बुधवार, 26 दिसंबर 2018

यह देश के प्रति कृतघ्नता है

 
अवधेश कुमार

फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के बयान पर मचा बावेला स्वाभाविक है। यह सोशल मीडिया के ज्वार का दौर है। पूरा फेसबुक, ट्विटर नसीरुद्दीन शाह से भरा हुआ है। नसीरुद्दीन ने भी अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का ही उपयोग किया और उसे वायरल कराने की कोशिश की। यूट्यूब पर इसे सुनने वालों की संख्या उनके सारे वीडियो को पार कर गया है। इस समय के माहौल में आपको चर्चा में आना है तो कुछ ऐसी बातें बोल दीजिए जो आग लगाने वाली हों, बड़े समूह को नागवार गुजरने वाला हो, उनके अंदर उत्तेजना पैदा कर सकता है....आपक सीधे लाइमलाइट में आ गए। लोग गाली दें या प्रशंसा करें आप चर्चा में बने रहेंगे। नसीरुद्दीन शाह भले गुमनाम न हों, लेकिन काफी समय से चर्चा में नहीं थे। अब की स्थिति देख लीजिए। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान तक नसीरुद्दीन शाह की बात पहुंच गई। उन्होंने बाजाब्ता अपने भाषण में इसकी चर्चा करते हुए मोहम्मद अली जिन्ना के विचारों से इसकी तुलना कर दी। वे कह रहे हैं कि जिन्ना साहब ने इसलिए पाकिस्तान की मांग की और लड़ाई लड़के अलग देश बनाया क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई के बाद मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनकर जीना होगा जो उन्हें स्वीकार नहीं है और आज मोदी के शासनकाल में वही हो रहा है जिसकी आशंका जिन्ना साहब ने व्यक्त की थी।

इस तरह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की नजर में नसीरुद्दीन शाह की बात भारत में मुसलमानों के डर में जीने या दोयम दर्जे का जीवन की स्थिति का सबूत है। नसीरुद्दीन ने हालांकि इमरान की बातों का प्रतिवाद किया है, पर अगर वे ऐसा नहीं बोलते तो इमरान को भारत क् बारे में दुष्प्रचार का अवसर नहीं मिलता। कश्मीर केन्द्रित आतंकवादियों और उनको प्रश्रय देने वालों के बीच नसीरूद्दीन के वीडियो सुनाने की खबरे हैं। इसे कुछ लोग मानवाधिकार संगठनों को भी भेज रहे हैं तथा इस्लामिक सम्मेलन संगठन या ओआईसी में भी इसे लाने की कोशिशें हो रही हैं। पता नहीं इस बयान का कहां-कहां किस रुप मे भारत के खिलाफ उपयोग होगा। यही पहलू चिंतित करता है कि जो देश के सिलेब्रिटिज हैं उनको बयान देते समय कितना विचार करना चाहिए। किंतु भारत में ऐसे तथाकथित बड़े लोगों और सिलेर्बिटिज की संख्या बढ़ गई है जिनके लिए पता नहीं देश की इज्जत और छवि से बड़ा क्या है? सोशल मीडिया पर जो गालियां दे रहे हैं या उनको पाकिस्तान चले जाना चाहिए जैसी बातें लिख बोल रहे हैं उनसे सहमति नहीं। किंतु यह स्वीकारना होगा कि नसीरुद्दीन ने जो कहा उससे भारी संख्या में भारतीयों की भावनाओं को धक्का लगा है। वे ऐसा नहीं बोलते तो भारत विरोधियों को उसे जगह-जगह उपयोग करने का हथियार हाथ नहीं आता।

नसीरुद्दीन कह रहे हैं कि मुझे समझ में नहीं आता कि मैंने ऐसा क्या कह दिया जिससे इतना बावेला मचा है। वे कह रहे हैं कि जिस मुल्क से मैं प्यार करता हूं, जो मेरा मुल्क है उसके हालात पर चिंता प्रकट करना मेरा अधिकार है। यदि दूसरे मेरी आलोचना करते हैं तो उनकी आलोचना करने का मेरा भी अधिकार है। निस्संदेह, आपको इसका अधिकार है। किंतु सर्वसाधारण से आपकी जिम्मेवारी ज्यादा है। जब आप कहते हैं कि मुझे फिक्र होती है अपने बच्चों के बारे में कि यदि वे बाहर निकले और भीड़ ने उन्हें घेर लिया और उनसे पूछा कि तुम हिन्दू हो कि मुसलमान तो वे क्या जवाब देंगे तो इसका संदेश यह निकलता है कि भारत में सड़क चलते लोगों से भीड़ धर्म पूछकर हिंसा करती है। वे कह रहे हैं कि हालात सुधरने का तो मुझे कोई आसार नहीं दिखता। भारत में ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं है। जाहिर है, उन्होंने किसी और इरादे से सोच-समझकर ऐसा सांप्रदायिक बयान दिया है जिसकी निंदा करनी ही होगी। उन्होंने अपने बयान के लिए बुलंदशहर की हिंसा को आधार बनाया है। बुलंदशहर की हिंसा उत्तरप्रदेश प्रशासन की शर्मनाक विफलता थी। हालांकि हिन्दू मुसलमानों के बीच के एक बड़े सांप्रदायिक हिंसा की साजिश भी विफल हुई। नसीरुद्दीन ने उनकी आलोचना नहीं की जिनने गायों को काटकर उनके सिर और चमड़े आदि ठीक सड़क के किनारे ईंख की खेतों में छोड़ दिए थे। लोगों में गुस्सा था और पुलिस इंस्पेक्टर जो थोड़े लोग आरंभ में विरोध करने आए उनको ही धमका रहा था। इसका वीडियो भी सामने आ गया है कि उसने गोली चला दी जिससे एक नवजवान की मौत हो गई। एक ओर कटे गायों के अवशेष, दूसरी ओर नवजवान की मौत के बाद वहां क्या स्थिति पैदा हुई होगी इसको समझे बगैर कोई बात करने का अर्थ ही है कि आप किसी दुराग्रह से भरे हैं। ऐसा दुराग्रह आग बुझाने की जगह उस पर पेट्रॉल डालने का काम करता है। क्या हम भूल जाएं कि बुलंदशहर में चल रहे तब्लीगी इज्तमा में लाखों मुसलमान एकत्रित थे? गोकशी के कारण गुस्सा अगर चारों ओर फैलता तो क्या रुप लेता इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है। आरोपी पकड़े जा चुके हैं।

यह ठीक है कि हिन्दू भी अब आक्रोशित प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगे हैं। किंतु यह अपने-आप नहीं हुआ है। इसका कारण लंबे समय तक जगह-जगह अल्पसंख्यकों द्वारा मजहबी अतिवादिता का व्यवहार तथा शासन द्वारा उनका संरक्षण और प्रोत्साहन रहा है। इस मूल पहलू की अनदेखी कर कोई भी एकपक्षीय प्रतिक्रिया दुराग्रहपूर्ण होगी। वैसे भी देश में कहीं ऐसी स्थिति नहीं है कि बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकों को डर में जीने को मजबूर कर रहा है। कुछ दुखद घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर और सांप्रदायिक रंग देकर पेश किया गया लेकिन जब जाचं हुई तो उसके कारण अलग निकले। जिस तरह का भयावह चित्र नसीरुद्दीन प्रस्तुत कर रहे हैं वैसी स्थिति भारत में न थी न हो सकती है। हमारे यहां कानून का शासन है और इसको जो भी तोड़ने की कोशिश करेगा तो उसे प्रावधानों के अनुसार परिणाम भंुगतना पड़ेगा। इमरान खान अपने गिरेबान में झांके। इसी वर्ष अप्रैल में मानवाधिकार की रिपोर्ट में पाकिस्तान के बारे में जो कहा गया उससे उनका सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि विचार, विवेक और धर्म की आजादी को लगातर दबाया गया, नफरत और कट्टरता को बढ़ाया गया तथा सहनशीलता और भी कम हुई। सरकार अल्पसंख्यकों पर जुल्म के मुद्दे से निपटने में अप्रभावी रही और अपने कर्तव्यों को पूरा करने में नाकाम रही। आयोग ने कहा कि ईसाई, अहमदिया, हजारा, हिन्दू और सिख जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई और वे सभी हमलों की चपेट में आ रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी कम हो रही है। पाकिस्तान की स्वतंत्रता के वक्त अल्पसंख्यकों की आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा थी जबकि 1998 की जनगणना के मुताबिक यह संख्या घटकर अब तीन प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा है। 1947 में पाकिस्तान की 15 प्रतिशत हिन्दू 1.5 प्रतिशत तक सिमट गई है। चरमपंथी पाकिस्तान के लिए विशिष्ट इस्लामिक पहचान बनाने पर अमादा हैं और ऐसा लगता है कि उन्हें पूरी छूट दी गई है। सिंध में हिन्दू असहज हालात में रहने को मजबूर हैं। समुदाय की सबसे बड़ी चिंता जबरन धर्मांतरण हैलड़कियों को अगवा कर लिया जाता है. उनमें से अधिकतर नाबालिग होती हैं। उनको जबरन इस्लाम में धर्मांरित किया जाता है और फिर मुस्लिम व्यक्ति से शादी कर दी जाती है।

भारत में तो हम ऐसी स्थिति की दुःस्वप्नों में भी कल्पना नहीं कर सकते। यदि जिन्ना ने ऐसे पाकिस्तान की कल्पना की जिस पर इमरान को संतोष है तो ऐसा देश और समाज उनको मुबारक हो। हमारे देश में तो जिन मुसलमानों की आबादी 1951 की जनगणना में 8 प्रतिशत से कम थी वह ं15 प्रतिशत के आसपास है। पाकिस्तान से अधिक मुसलमान भारत में हैं। भारत में कोई नेता, मंत्री, बुद्धिजीवी कभी पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों की स्थिति को मुद्दा नहीं बनाता। उनके बयान पर हमारे प्रधानमंत्री उस तरह नहीं बोलते जिस तरह इमरान ने नसीरुद्दीन के वक्तव्य पर बोला जबकि यह झूठ है और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा सच है। नसीरुद्दीन या उनके जैसे तथाकथित प्रगतिशील सेक्यूलर लोग पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के पक्ष में कभी आवाज नहीं उठाते। नसीरुद्दीन को इस देश ने सब कुछ दिया। उनकी फिल्म देखते समय हमने नहीं सोचा कि वो मुसलमान हैं। उन्हें पद्मभूषण तक से नवाजा गया। इसके बावजूद यदि उन्हें अपने बच्चों को लेकर इस देश में फिक्र हैं तो यही कहना होगा कि आप इस महान देश के प्रति कृतघ्न हैं। क्या नसीरुद्दीन को अफसोस नहीं हुआ कि उनके बयान का किस तरह पाकिस्तान भारत को बदनाम करने मे ंउपयोग कर रहा है, जेहादी आतंकवादी उपयोग कर रहे हैं?

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

राफेल पर न्यायालय के फैसले का सम्मान हो

 
अवधेश कुमार

राफेल सौदे पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर राजनीति पार्टियां और बौद्धिक तबका जिस तरह क्रूर अट्टहास कर रहा है उससे अगर अंदर से उबाल पैदा होती है तो कलेजा भी फट रहा है। यह कैसा देश है जहां उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियां ही नहीं, उसकी भावनाओं को भी अपनी दुर्भावना और नफरत से रौंदा जा रहा है। फैसला आने के एक घंटे के अंदर ही इसके विरोध में प्रतिक्रियाओं की जिस तरह से बाढ़ आ गई वह विस्मित कर रहा था। यह भारत है, जहां राजनीति अब मर्यादाओं को रौंदने का ही पर्याय हो गया है। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इन शब्दों के साथ न्यायालय को नकारा कि हमने पहले कहा था कि राफेल की जांच की जगह उच्चतम न्यायालय नहीं, संयुक्त संसदीय समिति है, शाम को राहुल गांधी ने अपनी पुरानी भाषा और तेवर कायम रखने का साफ संकेत दे दिया। प्रधानमंत्री को जैसे ही उन्होंने चोर कहा उसके बाद तो कोई सीमा रहने की गुंजाइश ही नहीं बची थी।

क्या परिदृश्य है! फैसले की एक, दो या तीन पंक्तियां उद्धृत कर अजीब अर्थ निकाले जा रहे हैं। अब तो कोष्ठक में दिए गए कैग और लोक लेखा समिति संबंधी एक वाक्य को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है। उसमें आधी बात तो सही है कि कैग के साथ इसका मूल्य शेयर किया गया है। हां, लोक लेखा समिति ने इसका परीक्षण नहीं किया है लेकिन यह टाइप की गलती लग रही है। वैसे भी न्यायालय के यह फैसले का यह आघार नहीं है। कोई कह रहा है कि न्यायालय ने अपनी सीमायें बता दी हैं तो कोई यह कि उसने कह दिया कि मूल्य की समीक्षा करना न्यायिक सीमा में है ही नहीं। इसके समानांतर उच्चतम न्यायालय का फैसला सुस्पष्ट, याचिका में लगाये गये आरोपों, उसके पक्ष में दिये गये साक्ष्यों और तर्कों का उत्तर तथ्यों के साथ दिया गया है। क्या उच्चतम न्यायालय तीन याचिकाओं में लगाये गये आरोपों से जुड़े तथ्य सरकार से मांगने के बाद बिना जांच-परख के मामला खारिज कर देगा? जो भी राजनीतिक दुराग्रहों से अलग रखकर फैसले को पढ़ेगा वह राफेल सौदे को लेकर संतुष्ट हो जायेगा। न्यायालय की भाषा देखें तो फैसले के साथ उसमें विवाद करने वालों से परोक्ष अपील भी है कि रक्षा तैयारियों का ध्यान रखते हुए राफेल सौदे की चीड़फाड़ न करें, यह देश के हित में नहीं होगा। यह पंक्ति फैसला में नहीं है, पर भाव  यही है। 29 पृष्ठों के फैसले में न्यायालय ने 18 वें पृष्ठ यानी 22 वें पाराग्राफ से निष्कर्ष देना आरंभ किया है। उसके पहले के पृष्ठों में याचिकाओं की अपीलें तथा अपनाई गई न्यायिक प्रक्रिया, रक्षा सौदे की प्रक्रियाओं, सरकारी निविदाओं और सौदों पर आये न्यायालयों के फैसलों को उद्धृत किया गया है।

राफेल सौदे को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चोर कहने वाले राहुल गांधी तीन बातें उठाते रहे हैं और याचिकाओं में भी यही था। ये हैं, खरीद प्रक्रिया का पालन न होना, ज्यादा दाम दिया जाना, अनिल अंबानी की रिलायंस कंपनी को गलत तरीके से ऑफसेट का लाभ मिलना तथा हिन्दुस्तान ऐरानॉटिक्स लिमिटेड या एचएएल को ऑफसेट से बाहर करना। अंतिम पैरा नं 34 में न्यायालय ने लिखा है कि इन तीनों पहलुओं पर हमारी प्राप्तियों के आलोक में तथा पूरे मामले पर विस्तार से सुनवाई करने के बाद हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि न्यायालय भारत सरकार द्वारा 36 रक्षा लड़ाकू विमानों की खरीद के संवेदनशील मुद्दे में अपीलीय प्राधिकारी बनकर हस्तक्षेप करे। क्या उच्चतम न्यायालय बिना तथ्यों की परख किये ही ऐसा स्पष्ट निष्कर्ष दे दिया है? इसमें यह भी लिखा है कि व्यक्तियों की बनाई गई धारणा न्यायालय के लिए ऐसे मामलों में जांच कराने का आधार नहीं बन सकता। यहां न्यायालय ने अंग्रेजी में फिशिंग एंड रोविंग एन्क्वायरी शब्द का प्रयोग किया है। तो याचिकाकर्ताओं को आइना दिखाया गया है कि आपने जो धारणा बना ली है वह सच नहीं है। ध्यान रखिए, इन याचिकाओं में न्यायालय की देखरेख में मामले की विशेष जांच दल यानी सिट से जांच कराने की अपीलें भी शामिल थीं। न्यायालय का तर्क यही है कि इसमें जांच कराने की आवश्यकता नहीं है। अंतिम निष्कर्ष को उद्धृत करने का हेतु इतना स्पष्ट करना है कि यह प्रचार गलत है कि न्यायालय ने इसमें अपने अधिकारों की सीमायें बता दी हैं।

अब तीनों पहलुओं पर न्यायालय का मत। सबसे पहले खरीद प्रक्रिया। 22 वें पैरा में न्यायालय लिखता है कि हमने सभी सामग्रियों का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया है। वायुसेना के उच्चाधिकारियों से भी न्यायालय में खरीद प्रक्रिया से लेकर मूल्य निर्धारण सहित सारे पहलुओं पर सवाल पूछे हैं। हम संतुष्ट हैं कि खरीद प्रक्रिया पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है और यदि थोड़ा व्यतिक्रम हो भी तो यह सौदे को रद्द करने या न्यायालय द्वारा विस्तृत छानबीन का कारण नहीं बनेगा। इसमें बिना नाम लिये कांग्रेस को भी जवाब है कि पहले से सौदे पर चल रही बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची थी और यह सही नहीं होगा कि न्यायालय पूरी खरीद प्रक्रिया के प्रत्येक पहलू की संवीक्षा के नाम पर उसे रोक दे। खासकर तब जबकि हमारे विरोधी चौथी और पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान प्राप्त कर चुके हैं। मूल्य के बारे में न्यायालय ने बताया है कि यह कई कारणों से संवेदनशील पहलू है। पहले हमने इसे न देखने का सोचा लेकिन संतुष्ट होने के लिए मांग कर उसकी ध्यानपूर्वक जांच की, जिसमें मूल विमान तथा उसमें लगाये जा रहे शस्त्रास्त्रों, एक-एक उपकरणानुसार तथा दूसरे विमानों से तुलनात्मक मूल्यों का विवरण भी शामिल है। फिर न्यायाल का निष्कर्ष है कि इस सामग्री को गोपनीय रखना है इसलिए हम इस पर ज्यादा नहीं कह सकते। इसी के पहले उसने कहा है कि यह न्यायालय का काम नहीं है कि हम इस तरह के मामलों में मूल्यों की विस्तार से तुलना करे। इस पंक्ति का उल्लेख कर बताया जा रहा है कि न्यायालय ने कहा है कि हम मूल्यों की जांच कर ही नहीं सकते। यह गलत और शर्मनाक व्याख्या है।

अब आएं सबसे ज्यादा विवाद को विषय बनाये गये ऑफसेट साझेदारी पर। इस पर न्यायालय ने सबसे ज्यादा करीब छः पृष्ठ एवं सात पैराग्राफ खर्च किया हैं। रिलायंस पर विस्तार से बात करते हुए न्यायालय कह रहा है कि हमें रिकॉर्ड पर ऐसा कोई ठोस तथ्य नहीं मिला जिससे लगे कि यह भारत सरकार द्वारा किसी पार्टी के पक्ष में वाणिज्यिक पक्षपात का मामला है। रक्षा ऑफसेट गाइडलाइन्स 2013 को उद्धृत करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि यह दस्सॉल्ट एवं भारतीय कंपनियों के बीच का वाणिज्यक मामला है और इसे वहीं रहने दिया जाए। यह तय करना हमारा काम नहीं है कि इनकी साझेदारी तकनीकी तौर पर व्यावहारिक है या नहीं। बात ठीक भी है। कोई कंपनी गंवाने के लिए तो अपना निवेश नहीं करेगी। वैसे भी राफेल विमान दस्सॉल्ट का अकेला उत्पाद नहीं है। यह चार कंपनियों की साझेदारी है जिसमें राफेल का हिस्सा 40 प्रतिशत है। इस 40 प्रतिशत हिस्सा वाली कंपनी ने भारत में अब तक 72 कंपनियों के साथ साझेदारी पर हस्ताक्षर कर लिया है जिसमें से रिलायंस एरोनॉटिक्स एक है। स्वयं दस्सॉल्ट को ही 30 हजार करोड़ रुपया सौदे से नहीं मिलना है तो रिलायंस को साझेदारी में इतना कहां से आ जाएगा? ऑफसेट की बाध्यता तीन साल तक नहीं होती। उसके पहले उसने किसी के साथ साझेदारी करके काम आरंभ किया है तो यह उसका अधिकार है। एचएएल के बारे में न्यायालय ने पाया है कि दस्सॉल्ट की इसके साथ साझेदारी की बातचीत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रही थी। एचएएल भारत में विमानों के निर्माण में दस्सॉल्ट द्वारा तय मानव घंटों से 2.7 गुणा ज्यादा समय मांग रहा था। वह कम समय में काम पूरा करना चाहता था। मोदी सरकार ने  नए सिरे से बातचीत के लिए जो इंडियन निगोसिएशन टीम या आईएनजी बनाई उसने मई 2015 से अप्रैल 2016 तक कुल 74 बैठकें हुईं जिसमें 26 फ्रांसीसी पक्ष के साथ थी। तब तक चीन की रक्षा तैयारियों को देखते हुए चौथी एवं पांचवीं पीढ़ी के रुप में विमान की जरुरत थी। उसके हिंसाब से कीमत तय हुई।

इन सबकी यहां विस्तार से चर्चा संभव नहीं। न्यायालय के फैसले का सीधा अर्थ यही है कि राफेल सौदे को लेकर लगाये जा रहे आरोप पूरी तरह तथ्यों की गलत जानकारी या व्याख्या, झूठ और नासमझी पर आधारित तथा देशहित के विरुद्ध है। न्यायालय तथ्यों और नियमों के आलोक में ही किसी मामले पर अपना मत दे सकता है। आप इसे भ्रष्टाचार का मामला मानते हैं इसलिए न्यायालय भी स्वीकर कर ले ऐसा तो नहीं हो सकता। कायदे से न्यायालय के मत का सम्मान होना चाहिए। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि न्यायालय द्वारा विस्तार से आरोपों का जवाब देने तथा इशारों से यह समझाने के बावजूद कि रक्षा चुनौतियों को देखते हुए राफेल सौदे में मीन-मेख निकालना उचित नहीं है, विरोधी अपना क्रूर हमला बंद नहीं कर रहे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

मिशेल का प्रत्यर्पण : अगस्ता वेस्टलैंड कांड का सच सामने आना जरुरी

 

अवधेश कुमार

अगर क्रिश्चियन मिशेल जेम्स का प्रत्यर्पण कुछ दिनों पूर्व हुआ होता तो यह निश्यच ही काफी समय तक मीडिया में चर्चा का विषय रहता। किंतु उसका लाया जाना विधानसभा चुनावों के समय हुआ इसलिए वह सुर्खियों से गायब हो गया। इसका यह मतलब नहीं कि उसका प्रत्यर्पण महत्वपूर्ण नहीं है। रक्षा सौदा दलाली के आरोप में आजादी के बाद के जीप खरीद घोटाला से लेकर अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर कांड तक पहली बार भारत को किसी आरोपी बिचौलिये को पकड़कर लाने में सफलता मिली है। बोफोर्स कांड में ओतावियो क्वात्रोच्चि को न ला पाने की छटपटाहट भारत के उन लोगों में आज भी है जिन्होंने उस पर काम किया था। उनको पता है कि उस सौदे में दलाली ली गई थी। संयोग से बोफोर्स दलाली सामने आने के बाद 10 वर्षो में 11 महीने को छोड़कर या तो कांग्रेस सत्ता में रही या उसके समर्थन की सरकार। बहरहाल, अब चूंकि एक ऐसा व्यक्ति हमारे हाथों है जिस पर आरोप है कि उसने सौदा पक्का कराने के लिए उच्च सैन्य अधिकारियों, नौकरशाहों तथा नेताओं को घूस दिया था तो उम्मीद करनी चाहिए कि सच सामने आएगा। हालांकि हमारे देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे हर मामले को राजनीतिक रंग दे दिया जाता है जिसमें राजनेता और कोई सरकार आरोपों में घेरे में होती है। कांग्रेस ने मिशेल के प्रत्यर्पण के साथ जिस तरह प्रतिक्रियायें दीं उसे क्या कहा जा सकता है? हालांकि कांग्रेस के लिए भी यह अच्छा ही है कि सच सामने आ जाएगा। कोई सरकार जानबूझकर गलत मामला बनाए तो अंततः फैसला न्यायालय को ही करना है।

न भूलें कि सब कुछ न्यायालय के आदेश के अनुसार हुआ है। दिल्ली भी मिशेल का एक केन्द्र रहा है। 2012 में अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर में घूस देने का आरोप सामने आने के बाद यहां से निकल भागा था। सीबीआई मामलों के विशेष न्यायालय ने 24 सितंबर, 2015 को उसके खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया थां जिसके आधार पर इंटरपोल ने रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया। उसे फरवरी, 2017 में दुबई में गिरफ्तार किया गया। संयुक्त अरब अमीरात से उसके प्रत्यर्पण का कानूनी संघर्ष तथा राजनयिक एवं राजनीतिक प्रयास चल रहा था। जब भारत पहुंचते ही उसके लिए वकील खड़े हो गए तो संयुक्त अरब अमीरात में तो उसके पास कानूनी लड़ाई की पूरी ताकत थी। बावजूद वह कानूनी लड़ाई में पराजित किया जा सका तो इसीलिए कि भारत ने पूरी ताकत लगाई तथा नीचे से शीर्ष न्यायालय में जो आरोपपत्र, गवाहों के बयान, अन्य साक्ष्य एवं दस्तावेज दिए गए वे इतने सशक्त थे कि न्यायाधीश ने माना कि मामले की कानूनी प्रक्रिया के लिए उसकी आवश्यकता है। राजनयिक कोशिशें तो पहले से चल रहीं थीं, अन्यथा हम आसानी से वहां कानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ पाते। मामला जीतने के बावजूद उसका प्रत्यर्पण संभव नहीं होता। यह विवरण इसलिए आवश्यक है ताकि देश के सामने साफ हो जाए कि जैसा भारत में वातावरण बना दिया गया है कि उसे तो बस पकड़ लाना था, अब राजनीतिक लाभ पाने का समय है तो ला दिया गया वह सच नहीं है। उसे लाना इतना आसान नहीं था। नरेन्द्र मोदी सरकार आने के बाद इसकी जांच तेज हुई और तबसे एजेंसियां पीछे थी। एक ब्रिटिश नागरिक होने के नाते वह पश्चिम यूरोप के किसी देश में आसानी से जा सकता था।

मामले को संक्षेप में समझ लें। 8 फरवरी, 2010 को रक्षा मंत्रालय ने ब्रिटेन की कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड के साथ 12 हेलिकॉप्टरों की खरीद का समझौता किया था। इटली की फिनमैकेनिका कंपनी उसके लिए हेलिकॉप्टर बनाती है। ये हेलिकॉप्टर भारतीय वायुसेना के लिए खरीदे जाने थे, जिनमें से 8 का इस्तेमाल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य वीवीआईपी की उड़ान के लिए किया जाना था.। बाकी के चार हेलिकॉप्टरों में 30 एसपीजी कमांडो के सवार होने की क्षमता थी। कुल सौदा 55.62 करोड़ यानी करीब 3726 करोड़ का था। भारत में तीन हेलिकॉप्टर आ भी गए। किंतु अचानक इटली से यह खबर आई की सौदे में भारतीय अधिकारियों एवं नेताओं का सौदे का करीब 10 प्रतिशत घूस दिया गया है। फिनमेकैनिका कंपनी के पूर्व उपाध्यक्ष जुगेपी ओरसी और अगस्ता वेस्टलैंड के पूर्व सीईओ ब्रूनो स्पाग्नोलिनी के खिलाफ वहां की जांच एजेंसियों ने 2012 में मामला दर्ज किया। 2016 में निचले न्यायालय ने ब्रूनो को चार और ओरसी को साढ़े चार साल की सजा सुनाई। जब इटली में जांच शुरु हो गई तो भारत के पास इसमें कदम उठाने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। आनन-फानन में सौदा रद्द हुआ तथा जांच का आदेश दिया गया। हालांकि तब तक 30 प्रतिशत भुगतान हो चुका था। यूपीए सरकार इतनी घबरा गई कि उसने कपंनी को ही काली सूची में डाल दिया, जबकि आजादी के बाद से ही उससे हेलिकॉप्टर लिए जा रहे हैं। भारत में आज 50 प्रतिशत से ज्यादा हेलिकॉप्टर उसी कंपनी के हैं। काली सूची में डालने के बाद उनके कल पूर्जों तक का संकट पैदा हो रहा था। टाटा उसके साथ एक संयुक्त उद्यम लगा रही थी वह भी बीच में रुक गया। तो मोदी सरकार ने विचार-विमर्श के बाद जांच जारी रखा लेकिन कंपनी को काली सूची से हटा दिया।

सीबीआई ने इस मामले में पूर्व वायुसेना प्रमुख एसपी त्यागी तक को गिरफ्तार किया। यह भी भारत में पहली बार हुआ जब सेना के सर्वोच्च अधिकारी रहे व्यक्ति की गिरफ्तारी हुई हो। 18 लोगों को आरोपी बनाया गया। 13 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दायर हो चुका है। आरोप पत्र को पढ़ें तो साफ हो जाएगा कि क्रिश्चियन मिशेल ने घूस की रकम ट्रांसफर करने के लिए दो कंपनियों ग्लोबल सर्विसेज एफजेडई, दुबई और ग्लोबल ट्रेड एंड कॉमर्स सर्विसेज, लंदन का इस्तेमाल किया था। मिशेल भारत के लिए नया नहीं है। उसके पिता भी भारत से जुड़े थे और कई सौदों में उनकी भूमिका थी और उसके बाद मिशेल ने यह काम संभाला। हालांकि उसका कहना है कि वह रक्षा सामग्रियों के विशेषज्ञ के तौर पर अपनी सेवायें देता है तथा उसके एवज में उसे शुल्क मिलता है। ज्यादातर बिचौलिए रक्षा सामग्रियों के जानकार होते हैं। निर्माता कंपनियों के वे परामर्शदाता होते हैं और कुछ देशों में वे काम करते हैं जहां उनका संबंध बनता है तथा वे उनका उत्पादन बिकवाने में सहयोग करते हैं। कहीं आसानी से हो गया और जहां नहीं हुआ तो सौदा पटाने के लिए सब कुछ होता है। जांच मिशेल के अलावा दो और बिचौलियों गुइदो हाश्के और कार्लो गेरेसा के खिलाफ भी चल रहा है। उनके खिलाफ भी इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस जारी हो चुका था।

त्यागी पर आरोप है कि उन्होंने वीवीआईपी हेलिकॉप्टरों की ऑपरेशनल क्षमता की ऊंचाई 6 हजार मीटर रखने के मानक को घटकार 4500 मीटर तथा कैबिन की ऊंचाई 1.8 मीटर कर दिया था। इससे अगस्ता वेस्टलैंड को सौदा मिल सका। त्यागी का कहना है कि यह फैसला वायुसेना, एसपीजी सहित दूसरे विभागों ने संयुक्त रुप से लिया तथा उनके काल में सौदा हुआ भी नहीं। यह संभव नहीं है कि केवल अधिकारियों के स्तर पर फैसला हो गया हो। इटली के निचले न्यायालय ने जो फैसला दिया उसमें 15 पृष्ठ भारत सरकार, कांग्रेस के नेताओं और रक्षा मंत्रालय पर केन्द्रित है जिसमे तीखी टिप्पणियां हैं। उसमें कुछ कांग्रेस के नेताओं के नाम हैं। सिग्नोरा गांधी का नाम दो बार आया है जिनके बारे में कहा है कि सौदे में उनकी बड़ी भूमिका थी। सीबीआई को हाथ से लिखा हुआ दस्तावेज मिला जिसमें संकेत नाम हैं। मसलन, पीओल जिसें हम पोलिटिशयन कह सकते हैं। बीयूआर, जिसे ब्यूरोक्रेसी कह सकते हैं। इसी तरह एपी, ओएफ....जैसे नाम हैं। इटली के निचले न्यायालय ने अहमद पटेल, ऑस्कर फर्नांडिस, सोनिया गांधी सबका खुला नाम लिखा है। यदि मिशेल से सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय नेताओं के नाम कहलवाने में सफलता पा ले तो राजनीतिक विस्फोट की स्थिति पैदा होगी। देश सच जानना चाहता है। उसके साथ जो दोषी हैं उनको सजा मिले तथा जो नही हैं उनका नाम बेवजह न घसीटा जाए यह भी आम चाहत है। तर्क दिया जा रहा है कि 8 जनवरी 2018, को इटली की अपील्स कोर्ट ने जुगेपी ओरसी और ब्रूनो स्पाग्नोलिनी को जब बरी कर दिया तो मामले में कुछ है ही नहीं। वहां की न्यायालय ने सिर्फ इतना कहा है कि इनके खिलाफ कोई सबूत नहीं पाये गये। उसके आधार पर मामला बंद करने का कोई कारण नहीं है। कई कारणों से वहां ऐसा हुआ होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

बुलंदशहर हिंसा के पीछे की साजिश को समझिए

 

अवधेश कुमार

बुलंदशहर में स्याना के महाव गांव की भयावह घटना ने मुख्यतः दो बातें साबित की हैं। एक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगाए गए बारुद के ढेर अभी खत्म नहीं हुए हैं। किंतु इससे भी बड़ी बात यह कि सारी स्थिति समझते हुए प्रशासन समय पर कार्रवाई करने में विफल रही। हालांकि अंत में स्थिति संभाल ली गई। बुलंदशहर में तब्लीगी इज्तमा के कारण भारी मुसलमान पहुंचे थे। अगर हिंसा या हिंसा के संदर्भ में किसी तरह की अफवाह फैलती तो आज क्या स्थिति होती इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है। पूरी घटना को देखें तो इसमें बड़ी सांप्रदायिक हिंसा का सुनियोजित षडयंत्र नजर आता है। इतनी संख्या में गोवंश को काटकर खेतों में डाल देने का क्या उद्देश्य हो सकता है? अगर किसी को गोकशी करनी है तो वह उसे छिपाने का प्रयास करेगा। खेतों में गाय के अवशेष जगह-जगह लटकाकर रखे गये थे। गाय के सिर और खाल आदि अवशेष गन्ने पर लटका रखे थे जो दूर से ही दिख रहे थे। ऐसा करने वालों को पता था कि चारों ओर से बुलंदशहर के तब्लीगी इज्तमा में जमा लोग इस रास्ते से भी लौटने वाले हैं जिसके पहले हिन्दू गोवंश के कटे अवशेषों को देखकर आक्रोशित हो चुके होंगे और वे गुस्से में उन पर हमला कर सकते हैं। उसके बाद तो हिंसा आग की तरह फैलनी ही थी।

इस दृष्टि से विचार करें तो कहा जा सकता है कि प्रदेश और देश सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के एक बड़े षडयंत्र से बचा गया है। हालांकि उसमें भीड़ से जूझते एक इन्सपेक्टर का बलिदान हो गया, एक नवजवान भी गुस्साये भीड़ एवं पुलिस के बीच संघर्ष का शिकार हो गया, चौकी तक जल गई, सरकारी वाहनों और संपत्तियों को भारी नुकसान हुआ और यह सब दुखद और एक सभ्य समाज के नाते शर्मनाक भी है किंतु विचार करने वाली बात है कि स्थिति इतनी बिगड़ी क्यों? गोहत्या की सूचना मिलने पर हिन्दू समाज गुस्से में आएगा यह राज्य सरकार और उसके मातहत काम करने वाले पुलिस और प्रशासन को बताने की आवश्यकता नहीं थी। कुछ दिनों पहले ही खुर्जा में 21 गोवंश कटे मिले थे। ऐसी स्थिति में लोगों का स्थानीय पुलिस प्रशासन के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करना भी स्वाभाविक था। लोग ट्रैक्टर, ट्रौली में भरकर यदि हाईवे या पुलिस चौकी पर प्रदर्शन करने की जिद पर अड़े थे तो गुस्सैल भीड़ को देखते हुए इसे भी अस्वाभाविक कतई नहीं कहा जा सकता है। आरंभ में पुलिस प्रशासन की कोशिश किसी तरह भीड़ को शांत करना ही होता है। किंतु ऐसे मामलों में जहां धार्मिक भावनायें भड़कीं हों शांत करना आसान नहीं होता। पुलिस की संख्या कम और भीड़ की ज्यादा। भीड़ ट्रैक्टर-ट्रॉली लेकर हाईवे पर चिंगरावठी पुलिस चौकी पर पहुंचीं। वहां की घटना के बारे में अलग-अलग विवरण है। पुलिस का कहना है कि कुछ लोग मान गए थे लेकिन इसी बीच पथराव होने लगा, तोड़-फोड़ की जाने लगी और फिर पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई की। बेकाबू भीड़ ने पुलिस के कई वाहन फूंक दिए और चिंगरावठी पुलिस चौकी में आग लगा दी।

एकाएक ऐसा नहीं हो सकता। मामले में पुलिस प्रशासन की हर स्तर पर विफलता साबित होती है। पुलिस को नौ बजे सुबह सूचना मिल गई थी। गोहत्या की घटना पर देश भर की जो स्थिति है और स्वयं उत्तर प्रदेश का जो माहौल है उसे देखते हुए पुलिस प्रशासन को तुरत एक्शन में आना चाहिए था। बिल्कुल सड़क से लगे इलाके में पहुंचना भी कठिन नहीं था। 10 बजे सुबह एसडीएम और स्याना के इंस्पेक्टर पहुंचे। 11 बजे सुबह ग्रामीण ट्रैक्टर-ट्राली में अवशेष लेकर चिंगरावठी चौकी रवाना होने लगे। यानी इस बीच दो घंटे का समय चला गया। हालांकि आसपास के कुछ थाने की पुलिस वहां पहुंच रही थी। करीब 11.30 बजे सुबह ग्रामीणों और पुलिस के बीच फायरिंग और पथराव शुरू हुआ। इस बीच स्थिति को संभाला जा सकता था। स्थिति जब नियंत्रण से बाहर हो गई तब करीब 12.30 बजे जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक बुलंदशहर से रवाना हुए। आखिर उसम वो किस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे? वे पहुंचे तब तक इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की मौत हो चुकी थी। आईजी, एडीजी और कमीश्नर तो 3.30 बजे पहुंचे। 10 बजे तक सोशल मीडिया के माध्यम से इसकी आधी-अधूरी जानकारी फैल चुकी थी। क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके सहयोगियों तक इतनी संवेदनशील घटना की जानकारी नहीं पहुंची? नहीं पहुंची तो इसका अर्थ है कि दावों के विपरीत पूरी व्यवस्था लचर है। अगर पहुंची और पुलिस प्रशासन को सक्रिय होने में इतना विलंब हुआ तो साफ है कि सरकार ने इसकी गंभीरता को समझते हुए समय पर आवश्यक कार्रवाई के निर्देश जारी नहीं किए।

 राज्य सरकार इसलिए भी कठघरे में है, क्योंकि पिछले काफी दिनों से खुफिया विभाग की रिपोर्टों के अंश सामने आ रहे थे जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गोहत्या सहित अन्य कार्यों से हिंसा भड़काने की योजनाओं की बात थीं। कहा गया था कि पुलिस प्रशासन अलर्ट पर है। पिछले कुछ महीनों में मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर समेत कई जिलों में गोहत्या की अफवाह मात्र पर तनाव पैदा हुआ है। पथराव, वाहनों में तोड़फोड़ व आगजनी की घटनायें हो चुकी है। पुलिस तक पर फायरिंग तक हो चुकी है। जिस प्रदेश की ऐसी स्थिति हो वहां इतनी लचर कार्रवाई शर्मनाक है। आधे घंटे के अंदर पर्याप्त संख्या में पुलिस, पीएसी, आरएएफ, प्रशासनिक अधिकारियों के साथ नेताओं का समूह पहुंच जाना चाहिए था। समय का विवरण बताता है कि इतनी बड़ी घटना को संभालने के लिए उच्च पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को जितनी तत्परता दिखानी चाहिए नहीं दिखाई गई। सरकार सचेत हो जाती तो ऐसी स्थिति नहीं होती। यह कैसा कानून का राज है जहां करीब एक घंटे तक युद्ध का मैदान बना हो, जहां पुलिस को चौकी छोड़कर भागना पड़ा... गांव के सामान्य लोग भी घरबार छोड़कर भाग रहे हों? कह सकते हैं उच्चाधिकारियों के सामने बुलंदशहर में तब्लीगी इज्तमा को शांतिपूर्वक संपन्न कराना तथा लोगों को सुरक्षित वापस भेजने की जिम्मेवारी थी। किंतु इस घटना को संभालने का दायित्व भी तो उन्हीं का था। पुलिस का लगा कि यदि जाम नहीं हटा तो सांप्रदायिक हिंसा हो सकती है इसलिए उन्होंने जबरन लोगों को हटाने की कोशिश की। पुलिस की थोड़ी संख्या बढने पर लाठीचार्ज हुआ और पूरी स्थिति बिगड़ गई। अब स्याना छावनी में तब्दील हो चुकी है। बड़े अधिकारियों के साथ पांच कंपनी आरएएफ और छह कंपनी पीएसी के साथ-साथ पर्याप्त संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया है। जब सब कुछ हो गया तो ऐसा करने से अब क्या हासिल होगा?

यह भी विचार करने की बात है कि अगर उत्तर प्रदेश में सारे अवैध कत्लखाने बंद हो गए, गोवंश की हत्या प्रतिबंधित है तो इतनी संख्या में उनके कटे अंग, उतारे गए चमड़े आदि आए कैसे? बजरंग दल के जिस जिला संयोजक पर लोगों को उकसाने का आरोप है उसने ही थाने को इसकी सूचना दी और नामजद रिपोर्ट लिखवाई थी। इसका मतलब यह हुआ कि मुख्यमंत्री के स्वयं रुचि लेने के बावजूद से गोवंश की हत्यायें हो रही हैं। इतनी संख्या में गोवंश की हत्या और उनके शरीर के अंगों को अलग करने का काम पेशेवर ही कर सकते हैं। जिसे अनुभव नहीं वह तो खाल नहीं उतार सकता। यह गंभीर विषय है और यह भी पुलिस प्रशासन की विफलता दर्शाती है। जड़ तो गोवंश की हत्या ही है। दुर्भाग्य से हम मूल कारणों को गौण बनाकर उसके बाद हुई हिंसा को प्रमुख मान रहे हैं। गोवंश की हत्या कर खेतों में रखने वाले समाज के दुश्मन हैं। लोगों को इसके खिलाफ प्रदर्शन करने, धरना देने का भी अधिकार है, पर कानून हाथ में लेना अपराध है। आप पुलिस पर हमला करें, गाड़ियां जलायें, थाने जलायें यह कतई स्वीकार्य नहीं। आखिर उस 47 वर्ष के पुलिस अधिकारी का क्या कसूर था? मारे गए उस नवजवान का क्या दोष था? पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार सुबोध कुमार सिंह की मौत बायीं आंख में गोली लगने से हुई और सिर पर भी भारी चीज की चोट के निशान पाए गए हैं। इस तरह गोली मारने का काम कोई अपराधी ही कर सकता है। षडयंत्रकारी यही चाहते थे कि लोग गुस्से में हिंसा करें और चारों ओर सांप्रदायिक संघर्ष हो। जिस तरह के षडयंत्र चल रहे हैं उसमें समाज को ज्यादा सतर्क और संतुलित होने की जरुरत है। अगर अहिंसक प्रदर्शन होता तो केवल गोहत्या का मुद्दा देश के सामने होता। प्रतिक्रिया में हुई हिंसा सुर्खियां बन रहीं हैं। पुलिस अपनी विफलता कभी नहीं स्वीकारती। किंतु  खुफिया रिपोर्ट आपके पास है और घटनायें पहले से घट रहीं हैं फिर भी कार्रवाई में ऐसी लापरवाही को क्या कहा जा सकता है?  यह सरकार और उसकी पुलिस को तमगा देने की भूमिका तो नहीं है। आप दूसरे को खलनायक बना दीजिए जबकि दोषी आप भी हैं।

 अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

उद्धव ठाकरे की अयोध्या राजनीति

 

अवधेश कुमार

जबसे शिवसेना ने घोषणा की थी कि उद्धव ठाकरे अयोध्या का दौरा करेंगे तभी से इसका कई दृष्टिकोणों से विश्लेषण हो रहा था। यह प्रश्न उठ रहा था कि अयोध्या जाने का निर्णय उनको क्यों करना पड़ा? बाला साहब ठाकरे के स्वर्गवास के बाद शिवसेना की कमान थामे उनको छः वर्ष हो गए। इस बीच उनको अयोध्या आने की याद नहीं आई। अचानक उनकी अंतरात्मा में श्रीराम भक्ति पैदा हो गई हो तो अलग बात है। किंतु जिसके अंदर भक्ति पैदा होगी वह तिथि तय करके, उसकी पूरी तैयारी कराके नहीं आएगा। 24 नवंबर को उनके अयोध्या पहुंचने के काफी पहले से उनके 22 सांसद, लगभग सभी विधायक एवं प्रमुख नेता अयोध्या में उनके कार्यक्रमों की तैयारी तथा माहौल बनाने में जुटे थे। पूरे अयोध्या को इन्होंने शिवेसना के भगवा झंडे तथा नारों से पाट दिया था। शिवेसना की हैसियत या उद्धव ठाकरे का वैसा जनकार्षण नहीं है कि उनके दर्शन या स्वागत के लिए भीड़ उमड़ पड़े। बावजूद महाराष्ट्र से आए शिवेसना के उत्साही कार्यकर्ताओं ने कुछ समय के लिए वातावरण को उद्धवमय बनाने में आंशिक सफलता पाई। लक्ष्मण किला में पूजा तथा सरयू घाट पर आरती करते उद्धव, उनकी पत्नी तथा पुत्र की तस्वीरें लाइव हमारे पास आतीं रहीं। प्रश्न है कि क्या इतने से उनका उद्देश्य पूरा हो गया?

इस प्रश्न के उत्तर के लिए समझना होगा कि उनका उद्देश्य था क्या? अयोध्या आने के पहले मुखपत्र सामना में उन्होंने केन्द्र सरकार पर ही नहीं हिन्दू संगठनों पर भी तीखा प्रहार किया था। कहा गया कि मन की बात बहुत हो गई अब जन की बात हो। हिन्दू संगठनों से पूछा गया था कि मेरे अयोध्या आने से उनको परेशानी क्यों हो रही है? सरकार से पूछा गया था कि लगातार मांग करने के बावजूद सरकार अयोध्या पर चुप्पी क्यों साधी हुई है? बहुत सी बातें थी जिसे हम शिवसेना शैली मान चुके हैं। लक्ष्मणकिला में पूजा में उपस्थित प्रमुख संतों को देखकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा होगा। इसके बाद उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में केन्द्र सरकार के बारे में कह दिया कि कुंभकर्ण तो छः महीना सोता था और उसके बाद जगता था यह तो स्थायी रुप से सोने वाला कुंभकर्ण है जिसे मैं जगाने आया हूं। यह कहdj कि सिना से कुछ नहीं होता उसमें दम होना चाहिए, दिल चाहिए, ह्रदय चाहिए और वह मर्द का होना चाहिए उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर हमला किया। मंदिर वहीं बनायेंगे तारीख नहीं बतायेंगे नहीं चलेगा हमें तारीख चाहिए। एक सहयोगी दल के नाते यह सरकार के मुखिया पर अविश्वास एवं तीखा प्रहार था। उसके बाद मांग वही थी, अध्यादेश या विधेयक लाएं। 25 नवंबर की पत्रकार वार्ता भी उनकी अत्यंत संक्षिप्त थी। उनको एवं रणनीतिकारों को पता था कि पत्रकार अनेक असुविधानजनक सवाल पूछेंगे जिनका उत्तर देना कठिन होगा। इसलिए एक छोटा वक्तव्य तथा तीन सवालों का जवाब देकर खत्म कर दिया। यह सवाल पूछा गया था कि उत्तर भारतीयों पर हमले होते हैं तो आप चुप रहते हैं जिसका वो संतोषजक जवाब दे नहीं सकते थे। आखिर राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के पूर्व आरंभिक दिनों में शिवेसना भी यही करती थी। उसकी उत्पत्ति सन्स औफ द स्वॉयल यानी महाराष्ट्र महाराष्ट्रीयनों के लिए विचार से हुआ था।

बहरहाल, उद्धव अपना संदेश देकर वापस चले गए। उन्होंने संत समिति द्वारा आयोजित विशाल सभा में भाग लेने की कोशिश भी नहीं की। उस पर एक शब्द भी नहीं बोला। यह भी उनकी स्वयं को सबसे अलग दिखाने रणनीति थी। शिवसेना एवं स्वयं उद्धव बालासाहब के बाद पहचान की वेदना से गुजर रहे हैं। बालासाहब ने परिस्थितियों के कारण क्षेत्रीयतावाद से निकलकर प्रखर हिन्दुत्ववादी नेता की छवि बना ली थी। उनकी वाणी में जो प्रखरता और स्पष्टता थी उद्धव उससे वंचित हैं। हिन्दुत्व के आधार पर ही शिवसेना राजनीति में प्रासंगिक रह सकता है तथा उद्धव भी। उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना अंतर्विरोधी गतिविधियो में संलग्न रही है। जैन समुदाय के पर्व के समय मांस बिक्री पर प्रतिबंध का विरोध करते हुए शिवसैनिकों ने स्वयं मांस के स्टॉल लगाकर बिक्री की। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि शिवसेना भाजपा पर तो प्रहार करती है, लेकिन अपनी कोई निश्चित वैचारिक दिशा ग्रहण नहीं कर पा रही। भाजपा से अलग दिखाने के प्रयासों में उसकी स्वयं की विश्वसनीयता और जनाधार पर असर पड़ा है। इस कारण शिवसैनिकों की परंपरागत आक्रामकता में भी कमी देखी जा रही है।

इसका राजनीतिक असर भी हुआ है। भाजपा महाराष्ट्र में उसके छोटे भाई की भूमिका में थी। आज वैसी स्थिति नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 23 क्षेत्रों मे विजय मिली, जबकि शिवसेना को 18 में। यह परिणाम यथार्थ का प्रमाण था। किंतु शिवेसना उसे मानने को तैयार नहीं थी। शिवेसना ने कहा कि भाजपा की सीटें इसलिए ज्यादा हो गई क्योंकि हमारे मत उसके उम्मीदवारों को मिल गए हमारे उम्मीदवारों को उनके पूरे मत नहीं मिले। यह विश्लेषण सही नहीं था। अपने को साबित करने के लिए विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने गठबंधन तोड़ दिया। परिणाम भाजपा ने 122 विधानसभा सीटों पर विजय पाई जबकि शिवसना 63 में सिमट गई। उसके बाद स्थानीय निकाय चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन शिवसेना से बेहतर रहा। शिवसेना अपनी स्थिति को मान ले तो शायद शांति से वह भाजपा के साथ मिलकर गठबंधन के नाते बेहतर एकजुट रणनीति बना सकती है। किंतु प्रदेश में बड़ा भाई बने रहने की उसकी सोच ऐसा होने के मार्ग की बाधा है। बालासाहब की अपनी छवि थी, जो उन्होंने परिस्थितियों के अनुरुप मुखर बयानों, सही रणनीतियों तथा कर्मों से बनाई थी। भाजपा भी उनका सम्मान करती थी। उन्होंने गठबंधन होने के बाद उद्धव और उनके साथियों की तरह कभी भाजपा पर प्रहार नहीं किया। अटलबिहारी वाजपेयी एवं लालकृष्ण आडवाणी से उनके व्यक्तिगत रिश्ते थे। संध के अधिकारियों से भी वे संपर्क में रहते थे। उद्वव ऐसा नहीं कर पा रहे हैं और अपनी अलग पहचान बनाने की अकुलाहट में प्रदेश एवं केन्द्र सरकार में होते हुए भी वे एवं उनके लोग विपक्ष की तरह आक्रामक बयान दे रहे हैं।

उनके अयोध्या आगमन को इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में देखना होगा। श्रीराम मंदिर निर्माण की इच्छा उद्धव के अंदर होगी, लेकिन यह यात्रा राजनीतिक उद्देश्य से किया गया था। अयोध्या का मामला संघ, संत समिति एवं विश्व हिन्दू परिषद के कारण फिर चरम पर पहुंच गया है। उद्धव को लगा है कि प्रखर हिन्दुत्व नेता की पहचान तथा पार्टी के निश्चित विचारधारा का संदेश देने के लिए यह सबसे उपयुक्त अवसर है। इसमें रास्ता यही है कि भाजपा को राममंदिर पर कठघरे में खड़ा करो और स्वयं को इसके लिए पूर्ण समर्पित। यही उन्होंने अयोध्या में किया। उन्होंने कहा कि भाजपा चुनाव के समय राम-राम करती है और चुनाव के बाद आराम। उसके बाद वे और तल्ख हुए। कह दिया कि भाजपा रामलला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे को पूरा करे या लोगों को कह दे कि यह भी एक चुनावी जुमला था। उन्होंने बार-बार अयोध्या आने का ऐलान किया। देखना होगा कि आगे वे आते हैं या नहीं। किंतु साफ है कि जब तक सरकार कोई कदम नहीं उठाती वो इसी तरह आक्रामकता प्रदर्शित करते रहेंगे। किंतु उद्धव भूल गए कि भाजपा की तरह वे भी कठघरे में है। यह सवाल उन पर भी उठेगा कि इतने दिनों तक उन्हें श्रीराम मंदिर निर्माण की याद क्यों नहीं आई? उनके सांसद संयज राउत दावा कर रहे थे कि रामभक्तों ने 17 मिनट 18 मिनटा या आधा घंटा में काम तमाम कर दिया। उस समय शिवसेना आंदोलन में कहां थी? यह सफेद झूठ है कि शिवसैनिकों ने बाबरी ध्वस्त किया। वो उन शिवसैनिकों को सामने लाएं। जितनी छानबीन हुई उसमें शिवसैनिको का नाम कहीं नहीं आया। भाजपा 1992 तक तो आंदोलन में समर्पण से लगी थी। 1998 तक घोषणा पत्र के आरंभ में इसे शामिल करती थी। शिवेसना ने कभी ऐसा नहीं किया। यदि उद्धव में श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर इतनी ही उत्कंठा थी तो उनको उच्चतम न्यायालय में अपने वकील खड़ाकर त्वरित और प्रतिदिन सुनवाई की अपील करनी चाहिए थी। वे प्रधानमंत्री से मिल सकते थे। अपने लोगों को मस्जिद पक्षकारों से बात करने के लिए नियुक्त कर सकते थे। इनमें से कुछ भी उन्होंने नहीं किया। जनता पूरी भूमिका का मूल्यांकन करेगी। अयोध्या आकर पूजा, आरती की औपचारिकता तथा मंदिर के लिए अध्यादेश की माग एवं प्रधानमंत्री की निंदा से वे बालासाहब की तरह महाराष्टृर में हिन्दू ह्रदय सम्राट की छवि नहीं पा सकते।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्पलेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208 

 

 

 

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

पंजाब में आतंकवादी हमला बड़े खतरे का संकेत

 

अवधेश कुमार

यह निस्संदेह राहत की बात है कि पंजाब पुलिस ने अमृतसर के निरंकारी भवन पर हमला करने वालों को गिरफ्तार कर लिया है।  गिरफ्तार आतंकवादी का संबंध खालिस्तान लिबरेशन फोर्स से है। उसे पाकिस्तानी एजंेंसी आईएसआई से समर्थन मिला था। दोनों हमलावर प्रशिक्षित नहीं थे। पाकिस्तान में किसी हैप्पी से ग्रेनेड मिलने की बात उसने कबूली है। यह हैप्पी पाक स्थित केएलएफ का प्रमुख हरमीत सिंह हैप्पी ही है, जो आरएसएस नेताओं तथा कार्यकर्ताओं और ईसाई पादरी की हत्या के लिये रची गई साजिश का भी मास्टरमाइंड है। पंजाब पुलिस ने इससे पहले पांच ऐसे हथगोले, एके 47 राइफल सहित हथियार बरामद किये, जिन्हें सीमा पार से भेजा गया था। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जिस दृढ़ता से आतंकवादियों को परास्त करने तथा सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने का ऐलान किया है वह स्वागतयोग्य है। किंतु आरंभ में उनकी पुलिस ने जिस तरह के बयान दिए उससे निराशा हुई थी। वस्तुतः जिनने 1980 के दशक में पंजाब के भयावह आतंकवाद के दृश्य देखें हैं उनका दिल निश्चय ही अमृतसर जिले के राजासांसी क्षेत्र के अदलीवाल गांव के निरंकारी भवन पर हुए हमले से दहल गया होगा। रविवार को निरंकारी भवनों हर जगह अनुयायी एकत्रित होते हैं ओर सत्संग चलता है। सत्संग के बीच बाइक सवार दो युवक आएं और मंच के पास बम चलाकर भाग जाएं तो साफ है कि वो निरंकारी के लोगों की हत्या करना चाहते थे।

भले ये प्रशिक्षित आतंकवादी नहीं थे, पर 1980 के दशक में खालिस्तानी आतंकवादी ऐसे ही बाइकों पर नकाबपोश के रुप में आकर हमले करते थे। इसलिए यह तरीका भी भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है। पंजाब पुलिस अपने बचाव में जो भी तर्क दे लेकिन यह स्थान अमृतसर शहर से केवल सात किलोमीटर की दूरी पर है। इसे दूरस्थ गांव नहीं माना जा सकता। पंजाब पुलिस का अधिकृत बयान था कि उनके पास किसी भी संभावित खतरे को लेकर कोई इनपुट नहीं था। निरंकारी समाज को लेकर किसी भी तरह का मुद्दा नहीं था और न ही ऐसा कोई इनपुट पुलिस के पास था। क्या पुलिस के पास ऐसी सूचना होगी कि फलां संस्थान और फलां जगह हमला होगा तभी उसे सटीक इनपुट माना जाएगा? धार्मिक स्थलों पर हमले का इनपुट तो था। कुछ ही दिनों पहले थलसेना प्रमुख जनरल विपीन रावत ने कहा था कि पंजाब में आतंकवादी शक्तियां फिर से सिर उठा रहंी हैं और तुरत कार्रवाई नहीं की गई तो हमारे लिए कठिनाइयां बढ़ जाएंगी।

जाहिर है, पंजाब पुलिस ज्ञात तथ्य को छिपाने का प्रयास कर रही थी। हमले के तीन दिनों पहले ही खबर आई थी कि खुफिया एजेंसियों ने दिल्ली पुलिस को इनपुट भेजा है कि कश्मीर का खूंखार आतंकी जाकिर मूसा अपने साथियों के साथ पंजाब के रास्ते दिल्ली या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पनाह ले सकता है। इनपुट में कहा गया था कि जैश-ए-मोहम्मद के 6 से 7 आतंकवादी हमले की साजिश रच रहे हैं। सीमा पार से छह-सात आतंकवादियों के पंजाब में घुसने की खबर थी। जाकिर मूसा के अमृतसर में देखे जाने की खबर आई थी। खुफिया ब्यूरो को इनपुट मिला कि जाकिर मूसा गिरोह के सात आतंकवादी फिरोजपुर आए थे। पठानकोट जिले के माधोपुर के नजदीक ड्राइवर की हत्या कर एसयूवी कार छीनने वाले चार लोग भी अभी तक फरार है। पंजाब पुलिस के हवाले से ही यह बताया गया था कि ये चार आतंकवादी आतंकी मंसूबों को अंजाम देने की खातिर पंजाब में घुसे हैं। ये चारों संदिग्ध जम्मू रेलवे स्टेशन के सीसीटीवी फुटेज में भी नजर आए थे। दिल्ली से सुरक्षा एजेंसियों ने पांच और संदिग्ध आतंकवादियों की तस्वीरें पंजाब के पुलिस महानिदेशक सुरेश अरोड़ा को मेल की गई थीं। इनका हमले में हाथ नहीं है लेकिन इन सब सूचनाओं के बाद पिछले कई दिनों से पंजाब में हाईअलर्ट तो था।

पिछले 1 नवंबर को पटियाला में शबनमदीप सिंह नामक खालिस्तानी आतंकवादी गिरफ्तार हुआ था। इसने कहा था कि दीपावली से पूर्व हमले की योजना है। इसने बस स्टैंड जैसे भीड़ वाले इलाके में विस्फोट की योजना की बात बताई थी। इसके बाद आखिर पुलिस को क्या इनपुट चाहिए था? जालंघर में ही एक कश्मरी युवक ग्रेनेड के साथ पकड़ा गया था। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर पुलिस के साथ पंजाब पुलिस ने हाल ही में पंजाब के संस्थानों में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों के दो गिरोहों का पर्दाफाश किया था, जिनके संबंध कश्मीरी आतंकवादी संगठनों से थे। यह खबर भी लंबे समय से थी कि लंदन से कनाडा तक के खलिस्तान समर्थक पंजाब मंे फिर से हिंसा और अशांति की स्थिति पैदा करने के लिए सक्रिय हैं तथा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अपने स्तर पर काम कर रही है। 18 महीनों में स्वयं पंजाब पुलिस ने 15 से ज्यादा आतंकवादी मॉड्यूल को नष्ट करने का दावा किया है। अगर आपने 15 मॉड्यल पकड़े तो निश्चय ही ऐसे अनेक मॉड्यूल छिपे हुए होगे। आंकवादियों ने कैप्टन अमरींदर सिंह एवं सेना प्रमुख जनरल रावत को जान से मारने की धमकी दिया हुआ है। इन सबके बाद कैसा इनपुट चाहिए यह समझ से परे है। 12 अगस्त को लंदन के सिख्ख फार जस्टिस के बैनर से 2020 सिख जनमत संग्रह रैली निकाली गई। इसमें खालिस्तानी उग्रवादी समूहों के बचे आतंकवादियों को संदेश निहित था कि आप सक्रिय हो, आपके साथ बड़ा समुदाय खड़ा है। यह अलग बात है कि इनसे बड़ी संख्या में सिख्खों ने ही लंदन में इनके विरोध मेें रैली निकालकर करारा जवाब दे दिया। किंतु इससे इन दुष्ट समूहों की सक्रियता का पता तो चल ही गया। 

इसलिए ऐसे हमले की आशंका नहीं होने के किस बयान को स्वीकार नहीं किया जा सकता। पंजाब में अशांति पैदा करने वाले भारत विरोधी खालिस्तानी समूह भाड़े के हत्यारों से बीच-बीच में अलग-अलग संगठनों की हत्यायें करवा रहे थे। आरएसएस और शिवसेना के नेताओं की हत्या का उद्देश्य यह था कि इससे हिन्दू गुस्से में सिखों से लड़ने लगंे और प्रदेश सांप्रदायिक दंगांें की चपेट में आ जाए। ठीक यही दृष्टिकोण निरंकारी अनुयायियों पर हुए हमले में भी देखा जा सकता है। निरंकारी मिशन एक बड़ा समूह है। बाबा बूटा सिंह द्वारा 1929 में स्थापित संत निरंकारी मिशन के दुनिया भर में एक करोड़ से ज्यादा अनुयायी माने जाते हैं। ठीक सत्संग के समय हमला करने का सीधा उद्देश्य यही हो सकता है कि ये गुस्से में ंिहंसा आरंभ कर दें। संत निरंकारी मिशन स्वयं को न तो कोई नया धर्म मानते हैं और न ही किसी मौजूदा धर्म का हिस्सा, बल्कि वे मानव कल्याण के लिए समर्पित एक आध्यात्मिक आंदोलन के रुप में स्वयं को देखते हैं। स्थापना के समय से ही सिख समुदाय का एक वर्ग इसका विरोध करता रहा है। वे इसे सिख विरोधी धर्म कहते हैं। 40 वर्ष पूर्व 13 अप्रैल 1978 को वैसाखी के दिन अमृतसर में निरंकारी भवन पर हुए हमले के बाद पंजाब हिंसा की चपेट में आ गया था और भिंडरावाले एक वर्ग में लोकप्रिय हुआ। हमले के बाद अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ जिसमें 13 अकाली कार्यकर्ता मारे गए थे। इसके विरोध में रोष दिवस मनाया गया। जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने इसको उग्र रुप दिया और उसके बाद क्या हुआ हम सब जानते हैं। पंजाब के आतंकवाद पर काम करने वाले कई विद्वान मानते हैं कि अगर वह हमला न हुआ होता तो भिंडरावाले और उसके साथी एक वर्ग के हीरो बनकर नहीं उभरते एवं उस प्रकार के भयावह चरमपंथ का आविर्भाव नहीं होता।

तो पंजाब को हिंसा की आग में झोंकने के हाल के वर्षों के सारे प्रयासों, आतंकवादियों से संबंधित इनपुट, गिरफतारियां, आतंकवादी मॉड्यूल को विफल करने तथा अंततः निरंकारी मिशन के सत्संग पर हमले के बाद यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि पंजाब को ठीक 1980 के दशक के भयावह दौर में ले जाने की साजिशें रची जा चुकीं हैं। हमले का स्थान और समय बताता है कि निरंकारी मिशन पर हमला बिल्कुल सुनियोजित साजिश का हिस्सा है। भारत विरोधी समूह निश्चय ही इससे 1978 दुहराने की उम्मीद कर रहे होंगे। लेकिन पंजाब के लोगों ने हिंसक संघर्ष का जो दंश झेला है उसमें वे दोबारा किसी सूरत में नहीं फंसेंगे। निरंकारी अनुयायियों ने जिस तरह का धैर्य दिखाया है, उनके प्रवक्ताओं ने जैसा संतुलित बयान दिया है उससे इनकी साजिश विफल हो चुकी है। किंतु ये आगे भी  हमले की कोशिश और भाड़े के हत्यारों से हत्यायें करवायेंगे। उम्मीद है पुलिस आगे कोई बहाना तलाशने की जगह ऐसे साजिशों को समयपूर्व नष्ट करने में सफल होगी। राज्य को केन्द्र तथा दूसरे राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों के साथ सतत् समन्वय बनाकर अलगाववादी हिंसा को सिर उठाने के पहले ही कुचलने की हरसंभव कार्रवाई करनी चाहिए। जरुरत हो तो केन्द्र सरकार पंजाब और पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों, गृह सचिवों, पुलिस प्रमुखों सहित अन्य सुरक्षा बलों के प्रमुखों के साथ खुफिया एजेंसियों की बैठक बुलाकर आकलन करे तथा सुरक्षा ऑपरेशन की योजना बनाकर आगे बढ़ा जाए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पंाडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

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