शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

विदेशी बैंकों में खातों पर सरकार एवं उच्चतम न्यायालय, सरकार ने यह क्या किया

अवधेश कुमार

यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि भारत सरकार ऐसी संधियों से बंधी हैं, जिसमें अभियोजन के बिना विदेशी बैंकों के किसी खातेदार के नाम का खुलासा उसकी शर्तों का उल्लंघन होगा। इसके साथ यह भी सच है कि कि आगे कुछ संधियां होने वाली हैं उन पर असर होगा, एवं हम और जो नाम चाह रहे हैं, या जिन नामों के लिए जांच में सहयोग चाहते हैं वह भी प्रभावित होगा। यहां तक सरकार का तर्क गले उतर रहा था। लेकिन किसी की समझ में ये नहीं आ रहा कि आखिर बंद लिफाफे में उच्चतम न्यायालय में इन नामों की सूची और कार्रवाई रपट तथा संधियों के दस्तावेज पहले देने में क्या समस्या थी? जो कुछ सरकार ने 29 अक्टूबर को किया वह पहले भी कर सकती थी। इतने हील हुज्जत की जरुरत क्या थी? उच्चतम न्यायालय के पास इतना विवेक इतनी समझ है कि वह उस सूची का क्या करे। उसने अंततः उस लिफाफे को बिना पढ़े विशेष जांच दल या सिट को सौंप ही दिया।

सरकार की एक ही दलील थी कि हम संधियों के कारण अभी नामों का खुलासा नहीं कर सकते। उच्चतम न्यायालय नामों के खुलासे की तो बात कर नहीं रहा था वह तो कह रहा था कि जो भी जानकारी आपके पास है वह पूरी दीजिए। सरकार और न्यायालय दोनांें का इस मामले में एक ही लक्ष्य होना चाहिए-  छानबीन कर चोरी से विदेशों में धन जमा करने वालों को सामने लाना, उनसे करों की वसूली करना तथा उनको सजा देना। तो फिर आमने-सामने की स्थिति इसमें पैदा होनी ही नहीं चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नेताओं ने जिस तरह विदेशी बैंकों में काला धन को चुनाव का बड़ा मु्द्दा बनाया था उसके बाद उनका दायित्व है कि देश के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो। सरकार ने सिट के गठन और उसे व्यापक अधिकार देकर आरंभ में अपने इरादे का प्रमाण भी दिया। सरकार को यकीनन अभी समय कम मिला है, इसके द्वारा गठित सिट जांच कर रही है, लेकिन एप्रोच में मौलिक अंतर नहीं दिख रहा है। एकदम सामान्य सी बात थी कि जब आपने फ्रांस से प्राप्त जिनीवा स्थित एचएसबीसी बैंक 627 खातेदोरों की सूची सिट को पहले से सौंपी हुई है तो फिर उच्चतम न्यायालय को सौंपने में कोई हर्ज नहीं होनी चाहिए थी।

यह ठीक है कि उच्चतम नयायालय में आने के बाद कोई अंतर नहीं आया। सरकार ने उस सूची के साथ अब तक की कार्रवाई कार्रवाई रपट और संधियों के दस्तावेज न्यायालय को सौंपे है। निस्संदेह, इसका उद्देश्य यह साबित करना है कि हम जो बता रहे है। वे सच हैं, संधियो में हमारी प्रतिबद्धतायें हैं और हम बैठे नहीं हैं कार्रवाई कर रहे हैं। चूंकि वह भी सिट के पास आ गया इसलिए उसका दायित्व है कि उससे संबंधित रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को दे। इसके लिए उसके पास मार्च 2015 की समयसीमा भी है। हालांकि कुल मिलाकर उन नामों के आने के बावजूद हमारे पास वही 25 नाम हैं जिसे दो दिनों पहले सरकार ने न्यायालय को सौंपा था। लेकिन साफ है कि वित्त मंत्र अरुण जेटली के व्यवहार से 10 दिनों में सरकार की आम जनता की नजर में जैसी छवि बनी है, उससे बचा जा सकता था। उच्चतम न्यायालय ने इतनी कड़ी टिप्पणी सरकार के विरुद्ध कर दी। एक प्रकार से उस पर अविश्वास व्यक्त किया कि ऐसे अगर काम हुआ तो मेरी जिन्दगी में सच सामने नहीं आएगा। मोदी सरकार के विरुद्ध यह सामान्य टिप्पणी नहीं है। वित्त मंत्री पहले ही उच्चतम न्यायालय के निर्देश का पालन करते हुए सूची सौंप देते तो यह नौबत नहीं आती और सरकार का सिर उंचा रहता। आज सरकार कुछ भी कहे उसके इस रवैये से आम जनता के बीच भाव यह बना है कि सरकार उच्चतम न्यायालय में अगर सूची नहीं दे रही थी तो कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। यानी आपकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में आ गई। विपक्ष को हमला करने का अवसर मिल गया।  
हालांकि कांग्रेस जिस तरह सिना तानकर बातें कर रहीे हैं, वह केवल अपने पाप को छिपाना है। उच्चतम न्यायालय ने आदेश 2011 में ही दिया था। फ्रांस से सूची उन्हें ही मिली थी। न्यायालय बार-बार सरकार को कहती रही, डांटती रही, लेकिन सरकार ने अपने तरीके से ही काम किया। वैसे उस सरकार ने भी विदेशों में काला धन पर काम किया, पर वैसा नहीं जैसा हो सकता था। लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो ऐसी उम्मीद पैदा की थी जिसमे उसका व्यवहार पूर्व सरकार से अलग दिखना चाहिए था। सरकार की ओर से यह घोषणा हो चुकी थी कि 136 नामों की सूची वह सौंपने वाली है। उसी आधार पर यह मान लिया गया कि 136 की सूची दी गई है जिसमेे से 8 का खुलासा हुआ है, लेकिन बाद में शपथ पत्र से पता चला कि 136 की सूची दी ही नहीं गई। इसका सहमतिजनक कारण तलाशना कठिन है।  
वैसे इस मामले में कई प्रकार के दुष्प्रचार हो रहे हैं एवं गलतफहमियां पैदा की जा रहीं हैं। मसलन, भाजपा ने विदेशों से काला धन लाने की कोई समय सीमा दी थी। नरेन्द्र मोदी ने कभी नहीं कहा या भाजपा के घोषणापत्र में भी 100 दिन में कालाधन वापस लाने का वायदा नहीं किया गया। यह सफेद झूठ है।  इसी तरह हर व्यक्ति को 15 लाख देने की बात मैंने मोदी के या भाजपा के किसा शीर्ष नेता के मुंह से नहीं सुनी। कल्पित आंकडे देकर यह जरूर बता रहे थे कि विदेशों में काला धन आने पर हर व्यक्ति के हिस्से कितना आयेगा। लेकिन बांटने की बात आज उपहास के रूप में कह जा  रही है। समानांतर कुछ लोग दुष्प्रचार कर रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय की पीठ में 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी से जुड़े न्यायाधीश हैं, जो मोदी सकरार की छवि खराब कर रहे हैं। यह घटिया दर्जे का आरोप है। इसमें 10 जनपथ की किसी भूमिका को खोचने से ओछी बात कुछ नहीं हो सकती। अगर आज भी 10 जनपथ का इतना प्रभाव है तो इस सरकार को शासन में रहने का अधिकार ही नहीं है। सोशल मीडिया पर उच्चतम न्यायालय के खिलाफ दुष्प्रचार में कहा जा रहा है कि अगर उसे नामों का खुलासा करना ही नहीं था तो फिर उसने नाम लिया क्यों? अगर सिट के पास नाम था ही तो दुबारा ऐसा करने का मतलब क्या है? यह सब बाल की खाल निकालना है। उच्चतम न्यायालय यदि नामो ंका खुलासा नहीं कर रहा है तो यही उसकी परिपक्वता का परिचायक है। कुछ लोग दोहरे कराधान संधि को इस मामले में अप्रासंगिक बता रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं विदेशों में कालाधन की पूरी जांच कर चोरी पर टिकी है। यानी आपने कर न देने के इरादे से अपना धन विदेश में छिपा दिया। दूसरे देशों की आपत्ति यही है कि अगर किसी का हमारे देश में खाता है और वह वैध है तो उसकी निजता का हनन नहीं होना चाहिए।

वास्तव में विदेशांे में कालाधन के मामले में आरंभ से ही अतिवादी विचार प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। पहले न जाने कितने लोग आंकड़े लेकर आते थे और यह साबित करने की कोशिश करते थे कि विदेशों में इतना काला धन भारत का जमा है कि वह आया नहीं कि हम अमीर देश हुए। इसमें कुछ विदेशी संस्थान भी शामिल हैं। उनमें ज्यादातर आंकड़े काल्पनिक गणनाओं पर आधारित रहे हैं। भाजपा ने ही अपना एक टास्क फोर्स बनाया था जिसने भी ऐसे ही बड़े आंकड़े दिए थे। स्वामी रामदेव का आंकड़ा भी ऐसा ही था। एक स्विस बैंक एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के हवाले आंकड़े सामने लाए गए, जिसका कहीं कोई आधार आज तक नहीं मिला। दुनिया के किसी देश में किसी का खाता है तो वह अवैध नहीं हो सकता, यदि उसने बाजाब्ता इसकी सूचना यहां अपने आयकर विवरण में दिया हुआ है। जिन्हें टैक्स हेवेन देश कहा जाता है वहां खाते खुलवाने आसान रहे हैं, लेकिन वहां भी इतनी अधिक राशि की बिल्कुल संभावना नहीं है।

इसकी जटिलताओं को भी समझना होगा। आज के एप्रोच में आपको कोई देश केवल उन्हीं खातों से संबंधित जानकारी देगा जिसमें आपके कर विभाग ने कर चोरी की जांच की हो और कुछ ठोस प्रमाण हासिल किए हों। ऐसे में अगर सरकार इसी रास्ते विदेशों के कालाधन की जांच करती रहीं तो बहुत कुछ हासिल नहीं होगा। हालांकि जो नाम हैं उनमें दोषियों की जानकारी हमारे पास आएगी यह निश्चित है, पर शेष नाम कैसे आयेंगे? यह तो हमें बिना परिश्रम के मिले हुए नाम हैं। इसलिए सरकार को गंभीरता से विचार कर अपना एप्रोच बदलना होगा। सिट अभी तक इसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सका है कि हम किस तरीके से इसका पता लगाएं, देशों से किन आधारों पर भारतीय खातेदारों की सूची मांगे और किस तरह उसे काला धन साबित करें...आदि आदि। यहां सरकार के इरादे पर प्रश्न नहीं है लेकिन इस तरीके से तो बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। वित्त मंत्रालय और महाधिवक्ता ने न्यायालय में जो रुख अपनाया वह एप्रोच अस्वीकार्य है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
    

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

पाक संसद का रवैया खतरनाक संकेत है

अवधेश कुमार

पाकिस्तान की संसद ने एक स्वर में भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव अगर पारित कर दिया तो उससे हमारे लिए क्या अंतर आता है कि हम उस पर छाती पीटें। वहां की संसद ने इसके पूर्व पिछले अगस्त माह में भी एक सप्ताह के अंदर दो बार लगभग ऐसा ही प्रस्ताव पारित किया था। वह ऐसा समय था जिसे हमारी सेना ने 1971 के बाद की सबसे ज्यादा गोलीबारी वाला समय करार दिया था। वस्तुतः पाकिस्तान शांति के लिए ईमानदार प्रयासों के अलावा भारत के विरोध में जो चाहे करे, हमारी अपनी तैयारी और प्रत्युत्तर भारत के अनुरुप ही होगी। भारत यानी एक ऐसा परिपक्व देश, जिसके बारे में दुनिया मानती है कि यह अनावश्यक रुप से अपने पड़ोसी के शरीर में कांटे नहीं चुभाता, मुकाबले में सशक्त होते हुए भी किसी प्रकार की उत्तेजना या अतिवादी कदम से बचता है, जो लंबे समय से एक ओर पाकिस्तान प्रायोजित और फिर बाद में उसके चाहे अनचाहे सीमा पार आतंकवाद से ग्रस्त है, लेकिन कभी जवाब में आतंकवाद का नासूर पैदा नहीं करता......। क्या पाकिस्तान ने निंदा प्रस्ताव पारित करके वास्तविक नियंत्रण रेखा एवं अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चल रही गोलीबारी के लिए पूरी तरह से भारत को जिम्मेदार ठहराया दिया यानी भारत को हमलावर देश साबित करने की कोशिश की है तो दुनिया उसे स्वीकार कर लेगी? क्या वह भारत पर उसके अंदरुनी मामलों में दखल देने का आरोप लगा रहा है तो उससे विश्व समुदाय भारत को दोषी मान लेगा? इसका उत्तर दुनिया पाकिस्तान को पहले ही दे चुकी है। इसलिए हमें उत्तर तलाशने के लिए किसी माथापच्ची की आवश्यकता नहीं।

यह प्रस्ताव भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सियाचिन एवं कश्मीर घाटी के दौरे के साथ पारित किया गया है। इसलिए हम प्रस्ताव को इससे भी जोड़कर देख सकते हैं। पाकिस्तान सियाचिन दौरे को भड़काउ कार्रवाई के रुप में पेश करने की कोशिश कर रहा है। पर यदि मोदी वहां दौरे पर न जाते तो वह प्रस्ताव पारित नहीं करता यह मानने का कोई कारण नहीं है। ध्यान रखिए प्रस्ताव में विश्व समुदाय से इस मामले में दखल देने का अनुरोध किया गया है। तो लक्ष्य वही है, किसी तरह कश्मीर मामले को अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनाना। हालांकि इसे एक विडम्बना ही कहेंगे कि वह लगातार अपनी इस दुष्प्रयास में विफल हो रहा है, सभ्य भाषा में झिड़की भी सुन रहा है, पर हर कदम के बाद कोई न कोई तरीका फिर निकाल लेता है विश्व समुदाय से आग्रह का। पिछला तरीका संयुक्त राष्ट्रसंघ को बाजाब्ता पत्र लिखकर आग्रह करना था ताकि विश्व संस्था कुछ न कुछ लिखित उत्तर देने को विवश हो जाए। लेकिन उत्तर यह मिला कि आप भारत के साथ ही इसे निपटाइए। क्या पाकिस्तान मानता है कि इसके बाद विश्व संस्था अपने रुख से पलट जाएगा?

हालांकि उस समय लगा कि पाकिस्तान का यह अंतिम पैंतरा है। कारण इसके पूर्व वह संयुक्त राष्ट्र भारत पाक सैन्य आयोग के पास नियंत्रण रेखा पर हो रही गोलीबारी की रोकथाम के लिए आगे आने का लिखित आवेदन कर चुका था। वहां से उसे कोई प्रत्युत्तर न मिला न मिलना था, क्योंकि भारत ने उस आयोग को कब का खारिज कर दिया है। स्वयं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इससे पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा के अधिवेशन में इसे अपना मुख्य फोकस बनाया एवं उसे साढ़े छः दशक पूर्व पारित जनमत संग्रह प्रस्ताव को साकार करने के लिए आगे की अपील की थी। किसी ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि इसके परिणाम में उनकी कूटनीति भारतीय कूटनीति के सामने इस तरह विफल हो गई कि शरीफ चाहकर भी अमेरिका के राष्ट्रपति से न मिल सके, एवं पूरा  अमेरिकी प्रशासन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीे की यथोचित आवभगत में लग गया। इसके आगे के कदम के रुप में पाकिस्तान के राजदूत ने भी संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रधानमंत्री के वक्तव्य को आगे बढ़ाने की कोशिश की, पर परिणाम वही....शून्य।
इसलिए हम इस मामले में निश्चिंत हो सकते हैं कि विश्व समुदाय हमारी सोच के विरुद्ध पाकिस्तान के साथ कश्मीर मामले पर आगे नहीं आने वाला। चीन भी नहीं जिसे वह अपना शायद सबसे विश्वसनीय मित्र मानता है। कारण, अब चीन ने भी भारत के साथ अपने संयुक्त वक्तव्य में अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को स्वीकार कर लिया है और अमेरिका ने भी। इन सबके बावजूद यदि पाकिस्तान किसी न किसी तरह ऐसा कर रहा है तो यह हमारे लिए चिंता का विषय जरुर है। यह पाकिस्तान की उस खतरनाक स्थिति को दर्शा रहा है जहां से तत्काल उसके पीछे लौटने का संकेत नहीं। पाकिस्तान की संसद का अर्थ है, वहां की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों की आवाज। पाकिस्तान की परेशानी कुछ हद तक समझ में आने वाली है। मसलन, लंबे समय बाद उसे लगातार करारा प्रत्युत्तर मिला है। उसकी ओर के हमलों के जवाब में सीमा सुरक्षा बल ने सरकार से कार्रवाई की आजादी हासिल करने के बाद उस पार भी तबाही मचाई है। हमारे यहां जितने लोग मारे गए हैं उनसे तीन गुणा के करीब उधर मारे गए हैं। कई दर्जन उनके बैंकर तथा आतंकवादियों के शिविर नष्ट किये है। कई किलोमीटर तक पाकिस्तान को अपना क्षेत्र खाली करना पड़ा है। इससे उसका परेशान होना स्वाभाविक है। पर इसका निदान तो बड़ा सीधा है, वह अनावश्यक गोलीबारी बंद करे, आतंकवादियों की घुसपैठ की अपनी सैन्य रणनीति पर पूर्ण विराम लगाए। अगर वह यह करने को तैयार नही तो जाहिर है, वह खतरनाक दिशा में आगे बढ़ चुका है। यहां यह भी उल्लेख करना जरुरी है कि निंदा प्रस्ताव में भारत से पाकिस्तान के साथ नाभिकीय शक्ति संपन्न देश की तरह व्यवहार करने को कहा गया है। इसका क्या अर्थ है? क्या हम इसे नाभिकीय धमकी मान लें? इसका अर्थ जो भी लगाया जाए कम से कम तत्काल एक उद्धत देश का प्रमाण तो इसे मानना ही होगा।

अगर कोई देश उद्धतवाद की मानसिकता में पहुंच चुका है तो फिर उससे ज्यादा सचेत होकर रहने और किसी भी हालात से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। यह हमारे साथ दुनिया भर की चिंता का कारण होना चाहिए। नाभिकीय अस्त्र से लैश देश यदि इस तरह अनावश्यक औपचारिक रुप से इसकी धौंस दिखाता है तो इसे अवश्य विश्व समुदाय को गंभीरता से लेना चाहिए। पता नहीं पाकिस्तान यह कैसे भूल जाता है कि भारत भी नाभिकीय हथियार संपन्न देश है। लेकिन भारत का व्यवहार उद्धत देश की तरह न था न हो सकता है। कुल मिलाकर पाकिस्तान खतरनाक दिशा में जा रहा है। इसके कारणों की कई बार विवेचना की जा चुकी है। संसद के पास से कादरी साहब का घेराव हट गया, पर इमरन खान अभी वापस नहीं गए हैं। वहां जिस नेता को देखिए उसके मुंह से ही कश्मीर की जहर निकल रही है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के युवा नेता और उनकी आशा के केन्द्र बिलावल भुट्टो कहते हैं कि मैं जब कश्मीर का नाम लेता हूं तो पूरा भारत चीखने लगता है।

बेचारे भुट्टो भूल गए कि उन्हीं के नाना ने हाथ जोड़कर 33 वर्ष पूर्व शिमला समझौता किया था, अन्यथा भारत को कोई आवश्यकता नहीं थी। वे यह भी भूल गए कि पिछले वर्ष के चुनाव में उनको अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार छोड़कर सुरक्षा के लिए विदेश भागकर रहना पड़ा। तो भैया, अपने देश को ठीक करने की जगह यदि आप कश्मीर का आग उगलोगे तो यह तुम्हें एक दिन भस्म कर देगा। आखिर आतंकवाद पैदा किया तुम्हारा ही था जिसकी शिकार तुम्हारी मां हुई और पिछला चुनाव। बेचारे मुशर्रफ जो अपने कार्यकाल में भारत के साथ संबंध सुधारने की पहल कर रहे थे वे कह रहे हैं कि लाखों लोग तैयार बैठे हैं कश्मीर मे लड़ने के लिए केवल उन्हें भड़काने की आवश्यकता है। सेना का एक धड़ा तो खैर कट्टरवाद की गिरफ्त में है ही। इसमें नवाज सरकार भी पूरी तरह दबाव में है। ऐसे हालत में फंसा देश कोई भी विनाशकारी कदम उठा सकता है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

भाषा का यह घिनौना प्रयोग क्या कहता है

अवधेश कुमार

विधानसभा चुनाव संपन्न हो गया, लेकिन शिवसेना के मुखपत्र सामना में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए लेखन में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वह राजनीति एवं पत्रकारिता दोनों की दुनिया में किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं किया सकता। इसमें लिखा गया है कि शिवसेना न होती तो मोदी के बाप दामोदर दास मोदी भी भाजपा को बहुमत नहीं दिलवा पाते। वैसे तो इसमें और भी कई बातें आपत्तिजनक हैं , पर यह तो ऐसी पंक्ति है जिसकी हम दुःस्वप्नांे में भी कल्पना नहीं कर सकते थे। क्या अब आपसी मतभेद में राजनीतिक नेतागण एक दूसरे के मां, बाप का नाम लेकर हमला करेंगे? क्या पत्रकारिता में इस तरह की भाषा का प्रयोग करना कहीं से भी वांछनीय है? वास्तव में भारतीय राजनीति और पत्रकारिता के इतिहास की संभवतः यह पहला ही वाकया होगा जब प्रधानमंत्री ही नहीं किसी नेता के लिए लेखन में इस तरह की घिनौनी भाषा का प्रयोग किया गया है। कहा जा सकता है कि सामना ऐसी शब्दावलियों व भाषा के प्रयोग के लिए पहले से कुख्यात है। हां, है तब भी इसका संज्ञान लेकर निंदा तो करनी ही होगी, अन्यथा इससे शर्मनाक प्रवृत्ति को स्वीकृत करने का संदेश निकलेगा। 

वैसे सामना ने भी पहले प्रधानमंत्री के लिए ऐसे शब्द प्रयोग किए हैं, इसके उदाहरण शायद ही हो। कभी मोदी को पितृपक्ष को कौआ कहा गया तो कभी अफजल खां जिसने शिवाजी को छल से मारने की कोशिश की गई। मजे की बात देखिए कि इसके संपादक अपने स्वभाव के अनुरुप कहते रहे कि इसमें गलत क्या है, जो कुछ हमने लिखा सही लिखा। यह हठधर्मिता के सिवा कुछ नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियां प्रतिस्पर्धी होतीं हैं, एक दूसरे की आलोचना कर सकतीं हैं, लेकिन शब्दों की मर्यादा वहां हर हाल में कायम रहनी चाहिए। यहां तक कि पार्टी के मुखपत्रों में भी सामान्यतः इसका ध्यान रखा जाता है। कांग्रेस की केन्द्रीय स्तर की पत्रिका है, प्रदेशों के स्तर पर है, भाजपा का है, कम्युनिस्ट पार्टियों की है.........सबमें विरोधी पार्टियों की आलोचना होती है, पर इस तरह बाप को उकेड़ने का काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, शिवसेना के संपादक प्रेम शुक्ला ने शब्दों की मर्यादा अत्यंत ही असभ्य तरीके से तोड़ी है। फिर इसके दूसरे पक्ष भी हैं। एक महीना पहले तक तो दोनों पार्टियां 25 वर्षों की पुरानी साथी रहीं हैं। इसी सामना में नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा में न जाने कितने लेख लिखे गए थे। आज उसकी ऐसी भाषा आखिर किन बातों के द्योतक हैं?

हालांकि उन्होंने ऐसा न लिखा होता तो चुनाव के एक दिन पूर्व इस तरह शिवसेना और वे चर्चा में नहीं आते। हमारे यहां आप जितनी नकारात्मक टिप्पणियां और कार्य करते हैं, सुर्खियां उतनी ही पाते हैं। यह एक चिंताजनक प्रवृति है जिसक लाभ इस समय शिवेसना ने उठाया है। कहा जा रहा है कि मोदी की सभाओं में भीड़ और लोगों के आकर्षण से शिवसेना को पराजय की आशंका सता रही है और उसी हताशा भाव में उसकी ओर से ऐसे शब्द प्रयोग किए गए हैं। लेकिन यह प्रश्न यहां गौण है। पार्टी की हार या जीत की संभावना हर चुनाव में रहती है। जीत हार भी होती है, पर क्या उसमें इस तरह नंगा होकर हम भाषा का प्रयोग करेंगे? इसके बाद क्या होगा? क्या हम आमने सामने सभाओं में गाली गलौज करेंगे? सामना के संपादक प्रेम शुक्ला पार्टी के नेता के साथ पत्रकार भी हैं, एक पढ़े लिखे व्यक्ति हैं, समझ भी है, अगर आलोचना करनी ही थी तो दूसरे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। यह मुहल्ले के दो लोगों के बीच गाली गलौज हो गया जिसके लिए राजनीति या सार्वजनिक जीवन में जगह होनी ही नहीं चाहिए। इससे अपमानजनक संबोधन किसी के लिए क्या हो सकता है।

भाजपा ने गठबंधन टूटने के बाद भी कहा कि वह चुनाव अलग लड़़ेगी लेकिन शिवसेना की आलोचना नहीं करेगी। हम भाजपा के समर्थक हों या विरोधी यह मानना होगा कि इसका पालन भाजपा के नेताओं ने किया।  हालांकि अनिल देसाई जैसे शिवसेना के नेता इस भाषा से असहमति प्रकट कर रहे हैं, पर पार्टी ने मूलतः इस पर खामोशी ही बरती है। तथ्यों पर जाने वाले यह कह सकते हैं कि भाजपा शिवसेना के गठबंधन ने लोकसभा चुनाव मेें मिलकर ही वैसी विजय हासिल की। किंतु इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आखिर ऐसी विजय पहले क्यों नहीं मिली? लोकसभा चुनाव में तो बाला साहब ठाकरे भी नहीं थे। जाहिर है, राजनीतिक विश्लेषक एवं महाराष्ट्र में धरातल पर काम करने वाले जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व ने आकर्षण का ऐसा आलोड़न पैदा कर दिया था जैसा पहले किसी नेता के समय नही हुआ। इसलिए तथ्यतः भी यह कहना सही नहीं होगा कि शिवसेना के कारण ही विजय मिली। यह सच है कि दोनों पार्टियों का गठजोड़ जमीन तक पहुंचा था, इसका असर था और विजय में शिवेसना का योगदान था। किंतु यह भी सच है कि लोकसभा चुनाव के पहले शिवसेना के सांसद तक पार्टी छोड़कर जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि कहीं पार्टी ही खत्म न हो जाए। मोदी के आविर्भाव ने शिवसेना पार्टी को बचाया और विजय भी दिलाई।

विधानसभा चुनाव में सीटों पर बातचीत में दोनों दलों के रवैये पर अलग-अलग मत हो सकता है। हालांकि खबरों और दोनों पक्षों के नेताओं के बयानों से कोई भी समझ सकता था कि शिवसेना अपने रुख से हटने को तैयार नहीं थी। वह बदले वातावरण में भाजपा की बढ़ी हुई शक्ति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। दोनों गठबंधन तोड़ना नहीं चाहते थे, पर टूट गया। टूटने के बाद पार्टियों के बीच तीखापन आता है। कांग्रेस और राकांपा के बीच भी गठबंधन खत्म होने के बाद तीखापन दिखा है। दोनों पार्टियों ने एक दूसरे की आलोनायें की, इसमें नेताओं की निजी आलोचनायें भी हुईं, पर इनमें से किसी ने इस तरह भाषा की मार्यादा नहीं लांघी। यही व्यवहार की सीमा रेखा होनी चाहिए। हम जानते हैं कि राजनीति में आज का गठजोड़ किसी सिद्धांत या आदर्श के लिए नहीं होते। उनका एकमात्र उद्देश्य सत्ता के अंकगणित में किसी तरह अपनी संख्या बल बढ़ाना होता है। यही भाजपा शिवसेना के बीच था और कांग्रेस राकांपा के बीच। इस सोच के कारण  नेताओं के आपसी संबंधों में भी विश्वसनीयता या वास्तविक सम्मान की स्थापना नहीं हो पाती। पर इस गिरावट के दौर में भी हम ऐसी भाषा प्रयोग को राजनीति और पत्रकारिता दोनों के लिए शर्म का अध्याय ही कहेंगे। ऐसी अपमानजनक और गंदी भाषा का प्रयोग आगे सार्वजनिक जीवन में नहीं हो इसके लिए आवश्यक है कि इसकी पुरजोर निंदा की जाए, अन्यथा चतुर्दिक क्षरण एवं आदर्श व्यवहारों के घटते प्रेरणा के माहौल में इसके परिणाम संघातक होंगें। कोई इससे आगे बढ़कर ऐसे शब्द प्रयोग कर सकता है जिसे हम सामान्यतः सुनना भी न चाहते हों। इसलिए इसे यही रोका जाना जरुरी है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

अगर मंत्री नक्सली संगठन के मुखिया तो फिर कैसे होगा इनका अंत

अवधेश कुमार

यह पहली बार है जब किसी प्रदेश के मंत्री पर माओवादी या नक्सल संगठन चलाने, उससे जबरन वसूली से लेकर अनेक प्रकार के अपराध को अंजाम दिलवाने का आरोप लगा, त्यागपत्र देना पड़ा एवं अंततः गिरफ्तारी हुई। भारत में यह आरोप तो लगता रहा है कि राजनीतिक नेताओं के नक्सलियों से संबंध हैं, पर अभी तक किसी को इस आधार पर गिरफ्तार नहीं किया गया वह मंत्री होते हुए स्वयं नक्सल संगठनों का प्रमुख है। इस नाते यह असाधारण और हिला देने वाली घटना है। जी हां, झारखंड के पूर्व कृषि मंत्री योगेंद्र साव को दिल्ली पुलिस ने झारखंड पुलिस के साथ मिलकर एक साझा ऑपरेशन में जब गिरफ्तार किया तब यह खबर पूरे देश को पता चली। हालांकि झारखंड में यह खबर पहले से फैल चुकी थी, उन पर मुकदमा हो चुका था तथ इन कारणों से साव को मंत्रीपद से भी इस्तीफा देना पड़ा था। लेकिन वे पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए छिपते फिर रहे थे।

साव इस समय मंत्री भले न हों, पर वे विधायक हैं। अभी हम एकदम से अंतिम निष्कर्ष नहीं दे सकते कि उन पर जो आरोप हैं, वे शत-प्रतिशत सच ही है, पर पुलिस ने जिस तरह का मामला बनाया है, जो साक्ष्य सार्वजनिक किए हैं वे तो इसे पूरी तरह पुष्ट करते हैं। पुलिस का साफ कहना है कि झारखंड टाइगर्स ग्रुप और झारखंड बचाओ आंदोलन नामक दो नक्सली संगठनों का संचालन मंत्री महोदय ही कर रहे थे और जब हमारे पास पुख्ता सबूत मिल गए तो हमने उनके खिलाफ कार्रवाई की। पुलिस ने उनको आत्मसमर्पण करने का वक्त दिया और जब उन्होंने ऐसा नहीं किया तो फिर हजारीबाग की स्थानीय अदालत ने उनके खिलाफ वारंट जारी किया।
बहरहाल, पूरे देश को इंतजार होगा कि योगेन्द्र साव पूछताछ में क्या बताते हैं, उनसे और क्या राज हमें पता चलता है। दरअसल, पुलिस इसलिए उनकी संलिप्तता को लेकर आश्वस्त है, क्योंकि उसने उग्रवादी संगठन झारखंड टाइगर ग्रुप के प्रमुख के रुप में राजकुमार गुप्ता समेत चार उग्रवादियों को पिछले सितंबर माह में गिरफ्तार किया। कड़ाई से पूछताछ में उसी ने यह रहस्योद्घाटन किया था कि यह संगठन दरअसल मंत्री योगेन्द्र साव का है। उन्हीं के कहने पर  इसका गठन हुआ, हथियार और सारे संसाधन वे ही मुहैया कराते रहे हैं, मंत्री के कहने पर ही दहशत पैदा करने का काम हुआ, लेवी वसूली गयी और अन्य उग्रवादी घटनाओं को अंजाम दिया गया था। यह खबर पहली नजर में ही सनसनी पैदा करने वाली थी। आखिर कोई यह कल्पना भी कैसे कर सकता था कि संविधान की शपथ लेकर कृषि मंत्री के पद पर बैठा कोई नेता नक्सल है। झारखंड की हर सरकार नक्सलियों से संघर्ष करने का संकल्प व्यक्त करती है और उसके आस्तीन में ही कोई ऐसा सांप हो, यह किसी के दुःस्वप्नों में भी नहीं आ सकता है। एक बार जब पुलिस को थोड़ा सुराग मिला तो पुलिस ने राजकुमार गुप्ता को रिमांड पर लेकर उससे लंबत पूछताछ की। इसके बाद पता चला कि  झारखंड बचाओ आंदोलन भी उसीका बनाया हुआ संगठन है। पुलिस ने अपराध संहिता 164 के तहत न्यायिक दंडाधिकारी के सामने राजकुमार गुप्ता का बयान कराया और तब इस मामले में आगे बढ़ी। वास्तव में इस मामले में फिर एक- एक करके कई नाम जुड़ते चले गए और गिरफ्तारी भी होती चली गयी। सब में मंत्री महोदय के खिलाफ साक्ष्य पुख्ता होता गया। इसमें सिम और मोबाइल से एक- दूसरे से लंबी बातचीत, एसएमएस आदि भी है।

अगर कोई विधायक या मंत्री है तो वह जहां रहता है, उसके पास सरकारी भवनों के उपयोग के जो अधिकार हैं, उन सबसे ऐसी गतिविधियों को वह  सरकारी संरक्षण में अंजाम दे सकता है। पुलिस की सूचना के अनुसार यही योगेन्द्र साव करते रहे हैं। इसके अनुसार उनके सरकारी आवास, परिसदनों और उनकी गाड़ियों तक का भी इस्तेमाल नक्सली गतिविधियों के लिए किया गया। सरकारी गाड़ी से माओवादी कारनामा, परिसदन से माओवादी कारनामा, सरकारी आवास से माओवादी कारनामा..........सामान्यतः किसी को भी सन्न कर सकता है। यह तो रक्षक के ही भक्षक हो जाने की कहावत को चरितार्थ करने वाला प्रकरण है। माना जाता है कि केरेडारी में योगेन्द्र साव की अवैध सॉफ्ट कोक प्लांट है जिसमें कोई पुलिस अंदर जा ही नहीं सकता था। इसलिए इसके समूह के लोग वहां आराम से रहते और योजना बनाते थे। कोयले के अवैध कारोबार से लेकर भयादोहन, फिरौती जैसे अन्य अपराधिक मामले आराम से अंजाम दिये जाते थे।

यह एक साथ राजनीति और भयानक अपराध के डरावने रिश्ते को फिर उजागर तो करता ही है साथ ही हमें नये सिरे से सोचने को विवश करता है कि आखिर माओवादी हिंसक आंदोलन की आड़ में कैसे रसूख वाले लोग धन और प्रभाव के लिए छद्म संगठन चला रहे हैं और हमारे सामने हमारे भाग्यविधाता भी बने हैं। योगेन्द्र साव का रिकॉर्ड भी ऐसा नहीं था कि उसे मंत्री बनाया जाना चाहिए। एक दबंग के रुप में साव की कुख्याति तो सबके सामने थी। पत्थर खनन जैसे धंधे में आने के साथ ही उसने दबंगई आरंभ कर दिया था। विरोध करने वालों की पिटायी, उसके लिए गिरोहबाजी आदि से स्थानीय लोग वाकिफ रहे हैं।  1995 में माओवादियों के एक संगठन नारी मुक्ति संघ से जुड़कर वह उसका कर्ताधर्ता बन गया। इस दौरान दूसरे जिलों और झुमरा में उग्रवादी कैंपों में भी उसकी भागीदारी रही। दस वर्षों में हत्या, मारपीट समेत कई गंभीर आरोप में उसपर प्राथमिकी दर्ज हुई। अकेले केरेडारी थाने में सात मामले वन अधिनियम 45/94 और 41/94, मारपीट के मामले 60/03, एनटीपीसी के अधिकारी से मारपीट 55/10, बीडीओ के साथ मारपीट 4/11, हत्या के मामले 83/90 तथा मारपीट के मामले 33/12 उसपर दर्ज हुए।
ये मामले और उसकी छवि ही उसे राजनीति से बाहर रखने के लिए पर्याप्त होने चाहिए थे। पर झारखंड राज्य बनने के बाद से वहां की राजनीति का जैसा भयानक व शर्मनाक रुप आया है उसमें साव ऐसे अकेले नहीं थे सच तो यह है कि पूरा झारखंड नेताओं के लूट का अड्डा बना हुआ है.....सब एक दूसरे को जानते हैं.....पुलिस भी जानती है और उनमें से भी ज्यादातर की इसमें संलिप्तता है.......। लेकिन कोई सीधे माओवादी या नक्सली संगठन बनाकर पर्दें के पीछे उसे अंजाम दे रहा हो और सामने चुनाव मंे विजीत होकर मंत्री बन बैठा हो यह कल्पना किसी को नहीं थी। अगर साव सामने आया है तो साफ है कि वह अकेले नहीं होगा। चूंकि पुराने नक्सलवाद के नये रुप नव माओवाद का विस्तार एक साथ कई राज्यों में है, इसलिए इस दृष्टिकोण से अब इसे देखे जाने की जरुरत है। अगर नीति-निर्माताओं के बीच ही माओवादी बैठे हैं तो फिर सुरक्षा बलों को विजय कहां से मिलेगी। वे तो बलि चढेंगे, क्योंकि इनके लोग हर कार्रवाई की सूचना दे देंगे।

अभी इस घटना के एक दिन पहले झारखंड के  ही लोहरदगा जिले से गिरफ्तार नाबालिग लड़क ने पुलिस के सामने स्वीकार किया कि माओवादी नेता दीपक कुमार खेरवार से उसके अंतरंग संबंध रहे हैं। लड़की के मुताबिक दीपक उसे हर माह पांच हजार रुपए देता है, जिसके बदले वह हर वक्त बुलाए गए स्थान पर मिलने के लिए जाती है और अन्य सहयोगियों से तालमेल कर शीर्ष माओवादियों तक सूचनाएं पहुंचाती है। उसके साथ दो और गिरफ्तार हुए। पुलिस के अनुसार ये माओवादियों के शीर्ष से संपर्क में रहते थे और जिला मुख्यालय से लेकर अन्य जगहों से पुलिस गतिविधियों की हर सूचना उन्हें देते थे। जरा देखिए ये कैसे काम करते हैं। पुलिस 28 सितंबर को चौनपुर गांव में कैंप लगाने पहुंची। उसे आश्चर्य हुआ जिन ग्रामीणों की ओर से इसकी मांग की गई थी उसी की ओर से इसका विरोध हो रहा है और सामने महिलायें व बच्चे ज्यादा हैं।  विरोध की छानबीन से खुलासा हुआ कि माओवादियों ने सहयोगियों के माध्यम से ग्रामीणों को विरोध के लिए बाध्य किया था। वहां के पुलिस अधीक्षक का कहना है कि किस पुलिस वाहन में पेट्रोल भराया जा रहा है इसकी भी सूचना माओवादियों तक पहुंच रही है। चौनपुर में कैंप लगने की बात दो दिन पहले ही माओवादियों तक पहुंच गई थी जबकि इसे गोपनीय रखने की बात कही गई थी।
तो एक ओर नेता माओवादी और दूसरी ओर सामान्य गांव की लड़की तक उनके सूचना सूत्र .....ऐसे में इस नव माओवाद के खतरे से लड़ना कितना कठिन है इसका अनुमान हम सहज लगा सकते हैं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

मोदी की अमेरिका यात्रा को सफल मानना ही होगा

अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक साथ होेने की जितनी भी तस्वीरें या विजुअल्स हैं उनमें प्रत्येक में स्वाभाविक गर्मजोशी, आपसी बातचीत की सहजता तथा एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव देखा जा सकता है। कूटनीति में चेहरे के हाव भाव सब कुछ बयान कर देते हैं। सच कहें तो पांच दिनों के अमेरिकी प्रवास, जिनमें दो दिनों की अमेरिका की राजकीय यात्रा शामिल थी, में ऐसा कोई क्षण नहीं होगा जिसे हम यह कह सकें कि यह ठीक नहीं था। प्रधानमंत्री का पूरा कार्यक्रम जितना सोचा गया होगा उससे कई मायनों में बेहतर ही हुआ। न्यूयॉर्क हवाई अड्डे पर उतरने से लेकर संयुक्त राष्ट्संघ का भाषण, युवाओं के कर्न्स्ट में भाषण, मेडिसन स्क्वायर का सबसे प्रचारित और प्रभावी कार्यक्रम....नेताओं और प्रमुख कारोबारियों से मुलाकात......सब एकदम सहज सामान्य रुप से पूरे होते गए। प्रवासी भारतीयों में जिस तरह का उत्साह देखा गया वैसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। उनलोंगों ने जहां जहां मोदी गए एक प्रकार के उत्सव जैसे माहौल में परिणत कर दिया। निश्चय ही इसका असर अमेरिकी नागरिकों, वहां के रणनीतिकारों पर पड़ा होगा। आप अपने लोगों के बीच कितने लोकप्रिय हैं, वे आपको लेकर कितने उत्साहित हैं, इसका मनोवैज्ञानिक असर कूटनीति और द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ता ही है।
यहां हम मुख्यतया प्रधानमंत्री की अधिकृत दो दिवसीय अमेरिका की राजकीय यात्रा पर केन्द्रित करेंगे। शुरुआत करते हैं मार्टिन लूथर किंग जूनियर के स्मारक पर मोदी एवं ओबामा के एक साथ जाने से। वह एक असाधारण और अस्वाभाविक दृश्य था। दोनों के बीच जिस तरह सामान्य बातचीत देखी गई वह उत्साहवर्धक था। अमेरिकी राष्ट्पति ओबामा का स्वयं मोदी के साथ वहां तक जाना एवं उनके साथ अकेले समय बिताना असाधारण है। यह पहली बार हुआ कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने किसी भारतीय नेता को स्वयं एस्कोर्ट किया। दोनों जिस तरह बातचीत कर रहे थे उनके शरीर के हाव भाव एकदम सामान्य एवं हसंमुख चेहरे अपने आप बहुत कुछ संदेश दे रहे थे। लगता था कि दोनों के मानसिक वेब लेंथ मिल रहे हैं। साथ में कोई अनुवादक नहीं।  ओबामा ज्यादा से ज्यादा समय मोदी के साथ बिता रहे थे और खूब बातचीत कर रहे थे। ओबामा भी मुस्करा रहे थे, सामान्य थे, मोदी भी मुस्करा रहे थे सामान्य थे। मोदी उनसे पूछ रहे थे और ओबामा उन्हें जानकारियां दे रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि संबंधों के रास्ते जमी हुई बर्फ पिघली है। दोनांे नेताओं के बीच इस तरह का व्यवहार यह साबित करता है कि आगे भी उनके बीच संवाद होता रहेगा।
पूर्व कार्यक्रम के अनुसार मोदी को किंग के स्मारक पर सुबह आना था, लेकिन बाद में यह बदल गया। ओबामा ने ही हस्तक्षेप करके इसे बदलवाया ताकि वो भी रह सकें। ओबामा संबंधों पर पड़े हुए बर्फ पिघलाने में माहिर हैं और मोदी ने कूटनीति की ऐसी शैली विकसित की है, जिसमें पुरानी औपचारिकतायें, शब्दावलियां हाव-भाव सब बदल रहे हैै। ओबामा को बातचीत के बाद उन्हें लगा कि यह आदमी खरी-खरी मुद्दों पर बात करता है, इसलिए इसके साथ कार्य व्यवहार किया जा सकता है। दोनों नेताओं की संयुक्त पत्रकार वार्ता की यकीन मानिए पूरी दुनिया के सभी प्रमुख देशों को प्रतीक्षा रही होगी।  संयुक्त पत्रकार वार्ता बिल्कुल समानता का परिचय दे रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे विश्व की दो बड़ी शक्तियां आपसी द्विपक्षीय संबंधांे के साथ पूरी दुनिया की समस्याओं पर विचार कर रहीं हैं एवं एक दूसरे का सहयोग करने को तत्पर हैं। मोदी ने अपने बयान में दक्षिण एशिया से लेकर, एशिया प्रशांत, पश्चिम एशिया, अफ्रिका, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार, वैश्विक आतंकवाद एवं उसके विरुद्ध युद्ध, विश्व व्यापार संगठन...सहित सारे मुद्दों की चर्चा की। इस प्रकार की बातचीत दो महाशक्तियों के बीच होती थी। यानी ओबामा से बातचीत में मोदी ने जता दिया कि भारत अब अपने साथ-साथ फिर से वैश्विक सोच की ओर अग्रसर हो चुका है। अमेरिकी विश्लेषक टेलीविजन चैनल पर कह रहे हैं कि मोदी एक वरदानसंपन्न राजनेता हैं। वे कह रहे हैं कि मोदी ने अमेरिकी लोगों, यहां की मीडिया, अकादमिशियन, राजनयिक, नेताओं, कारोबारियों....सब पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।
लंबे समय बाद ऐसा हुआ है जब एक-एक विषय पर खुलकर बातचीत हुई। जो साझा वक्तव्य जारी हुआ, दोनों नेताओं ने अखबार यानी वाशिंगटन पोस्ट में संयुक्त लेख लिखने का जो ऐतिहासिक कार्य किया, और बाद में जो सुयक्त पत्रकार वार्ता हुई उन सबसे यह साफ हो गया कि संबंधों का पूरा रोड मैप यानी आगे का नक्शा तैयार हो चुका है, विन्दु सारे उतने स्पष्ट हो चुके हैं जो पहले नहीं थे और आगे इस पर काम करना है। यह गंभीर संबंधों के लिए बातचीत की गंभीरता को दर्शाता है। मोदी ने कहा कि  ओबामा से हुई बातचीत से विश्वास दृढ हो गया है कि दोनों देशाों के बीच सामरिक साझेदारी स्वाभाविक है जो हमारे हितों, साझा मूल्यों पर आधारित हैं। इसमें रक्षा संबंध, आतंकवाद, अफगानिस्तान, नागरिक नाभिकीय साझेदारी, व्यापार, विश्व व्यापार संगठन, जलवायु परिवर्तन....इबोला संकट.....आदि एक-एक पहलू पर बात हुई।
ओबामा ने अपनी चिंता जताई कि भारत से उनको कहां कहां समस्या है तो मोदी ने उसका संज्ञान लेते हुए उसे दूर करने का वचन दिया लेकिन साथ में अपनी चिंता भी जता दी। मसलन, ओबामा ने कहा कि हम भारत से व्यापार को आसान बनाने की उम्मीद करते हैं तथा विश्व व्यापार संगठन में रुख के बदलाव की भी तो मोदी ने कहा कि व्यापार को आसान करने पर हम सहमत हें, जो भी बाधा डालने वाले नियम कानून हैं उसे बदलेंगे, क्योंकि आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन अमेरिका को भी हमारी चिताओं को समझना होगा। तो कैान सी चिंता? हमारे यहां खाद्य सुरक्षा की समस्या का हल निकालना होगा, अन्यथा विश्व व्यापार संगठन में कृषि मुद्दे पर हम साथ नहीं दे पाएंगे। एकदम दो टूक कि आप खाद्य सुरक्षा की समस्या का हल कर दीजिए हम उसे स्वीकार करने को तैयार हैं। तो इस तरह गेंद अमेरिका के पाले में डाल दिया है। दूसरे, मोदी ने कहा कि अमेरिका भी ऐसे कदम उठाए जिससे हमारे देश की सेवा देने वाली कंपनियोें के लिए यहां काम करना आसान हो जाए।
मोदी ने लूक ईस्ट एवं लिंक वेस्ट को भारत की विदेश नीति का अभिन्न अंग बताकर यह संदेश दिया कि वह एशिया की ओर देखने की नीति पर चलने के साथ पश्चिम को जोड़ने या एशिया और पश्चिम के बीच पुल का काम करने की भूमिका निभाना चाहते हैं। हम जानते हैं कि मोदी का मुख्य मिशन निवेश के लिए अमेरिकी कंपनियों को आमंत्रित करना था, उन्होंने किया, रक्षा कंपनियों को भारत में आकर कारखाने लगाने का आमंत्रण दिया और उसके रास्ते की बाधाओं को खत्म करने का आश्वासन। वैसे भी मोदी अमेरिका जाने के पहले अपना मेक इन इंडिया कार्यक्रम का उद्घाटन करके गये थे ताकि निवेशकों को यह विश्वास हो कि भारत के व्यवहार में अब व्यवसाय आ गया है।
इन सबके परिणाम क्या होंगे यह आने वाले दिनों में ही पता चलेगा, लेकिन अमेरिकी कंपनियों की दिलचस्पी बढ़ी है यह साफ है। ध्यान रखिए कि अमेरिका आज भी हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। करीब 100 अरब डॉलर का व्यापार हमारा है और यह चीन से भारी घाटे के विपरीत भारत के पक्ष में हैं। अमेरिका को संदेह की दृष्टि से देखने वाले इस पक्ष की अनदेखी करते हैं। मोदी ने स्वयं विदेश नीति परिषद के भाषण में कहा कि व्यापार का जो मसला है वह लाभ हानि पर चलता है। आपको लाभ होगा आप व्यापार करेंगे, हमें लाभ दिखेगा तो हम करेंगे। यानी उनके दिमाग में यह बात साफ है कि कोई भी निवेशक यहां सेवा करने नहीं आएगा, वह व्यापार करने और मुनाफा कमाने आएगा, लेकिन हमारा हित उसी में है कि हमारे यहां रोजगार मिले, वस्तुओं का उत्पादन हो जिससे खजाने में कर बढ़े, बैंक गतिशील हों....यही तो बाजार पूंजीवाद में विकास का चक्र है।
वैसे रक्षा संबंधों को 10 वर्ष आगे बढ़ना स्वाभाविक था। आखिर 30 सितंबर को ही तो भारत अमेरिकी सैन्य अभ्यास खत्म हुआ। लेकिन इसमें मूल बात तकनीकों के हस्तातरण तथा रक्षा अभ्यास को और व्यापक करने का है। भारत की नीति अब रक्षा खरीद के साथ तकनीके लेना भी है जिससे अमेरिका बचता है। मोदी के साफ करने के बाद शायद अंतर आए। इसी तरह आतंकवाद के मामले पर हमने साथ देने का वायदा किया है, पर युद्ध में कूदने का नहीं, अफगानिस्तान में भी सुरक्षा से ज्यादा विकास केन्द्रित सहयोग की बात मोदी ने रखी जिसे अमेरिका ने स्वीकार किया है। यहां इन सबमें विस्तार से जाना संभव नहीं है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि नरेन्द्र मोदी की अमेरिकी कूटनीति, जापान, ब्रिक्स, नेपाल और भूटान की तरह ही सफल मानी जाएगी। ओबामा के सामने मोदी जब भी हैं एकदम आंखों में आखें मिलाते एवं मुस्कराते हुए। नेता की यह भंगिमा सामने वाले को प्रभावित करती है। जाहिर है, अमेरिका के साथ संबंधों में हम एक नए दौर की उम्मीद कर सकते हैं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
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