपने बयान पर खेद प्रकट करने के लिए कहा गया तो उन्होंने उल्टे प्रतिप्रश्न किया कि मुझे समझ में नहीं आता कि किस बात पर खेद प्रकट करुं। इसका अर्थ हुआ कि कांग्रेस पार्टी जो भी कहे शशि थरुर अपने बयान पर कायम है। उन्होेंने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा कि मैंने पहले भी ऐसा कहा है और आगे भी कहूंगा।

भाजपा ने इस पर जैसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और इसे हिन्दुओं एवं हिन्दुस्तान का अपमान बताया उससे साफ है कि अगले चुनाव तक शशि थरुर की ये पंक्तियां उसी तरह गूंजती रहेगी जैसे पिछले चुनाव में कांग्रेस एवं यूपीए सरकार द्वारा प्रयुक्त हिन्दू आतंकवाद, भगवा आतंकवाद। ऐसी बातों का भारत के बहुसंख्य वर्ग पर सीधा असर होता है और वे इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया देते है। वैसे भी थरुर ने जो कहा सबसे पहले तो उसका कोई ठोस आधार नहीं है। इसके पहले केन्द्र में अटलबिहारी वाजपेयी की छः वर्षों तक सरकार रही। संविधान मंे ऐसे किसी परिवर्तन की चेष्टा नहीं की गई। उस दौरान संविधान समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति वेंकटचेल्लैया की अध्यक्षता में एक समिति अवश्य बनी जिसने अपनी रिपोर्ट भी थी। वह एक स्वाभाविक कदम था। एक अंतराल के बाद हमें अपने संविधान की समीक्षा करते रहना चाहिए। इससे उनमें कोई कमी है तो उसका पता चलता है तथा उसके अनुसार ंसंशोधन कर दुरुस्त किया जा सकता है। उस रिपोर्ट में ऐसा कुछ नहीं था जिससे संविधान में आमूल परिवर्तन की आशंका पैदा हो। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भी चार वर्ष से ज्यादा सरकार के हो गए। अभी तक इसे एक भी कदम ऐसा नहीं उठाया है जिससे यह माना जाए कि उसका इरादा वाकई संविधान के सेक्यूलर चरित्र को बदल डालने का है। इसके विपरीत प्रधानमंत्री ने स्वयं संविधान दिवस मनाने की शुरुआत कराई है। मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में पिछले करीब 15 वर्षों से भाजपा की सरकारें हैं वहां भी कोई एक कदम नहीं बताया जा सकता जिससे यह साबित हो सके कि अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश हुई।

इस तरह थरुर की ऐसा आशंका भाजपा सरकारों के अभी तक अनुभवों के आधार पर निर्मूल साबित होती है। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो यह तुलना वाकई हिन्दुओं और भारत का अपमान है। एक आम हिन्दू का चरित्र कभी भी मजहबी कट्टरता, धर्मांधता और धर्म के नाम पर हथियार उठा लेने का नहीं रहा है। कभी-कभी एकाध सिरफिरे खड़े भी हो गए तो उसे समाज में समर्थन नहीं मिला। थरुर की समस्या यह है कि वो पश्चिमी सोच में ढले व्यक्ति हैं जहां धर्म और सेक्यूलरवाद की परिभाषा बिल्कुल अलग है। वहां के लिए धर्म एक विशेष उपासना पद्धति है जिसके एक संस्थापक हैं तथा जिनको मानने वाले अपने एक धर्मग्रंथ से समस्त प्रेरणा लेते हैं। उसका एक संगठित ढांचा भी है। हिन्दू धर्म का मर्म थरुर की समझ से बाहर है। वो उसी तरह के मजहबांे की तरह हिन्दुत्व को भी समझते हैं। हालांकि विवाद होने पर उन्होंने बयान देने के लिए जो जगह चुनाव वहां उनकी कुर्सी के पीछे अलग-अलग देवताओं की प्रतिमाएं थीं। यानी वो यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि मैं स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति हंूं। पता नहीं कितने धार्मिक हैं वे। देवताओं की प्रतिमा रखने या कर्मकांड के अनुसार पूजा करने से भी आप हिन्दू धर्म को नहीं समझ सकते। यहां न कोई एक उपासना पद्धति है, न कोई एक धर्मग्रंथ और न इस धर्म का कोई संस्थापक। साथ ही इसका कोई संगठित ढांचा भी नहीं है।

ऐसा हो भी नहीं सकता। हिन्दू धर्म से ज्यादा व्यापक सोच और सहिष्णुता किसी अन्य धर्म में आपको मिल ही नहीं सकती। थरुर और उनके जैसे लोग गांधी जी को बार-बार उद्धृत करते हैं। किंतु हिन्दू धर्म के संबंध मे ंउनके विचार शायद वे समझ नहीं पाते। गांधी जी यदि बार-बार कहते हैं कि मैं एक सनातनी हन्दू हूं और मुझे इस पर गर्व है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वो अन्य धर्मों को हेय मानते हैं। वो कहते हैं कि जितना मैंने हिन्दू धर्म को समझा है इससे सहिष्णु दूसरा धर्म नहीं मिला। यह किसी भी धर्म को अपना स्वीकार कर सकता है। यही इसकी विशेषता है। यह सेमेटिक विचार कभी अपना ही नहीं सकता। एक हिन्दू धर्म के अंदर इतने पंथ, मत-मतांतर हैं, इतनी धर्मपुस्तके हैं, धर्म और अध्यात्म से संबंधित इतने दर्शन हैं कि इनमें एकरुपता भी नहीं आ सकती। कोई राम को अपना आराध्य मानता है तो कोई उनका विरोध करता है। कोई ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारता है तो कोई उसे बिल्कुल नकारता है। हमारे यहां किसी कर्मकांड के पालन की कोई अनिवार्यता नहीं। जो चार्वाक वेदों को खुलेआम नकारता था, उसे भी हिन्दू धर्म ने एक दर्शन के रुप में स्वीकार कर लिया। थरुर हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के इस सनातन चरित्र को समझ ही नहीं सकते। कोई भी सरकार आ जाए, हिन्दू को उस रुप में कट्टर और दूसरे धर्म से घृणा करने वाला बना ही नहीं सकता। हिन्दू के लिए सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है। जब ऐसा हो ही नहीं सकता उसकी आशंका क्यों?

साफ है कि इसके पीछे नासमझी और राजनीति है। भाजपा एवं संघ परिवार को लेकर राजनीति आरंभ से यही प्रचार करती रही है कि उसका विचार अल्पसंख्यक विरोधी हैं, वे भारत का पूरा चरित्र बदल देंगे, राज्य का एक धर्म हो जाएगा और दूसरे धर्मों के लिए इसमें कोई जगह नहीं होगी। दुनिया में ऐसे इस्लामिक देश हैं जहां दूसरे धर्मावलंबियों को कोई अधिकार नही। इस तरह का थियोक्रेटिक स्टेट यानी मजहबी राज्य भारत कभी हो ही नहीं सकता। वैस थरुर और उनके समर्थकों को यह जानकारी होनी चाहिए कि आधुनिक काल में हिन्दू राष्ट्र शब्द का सबसे पहला प्रयोग महर्षि अरंविन्द ने अपने प्रसिद्ध उत्तरपारा भाषण मंे किया। क्या वो दूसरे धर्मांे के विरोधी और सांप्रदायिक थे? उस समय तक तो संघ पैदा भी नहीं हुआ था। स्वामी विवेकानंद भी भारत के बारे में यही धारणा रखते थे। क्या आप उनको धर्मांध कह सकते हैं? स्वयं गांधी जी धर्म को राज्य की आत्मा कहते थे। उनका कहना था कि बिना धर्म के राज्य आत्माविहीन शरीर के समान हो जाएगा। आज जो भी ऐसा बोलेगा उसे सेक्यूलर विरोधी और संाप्रदायिक करार दे दिया जाएगा। किंतु धर्म से अर्थ यहां कर्तव्यों से है। हमारे हिन्दू धर्म में धर्म का अर्थ ही है जो धारण किया जा सके। यानी जो आपका कर्तव्य है वही धर्म है।

यह सामान्य चिंता की बात नहीं है कि शशि थरुर जैसे व्यक्ति को भारत के हिन्दू पाकिस्तान जैसा दुनिया की नजरों से गिरा हुआ, धर्मांता की हिंसा में फंसा देश बन जाने का खतरा नजर आता है। पाकिस्तान के चुनाव में आतंकवादियों ने अवामी नेशनल पार्टी के नेताओं को खूब निशाना बनाया है। वे कह रहे हैं कि यह पार्टी इस्लाम में विश्वास नहीं करती। क्या भारत में इसकी हम कल्पना तक कर सकते हैं? पाकिस्तान में आजादी के वक्त करीब 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे, जबकि आज इनकी संख्या दो प्रतिशत से भी कम है। इसके उलट भारत में आजादी के समय मुसलमानों की संख्या 9 प्रतिशत थी जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी 14 प्रतिशत से ज्यादा है। यह दोनों देशों और उनके लोगों के संस्कारों में अंतर का ही सबूत है। किंतु ऐसा कहने वाले थरुर अकेले नहीं है। उनकी सोच के लोगों की एक बड़ी संख्या इस देश में है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश में ऐसे लोग हर राजनीतिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में बड़ी हस्ती माने जाते हैं जिनको अपने देश, धर्म आदि के विषय में सही जानकारी तक नहीं। हालांकि उन्होंने जो कहा है उसके खिलाफ देश में वाकई तीव्र प्रतिक्रिया है और इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

नीतीश के बयान भविष्य की कठिनाइयों का संकेत

 

अवधेश कुमार

जो लोग जनता दल-यू की कार्यकारिणी से भाजपा एवं राजग के बारे में कुछ प्रतिकूल ध्वनि निकलने की कल्पना कर रहे थे उन्हें निश्चय ही निराशा हाथ लगी होगी। पिछले कुछ समय से ऐसी खबरें उड़ रहीं थी कि जद यू ने बिहार के 40 में से 25 सीटों की मांग रखी है तथा यह साफ कह दिया है कि अगर पूरा सम्मान नहीं मिला तो गठबंधन से बाहर जाने पर भी विचार हो सकता है। इस खबर के बाद ही तेजस्वी यादव ने यह बयान दे दिया कि मेरे चाचा के लिए अब दरवाजा बंद हो गया है। किंतु कार्यकारिणी मेें ऐसा कुछ नहीं हुआ। जद-यू ने न केवल प्रदेश में भाजपा के साथ बने रहने बल्कि राजग के एक घटक के रुप में ही राजनीतिक भूमिका निभाने की स्पष्ट घोषणा कर दी। 2019 के लोकसभा चुनाव की दृष्टि से यह माना जा रहा था कि जद-यू ऐसा कोई प्रस्ताव पारित कर सकता है जिनसे भाजपा पर दबाव बने एवं उनकी बात न माने जाने पर साथ छोड़ने का संदेश भी निकले। नीतीश कुमार के चरित्र को देखते हुए यह उम्मीद अस्वाभाविक नहीं थी। किंतु पत्रकार वार्ता में जद यू के महासचिव के सी. त्यागी ने साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर कार्यकारिणी में कोई चर्चा ही नहीं हुई।

जद यू के लिए यही स्थिति यथेष्ठ है। हालांकि जद यू के नेताओं को पता है कि भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने का प्रयास करने वाले अभी भी चाहते हैं कि किसी तरह नीतीश बाहर आ जाएं। हां, राजद उनको साथ लेने के मूड में नहीं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति को ध्यान मे ंरखते हुए अन्य नेताओं को उम्मीद है कि अंततः तेजस्वी एवं लालू यादव को मना लिया जाएगा। किंतु नीतीश ने इसका तत्काल खंडन कर दिया। उनका यह कहना कि कांग्रेस जब तक भ्रष्टाचार के बारे में अपना मत स्पष्ट नहीं करती, बिहार मेें उसको साथ लेने पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं है। भ्रष्टाचार से उनका सीधा इशारा लालू प्रसाद के परिवार से है। यह बयान उन्होंने निश्चय ही काफी सोच-समझकर दिया है। कांग्रेस एवं अन्य पार्टियों के लिए साफ संदेश है कि राजद से उन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नाता तोड़ा और उस पर वे कायम हैं। यानी वे किसी भी स्थिति में राजद के साथ नहीं जा सकते। वर्तमान राजनीति को देखते हुए यह अत्यंत महत्वपूर्ण वक्तव्य है। तत्काल इसका निष्कर्ष यही है कि बिहार मेें भाजपा के विरुद्ध किसी बड़े गठबंधन की संभावना निःशेष है। भले राष्ट्रीय स्तर पर जो भी चर्चा चले लेकिन लालू परिवार के एक-एक सदस्य पर जिस तरह से अवैध तरीके से संपत्ति बनाने के आरोप लग रहे थे तथा कुछ के प्रमाण सामने आ रहे थे उनमें नीतीश के लिए राजद के साथ बने रहना मुश्किल था। स्वयं तेजस्वी एवं तेजप्रताप यादव तक पर अवैध तरीके से संपत्ति बढ़ाने का आरोप है। ऐसा नहीं होता तो नीतीश नरेन्द्र मोदी विरोध के नाम पर जिस सीमा तक जा चुके थे उसमें सामान्य स्थिति मंें वे स्वयं भाजपा के साथ वापस जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। भाजपा भी मान चुकी थी कि अब बिहार मेें उसकी राजनीति नीतीश विरोध की ही रहेगी।

अंदरखाने कुछ घंटों के अंदर नीतीश ने अरुण जेटली से बात कर जिस तरह फिर से पुरानी स्थिति में लौटने का राजनीतिक कारनामा कर दिया उसमें अब विस्तार से जाने की कोई आवश्यकता नहीं। किंतु उनके सामने स्वयं अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता को बचाने का प्रश्न है। इस समय भाजपा के लिए कोई भी प्रतिकूल बयान उनको राजनीति में हास्य का पात्र बना सकता है। उन्हें इसका भान है। वैसे भले भाजपा के साथ आने की पहल उनकी थी, लेकिन प्रदेश भाजपा के नेताओं ने उनके साथ छोटे भाई की भूमिका अपना ली है। नोटबंदी के बारे में उनके बयान पर किसी भाजपा नेता ने प्रतिक्रिया नहीं दी। नीतीश जैसा चाहते हैं बिहार गठबंधन में इस समय वही होता है। आज की स्थिति मेें भाजपा गठबंधन में उनकी अनुसरण करने वाली पार्टी है। ऐसी स्थिति राजद के साथ नहीं थी। लालू प्रसाद यादव उसमें एक दूसरे सत्ता केन्द्र बन चुके थे। अधिकारियों से लेकर नेता तक उनसे सलाह लेने जाते थे तथा वे स्वयं भी लगातार इनके कामों में हस्तक्षेप करते थे। तो गठबंधन के अंदर नीतीश के लिए भाजपा ज्यादा अनुकूल है।

 अभी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से नीतीश कुमार की मुलाकात होनी है। अमित शाह गठबंधन के सभी प्रमुख दलो के नेताओं से मिल रहे हैं। उनकी उद्धव ठाकरे तथा प्रकाश सिंह बादल से मुलाकात हो चुकी है। उस बातचीत में क्या निकलता है यह देखने वाली बात होगी। हालांकि उसमें भी सीटों के बंटवारे पर कोई विमर्श होगा ऐसा लगता नहीं। प्रदेश भाजपा ने इस मामले पर अत्यंत ही संयमित रुख अपनाया है। प्रदेश के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने इस संबंध में पूछे जाने पर कहा कि नीतीश कुमार बड़े भाई हैं, जब दिल मिल गया तो सीटों में भी कोई समस्या नहीं होगी। किंतु इन सबका अर्थ यह नहीं है कि 2019 के लिए बिहार में सीटों का बंटवारा वाकई आसानी से हो जाएगा। इस समय भाजपा के पास लोकसभा की 22 सीटें हैं। उसके सहयोगी लोजपा के छः तथा रालोसपा के दोनों गुटों के तीन। तो 40 में से 31 सीटें इनके पास पहले से है। क्या इनमें से कोई भी पार्टी अपनी जीती हुई सीटें जद-यू के लिए छोड़ने को तैयार होगी? यह आसानी से संभव नहीं है। अगर ये छोड़ेंगे नहंीं तो जद यू के लिए केवल नौ सीटेें बचतीं हैं। इतने में वह मान जाएगी?

यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर तलाशने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार एवं जद यू के अन्य नेताओं को इस स्थिति का आभास नहीं है। आपस में उनके बीच इसकी चर्चा होती रहती है। ध्यान रखिए कार्यकारिणी में नीतीश ने इस विषय को परोक्ष रुप से उठाया भी। उन्होंने कहा कि कठिन परिस्थितियों में भी हमें 17 प्रतिशत वोट मिले थे। हमें कमजोर न माना जाए जो हमें नजरअंदाज करेगा वो खुद राजनीति में नजरअंदाज हो जाएगा। उनका कहना था कि हमें जो भी मिलेगा उससे संतुष्ट हुए तो ठीक नही ंतो देखा जाएगा। आप मत घबराइए जद यू को कोई एलिमिनेट नहीं कर सकता है। तो यह भाजपा सहित राजग के वर्तमान साथियों के लिए एक संदेश है जिसे सबको समझना होगा। इस समय इतने वक्तव्य तक सीमित रहने मंे ही बुद्धिमानी थी। जब अभी सीटों पर बात आरंभ ही नहीं हुई है इससे ज्यादा वक्तव्य देने का कोई अर्थ भी नहीं था। यह वक्तव्य साबित करता है कि बिहार में घटक दलों के बीव सीटों का बंटवारा आसान नहीं है। जद यू कितने से संतुष्ट होगी यह नीतीश ने नहीं बताया है। वह नौ सीटों पर मान जाएगी इसकी कल्पना तक बेमानी है। रास्ता यही होगा कि अन्य पार्टियां अपने खातेें से कुछ सीटें कम करें या फिर बिहार में राजग एक होकर चुनाव नहीं लड़ पाएगा। क्या भाजपा नीतीश को प्रसन्न करने के लिए अभी के साथियों में से कुछ का परित्याग करेगी? या नीतीश राजग में रहते हुए कुछ सीटों पर दोस्ताना संघर्ष के लिए अपने उम्मीदवार खड़ा करेंगे? ये सारे प्रश्न तब तक प्रासंगिक हैं जब तक कि कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा इसकी घोषणा नहीं हो जाती। कार्यकारिणी में कड़ा तेवर न दिखाने का यह अर्थ कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि बिहार में लोकसभा चुनाव के पूर्व सीटों को लेकर नीतीश कुमार या जद यू कड़े तेवर नहीं अपनाएगी। ऐसे में यह भी संभव है कि प्रदेश में राजग टूट जाए। यानी वर्तमान साथी बाहर जाएं एवं पहले की तरह भाजपा जद यू साथ लड़े। राजद अपना दरवाजा नीतीश को छोड़कर अन्यों के लिए खोलकर तैयार बैठी है। इस तरह सभी प्रकार की संभावना अभी बिहार में बनी हुई है। तो देखते हैं क्या होता है। हां, 2019 चुनाव पूर्व सीट बंटवारे तक बिहार की राजनीति काफी रोचक हो गई है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीतिक निशाना उचित नहीं

 

अवधेश कुमार

यह मानने में किसी को हर्ज नहीं होगा कि सर्जिकल स्ट्राइक अगले आम चुनाव का एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनेगा। वास्तव में कांग्रेस तथा भाजपा के बीच सर्जिकल स्ट्राइक के ठीक 21 महीने बाद आए वीडियो पर जो वाकयुद्ध चल रहा है उसका अंत संभव नहीं है। सेना के पराक्रम पर राजनीति अपने आपमें बुरी नहीं है। उद्देश्य यदि स्वयं सेना के अंदर उत्साह पैदा करना तथा देशवासियों का मनोबल बनाए रखना हो तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। क्या वर्तमान राजनीति इस श्रेणी में आएगी? कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरेजवाला ने आरोप लगाया है कि भाजपा सेना के पराक्रम का राजनीतिक दुरुपयोग कर रही है। श्रेय सेना को देने की बजाय मोदी को दिया जा रहा है। उनके अनुसार सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो जारी करने की आवश्यकता नहीं थी। भाजपा का प्रति हमला यह है कि कांग्रेस हमेशा सेना का मनोबल तोड़ने का काम करती है और उसके पराक्रम पर प्रश्न उठाती है।

सच यह है कि संसदीय लोकतंत्र में सैन्य सफलताओं का श्रेय सत्तासीन पार्टियां प्रत्यक्ष-परोक्ष दुनिया भर में उठाती हैं। आखिर सैन्य विफलताओं का ठीकरा भी तो उसी के सिर फूटता है। जरा सोचिए, 28-29 सितंबर 2016 की आधी रात से सुबह 6.15 बजे तक चले उस अभियान में हमारे कुछ सैनिक सीमा पार शहीद हो गए होते तो क्या होता? विपक्ष और हम पत्रकारों ने किस तरह सरकार को कठघरे में खड़ा किया होता इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। इस कार्रवाई के अगले दिन सेना के तत्कालीन डीजीएमओ यानी सैन्य ऑपरेशनों के महानिदेशक रणबीर सिंह और विदेश मंत्रालय के तत्कालीन प्रवक्ता विकास स्वरूप ने पत्रकार वार्ता में इसकी जानकारी दी थी। कायदे से चारों ओर उसका स्वागत होना चाहिए था। उस समय के कुछ नेताओं के बयान याद करिए। कांग्रेस ने पार्टी के स्तर पर नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन संजय निरुपम ने इसे फर्जीकल स्ट्राइक कहा था। ये अकेले ऐसा कहने वाले नहीं थे। आप उस समय समाचार चैनलों पर चलने वाले बहसों तथा समाचार पत्रों में आई खबरों को याद करिए तो कांग्रेस सहित विरोधी पार्टियों के अनेक नेता यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि सीमा पार करके स्ट्राइक किया गया है। सुबूत मांगने वाले भी थे। गाहे-बगाहे ऐसे बयान अभी तक आ रहे थे। निरुपम ने तो वीडियो आने के बाद भी कहा कि पूरी मोदी सरकार ही फर्जी है। तब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि पाकिस्तान बस में भरकर विदेशी पत्रकारों को उस जगह पर ले गया और दिखा दिया कि कुछ हुआ ही नहीं है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर इसके सबूत मांगे। ध्यान रखिए, सर्जिकल स्ट्राइक की जानकारी देश को सेना की ओर से दिया गया था। इसलिए आप अविश्वास कर रहे थे तो अपनी सेना पर। केजरीवाल ने पाकिस्तान के खंडन पर तो विश्वास किया, अपनी सेना के बयान पर नहीं। पी. चिदम्बरम ने भी बाद में अपने स्तंभ में फर्जिकल स्ट्राइक शब्द ही प्रयोग किया। ये सारे बयान राजनीति के मद्दे नजर दिए जा रहे थे। सबको लग रहा था कि भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ मिल जाएगा।  

हालांकि डीजीएमओ की पत्रकार वार्ता के बाद देश भर में रोमांच महसूस किया जा रहा था। किंतु ऐसे बयानों से संदेह भी पैदा हो रहा था। पाकिस्तान ने इससे इन्कार कर दिया था। इसलिए वीडियो जारी करना आवश्यक था। आठ मिनट के वीडियो में देखा जा सकता है कि किस तरह लक्ष्यो को भेदा जा रहा है। कम से कम अब कोई संदेह नहीं रहेगा। दुनिया में भी यह संदेश चला गया कि भारत के पास ऐसा स्ट्राइक करने की क्षमता है जिन पर कुछ प्रमुख देशों को ही विशेषज्ञता प्राप्त थी। वास्तव में वीडियो जारी होने के बाद इस पर खड़े संदेह के बादल छंट गए हैं। पूरा मनोविज्ञान फिर रोमांच का निर्मित हो चुका है। सामान्यतः सर्जिकल स्ट्राइक जहां भी हुए उनके वीडियो काफी समय बाद जारी किए गए। तुरत जारी करना इसलिए भी संभव नहीं था, क्योंकि रात के अंधेरे में ड्रोन और अनमैन्ड एरियल वीइकल (यूएवी) से शूट किए गए तथा ऑपरेशन को मॉनिटर करने वाले सेना के थर्मल इमेजिंग कैमरा में कैप्चर वीडियो को एक साथ मिलाने और आवश्यक अंश छांटने में समय लगता है। वीडियो में इस बात का ध्यान रखा गया है कि हमारे जवानों के पाक अधिकृत कश्मीर में प्रवेश करने और वापस आने के रास्ते न दिखें। इनसे भविष्य में सुरक्षा को खतरा पहुंच सकता था। इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि इससे जवानों की जान को जोखिम में डाल दिया गया है।

जैसा हम जानते हैं 18 सितंबर 2016 की सुबह बारामुला के उड़ी सैन्य शिविर पर आतंकवादियों ने अचानक हमला कर दिया और वहां ज्वलनशील पदार्थों में लगी आग में 17 जवान शहीद हो गए तथा 3 घायल सैनिक अस्पताल में वीरगति को प्राप्त हुए। हमले के बाद पूरे देश में आक्रोश का माहौल था और बदले की मांग हो रही थी। सर्जिकल स्ट्राइक ठीक इसके दस दिन बाद हो गया। इसका मतलब हुआ कि हमले के तुरत बाद ही सरकार से हरि झंडी मिल गई थी एवं तैयारी की जा रही थी। वीडियो के साथ बहुत सारे तथ्य भी सामने आ गए हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के प्रभारी तत्कालीन नॉर्दर्न कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) डी.एस.हुड्डा ने वीडियो जारी होने के बाद कई बातें कहीं हैं। उन्होंने कहा है कि फैसला प्रधानमंत्री के स्तर पर लिया गया था जिसे सेना ने स्वीकार किया था। हुडा के अनुसार ऑपरेशन को उधमपुर स्थित नॉर्दन कमांड के मुख्यालय के कंट्रोल रूम से मॉनिटर किया जा रहा था। सीमा पार जाने वाली टीम की एक मुख्य चुनौती यह भी थी कि आतंकवदियों के लौचिंग पैड पाकिस्तानी सैन्य पोस्ट के करीब थे। यानी हमारे स्पेशल फोर्सेंज के जवानों को कार्रवाई इस तरह करनी थी कि दूसरी तरफ से जवाबी कार्रवाई का मौका न मिले। उपग्रहों के माध्यम से सेना को आतंकवादियों के लॉन्च पैड्स की जगहें बिल्कुल सुनिश्चित कर दीं गईं। यह भी साफ हो गया है कि दस दिनों में नरेंद्र मोदी, तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल और डीजीएमओ रणबीर सिंह ने लगातार बैठकें और ऑपरेशन की मॉनिटरिंग की थी।

बेशक, इसके पहले भी सेना ने सीमा पार कर कार्रवाई की है। जो तिथियां कार्रवाइयों की बताई जा रहीं हैं वे वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सरकार के कार्यकाल की हैं। किंतु इतने विस्तृत क्षेत्र में सर्जिकल स्ट्राइक पहली बार हुआ है। सात अलग-अलग स्थानों पर स्थित आतंकवादियों और सेना की उपस्थिति में लौचिंग पैडों को ध्वस्त करना किसी सामान्य कार्रवाई में संभव नहीं था। इसका मतलब है कि अलग-अलग टोलियों में जवानों को जाना पड़ा होगा। कहा जा सकता है कि उसके बाद भी न सीमा पर युद्ध विराम का उल्लंघन कम हुआ न ही आतंकवादी हमले। पर इसके दूसरे पहलू भी हैं। पाकिस्तान भारत पर ज्यादा युद्धविराम उल्लंघन का आरोप लगाता है। हमारे उच्चायक्त को बार-बार बुलाकर वहां का विदेश मंत्रालय शिकायत करता रहता है। दूसरे, पिछले दो सालों में रिकॉर्ड संख्या में आतंकवादी मारे गए हैं। यह तब हुआ है जब जम्मू कश्मीर में सैन्य कार्रवाई की विरोधी पीडीपी के साथ भाजपा की सरकार थी। आतंकवादी हमले के दस दिनों के अंदर इतनी बड़ी कार्रवाई इसे विशिष्ट बनाता है। बहरहाल, अब जब वीडियो आ गया है, कार्रवाई के तत्कालीन प्रभारी ने भी वक्तव्यों से उसकी पुष्टि कर दी है इस पर नकारात्मक टिप्पणियां बंद होनी चाहिए। कांग्रेस और दूसरे विरोधी दल न भूलें कि ऐसे मामले पर मोदी सरकार को घेरने की उनकी रणनीति के उल्टे राजनीतिक परिणाम भी हो सकते हैं। 1999 में करगिल युद्ध के दौरान भी कांग्रेस ने वाजपेयी सरकार पर लगातार हमला किया था। उसके बाद हुए चुनाव में राजग विजयी हुआ और कांग्रेस उस समय तक सबसे कम सीटों पर सिमट गई। आप नकारात्मक टिप्पणिंयां नहीं करेंगे तो भाजपा को आपको सेना विरोधी कहने का अवसर भी नहीं मिलेगा। वैसे भी सरकार पर राजनीतिक हमला करने के लिए रक्षा और विदेश नीति को निशाने पर लाना उचित नहीं है। इससे कई बार सरकार के विरोध की जगह देश का विरोध हो जाता है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/