शनिवार, 23 सितंबर 2017

यूं ही पूरा नहीं हुआ सरदार सरोवर बांध का सपना

 

अवधेश कुमार

सरदार सरोवर बांध का नाम सुनते ही 1990 का दशक याद आता है जब इसे लेकर देश भर के एक्टिविस्टों ने आर-पार की लड़ाई छेड़ दिया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन इस बांध परियोजना के विरोध में ही पैदा हुआ था। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 67 वें जन्म दिवस पर नर्मदा जिले के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर नर्मदा बांध का लोकार्पण किया तो वो सारी यादें ताजा हो गईं। उन्होंने अपने भाषण में इस बांध के विरोध के उस दौर को याद भी किया। उन्होंने कहा कि हर शक्ति ने इसका विरोध किया। वास्तव में सक्रियतावादियों, एनजीओ एवं कुछ पर्यावरणवादियों के विरोध का इतना प्रभाव हुआ कि मामला इसके लिए धन देने वाले विश्व बैंक तक गया और 1993 में उसने इसका धन रोक दिया। 1995 में विश्व बैंक ने भी मान लिया कि इस परियोजना में पर्यावरण का ध्यान नहीं रखा गया है। मामला न्यायालय तक भी गया। अक्टूबर, 2000 में उच्चतम न्यायालय की हरी झंडी के बाद सरदार सरोवर बांध का रुका हुआ काम एक बार फिर से शुरू हुआ। यानी इसे रोकने की जितनी कोशिश संभव थी की गई। बावजूद इसके यह अपने पूर्व योजना के अनुरुप पूरा हुआ है तो इसे सामान्य नहीं माना जा सकता है। हालांकि इसका शिलान्यास 15 अप्रैल 1961 को हमारे प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरू ने किया था। वे नए बांधों को आधुनिक युग का मंदिर कहते थे। भाखरा बांध को उन्होंने अपने जीवन में ही साकार कर दिया, अन्यथा उसका भी इतना ही विरोध होता जितना बाद में सरदार सरोवर बांध का हुआ। कहा जाता है कि गुजरात, महाराष्ट्र के जल संकट को देखते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल ने इसका सपना 1946 में देखा था। मुंबई के इंजीनियर जमदेशजी वाच्छा ने इसकी पूरी योजना बनाई।

तो जिस योजना के पीछे ऐसे महान लोगों का सपना रहा हो, वह जनता और देश के लिए अहितकर हो सकता है इसकी कल्पना तक करनी कठिन है। हालांकि नदियों पर बड़े बांधों को लेकर दुनिया में दो राय रहे हैं। एक इसे भविष्य के लिए खतरनाक मानते हैं। नदियों के बहाव में अविरलता के प्रभावित होने तथा उसके जल के अपवित्र होने की बात की जाती है तथा भविष्य में भूकम्प से लेकर भयावह बाढ़ों तक की आशंकाएं व्यक्त की जातीं हैं। इन सब आशंकाओं के पक्ष में भी जबरदस्त तर्क दिए जाते हैं जिनको काटना आसान नहीं होता। इनमें कुछ सच भी होते हैं। बांधों के कारण नदियों में गाद बढ़े हैं और इसके दुष्परिणाम आए हैं। किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है। वह यह है कि आप करोड़ों लोगों को पानी के लिए छटपटाते देखते रहेंगे, लोगों को पीने के लिए कई-कई किलोमीटर से पानी लाने के लिए मजबूर होते देखते रहेंगे, फसलों को सूखने देंगे....या इन परेशानियों को दूर करने के लिए कोई व्यवस्था करेंगे? जाहिर है, आम आदमी इसमें दूसरे विकल्प का समर्थन करेगा। मोदी ने अपने भाषण में कहा कि मैं जब एक बार बीएसएफ के जवानों के साथ बैठा तो पता चला इस रेगिस्तान में सैकड़ों मील दूर से जवान पानी लेकर आते थे तो जवानों को पीने का पानी मिलता था। जिस दिन मैं नर्मदा का पानी लेकर वहां पहुंचा तो मैंने बीएसएफ के जवानों के चेहरे पर एक खुशी देखी थी।

हम सबने महाराष्ट्र से लेकर राजस्थान में पानी के भयावह संकट देखे हैं। गुजरात भी पहले ऐसे ही संकट से जूझता था। किंतु उसे काफी हद तक दूर किया गया। इस बांध से मध्यप्रदेश सहित इन राज्यों का जल संकट काफी हद तक दूर होगा। लाखों हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होगी सो अलग। बिजली तो खैर पैदा होगी ही। जो आंकड़े हमें उपलब्ध कराईं गईं है। उनके अनुसार बांध का मौजूदा जल स्तर 128.44 मीटर है। इससे 6000 मेगावॉट बिजली पैदा होगी। वैसे इस बांध का भी सबसे ज्यादा लाभ गुजरात को मिलेगा। इससे यहां के 15 जिलों के 3137 गांव की 18.45 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की जा सकेगी। किंतु महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान भी इससे काफी हद तक लाभान्वित होंगे। बिजली का सबसे अधिक 57 प्रतिशत हिस्सा मध्य प्रदेश को मिलेगा। महाराष्ट्र को 27 प्रतिशत और गुजरात को 16 प्रतिशत बिजली मिलेगी। राजस्थान को सिर्फ पानी मिलेगा। इसके दूसरे पक्ष हैं किंतु प्रधानमंत्री मोदी की इस बात को स्वीकारना होगा कि सरदार सरोवर बांध के खुलने के बाद नागरिकों और किसानों को फायदा मिलेगा और करोड़ों किसानों का भाग्य बदल सकता है।

यह कोई सामान्य बांध नहीं है। चाहे इसका जितना विरोध हुआ हो या आज भी हो रहा हो, यह हमारे पूर्वजों की महान कल्पना तथा इंजीनियरों की श्रेष्ठतम कुशलता का नमूना है। वस्तुतः यह भारत की सबसे बड़ी जल संसाधन परियोजना बन गई है। इसमें 4.73 मिलियन क्यूबिक पानी जमा करने की क्षमता है। इतना ही नहीं यह भारत का तीसरा सबसे ऊंचा बांध भी है। इस बांध के 30 दरवाजे हैं। हर दरवाजे का वजन 450 टन है। इसको बंद करने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। इस बांध को बनाने में 86.20 लाख क्यूबिक मीटर कंक्रीट लगा है। हिंसाब लगाने वाले बता रहे हैं कि इससे पृथ्वी से चंद्रमा तक सड़क बनाई जा सकती थी। कंक्रीट के इस्तेमाल के आधार पर यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध है। अमेरिका का ग्रांट कुली पहलेे स्थान पर आता है। बांध पर गुलाबी, सफेद और लाल रंग के 620 एलईडी बल्ब लगाए गए हैं। ये कुल 1000 वॉट के हैँ। इनमें से 120 बल्ब बांध के सभी 30 दरवाजों पर लगे हैं। इनसे होने वाली रोशनी से ओवरफ्लो का आभास होता है। वास्तव में यह बांध बेहतरीन इंजीनियरिंग का नमूना है। 1.2 किमी लंबा ये बांध अब तक 4141 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन अपने दो बिजलीघरों से कर चुका है। सरकार के मुताबिक इस बांध ने 16 हजार करोड़ रुपये कमा भी लिए हैं। इस बांध से 6000 मेगावॉट बिजली पैदा होगी। जिन लोगों ने इसका निर्माण होते नहीं देखा है या जो वहां तक नहीं गए हैं वे आसानी से समझ सकते हैं कि इसमें कितनी बुद्धि लगी होगी कितने संसाधन खर्च हुए होंगे।

आंदोलनों के कारण इसका काम बाधित होता गया और इसका खर्च भी बढ़ता गया। लंबे अंतराल के बाद 1986-87 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, इसे हर हाल में मूर्त रुप देने का निर्णय किया गया। उस समय इसकी लागत आंकी गई थी, 6400 करोड़ रुपया। किंतु समय के साथ इसकी लागत बढ़ती गई और यह पूरा होते-होते 65 हजार करोड़ रुपए तक पहुुंच गया। अगर समय पर काम आरंभ होकर पूरा हुआ होता तो यह काफी कम रुपए के खर्च से पूरा हो जाता। बांध की उंचाई को लेकर भी लंबी लड़ाई हुई। इसकी आरंभिक 122 मीटर उंचाई को सिंचाई, बिजली एवं पेयजल उपलब्ध कराने के लक्ष्य के अनुरुप नहीं माना गया। इसके लिए मोदी जब मुख्यमंत्री थे लगातार केन्द्र से ऊंचाई बढ़ाने की स्वीकृति देने की मांग करते रहे। प्रदेश कांग्रेस के नेता भी इस मामले पर गुजरात सरकार के साथ थे। मोदी सरकार आने के बाद इसकी अनुमति दी गई। 17 जून 2017 को एनसीए ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दे दी। इसके अनुसार बांध पर 16 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाकर इसकी ऊंचाई को 138.68 मीटर करना है। माना गया कि इसकी संग्रह क्षमता 1,565 मीलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) से बढ़कर 5,740 एमसीएम हो जाएगी। केवल उंचाई बढ़ाने से जहां आठ लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी, वहीं एक लाख लोगों को पीने का पानी भी उपलब्ध कराया जा सकेगा। बांध की क्षमता बढ़ने से 150 मेगावाट अधिक पनबिजली तैयार हो सकेगी।

किंतु,परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे लोगों ने एनसीए के कदम को गैरकानूनी करार दिया। मेघा पाटेकर ने कहा कि यह फैसला अलोकतांत्रिक है क्योंकि सरकार ने इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि उस इलाके में रह रहे 2.5 लाख लोग बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पूरी तरह जलमग्न हो जाएंगे। सरकार का कहना था और आज भी उसका यही मत है कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकार ने पुनर्वास के वे सभी काम कर दिए हैं जो उसे करना था। एक ओर प्रधानमंत्री ने इसका लोकार्पण किया तो दूसरी ओर आंदालनकारी सत्याग्रह कर रहे थे। इनकी कई मांगें हैं जिनमें विस्थापन की समस्या एक हैं। आंदोलनकारियों की लंबे समय से मांग है कि बांध से जुड़े दरवाजों को खुला रखा जाए ताकि पानी का स्तर कम रहे। इनका मानना है कि इससे गांव में बाढ़ के खतरे की आशंका कम रहेगी। जुलाई माह से बांध के दरवाजे बंद होने के बाद मध्यप्रदेश के बारवानी और धार इलाकों में जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। इस मामले पर नर्मदा बचाओ आंदोलनकारियों ने दावा किया है कि अगर इसका जलस्तर अपनी क्षमता से अधिक बढ़ गया तो मध्य प्रदेश के 192 गावों के 40 हजार परिवार प्रभावित होंगे। सरकार कह रही है कि इतनी संख्या अतिरंजित है। इनके अनुसार 18,386 परिवार ही प्रभावित होंगे। जो भी हो। सभी प्रदेश सरकारों को संवेदनशीलता दिखाते हुए इससे प्रभावित होने वाले लोगों के पुनर्वास की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शनिवार, 9 सितंबर 2017

आखिर नोटबंदी से मिला क्या

 

अवधेश कुमार

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नोटबंदी के दौरान वापस आए नोटों का आंकड़ा जारी करने के साथ सरकार पर राजनीतिक हमला आरंभ हो गया है। विपक्ष का प्रश्न है कि यदि बाजार में प्रचलित कुल नोटों में से 99 प्रतिशत वापस ही आ गए तो फिर कालाधन कहां निकला? पहली नजर में प्रश्न सही भी लगता है। अर्थशास्त्रियों की सोच और उनका तर्क जो भी रहा हो, लेकिन आम आदमी के बीच धारणा यही बनी थी कि इस कदम से जिनने भी कालाधन जमा कर रखा है उनकी शामत आ गई है। यानी 500 और 1000 रुपए में जिनने भी नकदी छिपाकर रखा है उनके नोट या तो सड़ जाएंगे या फिर वे पकड़े जाएंगे। रिजर्व बैंक का आंकड़ा पहली नजर मंे इसके विपरीत संदेश देता है। इसके अनुसार बाजार में करीब 15.44 लाख रुपए प्रचलन में थे जिनमें से करीब 15.28 लाख करोड़ वापस आ गए। 1000 के नोटों में से 99 प्रतिशत वापस आ गए। हालांकि रिजर्व बैंक ने 500 रुपए के नोटों मंे कितने वापस आए इसका आंकड़ा नहीं दिया है। किंतु कुल मिलाकर 98.96 प्रतिशत का बैंकिंग प्रणाली मंें आ जाना यानी केवल 1.4 प्रतिशत का न आना निर्मित धारणा के आलोक में निराश करने वाला है। कुल मिलाकर केवल 16 हजार 50 करोड़ रुपया प्रचलन में वापस नहीं आया। तो इसका क्या निष्कर्ष निकाला जाए?

यह तो हो नहीं सकता कि देश में केवल 16 हजार 50 करोड़ रुपया ही कालाधन के रुप में रहा हो। जाहिर है, तो कालाधन रखन वालों और हवाला कारोबारियों ने उस दौरान किसी तरह धन को बैंकों में खपा दिया। इसमें बैंकोें की मिलीभगत हो सकती है। अगर यह भी सच है तो इसे नोटबंदी योजना की विफलता माननी होगी। विपक्ष इस पर सवाल उठाएगा ही। देश के लिए  भी यह निराशा की स्थिति है। आम आदमी का समर्थन सरकार को इसीलिए मिला था क्योंकि वातावरण यह बनाया गया था कि धन्नासेठों की गंदी तिजोरियों पर डाका पड़ा है। इस दृष्टि से विचार करें तो यह खोदा पहाड़ निकली चूहिया वाली बात हो गई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और यूपीए सरकार में वित्त मंत्री रह चुके पी चिदंबरम ने ट्वीट में लिखा है कि नोटबंदी के बाद 15,44,000 करोड़ के नोटों में से केवल 16000 करोड़ नोट नहीं लौटे। यह एक प्रतिशत है। नोटबंदी की अनुशंसा करने वाले रिजर्व बैंक के लिए यह शर्मनाक है। चिदंबरम ने लिखा है कि 99 प्रतिशत नोट विधिक तरीके से बदले गए। क्या नोटबंदी की योजना कालेधन को सफेद करने के लिए थी? चिदंबरम ने व्यंग्य किया है कि रिजर्व बैंक ने 16000 करोड़ रुपये कमाए लेकिन नए नोट छापने में 21000 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। ऐसे अर्थशास्त्री को नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए। रिजर्व बैंक ने कहा कि नोटबंदी के बाद नये नोटों की छपाई से वर्ष 2016-17 में लागत दोगुनी होकर 7,965 करोड़ रुपये हो गई जो 2015-16 में 3,421 करोड़ रुपये थी। सपा के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने कहा कि उनकी पार्टी रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के खिलाफ संसदीय समिति को गुमराह करने के लिए विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाएगी।

ये तो विपक्ष की प्रतिक्रियाओं के केवल दो उदाहरण हैं। वस्तुतः रिवर्ज बैंक की रिपोर्ट के बाद नोटबंदी पर राजनीति पूरी तरह गरमा गई है और शीत सत्र में सरकार को इसका सामना करना पड़ेगा। किंतु क्या यही सच है? क्या नोटबंदी को केवल इस आधार पर विफल मान लेना उचित है कि इससे 99 प्रतिशत राशि बैंकिंग प्रणाली में वापस आ गई? इस संदर्भ में वित्त मंत्री अरुण जेटली का जवाब देखिए। उन्होंने कहा कि नोटबंदी का उद्देश्य डिजिटलाइजेशन और आतंकवाद के वित्त पोषण पर चोट करना था। वित्त मंत्री के अनुसार नोटबंदी ने आतंकवादियों और पत्थरबाजों को मिलने वाली नकदी के प्रभाव को कम किया है, जैसा कि छत्तीसगढ़ और कश्मीर में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारत मुख्य रूप से उच्च नकदी वाली अर्थव्यवस्था है, इसलिए उस स्थिति में काफी बदलाव की आवश्यकता है। प्रत्यक्ष कर आधार में विस्तार हुआ है और ठीक ऐसा ही अप्रत्यक्ष कर के साथ भी हुआ है। यही नोटबंदी का प्रथम उद्देश्य था। अब करदाताओं की संख्या ज्यादा है, कर आधार बढ़ा है, डिजिटलीकरण बढ़ा है, सिस्टम में नकदी में कमी आई है, यह भी नोटबंदी के प्रमुख उद्देश्यों में से एक था। वास्तव में यह सच है कि प्रत्यक्ष कर देने वालों की संख्या में करीब 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। डिजिटल भुगतान मंें भी बढ़ोत्तरी हुई है। नोटबंदी के बाद बैंकिंग प्रणाली में नोटों का सर्कुलेशन 20.2 प्रतिशत कम हुआ है। इस साल सर्कुलेशन में नोटों का मूल्य 13.1 लाख करोड़ है जबकि पिछले साल मार्च में यह 16.4 लाख करोड़ थी। सरकार नोटबंदी की सफलता दर्शाने के लिए इसे प्रस्तुत कर रही है तो इसकें कुछ भी गलत नहीं है।

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नोटबंदी में ज्यादातर नोटों की वापसी से इसे विफल कहना उचित है? वास्तव में केवल नोटों की वापसी से इसे विफल या सफल करार नहीं दिया जा सकता है। रिजर्व बैंक का तर्क है कि नोटबंदी की सफलता को लेनदेन को बेहतर बनाने तथा अवैधता और धोखाधड़ी का पता लगाने के आधार पर आंका जाना चाहिए। इसके अनुसार नोटबंदी से न सिर्फ  अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप दिया जा सका है बल्कि सरकार के लिए गैरकानूनी और अवैध लेनेदन का पता लगाना संभव भी बनाया है। यह सच है कि किसी ने बैंक में रकम जमा करा दिया इसका यह मतलब नहीं कि वह सफेद हो गया। सारे जमा किए गए नोटों के आंकड़ों की जांच की जा रही है और लोगों को नोटिस भी जा रहा है। यानी जमा किए गए नोटों के बारे में उन्हें सही स्रोत बताना होगा और न बताने पर उसे कालाधन मानकर कार्रवाई की जाएगी। इस तर्क को स्वीकार कर लें तो अभी रिजर्व बैंक ने नोटबंदी का केवल दूसरा चरण पूरा किया है। यानी नोटों की वापसी के बाद उसे गिनने का। इसका तीसरा चरण उनमें से काला और सफेद को अलग करना है। यह काम जरा कठिन है लेकिन करना होगा। वैसे भी इतनी बड़ी राशि के बैंकिंग प्रणाली में आने का यह लाभ तो हुआ है कि बैंक अब ज्यादा कर्ज कम ब्याज पर दे सकेंगे। नोटबंदी से 2 लाख फर्जी कंपनियों का भी पता लगा है। यह भी इसकी एक सफलता ही है।

इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि कुछ फर्जीवाड़ा तथा धोखाधड़ी को पकड़ना इससे आसान हुआ है। जो लोग अपने धन को छिपाकर कर देने से बचते थे उनमें से कुछ के ही सही कर देना पड़ रहा है। जिसका भी जमा असामान्य लगेगा उसकी संवीक्षा की जाएगी। लेकिन देश को तो तभी संतोष होगा जब वाकई ऐसा हो। आखिर देश को तो यही लग रहा था कि नोटबंदी का मतलब कालाधन का बाहर आना और भ्रष्टाचार पर बहुत बड़ा चोट है। आम आदमी की सोच यह थी और सच भी है कि देश में प्रभावी लोगों ने अकूत कालाधन जमा किया है और उसकी बदौलत तो ऐशो आराम की जिन्दगी जी रहे हैं। नोटबंदी उन पर सबसे बड़ी चोट मानी गई। सरकार की ओर से आए बयानों का अर्थ भी उस समय यही निकल रहा था। कम से कम रिजर्व बैंक के वर्तमान आंकड़े से स्वतः ऐसा निष्कर्ष नहीं निकलता है। तो सरकार को इसे प्रमाणित करना होगा कि वाकई उसने काला धन पर चोट किया है। आखिर आम लोगों ने नोटबंदी की बड़ी कीमत चुकाई है। कई-कई दिनों तक वो बैंकों तथा एटीएम के सामने कतारों में खड़े रहे हैं। शादियां तक रद्द करनी पड़ी या फिर शादियों को अत्यंत सादे तरीके से करना पड़ा। अपने आवश्यक खर्चों में व्यापक कटौती करनी पड़ी। जो छोटी कंपनियां बंद हुई या जिनके कारोबार पर असर पड़ा वहां से रोजगार के अवसर भी घटे। वस्तुतः अनेक प्रकार से नोटबंदी ने इस देश के आम आदमी को प्रभावित किया है। विकास दर में गिरावट के भी नोटबंदी से ही जोड़कर देखा जा रहा है। इन सबका मूल्य तभी चूकता होगा जब वाकई कालाधन वाले पकड़ में आएं। किंतु यहां भी यह प्रश्न उठता है कि जब रिजर्व बैंक को आंकड़ा देने में इतना समय लग गया तो फिर जमा हुए नोटों में से कालाधन को पकड़ने में कितना समय लगेगा?

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

 

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