अवधेश कुमार
कंधार विमान के भूत को एक बार फिर जिन्दा करने की कोशिशें हुईं हैं। यह कोशिश उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में जम्मू कश्मीर मामले के विशेष सलाहकार और रिसर्च एंड एनालिसिस या रॉ के पूर्व प्रमुख ए एस दुलत ने किया है। हालांकि वो जो बातें बता रहे हैं उनमें से ज्यादातर से हम पहले से परिचित हैं। इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी-814 का हरकत उल मुजाहिदीन के आतंकवादियों द्वारा अपहरण भारत के इतिहास का ऐसा अध्याय है जिसकी यादें जब भी दिलाईं जाएंगी हमारे अंदर टीस पैदा होंगी। कोई देश अपने लोगों को छुड़ाने के लिए तीन आतंकवादियों को रिहा करे इससे ज्यादा क्षोभ की बात क्या हो सकती है। किंतु यह मान लेना गलत होगा कि इस तरह का निर्णय करने वाले सारे लोग डरपोक एवं कायर थे, वे घबरा गए थे तथा बिना सोचे विचारे आतंकवादियों की मांगें स्वीकार कर लिया। उस घटना को तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में समग्रता से देखना होगा।
हम कंधार की सम्पूर्ण दुखद सच्चाई को याद करें उससे पहले एक महत्वपूर्ण पहलू का जिक्र आवश्यक है। उच्च पदों पर काम करने वाले नौकरशाह सेवानिवृत्त होने के बाद अपना संस्मरण लिखते हैं जिनमें कुछ विवादस्पद अध्याय हों। इसमें वे अपना दोष स्वीकार नहीं करते। कुछ नौकरशाहों का ज्ञान चक्षु तो सेवानिवृत्त होने के बाद ही खुलता है। कुछ महाक्रांतिकारी और विद्रोही हो जाते हैं। नौकरी में रहने तक वे न विद्रोह करते हैं, न क्रांति, संबंधित निर्णयों में उनकी सहभागिता होती है, पर बाहर आते ही वे अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला झाड़ने के उपक्रम में एकपक्षीय संस्मरण लिखते हैं। विवादास्पद होने के कारण उसे मीडिया की सुर्खियां मिलतीं हैं और तीखे राजनीतिक विभाजन के कारण मुद्दा भी बन जाता है। अगर किसी नौकरशाह पर आरोप है और वह उसके खंडन के लिए ऐसा कुछ सामने लाता है या उसे देश हित में कुछ जानकारी देना आवश्यकता लगता है तो इसे स्वीकार किया भी जा सकता है, लेकिन अनावश्यक रुप से ऐसे संस्मरण लिखना जिससे देश का भला होने की बजाय केवल विवाद पैदा हो, गड़े मुर्दे उखड़ें अस्वीकार्य होना चाहिए। दुलत की पुस्तक कश्मीरः द वाजपेयी ईयर्स को किस श्रेणी का माना जाए इसका फैसला आप करिए।
दुलत बड़े गर्व से वर्णन करते हैं कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के समय वे खुफिया ब्यूरो के प्रमुख के रुप में रुबिया सईद के अपहरण के बाद पांच आतंकवादियों को रिहा करने के लिए मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के पास गए थे तो उन्होेंने इन्कार किया था और दोबारा जब 1999 में कंधार कांड के समय तीन आतंकवादियों की रिहाई का फैसला लेकर गए थे तब भी। अगर ये फैसले गलत थे तो आपने ऐसा करने से इन्कार क्यों नहीं किया? आप उस समय खुफिया ब्यूरो के प्रमुख थे। आपके पास जानकारी रही होगी कि छोड़े जाने वाले आतंकवादी बाद में कितने खतरनाक हो सकते हैं। आपको यह भी जानकारी होनी चाहिए थी कि रुबिया सईद को बंधक बनाने वाले आतंकवादियों को रिहा करने के एवज में उनकी हत्या कर सकते हैं या नहीं। रौ प्रमुख के रुप में आपका कंधार विमान अपहरण कांड पर क्या आकलन था यह आपने सरकार को बताया या नहीं? उस समय आप निर्णय में शामिल थे और आज उसको गलत ठहरा रहे है।
दुलत कह रहे हैं कि क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप (सीएमजी) ने आतंकियों से निपटने के अभियान में गड़बड़ियां की थीं। दुलत कहें या नहीं यह पूरे देश को अखड़ा था जब 24 दिसंबर, 1999 को ईंधन के लिए विमान अमृतसर में उतरा तो आतंकवादियों को बातचीत में उलझाने या उसे रोकने के लिए कुछ न किया जा सका। विमान उड़ गया। उनका कहना है कि पांच घंटों तक सीएमजी की बैठक होती रही और जहाज अमृतसर से उड़ गया। सच है कि विमान के एक बार निकल जाने के बाद हमारे पास विकल्प कम हो गए थे। विमान को पाकिस्तान में नहीं उतरने दिया गया, वह दुबई गया और वहां से कंधार। कंधार जाते ही हमारे पास अहिंसक विकल्प सीमित हो गए। अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन था। तालिबान सरकार का केवल तीन देशों पाकिस्तान, सऊदी अरब एवं संयुक्त अरब अमीरात से ही औपचारिक संबंध था। मध्यस्थता के लिए तालिबान उपलब्ध थे एवं वे भीतर से अपहरणकर्ताओं के साथ थे। जेहाद के नाम पर जुनून और उन्माद से भरे तालिबान किसी अंतरराष्ट्रीय कानून की बात मान लेंगे यह सोचना ही बेमानी था। जो पत्रकार उस घटना पर नजर रख रहे थे उन्हें पता है कि आरंभ में सरकार ने आतंकवादियों की मांगे मानने से इन्कार किया था। एक शर्त तालिबान सरकार को मान्यता देना भी था। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इसके जवाब में कहा था, इसका सवाल ही पैदा नहीं होता।
कंधार कांड में सबसे ज्यादा आलोचना तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह की होती है। कारण, सरकार के फैसले के अनुसार उन्हें ही तीन आतंकवादियों मसूद अजहर, अहमद उमर सईद शेख और मुस्ताक अहमद जर्गर को लेकर कंधार जाना पड़ा और तब बंधक बना जहाज वहां से वापस आया। जसवंत सिंह ने भी नौ वर्ष पूर्व ‘अ कॉल टू औनर, इन सर्विस औफ इमर्जेंट इंडिया’ नाम की पुस्तक में इस विषय पर लिखा है। जसवंत उस स्थिति में नहीं हैं कि वो दुलत की इस बात का जवाब दे सकें कि क्या वाकई फारुख अब्दुल्ला ने उन्हें फोन पर खरी खोटी सुनाई थी। दुलत कह रहे हैं कि फारुख अब्दुल्ला ने कहा था कि दिल्ली (केंद्र सरकार) कितनी कमजोर है, यह कितनी बड़ी गलती है, बिल्कुल मूर्खों की मंडली है वहां। उनके अनुसार फारुख अब्दुल्ला अपना इस्तीफा तक सौंपने की बात कह चुके थे। इसे मान लिया जाए तो आतंकवाद के विरुद्ध सबसे बड़े हीरो फारुख अब्दुल्ला ही माने जाएंगे।
यह सच किसी को कचोटेगा कि उन तीनों ने रिहा होेने के बाद भारत और दुनिया में कितना कहर बरपाया। मसूद अजहर ने वापस जाने के बाद जैश ए मोहम्मद नामक संगठन बनाया और भारत पर अनेक हमले करवाए। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए हमले में उसी का हाथ माना जाता है। शेख तो 11 सितंबर 2001 के न्यूयॉर्क हमलों में शामिल हुआ। दुलत का बयान आते ही कांग्रेस ने भाजपा पर तीखा हमला आरभ किया है। 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया था। जब भी आतंकवाद का जिक्र आता है भाजपा विरोधी कंधार कांड की उलाहना जरुर देते हैैं। किंतु उस समय का दृश्य याद करिए। किसी पार्टी ने सरकार के फैसले का विरोध नहीं किया। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने सभी दलों से मंत्रणा की थी। अगर दलों ने एक स्वर में कहा होता कि आतंकवादी रिहा नहीं किए जाएंगे भले वे हमारे लोगों का मारें या छोडें तो सरकार ऐसा फैसला कर ही नहीं सकती थी। सच यह है कि सरकार के विरोध में प्रतिदिन प्रदर्शन होने लगे, मीडिया पर 24 घंटे का सीरियल आरंभ हो गया। बंधकों के रिश्तेदारों का प्रदर्शन हो रहा था। एक दिन जसवंत सिंह की पत्रकार वार्ता में प्रदर्शनकारी घुस गए और सीधी मांग करने लगे कि हमें हमारे लोग चाहिए। एक नेता आगे नहीं आया यह कहने के लिए कि ऐसा न किए जाए यह भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। सरकार ने करगिल शहीद की कुछ विधवाओं को जरुर बुलवाया उन्हें समझाने के लिए, लेकिन यह बेअसर रहा। जब विमान वापस आया तो देश में जश्न जैसा माहौल था। जिस देश में ऐसा माहौल हो वहां कठोर निर्णय हो ही नहीं सकता। तो उस निर्णय के लिए सम्पूर्ण देशवासी लताड़ के भागी हैं। हममें से किसी को आलेचना का अधिकार नहीं।
एक सच यह भी है कि अपहरणकर्ताओं की ओर से 36 आतंकवादियों को रिहाई तथा 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर की मांग रखी गई थी। विमान में कई देशों की मुद्रा छापने वाले स्विस फर्म के मालिक रॉबर्ट जियोरी अपनी महिला मित्र क्रिस्टिना के साथ सवार थे।एक अन्य स्विस एवं एक अमेरिकी नागरिक भी था। इन देशों ने भी अपने नागरिकों के लिए भारत से संपर्क किया होगा। किंतु इनके दबाव में फैसला हुआ होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। यह आरोप भी लगता रहा है कि अपहरण कर्ताओं को धन दिए गए। लेकिन धन का कहीं तो रिकॉर्ड होगा। कोई अपने घर से तो धन दे नहीं सकता था। इस बारे में कोई सबूत नहीं है। हालांकि यदि भारत के लोगों के लिए देश की शान से उन 171 लोेगों के जान की कीमत ज्यादा थी तो चाहे आप तीन आतंकवादी छोड़िए या 20 करोड़ डॉलर दे दीजिए, सब छोटे हैं। लेकिन एक बार यदि उनकी मांग मानने का फैसला हो गया तो 36 की एवज में 3 को रिहा करना भी एक बड़ी उपलब्धी थी। वैसे यह भी सच है कि मुश्ताक अहमद जरगर के अलावा दोनों पाकिस्तानियों पर तब तक मुकदमे के रुप में आतंकवाद के गंभीर मामले नहीं थे। दुलत साहब के संगठन रॉ को भी पता नहीं था कि मौलाना मसूद अजहर की क्या औकात है और वह कितना कहर बरपा सकता है।
अवधेश कुमार, ईः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
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