शुक्रवार, 27 मई 2016

सरकार के तूणिर में उपलब्धियों के अनेक तीर हैं

 

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सहारनुपर रैली से अपने दो वर्षीय कार्यकाल के आयोजन की शुरुआत की और इंडिया केट के जरा मुस्करा दो महाजलसे को सबसे आकर्षक कार्यक्रम बनाने की कोशिश थी। लेकिन विपक्ष मोदी के दावों और कार्यक्रमों में की गई प्रस्तुतियों से असहमत हैं। अगर विपक्षी विशेषकर कांग्रेस की बात मानी जाए तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने दो साल में देश को आगे बढ़ाने की बजाय पीछे धकेल दिया है और उनके राज में तो तमाम स्थितियां संतोषजनक थी। वाह, क्या मूल्यांकन है? अगर उनका राज जनता को इतना ही संतोष दे रहा था तो फिर 2014 के आम चुनाव में उनके खिलाफ पूरे देश में इतना आक्रामक वातावरण कैसे बन गया कि वे 44 के शर्मनाक आंकड़े तक सिमट गए, बहुमतविहीन लोकसभा के दौर का अंत हुआ और भाजपा को आश्चर्यजनक रुप से अकेले बहुमत मिल गया? जब हम दो वर्ष बाद उस वातावरण को याद करते हैं तो दिखाई देता है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए देश में जैसी आक्रामकता थी वैसा शायद ही कभी रहा हो। ऐसा वातावरण यूं ही नहीं बनता है। वास्तव में आलोचना के लिए कांग्रेस कुछ भी कहे उस समय और आज के देश की आंतरिक, वैदेशिक वातावरण एवं आर्थिक पहलुओं में जमीन आसमान का अंतर है। यह अंतर ही साबित कर देता है कि कांग्रेस की आलोचना निराधार है। मोदी सरकार के तूणिर में उपलब्धियों के ऐसे अनेक तीर हैं जिनसे आलोचनाओं के प्रहार परास्त हो जाते हैं।

जरा याद कीजिए जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर विदेशी मीडिया ने यह आलोचना आरंभ कर दी थी कि सरकार पॉलिसी पारालायसिस यानी नीतिगत निर्णय के मामले में लकवाग्रस्त हो गई है। दुनिया की प्रमुख पत्रिकाओं में भारत सरकार की छवि एक निर्णय न करने वाले दब्बू देश की बन गई थी। खासकर 2011 के बाद से उस मनमोहन सिंह को दुनिया में कहीं से भी प्रशंसा नहीं मिली जिसे पश्चिम के देशों ने ही भारत में आर्थिक सुधार का हीरो कहकर स्वागत किया था। इसके कारण साफ थे। मनमोहन सिंह जिस अर्थव्यवस्था के मर्मज्ञ माने जाते थे वही दुर्दशा का शिकार हो गई थी। एक समय विदेशी निवेश का बेहतर स्थान माने जाने वाले भारत में निवेश के लाले पड़ गए। भारत की छवि दुनिया में एक ऐसे देश की बन गई जहां सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग ही उसे लूटने में लगे हैं। यानी भारत भ्रष्टाचार का सिरमौर देश है। दुनिया भर में फैले भारतवंशियों की एक समय भारत आने की ललक लगभग खत्म हो गई। इससे जरा आज की स्थिति की तुलना करिए। आज भारत केा दुनिया की वही मीडिया कठोर निर्णय करने वाला देश घोषित कर रहा है। दुनिया में भारत की सशक्त होकर अपनी बात कहने और मनवाने वाले देश की बन गई है। दुनिया भर की प्रमुख संस्थाएं कह रही हैं कि भारत निवेश के लिए सबसे बेहतर स्थल है। भले एकदम चमत्कार नहीं हुआ है, लेकिन देश में वैसी निराशा का वातावरण कहीं नहीं है। दुनिया भर में फैल भारतवंशी गदगद हैं। सच कहा जाए तो आंतरिक एवं वैदेशिक दोनों मार्चे पर देश का पूरा वर्णक्रम बदलता दिख रहा है। 

ये केवल कहने के लिए नहीं है। आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं। विदेशी निवेश में भारत दो वर्षों से दुनिया का नंबर एक देश बना हुआ है। चीन का स्थान अब हमारे बाद आ रहा है। 2015 में 63 अरब डॉलर का विदेशी निवेश वैश्विक मंदी के इस दौर में असाधारण है। जिस मेक इन इंडिया की आलोचना होती है उसमें 358 विदेशी निवेश के प्रस्ताव आ चुके हैं। 7.5 प्रतिशत से उपर की विकास गति वाला भारत दुनिया का अकेला देश है। मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम समय में विकास दर 5 प्रतिशत के नीचे था और इसके उपर उठने की संभावना तक नहीं दिखाई जा रही थी। यह तब है जब पिछले दो वर्षों से मानसून की खराब स्थिति के कारण कृषि पर विपरीत असर पड़ा है। मनमोहन सरकार के जाते समय विदेशी मुद्रा भंडार 275 अरब डॉलर था और इसके और सूखने का खतरा था। आज यह 361 अरब डॉलर के आसपास बना हुआ है। भारतीय खजाना खतरे की सीमा को पार कर 4.9 प्रतिशत के घाटा तक पहुंच गया था। अब यह चार प्रतिशत के नीचे है और इस वर्ष के बजट मंे इसे 3.5 प्रतिशत से नीचे सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है। यह तब है जब मनमोहन सरकार ने जाते-जाते जिस सातवें आयोग का गठन कर दिया उसका और सेवानिवृत्त सैनिकों के एक रैंक एक पेंशन का भार सिर पर आया है। व्यापार घाटा कुल अर्थव्यवस्था के 4.8 प्रतिशत यानी 190 अरब डॉलर के रिकॉर्ड को छू गई थी। आज यह उसके एक तिहाई से नीचे है।

ऐसे और आंकड़े हम यहां प्रस्तुत कर सकते है जिनसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि स्थितियों में वाकई गुणात्मक अंतर आया है। यह यूं ही नहीं होता। रक्षा क्षेत्र को देख लीजिए। भ्रष्टाचार के आरोप के भय से सेना के आधुनिकीकरण का काम रुक गया था। आवश्यक अस्त्र, लड़ाकू विमान और कल पूर्जे तक के सौदे नहीं किए जा रहे थे। देश की रक्षा से बड़ी प्राथकिता क्या हो सकती है? वह भी पीछे थी। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने हाल के एक साक्षात्कार में कहा है कि करीब 3 लाख करोड् रुपए के रक्षा सौदे संपन्न होने वाले हैं। कल्पना करिए यदि मोदी सरकार नहीं आती और वही सरकार सत्ता में रहती तो हमारे रक्षा की क्या हालत होती? पड़ोसी चीन और पाकिस्तान के मुकाबले हम कहां होते? रक्षा कूटनीति के मामले में भी भारत ने बड़ी छलांग लगाई है। आने वाले समय में यह संभव है कि दुनिया के बड़े देशों की तरह दुनिया के कुछ क्षेत्रों जिसमें समुद्री क्षेत्र भी शामिल हैं की रक्षा का प्रभार हमारे हाथों आए। दुनिया में नरेन्द्र मोदी ने अपनी कूटनीति से भारत की जो धाक जमाई है उसे तो कोई अस्वीकार कर ही नहीं सकता। क्या कोई सोच सकता था कि संयुक्त राष्ट्र संध के अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री मोदी अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का प्रस्ताव रखेंगे और उसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया जाएगा?

हम नहीं कहते कि सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा ही है, लेकिनं मोदी सरकार की सबसे बड़ी देन देश के अंदर आत्मविश्वास पैदा करने तथा बाहर भारत के विकास और इसकी संक्षमता के प्रति विश्वास जगा देने की है। इन सबके बावजूद यदि किसी को नहीं लगता कि मोदी सरकार ने दो वर्षों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं तो उनके लिए किसी विशेष उपचार की आवश्यकता है ताकि उन्हें सच दिखाई दे सके।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

गुरुवार, 19 मई 2016

चुनाव परिणामों में आश्चर्य के तत्व नहीं

 

अवधेश कुमार

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों में आश्चर्य का कोई बड़ा पहलू नहीं है। सारे सर्वेक्षण प. बंगाल में ममता बनर्जी की पुनर्वापसी की भविष्यवाणी कर रहे थे तो केरल में वाममोर्चा के तथा असम में भाजपा के सरकार बनाने की। हां, तमिलनाडु में अवश्य धुंधला परिदृश्य सामने आया था। कुछ जयललिता के फिर से जीकर इस बार 1980 के बाद किसी सरकार के वापस न आने के इतिहास पलटने की भविष्यवाणी कर रहे थे तो कोई उनके हारने की। आम उम्मीद यही थी कि द्रमुक 2011 और 2014 के बड़े झटके से शायद ही उबर पाए। ध्यान रखिए 2014 के लोकसभा चुनाव में द्रमुक को केवल 4 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त थी जबकि अन्नाद्रमुक की 217 में। परिणाम हमारे सामने है। पुड्डुचेरी में भी एआईएनआरसी सरकार की वापसी और जाने दोनों की ही संभावना व्यक्त की गई थी। तो इस परिणाम को दो आधारों पर हम विश्लेषण कर सकते हैं। एक, आखिर ऐसे परिणाम के कारण क्या हैं? दूसरे, इनके राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?

आरंभ असम से करें। कांग्रेस और तरुण गोगोई के 15 वर्ष के शासन के कारण सत्ताविरोधी रुझान होना स्वाभाविक था। साफ है कि असम में लोग परिवर्तन चाहते थे और भाजपा के रुप में विकल्प मौजूद था। आप देखेंगे कि असम के परिणाम मोटा मोटी लोकसभा चुनाव परिणाम के करीब है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को 69 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त थी। असम गण परिषद या बोडो पीपुल्स फ्रंटं के साथ गठबंधन ने उसके मतों का सुदृढ़िकरण किया। इससे मूल असमिया यानी अहोम जो कांग्रेस के साथ चले जाते थे उनका बड़ा भाग इनके पास आया, आदिवासी आए। भाजपा ने अवैध बंगलादेशी अप्रवासियों को निकालने तथा उनको रोजगार देने वाले के खिलाफ कार्रवाई का जो वायदा किया उससे हिन्दू मतों का काफी हद तक धु्रवीकरण हुआ। मुसलमानों का वोट बदरुद्दीन अजमल के एआईयूडीएफ एवं कांग्रेस के बीच बंटा। बंगलाभाषी मुसलमानों का वोट अजमल के पास गया। यह न भूलिए कि भाजपा ने यहां बिहार के विपरीत स्थानीय नेताओं पर ज्यादा भरोसा किया। सर्वानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाना तथा कांग्रेस से आए हेमंत विश्व शर्मा को प्रमुख नेता के रुप में उभारना बेहतर रणनीति साबित हुई। इसके विपरीत कांग्रेस एकला चलो की नीति पर कायम रही और तरुण गोगोई के खिलाफ विद्रोह को महत्व नहीं दिया।

अब आए पश्चिम बंगाल। पश्चिम बंगाल के लोगों के सामने कोई एकमात्र मुख्यमंत्री का उम्मीदवार था तो वह ममता बनर्जी थीं। न तो वाम मोर्चा कांग्रेस गठबंधन ने कोई उम्मीदवार उतारा न भाजपा ने। तो ममता बनर्जी का चेहरा सारे मुद्दों पर भारी पड़ा। कोई भी प. बंगाल में देख सकता था कि शारदा और नारदा वहां मुद्दा जनता के बीच था ही नहीं। यह ममता बनर्जी का व्यक्तित्व और लड़ने का तरीका ही था जिसने इन दो मुद्दों को नेपथ्य में धकेल दिया। सड़कों का निर्माण, ग्रामीण क्षेत्रों तक बिजली आदि ने ममता के पक्ष में काम किया। ऐसा लगता है कि वाममोर्चा से भय खाने वाले मतदाता अभी तक उस पर विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। वाममोर्चा के काल में पश्चिम ंबंगाल की खस्ताहाल हुई अर्थव्यवस्था, बंद हुए उद्योगों और कारोबारों को लोग भुला नहीं पा रहे हैं। भाजपा यहां अकेले चुनाव मे ंउतरी जरुर लेकिन वह उस रुप में नहीं थी जैसी असम में थी। वाममोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन बनने में देर हुई और उसमें भी दोनो ंपार्टियों के नेताओं ने एक मंच पर आने में भी काफी देर कर दी। पश्चिम बंगाल में करीब 36 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने ऐसा लगता है कि उसी तरह एकपक्षीय मतदान किया जिस तरह उनने लोकसभा चुनाव मंे किया था। लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 214 स्थानों पर बढ़त मिली थी। उस समय नरेन्द्र मोदी के आने का भय पैदा किया गया तो इस बार भी ममता ने भाजपा को रोकने की बात की। माकपा कांग्रेस यह विश्वास पैदा करने में असफल रहे कि वहां भाजपा के आने की संभावना नहीं है। हालांकि भाजपा को जितनी सीटें मिलीं वह उसे संतुष्ट नहीं हो सकतीं। आखिर लोकसभा चुनाव में उसे 24 विधानसभा स्थानों में बढ़त मिली थी।

केरल में एक बार लोकतांत्रिक मोर्चा और अगली बार वाम मोर्चा की परंपरा कायम रही है। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री ओमन चांडी पर दांव लगाया था और चांडी ने अपनी शराबबंदी को प्रमुख मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन वाममोर्चा ने भी कह दिया कि उनकी सरकार आई तो शराबबंदी जारी रहेगी। सौर घोटाला तथा भ्रष्टाचार के अन्य आरोप कांग्रेस पर भारी पड़े। वैसे भी पिछली बार दोनों के बीच केवल 4 स्थानों तथा .9 प्रतिशत मत का ही अंतर था। भाजपा ने यहां पूरा जोर लगाया। उसने चार दलों भारतीय धर्मजन सेना, आदिवासी नेता सी के जानु की जनथीपाथ्य राष्ट्रीय सेना, केरला कांग्रेस-पी. सी. थॉमस समूह एवं जनथीपाथ्य संरक्षरण समिति के साथ गठबंधन बनाया। स्वयं 97 स्थानों पर लड़ी तथा बीडीजेएस को 37 स्थान दिए, केरला कांग्रेस-थॉमस को 4 तथा अन्य दो घटकों को1-1। भारतय धर्म जन सेना को एझवा समुदाय का संगठन माना जाता है जो पिछड़ी जाति से आती है और जिसकी संख्या प्रदेश में एक चौथाई के करीब मानी जाती है। नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह ने केरल में कई सभाएं कीं, भाजपा ने वहां पूरा जोर लगाया। इसको वोटों का तो लाभ हुआ लेकिन उस परिमाण में सीटें नहीं मिलीं। हालांकि केरल में वह पहली बार अपना खाता खोलने में कामयाब रही और उसके काफी उम्मीदवारों का प्रदर्शन अच्छा रहा है। इससे भविष्य के लिए उम्मीद पैदा होती है कि भाजपा ने अपने साथियों के साथ मेहनत किया तो केरल में एक तीसरा धु्रव कायम हो सकता है।

तमिलनाडु के परिणमों पर नजर दौड़ाएं तो वहां द्रमुक के पक्ष मंें पहले से वातावरण नहीं लगता था। एम करुणानिधि के दोनों बेटों के बीच मतभेद के कारण ऐसा लगता था कि पार्टी के अंदर विभाजन है। कांग्रेस का अपना कोई ठोस जनाधार तो वहां है नहीं। कांग्रेस पार्टी चुनाव के पहले ही टूट चुकी थी और कांग्रेस से निकलकर नेताओं ने तमिल मनिला कांग्रेस को फिर से जीवित किया। वियजकांत की डीएमडीके वाले पीपुल्स वेल्फेयर फ्रंट ने जितना ज्यादा वोट काटा अम्मा यानी जयललिता को उतना नुकसान हुआ। उन्होंने ज्यादा वोट अनन्नाद्रमुक का ही काटा। हालांकि जयललिता के विरुद्व किसी प्रकार का सत्ता विरोधी रुझान नहीं दिख रहा था। उनकी अम्मा कैंटिन, अम्मा बेबी किट, अम्मा फार्मेसी, अम्मा साड़ी, अम्मा मिनरल वाटर.... योजनाएं काफी लोकप्रिय थीं। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर इनको वैसी सफलता नहीं मिलीं जैसी मिलनी चाहिएं थी। आधारभूत संरचना का विकास नहीं हुआ। लोकप्रिय योजनाओं के कारण बजट का खासा हिस्सा गैर योजनागत मद यानी सब्सिडी में चला जाता था। इस कारण उनके खिलाफ भी एक वर्ग था, लेकिन जयललिता ने सत्ता विरोधी रुझान कम करने के लिए अपने 150 में से 99 विधायकों के टिकट काट दिए। 10 मंत्रियों को चुनाव मैदान में नहीं उतारा। हो सकता है कि टिकट से वंचित लोगों ने कुछ भीतरघात भी किया हो। इन सबसे उनके मतों में कमी आई और लोकसभा चुनाव में 217 क्षेत्रों की बढ़त कायम न रही। किंतु अंततः उन्होंने इतिहास पलट दिया।

तो इस परिणाम से कांग्रेस ने दो राज्यों से अपनी सत्ता खोई। यह उसके लिए बहुत बड़ा झटका है। भाजपा का असम मे ंसरकार बनाना बिहार पराजय के बाद खोए हुए आत्मविश्वास की वापसी का कारण बन सकता है। भाजपा संभव है उत्तर प्रदेश में भी स्थानीय नेताओं को आगे लाए। राष्ट्रीय राजनीति पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक है। कांग्रेस के अंदर तो राहुल गांधी और सोनिया गांधी के निर्णय पर कोई प्रश्न उठ नहीं सकता, अन्यथा प. बंगाल में वामपंथियों के साथ जाने का निर्णय राहुल गांधी का ही था जो असफल हुआ। इसके बाद भाजपा के खिलाफ संसद एवं बाहर कांग्रेस की आक्रामकता में कमी आ सकती है। उसके पास अब बड़े राज्यों में केवल कर्नाटक रह गया है। भाजपा कांग्रेस के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा आक्रामक होगी। भाजपा के पास आठ सरकारों पहले से थीं। चार जगह वह गठबंधन सरकार की हिस्सेदार थी और एक सरकार और हो गई। इसका असर उसके मनोविज्ञान पर पड़ेगा। भाजपा कांग्रेस के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा आक्रामक होगी। कांग्रेस के लिए पहले के समान अपनी आक्रामकता बनाए रखना जरा कठिन होगा। प. बंगाल में तृणमूल की सत्ता कायम रहने से केन्द्र के साथ समीकरण कभी टकराव और समर्थन का बना रहेगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 13 मई 2016

उत्तराखंड प्रकरण ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए हैं

 

अवधेश कुमार

तो उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन हो गया। उसके अनुसार उत्तराखंड के सदन पटल पर बहुमत का परीक्षण हुआ और हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार फिर गठित हो गई। जो हुआ वह अपेक्षित था। नौ विधायकों को मतदान से वंचित करने के बाद का अकंगणित थोड़ा ही धुंधला था। दोनों पक्ष तू डाल डाल हम पात पात की नीति पर चल रहे थे। इसमें उक्रांद के एक, बसपा के दो एवं तीन निर्दलीय विधायकों का महत्व बढ़ना ही था। उनने यदि कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया तो फिर हरीश रावत को बहुमत मिलना निश्चित था। हां, हरीश रावत के खिलाफ कांग्रेस से विद्रोह करने वाले नौ विधायकों को मतधिकार से वंचित नहीं किया जाता तो तस्वीर अलग होती। आखिर उनका विद्रोह तो कांग्रेस नेतृत्व यानी हरीश रावत से ही था। पहले अध्यक्ष ने उनकी सदस्यता रद्द की, फिर उच्च न्यायालय ने और उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई को आगे बढ़ा दिया। दरअसल, उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में पहले ही कह दिया था कि सदन के अंदर बहुमत के परीक्षण में ये नौ विधायक भाग नहीं ले सकेंगे। इसके बाद वह अपना मत इतनी जल्दी बदलेगा इसका कोई कारण नहीं था। तो फैसला हमारे सामने है।

उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस में से कौन बाजी मार ले गया है यह केवल तात्कालिक दृष्टि से ही महत्व का विषय हो सकता है। लेकिन इसके जो दूरगामी संकेत हैं वो चिंतित करने वाले हैं। कई मायनों में तो डराने वाले भी हैं। अगर किसी नेतृत्व के खिलाफ 31 में से नौ सदस्य विद्रोह कर जाएं या उनके प्रति अविश्वास प्रकट करें तो उनके साथ क्या व्यवहार होना चाहिए? यह प्रश्न पूरी गहराई से इस प्रकरण में उठा है। दल बदल कानून की तलवार उनकी सदस्यता रुपी गर्दन को उड़ा देती है। कानून अपनी जगह और राजनीति अपनी जगह। क्या पार्टी में किसी को नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? विद्रोहियांे ने यह नहीं कहा कि वे कांग्रेस के विरुद्ध हैं, उन्होंने केवल हरीश रावत का विरोध किया था। उन पर भ्रष्टाचार और कुशासन का आरोप लगाया था। नैतिकता का तकाजा था कि रावत इनके विद्रोह के बाद अपने इस्तीफा की पेशकश कम से कम केन्द्रीय नेतृत्व के सामने करते। इससे उनका नैतिक पक्ष मजबूत होता। आज हम उनके नैतिक पक्ष को मजबूत नहीं कह सकते। अगर उन्होने नहीं किया तो कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को इसका समय पर संज्ञान लेकर विद्रोहियों की बातें सुननी चाहिएं थी। यदि उनकी बातों में तथ्य हों तो फिर नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करना चाहिए। लेकिन सबके मन में यही था कि ये पार्टी के खिलाफ सदन में नहीं जा सकते, क्योंकि दलबदल कानून के अनुसार इनकी सदस्यता चली जाएगी और सदस्यता कौन गंवाना चाहेगा। इस रुप में दलबदल कानून यहां अधिनायकवादी व्यवहार का कारण बना।

इसके साथ यह भी सच है कि अगर भाजपा ने कांग्रेस के अंदर के असंतोष को हवा नहीं दी होती तो वे विधायक शायद इतनी दूर तक आने की नहीं सोचते। इसलिए भाजपा जो भी तर्क दे उसका नैतिक पक्ष भी यहां कमजोर दिखता है। उसने उन विधायकों को जिस तरह चार्टर्ड जहाज से यात्राएं कराई, होटल में रखा, उससे साफ था कि इन विधायकों के पीछे उनका हाथ है। हालांकि वर्तमान राजनीति में इसे बहुत सारे लोग गलत नहीं कहेंगे। लोग कह भी रहे थे कि अगर कांग्रेस के घर में छिद्र होगा तो दूसरे उसका लाभ क्यों नहीं उठाएंगे। वैसे भाजपा की जगह कांग्रेस होती तो वह भी यही करती। लेकिन नैतिक दृष्टि से तो इसे सबल पक्ष नहीं कहा जा सकता। भाजपा को कांग्रेस के अंदरुनी कलह में हाथ डालने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अगर वह हरीश रावत के शासन को भ्रष्टाचार और कुशासन का पर्याय मानती है तो उसके विरुद्व आंदोलन करना चाहिए था....जनता के बीच जाना चाहिए था....जनता को सरकार के खिलाफ खड़ा करना चाहिए था....आंदोलन से उसे इस्तीफा देने को मजबूर करने की कोशिश करनी चाहिए थी। यह स्वस्थ और नैतिक राजनीति का रास्ता होता। यह भाजपा ने नहीं किया। कांग्रेस की जगह अपनी सरकार बनाने की मानसिकता में उसने बागी विधायकों को साथ ले लिया। पता नहीं यह रणनीति किस स्तर पर और क्या सोचकर बनाई गई। तो भाजपा ने यहां काफी कुछ खोया है और सत्ता भी नहीं आ रही।

इसमें भी दो राय नहीं कि विधायकों को साथ रखने के लिए धन का प्रयोग हुआ। हरीश रावत के स्टिंग से ही यह बात साफ है कि वो विधायकों को मैनेज करने के लिए धन लेने और उसे लौटाने की बात कर रहे हैं। वे हालांकि स्टिंग करने वाले को पत्रकार की जगह ब्लैकमेलर और न जाने क्या-क्या कहते हैं। हालांकि अब उन्होंने यह मान लिया है कि उस स्टिंग में वे स्वयं हैं और उनकी आवाज भी है। हां, उनका कहना है कि मैंने तो मजाक में वैसा कह दिया। मजाक में कोई मुख्यमंत्री इस तरह की बात करेगा यह गले नहीं उतरता है। जाहिर है, वे अपना बचाव कर रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हरीश रावत और उनके समर्थक जो भी दावा करें इस पूरे प्रकरण में उनका नैतिक पक्ष बिल्कुल भू लुंठित हो गया है। एक दूसरा स्टिंग उनकी पार्टी के ही नेता का आया जिसने यह बताया कि विधायकों को मैनेज करने यानी खर्चा पानी के लिए एकमुश्त राशियां दी गईं हैं। पहले स्टिंग की जांच सीबीआई कर रही है और यह मामला न्यायालय में भी आएगाा। वहां इसका फैसला जो भी हो, लेकिन स्टिंग देखने वालों ने माना कि यह सही है। स्टिंग में जो कुछ साफ दिख रहा है, जो स्पष्ट आवाज सुनाई दे रहा है उसे कैसे नकारा जा सकता है। तो सरकार के खिलाफ विद्रोह के बाद एक अत्यंत ही जुगुप्सा पैदा करने वाला आचरण राजनीति का हमारे सामने आया है।  

इस प्रकरण में जो एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभरी वह है, न्यायालय द्वारा विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों में कटौती। बहुमत का फैसला सदन के पटल पर हो यह सिद्वांत तो सर्वमान्य है। लेकिन वह सदन के अध्यक्ष के नेतृत्व में ही होना चाहिए एवं हार जीत की घोषणा उसी के द्वारा होनी चाहिए। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने विधानसभा के प्रमुख सचिव को जिम्मेवारी दी की वह मतों की गिनती कर न्यायालय में प्रस्तुत करें और वहां इसकी धोषणा होगी। यह विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों में कटौती ही तो है। लेकिन जब राजनीति में घात-प्रतिघात इस स्तर पर पहुंच जाए जहां अध्यक्ष तक पर पक्षपात का आरोप लगने लगे वहां न्यायालय के हस्तक्षेप का रास्ता अपने आप बन जाता हैं। अध्यक्ष के आचरण को यदि हरीश रावत समर्थकों ने सही करार दिया तो बागी विधायकों एवं भाजपा ने पक्षपात की संज्ञा दी। वास्तव में संसद की सामान्य और मान्य परंपरा है कि यदि विनियोग विधेयक में एक भी सदस्य मत विभाजन की मांग करता है तो उसे मानना अनिवार्य है। यदि विधायकों ने मत विभाजन की मांग की और उसे स्वीकार नहीं किया गया तो फिर 18 मार्च को विनियोग विधेयक पारित ही नहीं हुआ। दूसरे, यहां इस जटिल प्रश्न का भी उत्तर देना होगा कि अगर मत विभाजन हुआ ही नहीं यानी सदन में मतदान हुआ नही ंतो फिर उन विधायकों की सदस्यता खत्म कैसे हो गई? दलबदल कानून सदन के अंदर के व्यवहार पर लागू होता है बाहर के व्यवहार पर नहीं। अगर मत विभाजन होता तो साफ था कि हरीश रावत सरकार गिर जाती और उसके बाद उनकी सदस्यता का फैसला होता। मत विभाजन हुआ नहीं और उनकी सदस्यता चली गई। इसका फैसला उच्चतम न्यायालय को करना होगा।

जो भी हो भले रावत मुख्यमंत्री हो जाएं इस पूरे प्रकरण में देश के एक छोटे राज्य ने हमारी राजनीति के समस्त क्षरण को एकमुश्त प्रदर्शित किया है। वास्तव में एक छोटे राज्य की राजनीति ने जिस तरह देश का ध्यान खींचा और राष्ट्रीय प्रकरण के रुप में परिणत हुआ वह बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं हैं। भारतीय राजनीति की विद्रूपताएं एक साथ समग्र रुप में वहां उभरतीं रहीं और सुर्खियां पातीं रहीं। यहां उसमें पूर्णविराम लग जाएगा इसकी कोई संभावना नहीं है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,9811027208

 

शुक्रवार, 6 मई 2016

कांग्रेस को लोकतंत्र बचाओ रैली से क्या हासिल हुआ

 

अवधेश कुमार

तो देश ने एक साथ सत्तारुढ़ तथा मुख्य विपक्षी पार्टी को आमने-सामने देखा। एक ओर कांग्रेस यदि लोकतंत्र बचाओ मोर्चा नाम से रैली और संसद की ओर मार्च कर रही थी तो भाजपा के सांसदों ने उनके विरुद्ध संसद परिसर में समानांतर धरना दिया। ऐसा कम होता है जब एक ही दिन इस तरह विपक्ष और सरकार दोनों सड़कों पर दिखाई दें। इससे पता चलता है कि आने वाले समय में दोनों पक्षों में किस तरह का टकराव होने वाला है। कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं ने जंतर मंतर से मार्च निकाला और संसद मार्ग थाना में कुछ मिनटों की गिरफ्तारी भी दी। यह गिरफ्तारी हालांकि औपचारिक ही होती है। आप संसद भवन तक जाना चाहते हैं और पुलिस आपको रोकती है। आप जाने की जिद करते हैं तो गिरफ्तारी होती है। यह वहां के लिए रुटिन जैसा कार्यक्रम होता है। किंतु यह भी लंबे समय बाद है जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने कुछ मिनट क लिए ही सही गिरफ्तारी दी। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह जैसे नेताओं की ऐसी प्रतीकात्मक गिरफ्तारी भी सुर्खिंयां तो पाएंगी ही। इसके द्वारा कांग्रेस ने यह संकेत दिया है कि वह सरकार से लंबे समय के लिए टकराव का मन बना चुकी है।

अगर रैली में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मनमोहन सिंह के भाषण को सुनें तो उससे बहुत कुछ साफ हो जाता है। सोनिया गांधी ने कहा कि जिस ढंग से हमको धमकाया जा रहा है, डराया जा रहा है, बदनाम किया जा रहा है उससे हम डरने वाले नहीं हैं। हमें तो जीवन ने संघर्ष करना सिखाया है हम संधर्ष करेंगे। राहुल गांधी ने अरुणाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड में सरकार गिराने की चर्चा की। मनमोहन सिंह ने कहा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटनी नहीं हमारी सदियों रहा दुश्मन दौरे जहां हमारा। वास्तव में नेतागण संदेश यह दे रहे थे कि मोदी सरकार जानबूझकर कांग्रेस के नेताआंे की छवि को बदनाम करने, उनके खिलाफ कानून का दुरुपयोग करने तथा सरकारों को संवैधानिक शक्ति का दुरुपयोग कर खत्म करने पर उतारु है। यानी कुल मिलाकर वे यह कह रहे थे कि मोदी सरकार कांग्रेस को समाप्त करने का षडयंत्र रच रही है लेकिन वह कर नही ंपाएगी, हमने उनसे दो दो हाथ करने के लिए कमर कस लिया है। सोनिया गांधी ने देश भर के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संघर्ष करने का संदेश दिया। इसका अर्थ हुआ कि हम आने वाले समय में कांग्रेस की ओर से धरना, प्रदर्शन, प्रेस वार्ता, संसद में हंगामा आदि के माध्यम से सरकार विरोधी तेवर लगातार देखेंगे।

प्रश्न उठाया जा सकता है कि इसके समानांतर संसद भवन परिसर के अंदर गांधी जी की प्रतिमा के सामने भाजपा सांसदों के धरने का क्या तुक था? उनका कहना था कि कांग्रेस रक्षा सौदों में दलाली खाकर चाहती है कि उसके खिलाफ कोई कार्रवाई न हो। भाजपा सांसद गांधी जी के प्रसिद्ध भजन रघुपति राघव राजा राम पर कई प्रकार की तुकबंदी करके कांग्रेस को दलाली खाने वाली पार्टी साबित कर रहे थे। संसद सत्र चल रहा है तो ऐसे कार्यक्रम आसानी से आयोजित हो जाते हैं। इससे भाजपा एवं मोदी सरकार को इतना लाभ हुआ कि पूरा फोकस केवल कांग्रेस पर नहीं रहा। राजनीति में जब तू डाल डाल हम पात पात की प्रतिस्पर्धा हो तो उसमें यह सफलता भी पार्टियांे के लिए मायने रखतीं हैं। हालांकि आम प्रतिक्रिया यह है कि विपक्ष धरना प्रदर्शन करे उससे अप्रभावित रहते हुए सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार के प्रतिनिधियों की ओर से समानांतर धरना प्रदर्शन में कोई समस्या नही है, पर यह पर्याप्त नहीं है।  देश सरकार से इस दलाली पर कार्रवाई चाहता है। दलालों और घूसखोरों को जेल में देखना चाहता है।  

कांग्रेस की समस्या समझ में आने वाली है। अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घूसकांड पर इटली के मिलान कोर्ट ने फैसला में कांग्रेस नेताओं का नाम लिया गया है और जज ने साक्षात्कारों में कहा है कि उनने किसी नेता को क्लिन चिट नहीं दिया है। उससे उसके अंदर मची हलचल का आभास तो होता ही है। अभी तक सरकार ने किसी नेता के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है, न ही जांच एजेंसियों ने पूछताछ। लेकिन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने जिस तरह राज्य सभा एवं लोकसभा में विन्दूवार तथ्य रखें उनसे साफ हो गया कि पूर्व सरकार में कुछ लोग अगस्ता वेस्टलैंड को सौदा दिलाने और पहले से तय कीमत से गई गुणा देने के लिए अति सक्रिय थे। उनमें नियमों एवं प्रावधानों का कई स्तरों पर उल्लंघन हुआ तथा कार्रवाई के नाम पर केवल खानापूर्ति हुई। पर्रीकर की यह पंक्ति कांग्रेस को अवश्य चिंता में डाला होगा कि जिन लोगों के नाम इटली के न्यायालय में आए हैं उनके खिलाफ जांच केन्द्रित होगी। सरकार सच सामने लाने तथा दोषियों को सजा देने को संकल्पित है। नाम किनके आए हैं यह सबको पता है। तो उन नेताओं के खिलाफ वाकई रक्षा मंत्री के कथन के अनुरुप कार्रवाई होने का मतलब होगा प्रमुख नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी, जांच एजेंसियों द्वारा पूछताछ, न्यायालय में पेशी आदि। यह कांग्रेस के लिए असामान्य संकट का समय होगा। इसका अभ्यास कांग्रेस को क्या किसी पार्टी को नहीं है। 

इस संदर्भ में यह प्रश्न देश मंें उठ रहा है कि आखिर कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने इसी समय लोकतंत्र बचाओ मोर्चा के नाम से रैली क्यों किया या संसद भवन तक मार्च का कार्यक्रम क्यों आयोजित किया? संदेश यह जा रहा है कि जब अगस्ता वेस्टलैंड मामले में इटली की कोर्ट ने पूर्व सरकार और कांग्रेस के नेताओं को कठघरे में खड़ा कर दिया, सरकार ने जांच में तेजी ला दी तो फिर कांग्रेस ने अपने को बचाने के लिए यह कार्यक्रम किया। संदेश यह जा रहा है कि परेशान कांग्रेस ऐसे मोर्चा और रैलियों से सरकार को दबाव में लाने की रणनीति अपना रही है। संदेश यह भी निकल रहा है कि कांग्रेस वाकई डर गई है और उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। आप रैली में भी नेताओं का भाषण सुन लीजिए उसमें ऐसा कोई तर्क और तथ्य नहीं आया जिससे लगे कि वाकई सरकार अगस्ता वेस्टलैंड में उनको जानबूझकर फंसा रही है। उसमें ऐसे तथ्य नहीं थे जिनसे लगे कि अरे कांग्रेस तो वाकई निर्दोष है उसे फंसाने की कोशिश हो रही है। जाहिर है, कांग्रेस ने रैली और मार्च की घोषणा तो की, लेकिन उसके द्वारा स्पष्ट संदेश देने की तैयारी ठीक से नही की गई। असल में लोकतंत्र बचाओ मोर्चा नाम देने से अगस्ता वेस्टलैंड पर ज्यादा चर्चा कांग्रेस के नेता कर रही सकते थे। उनके सामने ज्यादा जोर इस आरोप पर देने की मजबूरी थी कि मोदी सरकार किस तरह लोकतंत्र का गला घोंट रही है। कांग्रेस शायद इस बात को समझ रही है कि अगस्ता वेस्टलैंड पर उसके लिए ज्यादा बोलना समस्या बढ़ाने वाला साबित हो सकता है।

इस तरह विचार करें तो कांग्रेस के लिए लोकतंत्र बचाओ मोर्चा उस रुप में अगस्ता वेस्टलैंड मामले में उसके बचाव का आधार नहीं बन पाया या राजनीतिक लाभ देनेवाला साबित नहीं हो सका जैसा इन्होंने सोचा होगा। इस मोर्चा से सरकार को भी कठघरे में खड़ा करने का उसका लक्ष्य पूरा हुआ हो ऐसा नहीं लगता। हां, वह सरकार पर दबाव डालने में सफल हुई या नहीं या आगे ऐसे संघर्ष करके वह दबाव डाल पाएगी या नहीं यह इस बात से प्रमाणित होगा कि सरकार अगस्ता वेस्टलैंड मामले में उन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करती है या नहीं जिनका नाम आया है और जिनकी भूमिका दलाली में संदिग्ध है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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