शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

ऐसे बयानों से बचें नेता

 

अवधेश कुमार

ताजमहल और मुगलकाल इस समय भारी हंगामे एवं विवाद का विषय बना हुआ है। वास्तव में उत्तर प्रदेश के सरधाना से भाजपा विधायक संगीत सोम ने ताजमहल और मुगलों के बारे में जो बयान दिया उस पर विवाद और हंगामा स्वाभाविक था। उनके बयान से ध्वनि यह निकल रही थी कि मुगल काल को न सिर्फ इतिहास से बाहर किया जाएगा बल्कि उस काल में निर्मित होने की मान्यता वाले स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने ताजमहल जैसे स्थलों के साथ भी दुर्व्यवहार किया जाएगा। बयान देते समय भी उन्हें इस बात का आभास रहा होगा कि इससे विवाद पैदा होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने जानबूझकर यह बयान दिया। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि संगीत सोम लंबे समय से सुर्खियों से गायब थे। उत्तर प्रदेश सरकार में उन्हें मंत्री भी नहीं बनाया गया। ऐसे में यदि खबरों में बने रहना है तो फिर ऐसे लोगों के पास रास्ता एक ही बचता है, किसी तरह विवादित बयान दो। उन्होंने यही किया है। इसे आप उनकी सोच का प्रकटीकरण भी कह सकते हैं। वैसे इस तरह की सोच रखने वाले संगीत सोम अकेले व्यक्ति नहीं हो सकते। आखिर जब वे भाषण दे रहे थे जो लोग तालियां बजा रहे थे। जाहिर है, इस तरह का विचार रखने वालों की संख्या है।

किंतु किसी विचार को संख्याबल के आधार पर उचित और अनुचित करार नहीं दिया जा सकता है। मूल बात है कि ऐसे बयानों का असर क्या होता है। हम भी मानते हैं कि मंुुगल बाहर से आए थे, लेकिन शासन करते हुए वे यहीं बस गए। अब यह कहना कि पूरे मुगल काल को हम इतिहास से निकाल देंगे नासमझी के सिवा कुछ नहीं है। ऐसा संभव ही नहीं है। जब हम ब्रिटिश काल को इतिहास के पन्नों से नहीं हटा सकते तो फिर मुगल काल को कैसे हटा सकते हैं। मुगल काल में अलग-अलग बादशाहों के कार्यकाल को लेकर दो मत तो रहेंगे और हैं भी। इतिहास की किताबों में ही आपको हर बादशाह को लेकर कई मत मिलते हैं और उनके आधार पर हम अपना निष्कर्ष निकालते हैं। यही इतिहास पढ़ने और समझने का तरीका है। लेकिन 1526 से 1857 तक के कालखंड तक मुगल किसी न किसी तरह बने रहे। इतने लंबे कालखंड को आप इतिहास से कैसे बाहर कर सकते हैं? तो मुगल काल हो या उसके पहले का सल्तनत काल कोई इतिहास के पन्नों से उसे बाहर नहीं निकाल सकता और निकाला जाना भी नहीं चाहिए। उस कार्यकाल को लेकर मतांतर होंगे और होना भी चाहिए। इसमें किसी प्रकार का संदेह करने की आवश्यकता नहीं है।

हम मानते हैं कि इतिहास लेखन ही हमारे देश में विवाद और बहस का विषय रहा है। आधुनिक इतिहास की एक धारा अंग्रेजों के समय थी जिनने अपने तरीके से इतिहास लिखे। उसका आजादी के संघर्ष के दौरान भी विरोध होता था और आज भी होता है। किंतु उन्होंने अपनी दृष्टि और तरीके से हमारे देश के इतिहास पर काफी काम किया इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह बात अलग है कि उनमें से ज्यादातर के पीछे औपनिवेशिक नजरिया था।  उसे हम हूबहू स्वीकार नहीं कर सकते। उसकी प्रतिक्रिया में भारतीयों की दो धाराओं ने इतिहास रचना की। एक धारा वामपंथियों की थीं। इनने भी इतिहास को निष्पक्ष नजरिए से देखने की जगह मार्क्सवादी नजरिया अपनाया। इनने शोध भी खूब किए, मेहनत भी किए, ऐसे अनेक तथ्य हमारे सामने लाए जो कि उनके बगैर शायद सामने नहीं आता। इस तरह उनका इतिहास लेखन में योगदान तो है लेकिन वह भी पूरी तरह से सच्चाई के निकट न होकर विचारधारा के निकट है। एक धारा राष्ट्रवादियों की रही है जिन्होंने इन दोनों से परे भारतीय राष्ट्रवाद को ध्यान में रखकर इतिहास लिखे। कुछ लोग इन्हें स्वीकार करते हैं, लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि इसमेे राष्ट्रवाद की छौंक कुछ ज्यादा है इसलिए यह एकदम शुद्ध इतिहास नहीं हो सकता। इन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इतिहास पुनर्लेखन समिति जैसे संगठन की रचना कर इतिहास को नए सिरे से लिखवाने का काम कर रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस पर भी विवाद है और रहेगा।

किसी भी पढ़े-लिखे समाज में विवाद और बहस स्वाभाविक है। विषयों पर मतभेद भी स्वाभाविक है। यह होना ही चाहिए। हम यह भी मानते हैं कि जिस तरह से दूसरों को अपना विचार रखने का अधिकार है उसी तरह संगीत सोम को भी है। किंतु किसी स्थिति में ऐसा बयान नहीं दिया जाना चाहिए जिससे सांप्रदायिक विद्वेष की भावना पैदा हो। संगीत सोम ने जिस तरह से कहा उससे ऐसा ही होता है। इसीलिए ऐसे बयान अस्वीकार्य है। खासकर ऐसे नेता को तो एक-एक शब्द सोच-समझकर इस्तेमाल करना चाहिए जिसकी केन्द्र और प्रदेश दोनों जगह सरकारें हों। सरकारी पार्टी की ओर से संयमित बयान की ही अपेक्ष की जाती है। आपको देश और प्रदेश चलाना है तो फिर संतुलन आपको बनाना ही पड़ेगा। बेशक, ताजमहल को लेकर अनेक इतिहासकारों ने अलग-अलग मत प्रकट किया है। यह भी रहेगा। लेकिन वह स्थापत्य का ऐसा नमूना है जिसे दुनिया के आश्चर्यों में शामिल किया गया है। कोई उसे ध्वस्त करने का विचार करे तो उसे मानसिक रुप से असंतुलित ही कहना होगा। वैसे ऐसा शायद ही किसी देश में हुआ हो जहां आजादी के साथ गुलामी काल में बनाए गए सारे इमारतों को ध्वस्त कर दिया जाए। यह न उचित है न व्यावहारिक ही। दुनिया में ऐसे बहुत कम देश हैं जिनको किसी न किसी समय गुलामी न झेलनी पड़ी हो। विश्व के इतिहास का एक पूरा कालखंड ही औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी काल के नाम से जाना जाता है। अगर ऐसे सारे देश अपनी गुलामी के समय के अवशेषों को खत्म करने लगें तो फिर दुनिया का चरित्र बदल जाएगा। हमारे देश की जो संसद है वही ब्रिटिशों द्वारा निर्मित है। तो क्या उसे कलंक मानकर नष्ट कर दें? हम तो उसी में आजादी के बाद से अपने देश का की नियति संवार रहे हैं।

वैसे संगीत सोम भाजपा में ऐसे स्तर के नेता नहीं हैं जो निर्णय कर सकें। यह अच्छा हुआ कि पहले प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तथा उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बयान को नकार दिया। इस बयान से कायम संदेहों को दूर करने के लिए आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार 26 अक्टूबर को आगरा जा रहे हैं जहां वे ताजमहल सहित कई पर्यटक स्थलों का दौरा करेंगे तथा कुछ घोषणाएं भी करेंगे। यह अच्छा कदम है। इससे ताजमहल को लेकर पहले से भी जो संशय कायम है वह दूर हो जाना चाहिए। उन्होेंने यह साफ किया है कि कौन क्या कहता है यह मायने नहीं रखता, जरुरी यह है कि भारतीयों के खून पसीने से बने हर स्मारक का संरक्षण किया जाए और पर्यटन की दृष्टि से भी इनका संरक्षण किया जाना जरुरी है। यह देश को दिया हुआ बचन है। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी द्वारा यह साफ कर दिया गया है कि हमें ऐतिहासिक विरासत पर गर्व करने की आवश्यकता है। हमारा मानना है कि योगी एवं मोदी के स्पष्टीकरण के बाद ताजमहल या मुस्लिम शासनकाल में बने अन्य इमारतों के भविष्य को लेकर कायम आशंकाएं समाप्त हो जानी चाहिए। इस पर विवाद का भी अंत हो जाए तो देश के लिए अच्छा हो। आखिर प्रधानमंत्री के बाद किसको इस बारे में स्पष्टीकरण देने या कुछ बोलने की आवश्यकता रह जाती है? किंतु हमारे देश की राजनीति है कि भले संगीत सोम के बयानों से भाजपा एवं सरकार ने अपने को अलग कर लिया, उनके संरक्षण का वायदा भी किया गया, लेकिन विवाद आसानी से नहीं थमता। इसीलिए आजम खान और असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं का मुंह बंद हो जाएगा ऐसा नहीं मानना चाहिए। किंतु हमें आपको ऐसे बयानों को महत्व देने की आवश्यकता नहीं है जिससे अनावश्यक सांप्रदायिक विद्वेष की भावना पैदा होती हो।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः0112483408, 9811027208

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

भाजपा बनाम राहुल गांधी

 

अवधेश कुमार

इन दिनों राजनीति के क्षितिज पर सतही नजर भी दौड़ा लीजिए तो आपको धीरे-धीरे राहुल गांधी बनाम नरेन्द्र मोदी की एक तस्वीर निर्मित होती दिख रही है। यह अपने आप नहीं हुई। कांग्रेस ने भी अपनी रणनीति में राहुल गांधी द्वारा मोदी पर हमले को प्राथमिकता दिया है। राहुल गांधी लगातार गुजरात से लेकर हिमाचल प्रदेश और इसके अलावा जहां जा रहे हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही कठघरे में खड़ा करते हैं। यहां तक कि एक वेबसाइट द्वारा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के पुत्र जय शाह के व्यवसाय और धन से संबंधी खबर के मामले में भी वे मोदी को ही निशाने पर ले रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि भाजपा पर यदि हमला करना है, जनता की नजर में उसकी छवि गिरानी है तो नरेन्द्र मोदी की छवि को ही कमजोर करना होगा। इस समय भाजपा और नरेन्द्र मोदी एक दूसरे के पर्याय हैं। भाजपा को जो भी जनसमर्थन मिल रहा है उसका मूल नरेन्द्र मोदी में ही निहित है। तो राहुल गांधी और कांग्रेस की इस रणनीति को एकबारगी गलत नहीं कहा जा सकता है। यह बात अलग है कि इस रणनीति से कांग्रेस को तत्काल या निकट भविष्य में कोई चुनावी फायदा होगा ऐसा मानना जरा कठिन है। वस्तुतः भारत की राजनीति इतनी जटिल है और इसमंे 2014 में राष्ट्रीय परिदृश्य पर नरेन्द्र मोदी के आविर्भाव के बाद से इस तरह का परिवर्तन आ गया है कि बड़े-बड़े विश्लेषकों के लिए चुनाव पूर्व वास्तविक आकलन कठिन हो रहा है। जिस तरह 2014 में किसी ने नरेन्द्र मोदी के नाम पर भाजपा की इतनी बड़ी विजय की कल्पना नहीं की थी उसी तरह 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी।

इसलिए जो लोग राहुल गांधी के नरेन्द्र मोदी पर हमला करने तथा लगातार प्रचार से उत्साहित हैं उनको अपने उत्साह पर थोड़ा संयम बरतने की आवश्यकता है। भाजपा का मनोविज्ञान इस समय कुछ अलग है। भाजपा के आम नेता भी यह मानते हैं कि राहुल गांधी उनके लिए कभी चुनौती नहीं हो सकते। वो कहते भी हैं कि राहुल गांधी को उनकी पार्टी कभी गंभीरता से नहीं लेती। यह बात अलग है कि भाजपा के नेता सबसे ज्यादा हमला भी राहुल गांधी पर ही करते हैं। कांग्रेसी कहते है कि भाजपा नेताआंे का राहुल गांधी पर हमला करना बताता है कि वे उन्हें गंभीरता से लेते हैं। आखिर नरेन्द्र मोदी तक भी यदा-कदा बिना नाम लिए उनके बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करते ही हैं। अमित शाह के भाषणों में राहुल गांधी हमेशा छाए रहते हैं। यह बात अलग है कि वे उनके लिए शहजादे और राहुल बाबा जैसे शब्द प्रयोग करते हैं। इसके द्वारा जनता को यह संदेश देने की कोशिश होती है कि राहुल गांधी अभी तक इतने वयस्क और परिपक्व नहीं हुए हैं कि उनके कंधों पर देश की जनता कोई महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दे। यह सवाल हम सबके मन में स्वाभाविक रुप से उठता है कि जब आप राहुल गांधी को गंभीरता से लेते ही नहीं, उन्हें परिपक्व भी नहीं मानते हैं, इस बात को लेकर आप निश्चिंत हैं कि जब तक राष्ट्रीय फलक पर राहुल गांधी हैं भाजपा के लिए मैदान साफ है तो फिर उन पर हमला या उनकी इतनी चर्चा क्यों?

हमने राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी में एक साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तथा केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को मंच पर राहुल गांधी एवं उनके पूरे खानदान पर आक्रामक होते हुए देखा है। स्मृति ईरानी तो पराजित होने के बावजूद अमेठी जाती रहतीं हैं। उसमें उनका एक ही एजेंडा होता है, राहुल गांधी को एक विफल सांसद साबित करना। यही काम इन तीनों नेताओं ने एक साथ किया। राहुल गांधी गुजरात में भाजपा पर हमला कर रहे थे, 23 वर्ष की भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे थे, नरेन्द्र मोदी को सपना बेचने वाला साबित कर रहे थे तो उनके खिलाफ एक साथ तीन नेता उनके संसदीय क्षेत्र में हुंकार भर रहे थे। यह अकारण तो नहीं हो सकता। यदि आप किसी को गंभीरता से नहीं लेते हैं तो उसकी बातों का जवाब नहीं देते। यदि आप किसी को वजनदार नहीं मानते तो उस पर इतना तगड़ा हमला नहीं करते। यहां स्थिति उलट है। भाजपा गंभीरता से न लेने तथा राहुल गांधी को अवयस्क साबित करते हुए भी उनको निशाना बना रही है। तो इसके कुछ कारण अवश्य होने चाहिए। राजनीति में जो कुछ दिखता है उसके पीछे के कारकों की जरा ठीक प्रकार से तलाश करनी पड़ती है।

वस्तुतः इसके पीछे भाजपा की अपनी सोची-समझी रणनीति है। राहुल गांधी यदि नरेन्द्र मोदी पर हमला करते हैं तो वह इसे अपने लिए अनुकूल मान रही है। उसकी कोशिश है कि राहुल पर प्रतिहमला करो ताकि वह मोदी पर और हमला करें और इस समय से लेकर सारे विधानसभा चुनावों एवं फिर 2019 के लोकसभा चुनाव तक पूरी राजनीति नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी का बना रहे। इसमें भाजपा को लाभ नजर आता है। उसे साफ लगता है कि लोग यदि मोदी एवं राहुल में तुलना करेंगे तो मोदी का पलड़ा अपने-आप भारी हो जाएगा। लोगों को मोदी एवं राहुल मंे से चुनने का विकल्प होगा तो ज्यादातर मोदी का ही चयन करेंगे। इस वातावरण को बनाए रखने के लिए जरुरी है कि राहुल गांधी को पूरी तरह चर्चा में बनाए रखा जाए। इसलिए आने वाले समय में भी भाजपा राहुल गांधी और उनके खानदान को निशाना बनाती रहेगी। यह उसकी वर्तमान एवं भविष्य की राजनीतिक रणनीति का इस समय सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

उसकी दूसरी रणनीति है, राहुल की उनके घर यानी संसदीय क्षेत्र में ऐसी घेरेबंदी करना कि वो किसी तरह अगला लोकसभा चुनाव हार जाएं। राहुल गांधी किसी समय कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए जा सकते हैं। कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए भविष्य की उम्मीद अभी भी वहीं हैं। यदि उनको ही पराजित कर दिया गया तो फिर वर्तमान कांग्रेस को खत्म करने का जो राजनीतिक लक्ष्य नरेन्द्र मोदी ने घोषित किया है उसे पाना आसान हो जाएगा। कल्पना करिए यदि राहुल गांधी अमेठी से हार जाते हैं तो फिर कांग्रेस में कैसा हाहाकार मचेगा। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य अब बड़ी और सतत सक्रिय भूमिका की इजाजत नहीं दे रहा। प्रियंका बाड्रा का राजनीति में आना अभी अनिश्चित है। उसमें सारा दारोमदार राहुल गांधी पर ही है। जाहिर है, उनकी पराजय का कांग्रेस के लिए संघातक परिणाम होगा। बड़े नेता भले इसे चुनाव में सामान्य जीत-हार का मामला बताएंगे, पर आम नेता एवं कार्यकर्ताओं में और हताशा पैदा होगी तथा कांग्रेस का जगह-जगह विखंडन हो सकता है। तो यही सोच है जिसके तहत भाजपा अमेठी को केन्द्र मे रखकर राजनीति कर रही है। अपनी रणनीति की सफलता के लिए अमेठी की घेरेबंदी में जितनी शक्ति, संसाधन की आवश्यकता है भाजपा लगाएगी। वहां के लिए जैसी रणनीति की जरुरत होगी भाजपा उसे भी अपनाएगी। बस, अमेठी का किला ध्वस्त हो जाए। पिछले लोकसभा चुनाव में सपा के उम्मीदवार के न रहने के बावजूद केवल एक लाख सात हजार मतों से उनकी विजय को भाजपा अपनी भावी विजय की उम्मीद के तौर पर देख रही है। विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस अमेठी की सभी विधानसभा सीट हार गई।

जाहिर है, कांग्रेस के रणनीतिकारों को भाजपा की इस सोच एवं रणनीति को समझना होगा। यदि उनको भाजपा से मुकाबला करना है तथा अमेठी का गढ़ बचाना है तो वर्तमान रवैये से यह संभव नहीं है। कांग्रेस के नेताओं को विचार-विमर्श की थोड़ी लंबी कवायद करनी होगी। अगर वे नहीं करते तथा वर्तमान रणनीति पर चलते रहे तो फिर भाजपा की रणनीति को सफल बनाने की भूमिका निभाएंगे। अभी तक कांग्रेस इसे समझने के लिए तैयार नहीं है। वह मानकर चल रही है कि गुजरात की सरकार आलोकप्रिय हो रही है जिसका लाभ उसे मिल सकता है। वह यह भी मान रही है कि आने वाले समय में नरेन्द्र मोदी सरकार भी अलोकप्रिय होगी और उसे इसका लाभ मिल जाएगा। यह तत्काल संभव नहीं दिखता।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

क्या राहुल की हिन्दुत्व छवि से कांग्रेस भाजपा को चुनौती दे सकेगी

 

अवधेश कुमार

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की तीन दिवसीय गुजरात दौरा इन दिनों चर्चा में है उसका एक प्रमुख कारण उनका मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करना है। हालांकि अपने भाषणों में उन्होंने मोदी सरकार की हर मुद्दे पर आलोचना की और वो खबरों में आईं भीं, लेकिन सबसे ज्यादा बहस यदि हो रही है तो उनकी मंदिर यात्राओं पर। कांग्रेस उपाध्यक्ष तीन दिन की गुजरात यात्रा के दौरान पांच मंदिरों में गए और राजकोट तथा जामनगर में गरबा में शामिल हुए। राहुल ने 25 सितंबर को द्वारकाधीश मंदिर में भगवान कृष्ण की पूजा कर अपनी यात्रा आरंभ  की और एक हजार सीढ़ियां चढ़कर चामुंडा देवी के मंदिर भी गए। वे पटेल समुदाय के लिए बेहद महत्वपूर्ण माने जाने वाले कागवाड गांव के खोडलधाम भी गए। यहां लेउवा पटेल समुदाय के लोगों ने भव्य मंदिर बनाया है। राजकोट लौटने पर राहुल गांधी जलाराम बापा के मंदिर भी गये। इस मंदिर में जाने का उनका कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम नहीं था। कोई नेता सामान्यतः किसी मंदिर या मस्जिद में जाता है तो इसमें कोई विशेष चर्चा की बात होनी नहीं चाहिए। किंतु यदि आप चुनावी दौरे पर निकले हैं, आपकी चुनावी सभाएं हो रहीं हैं और उनके दौरान आप ऐसा करते हैं तो इसका राजनीतिक अर्थ निकाला जाना स्वाभाविक है। राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों को पता था कि इसका राजनीतिक अर्थ निकाला जाएगा। सच कहा जाए तो जानबूझकर उन्होंने ऐसा किया ताकि इसकी ठीक से चर्चा हो।

विश्लेषक इसे नरम हिन्दुत्व कार्ड नाम दे रहे हैं। यानी भाजपा की छवि कठोर हिन्दुत्व की है तो कांग्रेस कम से कम नरम हिन्दुत्व का संदेश देकर वोट पाने की कोशिश कर रही है। राहुल की इस यात्रा पर राज्य कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष दोषी का बयान है कि भाजपा और आरएसएस के लोग जानबूझकर कांग्रेस को हिंदू विरोधी बताते हैं। राहुल का मंदिरों का दौरा इसी हमले का जवाब था। कांग्रेस प्रवक्ता के ऐसा कहने के बाद क्या इसका कोई और विश्लेषण की आवश्यकता रह जाती है? हालांकि पता नहीं दोषी का उसके बाद कोई बयान नहीं आया। हां, कांग्रेस के प्रवक्ता शक्ति सिंह गोहिल ने अवश्य कहा कि कांग्रेस सभी धर्माे को समान रूप से सम्मान देती है। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जीत के बाद इंदिरा गांधी ने अंबा जी के दर्शन किए थे। हम आश्वस्त हैं कि 22 साल बाद गुजरात में कांग्रेस की वापसी होगी। इसीलिए राहुल गांधी मंदिरों में जाकर आशीर्वाद ले रहे हैं। प्रश्न है कि क्या वाकई राहुल गांधी का हिन्दुत्व कार्ड या यह संदेश देना की हिन्दू धर्म में हमारी भी पूरी आस्था है कांग्रेस के लिए वोट के रुप में फलदायी होगा? आखिर अंततः उद्देश्य तो यही है।

राहुल गांधी केवल भक्तिभाव से तो मंदिरों में गए नहीं थे। वह भी सौराष्ट्र के इलाके में जहां पटेल आरक्षण के लिए आंदोलन करने वाले हार्दिक पटेल ने उनका स्वागत किया। उद्देश्य तो यही हो सकता है कि पटेलों की थोड़ी बहुत जो नाराजगी भाजपा से है उसका लाभ उठाया जाए। पटेल कई कारणों में एक हिन्दुत्व के कारण भी भाजपा को वोट दे देते हैं इसलिए स्वयं की भी हिन्दुत्व की छवि पेश करो। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अब तक की सबसे बुरी पराजय के बाद ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में कारणों की जांच के लिए एक समिति बनी थी। उसकी रिपोर्ट हालांकि सार्वजनिक नहीं हुई,लेकिन यह माना जा रहा है कि उसमें एंटनी ने साफ कहा है कि कांग्रेस की छवि मुसलमान समर्थक की हो गई थी इसलिए हिन्दू उससे नाराज हो गए थे और वे भाजपा के साथ चले गए। उसके बाद से कांग्रेस इस छवि को सुधारने की कोशिश कर रही है। उसे करना भी चाहिए। किंतु कांग्रेस की समस्या है कि वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती। किसी कांग्रेसी नेता से पूछिए कि आप हिन्दुत्व में विश्वास करते हैं तो उसके लिए हां कहना कठिन हो जाएगा। हालांकि हिन्दुत्व पर भाजपा भी पहले की तरह मुखर नहीं है, लेकिन वह समय-समय कुछ मुद्दों या घटनाओं के मामले में जो स्टैण्ड ले लेती है या नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में परोक्ष रुप से जो संकेत दे देते हैं उससे पहले की उसकी निर्मित छवि कायम रहती है। फिर भाजपा को समर्थन देने वाले संघ परिवार के दूसरे घटकों के लिए हिन्दुत्व पर मुखर होने में कोई समस्या नहीं है। वे काफी मुखर रहते हैं और इसका लाभ भी भाजपा को मिल जाता है।

कांग्रेस के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। हालांकि राहुल गांधी ने जब उत्तर प्रदेश चुनाव के पूर्व खाट सभाए आरंभ की थी तो अपनी यात्राओं में वे मंदिर जाते थे। अयोध्या के संकटमोचन मंदिर का पूरा दृश्य देश के सामने आया था। किंतु वे संतुलन बनाने के लिए मस्जिद भी जाते थे। यह कांग्रेस की मनोग्रंथि है। वह भाजपा से मुकाबला करने के लिए एक कदम आगे बढ़ती है,लेकिन उसका सेक्यलूरवाद आड़े आ जाता है और फिर वह संतुलन बनाने लगती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को इससे क्या मिला चुनाव परिणाम हमारे सामने है। हालांकि गुजरात में उन्होेंने ऐसा नहीं किया है। वहां संतुलन बनाने के लिए वो किसी मस्जिद में नहीं गए। किंतु क्या पता आने वाली यात्राओं में वे ऐसा करें। वैसे कांग्रेस को लगता है कि गुजरात के मुसलमान भाजपा को यदि वोट नहीं करेंगे तो जाएंगे कहां। यह उसकी गलतफहमी भी हो सकती है।

इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस का एक बड़ा संकट सेक्यूलरवाद को लेकर उसकी छवि है। सेक्यूलरवाद का वह अर्थ हमारे संविधान निर्माताओं ने नहीं दिया जिसे कांग्रेस या अन्य पार्टियां प्रचारित करतीं हैं। सेक्यूलरवाद का अर्थ सर्वधर्म समभाव से था। सेक्यूलरवाद का अर्थ था कि राज्य किसी धर्म विशेष को न प्रश्रय देगा न विरोध करेगा। यानी सभी धर्मों को समान रुप से आदर करेगा। दुर्भाग्य से सेक्यूलरवाद का अर्थ हमारे देश में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण हो गया। हिन्दुओं की समस्याओं पर खुलकर बोलना और हिन्दुत्व से जुड़े मुद्दों पर मुखर होना सेक्यूलर विरोधी या सांप्रदायिकता का पर्याय बना दिया गया। यह सेक्यूलरवाद के नाम पर विकृत व्यवहार था। भाजपा ने 1980-90 के दशक से इस पर जोरदार प्रहार करना आरंभ किया और भारतीय राजनीति की स्थापित चूलें हिल र्गइंं। कांग्रेस की सेक्यूलर ग्रंथि एक सीमा से आगे उसे जाने ही नहीं दे सकती। इसलिए राजनीति में वह भाजपा को कम से कम इस समय इस पर मात देने की स्थिति में नहीं है। हालांकि कांग्रेस ऐसा कर दे तो भारत की राजनीति में फिर से एक बड़ा परिवर्तन आ सकता है। किंतु कोई कांग्रेसी नेता यह कहने को तैयार नहीं होगा कि अयोध्या में विवादित स्थान पर राम मंदिर बनना चाहिए। भाजपा के नेता भले इस पर कुछ करें नहीं परं ऐसा बोलने में उन्हें कोई झिझक नहीं है। तो फिर कांग्रेस हिन्दुत्व के धरातल पर भाजपा का मुकाबला कहां से कर सकती है।

वैसे कांग्रेस का यह रवैया साबित करता है कि विचारधारा को लेकर वह गहरे उहापोह का शिकार है। यानी वह तय ही नहीं कर पा रही है कि कांग्रेस की विचारधारा होगी क्या। इसका असर केन्द्र से लेकर प्रदेश स्तर तक पार्टियों पर पड़ा है। एक संभ्रम की स्थिति कायम है और कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता भविष्य को लेकर गहरे हताशा के शिकार हैं। आप मंदिरों में पूजा-अर्चना करके इस हताशा से पार्टी को नहीं उबार सकते। गुजरात को ही लीजिए तो वहां पार्टी बिखर रही है। बड़े-बड़े नेता और उनके साथ कार्यकर्ताओं का समूह पार्टी छोड़कर जा रहा है। उसे कैसे रोका जाए यह उसके सामने सबसे पहला प्रश्न है। राहुल गांधी के तीन दिवसीय दौरे में इस पर किसी तरह काम किए जाने की कोई सूचना नहीं है। राज्य सभा के चुनाव में अहमद पटेल किसी तरह जीत पाए। उनकी अपनी पार्टी ने ही उनको संकट में डाल दिया था। पिछले चुनाव में भाजपा को 47.85 प्रतिशत मत मिला था, जबकि कांग्रेस को 38.93 प्रतिशत। भाजपा में यदि गुजरात परिवर्तन पार्टी के 3.63 प्रतिशत मत को जोड़ दे ंतो वह 51 प्रतिशत से ज्यादा हो जाता है। मतों के इतने बड़े अंतर को पाटने लिए केवल मंदिर जाकर नरम हिन्दुत्व का संदेश देना किसी मायने में असरकारी नहीं हो सकता है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

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