शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

सिद्धू के विद्रोही होने का अर्थ

 

अवधेश कुमार

नवजोत सिंह सिद्धू की मानें तो उन्होंने इसलिए राज्यसभा से त्यागपत्र दिया, क्योंकि उन्हें बार-बार कहा गया कि पंजाब की ओर आपको देखना नहीं है। तत्काल पंजाब चुनाव की दृष्टि से देखें तो भाजपा को इससे होने वाल क्षति का अनुमान न हो ऐसा नहीं हो सकता। अप्रैल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिद्धू को राज्यसभा सदस्यता स्वीकारने के लिए कहा था और उन्हें बाजाब्ता मनोनित कराया गया था। इसके पीछे सोच यही थी कि नवजोत और उनकी पत्नी नवजोत कौर मान जाएंगे तथा आगामी चुनाव में उनका उपयोग किया जा सकेगा। दरअसल, नवजोत सिंह सिद्धू ज्यादा मुखर होकर नहीं बोलते थे लेकिन उनकी पत्नी जो कि पंजाब में मुख्य संसदीय सचिव थीं, लगातार बयान दे रहीं थीं कि भाजपा अकाली दल से रिश्ता तोड़कर अकेले चुनाव लड़े। उन्होंने एक बार तो यह भी कह दिया कि अगर भाजपा अकाली दल के साथ चुनाव लड़ती हैं तो वो गठबंधन की उम्मीदवार नहीं होंगीं। इस बयान से ही पंजाब भाजपा में खलबली मच गई थी। सिद्धू दंपत्ति अकाली दल से नाराज हैं और उसका साथ नहीं छोड़ने तथा अपनी बात नहीं माने जाने से भाजपा नेतृत्व से असंतुष्ट हैं यह कोई भी देख सकता था। अंततः उसकी ही परिणति पति द्वारा राज्यसभा से तथा पत्नी द्वारा विधानसभा से त्यागपत्र देेने के रुप में सामने आया है।

यह कोई साधारण कदम नहीं है। विधानसभा का कार्यकाल तो कुछ समय के लिए बचा है लेकिन राज्यसभा में नवजोत सिंह सिद्धू के पास पूरे छः वर्ष का समय था। कोई संासदी यू ही नहीं छोड़ता। जाहिर है, नवजोत सिंह ने काफी सोच-समझकर और रणनीतिक कदम के रुप में इस्तीफा दिया है। उनका ट्विट देखिए। वे कहते हैं कि सही और गलत की लड़ाई में तटस्थ नहीं रहा जा सकता। सही गलत चुनना था। पंजाब का हित सबसे उपर है। ... प्रधानमंत्री के आदेश पर राज्यसभा स्वीकार किया था लेकिन यह बोझ बन गया था। साफ है कि सिद्धू ने पंजाब की जनता को इसके द्वारा संदेश दिया है कि उन्होेंने प्रदेश के हित के लिए राज्य सभा से त्यागपत्र दिया है। यह बयान अकाली और भाजपा दोनों के खिलाफ है। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने कहा है कि अकाली और भाजपा के गठबंधन मंें पंजाब का हित नहीं हो रहा है, इसलिए उनको राज्य सभा छोड़नी पड़ी है। यह विधानसभा चुनाव में उनका सबसे बड़ा दांव होगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने जैसे ही सिद्धू के त्यागपत्र के बाद उन्हें सैल्यूट किया उनलोगों को भी पूरा माजरा समझ में आ गया जो पंजाब की राजनीति पर नजर नहीं रख रहे थे।

तो साफ है कि नवजोत सिंह और आम आदमी पार्टी के बीच बातचीत हो रही है। अगर वे आम आदमी पार्टी में जाते हैं तो केवल विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए तो नहीं ही। फिर राज्यसभा इससे तो बेहतर ही था। वास्तव में पंजाब में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता में इजाफा दिख रहा है, पर उसके पास एक विश्वसनीय सिख्ख चेहरा का अभाव है। यह अभाव सिद्धू दूर कर सकते हैं। हालांकि अभी कुछ कहना कठिन है, क्योंकि आप नेताओं ने आरंभिक उत्साह के बाद चुप्पी साध ली है। किंतु वो आप की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होते हैं तो पार्टी ज्यादा बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर सकती है। उन्हें प्रदेश के लिए राज्य सभा की सदस्यता त्यागने वाला नेता कहकर प्रचारित करने से पार्टी का पक्ष और सबल होगा। पंजाब के लोगों के सामने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर प्रकाश सिंह बादल और कैप्टन अमरींदर सिंह से अलग एक ताजा चेहरा होगा, जिसकी ओर आकर्षण हो सकता है। सिद्धू के बोलने का अंदाज लोगों पर जादूई प्रभाव डालता है। भाजपा उनका प्रचार में अलग-अलग राज्यों में उपयोग करती थी। गुजरात विधानसभा चुनाव में स्वयं नरेन्द्र मोदी ने उनका पूरा उपयोग किया था। उनका चेहरा जाना पहचाना है तथा उन पर किसी तरह के भ्रष्टाचार का दुराचरण का कोई आरोप नहीं है।

पंजाब पर नजर रखने वाले जानते हैं कि इस समय अकाली दल के पक्ष में माहौल नहीं है। पार्टी पर कई प्रकार के आरोप हैं और अरविन्द केजरीवाल ने मादक द्रव्यों के अवैध व्यापार को बड़ा मुद्दा बनाकर पहले से अकाली दल को रक्षात्मक बनने को मजबूर करने की रणनीति अपनाया हुआ है। चूंकि सिद्धू उसी गठजोड़ से निकले हैं, इसलिए यही आरोप यदि वो लगाएंगे तो इसका असर ज्यादा हो सकता है। इसके विपरीत अकाली के पास सिद्धू पर आरोप लगाने के लिए क्या होगा? भाजपा उन्हें क्या कहेगी? नैतिक दृष्टि से यह ठीक है कि अगर सिद्धू को यही करना था तो उन्हें राज्य सभा स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी। संभव है उन्हांेंने आम आदमी पार्टी से मोलभाव करने के इरादे से राज्य सभा की सदस्यता ले ली हो ताकि इसे छोड़ने के एवज में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी ली जाए। तो भाजपा कह सकती है कि उन्होंने विश्वासघात किया है या भाजपा ने उनको नहीं छोड़ा लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए अपनी पार्टी को लात मार दिया...। क्या इससे मतदाता प्रभावित होंगे? इस समय ऐसा लगता नहीं।

हालांकि सिद्धू दो बार सांसद रहने के बावजूद कभी गंभीर नेता के तौर पर अपने को साबित न कर सके। उनकी छवि अरुचि से राजनीति में आने वाले व्यक्तित्व की रही। वो संसद में जाने से ज्यादा अपने टेलीविजन कार्यक्रमों को ही महत्व देते रहे। दूसरी ओर इससे उनकी लोकप्रियता एक बड़े वर्ग के बीच बनी रही। यह लोकप्रियता चुनाव मंें उनके काम आ सकती है। पिछले लोकसभा चुनाव मंे कोई विश्वसनीय सिख्ख चेहरा न होने के बावजूद आप ने चार सीटें जीत कर सबको हैरत मंें डाल दिया। अगर लोकसभा चुनाव परिणाम को देखें तो भाजपा को 8.70 प्रतिशत एवं अकाली को 20.30 प्रतिशत यानी कुल मिलाकर 29 प्रतिशत मत मिला था। यह उस समय का प्रदर्शन है जब पूरे उत्तर भारत में मोदी की लहर चल रही थी। वैसे सिद्धू ने उस समय भी चुनाव प्रचार नहीं किया था। वे तब भी अकाली से अलग होकर चुनाव की वकालत कर रहे थे और परिणाम में अकालियों ने अरुण जेटली को अमृतसर से चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर उनको ही चुनाव से बाहर कर दिया। इसका गुस्सा उनके अंदर होना स्वाभाविक था। कोई कहे कि इसका असर भाजपा के वोटों पर नहीं पड़ा तो यह गलत होगा। अरुण जेटली की पराजय सामान्य घटना नहीं थी। खैर, लोकसभा चुनाव में भाजपा अकाली केे समानांतर आम आदमी पार्टी को 30.40 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 33.10 प्रतिशत मत मिला था। विधानसभा अनुसार पार्टियों की स्थिति के आलोक में देखें तो कुल 117 स्थानों पर भी ऐसे ही विभाजित जनादेश था। इसमें भाजपा को 16, अकाली दल को 29, कांग्रेस को 37 तथा आप को 33 स्थानों पर बढ़त थी। यहां भाजपा अकाली को बढ़त थी लेकिन बहुमत से 14 सीटें कम।

कम से कम इस समय यह कल्पना नहीं की जा सकती कि अकाली और भाजपा लोकसभा चुनाव से बेहतर प्रदर्शन कर लेंगे। उसमें भी सिद्धू के विरोध में और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनकर सामने आने के बाद तो इनके वोट में सेंध लगना ही है। चूंकि सिद्धू भाजपा की प्रदेश राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं थे, इसलिए पार्टी के ज्यादा लोग उनके साथ चले जाएंगे यह संभव नहीं, किंतु भाजपा के ंअंदर अकाली को लेकर असंतोष है और इसका लाभ वे उठाने की कोशिश करेंगे। वैसे सिद्धू अगर आप का चेहरा बनते हैं तो कांग्रेस के लिए भी परेशानी हो सकती है। कांग्रेस कह रही है कि सिद्धू के भाजपा छोड़ने का मतलब लोग भाजपा से नाराज हैं। लेकिन सिद्धू ने कांग्रेस की चिंता भी बढ़ा दी है। कांग्रेस को भय यह लग रहा है कि लोग तीनों चेहरे की तुलना करेंगे तो संभव है कैप्टन से ज्यादा महत्व सिद्धू को दे दें। ऐसा हुआ तो अकालियों के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान का लाभ उठाकर सत्ता में वापसी का सपना टूट जाएगा। इसलिए वे भी सिद्धू को अपने पाले में लाने की बात कर रहे हैं। किंतु भाजपा के लिए तो यह बहुत बड़ा आघात है। सिद्धू किसी कीमत पर अकाली के साथ राजनीति नहीं करेंगे यह साफ हो चुका था। बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व द्वारा उनसे पंजाब की राजनीति पर सतत विस्तारपूर्वक चर्चा ही नहीं की गई। अगर उनसे नियमित चर्चा की जाती तो ऐसा कदम उठाने में उनको हिचक होती।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208 

शनिवार, 23 जुलाई 2016

कश्मीर पर राष्ट्रीय एकता

 

अवधेश कुमार

कश्मीर पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस से निश्चय ही देश को इस मामले में संतोष हुआ होगा कि सरकार एवं विपक्ष दोनों के स्वर लगभग समान थे। हालांकि विपक्ष के कुछ नेताओं ने सुरक्षा बलों की कथित ज्यादती का मुद्दा उठाया लेकिन कुल मिलाकर सबका कहना था कि हमें एक स्वर से संदेश देना चाहिए। इसके एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि कश्मीर पर सभी दलों के एक सुर में बोलने से दुनिया मंे सही संदेश गया है। वास्तव में हिज्बुल आतंकवादी बुरहान वानी और उसके दो साथियों के मारे जाने के बाद अलगाववादियों ने कश्मीर में जैसी उत्तेजना पैदा की उसके विरुद्ध हमने लंबे समय बाद इस तरह की राष्ट्रीय एकता देखी है। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों, मीडिया के बड़े चेहरों तथा चिन्हित सक्रियतावादियों को छोड़ दे ंतो कश्मीरी अलगाववादियों के पक्ष में ऐसा कोई बयान सामने नहीं आया जैसा आम तौर पर आ जाता था। इससे यह साबित होता है कि कश्मीर में जारी आतंकवाद और अलगाववाद पर देश का मनोविज्ञान बदल रहा है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों में सरकार की नीतियों के आलोचक नहीं है या उन्होंने आलोचना नहीं की या आगे नहीं करेंगे, लेकिन वह आलोचना ऐसी नहीं थी या है या होगी जिनसे कश्मीर को लेकर भारत मंें राजनीतिक दलों के बीच अनेकता का संदेश जाए। सरकार की नीतियों की आलोचना करना, उसे संकट से निपटने में सफल न बताना एक बात है और कश्मीर समस्या पर विरोधी मत प्रकट करना दूसरी बात।

ऐसे समय जब पाकिस्तान ने बुरहान वानी की मौत के बाद इसे अंतरराष्ट्रीय मंच तक ले जाने तथा घाटी के अंदर हिसंा, अराजकता और अस्थिरता पैदा करने की पूरी कोशिश की है ऐसी एकता अपरिहार्य है। आप देखिए न किस तरह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने देर रात बयान जारी कर बुरहान वानी को शहीद और कश्मीर का नेता बताया तथा भारत को मानवाधिकार की रक्षा की नसीहत दी। यह क्या था? आतंकवादियों एवं अलगाववादियों दोनों को संदेश था कि आप लड़ाई लड़ें पाकिस्तान आपके साथ है। उसके बाद पाकिस्तान का हर कदम इसी दिशा में था। उसने हमारे इस्लामाबाद स्थित उच्चायुक्त को विदेश मंत्रालय में तलब कर कश्मीर में हिसा रोकने के लिए कहा। यह अतिवादी और आपत्तिजनक कदम था। फिर वहां के विदेश सचिव ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाचं सदस्य देशों के राजदूतों को अपने दृष्टिकोण से कश्मीर की स्थिति पर जानकारी दी। यही नहीं संयुक्त राष्ट्रसंघ में कश्मीर की दूत मलीहा लोदी ने मामला उठा दिया। नवाज शरीफ ने इस पर कैबिनेट की बैठक बुलाई और काला दिवस मनाने का आह्वान किया। एक ओर पाकिस्तान हर हाल में कश्मीर में आग लगाने की नीति पर चल रहा है उसमें यदि भारत में अलग-अलग स्वर में आवाज आते तो विश्व समुदाय के बीच गलत संदेश जाता एवं इससे भारत का पक्ष कमजोर होता।

हालांकि हमारे देश में कुछ स्वनामधन्य पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों ने अपनी हरकतें पहले की तरह ही जारी रखीं। किसी ने कहा कि बुरहान तो केवल सोशल मीडिया पर सक्रिय था और उसका हिंसा में कोई योगदान नहीं था। किसी ने सुरक्षा बलों पर ही दोषारोपण कर दिया कि बुरहान को जिन्दा पकड़ा जा सकता था, उसे निकट से गोली मारी गई। किसी ने पोस्टर ब्वॉय कहने पर अपने ट्विट में उसकी तुलना भगत सिंह से ही कर दी। सुरक्षा बलों पर हमलों के जवाब में कार्रवाई से घायल हुए लोगों की गाथाओं को चैनल पर चलाया गया। जेएनयू में देशद्रोह के आरोपी उमर खालिद ने तो उसकी तुलना क्रांतिकारी चे ग्वेरा तक से कर दी। किंतु इस बार इनको कहीं से समर्थन नहीं मिला। विदेश राज्य मंत्री वी.के. सिंह ने जब ऐसे लोगों को देशद्रोही करार दिया तो उसे जनता का व्यापक समर्थन मिला है। वीके सिंह ने भारतीय सेना द्वारा बुरहान पर की गई कार्रवाई को सही ठहराते हुए कहा कि भारतीय सेना ने उसे मार गिराया और हमें गर्व है अपनी सेना पर। वास्तव में इस बार का माहौल बिल्कुल अलग दिखा है। वी. के. सिंह ने यह पूछा कि जब कश्मीर में बाढ़ आई थी, बुरहान वानी ने कितने कश्मीरियों को बचाया था? जिस भारतीय सेना ने डूबते हुए कश्मीर को एक नयी साँस दी थी, बुरहान वानी उसी भारतीय सेना के विरुद्ध हमलों के लिए युवाओं को उकसाता था। क्या ये हमारे शहीद हैं? आप देख लीजिए सोशल मीडिया पर वी. के. सिंह की पंक्तियां छाईं हुईं हैं और बुराहन वानी के बचाव करने वाले कुछ उंगलियों पर गिने जाने वालों की निंदा हो रहीं हैं, उनको गालियां पड़ रहीं हैं।

हर समर्थन के साथ सरकार की जिम्मेवारी भी बढ़ जाती है। हम यह तो मानते हैं कि एकता का स्वर निकालने के लिए केन्द्र सरकार ने पहल की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब विदेश में थे तो उनके निर्देश पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ज्यादातर दलों के नेताओं से इस पर बातचीत की। उसमें उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला से भी एक स्वर में बोलने का आग्रह किया। उसके पहले उमर का ट्विट ऐसा था जिसमें न आतंकवादियों की आलोचना थी न समर्थन था। वह वोट की चिंता करने वाले ऐसे नेता का ट्विट था जो पूरा सच कहने से बच रहा था। राजनाथ सिंह से बातचीत के बात कम से कम उनका उस तरह का ट्विट नहीं आया। तो यहां तक केन्द्र सरकार को सफलता मिली और यह देश की सफलता है। किंतु इसके आगे क्या? जनरल वी. के. सिंह ने कश्मीर के लोगों से हिंसा की जंजीरों से, भीड़ से बाहर निकलकर भारत की महागाथा का हिस्सा बनने का आह्वान किया। उनका बयान देखिए,‘“हमारी सहायता करिए कि हम आपकी सहायता कर सकें। सम्पूर्ण विश्व भारत का लोहा मान रहा है, और जानता है कि भविष्य में भारत का अति विशेष स्थान है। क्या आप इस महागाथा का भाग बनेंगें? मेरी विनती है- भीड़ से निकलिए, अपना भविष्य स्वयं निर्धारित करिए। केवल कहने से ऐसा होने नहीं जा रहा। इसके लिए तो वहां कई स्तरो ंपर का करने की आवश्यकता है।

काम करने के लिए सरकार को देश के वातावरण और सामूहिक आंकाक्षा को तो समझना ही होगा, उसे कश्मीर की मंशा एव रणनीति को भी पूरी तरह समझ लेने की आवश्यकता है। इस समय जो वातावरण निर्मित हुआ है उसीका परिणाम है कि पाकिस्तान को इस बार भारत की ओर से उद्धृत करने के लिए कुछ नहीं मिल रहा है। वस्तुतः पाकिस्तान की नीति कश्मीर को हर हाल में 1990 के दशक में ले जाने की है और चूंकि सेना और आईएसआई इस पर अमल कर रही है इसलिए नवाज शरीफ के लिए भी इसका अनुसरण करना विवशता है। ऐसे में भारत से हर हाल में एक स्वर निकलना समय की मांग है। वह स्वर आतंकवादियों के समर्थन में नहीं हो सकता। वह स्वर अलगाववादियों के प्रति सहानुभूति का भी नहीं हो सकता। वह स्वर अगर हो सकता है तो आतंकवादियों को उनकी भाषा में यानी हिंसा की शक्ति से जवाब देने का और यही देश के बहुमत की सोच है। वह स्वर यदि हो सकता है तो अलगाववादियों के साथ सख्ती से निपटने का। भारत की यह सामूहिक चाहत है। वह स्वर यदि हो सकता है तो आतंकवादियों का समर्थन करने वालों के साथ किसी प्रकार की नरमी न बरतने का, और अलगावादियांें के आह््वान पर सड़कों पर उतरकर हिंसा करने वालों के साथ रक्त और लौह की नीति से निपटने का। कश्मीर पर बनी सामूहिक एकता से साफ हो गया है कि अगर सरकार ऐसा करती है तो उसे पूरे देश का समर्थन मिलेगा।

तो यह केन्द्र की जिम्मेवारी है कि वह लोगों की आकांक्षाओं के अनुरुप भूमिका निभाएं। अगर वह ही भूमिका में कमजोर पड़ जाएगी या लचर नीतियां अपनाएगी तो फिर यह एकता व्यर्थ चली जाएगी। इसके परिणामस्वरुप भारत में रहते हुए भारत विरोध का स्वर अलापने वाले या सरकार की आलोचना के नाम पर देश की आलोचना करने वालों या देश के खिलाफ जाने वालों का हौंसला बढ़ सकता है। यह एकता भी टूट सकती है। जाहिर है इस एकता को दायित्वों के निर्वहन से सुदृढ़ करना होगा। वह दायित्व यह है कि आतंकवादी, अलगाववादी और उनके समर्थकों की कमर तोड़ दी जाए। वे हर हाल में परास्त हों, उनके अंदर ऐसा भय पैदा हो जाए कि अगर हमने भारत के खिलाफ कुछ किया तो हमारी खैर नहीं। क्या सरकार ऐसा कर पाएगी? यह ऐसा प्रश्न है जिसके उत्तर के लिए हमें समय की प्रतीक्षा करनी होगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

 

शनिवार, 16 जुलाई 2016

पाकिस्तान के इस रवैये पर आश्चर्य कैसा

 

अवधेश कुमार

पाकिस्तान जिस तरह से पिछले कुछ दिनों में कश्मीर को लेकर हरकतें कर रहा है उससे पूरे भारत में स्वाभाविक ही गुस्से का माहौल है। प्रधनमंत्री नवाज शरीफ ने जिस तरह मंत्रिमंडल की विशेष बैठक बुलाकर मृत आतंकवादी को शहीद का दर्जा दिया एवं काला दिवस मनाने का फैसला किया वह भारत के आंतरिक मामले में स्पष्ट हस्क्षेप है। पाकिस्तान के इस रवैये पर हैरत का कोई कारण नहीं है। इसके एक दिन पहले ही पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जम्मू कश्मीर का मामला उठाया था। वैसे तो संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत सैयद अकबरुददीन ने पाकिस्तानी राजदूत मलीहा लोदी की बातों का जिस तरह से जवाब दिया उससे पाकिस्तान की मुहिम वहीं फिस्स हो गई। लेकिन आप देखेंगे कि हिजबुल मुजाहिदीन के कुख्यात आतंकवादी बुरहान वानी की मौत के साथ ही पाकिस्तान की आवंछित हरकतें आरंभ हो गई थीं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने स्वयं बुरहान वानी की मौत पर प्रतिक्रिया दी, पाक विदेश मंत्रालय ने इस्लामाबाद स्थित हमारे उच्चायुक्त को वहां तलब किया गया तथा उसके एक दिन बाद पाक विदेश सचिव ने सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य देशों के राजदूतों के सामने अपने नजरिए से कश्मीर की स्थिति को रखा वह उसकी मंशा को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त था। संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मुद्दे को उठाना और भारत को आरोपित करना उसका अगला कदम था। हो सकता है शहीद का दर्जा देने के बाद पाकिस्तान कुछ और हरकत करे। एक ओर तो नवाज शरीफ और उनकी सरकार का बयान यह होता है कि हम आतंकवाद के किसी स्वरुप का विरोध करते हैं और दूसरी ओर वे आतंकवादी के मारे जाने को मुद्दा बनाते हैं। इसका अर्थ क्या है? इससे तो भारत का यह आरोप सही साबित होता है कि जम्मू कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह पाकिस्तान प्रयोजित है। इस प्रकार कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने स्वयं को ही निर्वस्त्र किया है।

 नवाज शरीफ हाल ही में लंदन में ओपन हार्ट सर्जरी कराकर पाकिस्तान लौटे हैं। वे बुरहान वानी की मौत से इतने आहत थे कि उन्होंने रविवार यानी 10 जुलाई की देर रात में बयान जारी किया। उनके कार्यालय की ओर से जारी बयान में कहा गया कि कश्मीरी नेता बुरहान वानी और अन्य लोगों की मौत पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने गहरा शोक व्यक्त किया है। वह इस बात से बेहद दुखी है कि जम्मू-कश्मीर में निर्दाेष नागरिकों पर गैरकानूनी तरीके से बल प्रयोग किया जा रहा है।... इस तरह के दमनकारी कदमों से जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनके जनमत संग्रह के अधिकार से विमुख नहीं किया जा सकता है। भारत को कश्मीरियों के मानवाधिकारों का ख्याल रखना चाहिए और इस बारे में अपनी अंतरराष्ट्रीय वचनबद्धता का अनुपालन करना चाहिए। हाफिज सईद और हिजबुल मुजाहिदीन का प्रमुख सैयद सलाउद्दीन ने यदि बुरहान वानी की मौत पर पाक अधिकृत कश्मीर में रैली की तो यह समझ में आने वाली बात है। बुरहान हिजबुल मुजाहिद्दीन का कमांडर था। उसके मरने से सलाहुद्दीन कमजोर हुआ है और उसको धक्का पहुंचा होगा। हाफिज सईद जो कि भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने का समर्थक है और उसके लिए हर तरह का प्रयास करता रहता है उसकी भूमिका से किसी को आश्चर्य नहीं हो सकता। हाफिज सईद ने कहा कि पाकिस्तान सरकार को बुरहान वानी की मौत का पूरा लाभ उठाना चाहिए। क्या लाभ उठाना चाहिए? यानी माहौल गर्म है उसमें पेट्रौल डालो। और आतंकवादियों को वहां भेजो ताकि वे अस्थिरता पैदा करे तथा दूसरी ओर इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाओ। कश्मीर मुद्दे को पूरी तरह उबाल पर लाकर इसे 1990 के दशक में पहुंचा दो। तो क्या नवाज शरीफ सरकार हाफिज सईद जैसे आतंकवादी के सुझाव पर अमल कर रही हैं? क्या हिज्बुल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकवादी संगठन का उनको समर्थन है? ये दोनों सवाल उठेंगे।

एक तर्क यह भी है हाल के दिनों में भारत के साथ दोस्ती की बात करने से नवाज शरीफ को अपने देश में इतनी आलोचनाएं झेलनी पड़ीं हैं कि वो दबाव में हैं। यह भी संभव है सेना और राजनीतिक प्रतिष्ठान के बीच प्रतिस्पर्धा हो कि कौन कश्मीर पर ज्यादा आक्रामक है। वे अतिवाद की सीमा तक चले गए। प्रधानमंत्री द्वारा फिर संयुक्त राष्ट्र के राजदूत द्वारा एक आतंकवादी को नेता कहना विश्व बिरादरी के बीच क्या संदेश देता है? हमारे उच्चायुक्त को तलब करना तो राजनय की सीमा का भी अतिक्रमण था। पाकिस्तान के विदेश सचिव ने 11 जुलाई की रात इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायुक्त गौतम बम्बावले को तलब किया। उन्होंने कहा कि कश्मीर में हो रही मौतें रुकनी चाहिए और जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। भारत की ओर कई स्तरों पाकिस्तान को सख्त जवाब मिल गया है। पहले गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि पाकिस्तान अपने देश में हो रहे मानव अधिकार उल्लंघन की फिक्र करे। हमारे अंदरूनी मामलों में दखल न दे। दूसरी ओर विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि हमने भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर के हालात पर पाकिस्तान के बयान देखे हैं। ये बताते हैं कि पाकिस्तान का आतंकवाद से जुड़ाव जारी है और वह राज्य की नीति यानी स्टेट पॉलिसी के तौर पर इसका इस्तेमाल करता है। हम पाक को सलाह देते हैं कि वो अपने पड़ोसियों के अंदरूनी मामलों में दखल देने से बचे। सैयद अकबरुद्दीन ने तो पाकिस्तान को लताड़ ही लगाई।

इस वर्ष के छः महीने में करीब 60 आतंकवादी मारे गए है। कभी प्रधानमंत्री द्वारा ऐसा वक्तव्य आतंकवादी के मरने पर नहीं आया था और न उसके बाद की हरकतें हुईं थी। यह तो साफ है कि पाकिस्तान की हरकतों से भारत प्रभावित होने वाला नहीं है। आतंकवादियों के साथ रक्त और लौह की नीति से निपटा जाएगा। आतंकवादियों का समर्थन करने वाले हिंसा करेंगे तो सुरक्षा बल उनका उचित तरीके से जवाब देंगे। भारत या कोई देश यह नहीं कर सकता कि आतंकवादियों को खून बहाने का मौका दे, उनके समर्थकों को अलगाववाद फैलाने का भी मौका दे और उसकी पूरी सुरक्षा एजेंसियां वहां मूक दर्शक बनी रहें। मानवाधिकार उनका भी है जिन पर आतंकवादी गोलियां चलाते हैं। वैसे भी पाकिस्तान की दुनिया में कोई सुनने वाला नही। सुरक्षा परिषद का कोई सदस्य एक बयान तक देने नहीं आया। यहां तक पाकिस्तान का दोस्त चीन भी इस मामले में पड़ने से बचता है। अमेरिका ने तो साफ कह दिया कि यह भारत का अंदरुनी मामला। तो पाकिस्तान इस मामले में मुंह की खा चुका है।

 किंतु नवाज शरीफ से तो यह पूछा जाना चाहिए कि 22 वर्ष का बुरहान वानी नेता कैसे हो गया? उसने एक साथ तीन पुलिसवालों की हत्या की। उसके बाद तीन सीमा सुरक्षा बल के जवानों के साथ फिर तीन पुलिसवालों की हत्या की। उस पर 12 प्राथमिकियां दर्ज हैं। उसके नेतृत्व की प्रेरणा से कितने हमले हुए। यह तो भारत का दुर्भाग्य है कि बिना जाने कुछ पत्रकार यह मान रहे हैं कि बुरहान तो केवल सोशल मीडिया पर सक्रिय था और हिंसा में उसकी अंतर्लिप्तता नहीं थी। वो कर्नल राय की शहादत भूल गए है जिनकी कवरेज स्वयं उन्हीं मीडिया के पुरोधाआंे ने की थी और उनकी बेटी को पिता को सेल्यूट करते दिखाया था। आज उसी बेटी ने सुरक्षा जवानों को सैल्यूट किया, क्योंकि उसे लगा कि उसके पिता का हत्यारा मारा गया। एक आतंकवादी जो हथियारों के साथ अपनी तस्वीरें, वीडियो वायरल कराता है...युवाओं को बंदूक उठाने की अपील करता है और युवा उसकी ओर खींचते भी हैं उसको यदि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नेता कहते हैं तो फिर आतंकवादी किसे कहेंगे?यह प्रकरण भारत के लिए पहले से ज्यादा सचेत होने का संदेश दे रहा है। नवाज शरीफ का आतंकवादी के समर्थन में, अलगाववादियों के समर्थन में इस तरह से उतरना पाकिस्तान की नीतियों का प्रकटीकरण है जो आगे और कई आयाम ग्रहण कर सकता है। अलगाववादियों एंव आतंकवादियों को केवल पाकिस्तान का सरेआम समर्थन ही तो चाहिए अराजकता और हिंसा पैदा करने के लिए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शनिवार, 9 जुलाई 2016

मंत्रिमंडल के फेरबदल को कैसे देखें

 

अवधेश कुमार

नरेन्द्र मोदी मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल में जब आरंभ में कैबिनेट मंत्री के रुप में प्रकाश जावदेकर ने तथा अन्य 19 ने राज्य मंत्री के रुप में शपथ लिया तो किसी को उसमें आश्चर्य नही हुआ। जावदेकर की प्रोन्नति की संभावना पहले से व्यक्त की जा रही थी और जो 19 लोग मंत्री बनाए गए उनमें से ज्यादातर अध्यक्ष अमित शाह से मिलने आ चुके थे। इसलिए हमको आपको पहले से यह आभास हो गया था कि ये सब मंत्री बनने वाले हैं। जिन छः ने इस्तीफा दिया उनका नाम भी पहले से सामने था। लेकिन जब देर रात मंत्रियों के विभागों की घोषणा हुई तो उसमें कई आश्चर्य के तत्व आए और उससे लगा कि यह एकदम से सामान्य विस्तार नहीं था। इसके पीछे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा उनके साथी रणनीतिकारों ने गहरा विमर्श किया था। स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाकर कपड़ा मंत्रालय दिया जाना इस कवायद का सबसे प्रमुख परिवर्तन माना जाएगा। इसकी संभावना हममें से किसी ने व्यक्त नहीं की थी। प्रकाश जावदेकर उसे कैसे संभालते हैं देखना होगा। चौधरी वीरेन्द्र सिंह से ग्रामीण विकास मंत्रालय लेकर इस्पात दिया जाना दूसरा बड़ा परिवर्तन था। तीसरे बड़े परिवर्तन के रुप में हम वेंकैया नायडू से संसदीय कार्य लेकर अनंत कुमार को दिया जाना कह सकते हें। हालांकि जितना बड़ा फेरबदल कहा जा रहा है उतना बड़ा है नहीं, क्योंकि यदि गणना की जाए तो मुख्य 12 बदलाव नजर आते हैं। इनमें भी सम्पूर्ण बदलाव आधे ही है। उदाहरण के लिए वेंकैया नायडू को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय जरुर दिया गया लेकिन उनका शहरी विकास मंत्रालय कायम है। अरुण जेटली पर वित्त एवं कंपनी के अलावा इसका अतिरिक्त भार था जिसे कम किया गया है। उसी तरह रविशंकर प्रसाद को विधि मंत्री अवश्य बनाया गया, लेकिन उनके आस आईटी एवं इलेक्ट्रोनिकी का विभाग बना रहेगा। मनोज सिंहा को संचार का स्वतंत्र प्रभार आया है लेकिन रेल राज्य मंत्री भी वे बने रहेंगे।

तो यह फेरबदल है लेकिन यह पूरे मंत्रिमंडल में फेरबदल नहीं है। जो राज्य मंत्री आए हैं उनको किसी न किसी विभाग में तो देना ही था। हां, 78 मंत्रियों का मंत्रिमंडल मोदी की न्यूनतम सरकार की धोषणा के अनुरुप नहीं है। यह बड़ा मंत्रिमंडल हुआ। इतने बड़े मंत्रिमंडल के बावजूद कई मंत्रियों के पास दो-दो विभाग रहना सामान्य नहीं लगता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय क्या अतिरिक्त जिम्मेवारी से ही चलेगा? कानून मंत्रालय का काम ही इतना बड़ा है उसमें दूसरे मंत्रालयों के लिए समय कहां से निकाला जाएगा। तो लगता है प्रधानमंत्री ने इसीलिए राज्य मंत्री बनाए हैं ताकि वे कैबिनेट मंत्रियों के निर्देश में शेष काम संभाल सकें। तो देखना होगा सरकार आगे कैसे काम करती है। प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल विस्तार का मकसद बजट प्रस्तावों को तेजी से पूरा करना घोषित किया था। इस पर टिप्पणी करने के लिए थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए। नए मंत्रियों से अपेक्षा है कि वे अपने कैबिनेट मंत्रियों के काम को और गति देंगे। हालांकि इसके दूसरे पहलू भी हैं। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब फेरबदल के पहले सभी मंत्रियों की बैठक बुलाकर उनसे  प्रगति का विवरण देने और उसका बाजाब्ता पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन देने को कहा गया। कई घंटे लंबी चली बैठक में हर मंत्री को अपनी उपलब्धियां रखने का पूरा अवसर मिला और जहां प्रधानमंत्री को आवश्यकता हुई उन्होंने प्रश्न पूछे। तो उसमें कइयों को अपने बदले जाने तथा हटाए जाने का आभास हो गया होगा। हालांकि कई ऐसे चेहरे अपने पद पर कायम रहे हैं जिनका प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरुप नहीं था। यहां किसी का नाम लेना उचित नहीं होगा। इसका कारण दो ही हो सकता है। या तो उनका स्थानापन्न करने के लिए उनसे बेहतर कोई चेहरा नजर नहीं आया या फिर अन्य कारणों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उनको बनाए रखना प्रधानमंत्री के लिए अपरिहार्य है।

किसी मंत्रिमंडल में परिवर्तन का उद्देश्य क्या होता है? इसका एकमात्र उद्देश्य तो मंत्रालयों के कार्य को श्रेष्ठतम ढंग से अंजाम देना ही होना चाहिए। दो वर्ष का कार्यकाल किसी मंत्री की क्षमता और उसकी कार्यकुशलता के मूल्यांकन के लिए पर्याप्त होना चाहिए। जाहिर है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस तरह से समय-समय पर मंत्रालयों के कार्यों की समीक्षा करते रहे हैं...मंत्रियों से पूछताछ-बातचीत करते रहे हैं...उनसे उनको यह समझ आ गया होगा कि किसमें कितनी योग्यता है। लेकिन चूंकि उनको सरकार के साथ संगठन का भी ध्यान रखना है, सामने उत्तर प्रदेश से लेकर सात राज्यों के अगले वर्ष होने वाले चुनावों पर भी उनकी नजर है...इसलिए मंत्रिमंडल में फेरबदल एक उद्देश्यीय नहीं हो सकता था। भारत की अपनी समस्या भी है। यहां क्षेत्रीय संतुलन के साथ जातीय समीकरण भी बिठाना पड़ता है ताकि विरोधी यह आरोप न लगाएं कि किसी क्षेत्र या जाति विशेष को नजरअंदाज किया गया है और उसकी राजनीतिक क्षति उठानी पड़े। ऐसा करने में कई बार योग्यता और क्षमता नजरअंदाज करनी पड़ती है। वस्तुतः इसकी जगह कोई सरकार होती तो उसको भी बहुउद्देश्यी नजरिए से ही परिवर्तन करना पड़ता।

प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी ने दो वर्ष तक कोई परिवर्तन न करके सरकार को स्थिरता देने का काम किया। अभी भी ज्यादातर प्रमुख मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री बदले नहीं गए हैं। यानी एक बार यदि मंत्री बनाया तो उनको पूरा समय दिया काम करने के लिए। उन्होंने नवंबर 2014 में केवल दो मंत्रियों को शामिल किया। सुरेश प्रभु को रेल मंत्री के रुप में एवं मनोहर पर्रीकर को रक्षा मंत्री के। उसके पूर्व रक्षा मंत्रालय का प्रभार अरुण जेटली के पास था जिनके पास तीन मंत्रालय और थे। उसके अलावा कोई परिवर्तन उनने नहीं किया। चूंकि उनके सामने बहुमत के लिए साथी दलों पर निर्भरता की समस्या नहीं है इसलिए वे पूर्व की कई सरकारों से परे दबावों से मुक्त हैं। साथी दलों के लोकसभा सांसदों की संख्या 50 के आसपास ही है, इसलिए उनके साथ सामंजस्य बिठाना भी कठिन नहीं है और उनके थोड़े बहुत असंतोष को झेलना भी। तभी तो केवल रिपब्लिकन पार्टी के रामदास अठावले तथा अपना दल की सुप्रिया पटेल ही 19 राज्य मंत्रियों में समाहित हो सकीं। शिवसेना का कोई मंत्री नहीं बना तो उसका कारण भी यही है। यह सुविधा पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह या उनके पूर्व अटलबिहारी वाजपेयी को प्राप्त नहीं था। बावजूद इसके मंत्रिमंडल का आकार इतना बड़ा रखना थोड़ा असामान्य लगता है।

वर्तमान परिवर्तन में देखें तो कुछ लोगों को संगठन के लिए खाली रखा गया है। कुछ को शामिल करना अपरिहार्य था। जैसे सर्वानंद सोनोवाल यदि असम के मुख्यमंत्री बन गए तो वहां का प्रतिनिधित्व अनिवार्य था। इसी तरह उत्तराखंड में चुनाव है और वहां का कोई मंत्री था ही नहीं। तो दलित चेहरे के रुप में अजय टम्टा को लाया गया। उत्तर प्रदेश से एक ब्राह्मण, एक दलित और एक पिछड़ी जाति को लाया गया। गुजरात से एक पटेल तो एक आदिवासी को स्थान दिया गया। हां, राजस्थान से चार मंत्रियों को शामिल करना थोड़ा आश्चर्य में अवश्य डालता है। एकाध चेहरे ऐसे थे जिनको बाहर रखने से असंतोष को हवा मिलती और उससे संगठन को क्षति उठानी पड़ती। अगर यह कसौटी बन गई है कि एक उम्र से ज्यादा के मंत्री नही बनाए जाएंगे तो फिर उसको भी लागू किया ही जाना था। मध्यप्रदेश में दो मंत्रियों को उनकी उम्र के कारण हटाया गया तो यह केवल वहीं तक सीमित नहीं रह सकता। तो ज्यादा उम्र के मंत्री नहीं बने। हां,75 पार कर गए दो मंत्रियों को बनाए अवश्य रखा गया। हालांकि राजनीति में उम्र को कभी भी अर्हंता नहंीं बनाया जाना चाहिए। व्यक्ति की योग्यता, काम करने की उसकी क्षमता को एकमांत्र कसौटी बनाया जाना चाहिए। कई कम उम्र के व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमता उतनी नहीं होती जितनी उनसे ज्यादा उम्र की होती है। इसके परे कुछ बातें साफ हैं। एक, कुछ वरिष्ठ मंत्रियों जैसे गृहमंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर, रेल मंत्री सुरेश प्रभु...... आदि का पद सरकार की समय सीमा तक संभवतः स्थिर रहेगी।

अवधेश कुमार, ई.‘30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

अमेरिकी आक्रामकता आशान्वित करने वाला

 

अवधेश कुमार

निश्चय ही यह असाधारण स्थिति है और इसमें भारत के लिए आशान्वित तथा आश्वस्त होने का कारण भी है। जिस तरह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में चीन की भूमिका के खिलाफ तथा भारत के पक्ष में अमेरिका खुलकर सामने आया है उसकी उम्मीद बहुत कम लोगों को रही होगी। यह तो सभी मानते थे कि अमेरिका सहित इस समूह के 48 में से ज्यादादतर प्रमुख सदस्य भारत को इसमें शामिल करने के लिए प्रयास कर रहे हैं, किंतु अमेरिका इतनी आक्रामक कूटनीति का वरण करेगा यह आम कल्पना से परे है। सच कहा जाए तो भारत ने तो केवल निराशा प्रकट की है एवं चीन से कहा है कि संबंध नहीं बिगड़े इसके लिए जरुरी है कि उसके हितों का भी ध्यान रखा जाए। यह एक सामान्य और स्पष्ट कूटनीतिक संदेश है। लेकिन अमेरिका ने तो कह दिया है किसी एक देश के विरोध से वह ऐसा नहीं होने देगा कि भारत सदस्य न बने। अमेरिका के राजनीतिक मामलों के उपमंत्री टॉम शैनन ने कहा कि अमेरिका एनएसजी में भारत का प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। यानी वह हर हाल में उसको इसका सदस्य बनवाकर रहेगा। बस एक देश के चलते परमाणु व्यापार पर बनी अंतरराष्ट्रीय सहमति को नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसे सदस्य (चीन) को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।

कूटनीति की दुनिया में यह अत्यंत ही कड़ा वक्तव्य है तथा इससे चीन कठघरे में खड़ा ही नहीं होता उसे एक प्रकार से चुनौती भी दी गई है कि आपके विरोध के बावजूद भारत को एनएसजी का सदस्य बनाया जाएगा। अमेरिका के इस शीर्ष राजनयिक ने दुख जताया कि सियोल में समूह की सालाना बैठक में उनकी सरकार भारत को सदस्य बनाने में सफल नहीं रही। भारत की दावेदारी को अमेरिका ने जिस आधार पर सही करार दिया है वह है नाभिकीय अप्रसास के प्रति उसकी भूमिका। नाभिकीय अप्रसार के क्षेत्र में भारत को विश्वसनीय और महत्वपूर्ण शक्ति बताते हुए शैनन ने कहा कि हम इस बात पर प्रतिबद्ध हैं कि भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल हो। उनके शब्द हैं,‘हमारा मानना है कि हमने जिस तरह का काम किया है, नागरिक नाभिकीय समझौता, भारत ने जिस तरीके से खुद को नियंत्रित किया है, वह इसका हकदार है। भारत को इस समूह में शामिल किया जाए। इसके लिए अमेरिका लगातार काम करता रहेगा। देखा जाए तो एक प्रकार से भारत को एनएसजी का सदस्य बनाने की जिम्मेवारी अमेरिका ने ले ली है। हालांकि उसने कहा कि हम आगे बढ़ें, भारत और अमेरिका मिल बैठकर विमर्श करें कि सोल में क्या हुआ, राजनयिक प्रक्रिया पर नजर रखें, जो महत्वपूर्ण है और देखें कि अगली बार सफल होने के लिए हम और क्या कर सकते हैं।

यानी जब एनएसजी की अगली बैठक हो उसके पहले हमारी पूरी तैयारी रहे ताकि सिओल की पुनरावृत्ति न हो। यह एक व्यावहारिक सुझाव है और भारत को अमेरिका के साथ मिलकर इस दिशा में काम करने में समस्या नहीं आनी चाहिए। कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि अरे अमेरिका तो हर हाल में भारत को चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहता है, इसलिए वह आक्रामक तो होगा ही। इसमें थोड़ी सत्यता है। मसलन, अपने इसी बयान में शैनन ने कहा कि भारत एशिया प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता का वाहक है और दक्षिण चीन सागर में चीन जो कर रहा है वह पागलपन है। अमेरिका चाहता है कि हिंद महासागर में भारत बड़ी भूमिका निभाए। इसमें हम यहां विस्तार से नहीं जा सकते। किंतु क्या चीन दक्षिण चीन सागर को लेकर जिस तरह का अड़ियल और विस्तारवादी रवैया अख्तियार किए हुए है वह किसी संतुलित और शांति चाहने वाले राष्ट्र की भूमिका है? कतई नहीं। दक्षिण चीन सागर पर उसके दावे के कारण पूर्वी एशिया के देशों से उसने भयानक टकराव मोल ले लिया है। आज पूर्वी एशिया का एक भी देश चीन के साथ नहीं है। जापान से लेकर दक्षिण कोरिया, वियतनाम, फिलिपिन्स यहां तक मलेशिया एवं सिंगापुर तक उसके खिलाफ हैं। यह है चीन की स्थिति। उसके खिलाफ भय का आलम है और इस कारण एशिया प्रशांत के देश उससे निपटने का रास्ता तलाश कर रहे हैं। जो लोग यह कहते हैं कि भारत की चीन विरोधी भूमिका उचित नहीं है वे इस बात का जवाब दें कि चीन जो अरुणाचल में करता है क्या हमें वह स्वीकार है? वह जो अक्साई चीन में कर रहा है वह हमारे लिए किसी हालत में स्वीकार करने का कारण बन सकता है? नहीं।

चीन बिना किसी की परवाह किए हुए एक विस्तरवादी भूमिका में है, भारत के साथ उसका सीधा सामना है और उसके मंसूबे पर हर हाल में रोक लगना आवश्यक है। चीन इस बात पर अडिग है कि किसी सूरत में भारत के अंतरराष्ट्रीय कद एवं प्रभाव का विस्तार नहीं होने देना है। पीछे की छोड़ भी दे ंतो पिछले एक वर्ष की उसकी भूमिका को देख लीजिए, कभी वह आतंकवाद के मामले पर अंतरराष्ट्रीय मचं पर भारत के खिलाफ चला जाता है, कभी पाकिस्तान के साथ खड़ा हो जाता है। जैसे-जैसे भारत का कद और प्रभाव बढ़ने लगा है उसे लगता है भारत दरअसल, उसके महाशक्ति बनने के मंसूबे को तोड़ देगा। एनएसजी में उसका भारत के विरोध में इस सीमा तक जाना आखिर क्या साबित करता हैं? ऐसे में यह भारत के राष्ट्रीय हित में है कि उन देशों के साथ मिलकर काम करें जो चीन के ऐसे रवैये से पीड़ित हैं या उसके विरोधी हैं। हिन्द महासागर में हमारे अपने सामरिक हित हैं और यहां अगर दुनिया की बड़ी शक्तियां मानतीं हैं कि भारत बड़ी भूमिका निभाए तो यह हमारी नीति के अनुकूल है। यह आकांक्षा भारत की लंबे समय से है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषित कर दिया है कि हम हिन्द महासागर में अपनी भूमिका निभाने को तैयार हैं। चीन ने एनएसजी में जो कर दिया उसके बाद ऐसा क्या बचता है कि हम उन देशों के साथ खड़े न हों जो हमारी मदद को तैयार हैं? सच यही है कि सिओल में अंतिम समय में तो ऐसा हो गया था कि भारत का विरोध करने वाले देश भी साथ देने को तैयार हो गए थे और चीन अकेला अड़ा रह गया।

अमेरिकी बयान के बाद भी चीन की प्रतिक्रिया भारत के अनुकूल नहीं है। उसने कहा कि अमेरिकी अधिकारी को तथ्यों का ही पता नहीं हैं। एनएसजी की सालाना बैठक में केवल इस बात पर चर्चा हुई कि नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने वाले देश की सदस्यता के वैधानिक, राजनीतिक एवं तकनीकी मामलों पर चर्चा हुई। इसके साथ वह इस तथ्य को छिपा रहा है कि जब भारत की सदस्यता का प्रस्ताव आया तो उसी ने अड़ंगा लगाया और पांच घंटे की बहस के बाद चर्चा इस दिशा में मुड़ गई। तो चीन एकपक्षीय वार्ता कर अभी भी भारत विरोधी अपने रुख को सही ठहराने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में हमारा राष्ट्रीय हित क्या है इस पर विचार करिए और फिर निष्कर्ष निकालिए। जो देश हमारे साथ डटकर खड़ा है हम उसका साथ लें या जो विरोध कर रहा है उसके साथ खड़े हों? वैसे अमेरिका जैसे देशों का विरोध अनेक देशों के लिए अपनी नीति निर्धारित करने का आधार बन जाता है। सिओल में भारत के समर्थन में उतने अधिक देशों के आने के पीछे भारत की कूटनीति के साथ अमेरिका का खुलेआम मिला समर्थन ही था। चीन की इस कारण समस्या बढ़ भी गई है। उसे उम्मीद थी कि कम से कम एक तिहाई सदस्य भारत के खिलाफ हो जाएंगे। ऐसा नहीं हो पाया। खबर है कि चीन ने एनएसजी में बातचीत में अहम भूमिका निभाने वाले अपने मुख्य राजनयिक वांग कुन को हटा दिया है। बताया गया है कि चीन के नेता एनएसजी में भारत के खिलाफ देशों का समर्थन जुटाने में नाकाम रहने से वांग से नाराज हैं।

तो कुल मिलाकर चीन का रवैया हमारे सामने हैं। हालांकि अभी उसे दक्षिण चीन सागर पर हेग (नीदरलैंड्स) के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अपने विरोधी फैसले का सामना करना पड़ सकता है। फिलीपीन्स ने दक्षिण चीन सागर में चीन के बढ़ते दखल को लेकर मामला दायर किया था। चीन मानता है कि अगर हेग में फैसला उसके खिलाफ आया तो भारत इसे इस्तेमाल करेगा।  भारत यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन लॉ ऑफ द सी का हवाला देकर चीन के विरोध में खड़ा हो सकता है। संभव है हेग न्यायालय उसे फिलिपिन्स की जमीन लौटाने को कहे। इसलिए अभी से उसने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की कार्रवाई को ही गैरकानूनी कहना आरंभ कर दिया है। इसके खिलाफ वह जोरदार अभियान चला रहा है। किंतु वह है अकेले। हमारे लिए और अमेरिका के लिए यह मौका होगा जब हम चीन को दबाव में लाने की रणनीति अपनाएं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

 

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