शनिवार, 26 नवंबर 2016

संसद का ठप्प होना किसी के हित में नहीं

 

अवधेश कुमार

 अगर विपक्ष के बयानों को देखे तो ऐसा लगेगा कि संसद न चलने देने के लिए खलनायक सरकार है। बड़ा अजीबोगरीब दृश्य बना हुआ है। संसद आरंभ होते ही विपक्ष हंगामा करता है और पीठासीन अधिकारी के सामने स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। संसद में बहस करने की जगह दोनों सदनों के करीब 200 सांसदों ने परिसर के अंदर गांधी जी की प्रतिमा के सामने प्रदर्शन किया और सरकार विरोधी नारे लगाए। विपक्ष के लोग इसे ऐसा मामला बना रहे हैं मानो सरकार ने इतना बड़ा जनविरोधी निर्णय लिया है जिसे रोकना उनका दायित्व है और यह संसद को ठप्प करके ही हो सकता है। हालांकि विपक्ष के बीच भी मतभेद हैं। कुछ पाटियां नोट वापसी के निर्णय के तौर तरीकों को गलत बता रहीं हैं तो कुछ इस निर्णय को ही वापस लेने की मांग कर रहीं हैं। ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल दूसरी श्रेणी के नेता है। इसके अलावा अधिकतर पार्टियां पहले विन्दू पर टिकीं हैं। विपक्ष के नाते आवाज उठाना इनका अधिकार और दायित्व दोनों है। जनता को अगर किसी फैसले से कष्ट हो रहा है तो उसके हक में आखिर आवाज कौन उठाएगा? इस नजरिए से देखा जाए तो इनका रवैया आपको सही नजर आएगा। किंतु आवाज उठाने का मतलब संसद को ठप्प करना नहीं है। आवाज उठाने का मतलब संसद के विषय को सड़क तक ले जाना भी नहीं है।

पहली नजर मंें ऐसा लग सकता है कि अगर विपक्ष कह रहा है कि प्रधानमंत्री सदन के अंदर आएं और जवाब दें तो इसमें गलत क्या है। आखिर नोटों की वापसी का फैसला उनका ही था तो जवाब वे ही क्यों न देें? प्रधानमंत्री जवाब दें यह मांग करने का अधिका विपक्ष को है और इसे अनौचित्यपूर्ण नहीं कह सकते।  किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है। विपक्ष कह रहा है कि प्रधानमंत्री पूरी बहस के दौरान सदन में उपस्थित रहें। यह मांग अनुचित और अव्यावहारिक है। यह संसद की किसी नियम या पंरपरा में निहित नहीं है कि प्रधानमंत्री पूरी बहस के दौरान उपस्थित ही रहें। यह संभव भी नहीं है। प्रधानमंत्री के अनेक कार्यक्रम होते हैं। वे बहस के दौरान उपस्थित रह सकते हैं और नहीं भी। यह उनके पास उपलब्ध समय पर निर्भर करेगा। इसके लिए जिद करने का मतलब कि यहां कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना वाली बात है। आप चाहते कुछ और हैं और बोल कुछ और रहे हैं। संसद यदि सत्र में है तो उसे सबसे ज्यादा महत्व दिया जाए यह सरकार की जिम्मेवारी है। प्रधानमंत्री उसके प्रमुख हैं, इसलिए संसद महत्वहीन न हो जाए इसका ध्यान रखना उनक भी दायित्व है। किंतु ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि प्रधानमंत्री सारे कार्यक्रम रद्द कर लंबी चलने वाली किसी बहस में पूरे समय बैठे हों। वैसे भी एक ही मांग दोनों सदनों में हो रही है। क्या कोई व्यक्ति चाहे भी तो एक साथ दोनों सदनांे मंें उपस्थित रह सकता है? नहीं न।

सरकार ने नहीं कहा है कि प्रधानमंत्री जवाब नहीं देंगे। प्रधानमंत्री को जवाब देने में समस्या भी नहीं होनी चाहिए। हालांकि यह आवश्यक नहीं है कि इस बहस का जवाब प्रधानमंत्री ही दें, किंतु विपक्ष की जिद है तो प्रधानमंत्री जवाब दे सकते हैं। जवाब बहस का दिया जाएगा। इसलिए पहले बहस तो हो। लोकसभा में विपक्ष की यह जिद है कि बहस कार्यस्थगन प्रस्ताव के तहत हो। इसका क्या मतलब है? कार्यस्थगन पर ही बहस करें यह जिद अनावश्यक है। कार्यस्थन प्रस्ताव में बहस के बाद मतदान का प्रावधान है। लोकसभा में सरकार को बहुमत प्राप्त है इसलिए यहां मतदान मंे समस्या नहीं है, फिर भी इसकी जिद क्यों? महत्वपूर्ण बहस है या नियम? नियम को प्रधानता देना और बहस को नहीं यह कहां की विवेकशीलता है। नोट वापसी पर संसद में मतदान का मतलब क्या है? हो सकता है इसके बाद मांग हो राज्य सभा में भी इस प्रस्ताव के तहत बहस हो और वहां सरकार के अल्पमत होने का लाभ उठाया जाए। राज्य सभा में तो बाजाब्ता बहस आरंभ हो गई थी। बीच में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने नोट वापसी के बाद हुई कथित मौतों की तुलना कश्मीर में आतंकवादियों के हमले से कर दिया। इस पर सरकारी पक्ष ने आपत्ति की। हालांकि बाद मंें सरकार इस मांग से वापस आ गई कि आजाद माफी मांगे केवल इसलिए कि किसी तरह बहस हो। अब विपक्ष प्रधानमंत्री को बुलाने की मांग को आधार बनाकर बहस नहीं होने दे रहा है। सरकार बहस को तैयार है इसे लेकर कहीं संदेह की गुंजाइश नहीं है। विपक्ष की मांग इसमें बाधा है। इस संबंध में राज्य सभा के उपसभापति पी. जे. कूरियन का वक्तव्य यहां उद्धृत करने योग्य है। उन्होंने कहा कि आप कहते हैं कि प्रधानमंत्री बहस का जवाब दें तो यह मुझे समझ में आता है। लेकिन जब आप कहते हैं कि प्रधानमंत्री बहस में मौजूद रहें तो यह समझ में नहीं आता।

कूरियन का यह वक्तव्य ही विपक्ष के रवैये को समझने के लिए पर्याप्त है। वास्तव में कूरियन ने बिना कहे साफ कर दिया है कि विपक्ष का यह रवैया उचित नहीं है। वैसे भी विपक्ष की कुछ पार्टियां जो मांग कर रहीं हैं उनमें बीच के रास्ते की गुंजाइश इस समय नहीं दिख रहा। उदहारण के लिए कांग्रेस कह रही है कि नोट वापसी में बहुत बड़ा घोटाला है, घोषणा के पहले अपने लोगों को सरकार ने बता दिया था। इस आरोप को आधार बनाकर वे संयुक्त संसदीय समिति से जांच की मांग कर रहे है। अगर बहस कुछ समय के लिए हुआ भी तो संयुक्त संसदीय समिति की मांग को लेकर संसद फिर ठप्प किया जाएगा। ममता बनर्जी कह रहीं है कि यह फैसला ही गलत है इसे वापस लिया जाए। तो इस मांग को लेकर उनके सांसद संसद में हंगामा करते रहेंगे। इसलिए प्रधानमंत्री  अगर पूरे समय के लिए किसी सदन में बैठ भी जाएं उससे स्थिति बदलने वाली नहीं है। स्थिति तब बदलेगी जब पार्टियां यह तय करें कि हमें संसद चलाना है। राजनीति अपनी जगह है लेकिन संसद जिस उद्देश्य के लिए है उसके लिए हमें काम करना है।

कोई नहीं कहता कि विपक्ष सरकार पर हमला न करे, उसे घेरे नहीं। विपक्ष का काम ही आवश्यकता पड़ने पर सरकार को घेरना और हमला करना है। वह सरकार का अनुगामी नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए। लेकिन हमला, घेराव आलोचना सब सदन के अंदर बहस के माध्यम से हो। संसद बहस के लिए है। बहस होने से ही सरकार पर बाध्यकारी दबाव बन सकता है। आपको लगता है कि सरकार के निर्णय के कारण आम आदमी परेशान है तो आप संसद में सरकार से पूछिए कि ऐसा क्यों है और परेशानियों को दूर करने के लिए वह क्या कर रही है? आपके पस कुछ उपाय हैं तो वह बताइए। संसद ठप्प करना संसद की मूल धारणा के ही विपरीत है। सरकार और विपक्ष दोनों संसद के अंग हैं। इसलिए विपक्ष यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि संसद चले यह केवल सरकार की ही जिम्मेवारी है। जिम्मेवारी उसकी भी है। कांग्रेस के नेता बातचीत में कहते हैं कि जब हमारी सरकार थी तो भाजपा संसद को चलने नहीं देती थी। हम इसमें यहां विस्तार से नहीं जाना चाहते कि यूपीए सरकार के दौरान संसद क्यों ठप्प होती थी। लेकिन ऐसे तर्क का एक अर्थ यही निकलता है कि आपने जो किया हम आपके साथ वही कर रहे हैं। यानी हमको संसद में आपको हलकान करना ही है और इसके लिए हम कोई भी कारण तलाश लेंगे। संसदीय लोकतंत्र में बदले की भावना से कोई काम नहीं किया जाना चाहिए। संसद ठप्प होने से नेताओं की ही छवि और धूमिल होती है और एक समय बाद धीरे-धीरे लोगों के अंदर संसदीय व्यवस्था को लेकर वितृष्णा पैदा होने लगती है। यह स्थिति लोकतंत्र के भविष्य के लिए चिंताजनक है। सच कहें तो संसद ठप्प होना किसी के हित में नहीं है। जितनी जल्दी इस गतिरोध का अंत किया जाए उतना ही देश के लिए, लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

शनिवार, 19 नवंबर 2016

सतलुज यमुना संपर्क नहर पर पंजाब का व्यवहार डरावना है

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय द्वारा सतलुज यमुना संपर्क नहर (एसवाइएल) पर दिए गए फैसले के बाद जो स्थिति पैदा हो गई है वह वाकई चिंताजनक है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है तो राज्य में कांग्रेस के विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से। इन सबका कहना है कि पंजाब की अकाली दल-भाजपा की सरकार राज्य के हितों की रक्षा करने में पूरी तरह नाकाम रही है। अमरिंदर ने अपने इस्तीफे में लिखा है कि केंद्र सरकार और पंजाब सरकार ने पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में पंजाब के हितों को ठीक से नहीं रखा व इसकी अनदेखी की। हम किसी भी हालत में राज्य का पानी बाहर नहीं जाने देंगे। दूसरी ओर पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर यह ऐलान कर दिया है कि एक बूंद पानी पंजाब से नहीं दिया जाएगा। हां, उन्होंने राष्ट्रपति से अपील करने की आत अवश्य की है, क्योंकि राष्ट्रपति के संदर्भ पर ही मामला उच्चतम न्यायालय में गया था। पंजाब सरकार इस मामले पर 16 नवंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाएगी तथा 8 दिसंबर को मोगा में रैली करके पानी बचाओ-पंजाब बचाओ अभियान आरंभ करेगी। जरा सोचिए, उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला दिया है जिसमें उसने एसवाईएल समझौता निरस्त करने के पंजाब विधानसभा द्वारा बनाए कानून को असंवैधानिक करार दिया है तो ये नेता आखिर विरोध किसका कर रहे हैं? उच्चतम न्यायालय का। अगर उच्चतम न्यायालय तक के फैसले पर हमारे राजनेता इस तरह का रवैया अपनाएंगे तो देश कैसे चलेगा। यह स्थिति भयभीत करने वाली है।

हालांकि न यह फैसला अप्रत्याशित है और न नेताओं का रवैया। इसके पूर्व भी उच्चतम न्यायालय ने एसवाईएल पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था तो इन नेताओं ने उसके खिलाफ शालीनता की सारी सीमाएं लांघ दीं थीं।  पंजाब विधानसभा में स्वयं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने प्रस्ताव रखा कि किसी का भी आदेश हो हम सतलुज यमुना लिंक नहर नहीं बनने देंगे और यह सर्वसम्मति से पारित भी हो गया। 14 मार्च 2016 को पंजाब विधानसभा ने सतलुज यमुना संपर्क नहर के निर्माण के खिलाफ विधेयक पारित करने के बाद हरियाणा सरकार ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। न्यायालय ने अपने आदेश मंें कड़े शब्दों का प्रयोग उसी समय किया था। उच्च्तम न्यायालय ने कहा था कि उसके 2004 के फैसले को निष्क्रिय करने की कोशिश पर वह हाथ पर हाथ धरे बैठै नहीं रह सकता। पूर्व स्थिति सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय ने केंद्रीय गृह सचिव और पंजाब के मुख्य सचिव एवं पुलिस महानिदेशक को एसवाईएल नहर के लिए रखी गई जमीन एवं अन्य परिसंपत्ति का संयुक्त रिसीवर नियुक्त किया। अदालत ने कहा कि ये अधिकारी नहर की पुरानी स्थिति बनाए रखना सुनिश्चित करें और इस बारे में अदालत को रिपोर्ट दें। न्यायमूर्ति अनिल आर. दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने प्रश्नात्मक लहजे में पूछा था कि जब इस मामले पर सुनवाई चल रही है तो इस तरह के कदम उठाने का क्या मतलब। इस रुख के बाद किसी को भी समझ में आ जाना चाहिए था कि उच्चतम न्यायालय किस दिशा में विचार कर रहा है। दरअसल, पंजाब विधानसभा ने एसवाईएल नहर के निर्माण के खिलाफ तथा उसके लिए अधिगृहित जमीनों का मालिकाना हक वापस भूस्वामियों को मुफ्त में हस्तांतरित करने का विधेयक पारित कर दिया था। पंजाब सरकार का यह कदम ही उच्चतम न्यायालय के 12 वर्ष पूर्व 2004 के उस आदेश को निष्प्रभावी कर देता है जिसमें नहर के बेरोकटोक निर्माण की बात कही गई थी। चंूकि इस नहर का निर्माण हरियाणा को पानी देने के लिए होना है, इसलिए इससे सीधा प्रभावित वही हो रहा था। पंजाब सरकार ने केवल विधेयक ही पारित नहीं किया, बल्कि जितना भी हिस्सा नहर का पंजाब में पड़ता है उसे समतल करने का कार्य भी आरंभ कर दिया।

पंजाब का हरियाणा और अन्य पड़ोसी राज्यों के साथ जल बंटवारा विवाद पहले से ही उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ में लंबित था। 1966 में जब राज्य का विभाजन हुआ तो उसमें यह प्रावधान था कि हरियाणा को सतलुज के जल का हिस्सा मिलेगा। इसके 11 वर्ष बाद 1977 में 214 किलोमीटर नहर के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आरंभ हुई। इसमें 122 कि. मी. पंजाब में बनना था और 92 कि. मी. हरियाणा मेे। हरियाणा ने 1980 में ही काम पूरा कर लिया लेकिन पंजाब ने पालन नहीं किया। वह लगातार उच्चतम न्यायालय में जाता रहा। 2004 में उच्चतम न्यायालय ने नहर पूरा करने का आदेश दिया जिसके जवाब में पंजाब विधानसभा ने जल विभाजन समझौते को निरस्त कर दिया। इस राज्यों के साथ जल बंटवारा समझौता समाप्त करने के पंजाब के 2004 के कानून की वैधानिकता पर उच्चतम न्यायालय को फैसला देना था। जब पंजाब सरकार ने यह कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय को रिफरेंस भेज कर किसी राज्य द्वारा एकतरफा कानून पास कर जल बंटवारे के आपसी समझौते रद करने के अधिकार पर कानूनी राय मांगी। इसी पर न्यायालय का फैसला आया है।

 कहने की आवश्यकता नहीं कि एसवाईएल नहर का निर्माण हरियाणा को पानी देने के लिए हुआ लेकिन उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद पंजाब अपने हिस्से में नहर का निर्माण पूरा नहीं करने पर अड़ा रहा है। नहर निर्माण मुद्दा अभी लंबित ही था कि पंजाब ने नहर के लिए अधिगृहीत जमीन किसानों को वापस करने का विधेयक भी पारित कर दिया। एसवाईएल नहर के निर्माण के लिए 3,928 एकड़ भूमि अधिगृहित की गई थी। पंजाब सरकार ने विधेयक पारित करने के साथ आनन-फानन में हरियाणा को उसके हिस्से के खर्च का 191.75 करोड़ रपए का चेक भेज दिया जिसे हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने वापस कर दिया। इस प्रकार के रवैये का आखिर अर्थ क्या है? यह तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के उल्लंघन के साथ संघीय ढांचे को भी धत्ता बताना हुआ। इसमें कांग्रेस, अकाली, आम आदमी पार्टी तथा प्रदेश की भाजपा तीनों शामिल हैं। प्रदेश भाजपा ने कहा है कि वह इस मामले में अकाली दल के साथ है। इसके पूर्व अरविन्द केजरीवाल ने ट्विट करके नहर के निर्माण का विरोध कर दिया था जिसके बाद गुस्से में हरियाणा ने कहा कि केजरीवाल दिल्ली के लिए पानी का इंतजाम कर लें, हम अपने यहां से दिल्ली को पानी नहीं जाने देंगे। राज्यों को व्यवहार इस तरह हो जाए तो देश मंें अराकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। कोई विधानसभा असंवैधानिक प्रस्ताव पारित कर दे, उच्चतम न्यायालय उसके विरुद्ध आदेश दे तो वह कहे कि हम मानेंगे ही नहीं तो फिर देश को चलना कठिन हो जाएगा। हालांकि अब तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार केन्द्र सरकार को नहर का कब्जा लेकर निर्माण कार्य पूरा करना है। किंतु यह कितना कठिन होगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

तो इसमें रास्ता एक ही है कि पंजाब को उच्चतम न्यायालय का आदेश मानने के लिए बाध्य किया जाए? यह होगा कैसे? लेकिन करना तो पड़ेगा। यहां देश के ंसंविधान, उच्चतम न्यायालय के मान तथा संघीय ढांचे में नदी जल विभाजन के सिद्धांत की रक्षा का प्रश्न है। कोई विधानसभा में असंवैधानिक कानून पारित कर ले और कहे कि किसी सूरत में हम अपने यहां की नदियांे से पड़ोस को पानी देंगे ही नहीं तो इसे चुपचाप देखते सहन नहीं किया जा सकता है।  पंजाब का रवैया हर दृष्टि से अस्वीकार्य है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके पीछे चुनावी राजनीति की प्रमुख भूमिका है। सभी पार्टियों इसका लाभ उठाना चाहती हैं। इसलिए कोई किसी से कम दिखना नहीं चाहता।  हालांकि दूसरे राज्यों में भी जहां पानी का इस तरह विवाद होता है उसमें तार्किकता और सहकारी संघवाद का भाव गायब रहता है तथा राजनीति हाबी रहती है। किंतु यह विवाद सबसे आगे निकल गया है। उच्चतम न्यायालय के 2002 एवं 2004 के आदेश के अनुसार केन्द्र को नहर का कब्जा लेकर निर्माण कार्य पूरा करना है। तो केन्द्र को यहां हस्तक्षेप करना होगा। यह कैसे होगा इसका रास्ता निकालना उसकी जिम्मेवारी है। चुनावी राजनीति की वेदी पर संविधान, उच्चतम न्यायालय के आदेश एवं संघीय ढांचे में सहकार के मान्य व्यवहार की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

500 एवं 1000 के नोट हटाने का फैसला जोखिम भरा साहसिक कदम

 

अवधेश कुमार

जब यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ मिनट में देश को संबोधित करेंगे तो किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि वे 500 एवं 1000 की करेंसी वापस लेंगे। दिन में उनकी सेना के तीनों प्रमुखों से मुलाकात हुई थी और कुछ लोग कयास यह लगा रहे थे कि शायद वे पाकिस्तान के साथ किसी कदम पर देश का साथ लेने की कोशिश करेंगे। यह कयास विफल हो गया। प्रधानमंत्री ने आरंभ से ही भ्रष्टाचार, कालाधन, नकली नोट तथा आतंकवाद के वित्त पोषण की चर्चा करते हुए निर्णायक कदम उठाने की बात की और फिर यह साफ कर दिया कि 500 और 1000 रुपए की पुरानी करेंसी का वैधानिक मूल्य समाप्त हो गया है। जाहिर है, यह ऐसी घोषणा थी जिसकी प्रतिक्रिया तूफानी होनी थी। प्रधानमंत्री के यह कहने के बावजूद कि तीन दिनों तक अनिवार्य आवश्यकताओं के स्थानों पर ये नोट चल जाएंगे लोगों की भीड़ एटीएम पर उमर पड़ी। निश्चय ही तत्काल इससे हमारे आम दैनिक जीवन में कई प्रकार की कठिनाइयां आएंगी। जैसे हमारे पास यदि 500 या 1000 के नीचे के नोट नहीं हैं तो हम सब्जी, फल, अनाज आदि कुछ नहीं खरीद पाएंगे। दो दिनों बाद जब बैंक खुलेंगे तो वहां भी धन निकालने की सीमा होगी, क्योंकि छोटी करेंसी की उपलब्धता में समय लगेगा। तो समस्याएं हमारे लिए काफी समय तक रहने वाली है।

वास्तव में प्रधानमंत्री का यह कदम साहसी एवं जोखिम भरा है। जोखिम इसलिए कि आम आदमी को कुछ दिनों तक कठिनाई झेलनी पड़ेगी और उसका गुस्सा सरकार के खिलाफ होगा। उदाहरण के लिए किसी के घर में शादी है तो वे खरीदारी कैसे करेंगे? वो तो बैंक से एक साथ मोटी रकम भी नहीं निकाल सकते हैं। ऐसे लोग भी टीवी पर आए जिनके पास 500 के नोट थे और रेस्तरां में उनको खाना नहीं मिला। ऐसी अनेक परेशानियां गिनाईं जा सकती हैं। लेकिन दूरगामी दृष्टि से भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। हम जानते हैं कि बड़े नोट होने से भ्रष्टाचारियों को नकद लेने में सुविधा होती है और वो इसे आराम से छिपा सकते हैं। तो जिनने मोटी राशि छिपाई होगी उनकी जमा पूंजी खत्म। रखिए छिपाकर। इस तरह भ्रष्टाचार और कालाधन पर इससे एक बड़ा प्रहार होगा। मोदी ने कहा कि करोड़ों भारतवासियों की रग-रग में ईमानदारी दौड़ती है। वे चाहते हैं कि भ्रष्टाचार, कालेधन, जाली नोट व आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई हो। अफसरों के बिस्तरों के नीचे मिलने वाले करोड़ों रुपए से किसे पीड़ा नहीं होगी। वस्तुतः कालेधन में 500 और उससे बड़े नोटों का हिस्सा 80 से 90 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसका सीधा असर गरीब व मध्यम वर्ग पर पड़ता है। भ्रष्टाचार से जमा धन या कालाधन दोनों बेनामी हवाला कारोबार को भी बल देते हैं। आतंकवादियों ने इसका उपयोग हथियारों की खरीद में किया है। तो इस एक कदम से आप एक साथ कई लक्ष्य पा सकते हैं। काला धन के कारण देश में जिस तरह जमीनों और मकानों के दाम आसमान चढ़ गए थे उनके धरातल पर आने की कल्पना की जा सकती है। यह माना जा सकता है कि अब ईमानदार लोगों के लिए शहरों में घर खरीदने का समय आ जाएगा।

बड़े नोटों को बंद करने की मांग एक वर्ग की ओर से लंबे समय से की जाती रही है। इसके पीछे तर्क कई थे। एक बड़ा तर्क यह था कि अगर 500 और 1000 के नोट नहीं होंगे तो बड़े घूसखोर 100-50 के नोट किस तरह लेंगे और कहां रखेंगे। 10 लाख का घूस भी बड़े थैलों में भरकर ले जाना पड़ेगा। नौकरशाहों के घरों में पिछले कुछ सालों में मारे गए छापों में घरों से करोड़ों की राशि 1000 और 500 की करेंसी के मिले हैं। तो सारा खेल बड़े करेंसियों का था। यूपीए सरकार ने 2011 में इन नोटों को बंद करने से इन्कार कर दिया था। इसके पीछे वित्त मंत्रालय ने तीन तर्क दिए थे। एक, बड़े नोटों को बंद करने पर मांग पूरी करने के लिए भारी संख्या में बाजार में छोटे मूल्यों के नोट लाने होंगे और सरकारी छापेखानों की क्षमता इतनी नहीं है कि नोटों की मांग पूरी की जा सके। दूसरे, देश के अधिकतर नागरिकों के पास यदि बैंक खाता हो तभी ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि बैंकों से लेनदेन होने पर भारी संख्या में करेंसी की आवश्यकता नहीं रहती है। जिनके पास खाते हैं वे भी बैंकिंग सुविधाओं का उतना उपयोग नहीं करते और नकदी का ही प्रयोग करते हैं। तीन, नोट के लिए करेंसी कागज विदेशों से आते हैं। 1000 एवं 500 के नोट बंद करने के बाद छोटे नोट छापने के लिए करेंसी कागज का आयात भी कई गुना ज्यादा करना होगा। इस पर खर्च काफी आएगा।

ऐसा नहीं है कि वित्त मंत्रालय का तर्क गलत था। आज भी ये चुनौतियां हैं। इसीलिए कुछ दिनों तक सीमित मात्रा में बैंकों से नकदी निकालने की व्यवस्था की गई है। यानी जब तक छोटे करेंसी छप नहीं जाते, या 500 एवं 2000 के आने वाले नए नोट छापे नहीं जाते तब तक यह स्थिति रहेगी। ध्यान रखिए हर वर्ष औसत 12000,000000 (12 अरब) की संख्या में नोट छापा जाता है। आंकड़ें बताते हैं कि कुल प्रचलित नोटों की संख्या में 500 का अनुपात करीब 14 प्रतिशत प्रतिशत तथा 1000 का 5 प्रतिशत से ज्यादा है। लेकिन कुल मूल्य में करीब 48 प्रतिशत हिस्सा 500 के नोट का एवं करीब 35 प्रतिशत 1000 के नोट का था। इस समय यदि बाजार में करीब 14 लाख करोड़ रुपया 500 एवं 1000 के नोटों में उपलबध है। केवल 14 -15 प्रतिशत ही छोटे नोट हैं।

तो नोट छापने में समस्या है। इसलिए नए तरीके के 500 एवं 2000 के नोट निकालने की व्यवस्था की गई है। किंतु जैसा प्रधानमंत्री ने कहा रिजर्व बैंक इसका ध्यान रखे कि इसका अनुपात ज्यादा नहीं हो। 1, 2 और 5 रुपया के नोट को हटाने के पीछे तर्क यह दिया गया था कि प्रचलन में कुल नोट का 57 प्रतिशत अंश इनका था पर मूल्यों के अनुसार केवल 7 प्रतिशत। इतने कम मूल्य के नोट छापने का खर्च काफी बैठता है, इसलिए वापस ले लिया जाए। हालांकि 5 रुपए का नोट फिर से छापने का निर्णय किया गया। 1000, 5000 एवं 10000 तक के नोट अंग्रेजों के समय से प्रचलन में था, लेकिन जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में इसे वापस ले लिया। 500 रुपए के नोट का प्रचलन तो 1946 में ही समाप्त हो गया था। इसे पुनः राजीव गांधी के शासनकाल में 1987 में तथा 1000 रुपए का भाजपा शासनकाल में सन् 2000 में आरंभ किया गया।

ध्यान रखिए 13 मई 2011 को इंगलैंड में 500 के यूरो नोट को प्रतिबंधित किया गया। सीरियस ऑर्गेनाइज्ड क्राईम एजेंसी (सोका) ने अपने आठ महीने के अध्ययन में पाया था कि इनका 90 प्रतिशत उपयोग अपराधी गैंेगों के लाभ को वैध बनाने के लिए हवाला कारोबारी यानी मनी लौंडरिग करने वाले करते हैं। तब सोका के उप निदेशक इआन क्रक्सटन ने बीबीसी से बातचीत में कहा था ,‘जब अपराधी ब्रिटेन या ब्रिटेन के बाहर भारी मात्रा में नकद ले जाना चाहते हैं तो उनके पास सबसे बढ़िया रास्ता उसका भार घटाना एवं बरामदी के जोखिम को कम करना होता है। 500 यूरो नोट वास्तव में अपराधियों की चाहत है।  तो जो निष्कर्ष इंगलैंड में आया है भारत में वह नहीं आएगा यह मानने का कोई कारण नहीं है। अमेरिका में भी 1969 से पहले 100 डॉलर के अलावा 500, 1000, 5000, 10000 एवं 1 लाख डॉलर तक के नोट थे। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इन सारे नोटांे को प्रचलन से वापस ले लिया। निक्सन ने घोषणा किया कि इसका एकमात्र उद्देश्य माफियाओं का जीवन कठिन बनाना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के देश के नाम पूरे संदेश की ध्वनि भी लगभग यही है। यानी काला धन को कम करने के साथ भ्रष्टाचारियों, देश को लूटने वालों, हवाला कारोबारियों, भू-माफियाओं...का काम कठिन बनाने के लिए यह कदम जरुरी है। साथ ही आतंकवादियों और अंडरवर्ल्ड अपराधियों के वित्तपोषण पर भी इससे काफी हद तक रोक लगेगी। तो कुल मिलाकर मोदी सरकार का यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण कदम है जिसका प्रभाव दूरगामी होगा। बावजूद इसके आम आदमी को महीनों होने वाली परेशानियों से बचाने के लिए आपातस्थिति में उपाय करने होंगे अन्यथा इससे सरकार के विरुद्ध असंतोष पैदा हो सकता है।   

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः011 22483408, 09811027208

 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

सिमी आतंकवादी मारे गए, पर इनका जेल से भागना चिंताजनक

 

अवधेश कुमार

भोपाल केन्द्रीय कारागार से भागे स्टुडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के 8 आतंकवादियों के मारे जाने पर जो बवण्डर खड़ा करने की कोशिश हुई है उससे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारत में याकूब मेनन से लेकर अफजल गुरु तक पर बवण्डर खड़ा किया गया, इशरत जहां के तीन साथियों के साथ मुठभेड़ को प्रश्नों के घेरे में लाने की कोशिशें अभी तक जारी है। यह घटना भी कुछ ऐसी है। आठों पहले जेल से भागते हैं और 9 घंटे के भीतर ही पुलिस द्वारा इनको ढेर कर दिया जाता है। सामान्यतः पुलिस को ऐसी सफलता नहीं मिलती है। इसलिए भी बहुत लोगों को शंका हो रही है। कुछ ऐसे लोग हैं जो ऐसे मामलों पर स्थायी शंका पैदा करते हैं। कुछ समय के लिए यह मान लेते हैं कि सभी लोगांें के प्रश्नों का जवाब पुलिस संतोषजनक ढंग से नहीं दे पा रही है। ऐसे मामले में यह स्वाभाविक है। किंतु जिस गांव में वे मारे गए वहां के लोग तो बताएंगे कि सच क्या है। इन होहल्ला और छाती पीट माहौल से अलग प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या इस मामले का यही महत्वपूर्ण पहलू है? क्या इनका जेल में एक आरक्षक की हत्या कर तथा दूसरे को घायल कर भाग जाना महत्वपूर्ण नहीं है? कोई निर्दोष एवं कभी अपराध न करने वाला व्यक्ति इस तरह न हत्या कर सकता है न जेल से भागने का ऐसा षडयंत्र रच सकता है। दूसरे, इस मामले पर विचार करते समय उन पर आतंकवाद सहित जो अन्य आरोप हैं उनको भी ध्यान में रखना चाहिए। तीसरे, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन आठोें मंें से तीन ऐसे हैं जो पहले भी खंडवा जेल से भाग चुके हैं। इसलिए उनके मारे जाने को संदेह के घेरे में लाकर और उसकी पर फोकस करके हम इनसे जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज कर देंगे।

इसमें सबसे पहला है, भोपाल जैसे अति सुरक्षित माने जाने वाले कारागार से इनका निकल भागना। यह जेल की पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करता है। ऐसा षडयंत्र जेल के अंदर के लोगों की मिलीभगत के बगैर सफल हो ही नहीं सकता। आखिर रात के दो से चार बजे के बीच ये किस तरह एक साथ प्रधान आरक्षक हमला करने में सफल रहे? ध्यान रखिए, प्रधान आरक्षक की चम्मच या प्लेट से बनाए गए धारदार हथियार से गला रेतकर हत्या कर दी और दूसरे आरक्षक को हल्का घायल कर हाथ-पैर बांध दिए। इसके बाद चादर में लकड़ी बांधकर उसकी सीढ़ी बनाई और करीब 25 फीट ऊंची दीवार को फांदकर निकल गए। इस पूरी वारदात में समय लगा होगा। यह 5-10 मिनट में संभव नहीं होगा। क्या भोपाल जेल में सुरक्षा इतनी लचर है कि इतने समय तक इन पर किसी प्रहरी की नजर गई ही नहीं? आठ लोग यदि चादर और लकड़ी की सीढ़ियों से दीवाल फांदेंगे तो उसमें भी समय लगा होगा। प्रश्न तो यह भी है कि आखिर  आतंकवाद के इन आरोपियों को एकत्रित होने का अवसर कैसे मिला? वह भी इस पृष्ठभूमि के बाद कि उनमंें से कई पिछली बार 12 अक्टूबर 2013 में ही खंडवा जेल से भाग चुके थे। खंडवा में ये जेल के बाथरूम की दीवार तोड़कर फरार हुए थे। खंडवा फरारी घटना के बाद सरकार ने मध्यप्रदेश के अलग-अलग जेलांे में बंद सिमी के आरोपियों को भोपाल जेल स्थानांतरित कर दिया ताकि वे फिर भाग न सके। जाहिर है उनको विशेष प्रत्यक्ष और परोक्ष निगरानी में रखा जाना चाहिए था जिसमें साफ कमी दिखाई देती है। अब एनआईए इनकी जांच कर रही है तो मान लेना चाहिए सच सामने आ जाएगा तथा उसकी अनुशंसाओं के आधार पर अन्य जेलों की सुरक्षा में भी सुधार किया जा सकेगा।

ध्यान रखिए, 12 अक्टूबर 2013 को खंडवा जेल से सात कैदी भागे थे। ये थे, अबू फैजल खान, एजाजुद्दीन अजीजुद्दीन, असलम अय्यूब, अमजद, जाकिर, शेख महबूब और आबिद मिर्जा। भागने के बाद उनने 1 फरवरी 2014 को तेलंगाना के करीमनगर में डकैती की थी। इसके बाद चेन्नई, पुणे, बिजनौर शहरों में तीन बम धमाके करने में इनकी संलिप्तता सामने आई। इन पर अहमदाबाद में बम धमाके का भी आरोप है। 12 सितम्बर 2014 को बिजनौर के मोहल्ला जाटान स्थित एक मकान में विस्फोट हो गया था। विस्फोट के बाद असलम, एजाजुद्दीन उर्फ एजाज, मोहम्मद सालिक उर्फ सल्लू उर्फ अबु फैजल, महबूब उर्फ गुड्डू उर्फ मलिक, अमजद, जाकिर हुसैन उर्फ सादिक फरार हो थे। बम बनाते समय विस्फोट में महबूब झुलस गया था। जाटान विस्फोट मामले में छह मुकदमे दर्ज हुए थे। आतंकवादियों की मदद करने के आरोप में हुस्ना, नदीम, रईस टेलर, उसका पुत्र अब्दुल्ला, झालू निवासी फुरकान को जेल भेजा गया था। पांचों को पिछले साल लखनऊ जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। 3 अप्रैल 2015 को तेलंगाना के जिला नलगोडा में पुलिस ने इनमें से दो असलम व एजाजुद्दीन को मुठभेड़ में मार गिराया था। बाकी फरार हो गए थे। 24 दिसंबर 13 को सरगना अबू फैजल को बड़वानी जिले के सेंधवा से गिरफ्तार करने में सफलता मिली थी। 17 फरवरी 2016 को महबूब, अमजद, जाकिर हुसैन उर्फ सादिक को उड़ीसा पुलिस ने राउरकेला से गिरफ्तार किया था। आबिद को कुछ ही देर बाद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। देश के विभिन्न प्रांतों में दहशत फैलाने और लूट की वारदातों को अंजाम देने के मामले में एनआईए को इनकी तलाश थी। राउरकेला में उड़ीसा की स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप, मध्यप्रदेश की एंटी टेरिस्ट स्क्वाड (एटीएस) और तेलंगाना पुलिस की टीम ने संयुक्त कार्रवाई की थी। राउरकेला के कुरैशी मोहल्ले में चारों  एक कमरा किराए पर लेकर रह रहे थे। इनको गिरफ्तार करने के दौरान पुलिस को छह रिवाल्वर सहित अन्य हथियार, मोबाइल, छह बाइक, पैन ड्राइव, बैंक पासबुक, दो पैन कार्ड भी मिले। पैन कार्ड दीपक साहू और कुलदीप सिंग के नाम बने हुए हैं। ये इनका उपयोग पहचान पत्र के रूप में करते थे। एक कार टाटा इंडिका यूपी-16-एडी-3896 भी जब्त की गई। जब्त की गई छह बाइक छत्तीसगढ़ परिवहन विभाग में दर्ज थी।

पुलिस के अनुसार पिछली बार जब अबू फैजल ने पकड़े जाने के बाद पूछताछ में बताया था कि वे तालिबान से संपर्क में थे। खंडवा में एटीएस जवान सीतारात यादव, अधिवक्ता संजय पाल और बैंककर्मी रविशकंर पारे की हत्या का आरोप भी इन पर था। कहने का तात्पर्य यह कि इनके अपराधी होने को लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। इन सबका सरगना अबू फैजल था जिसे सुरक्षा एजेंसियां बड़ा आतंकवादी मानती रहीं हैं। इनके कारनामे ही इनके खूंखार होने का प्रमाण देतीं हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इनकी सुरक्षा में जेल में ऐसी चूक कैसे हो गई। जाहिर है यह चूक अक्षम्य है। अगर ये बच गए होेते तो क्या करते कहना कठिन है। कारण, हाल के वर्षों में आतंकवादियों के लिए वारदात करना कठिन हो गया है। यहां तक कि माओवादी भी अब पहले की तरह हमले नहीं कर पाते हैं। बवजूद इसके ये हमारे आपके अंदर तो भय पैदा कर ही सकते थे। हो सकता है फिर ये आतंकवादी वारदात का षडयंत्र रचते।

जहां तक पुलिस की कार्रवाई पर संदेह की बात है तो यह हमारे यहां होगा। असदुद्दीन ओवैसी ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि जेल से भागते हुए इन विचाराधीन कैदियों ने पूरे कपड़े, जूते, घड़ियां और कलाई पर बैंड पहने हुए थे। उनकी पैंट में बेल्ट भी लगी थी। उनकी यह बात ठीक है कि विचाराधीन कैदियों को ये सब वस्तुएं नहीं दी जाती हैं, लेकिन जेल में तो किसी तरह का हथियार भी नहीं मिलता। उनने गला रेतने का काम किया। जब ये साजिश के तहत भागे हैं तो उनने अपने लिए सारी व्यवस्थाएं करवाई हों। इसीलिए तो जांच की आवश्यकता है कि इनके भागने में अंदर किनका सहयोग मिला, बाहर से कौन सहयोग कर रहा था....ये कब से योजनाएं बना रहे थे..आदि आदि। प्रश्न उठाने वाले उठाएं, लेकिन देश में पुलिस की कार्रवाई का व्यापक समर्थन है। हालांकि इससे जेल की सुरक्षा चूक का मामला हाशिए में नहीं चला जाता।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

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