शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

जीएसटी में बदलाव के मायने

 

अवधेश कुमार

जीएसटी में एक महीने 5 दिनों में स्लैब में दो बार व्यापक परिवर्तन सामान्य नहीं है। जाहिर है, सरकार को यह अहसास हुआ है कि 1 जुलाई को जीएसटी लागू करते समय चार श्रेणियों के करों में जिन-जिन वस्तुओं को रखा गया था उसमें काफी विसंगति थी जिसमें सुधार की आवश्यकता है। कुछ लोग इसे गुजरात चुनाव की मजबूरी भी मानते हैं। हो सकता है सरकार पर गुजरात चुनाव का भी दबाव हो, क्योंकि गुजरात व्यापारियों का प्रदेश है और वहां जीएसटी को लेकर असंतोष साफ देखा जा सकता है। किंतु दूरगामी और स्थायी परिवर्तन किसी एक चुनाव को ध्यान में रखकर नहीं किया जाना चाहिए। इसके पीछे वर्तमान एवं भविष्य के प्रति गहरी सोच तथा इसके पड़ने वाले प्रभावों का आकलन होना चाहिए। आखिर सारे परोक्ष कर समाप्त कर जीएसटी के रुप में चार श्रेणियों वाला एकरुप कर लाया गया है। अगर आपने एकदम से ज्यादा कर दिया तो लोगों को परेशानी होगी और दबाव में आवश्यकता से कम कर लगा दिया तो इससे देश और राज्यों को होने वाले राजस्व में कमी आएगी। ऐसे में देश को चलना कठिन हो जाएगा। हमें मानकर चलना चाहिए कि सरकार ने जीएसटी परिषद के साथ मिलकर तात्कालिकता की बजाय दूरगामी सोच से ऐसा निर्णय लिया गया होगा। असम के गुवाहाटी में जीएसटी परिषद की बैठक के बाद जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि 28 प्रतिशत कर के दायरे में आने वाले 178 सामानों पर कर कम करके उन्हें 18 प्रतिशत के दायरे में लाया गया है तो उसका आम तौर पर स्वागत हुआ। अब केवल 50 वस्तु ही ऐसे हैं जो 28 प्रतिशत के स्लैब मंें रह गए हैं। यह बात अलग है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि 28 प्रतिशत का स्लैब ही हटाना होगा और हम इसे 18 प्रतिशत तक लाएंगे।

कांग्रेस इसके लिए क्या करती है यह देखना होगा। किंतु यह साफ है कि वर्तमान बदलाव से कारोबारियों एवं उपभोक्ताओं दोनों को भारी राहत मिली है। जीएसटी परिषद ने कुल मिलाकर 213 वस्तुओं पर कर घटाने का फैसला किया। यह अब तक का सबसे बड़ा परिवर्तन है। यह घोषणा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि मंत्रिसमूह ने 165 वस्तुओं को ही 28 से 18 फीसदी में लाने की सिफारिश की थी, लेकिन परिषद ने 12 अन्य वस्तुओं पर टैक्स घटाने पर मुहर लगाई। अगर 28 प्रतिशत कर श्रेणी में से 178 सामनों को 18 प्रतिशत टैक्स स्लैब में लाया गया तो 13 को 18 प्रतिशत से 12 प्रतिशत के दायरे में, 6 को 18 प्रतिशत से 5 प्रतिशत में, 8 को 12 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तथा 6 को तोे 5 प्रतिशत से 0 की श्रेणी मंे ले आया गया। वास्तव में जिस तरह व्यापारियों के प्रतिनिधियों ने अपनी मांगें सरकार के समक्ष रखी थी उसे ध्यान में रखकर एकबारगी ही व्यापक फैसला किया गया है।

जरा यह भी देखें कि ऐसे कौन-कौन से सामान व सेवाएं हैं जिन्हें 28 प्रतिशत से 18 प्रतिशत या अन्य छोटे कर स्लैबों में लाया गया है। इससे साफ हो जाएगा कि आखिर जीएसटी परिषद का लक्ष्य क्या था। 28 से 18 प्रतिशत के दायरे में आने वाली सामग्रियां हैं, फर्नीचर, बिजली के सामान, बक्से, बैग, टॉयलेट क्लीनर, लैंप, पंखा, पंप, कुकर, स्टोव सूटकेस, डिटर्जेंट, सौंदर्य उत्पाद, शेविंग-ऑफ्टर शेविंग उत्पाद, शू पॉलिश,न्यूट्रिशन पाउडर, डियोड्रेंट, चॉकलेट, च्यूइंगगम, कॉफी, कस्टर्ड पाउडर, डेंटल हाईजीन प्रोडक्ट, पॉलिश और क्रीम, सैनेटरी वेयर्स, लेदर क्लोदिंग, कटलरी, स्टोरेज वाटर हीटर, बैट्री, चश्मे, कलाई घड़ी, मैट्रेस, न्यूट्रिशन पाउडर, प्लाईवुड, मशीनरी, मेडिकल उपकरण, फ्लोरिंग आदि। निर्माण क्षेत्र में इस्तेमाल वाले ग्रेनाइट, फ्लोरिंग और मार्बल पर भी कर 28 से 18 प्रतिशत कर दिया गया है। पत्थर तोड़ने वाले स्टोन क्रशर, टैंक व अन्य युद्धक वाहनों, कंडेंश्ड मिल्क, शुगर क्यूब्स, पास्ता, डायबिटिक फूड, छपाई स्याही, हैंड बैग, शॉपिंग बैग, कृषि में इस्तेमाल कुछ मशीनें, सिलाई मशीनें, बांस से बने फर्नीचर आदि को 28 प्रतिशत से 12 प्रतिशत के दायरे में लाया गया है। इसी तरह तिल रेवड़ी, खाजा, चटनी पाउडर, फ्लाई ऐश आदि को 18 प्रतिशत से 12 प्रतिशत में रखा गया है। सूखा नारियल, इडली, दोसा, मछली पकड़ने का जाल और हुक, तैयार चमड़े, फ्लाई ऐश से बनी ईंट को 12 प्रतिशत से 5 प्रतिशत था तथा ग्वार के खाद्य पदार्थ, स्वीट पोटैटो सहित कुछ सूखी सब्जियां, फ्रोजेन या सूखी मछली, खांडसारी सुगर आदि को कर रहित बना दिया गया हैं 

हालांकि इसमें अभी बहस की गुंजाश है कि क्या इनमंे सारी वस्तुएं ऐसी हैं जिन पर कर को ज्यादा घटाने की आवश्यकता है किंतु इनमें ज्यादातर ऐसी सामग्रियां हैं जिनका इस्तेमाल हमको आपको सबको करना पड़ता है। अधिकतम कर स्लैब में अब पान मसाला, सॉफ्ट ड्रिंक, तंबाकू, सिगरेट समेत सिर्फ 50 वस्तुएं ही रहेंगी। सीमेंट, पेंट और एयर कंडीशनर, परफ्यूम, वैक्यूम क्लीनर, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, परफ्यूम, एसी,, वॉशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, वैक्यूम क्लीनर,कार, दोपहिया वाहन और विमान भी इस दायरे होंगे। इसके बाद सामान्यतः जीएसटी की दर से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस अगर 28 प्रतिशत दर को खत्म करना चाहती है तो उसे इसके लिए अन्य दलों का समर्थन जुटाना होगा। जो लोग रेस्तराओं में खाना खाते हैं उनको अब कम दर देना होगा। जीएसटी परिषद ने रेस्तरां में सेवा कर  की दरों को 18 से घटाकर 5 फीसदी करने का फैसला किया गया है। हालांकि पंच तारा होटलों को इस पर छूट नहीं दी गई है। अब से देश में सभी एसी और नॉन एसी रेस्टोरेंट पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाया जाएगा। पहले नॉन एसी रेस्टोरेंट में खाने के बिल पर 12 प्रतिशत तथा एसी रेस्टोरेंट में 18 प्रतिशत जीएसटी लगता था। इसके बाद रेस्तराओं में खाने पर हमारी जेबें कम हल्की होंगी। किंतु पंच तारा रेस्तराओं में जिस श्रेणी के लोग जाते हैं उनके लिए थोड़े-मोड़े करों का कोई मायने नहीं है। इसलिए इस फैसले को उचित ठहराना होगा। ध्यान रखिए तारा होटलों के वे रेस्टोरेंट जो हर दिन एक कमरे का 7500 रुपए या उससे ज्यादा वसूलते हैं, उन पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगेगा और इन्हें इनपुट टैक्स क्रेडिट का फायदा भी मिलेगा। लेकिन वो रेस्टोरेंट जो 7,500 से कम किराया वसूलते हैं उन पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाया जाएगा और उन्हें इनपुट टैक्स क्रेडिट का फायदा नहीं मिलेगा।

इन सारे बदलावों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकार ने समय-समय पर जीएसटी की समीक्षा करने का जो वायदा किया था उसका पालन किया जा रहा है। हो सकता है इसके पीछे राजनीतिक मजबूरी हो। इसका एक पक्ष यह भी है कि 1 जुलाई को जब जीएसटी लागू किया गया उसके पूर्व जितनी गहराई से एक-एक वस्तु एवं सेवा पर कितना कर उचित होगा इसका आकलन नहीं किया गया था। यदि ऐसा किया गया होता तो इतनी जल्दी इतने व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिए कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि जीएसटी भी बिना सम्पूर्ण और व्यापक विचार-विमर्श के लाया गया था। सरकार भले इससे सहमत नहीं है। वह कहती है कि लगातार लोगों से मिल रहे फीडबैक के आधार पर फैसला किया जा रहा है जो आगे भी जारी रहेगी। किंतु इतने व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता इसकी पूर्ण तैयारी या विचार विमर्श का प्रमाण तो नहीं ही देता है। हालांकि यह सच है कि जीएसटी के दरों की लगातार समीक्षा हो रही है। इनकी समीक्षा के लिए ही जीएसटी परिषद बनाई गई है। इसमें केंद्र और राज्य, दोनों के प्रतिनिधि शामिल हैं। वर्तमान फैसला परिषद की गुवाहाटी की  23वीं बैठक मेें हुआ। इसमें केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और 24 राज्यों के वित्त मंत्री और जीएसटी के प्रभारी मंत्रियों ने हिस्सा लिया। इसमें व्यापक चर्चा के बाद ये सारे निर्णय लिए गए। कोई पार्टी जो भी आरोप लगाए लेकिन यह सच देश को जानना आवश्यक है कि जीएसटी परिषद मे ंसारे फैसले सर्वसम्मति से होते हैं। कोई एक राज्य का वित्त मंत्री भी विरोध कर दे तो वह फैसला लागू नहीं होगा। इसलिए जो कुछ पहले हुआ उसमें भी सरकार के साथ उन सारे दलो की भूमिका थी जो बाहर आलोचना कर रहे थे और आज भी जो हुआ है उसमें भी सबकी सहमति है। इसलिए यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि केवल सरकार ऐसा कर रही है। जो भी हो जीएसटी देश के लिए दूरगामी दृष्टि से अच्छा कदम है। इससे करों की जटिलताएं कम हो रहीं हैं। इसका सफल होना आवश्यक है। किंतु ऐसा न हो कि दबाव में कर इतना कम कर दिया जाए कि देश को चलाने के लिए राजस्व की ही कमी हो जाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

शनिवार, 11 नवंबर 2017

जंतर-मंतर से धरना प्रदर्शनों का हटाया जाना कई प्रश्न खड़े करता है

 

अवधेश कुमार

जंतर-मंतर का पूरा नजारा बदल गया है। वर्षों से जहां चारो ओर आंदोलनकारियों के बैनरों-पोस्टरों तथा तरह-तरह के तंबुओं की भरमार होती थी वहां अब करीने से सजाए गए फूल भरे गमले दिख रहे हैं। हर दिन की चहल-पहल और जन समूह गायब है। दिल्ली पुलिस के पास राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के आदेश को अमल करने की जिम्मेवारी थी और उसने वही किया। अपनी-अपनी मांगों और शिकायतों को लेकर वहां बैठे लोग अपने-आप तो हटने वाले नहीं थे, इसलिए पुलिस ने अपने स्वभाव के अनुरुप जितना संभव था बल प्रयोग किया। सबसे ज्यादा समस्या पूर्व सैनिकों के साथ पैदा हुआ। वे वन रैंक वन पेंशन में अपनी बची हुई मांगों को लेकर वहां लंबे समय से धरने पर बैठे थे। पुलिस ने जिस तरह का बल प्रयोग किया उससे फिर यह साबित हो गया कि हमारी पुलिस को अभी भी संवेदनशील मामलों से निपटने के तौर-तरीके सीखने की जरुरत है। बिना बल प्रयोग किए भी मामले से निपटा जा सकता है। कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह इस भावना से जंतर-मंतर पर आया है कि उनके साथ जो अन्याय हुआ है उसे यहां से सरकार तक पहुंचाया जा सकता है और उसे वहां से हटने के लिए कहा जाए तो उस पर क्या गुजरेगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

वैसे तो जब 5 अक्टूबर को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने जंतर-मंतर से धरना-प्रदर्शन बंद करने का आदेश दिया उसी दिन यह तय हो गया था कि करीब ढाई दशकों से देश भर के आंदोलनकारियों या सरकारों के किसी निर्णय से असंतुष्ट या अन्याय के शिकार लोगों को अपनी आवाज उठाने का गवाह बना जंतर मंतर इन मामलों में इतिहास बन सकता है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में कुछ लोग मामला लेकर गए थे कि वहां होने वाली आवाज से प्रदूषण फैलता है तथा उनके शांति से रहने एवं सोने के अधिकार का हनन होता है। प्राधिकरण ने  इस याचिका पर फैसला देते हुए एक साथ दिल्ली सरकार, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस को आदेश दिया कि धरना-प्रदर्शन के लिए लगाए गए लाउड स्पीकर्स को फौरन जंतर-मंतर मार्ग से हटाए। साथ ही सभी तरह के धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, सभा, जनसभा और रैली पर रोक लगाए। जंतर-मंतर रोड पर धरने पर बैठे सभी प्रदर्शनकारियों को तत्काल हटाकर रामलीला मैदान में शिफ्ट किया जाए। इसके अनुसार इस इलाके में लगातार प्रदर्शनों और इनमें इस्तेमाल हो रहे लाउड स्पीकर्स से ध्वनि प्रदूषण फैल रहा है। इस इलाके के लोगों को भी शांति से जीने का हक है। वो भी चाहते हैं कि उनका घर ऐसी जगह हो, जहां वातावरण प्रदूषण मुक्त हो।

इन्हें पांच सप्ताह का वक्त दिया गया था। इस बीच न किसी ने पुनर्विचार याचिका दायर की और न ही इस आदेश के विरुद्ध कोई न्यायालय गया। इसमें आदेश पालन होना ही था। किंतु इसने एक साथ कई प्रश्न हमारे सामने उपस्थित किए हैं। लोकतंत्र में अपनी मांगों को लेकर अहिंसक तरीके से कानून के दायरे में धरना-प्रदर्शन हमारा अधिकार है। अगर यह अधिकार है तो इसका पालन हो एवं इसकी रक्षा हो इसका दायित्व भी सरकारी एजेंसियों को है। यानी यह उनकी जिम्मेवारी है कि अपने इस अधिकार का प्रयोग लोग कर सकें इसके लिए उन्हें समुचित जगह और अवसर उपलब्ध कराए। दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश में इसके लिए सरकारें व्यवस्था करती है। देश का केन्द्र दिल्ली है तो लोग अपनी मांगें और शिकायतें लेकर ज्यादा संख्या में यहां पहुंचेंगे। एक समय था जब दिल्ली के वोट क्लब पर ऐसे सारे आंदोलन होेते थे। वहां से केन्द्र सरकार के कार्यालय एवं संसद भवन दोनों पास थे। सत्ताधारी नेतागण और सरकारी अधिकारियों को यहां की गतिविधियां सीधे दिखाई पड़तीं थीं। उनकी आवाजें भी कई बार उनकी कानांे तक यूं ही पहुंच जाती थी। अचानक 1993 मंें उस स्थान को धरना-प्रदर्शन के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। उसकी जगह जंतर-मंतर से लगे सड़क के फुटपाथ को इसके लिए अधिकृत किया गया।

उस निर्णय का भी काफी विरोध हुआ, लोगांें ने जबरन वहां धरने देने की कोशिश की और गिरफ्तारियां दीं लेकिन उनकी शक्ति इतनी नहीं थी कि उस निर्णय को बदलवाया जा सके। जंतर-मंतर के मामले में तो ऐसा भी नहीं हो रहा है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के आदेश को उद्धृत करते हुए दिल्ली सरकार या केन्द्र सरकार कह सकती है कि उसके पास कोई चारा ही नहीं है। किंतु इसके साथ यह भी सच है कि सरकारों ने जंतर-मंतर को धरनास्थल बनाए रखने के लिए प्राधिकरण में ठीक से कानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ी। दिल्ली सरकार तो जंतर-मंतर के आंदोलन की पैदाइश है। उसका तो ज्यादा भावनात्मक लगाव उस जगह से होना चाहिए था। उसे न केवल प्राधिकरण में जोरदार ढंग से लोगों के आंदोलन करने के अधिकारों का पक्ष रखना चाहिए था, बल्कि फैसले के विरुद्ध उपरी अदालत में जाना चाहिए था। ऐसा उसने नहीं किया तो इसे क्या कहा जाए? वस्तुतः सत्ता का चरित्र ऐसा ही होता है। कोई पार्टी नहीं होगी जिसने कभी न कभी जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन नहीं किया होगा, किंतु किसी ने एक शब्द इस आदेश पर नहीं बोला तो इसका क्या कारण हो सकता है?

इसका कारण सत्ता के चरित्र में निहित है। हमने बड़े से बड़े क्रांतिकारी व्यक्ति को सत्ता में जाने के साथ सत्तावादी होते देखा है। सत्ता की मानसिकता सामान्यतः आंदोलनों, धरना-प्रदर्शनों को अपने शासन में बाधा मानने की होती है। चंूकि आप कानूनन सामान्यतः उसे प्रतिबंधित नहीं कर सकते, इसलिए आप कोई एक जगह उसके लिए आवंटित कर देेते हैं तथा एक मशीनरी बन जाती है। आपको पुलिस वाले संबंधित विभाग ले जाएंगे जहां आपका मांग पत्र ले लिया जाएगा। यह बड़ा अजीबोगरीब है कि ज्यादातर आंदोलन सरकारों के खिलाफ होता है और वही यह तय करती है कि आप कहां, कैसे और कितनी देर तक आंदोलन करें तथा कहां अपनी मांग पत्र दें। यही व्यवस्था है और इसी के साथ हमें आपको काम करना है। लेकिन इस व्यवस्था को भी स्थिर और सम्माजनक ढंग से संचालित करना मुश्किल हो रहा है। सत्ता के अलावा भी देश में एक ऐसा सुखी संपन्न वर्ग है जो आंदोलन की गतिविधियों को हेय दृष्टि से देखता है, उसके प्रति वितृष्णा रखता है। आखिर जो लोग याचिका लेकर हरित प्राधिकरण गए उनके साथ भी तो कभी अन्याय हुआ होगा या कई ऐसी मांगों के लिए जंतर-मंतर पर आंदोलन हुए होंगे जो उनकी जिन्दगी से जुड़ते होंगे। किंतु यही आंदोलन उनकी नजर में खलनायक बन गया।

तो तत्काल जंतर-मंतर के आंदोलन स्थल को इतिहास बना दिया गया है। लेकिन आंदोलन जहां होंगे, धरना-प्रदर्शन जहां होगा वहां लाउडस्पीकर होंगे और उससे निकलने वाली आवाज से ध्वनि प्रदूषण होगा। यह तो नहीं हो सकता कि ध्वनि प्रदूषण जंतर-मंतर पर होगा और रामलीला मैदान में नहीं होगा। वहां के लोगों को भी शांति के साथ जीने और नींद लेने का अधिकार है। कोई कल इसी तर्क के साथ उस जगह का विरोध करते हुए हरित प्राधिकरण चला जाएगा तो क्या होगा? साफ है कि इस फैसले के विरुद्ध सशक्त कानूनी संघर्ष की आवश्यकता है। हरित प्राधिकरण में भी फिर से अपील की जा सकती है। यदि वहां से राहत नहीं मिलती है तो फिर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। सच्चे लोकतंत्र में तो असंतोष अभिव्यक्त करने या अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए ऐसे महत्वपूर्ण जगह का आवंटन होना चाहिए जहां से सत्ता तक उनकी गूंज आसानी से पहुंच सके। इससे सत्ता को भी अपनी गलतियों को सुधारने तथा लोगांे के असंतोष कम करने का मौका मिलता है। दुर्भाग्य से इस दिशा में सरकारों की सोच जाती ही नहीं। इसे सम्पूर्ण व्यवस्था में विजातीय द्रव्य की तरह मान लिया गया और उसी अनुसार व्यवहार भी होता है। इस सोच में भी बदलाव की आवश्यकता है। अगर आप शांतिपूर्वक धरना-प्रदर्श्रन के लिए उचित जगह और माहौल मुहैया नहीं कराएंगे तो फिर असंतुष्ट लोग हिंसा का वरण करेंगे, जैसा हमने हाल के वर्षों में भी देखा है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

क्या अल्पेश, जिग्नेश एवं हार्दिक के सहारे कांग्रेस भाजपा राज खत्म कर देगी

 

अवधेश कुमार

विधानसभा चुनाव से पहले गुजरात की राजनीति काफी रोचक हो रही है। सतह पर ऐसा लग रहा है जैसे कांग्रेस में नई जान आ गई हो। एक साथ ओबीसी एकता मंच के नेता अल्पेश ठाकोर के कांग्रेस में शामिल होने, दलितों के नेता माने जाने वाले जिग्नेश मेवानी तथा पाटीदार आंदोलन अनामत समिति के संयोजक हार्दिक पटेल द्वारा कांग्रेस को समर्थन देने एवं चुनाव में भाजपा को पराजित करने के लिए काम करने की घोषणा को गुजरात की चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ के रुप मंें देखा जा रहा है। यह बात ठीक है कि हार्दिक पटेल ने कांगेस द्वारा चुनाव लड़ने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, लेकिन वे भाजपा के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं और करेंगे। गुजरात में भाजपा के विरुद्ध प्रचार का मतलब है, कांग्रेस का समर्थन। एक सामान्य निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि अगर पिछड़ों, दलितों तथा पाटिदारों यानी पटेलों का एक बड़ा वर्ग इनके प्रयासों से कांग्रेस के साथ आ गया तो फिर भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है। तीनों के साथ थोड़ा-बहुत जन समूह तो होगा ही। कांग्रेस उनको भी अपने साथ आने की आशा कर रही है। लेकिन क्या यह इतना ही आसान है जितना बताया या समझा जा रहा है?

इसमें दो राय नहीं कि इन तीनों युवा नेताओं का कांग्रेस के साथ खड़ा होना निराश कांग्रेस में उम्मीद लेकर आई है। कुछ महीने पहले तक जिस कांग्रेस को तलाक देने वालोें का जिले-जिले में तांता लग गया था उस कांग्रेस की ओर ऐसे लोगों के आने का संदेश यह निकलता है कि शायद जनता का झुकाव धीरे-धीरे उसकी ओर हो रहा है। आम आदमी पार्टी के अनेक नेता-कार्यकर्ता भी कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। चुनावों में पार्टियों के निश्चित मतदाताओं को छोड़ दे ंतो शेष के लिए ऐसे संदेशों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। इन तीनों युवाओं ने पिछड़ों, दलितों और पाटीदारों के एक वर्ग को प्रभावित किया भी है। गुजरात की आबादी में ओबीसी की 146 जातियों का हिस्सा 51 प्रतिशत के करीब है। यह बहुत बड़ी आबादी है। कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 182 में से 110 सीटों तक इतना प्रभाव विस्तार है। 60 सीटों पर इनकी भूमिका निर्णायक है यह सही है। गुजरात में पाटीदार और दलित समुदाय की आबादी 25 प्रतिशत है। कांग्रेस मानती है कि आदिवासी समुदाय के बीच उसका जनाधार पहले से है। गुजरात आम तौर पर व्यापार बहुल राज्य माना जाता रहा है। गुजरात मंें छोटे यानी मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग व्यापारियों की संख्या काफी ज्यादा है। ये सब मोटे तौर पर लंबे समय से भाजपा को वोट करते आ रहे थे। पहले नोटबंदी और उसके परिणामों से पूरी तरह निकले बगैर जीएसटी लागू करने से उनके अंदर असंतोष है जो साफ दिख रहा है। कांग्रेस इसका भी लाभ उठाना चाहती है तथा वह नोटबंदी एवं जीएसटी को जमकर कोस रही है। राहुल गांधी अपने हर भाषण में इसका विस्तार से जिक्र करते हैं। इसी तरह पटेल समुदाय भी भाजपा का बड़ा वोट बैंक रहा है। अगर आरक्षण की मांग के प्रति उनके एक वर्ग मंें भी आक्रोश है तो फिर कांग्रेस इसका लाभ पाने की सोच सकती है। हार्दिक के माध्यम से कांग्रेस उसमें सेंध लगाने का हर संभव प्रयास कर भी रही है।

इस तरह ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने जातिगत समीकरणों से भाजपा को घेरने की पूरी बिसात बिछा दी है। किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है। ऐसा नहीं है कि भाजपा को इस स्थिति का आभास नहीं था। वास्तव में इन तीनों का कांग्रेस की ओर झुकाव और भाजपा विरोधी तेवर लंबे समय से है। ये तीनों भाजपा सरकार के खिलाफ अभियान पहले से चला रहे हैं। हार्दिक के बारे में पूरा देश जानता है। अल्पेश ठाकोर ने भी पिछले साल जनवरी में सरकार के विरुद्ध गांधीनगर में एक बड़ी रैली की थी। अल्पेश ठाकोर की पृष्ठभूमि कांग्रेस की है। उनके पिताजी कांग्रेस में हैं। इसलिए राजनीति में उनका स्वाभाविक ठिकाना कांग्रेस ही होना था। भाजपा के अंदर इस बात की चर्चा पहले से थी कि ये चुनाव में उसके खिलाफ जाएंगे। इसलिए वह इनके खिलाफ रणनीति पर पहले से काम कर रही थी। आखिर जिस दिन गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी ने हार्दिक पटेल को चुनाव लड़ने का निमंत्रण दिया उसी दिन पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति यानी पास के प्रवक्ता वरुण पटेल तथा प्रमुख महिला नेता रेशमा पटेल अपने 40 समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए। दोनों ने पत्रकारों से बातचीत में कांग्रेस पर चुनावी राजनीति के लिए पाटीदार आंदोलन का बेजा इस्तेमाल करने और पाटीदारों को वोट बैंक बनाने का प्रयास करने का आरोप लगाया। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा की ओर से उठाए गए कदमों से उन्हें विश्वास हो गया है कि यह पाटीदार समाज की समस्याओं को ईमानदारी से दूर करने का प्रयास कर रही है। रेशमा ने हार्दिक को कांग्रेस का एजेंट तक करार दिया और कहा कि पाटीदार आंदोलन हार्दिक का नहीं, बल्कि पूरे समाज का है। दोनों ने पाटीदार समुदाय से कांग्रेस के बहकावे में नहीं आने की अपील भी की। उन्होंने कहा कि पाटीदार आंदोलन भाजपा को सत्ता से उखाड़ने और कांग्रेस जैसी पूर्व में कुशासन देने वाली पार्टी की सरकार बनाने के लिए नहीं है।

भाजपा ने इसकी तैयारी उसी दिन से कर रखी थी जिस दिन हार्दिक ने राहुल गांधी के गुजरात आगमन का स्वागत किया। इसके बाद पूरे प्रदेश में हार्दिक पटेल के संगठन से लोगों को भाजपा में शामिल करने का अभियान आरंभ हो गया है। हार्दिक एक ओर भाजपा के खिलाफ प्रचार करेंगे तो ये लोग उनके खिलाफ। दूसरे, अल्पेश ठाकोर एवं जिग्नेश अभी इतने बड़े नेता नहीं हैं कि उनके कांग्रेस के समर्थन करने से पिछड़ी जातियों और दलितों का वोट भारी संख्या में आसानी से शिफ्ट हो जाएगा। तीसरे, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चाहे अल्पेश ठाकोर हों या जिग्नेश मेवानी दोनों पाटीदार आरक्षण आंदोलन के विरुद्ध रहे हैं। अल्पेश का तो अभियान ही इसी पर टिका था कि पाटीदारों को आरक्षण देने से पिछड़ों और दलितों का हक मारा जाएगा। इसके लिए ही उन्होंने अनेक रैलियां कीं। कांग्रेस के लिए इस अंतर्विरोध को साधना आसान नहीं होगा। क्या जो व्यक्ति पटेलों के आरक्षण का विरोधी है वह कांग्रेस में है और पटेल कांग्रेस को ही वोट देंगे? चौथे, पिछले विधानसभा चुनाव में पटेलों के बड़े नेता केशूभाई पटेल ने गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाकर भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था। उन्होंने 163 उम्मीदवार खड़े किए थे जिसमें केवल 3 जीते एवं उन्हें वोट आया केवल 3.63 प्रतिशत। कांग्रेस केशूभाई पटेल के विद्रोह का भी लाभ नहीं उठा सकी। एक सर्वेक्षण कहता है कि 80 प्रतिशत पटेल मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया। इस समय भाजपा में पटेलों के 44 विधायक हैं।

कह सकते हैं कि तब धूरी में नरेन्द्र मोदी थे जिनका संगठन कौशल, प्रचार रणनीति और कार्यकर्ताओं तथा सभी वर्ग के प्रमुख लोगों से निजी संपर्क था। मोदी ने गुजरात अस्मिता का स्वयं को प्रतीक बना दिया था। अब मोदी मुख्यमंत्री नहीं है। इसका असर हो सकता है। लेकिन मोदी परिदृश्य से गायब तो हुए नहीं हैं। उन्होंने लगातार गुजरात की यात्राएं की हैं। एक वर्ष मेें 15 एवं 35 दिनों में चार। गुजरात महागौरव कार्यकर्ता सम्मेलन में उन्होंने यह कहकर कि कांग्रेस ने उनको जेल भेजने की पूरी कोशिश की स्वयं के प्रति सहानुभूति कायम करने की कोशिश की है। साथ ही सरदार पटेल एवं उनकी पुत्री के साथ कांग्रेस ने कैसा व्यवहार किया यह कहकर पटेलों को कांग्रेस के विरुद्ध उभारने की रणनीति अपनाई है। ऐसा वे आगे भी करेंगे। क्या कांग्रेस इनकी काट तलाश सकती है?  जीएसटी में आवश्यक संशोधन कर व्यापारियों के असंतोष को कम करने का कदम उठाया है और स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा है कि अभी भी जो कठिनाई है उसे कम किया जाएगा। सरकार आगे और कदम उठा सकती है। ऐसे में यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि इन तीनों नेताओं के कांग्रेस के साथ आने तथा व्यापारियो में असंतोष से भाजपा का 22 सालों का शासन खत्म हो जाएगा एवं कांग्रेस की वापसी होगी।  

अवधेश कुमार, ई.ः30 गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

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