शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

याकूब अपनी नियति को प्राप्त हुआ

 

कोई नहीं कह सकता कि उसके साथ न्यायिक प्रक्रिया में कमी रह गई

अवधेश कुमार

जब उच्चतम न्यायालय ने एक बार डेथ वारंट को कानूनी रुप से सही करार दिया तो फिर याकूब रज्जाक मेमन की फांसी में महाराष्ट्र सरकार के सामने कोई समस्या नहीं थी। लेकिन ये भारत देश है यहां ऐसे नामचीन लोग हैं, वकील हैं जो इतनी आसानी से याकूब जैसे महान व्यक्ति को फांसी पर चढ़ने नहीं देने वाले थे। पूरा देश विस्मय से देख रहा था कि आखिर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दूसरी दया याचिका खारिज किए जाने के बाद वकीलों की पूरी फौज मीडिया को लेकर किस तरह मुख्य न्यायाधीश के एचएल दत्तू के दरवाजे आधी रात पहुंच गई। मुख्य न्यायाधीश को रात में फिर एक पीठ गठित करनी पड़ी, जिसने देर रात करीब तीन घंटे सुनवाई की और इनके दांव को नकार दिया। हम यह तो मानते हैं कि किसी निर्दोष के साथ हमारी न्यायिक प्रक्रिया में अन्याय न हो, इसके लिए वकीलों को कानूनी संघर्ष करना चाहिए। लेकिन यहां तो मामला ही अलग था। वकीलों का एक समूह इस तरह दिन रात एक किए हुए था मानो याकूब मेमन कोई ऐसा महान व्यक्तित्व हो जिसने इस देश या मानवता के लिए इतना बड़ा काम किया था कि उसे बचाना हर हाल में जरुरी था। इसके पूर्व कभी इस तरह आधी रात को उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पीठ गठित कर सुवनाई करानी नहीं पड़ी थी।

तो याकूब के मामले में यह एक अभूतपूर्व स्थिति निर्मित की गई थी। निस्संदेह, यह अवांिछत, अनावश्यक और आपत्तिजनक भी था। खैर, इसके बाद कोई यह नहीं कह सकता कि यााकूब को न्यायालय में अपने बचाव का जितना अवसर मिलना चाहिए था नहीं मिला। इसके विपरीत जितना अवसर शायद नहीं हो सकता था उतना उसके लिए वकीलों ने पैदा किया। हालांकि हर बार उनके दांव विफल रहे। रात में सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के एक फैसले को आधार बनाते हुए इन वकीलों ने कहा कि दया याचिका खारिज होने के कम से कम 14 दिन बाद ही किसी को फांसी दी जा सकती है। इससे पहले याकूब के वकीलों की फौज ने अपनी याचिका में दो बातें कहीं थी- क्यूरेटिव पीटिशन पर दोबारा सुनवाई होनी चाहिए और मौत का वारंट जारी करने का तरीका गलत था। 5 घंटे 45 मिनट की सुनवाई के बाद न्यायालय ने कहा कि न तो क्यूरेटिव पीटिशन पर दोबारा सुनवाई की जरूरत है और न ही मौत का वारंट जारी करने में कोई गलती हुई है। न्यायालय ने साफ कहा कि याकूब के मामले में सभी कानूनी प्रक्रिया सही तरीके से अपनाई गईं। यही नहीं तीन न्यायाधीशों वाली पीठ के अध्यक्ष दीपक मिश्रा ने आदेश में कहा कि मौत के वारंट पर रोक लगाना न्याय का मजाक होगा। इससे कड़ी टिप्पणी औश्र क्या हो सकती है? जरा सोचिए, उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय बड़ी पीठ जिसे न्याया का मजाज करार दे रहा था उसे ये नामचीन वकील न्यायिक मान रहे थे। तो फिर इनके लिए क्या शब्द प्रयोग किया जाए?

 रात में तो खौर इतिहास ही बन गया। सुनवाई के लिए अदालत कक्ष का अभूतपूर्व रूप से रात में खोला जाना इनकी पहल पर ही हुई। अगर नहीं खोला जाता तो ये शायद उच्चतम न्यायालय पर भी कोई आरोप लगा देते। तीन बजकर 20 मिनट पर शुरू हुई सुनवाई करीब दो घंटे तक चली। मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीश दीपक मिश्र, जे ए राय और जेपी पंत की उसी पीठ को मामले को सौंपा जिसने दिन में सुनवाई की थी। यहां न्यायालय ने क्या कहा इसे देखिए- राष्ट्रपति द्वारा 11 अप्रैल 2014 को पहली दया याचिका खारिज किए जाने के बाद दोषी को काफी समय दिया गया जिसकी सूचना उसे 26 मई 2014 को दी गई थी। ......अभियुक्त को इसका पूरा समय सरकार ने दिया जिससे कि वो अपने परिजनों से अंतिम मुलाकात कर सके तथा शेष जो भी जेल में रहते हुए बंधनों के अंदर करना हो कर सके।इसके बाद आप निष्कर्ष निकालिए कि इन वकीलो की फौज का पक्ष कितना मजबूत था। इतने बड़े-बड़े वकील थे तो इन्हें कानून, मौत के वारंट की प्रक्रिया आदि का ज्ञान नहीं हो ऐसा तो हो नहीं सकता। इसलिए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है आखिर ये ऐसा क्यों कर रहे थे?

पहले उच्चतम न्यायालय ने मौत के आदेश को आजीवन कारावास में परिणत करने की याचिका खारिज कर दी थी। उसके बाद पुनरीक्षण याचिका, फिर सुधारात्मक याचिका....भी अस्वीकृत हुई। सुधारात्मक याचिका के पूर्व राष्ट्रपति ने दया यायिका खारिज कर दी थी। न्यायालय से लेकर राष्ट्रपति तक को याकूब से कोई निजी दुश्मनी तो थी नहीं। सच तो यह था कि तमाम कोशिशें किसी तरह मौते को टालने की रणनीति का अंग था ताकि बाद में उसे किसी तरह बचा लिया जाए। आखिर राजीव गांधी हत्याकांड के अभियुक्तों को उच्चतम न्यायालय ने देरी का आधार बनाते हुए मृत्युदंड से मुक्त कर ही दिया। तो रणनीति के तहत ही महाराष्ट्र के राज्यपाल के यहां दया याचिका गई। उनने ठुकरा दी। एक ओर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई चल रही थी दूसरी ओर फिर  राष्ट्रपति के यहां दया याचिका भेज दी गई। कोई व्यक्ति इस तरह सारे फैसलों के बाद याचिका दर याचिका डालता रहे और न्यायालय उसकी सुनवाई करता रहे, राष्ट्रपति उस पर हमेशा एक ही कार्रवाई करने को विवश रहें तो यह वाकई न्याय प्रक्रिया का मजाक ही होगा। इसलिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लिखित राय की जगह गृहमंत्री को ही बुला लिया, सौलिसिटर जनरल को भी बुलाया और वही खारिज करने का फैसला कर लिया।  ऐसी याचिकाओं में इसी तरह फैसला होना चाहिए। इसलिए यह कहना होगा कि उच्चतम न्यायालय ने भी आगे की बजाय रात में ही सुनवाई एवं फैसले की बिल्कुल सही नीति अपनाई एवं राष्ट्रपति ने भी। सच कहंें तो इन दोनों कदमों से न्यायिक प्रक्रिया मजाक बनने से बची। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि याकूब को अपने बचाव के पर्याप्त मौके दिए गए। इसने आगे कहा कि कल आदेश सुनाते हुए भी हमें टाडा अदालत द्वारा 30 जुलाई को फांसी देने के लिए 30 अप्रैल को जारी किए गए मौत के वारंट में कोई खामी दिखी ही नहीं।

यह बड़ी अजीब स्थिति है। आखिर एक व्यक्ति, जो भारत पर पहले श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों का अभियुक्त था, जिसका अपराध प्रमाणित हो चुका था...उसके बाद उसके पक्ष में खड़ा होने वालों को क्या कहा जा सकता है? वकीलों के साथ 291 तथाकथित नामचीन लोगों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा कि इसे ही दया याचिका मानकर विचार किया जाए। क्यों भाई? क्या आपको अपनी न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास नही है जो मानता है कि मौत की सजा विरलों में विरलतम मामले में ही दी जा सकती है? उसी न्यायालय ने 10 लोगों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला, केवल एक की मौत बरकरार रखी थी। जाहिर है, इसके खिलाफ एकदम पुख्ता सबूत के बगैर उच्चतम न्यायालय ऐसा फैसला कर ही नहीं सकता था। याकूब के लिए मोर्चाबंदी करने वाले पता नहीं क्यों भूल रहे थे कि मुंबई पर हमला मतलब भारत पर हमला था। हमारे देश पर हमले के अपराधियों के साथ कैसा सलूक किया जाना चाहिए? ये यह भी भूल गए कि जो 257 लोग उस हमले में मारे गए उनके परिवार की तथा जो 713 घायल हुए उनकी मानसिक दशा क्या होगी? उनका कोई मानवाधिकार नहीं था या है? कहा गया कि उसने स्वयं आत्मसमर्पण किया। अपने परिवार को कराची से लाने की पहल की। हालांकि मुकदमे के दौरान याकूब ने इसका जिक्र नहीं किया, फिर भी इसे कुछ समय के लिए स्वीकार कर लंें तो इससे उसका अपराध कम हो जाता है? क्या कोई आत्मसमर्पण कर दे तो उससे कानून में उसकी सजा पर असर पड़ने का कोई प्रावधान है? तो फिर उसके लिए छाती पीटने वाले आखिर क्या संदेश दे रहे थे। अगर असदुद्दीन जैसे कुछ नेता इसे सांप्रदायिक रंग देकर अपना राजनीतिक एजेंडा पूरा कर रहे थे या कर रहे हैं तो ये सारे लोग उसको बल प्रदान कर रहे थे।

वास्तव में यह तो मुंबई हमले मामले की त्रासदी है कि इसके दो मुख्य अभियुक्त दाउद इब्राहिम और याकूब के बड़े भाई टाइगर मेमन को आज तक पकड़ा नहीं जा सका। यह न्यायिक प्रक्रिया तभी पूरी होगी जब इन दोनों को भी पकड़कर कानून के कठघरे में खड़ा किया जाए। निश्चित मानिए, अगर कभी ऐसा हुआ तो इन वकीलों की तथा बुद्धिजीवियों का समूह उसके पक्ष में भी खड़ा हो जाएगा। ये वकील इतने महंगे हैं कि इन्हें कोई आम आदमी अपने मुकदमे की पैरवी के लिए लेने की कल्पना भी नहीं कर सकता। आखिर इसके पूर्व किसी पीड़ित के लिए इनको एक साथ इस तरह खड़े होते नहीं देखा गया। इतने महंगे फीस वाले वकीलों को इसमें पारिश्रमिक कहां से आ रहा था? इनका निहित एजेंडा क्या था? इन प्रश्नों का उत्तर देश को मिलना चाहिए। खैर, जो भी हो कम से कम इसके बाद कोई मानसिक संतुलन वाला यह नहीं कह सकता कि याकूब के साथ न्यायिक प्रक्रिया मे कहीं कोई कमी रह गई।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

 

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

इस सरेआम हत्या से उठते सवाल

 

अवधेश कुमार

नई दिल्ली का मीनाक्षी हत्याकांड राष्ट्रीय बहस का मामला हो गया है। दिल्ली में किसी की सड़क पर सैकड़ों लोगों के सामने चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी जाए, यह सामान्य कल्पना में भी नहीं आ सकता। देश की राजधानी की कानून व्यवस्था ऐसी नहीं हो सकती जिससे अपराधियों के अंदर पुलिस का भय न हो। 17 जुलाई को जब 19 वर्षीया मीनाक्षी अपने घर से सामान के लिए निकली तो उसे कतई यह इल्म नहीं रहा होगा कि उसका अंत इतनी बेरहमी से होने वाला है। दो युवकों द्वारा उसे सरेआम रोककर चाकुओं से गोदकर मार डालने की घटना किसी को सन्न कर सकता है। इस घटना ने राजधानी ही नहीं देश के सभी सोचने समझने वाले वर्ग को झकझोड़कर रख दिया है। लोगों की पहली पतिक्रिया यही है कि अगर दिल्ली में ऐसा हो सकता है तो फिर देश का कौन सा इलाका सुरक्षित होगा। खासकर लड़कियों या महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न फिर एक बार हमारे सामने उभरकर सामने आ गया है। इस घटना के तीन पहलू हैं- पुलिस या सुरक्षा व्यवस्था, ऐसे अपराधों की मानसिकता एवं अपराध के समय और बाद में समाज का व्यवहार।

आखिर कोई किसी लड़की को या लड़का को या किसी को उसके घर के बाहर इस तरह घेरकर कैसे गुण्डागर्दी कर सकता है। दो भाईयों जयप्रकाश उर्फ सन्नी और इलू ने जिस तरह उसे दबोचा, उसका बाल पकड़ा और चाकू मारना आरंभ किया इसका मतलब तो यही है कि उसे पुलिस या कानून का कोई भय नहीं था। वह लड़की एक बार जान छुड़ाकर भागी, फिर उसे पकड़ा गया, अगर न्यूनतम 20 चाकू भी उसे मारा गया तो इस बीच समय अवश्य लगा होगा। आनंद पर्वत थाना वहां से दूर नहीं है, फिर पीसीआर की वैन भी आसपास होगी, बिट का कान्सटेबल होगा। 20 मिनट से ज्यादा सब कुछ होता रहा और पुलिस वहां नहीं पहुंच पाई तो इसका अर्थ क्या है? 20-25 मिनट में तो कहीं किसी के साथ कुछ भी हो जा सकता है? दिल्ली पुलिस कमीश्नर बी एस बस्सी पुलिस का केवल बचाव कर रहे हैं। उनको इस बात की पड़ताल करवानी चाहिए कि आखिर आनंद पर्वत थाने की पुलिस की चूक है या नहीं। आनंद पर्वत सहित दिल्ली के अनेक क्षेत्र हैं जहां पुलिस पर सरेआम नशा का व्यापार करवाने, जुए और सट्टेबाजी करवाने से लेकर देह व्यापार तक कराने का आरोप हैं। झुग्गी झोपड़ी एकता मंच ने इसके खिलाफ दिल्ली में कई धरना प्रदर्शन किया है। दिल्ली पुलिस आयुक्त से लेकर उप राज्यपाल तक को ज्ञापन दिया है।

जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनके अनुसार दो वर्ष पहलें लड़की ने आनद पर्वत थाना में मामला दर्ज करवाया था। कहा जाता है कि जयप्रकाश और इलू ने उसके कपड़े फाड़ दिए थे। तेजाब फेंकने की धमकी दी थी। पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने के बजाए शांति भंग करने का कलंदरा बनाकर मामले को रफादफा कर दिया था। एक बार और उसकी मां पुलिस थाने फिर शिकायत दर्ज कराने गई, पर पुलिस ने कार्रवाई नहीं की। आज अगर उसकी इस तरह बेरहमी से हत्या हुई तो इसमें पुलिस का दोष कैसे नकारा जा सकता है? अगर पुलिस ने आरंभ में इस पर उचित कार्रवाई की होती तो यह वारदात नहीं होती। आखिर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर इतने सख्त कानून बने हुए हैं। इसमें पुलिस के हाथ कहीं बंधे नहीं है। इसलिए पुलिस को हम दोषमुक्त नहीं कर सकते। यह स्थिति एक जगह की नहीं हो सकती। अब हत्या के बाद पुलिस ने दोनों भाइयों को गिरफ्तार कर लिया है, चाकू मिल गया है तथा सामने कुछ सीसीटीवी फुटेज भी मिले हैं। मामले ने जितना तूल पकड़ा है उससे इनको सजा मिलनी निश्चित हो गई है। किंतु अगर पुलिस ने आरंभ में कार्रवाई की होती तो न मीनाक्षी मरती न ये दो नवजवान इस सीमा तक अपराध को प्रवृत्त होते।

कई बार पुलिस की भूमिका से गैर अपराधी प्रवृत्ति के दिग्भ्रमित लोगों को भी अपराध का प्रोत्साहन मिल जाता है। उस लड़की के साथ अगर जयप्रकाश या दोनों भाई छेड़छाड़ करता था तो उसका इरादा समझ में आने वाला था। लड़की के घर की हालत देखिए। उसका एक छोटा भाई है, मां है और बीमार पिता। परिवार चलाने के लिए वह किसी निजी कंपनी में नौकरी करती थी। जाहिर है, परिवार का कमजोर होना भी मनचलों को लड़कियों के प्रति अपराध का दुस्साहस प्रदान करता है। अगर वह संपन्न परिवार की होती, उसके पिता स्वस्थ होते, भाई बड़ा होता तो ये शायद ही उसे छेड़ने का दुस्साहस कर पाते। वह लड़की उस परिवार की अभिभावक, संरक्षक, पालक सब थी। अब उस परिवार का क्या होगा? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने परिवार से मुलाकात कर मुआवजा के तौर पर 5 लाख रुपये देने की घोषणा की। यह एक छोटा आर्थिक संबल उनके लिए हो सकता है। यदि जानमाल की रक्षा की जिम्मेवारी राज्य की है तो फिर किसी की जान जाती है तो राज्य को अपराधी को सजा दिलाने के साथ कुछ मुआवजा तो देना ही चाहिए। यह एक मानवीय कदम के साथ राज्य के दायित्व को हल्का निर्वहन भी है।

हम यहां दिल्ली सरकार बनाम केन्द्र सरकार की राजनीति में नहीं पड़ना चाहते। हम बस्सी बनाम केजरीवाल के वाद संवाद में भी नहीं जाना चाहते। हम ऐसी राजधानी जरुर चाहते है जहां इस तरह सरेआम अपराध का दुस्साहस कोई अपराधी न करे। उसे कानून का भय हो। यह भय का उदाहरण नहीं है। लेकिन यहां सबसे शर्मनाक और दिल दहलाने वाला रवैया समाज का आया है। वह लड़की चीखती रही, बच के भागी भी, हत्यारे सरेआम उसे पकड़कर पटकते और चाकू घोंपते रहे। उसकी मां उषा बचाने आईं तो उसे भी चाकू मारा। केवल एक नवजवान सामने आया, लेकिन वह भी इन दोनों के खूनी चाकू के सामने न टिक सका। साफ है कि अगर तमाशबीन बने सैकड़ों लोगों में से पांच दस लोग भी मुकाबले को आ जाते तो उसकी जान बच सकती थी। तो समाज का यह कैसा आचरण है? 

महानगरों और कस्बों में ऐसे ही अपराधी और दादा प्रवृत्ति वाले सरेआम किसी पर हमला करते हैं, वह चिल्लाता है, लोग देखते हैं, लेकिन सामान्यतःः उसे बचाने या मुकाबले के लिए नहीं आते। समाज में एक दूसरे से कटे होने, एकांगिता इसका मूल कारण है। पर इसे कहा तो जाएगा कायरता ही। कायर समाज कभी भी अपने को सुरक्षित नहीं कर सकता है। दुनिया की सक्षमतम पुलिस व्यवस्था भी ऐसे कायर, डरपोक और स्वार्थी समाज को रक्षित नहीं कर सकता। कोई यह क्यों नहीं सोचता कि आज जो दूसरे के साथ हो रहा है वह कल हमारे साथ भी हो सकता है। अरे, जीवन का एक दिन अंत होना ही है। जिस दिन अंत होना है उस दिन इसे कोई नहीं रोक सकता। हमारे यहां सारे धर्मग्रंथ निर्भीक होने की प्रेरणा देते हैं। इसमें मृत्यु से भी भयरहित होने की बात है, क्योंकि यह शरीर आया ही है मृत्यु के लिए तो उससे भय क्यों करना। यह भाव सामूहिक रुप से समाज में कौन पैदा करेगा? समाज की एकांगिता या निजताओं में सिमटे चरित्र को बदलकर लोगों को सामूहिक आचरण के लिए कैसे प्रवृत किया जाएगा? पुलिस का भ्रष्टाचार, उसकी आपराधिक गैर जिम्मेवारी का मामला अपनी जगह है, पर ये दो मूल प्रश्न है जिनका उत्तर हमे तलाशना होगा। नही ंतो पता नहीं कितनी मीनाक्षियां मारी जा रही हैं और मारी जातीं रहेंगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शनिवार, 18 जुलाई 2015

भारत तिब्बत सहयोग मंच ने "तवांग तीर्थ यात्रा" का आयोजन किया

भारत तिब्बत सहयोग मंच, हर वर्ष "तवांग तीर्थ यात्रा" का आयोजन करता है इस यात्रा को सुरक्षित एवं सुगम बनाने के विषय को लेकर आज कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं ने भारत सरकार के गृह राज्य मन्त्री श्री किरन रिजिजु जी से मुलाकात की । इस वर्ष यह यात्रा 19 नवम्बर से 23 नवम्बर 2015 तक होगी। इस यात्रा में मंच के संरक्षक माननीय श्री इन्द्रेश जी एवं मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डा. कुलदीप अग्निहोत्री जी यात्रियों के साथ रहते है।यह यात्रा गुवाहाटी से प्रारम्भ होकर बुमला बोर्डर तक जाती है जोकि भारत और तिब्बत का संधि स्थल है लेकिन चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया है इसलिए इसे चीन का बोर्डर कहा जाता है।इस यात्रा में अनेक धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थल है जिनका दर्शन लाभ यात्रीजन लेते है ।
श्री किरन रिजिजू जी ने यात्रा के लिए हर सम्भव प्रयास करने का भरोसा दिया।
मुलाकात के दौरान इस यात्रा के राष्ट्रीय संयोजक एवं दिल्ली प्रान्त के अध्यक्ष श्री पंकज गोयल जी के साथ अनिल मोंगा जी,सतीश स्वामी जी, रामानन्द शर्मा जी, अनिल गुप्ताजी एवं दीपक शर्मा उपस्थित रहे।

रामानन्द शर्मा - संयुक्त महामन्त्री, दिल्ली प्रान्त ।

 


 

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

कंधार कांड का भूत

 

अवधेश कुमार

कंधार विमान के भूत को एक बार फिर जिन्दा करने की कोशिशें हुईं हैं। यह कोशिश उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में जम्मू कश्मीर मामले के विशेष सलाहकार और रिसर्च एंड एनालिसिस या रॉ के पूर्व प्रमुख ए एस दुलत ने किया है। हालांकि वो जो बातें बता रहे हैं उनमें से ज्यादातर से हम पहले से परिचित हैं। इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी-814 का हरकत उल मुजाहिदीन के आतंकवादियों द्वारा अपहरण भारत के इतिहास का ऐसा अध्याय है जिसकी यादें जब भी दिलाईं जाएंगी हमारे अंदर टीस पैदा होंगी। कोई देश अपने लोगों को छुड़ाने के लिए तीन आतंकवादियों को रिहा करे इससे ज्यादा क्षोभ की बात क्या हो सकती है। किंतु यह मान लेना गलत होगा कि इस तरह का निर्णय करने वाले सारे लोग डरपोक एवं कायर थे, वे घबरा गए थे तथा बिना सोचे विचारे आतंकवादियों की मांगें स्वीकार कर लिया। उस घटना को तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में समग्रता से देखना होगा।

हम कंधार की सम्पूर्ण दुखद सच्चाई को याद करें उससे पहले एक महत्वपूर्ण पहलू का जिक्र आवश्यक है। उच्च पदों पर काम करने वाले नौकरशाह सेवानिवृत्त होने के बाद अपना संस्मरण लिखते हैं जिनमें कुछ विवादस्पद अध्याय हों। इसमें वे अपना दोष स्वीकार नहीं करते। कुछ नौकरशाहों का ज्ञान चक्षु तो सेवानिवृत्त होने के बाद ही खुलता है। कुछ महाक्रांतिकारी और विद्रोही हो जाते हैं। नौकरी में रहने तक वे न विद्रोह करते हैं, न क्रांति, संबंधित निर्णयों में उनकी सहभागिता होती है, पर बाहर आते ही वे अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला झाड़ने के उपक्रम में एकपक्षीय संस्मरण लिखते हैं। विवादास्पद होने के कारण उसे मीडिया की सुर्खियां मिलतीं हैं और तीखे राजनीतिक विभाजन के कारण मुद्दा भी बन जाता है। अगर किसी नौकरशाह पर आरोप है और वह उसके खंडन के लिए ऐसा कुछ सामने लाता है या उसे देश हित में कुछ जानकारी देना आवश्यकता लगता है तो इसे स्वीकार किया भी जा सकता है, लेकिन अनावश्यक रुप से ऐसे संस्मरण लिखना जिससे देश का भला होने की बजाय केवल विवाद पैदा हो, गड़े मुर्दे उखड़ें अस्वीकार्य होना चाहिए। दुलत की पुस्तक कश्मीरः द वाजपेयी ईयर्स को किस श्रेणी का माना जाए इसका फैसला आप करिए।

दुलत बड़े गर्व से वर्णन करते हैं कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के समय वे खुफिया ब्यूरो के प्रमुख के रुप में रुबिया सईद के अपहरण के बाद पांच आतंकवादियों को रिहा करने के लिए मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के पास गए थे तो उन्होेंने इन्कार किया था और दोबारा जब 1999 में कंधार कांड के समय तीन आतंकवादियों की रिहाई का फैसला लेकर गए थे तब भी। अगर ये फैसले गलत थे तो आपने ऐसा करने से इन्कार क्यों नहीं किया? आप उस समय खुफिया ब्यूरो के प्रमुख थे। आपके पास जानकारी रही होगी कि छोड़े जाने वाले आतंकवादी बाद में कितने खतरनाक हो सकते हैं। आपको यह भी जानकारी होनी चाहिए थी कि रुबिया सईद को बंधक बनाने वाले आतंकवादियों को रिहा करने के एवज में उनकी हत्या कर सकते हैं या नहीं। रौ प्रमुख के रुप में आपका कंधार विमान अपहरण कांड पर क्या आकलन था यह आपने सरकार को बताया या नहीं? उस समय आप निर्णय में शामिल थे और आज उसको गलत ठहरा रहे है।

दुलत कह रहे हैं कि क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप (सीएमजी) ने आतंकियों से निपटने के अभियान में गड़बड़ियां की थीं। दुलत कहें या नहीं यह पूरे देश को अखड़ा था जब 24 दिसंबर, 1999 को ईंधन के लिए विमान अमृतसर में उतरा तो आतंकवादियों को बातचीत में उलझाने या उसे रोकने के लिए कुछ न किया जा सका। विमान उड़ गया। उनका कहना है कि पांच घंटों तक सीएमजी की बैठक होती रही और जहाज अमृतसर से उड़ गया। सच है कि विमान के एक बार निकल जाने के बाद हमारे पास विकल्प कम हो गए थे। विमान को पाकिस्तान में नहीं उतरने दिया गया, वह दुबई गया और वहां से कंधार। कंधार जाते ही हमारे पास अहिंसक विकल्प सीमित हो गए। अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन था। तालिबान सरकार का केवल तीन देशों पाकिस्तान, सऊदी अरब एवं संयुक्त अरब अमीरात से ही औपचारिक संबंध था। मध्यस्थता के लिए तालिबान उपलब्ध थे एवं वे भीतर से अपहरणकर्ताओं के साथ थे। जेहाद के नाम पर जुनून और उन्माद से भरे तालिबान किसी अंतरराष्ट्रीय कानून की बात मान लेंगे यह सोचना ही बेमानी था। जो पत्रकार उस घटना पर नजर रख रहे थे उन्हें पता है कि आरंभ में सरकार ने आतंकवादियों की मांगे मानने से इन्कार किया था। एक शर्त तालिबान सरकार को मान्यता देना भी था। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इसके जवाब में कहा था, इसका सवाल ही पैदा नहीं होता।

कंधार कांड में सबसे ज्यादा आलोचना तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह की होती है। कारण, सरकार के फैसले के अनुसार उन्हें ही तीन आतंकवादियों मसूद अजहर, अहमद उमर सईद शेख और मुस्ताक अहमद जर्गर को लेकर कंधार जाना पड़ा और तब बंधक बना जहाज वहां से वापस आया। जसवंत सिंह ने भी नौ वर्ष पूर्व अ कॉल टू औनर, इन सर्विस औफ इमर्जेंट इंडियानाम की पुस्तक में इस विषय पर लिखा है। जसवंत उस स्थिति में नहीं हैं कि वो दुलत की इस बात का जवाब दे सकें कि क्या वाकई फारुख अब्दुल्ला ने उन्हें फोन पर खरी खोटी सुनाई थी। दुलत कह रहे हैं कि फारुख अब्दुल्ला ने कहा था कि दिल्ली (केंद्र सरकार) कितनी कमजोर है, यह कितनी बड़ी गलती है, बिल्कुल मूर्खों की मंडली है वहां। उनके अनुसार फारुख अब्दुल्ला अपना इस्तीफा तक सौंपने की बात कह चुके थे। इसे मान लिया जाए तो आतंकवाद के विरुद्ध सबसे बड़े हीरो फारुख अब्दुल्ला ही माने जाएंगे।

यह सच किसी को कचोटेगा कि उन तीनों ने रिहा होेने के बाद भारत और दुनिया में कितना कहर बरपाया। मसूद अजहर ने वापस जाने के बाद जैश ए मोहम्मद नामक संगठन बनाया और भारत पर अनेक हमले करवाए। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए हमले में उसी का हाथ माना जाता है। शेख तो 11 सितंबर 2001 के न्यूयॉर्क हमलों में शामिल हुआ। दुलत का बयान आते ही कांग्रेस ने भाजपा पर तीखा हमला आरभ किया है। 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया था। जब भी आतंकवाद का जिक्र आता है भाजपा विरोधी कंधार कांड की उलाहना जरुर देते हैैं। किंतु उस समय का दृश्य याद करिए। किसी पार्टी ने सरकार के फैसले का विरोध नहीं किया। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने सभी दलों से मंत्रणा की थी। अगर दलों ने एक स्वर में कहा होता कि आतंकवादी रिहा नहीं किए जाएंगे भले वे हमारे लोगों का मारें या छोडें तो सरकार ऐसा फैसला कर ही नहीं सकती थी। सच यह है कि सरकार के विरोध में प्रतिदिन प्रदर्शन होने लगे, मीडिया पर 24 घंटे का सीरियल आरंभ हो गया। बंधकों के रिश्तेदारों का प्रदर्शन हो रहा था। एक दिन जसवंत सिंह की पत्रकार वार्ता में प्रदर्शनकारी घुस गए और सीधी मांग करने लगे कि हमें हमारे लोग चाहिए। एक नेता आगे नहीं आया यह कहने के लिए कि ऐसा न किए जाए यह भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। सरकार ने करगिल शहीद की कुछ विधवाओं को जरुर बुलवाया उन्हें समझाने के लिए, लेकिन यह बेअसर रहा। जब विमान वापस आया तो देश में जश्न जैसा माहौल था। जिस देश में ऐसा माहौल हो वहां कठोर निर्णय हो ही नहीं सकता। तो उस निर्णय के लिए सम्पूर्ण देशवासी लताड़ के भागी हैं। हममें से किसी को आलेचना का अधिकार नहीं।

एक सच यह भी है कि अपहरणकर्ताओं की ओर से 36 आतंकवादियों को रिहाई तथा 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर की मांग रखी गई थी। विमान में कई देशों की मुद्रा छापने वाले स्विस फर्म के मालिक रॉबर्ट जियोरी अपनी महिला मित्र क्रिस्टिना के साथ सवार थे।एक अन्य स्विस एवं एक अमेरिकी नागरिक भी था। इन देशों ने भी अपने नागरिकों के लिए भारत से संपर्क किया होगा। किंतु इनके दबाव में फैसला हुआ होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। यह आरोप भी लगता रहा है कि अपहरण कर्ताओं को धन दिए गए। लेकिन धन का कहीं तो रिकॉर्ड होगा। कोई अपने घर से तो धन दे नहीं सकता था। इस बारे में कोई सबूत नहीं है। हालांकि यदि भारत के लोगों के लिए देश की शान से उन 171 लोेगों के जान की कीमत ज्यादा थी तो चाहे आप तीन आतंकवादी छोड़िए या 20 करोड़ डॉलर दे दीजिए, सब छोटे हैं। लेकिन एक बार यदि उनकी मांग मानने का फैसला हो गया तो 36 की एवज में 3 को रिहा करना भी एक बड़ी उपलब्धी थी। वैसे यह भी सच है कि मुश्ताक अहमद जरगर के अलावा दोनों पाकिस्तानियों पर तब तक मुकदमे के रुप में आतंकवाद के गंभीर मामले नहीं थे। दुलत साहब के संगठन रॉ को भी पता नहीं था कि मौलाना मसूद अजहर की क्या औकात है और वह कितना कहर बरपा सकता है। 

अवधेश कुमार, ईः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

रविवार, 5 जुलाई 2015

भारत तिब्बत सहयोग मंच, दिल्ली प्रान्त द्वारा "परम पावन दलाई लामा" का जन्मोत्सव मनाया

 भारत तिब्बत सहयोग मंच ,दिल्ली प्रान्त द्वारा "परम पावन दलाई लामा" जी का 80 वां जन्मोत्सव आज चिन्मय मिशन, लोधी रोड मनाया गया ।कार्यक्रम में मंच के संरक्षक एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारी मंडल के सदस्य माननीय इन्द्रेश जी, एवं मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डा.कुलदीप अग्निहोत्री जी ,तिब्बत की निर्वासित सरकार के सांसद आचार्य यशी पुन्छोक,भारत सरकार के केन्द्रीय गृह राज्य मन्त्री किरन रिजिजू ,समाज कल्याण राज्य मन्त्री विजय सांपला ,सांसद श्री भगत सिंह कोशियारी,कुलवंत सिंह बाठ ,हरजीत सिंह ग्रेवाल,सहित कई अन्य गणमान्य व्यक्तियों का मार्ग दर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ ।सभी लोगों ने परम पावन दलाई लामा जी को दीर्घायु होने की प्रार्थना की ।इन्द्रेश जी ने कहा कि हम सभी भारतीय तिब्बत की आजादी के लिए हर सम्भव प्रयास करेंगे। उन्होंने बताया कि भारत का तिब्बत के साथ आध्यात्मक,भावनात्मक एवं ऐतिहासिक संबन्ध रहा है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रान्त अध्यक्ष श्री पंकज गोयल जी ने की ।कार्यक्रम मे देश के अलग-अलग कई प्रान्तो से संगठन कार्यकर्ता उपस्थित हुए।दिल्ली के कार्यकर्ताओं के अलावा कई बुद्धजीवी लोग भी उपस्थित रहे।
रामानन्द शर्मा -संयुक्त महामन्त्री ,भारत तिब्बत सहयोग मंच,दिल्ली प्रान्त ।

 



 

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

तीन अलग देश, पर हमलावरों की सोच एक

 

अवधेश कुमार

कुवैत, ट्यूनीशिया और फ्रांस- तीन देश, तीनों की भौगोलिक दूरियां, लेकिन हमला करने वालों की सोच एक। दो घंटे के अंदर तीन दूरस्थ देशों में हमला। यह है जेहादी आतंकवाद का कू्रर सच। सबसे पहले फ्रांस, फिर कुवैत और अंत में ट्युनीसिया। पता नहीं यह टिप्पणी पढ़ते-पढ़ते और कहीं हमला हो जाए। यह जेहादी आतंकवाद के वैश्विक विस्तार का भयावह प्रमाण है। जो करीब 70 लोग मारे गए या इससे कई गुणा ज्यादा घायल हुए वे न इनके निजी दुश्मन थे, न हमलावर इनको निजी तौर जानते थे। ज्यादातर आतंकवादी हमले में मारने वाले यह जानते ही नहीं कि जिन निरपराध लोगों का वे खून बहा रहे हैं वे कौन हैं। बस, हिंसा का एक जुनून, आतंक पैदा करने का उन्माद और इसके पीछे मजहब की वर्चस्व स्थापना की नासमझ किंतु सुदृढ हो गया विचार। कभी-कभी तो इनका निशाना ऐसा स्थान और ऐसे लोग होते हैं जिनके पीछे कोई निश्चित सोच भी नहीं होती, लेकिन ज्यादातर बार वे हमले के लिए ऐसी जगहों, ऐसे प्रतीकों और ऐसे लोगों का चयन करते हैं जिनसे ये एकदम सुस्पष्ट संदेश दे सकें। तीनों देशों में हुए हमले के स्थानों और निशाना बनाए गए व्यक्तियों का विश्लेषण करें तो फिर इसका अर्थ समझ में आ जाएगा।

उत्तरी अफ्रीकी अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया के समुद्र तट पर स्थित सूजे शहर के दो होटलों पर हुए आतंकी हमले की जो आपबीती सामने आई है उसके अनुसार एक में बिच पर पर्यटक की तरह दिखने वाला एक नवजवान लोगों को जोक सुना रहा था और अचानक उसने छाते से ए के 47 निकाली और केवल विदेशियों पर गोलियां बरसती रही। जो स्थानीय थे उनको वह बाहर जाने को कह रहा था। कुवैत में क्या हुआ? कुवैत सिटी स्थित सबसे बड़ी शिया मस्जिद में शुक्रवार की नजाम अदा करते समय ही हमला हो गया, जिसमें 27 लोग मारे गए और 200 से ज्यादा घायल जिनमें पता नहीं कितने और काल कवलित हो जाएंगे। अल-सवाबेर में स्थित अल-इमाम-अल-सादिक नाम की यह शिया मस्जिद कुवैत सिटी के पूर्वी हिस्से में है और रमजान के महीने में शुक्रवार होने के कारण 2000 से ज्यादा लोग उपस्थित थे।  उसमें कोई आत्मघाती स्वयं को उड़ा दे तो फिर कैसा कोहराम मच सकता है इसकी कल्पना से ही रोंगटेे खड़े हो जाते हैं।

 ध्यान रखिए, जब शिया मुस्लिम नमाज के घुटनों पर झुके हुए थी कि तभी अचानक उसने स्वयं को उड़ा दिया। निस्संदेह, उसके शरीर में काफी शक्तिशाली विस्फोट बंधे थे, इसलिए विस्फोट काफी जोरदार था। इस जोरदार धमाके का ही परिणाम था कि मस्जिद की छत और दीवारें फट गई थीं। तो व्यापक नरसंहार की योजना थी। दक्षिण-पूर्वी फ्रांस के सेंट क्वेंटिन फैलेवर स्थित जिस एयर प्रोडक्ट्स फैक्ट्री में आतंकी हमले की बात की जा रही है उसे लोकर थोड़ा संशय है। हालांकि वहां कई धमाकों की बात की जा रही है। कहा गया कि एक कार में सवार हमलावरों ने फैक्ट्री के गेट पर क्रैश करवा दिया। इसके बाद धमाका हुआ। फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट किया कि कार में विस्फोटक भरा हुआ था। यह सच है तो वहां भारी विनाश न मचना संयोग ही हो सकता है। लेकिन एक ही व्यक्ति का सिर और धड़ अलग-अलग क्यों किया गया? इसक उत्तर नहीं मिला। अगर सिर पर अरबी में लिखा हुआ है और हमलावर के हाथ में इस्लामिक स्टेट का झंडा होने की खबर सच है तो फिर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

अब जरा इनका विश्लेषण करिए। ट्युनीसिया, आंतरिक संघर्ष, जिसे अरब क्रांति कहा गया के गर्भ से अभी निकला नहीं और वहां मजहबी कट्टरपंथ ने वर्चस्व जमा लिया है। यहां इसमें विस्तार से जाना संभव नहीं, लेकिन यह सच सबको पता है कि बाहरी दुनिया की मीडिया ने जिसे गुलाबी क्रांति कहा, वह दरअसल, मजहबी कट्टरपंथ की का्रंति बन गई और ट्युनीसिया उसका भयावह शिकार है। हमलावरों ने केवल विदेशियों को क्यों मारा? उनकी जेहाद की सोच में विदेशी सभ्यता के साथ सम्मिलन का कोई स्थान नहीं। दूसरे, जब तक वहां दहशत पैदा नहीं होगा, विदेशी पर्यटक आते रहेंगे, उसकी आय भी होती रहेगी, इसलिए उस पर अपना आतंकी वर्चस्व कायम नहीं हो सकता। ट्युनीसिया में वर्ष 2014 में 60 लाख 10 हजार पर्यटक आए थे। देश के सकल घरेलू उत्पाद का 15.2 प्रतिशत हिस्सा पर्यटन से आता है। 4 लाख 73 हजार लोगों को पर्यटन में रोजगार मिलता है। तो पर्यटन वहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, वहां विश्व के पढ़े लिखे लोगों से संपर्क का मुख्य आधार भी। तो इसी को ध्वस्त करो। चुनकर विदेशियों को मारो। समुद्री किनारों वाला सूजे शहर विदेश पर्यटकों के बीच लोकप्रिय हैं। वहां जाने वालों में ब्रिटेन के नागरिकों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। ध्यान रखिए यहां पिछले मार्च में इस्लामी आतंकवादियों ने राजधानी ट्यूनिस के बार्डा म्यूज़ियम पर हमला किया था जिसमें 22 लोग तत्काल मारे गए थे। वह भी वहां का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। उस समय से पूरे देश में रेड अलर्ट था और सारे पर्यटक स्थलों की सुरक्षा बढ़ाई गई थी। इसके बावजूद आईएस के आंतकवादी हमला करने में सफल रहे।  ठीक है कि सुरक्षा गार्डों ने मुकाबला किया और हमलावरों के मारे जाने की सूचना है। लेकिन वो आईएसआईएस का प्रतीक बन चुके काला कपड़ा पहनकर आए ही थे मरने के लिए। इसलिए इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

कुवैत में शिया मस्जिद पर नमाज के वक्त हमला करके आईएस आतंकवादियों ने क्या संकेत दिया? यही न कि वे सुन्नी एकाधिकार के अलावा इस्लाम के किसी पंथ को इस्लाम नहीं मानेंगे और उसके खिलाफ हिंसा करते रहेंगे। आईएस के आतंकवादी चारों ओर शियाओं की ऐसे ही हत्या कर रहे हैं, यजीदियों की तो उनने पूरी तरह अंत करने की ठान ली है। 30 वर्षीय कुवैत आत्मघाती हमलावर की पहचान अबु सुलेमान अल-मुवाहेद के रुप में हुई है। सउदी अरब में आईएस से संबद्ध समूह नजद प्राविन्स ने बयान जारी करके कहा है कि अबु सुलेमान ने मस्जिद पर हमला इसलिए किया क्योंकि मस्जिद की ओर से सुन्नी मुस्लिमों के बीच शिया की शिक्षाओं का प्रसार किया जा रहा था। जेहादी आतंकवादी के उभार के समय से कुवैत काफी हद तक इससे बचा रहा है। आईएस के आतंकी ऐसे किसी देश को नहीं छोड़ना चाहते जहां गैर सुन्नी इस्लाम का अस्तित्व हो।

तो जो सोच है उसमें ऐसे हमले आगे भी होंगे। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद ने कहा है कि ऐसे और हमले का भय है। यहां भी एक हमलावर के मुठभेड़ में मारे जाने की सूचना है। जो दूसरा संदिग्ध गिरफ्तार हुआ उसका नाम यासिम सलीम है, किंतु उसे लेकर स्पष्ट नहीं है कि वह वाकई आतंकवादी है ही। बावजूद इसके स्थिति की गंभीरता का अनुमान इसी से लगाइए कि जब यह वारदात हुई ओलांद ब्रुसेल्स में यूरोपीय संघ की बैठक में थे जिसे छोड़कर देश वापस आए। फ्रांस पर आईएस आतंकवादियों ने इसी वर्ष जनवरी में पेरिस की मशहूर कार्टून पत्रिका चार्ली हेब्दो पर हमला करके 17 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। आईएस ने तो घोषणा ही किया हुआ है कि वह फ्रांस पर आगे भी हमला करेगा।

तो एक स्थान पर निशाने पर पर्यटक, दूसरे में शिया और तीसरे में एक आम फ्रांसीसी नागरिक। देखने में तीनों अलग-अलग लगते हैं, पर जैसा हम समझ चुके हैं ये एक ही खतरनाक सोच और लक्ष्य की अलग-अलग हिंसक अभिव्यक्तियां हैं और इनके संदेश भी पूरे विश्व के लिए एक ही है। आईएस दुनिया में जिस सुन्नी इस्लाम का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है, पिछली सदी की खिलाफत व्यवस्था को कायम करने के लिए आतंकवाद की पिछली सारी क्रूरताओं को पार गया है उसके उद्देश्य के आईने में इनकी तस्वीर एक ही दिखाई देगी। आईएसआईएस के प्रमुख अबु अल बगदादी ने जबसे स्वयं को खलीफा घोषित किया है उसने अपने सुन्नी इस्लामी साम्राज्य का एक नक्शा भी प्रसारित किया है जिसमें हमारे भारत का पश्चिमी हिस्सा भी शामिल है। उसी अनुसार वह अभियान चला रहा है। हालांकि हम एक दिन में तीन ही हमले की चर्चा कर रहे हैं जबकि उसी दिन तुर्की की सीमा के नजदीक सीरिया के शहर कोबानी पर इसने कब्जा कर लिया तथा 24 घंटे के भीतर 146 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। वे सारे शिया थे। प्रश्न है कि क्या आईएस इसी तरह आतंकवादी हमला करके अपना हिंसक विस्तार करता रहेगा और दुनिया हर हमले पर शोक और क्षोभ व्यक्त करती रहेगी? अमेरिका इतने लंबे समय से ड्रोन हमले कर रहा है, सीरिया और इराक सीधी लड़ाई लड़ रहा है, कुर्द सेनाएं अपने क्षेत्रों में लोहा ले रहीं, पर इसकी शक्ति में कमी आने के संकेत नहीं। वह अफगानिस्तान तक पहुंच गया और वहां तालिबान आतंकवादियो को वर्चस्व बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। क्या पूरी दुनिया एकजुट होकर इसके समूल नाश का संकल्प लेकर कार्रवाई नहीं कर सकती? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर विश्व समुदाय को तलाशना होगा। शांति और सद्भावपूर्ण जीवन के पक्षधर विश्व भर के मुस्लिम समुदाय को भी इनके खिलाफ खुलकर प्राणपण से आगे आना चाहिए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

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